ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए साला 1 नामक कौशल ब्राह्मण गाँव में पहुँचे।
तब साल के ब्राह्मणों और (वैश्य) गृहस्थों ने सुना — “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्ज्यित हैं, वे विशाल भिक्षुसंघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए साला नामक कौशल ब्राह्मण गाँव में पहुँचे हैं। उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, गृहस्थों, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
तब साल गांव के ब्राह्मण और गृहस्थ भगवान के पास गए। जाकर कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे उन साल गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थों से भगवान ने कहा —
“गृहस्थों, क्या तुम्हारे कोई मनपसंद शास्ता (=गुरु) है, जिस पर तुम्हें श्रद्धा जड़ी हो?”
“नहीं ,भन्ते। हमारे कोई मनपसंद शास्ता नहीं हैं, जिस पर हमें श्रद्धा जड़ी हैं।”
“चूँकि, गृहस्थों, तुम्हारे कोई मनपसंद शास्ता नहीं है, तब तुम्हें ‘सुरक्षित दाँव’ की शिक्षा को आत्मसात करना चाहिए। ‘सुरक्षित-दाँव’ की शिक्षा को आत्मसात करना, गृहस्थों, तुम्हारे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखदायी होगा। गृहस्थों, क्या है ‘सुरक्षित दाँव’ की शिक्षा?
गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘दान (का फ़ल) नहीं है। यज्ञ (=चढ़ावा) नहीं है। आहुति (=बलिदान) नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते (“ओपपातिक”) सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ 2
जबकि दूसरी ओर, गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘दान होता है; चढ़ावा होता है; आहुति होती है। अच्छे या बुरे कर्मों के फल-परिणाम होते हैं। लोक होता है; परलोक होता है। माता होती है; पिता होते है। स्वयं से उत्पन्न सत्व होते हैं। और ऐसे श्रमण-ब्राह्मण होते हैं, जो सम्यक-साधना कर, सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर, लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थों? ‘ये श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी बात करते हैं’?"
“हाँ, भंते।”
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘दान नहीं है। यज्ञ नहीं है। आहुति नहीं है…’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता नहीं दिखती, न ही कुशल धर्मों में निष्काम (“नेक्खम्म” =काम परित्याग) के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘परलोक नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या दृष्टी है। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘परलोक नहीं होता’ — वह उनका मिथ्या संकल्प है। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘परलोक नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या वाणी है।
हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘परलोक नहीं होता’ — उसे परलोक-अनुभवी अरहंतों का विरोधी बनाती है। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘परलोक नहीं होता’ — वह असत्-धर्म समझाता है। और ऐसा असत्-धर्म समझाते हुए स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले अच्छा नैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर बुरा अनैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, मिथ्या दृष्टी, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, आर्यजनों का विरोधी बनना, असत्-धर्म समझाना, स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन मानना। ऐसा अनेक प्रकार के पाप अकुशल धर्म मिथ्या दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि परलोक न हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सुरक्षित है। किन्तु, यदि परलोक (वाकई) हो, तो यह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजेगा।
किन्तु, भले ही परलोक की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग भर्त्सना करते हैं — ‘वह मिथ्या दृष्टि वाला, नास्तिकवादी (=नकारात्मक दृष्टि वाला), दुष्शील (=अनैतिक आचरण वाला) व्यक्ति है!’
किन्तु, यदि परलोक वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव हारता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को गलत धारण करने पर एक ही पक्ष सुरक्षित रहता है, किन्तु कुशल अवस्था छूट जाती है।
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘दान होता है; चढ़ावा होता है; आहुति होती है। अच्छे या बुरे कर्मों के फल-परिणाम होते हैं…’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता दिखायी देती हैं, और कुशल धर्मों में निष्काम के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘परलोक है’ — वह उनकी सम्यक दृष्टी है। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘परलोक है’ — वह उनका सम्यक संकल्प है। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘परलोक है’ — वह उनकी सम्यक वाणी है।
हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘परलोक है’ — उसे परलोक-अनुभवी अरहंतों का विरोधी नहीं बनाती। हालांकि वाकई परलोक है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘परलोक है’ — वह सद्धर्म समझाता है। और ऐसा सद्धर्म समझाते हुए वह न स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, न दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले बुरा अनैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर भला नैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, आर्यजनों का विरोधी न बनना, सद्धर्म समझाना, न स्वयं को श्रेष्ठ मानना, न दूसरे को हीन। ऐसे अनेक प्रकार के कुशल धर्म सम्यक दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि परलोक हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजेगा।
किन्तु, भले ही परलोक की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग प्रशंसा करते हैं — ‘वह सम्यक दृष्टि वाला, आस्तिकवादी (सकारात्मक दृष्टि वाला), शीलवान व्यक्ति है!’
और, यदि परलोक वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव जीतता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को अच्छे से धारण करने पर दोनों ही पक्ष सुरक्षित रहते हैं, और अकुशल अवस्था छूट जाती है।
गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘(दुष्कर्म) करने में या (किसी अन्य के द्वारा) कराने में, (किसी को) काटने में या कटाने में, यातना देने में या दिलाने में, शोक देने में या दिलाने में, पीड़ा देने में या दिलाने में, भयभीत करने या कराने में, हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में कोई पाप नहीं होता। यदि कोई इस धरातल के तमाम जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के दाँए तट पर जीवों को मारते-मरवाते, काटते-कटवाते, यातना और प्रताड़ना देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के बाएँ तट पर जीवों को दान देते-दिलवाते, बलिदान देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पुण्य नहीं होगा, उसका कभी भला परिणाम नहीं आएगा। दान से, (स्वयं पर) काबू पाने से, (इंद्रिय) संयम से, सत्यवाणी से पुण्य नहीं होता है, उसका कभी भला परिणाम नहीं आता है।’3
जबकि दूसरी ओर, गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘(दुष्कर्म) करने में या (किसी अन्य के द्वारा) कराने में, (किसी को) काटने में या कटाने में, यातना देने में या दिलाने में, शोक देने में या दिलाने में, पीड़ा देने में या दिलाने में, भयभीत करने या कराने में, हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में पाप होता है। यदि कोई इस धरातल के तमाम जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे, तो वह घोर पाप होगा और उसका बुरा परिणाम आएगा। यदि कोई गंगा नदी के दाँए तट पर जीवों को मारते-मरवाते, काटते-कटवाते, यातना और प्रताड़ना देते-दिलवाते जाए, तो वह घोर पाप होगा और उसका बुरा परिणाम आएगा। यदि कोई गंगा नदी के बाएँ तट पर जीवों को दान देते-दिलवाते, बलिदान देते-दिलवाते जाए, तो वह बड़ा पुण्य होगा और उसका भला परिणाम आएगा। दान से, (स्वयं पर) काबू पाने से, (इंद्रिय) संयम से, सत्यवाणी से पुण्य होता है, और उसका भला परिणाम आता है।’
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थों? ‘ये श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी बात करते हैं’?”
