नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 बुनियादी धर्म

सूत्र परिचय

अट्ठकथा के अनुसार, इस सूत्र के समय आयुष्मान राहुल की आयु मात्र सात वर्ष थी। वे बहुत ही कम समय पहले, चंड स्वभाव वाले शाक्य कुल से श्रावक जीवन में प्रवेश कर श्रामणेर की दीक्षा लेकर प्रव्रजित हुए थे। कहा जाता है कि वे प्रथम श्रामणेर थे, जिन्हें भगवान बुद्ध के निर्देश पर आयुष्मान सारिपुत्त ने प्रव्रजित किया था। सम्भव है कि उन्हें कपिलवस्तु स्थित अपने राजमहल से प्रव्रजित कर यहाँ, राजगृह के अम्बलट्ठिका उद्यान में रखा गया हो, जहाँ यह सूत्र दिया गया।

भगवान बुद्ध और राहुल का संबंध केवल पिता-पुत्र का नहीं, गुरु-शिष्य का भी था। जिस प्रकार आते ही भगवान ने आयुष्मान राहुल को झूठ बोलने में लज्जा न होने का अर्थ समझाया, उससे मुझे व्यक्तिगत रूप से यह प्रतीत होता है कि अवश्य उसी दिन राहुल ने कोई झूठ बोला होगा।

सात वर्ष की उम्र का एक नादान बालक, जो कुछ ही दिनों पूर्व एक राजकुमार था, जिसने पिता को गुरु के रूप में स्वीकार कर शिष्यता धारण की, सहज ही किसी छोटी भूल का भागी बन सकता है। और भगवान, बिना डांट-फटकार के, श्रमणधर्म की गंभीरता को समझाने के लिए विवेकपूर्ण उपमाओं का सहारा लेते हैं। यह संवाद न केवल पिता और पुत्र के बीच एक शिक्षाप्रद वार्तालाप का उत्कृष्ट उदाहरण है, बल्कि आज भी धर्म की मूलभूत नींव को समझाने हेतु एक अद्वितीय सूत्र के रूप में प्रतिष्ठित है।

भगवान ने अपने पुत्र राहुल को कुल तीन बड़े उपदेश दिए। यह पहला उपदेश उन्हें सात वर्ष की अवस्था में दिया गया। इसके पश्चात, अगले सूत्र में जब अठारह वर्ष के आयुष्मान राहुल अपने पिता के पीछे-पीछे चलने का प्रयास करते हैं, भगवान उन्हें साधना की ओर प्रवृत्त करते हैं। और अंततः, जब वे साधना कर अपने आध्यात्मिक इंद्रियों को विकसित कर लेते हैं, तब भगवान उन्हें इस सूत्र के माध्यम से विमुक्ति प्रदान करते हैं।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन में गिलहरियों के उद्यान (“कलन्दकनिवाप”) में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान राहुल अम्बलट्ठिका 1 में विहार कर रहे थे। तब सायंकाल के समय भगवान एकांतवास से निकल कर अम्बलट्ठिका में आयुष्मान राहुल के पास गए।

आयुष्मान राहुल ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। देख कर आसन बिछाया, पैर धोने के लिये जल रखा। भगवान ने बिछे आसन पर बैठ कर अपने पैर धोये। आयुष्मान राहुल ने भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गए।

तब भगवान ने लोटे में थोड़ा सा जल बचाया, और आयुष्मान राहुल को संबोधित किया, “देखते हो, राहुल, इस लोटे में थोड़ा सा जल बचा है?”

“हाँ, भन्ते!”

“उसी प्रकार, राहुल, उनकी इतनी थोड़ी सी ‘श्रमण्यता’ बचती है, जिन्हें जानबुझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती।” 2

तब भगवान ने उस लोटे से जल को फेंक दिया, और आयुष्मान राहुल को संबोधित किया, “देखते हो, राहुल, कैसे लोटे से थोड़ा सा बचा जल फेंक दिया गया?”

“हाँ, भन्ते!”

“उसी प्रकार, राहुल, उनकी भी (बची-खुची) श्रमण्यता इसी तरह फेंक दी जाती है, जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती।”

तब भगवान ने उस लोटे को उलटा दिया, और आयुष्मान राहुल को संबोधित किया, “देखते हो, राहुल, कैसे यह लोटा उलटा दिया गया?”

“हाँ, भन्ते!”

“उसी प्रकार, राहुल, उनकी श्रमण्यता भी इसी तरह उलट जाती है, जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती।”

तब भगवान ने उस लोटे को सीधा किया, और आयुष्मान राहुल को संबोधित किया, “देखते हो, राहुल, यह लोटा अब खाली और खोखला है?”

“हाँ, भन्ते!”