“हाँ, भंते।”
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘करने में या कराने में, काटने में या कटाने में… कोई पाप नहीं होता’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता नहीं दिखती, न ही कुशल धर्मों में निष्काम के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई कर्म (का प्रतिफल) है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘कर्म नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या दृष्टी है। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘कर्म नहीं होता’ — वह उनका मिथ्या संकल्प है। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘कर्म नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या वाणी है।
हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘कर्म नहीं होता’ — उसे क्रियावादी अरहंतों का विरोधी बनाती है। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘कर्म नहीं होता’ — वह असत्-धर्म समझाता है। और ऐसा असत्-धर्म समझाते हुए स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले अच्छा नैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर बुरा अनैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, मिथ्या दृष्टी, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, आर्यजनों का विरोधी बनना, असत्-धर्म समझाना, स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन मानना। ऐसा अनेक प्रकार के पाप अकुशल धर्म मिथ्या दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि कर्म न हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सुरक्षित है। किन्तु, यदि कर्म (वाकई) हो, तो यह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजेगा।
किन्तु, भले ही कर्म की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग भर्त्सना करते हैं — ‘वह मिथ्या दृष्टि वाला, अक्रियावादी (=कर्म न मानने वाला), दुष्शील व्यक्ति है!’
किन्तु, यदि कर्म वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव हारता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को गलत धारण करने पर एक ही पक्ष सुरक्षित रहता है, किन्तु कुशल अवस्था छूट जाती है।
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘करने में या कराने में, काटने में या कटाने में… घोर पाप होता है…’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता दिखायी देती हैं, और कुशल धर्मों में निष्काम के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘कर्म होता है’ — वह उनकी सम्यक दृष्टी है। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘कर्म होता है’ — वह उनका सम्यक संकल्प है। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘कर्म होता है’ — वह उनकी सम्यक वाणी है।
हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘कर्म होता है’ — उसे क्रियावादी अरहंतों का विरोधी नहीं बनाती। हालांकि वाकई कर्म है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘कर्म होता है’ — वह सद्धर्म समझाता है। और ऐसा सद्धर्म समझाते हुए वह न स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, न दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले बुरा अनैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर भला नैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, आर्यजनों का विरोधी न बनना, सद्धर्म समझाना, न स्वयं को श्रेष्ठ मानना, न दूसरे को हीन। ऐसे अनेक प्रकार के कुशल धर्म सम्यक दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि कर्म हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजेगा।
किन्तु, भले ही कर्म की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग प्रशंसा करते हैं — ‘वह सम्यक दृष्टि वाला, क्रियावादी (कर्म का प्रतिफल मानने वाला), शीलवान व्यक्ति है!’
और, यदि कर्म वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव जीतता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को अच्छे से धारण करने पर दोनों ही पक्ष सुरक्षित रहते हैं, और अकुशल अवस्था छूट जाती है।
गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘सत्वों की मलिनता (“किलेस”) का कोई कारण (“हेतु”) नहीं है, कोई आवश्यक परिस्थिति (“पच्चय”) नहीं है। अकारण, बिनाशर्त के सत्व मलिन हो जाते हैं। अकारण, बिनाशर्त के सत्व शुद्ध भी हो जाते हैं। (आत्म) बल नहीं होता, मेहनत (वीर्य) नहीं होती, पुरुष का दम नहीं होता, पुरुष की उद्यमता नहीं होती। बल्कि सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी अस्तित्व पाएँ जीव बेबस हैं, अबला हैं, बेअसर हैं, जो मात्र संयोग, भाग्य और प्रकृति के कारण छह जातियों में उत्पन्न होकर सुख-दुःख भोगते हैं। 4
जबकि दूसरी ओर, गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘सत्वों की मलिनता का कारण होता है, परिस्थिति होती है। कारण और परिस्थिति से सत्व मलिन होते हैं। कारण और परिस्थिति से सत्व शुद्ध होते हैं। (आत्म) बल होता है, मेहनत (वीर्य) होती है, पुरुष का दम होता है, पुरुष की उद्यमता होती है। ऐसा नहीं है कि सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी अस्तित्व पाएँ जीव बेबस हैं, अबला हैं, बेअसर हैं, जो मात्र संयोग, भाग्य और प्रकृति के कारण छह जातियों में उत्पन्न होकर सुख-दुःख भोगते हैं।’
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थों? ‘ये श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी बात करते हैं’?”
“हाँ, भंते।”
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘सत्वों की मलिनता का कोई कारण नहीं है, कोई परिस्थिति नहीं है…’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता नहीं दिखती, न ही कुशल धर्मों में निष्काम के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई कार्य-कारण (संबंध) है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘कार्य-कारण नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या दृष्टी है। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘कार्य-कारण नहीं होता’ — वह उनका मिथ्या संकल्प है। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘कार्य-कारण नहीं होता’ — वह उनकी मिथ्या वाणी है।
हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘कार्य-कारण नहीं होता’ — उसे कार्य-कारणवादी अरहंतों का विरोधी बनाती है। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘कार्य-कारण नहीं होता’ — वह असत्-धर्म समझाता है। और ऐसा असत्-धर्म समझाते हुए स्वयं को श्रेष्ठ मानता है और दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले अच्छा नैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर बुरा अनैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, मिथ्या दृष्टी, मिथ्या संकल्प, मिथ्या वाणी, आर्यजनों का विरोधी बनना, असत्-धर्म समझाना, स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरे को हीन मानना। ऐसा अनेक प्रकार के पाप अकुशल धर्म मिथ्या दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि कार्य-कारण न हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सुरक्षित है। किन्तु, यदि कार्य-कारण (वाकई) हो, तो यह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजेगा।
किन्तु, भले ही कार्य-कारण की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग भर्त्सना करते हैं — ‘वह मिथ्या दृष्टि वाला, कार्य-कारण न मानने वाला, दुष्शील व्यक्ति है!’
किन्तु, यदि कार्य-कारण वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव हारता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को गलत धारण करने पर एक ही पक्ष सुरक्षित रहता है, किन्तु कुशल अवस्था छूट जाती है।
“तब, गृहस्थों, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘सत्वों की मलिनता का कारण होता है, परिस्थिति होती है…’ उनसे अपेक्षा है कि जो शारीरिक दुराचार हैं, शाब्दिक दुराचार हैं, मानसिक दुराचार हैं, वे उन अकुशल धर्मों को खत्म कर जो शारीरिक सदाचार हैं, शाब्दिक सदाचार हैं, मानसिक सदाचार हैं, वे उन कुशल धर्मों को आत्मसात कर वर्तन करेंगे।
ऐसा क्यों? क्योंकि उन श्रमण-ब्राह्मणों को अकुशल धर्मों में खामी, बुराई या दूषितता दिखायी देती हैं, और कुशल धर्मों में निष्काम के पुरस्कार और निर्मल पक्ष दिखता है।
हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जिनकी दृष्टि हैं कि ‘कार्य-कारण होता है’ — वह उनकी सम्यक दृष्टी है। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो ठान लेते हैं कि ‘कार्य-कारण होता है’ — वह उनका सम्यक संकल्प है। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो कहते हैं कि ‘कार्य-कारण होता है’ — वह उनकी सम्यक वाणी है।
हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए ऐसा कहना कि ‘कार्य-कारण होता है’ — उसे कार्य-कारणवादी अरहंतों का विरोधी नहीं बनाती। हालांकि वाकई कार्य-कारण है, इसलिए जो दूसरों को समझाता है कि ‘कार्य-कारण होता है’ — वह सद्धर्म समझाता है। और ऐसा सद्धर्म समझाते हुए वह न स्वयं को श्रेष्ठ मानता है, न दूसरे को हीन।
इस तरह, उसकी जो पहले बुरा अनैतिक स्वभाव हो, वह छूटकर भला नैतिक स्वभाव स्थापित होता है — जैसे, सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, आर्यजनों का विरोधी न बनना, सद्धर्म समझाना, न स्वयं को श्रेष्ठ मानना, न दूसरे को हीन। ऐसे अनेक प्रकार के कुशल धर्म सम्यक दृष्टी के आधार पर प्रकट होते हैं।
तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘यदि कार्य-कारण हो, तो वह व्यक्ति मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजेगा।
किन्तु, भले ही कार्य-कारण की बात छोड़ दें, और श्रमण-ब्राह्मणों के वचन सत्य न हो — तब भी इसी जीवन में उस व्यक्ति की समझदार लोग प्रशंसा करते हैं — ‘वह सम्यक दृष्टि वाला, कार्य-कारण मानने वाला, शीलवान व्यक्ति है!’
और, यदि कार्य-कारण वाकई हो, तब वह व्यक्ति दोनों दाँव जीतता है —
इस तरह, सुरक्षित दाँव की शिक्षा को अच्छे से धारण करने पर दोनों ही पक्ष सुरक्षित रहते हैं, और अकुशल अवस्था छूट जाती है।
गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई अरूप अवस्था नहीं होती।’
जबकि दूसरी ओर, गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘अरूप अवस्था होती है।’
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थों? ‘ये श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी बात करते हैं’?”
“हाँ, भंते।”
“तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई अरूप अवस्था नहीं होती’, तो उसे मैंने नहीं देखा। और जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘अरूप अवस्था होती है’, तो उसे मैं नहीं जानता।
किन्तु, यदि मैं बिना देखे, बिना जाने, किसी एक का पक्ष लेकर घोषणा करूँ कि — ‘बस यही एक सच है, बाकी फालतू है’, तो वह मेरे लिए उचित नहीं होगा।
जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई अरूप अवस्था नहीं होती’, यदि उन श्रमण-ब्राह्मणों की बात सच हो, तो सुरक्षित दाँव की शिक्षा से संभव है कि मैं रूपवान मनोमय देवताओं में जन्म ले सकता हूँ।
और, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘अरूप अवस्था होती है’, यदि उन श्रमण-ब्राह्मणों की बात सच हो, तो सुरक्षित दाँव की शिक्षा से संभव है कि मैं अरूप संज्ञामय (=बोधगम्य) देवताओं में जन्म ले सकता हूँ।
हालाँकि, रूपता (=भौतिकता) के कारण (दुनिया में बुराई) दिखती हैं — जैसे डंडे उठाना, शस्त्र उठाना, कलह, झगड़े, विवाद, कलह, आरोप, प्रत्यारोप, फूट डालने वाली बातें, झूठी बातें इत्यादि। ये सब अरूप अवस्था में नहीं होता।’ इस तरह, चिंतन-मनन कर वह रूपता के प्रति मोहभंग, विराग, निरोध की साधना करता है।
गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई भव निरोध नहीं होता।’
जबकि दूसरी ओर, गृहस्थों, कुछ श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘पूरी तरह भव निरोध होता है।’
तुम्हें क्या लगता है, गृहस्थों? ‘ये श्रमण और ब्राह्मण परस्पर विरोधी बात करते हैं’?”
“हाँ, भंते।”
“तब, गृहस्थों, समझदार पुरुष चिंतन-मनन करता है — ‘जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई भव निरोध नहीं होता’, तो उसे मैंने नहीं देखा। और जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘पूरी तरह भव निरोध होता है’, तो उसे मैं नहीं जानता।
किन्तु, यदि मैं बिना देखे, बिना जाने, किसी एक का पक्ष लेकर घोषणा करूँ कि — ‘बस यही एक सच है, बाकी फालतू है’, तो वह मेरे लिए उचित नहीं होगा।
जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई भव निरोध नहीं होता’, यदि उन श्रमण-ब्राह्मणों की बात सच हो, तो सुरक्षित दाँव की शिक्षा से संभव है कि मैं अरूप संज्ञामय देवताओं में जन्म ले सकता हूँ।
और, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘पूरी तरह भव निरोध होता है’, यदि उन श्रमण-ब्राह्मणों की बात सच हो, तो सुरक्षित दाँव की शिक्षा से संभव है कि मैं इसी जीवन में परिनिर्वृत हो सकता हूँ।
हालांकि, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘कोई भव निरोध नहीं होता’, वह दृष्टि राग (दिलचस्पी) से जुड़ती है, बंधन से जुड़ती है, मजे के साथ जुड़ती है, चिपकाव से जुड़ती है, आसक्ति से जुड़ती है।
जबकि, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘पूरी तरह भव निरोध होता है’, वह दृष्टि विराग से जुड़ती है, निर्बंधन से जुड़ती है, अस्वीकार से जुड़ती है, अलगाव से जुड़ती है, अनासक्ति से जुड़ती है।’ इस तरह, चिंतन-मनन कर वह भव के प्रति मोहभंग, विराग, निरोध की साधना करता है।
गृहस्थों, इस दुनिया में चार तरह के लोग पाए जाते हैं। 5 कौन से चार?
“गृहस्थों, किस तरह के व्यक्ति स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
गृहस्थों, कोई निर्वस्त्र रहते हैं, (सामाजिक आचरण से) मुक्त रहते हैं, हाथ चाटते हैं, बुलाने पर नहीं जाते हैं, रोकने पर नहीं रुकते हैं, अपने लिए लायी भिक्षा को नहीं लेते हैं, अपने लिए पकाये भोज को नहीं लेते हैं, निमंत्रण भोज पर नहीं जाते हैं। (भोजन पकाये) हाँडी से भिक्षा नहीं लेते हैं, (भोजन पकाये) बर्तन से भिक्षा नहीं लेते हैं, द्वार के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, डंडे के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं, मूसल के अंतराल से भिक्षा नहीं लेते हैं।
और, गृहस्थों, वे दो भोजन साथ करने वालों से भिक्षा नहीं लेते हैं, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा नहीं लेते हैं, संग्रहीत किए भिक्षा को नहीं लेते हैं, कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा नहीं लेते हैं, माँस नहीं लेते हैं, मछली नहीं लेते हैं, कच्ची शराब नहीं लेते हैं, पक्की शराब नहीं लेते हैं, चावल की शराब नहीं पीते हैं।
और, गृहस्थों, वे भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेते हैं, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेते हैं… अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेते हैं। केवल एक ही कलछी पर यापन करते हैं, अथवा दो कलछी पर यापन करते हैं… अथवा सात कलछी पर यापन करते हैं। दिन में एक बार आहार लेते हैं, दो दिनों में एक बार आहार लेते हैं… एक सप्ताह में एक बार आहार लेते हैं। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करते हैं।
और, गृहस्थों, वे (केवल) साग खाकर रहते हैं, जंगली बाजरा खाकर रहते हैं, लाल चावल खाकर रहते हैं, चमड़े के टुकड़े खाकर रहते हैं, शैवाल (=जल के पौधे) खाकर रहते हैं, कणिक (=टूटा चावल) खाकर रहते हैं, काँजी (=उबले चावल का पानी) पीकर रहते हैं, तिल खाकर रहते हैं, घास खाकर रहते हैं, गोबर खाकर रहते हैं, जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करते हैं।
और, गृहस्थों, वे (केवल) सन के रूखे वस्त्र पहनते हैं, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनते हैं, फेंके लाश के वस्त्र पहनते हैं, चिथड़े सिला वस्त्र पहनते हैं, लोध्र के वस्त्र पहनते हैं, हिरण-खाल पूर्ण पहनते हैं, हिरण-खाल के टुकड़े पहनते हैं, कुशघास के वस्त्र पहनते हैं, वृक्षछाल के वस्त्र पहनते हैं, लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनते हैं, (मनुष्य के) केश का कंबल पहनते हैं, घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनते हैं, उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनते हैं।
और, गृहस्थों, वे सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालते हैं, बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं। बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहते हैं, उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठते हैं, काँटों की चटाई पर लेटते हैं और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाते हैं, सदा तख़्ते पर सोते हैं, सदा जमीन पर सोते हैं, सदा एक ही करवट सोते हैं, शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहते हैं, सदा खुले आकाश के तले रहते हैं, जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोते हैं, गंदगी खाते हैं और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, कभी पानी नहीं पीते हैं और पानी नहीं पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं, शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोते हैं, और तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहते हैं।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, गृहस्थों, कि वे स्वयं को पीड़ित करते हैं और आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, गृहस्थों, किस तरह के व्यक्ति दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
गृहस्थों, कोई व्यक्ति कसाई होता है, बकरी-कसाई होता है, सुवर-कसाई होता है, मुर्गी-कसाई होता है, शिकारी होता है, मछुआरा होता है, लुटेरा होता है, जल्लाद होता है, गाय-कसाई होता है, कारावास-कर्ता (=जेलर) होता है, या ऐसा ही कोई अन्य क्रूर कार्य (=जीविका) करने वाला होता है।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, गृहस्थों, कि वे दूसरे को पीड़ित करते हैं और परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, गृहस्थों, किस तरह के व्यक्ति स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं?
गृहस्थों, कोई व्यक्ति राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा होता है, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मण होता है। वह नगर के पूर्व दिशा में सभागृह बनवाता है, और सिर-दाढ़ी मुंडन कर, हिरण का खुरदुरा चमड़ा ओढ़ कर, शरीर पर घी और तेल से मालिश कर, मृग के सिंग से पीठ खुजाते हुए, नए सभागृह में महारानी, ब्राह्मण पुरोहितों के साथ प्रवेश करता है। वहाँ वह घास और पत्तियाँ बिछायी हुई भूमि पर लेट जाता है।
तब समान रंग के बछड़े वाली गाय के एक थन से राजा दूध पीते हुए यापन करता है। उसके दूसरे थन से महारानी दूध पीते हुए यापन करती है। उसके तीसरे थन से ब्राह्मण पुरोहित दूध पीते हुए यापन करते हैं। उसके चौथे थन के दूध को अग्नि ज्वालाओं को दिया जाता है। बचे हुआ दूध पर बछड़ा यापन करता है।
वह कहता है, “इस यज्ञ के लिए इतने वृषभ (तगड़े बैल) की बलि दी जाएँ… इतने (तरुण) बैलों की बलि दी जाएँ… इतने (नन्हें) बछड़ों की बलि दी जाएँ… इतने बकरियों की बलि दी जाएँ… इतने भेड़ों की बलि दी जाएँ… इतने घोड़ों की बलि दी जाएँ। यज्ञ स्तंभ के लिए इतने वृक्ष काटे जाएँ। यज्ञ में चढ़ाने के लिए इतनी घास काटी जाएँ।” तब जो उसके दास होते हैं, नौकर होते हैं, कर्मचारी होते हैं, वे दंड के खतरे से, भय के मारे, अश्रुपूर्ण मुख से रोते हुए उस कार्य को अंजाम देते हैं।
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, गृहस्थों, कि स्वयं को पीड़ित करते हैं, आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं।
आगे, गृहस्थों, किस तरह के व्यक्ति न स्वयं को पीड़ित करते हैं, न आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और न ही दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, न परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, जो इस जीवन में न आत्मपीड़न कर, न परउत्पीड़न कर, शीतल हो चुके, ब्रह्म हो चुके, इच्छारहित और निर्वृत आत्म से सुख की अनुभूति करते हुए विहार करते हैं?
यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, गृहस्थों, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’
फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।
• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।
इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।
(१) तब, गृहस्थों, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
(२) आगे, गृहस्थों, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
(३) आगे, गृहस्थों, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
(४) आगे, गृहस्थों, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
आगे, गृहस्थों, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
आगे, गृहस्थों, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
आगे, गृहस्थों, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।
इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
इस तरह के व्यक्ति को कहते हैं, गृहस्थों, कि वे न स्वयं को पीड़ित करते हैं, न आत्मपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं, और न ही दूसरे को उत्पीड़ित करते हैं, न परपीड़ा के लिए प्रतिबद्ध होते हैं। वे इस जीवन में न आत्मपीड़न कर, न परउत्पीड़न कर, शीतल हो चुके, ब्रह्म हो चुके, इच्छारहित और निर्वृत आत्म से सुख की अनुभूति करते हुए विहार करते हैं।”
जब ऐसा कहा गया, तब साला गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थ कह पड़े, “अतिउत्तम, श्रीमान गौतम! अतिउत्तम, श्रीमान गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गौतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया।
हम गुरु गोतम की शरण जाते हैं! धर्म और संघ की! गुरु गोतम हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
यह गाँव संभवतः उस शालग्राम से जुड़ा हो सकता है जो बाद के समय में गंडकी नदी से प्राप्त होने वाली शालग्राम शिलाओं के कारण प्रसिद्ध हुआ—ये प्राकृतिक अमोनाइट पत्थर भगवान विष्णु के अनाकार रूप में पूजे जाते हैं। यद्यपि वर्तमान शालग्राम स्थल उत्तर-पूर्व में बहुत दूर है, फिर भी कोशल राज्य की प्राचीन सीमाएँ स्पष्ट न होने के कारण इस संबंध को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। पालि में इसके स्त्रीलिंग रूप से यह संकेत मिलता है कि नाम का अर्थ “सभा भवन” या “धर्मशाला” रहा होगा, जबकि संस्कृत परंपरा इसे हिमालयी तराई में पाए जाने वाले शाल वृक्षों से जोड़ती है। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी नास्तिकवादी या उच्छेदवादी दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, अजित केशकम्बल की थी। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी अक्रियावादी दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, पूरण कश्यप की थी। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी कार्य-कारण संबंध न मानने की दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, मक्खलि गोषाल की थी। इस दृष्टि का अर्थ है कि मुक्ति के लिए प्रयास करना सार्थक नहीं है। बल्कि, मुक्ति की कोई संभावना ही नहीं है। जो होगा, अपने आप होगा। ↩︎
चार प्रकार के व्यक्तियों का विस्तार मज्झिमनिकाय ५१ में भी किया गया है। ↩︎
९२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन साला नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि. अस्सोसुं खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका – ‘‘समणो खलु भो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं सालं अनुप्पत्तो. तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति. साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति. अथ खो सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. अप्पेकच्चे भगवतो सन्तिके नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु.
९३. एकमन्तं निसिन्ने खो सालेय्यके ब्राह्मणगहपतिके भगवा एतदवोच – ‘‘अत्थि पन वो, गहपतयो, कोचि मनापो सत्था यस्मिं वो आकारवती सद्धा पटिलद्धा’’ति? ‘‘नत्थि खो नो, भन्ते, कोचि मनापो सत्था यस्मिं नो आकारवती सद्धा पटिलद्धा’’ति. ‘‘मनापं वो, गहपतयो, सत्थारं अलभन्तेहि अयं अपण्णको धम्मो समादाय वत्तितब्बो. अपण्णको हि, गहपतयो, धम्मो समत्तो समादिन्नो, सो वो भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाय. कतमो च, गहपतयो, अपण्णको धम्मो’’?
९४. ‘‘सन्ति , गहपतयो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि दिन्नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं; नत्थि सुकतदुक्कटानं [सुकटदुक्कटानं (सी. स्या. कं. पी.)] कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परो लोको; नत्थि माता, नत्थि पिता; नत्थि सत्ता ओपपातिका; नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता [समग्गता (क.)] सम्मा पटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति. तेसंयेव खो, गहपतयो, समणब्राह्मणानं एके समणब्राह्मणा उजुविपच्चनीकवादा. ते एवमाहंसु – ‘अत्थि दिन्नं, अत्थि यिट्ठं, अत्थि हुतं; अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको; अत्थि अयं लोको, अत्थि परो लोको; अत्थि माता, अत्थि पिता; अत्थि सत्ता ओपपातिका; अत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मा पटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति. तं किं मञ्ञथ, गहपतयो – ‘ननुमे समणब्राह्मणा अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा’’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’.
९५. ‘‘तत्र, गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि दिन्नं, नत्थि यिट्ठं…पे… ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं [यदिदं (क.)] कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा [अभिनिब्बज्जेत्वा (स्या. कं.), अभिनिब्बिज्जित्वा (क.)] यमिदं [यदिदं (क.)] कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? न हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा पस्सन्ति अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव पन परं लोकं ‘नत्थि परो लोको’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति मिच्छादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘नत्थि परो लोको’ति सङ्कप्पेति; स्वास्स होति मिच्छासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘नत्थि परो लोको’ति वाचं भासति; सास्स होति मिच्छावाचा. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘नत्थि परो लोको’ति आह; ये ते अरहन्तो परलोकविदुनो तेसमयं पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘नत्थि परो लोको’ति परं सञ्ञापेति [पञ्ञापेति (क.)]; सास्स होति असद्धम्मसञ्ञत्ति [अस्सद्धम्मपञ्ञत्ति (क.)]. ताय च पन असद्धम्मसञ्ञत्तिया अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स सुसील्यं पहीनं होति, दुस्सील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च मिच्छादिट्ठि मिच्छासङ्कप्पो मिच्छावाचा अरियानं पच्चनीकता असद्धम्मसञ्ञत्ति अत्तुक्कंसना परवम्भना. एवमस्सिमे [एवं’सि’मे’ (सी. स्या. कं. पी.)] अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति मिच्छादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र , गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो नत्थि परो लोको एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा सोत्थिमत्तानं करिस्सति; सचे खो अत्थि परो लोको एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु परो लोको, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो – दुस्सीलो पुरिसपुग्गलो मिच्छादिट्ठि नत्थिकवादो’ति. सचे खो अत्थेव परो लोको, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कलिग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो दुस्समत्तो समादिन्नो, एकंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति कुसलं ठानं.
९६. ‘‘तत्र , गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि दिन्नं…पे… ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ती’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा यमिदं कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? पस्सन्ति हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘अत्थि परो लोको’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति सम्मादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘अत्थि परो लोको’ति सङ्कप्पेति; स्वास्स होति सम्मासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘अत्थि परो लोको’ति वाचं भासति; सास्स होति सम्मावाचा. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘अत्थि परो लोको’ति आह; ये ते अरहन्तो परलोकविदुनो तेसमयं न पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन परं लोकं ‘अत्थि परो लोको’ति परं सञ्ञापेति; सास्स होति सद्धम्मसञ्ञत्ति. ताय च पन सद्धम्मसञ्ञत्तिया नेवत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स दुस्सील्यं पहीनं होति, सुसील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा अरियानं अपच्चनीकता सद्धम्मसञ्ञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना. एवमस्सिमे अनेके कुसला धम्मा सम्भवन्ति सम्मादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो अत्थि परो लोको , एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु परो लोको, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो – सीलवा पुरिसपुग्गलो सम्मादिट्ठि अत्थिकवादो’ति. सचे खो अत्थेव परो लोको, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कटग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो सुसमत्तो समादिन्नो, उभयंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति अकुसलं ठानं.
९७. ‘‘सन्ति, गहपतयो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘करोतो कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो, सोचयतो सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातयतो [पाणमतिमापयतो (सी. पी.), पाणमतिपातापयतो (स्या. कं.), पाणमतिपापयतो (क.)], अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिट्ठतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो; करोतो न करीयति पापं. खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो, छिन्दन्तो छेदापेन्तो, पचन्तो पाचेन्तो; नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो, यजन्तो यजापेन्तो; नत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो. दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन [सच्चवाचेन (क.)] नत्थि पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति. तेसंयेव खो, गहपतयो, समणब्राह्मणानं एके समणब्राह्मणा उजुविपच्चनीकवादा ते एवमाहंसु – ‘करोतो कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो, सोचयतो सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातयतो, अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिट्ठतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो; करोतो करीयति पापं. खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, अत्थि ततोनिदानं पापं, अत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो, छिन्दन्तो छेदापेन्तो, पचन्तो पाचेन्तो; अत्थि ततोनिदानं पापं, अत्थि पापस्स आगमो. उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो, यजन्तो यजापेन्तो; अत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, अत्थि पुञ्ञस्स आगमो. दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन अत्थि पुञ्ञं, अत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति. तं किं मञ्ञथ, गहपतयो, ननुमे समणब्राह्मणा अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’.
९८. ‘‘तत्र, गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘करोतो कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो, सोचयतो सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातयतो, अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिट्ठतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो; करोतो न करीयति पापं. खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो…पे… दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन नत्थि पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा यमिदं कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? न हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा पस्सन्ति अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘नत्थि किरिया’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति मिच्छादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘नत्थि किरिया’ति सङ्कप्पेति; स्वास्स होति मिच्छासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘नत्थि किरिया’ति वाचं भासति; सास्स होति मिच्छावाचा. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘नत्थि किरिया’ति आह, ये ते अरहन्तो किरियवादा तेसमयं पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘नत्थि किरिया’ति परं सञ्ञापेति; सास्स होति असद्धम्मसञ्ञत्ति. ताय च पन असद्धम्मसञ्ञत्तिया अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स सुसील्यं पहीनं होति, दुस्सील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च मिच्छादिट्ठि मिच्छासङ्कप्पो मिच्छावाचा अरियानं पच्चनीकता असद्धम्मसञ्ञत्ति अत्तुक्कंसना परवम्भना. एवमस्सिमे अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति मिच्छादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो नत्थि किरिया, एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा सोत्थिमत्तानं करिस्सति; सचे खो अत्थि किरिया एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु किरिया, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो – दुस्सीलो पुरिसपुग्गलो मिच्छादिट्ठि अकिरियवादो’ति. सचे खो अत्थेव किरिया, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कलिग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो दुस्समत्तो समादिन्नो, एकंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति कुसलं ठानं.
९९. ‘‘तत्र, गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘करोतो कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो, सोचयतो सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातयतो, अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिट्ठतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो; करोतो करीयति पापं. खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, अत्थि ततोनिदानं पापं, अत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो, छिन्दन्तो छेदापेन्तो, पचन्तो पाचेन्तो, अत्थि ततोनिदानं पापं, अत्थि पापस्स आगमो. उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो, यजन्तो यजापेन्तो, अत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, अत्थि पुञ्ञस्स आगमो. दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन अत्थि पुञ्ञं, अत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं , मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा यमिदं कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? पस्सन्ति हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘अत्थि किरिया’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति सम्मादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘अत्थि किरिया’ति सङ्कप्पेति; स्वास्स होति सम्मासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘अत्थि किरिया’ति वाचं भासति; सास्स होति सम्मावाचा. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘अत्थि किरिया’ति आह; ये ते अरहन्तो किरियवादा तेसमयं न पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन किरियं ‘अत्थि किरिया’ति परं सञ्ञापेति; सास्स होति सद्धम्मसञ्ञत्ति. ताय च पन सद्धम्मसञ्ञत्तिया नेवत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स दुस्सील्यं पहीनं होति, सुसील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा अरियानं अपच्चनीकता सद्धम्मसञ्ञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना. एवमस्सिमे अनेके कुसला धम्मा सम्भवन्ति सम्मादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो अत्थि किरिया, एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु किरिया, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो – सीलवा पुरिसपुग्गलो सम्मादिट्ठि किरियवादो’ति. सचे खो अत्थेव किरिया, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कटग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो सुसमत्तो समादिन्नो, उभयंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति अकुसलं ठानं.
१००. ‘‘सन्ति , गहपतयो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय; अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति. नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया; अहेतू अप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति. नत्थि बलं, नत्थि वीरियं [विरियं (सी. स्या. कं. पी.)], नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो; सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसंगतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति. तेसंयेव खो, गहपतयो, समणब्राह्मणानं एके समणब्राह्मणा उजुविपच्चनीकवादा. ते एवमाहंसु – ‘अत्थि हेतु, अत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय; सहेतू सप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति. अत्थि हेतु, अत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया; सहेतू सप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति. अत्थि बलं, अत्थि वीरियं, अत्थि पुरिसथामो, अत्थि पुरिसपरक्कमो; न सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया [अत्थि पुरिसपरक्कमो, सब्बे सत्ता… सवसा सबला सवीरिया (स्या. कं. क.)] नियतिसंगतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति. तं किं मञ्ञथ, गहपतयो, ननुमे समणब्राह्मणा अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा’ति? ‘एवं, भन्ते’.
१०१. ‘‘तत्र , गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय; अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति. नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया; अहेतू अप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति. नत्थि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो; सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसंगतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा यमिदं कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? न हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा पस्सन्ति अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘नत्थि हेतू’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति मिच्छादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘नत्थि हेतू’ति सङ्कप्पेति ; स्वास्स होति मिच्छासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘नत्थि हेतू’ति वाचं भासति; सास्स होति मिच्छावाचा. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘नत्थि हेतू’ति आह; ये ते अरहन्तो हेतुवादा तेसमयं पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘नत्थि हेतू’ति परं सञ्ञापेति; सास्स होति असद्धम्मसञ्ञत्ति. ताय च पन असद्धम्मसञ्ञत्तिया अत्तानुक्कंसेति, परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स सुसील्यं पहीनं होति, दुस्सील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च मिच्छादिट्ठि मिच्छासङ्कप्पो मिच्छावाचा अरियानं पच्चनीकता असद्धम्मसञ्ञत्ति अत्तानुक्कंसना परवम्भना. एवमस्सिमे अनेके पापका अकुसला धम्मा सम्भवन्ति मिच्छादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो नत्थि हेतु, एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा सोत्थिमत्तानं करिस्सति; सचे खो अत्थि हेतु, एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु हेतु, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो – दुस्सीलो पुरिसपुग्गलो मिच्छादिट्ठि अहेतुकवादो’ति. सचे खो अत्थेव हेतु, एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कलिग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं गारय्हो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो दुस्समत्तो समादिन्नो, एकंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति कुसलं ठानं.
१०२. ‘‘तत्र, गहपतयो, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि हेतु, अत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय; सहेतू सप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति. अत्थि हेतु, अत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया; सहेतू सप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति. अत्थि बलं, अत्थि वीरियं, अत्थि पुरिसथामो, अत्थि पुरिसपरक्कमो; न सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसंगतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति तेसमेतं पाटिकङ्खं? यमिदं कायदुच्चरितं, वचीदुच्चरितं, मनोदुच्चरितं – इमे तयो अकुसले धम्मे अभिनिवज्जेत्वा यमिदं कायसुचरितं, वचीसुचरितं, मनोसुचरितं – इमे तयो कुसले धम्मे समादाय वत्तिस्सन्ति. तं किस्स हेतु? पस्सन्ति हि ते भोन्तो समणब्राह्मणा अकुसलानं धम्मानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, कुसलानं धम्मानं नेक्खम्मे आनिसंसं वोदानपक्खं. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘अत्थि हेतू’ तिस्स दिट्ठि होति; सास्स होति सम्मादिट्ठि. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘अत्थि हेतू’ति सङ्कप्पेति; स्वास्स होति सम्मासङ्कप्पो. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘अत्थि हेतू’ति वाचं भासति; सास्स होति सम्मावाचा. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘अत्थि हेतू’ति आह, ये ते अरहन्तो हेतुवादा तेसमयं न पच्चनीकं करोति. सन्तंयेव खो पन हेतुं ‘अत्थि हेतू’ति परं सञ्ञापेति; सास्स होति सद्धम्मसञ्ञत्ति. ताय च पन सद्धम्मसञ्ञत्तिया नेवत्तानुक्कंसेति, न परं वम्भेति. इति पुब्बेव खो पनस्स दुस्सील्यं पहीनं होति, सुसील्यं पच्चुपट्ठितं – अयञ्च सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा अरियानं अपच्चनीकता सद्धम्मसञ्ञत्ति अनत्तुक्कंसना अपरवम्भना. एवमस्सिमे अनेके कुसला धम्मा सम्भवन्ति सम्मादिट्ठिपच्चया.
‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सचे खो अत्थि हेतु, एवमयं भवं पुरिसपुग्गलो कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. कामं खो पन माहु हेतु, होतु नेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं; अथ च पनायं भवं पुरिसपुग्गलो दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो – सीलवा पुरिसपुग्गलो सम्मादिट्ठि हेतुवादो’ति. सचे खो अत्थि हेतु , एवं इमस्स भोतो पुरिसपुग्गलस्स उभयत्थ कटग्गहो – यञ्च दिट्ठेव धम्मे विञ्ञूनं पासंसो, यञ्च कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिस्सति. एवमस्सायं अपण्णको धम्मो सुसमत्तो समादिन्नो, उभयंसं फरित्वा तिट्ठति, रिञ्चति अकुसलं ठानं.
१०३. ‘‘सन्ति, गहपतयो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति. तेसंयेव खो, गहपतयो, समणब्राह्मणानं एके समणब्राह्मणा उजुविपच्चनीकवादा. ते एवमाहंसु – ‘अत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति. तं किं मञ्ञथ, गहपतयो, ननुमे समणब्राह्मणा अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘तत्र , गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ये खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति, इदं मे अदिट्ठं; येपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति, इदं मे अविदितं. अहञ्चेव [अहञ्चे (?)] खो पन अजानन्तो अपस्सन्तो एकंसेन आदाय वोहरेय्यं – इदमेव सच्चं, मोघमञ्ञन्ति, न मेतं अस्स पतिरूपं. ये खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति, सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, ठानमेतं विज्जति – ये ते देवा रूपिनो मनोमया, अपण्णकं मे तत्रूपपत्ति भविस्सति. ये पन ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि सब्बसो आरुप्पा’ति, सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, ठानमेतं विज्जति – ये ते देवा अरूपिनो सञ्ञामया, अपण्णकं मे तत्रूपपत्ति भविस्सति. दिस्सन्ति खो पन रूपाधिकरणं [रूपकारणा (क.)] दण्डादान-सत्थादान-कलह-विग्गह-विवाद-तुवंतुवं-पेसुञ्ञ-मुसावादा. ‘नत्थि खो पनेतं सब्बसो अरूपे’’’ति. सो इति पटिसङ्खाय रूपानंयेव निब्बिदाय विरागाय निरोधाय पटिपन्नो होति.
१०४. ‘‘सन्ति, गहपतयो, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति. तेसंयेव खो, गहपतयो, समणब्राह्मणानं एके समणब्राह्मणा उजुविपच्चनीकवादा. ते एवमाहंसु – ‘अत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति. तं किं मञ्ञथ, गहपतयो, ननुमे समणब्राह्मणा अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘तत्र, गहपतयो, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ये खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, इदं मे अदिट्ठं; येपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, इदं मे अविदितं. अहञ्चेव खो पन अजानन्तो अपस्सन्तो एकंसेन आदाय वोहरेय्यं – इदमेव सच्चं, मोघमञ्ञन्ति, न मेतं अस्स पतिरूपं. ये खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, ठानमेतं विज्जति – ये ते देवा अरूपिनो सञ्ञामया अपण्णकं मे तत्रूपपत्ति भविस्सति. ये पन ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, सचे तेसं भवतं समणब्राह्मणानं सच्चं वचनं, ठानमेतं विज्जति – यं दिट्ठेव धम्मे परिनिब्बायिस्सामि . ये खो ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘नत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, तेसमयं दिट्ठि सारागाय [सरागाय (स्या. कं.)] सन्तिके, संयोगाय सन्तिके, अभिनन्दनाय सन्तिके, अज्झोसानाय सन्तिके, उपादानाय सन्तिके. ये पन ते भोन्तो समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘अत्थि सब्बसो भवनिरोधो’ति, तेसमयं दिट्ठि असारागाय सन्तिके, असंयोगाय सन्तिके, अनभिनन्दनाय सन्तिके, अनज्झोसानाय सन्तिके, अनुपादानाय सन्तिके’’’ति. सो इति पटिसङ्खाय भवानंयेव निब्बिदाय विरागाय निरोधाय पटिपन्नो होति.
१०५. ‘‘चत्तारोमे, गहपतयो, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं. कतमे चत्तारो? इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो. इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो परन्तपो होति परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो. इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो अत्तन्तपो च होति अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो. इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो नेवत्तन्तपो होति नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो; सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति.
१०६. ‘‘कतमो च, गहपतयो, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो ? इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो अचेलको होति मुत्ताचारो हत्थापलेखनो…पे… [वित्थारो म. नि. २.६-७ कन्दरकसुत्ते] इति एवरूपं अनेकविहितं कायस्स आतापनपरितापनानुयोगमनुयुत्तो विहरति. अयं वुच्चति, गहपतयो, पुग्गलो अत्तन्तपो अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
‘‘कतमो च, गहपतयो, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो ओरब्भिको होति सूकरिको…पे… ये वा पनञ्ञेपि केचि कुरूरकम्मन्ता. अयं वुच्चति, गहपतयो, पुग्गलो परन्तपो परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
‘‘कतमो च, गहपतयो, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो? इध, गहपतयो, एकच्चो पुग्गलो राजा वा होति खत्तियो मुद्धावसित्तो…पे… तेपि दण्डतज्जिता भयतज्जिता अस्सुमुखा रुदमाना परिकम्मानि करोन्ति. अयं वुच्चति, गहपतयो, पुग्गलो अत्तन्तपो च अत्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो परन्तपो च परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो.
‘‘कतमो च, गहपतयो, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो; सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरति? इध, गहपतयो, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो…पे… सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं…पे… ततियं झानं… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे, सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति. सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति…पे… ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. अयं वुच्चति, गहपतयो, पुग्गलो नेवत्तन्तपो नात्तपरितापनानुयोगमनुयुत्तो न परन्तपो न परपरितापनानुयोगमनुयुत्तो; सो अनत्तन्तपो अपरन्तपो दिट्ठेव धम्मे निच्छातो निब्बुतो सीतीभूतो सुखप्पटिसंवेदी ब्रह्मभूतेन अत्तना विहरती’’ति.
एवं वुत्ते, सालेय्यका ब्राह्मणगहपतिका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एते मयं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासके नो भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गते’’ति.
अपण्णकसुत्तं निट्ठितं दसमं.
गहपतिवग्गो निट्ठितो पठमो.