“उसी प्रकार, राहुल, उनकी श्रमण्यता भी खाली और खोखली हो जाती है, जिन्हें जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती।

जैसे, राहुल, राजा का नर हाथी होता है — बहुत बड़ा, रथ के स्तंभ जैसे लंबे दाँतों वाला, अच्छी नस्ल का, युद्ध में उतरने वाला — जो अगले पैरों से भी (लढने का) काम करता है, पिछले पैरों से भी काम करता है, काया के अगले हिस्से से भी काम करता है, काया के पिछले हिस्से से भी काम करता है, सिर से काम करता है, कान से भी काम करता है, दाँत से भी काम करता है, पुंछ से भी काम करता है, केवल सूँड बचाता है।

तब, हाथीरोही को ऐसा लगता है — “राजा का यह नर हाथी… अपनी सूँड बचा रहा है। राजा के इस नर हाथी ने अपनी जान (की बाजी) नहीं लगायी।”

किन्तु, राहुल, जब राजा का नर हाथी — बहुत बड़ा, रथ के स्तंभ जैसे लंबे दाँतों वाला, अच्छी नस्ल का, युद्ध में उतरने वाला — जो अगले पैरों से भी काम करता है, पिछले पैरों से भी काम करता है, काया के अगले हिस्से से भी काम करता है, काया के पिछले हिस्से से भी काम करता है, सिर से काम करता है, कान से भी काम करता है, दाँत से भी काम करता है, पुंछ से भी काम करता है, और सूँड से भी काम करता है, तब हाथीरोही को ऐसा लगता है — “राजा का यह नर हाथी… अपनी सूँड से भी काम कर रहा है। राजा के इस नर हाथी ने अपनी जान (की बाजी) लगा दी है। अब ऐसा कोई काम नहीं, जो राजा का यह नर हाथी नहीं करेगा।” 3

उसी प्रकार, राहुल, जिस किसी को जानबूझकर झूठ बोलने में लज्जा नहीं आती, मैं कहता हूँ कि ऐसा कोई पाप नहीं, जो वह नहीं करेगा।

इसलिये, राहुल, तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए कि — ‘मैं हँसी मजाक में भी झूठ नहीं बोलूँगा!’ 4

तुम्हें क्या लगता है, राहुल, दर्पण किसलिए होता है?” 5

“आत्म-निरीक्षण करने के लिये, भन्ते।”

“उसी प्रकार, राहुल, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर काया से कर्म करना चाहिये। आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर वाणी से कर्म करना चाहिये। आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर मन से कर्म करना चाहिये।

शरीर से कर्म

कर्म करने से पहले

राहुल, जब भी तुम्हें काया से कोई कर्म करना हो, तो तुम्हें उस शारीरिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं शारीरिक कर्म करना चाहता हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं होगी? या परपीड़ा (=पराए को पीड़ा) तो नहीं होगी? या (दोनों को) आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शारीरिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा होगी, या परपीड़ा होगी, या आपसी पीड़ा होगी। वह कर्म अकुशल है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित शारीरिक कर्म नहीं करना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शारीरिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं होगी, या परपीड़ा नहीं होगी, या आपसी पीड़ा नहीं होगी। बल्कि वह कर्म कुशल है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित शारीरिक कर्म करना चाहिये।

कर्म करते हुए

शारीरिक कर्म करते हुए भी, राहुल, तुम्हें उस शारीरिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं शारीरिक कर्म कर रहा हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हो रही है, या परपीड़ा तो नहीं हो रही है, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शारीरिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा हो रही है, या परपीड़ा हो रही है, या आपसी पीड़ा हो रही है। वह कर्म अकुशल ही है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित शारीरिक कर्म रोक देना चाहिए, त्याग देना चाहिए।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शारीरिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं हो रही है, या परपीड़ा नहीं हो रही है, या आपसी पीड़ा नहीं हो रही है। वह कर्म कुशल ही है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित कार्य करना जारी रखना चाहिए।

करने करने के पश्चात

शारीरिक कर्म करने के पश्चात भी, राहुल, तुम्हें उस शारीरिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैंने शारीरिक कर्म किया, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हुई, या परपीड़ा तो नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने शारीरिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा हुई, या परपीड़ा हुई, या पारस्परिक पीड़ा हुई। वह कार्य अकुशल ही था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ।’ तब ऐसे शारीरिक कृत्य को, राहुल, शास्ता, या समझदार व्यक्ति, या सब्रह्मचारी को बता देना चाहिये, खोल देना चाहिए, उजागर करना चाहिये। और बता कर, खोल कर, उजागर कर भविष्य में संयम बरतना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने शारीरिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा नहीं हुई, या परपीड़ा नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा भी नहीं हुई। वह कार्य कुशल था, जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हुआ।’ तब, राहुल, तुम्हें प्रसन्नता और प्रफुल्लता के साथ विहार करना चाहिए, और रात-दिन ऐसे कुशल धर्मों को सीखते रहना चाहिए।

वाणी से कर्म

कर्म करने से पहले

राहुल, जब भी तुम्हें वाणी से कोई कर्म करना हो, तो तुम्हें उस शाब्दिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म करना चाहता हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं होगी? या परपीड़ा तो नहीं होगी? या आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा होगी, या परपीड़ा होगी, या आपसी पीड़ा होगी। वह कर्म अकुशल है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित शाब्दिक कर्म नहीं करना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं होगी, या परपीड़ा नहीं होगी, या आपसी पीड़ा नहीं होगी। बल्कि वह कर्म कुशल है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित शाब्दिक कर्म करना चाहिये।

कर्म करते हुए

वाणी से कर्म करते हुए भी, राहुल, तुम्हें उस शाब्दिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म कर रहा हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हो रही है, या परपीड़ा तो नहीं हो रही है, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा हो रही है, या परपीड़ा हो रही है, या आपसी पीड़ा हो रही है। वह कर्म अकुशल ही है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित शाब्दिक कर्म रोक देना चाहिए, त्याग देना चाहिए।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं शाब्दिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं हो रही है, या परपीड़ा नहीं हो रही है, या आपसी पीड़ा नहीं हो रही है। वह कर्म कुशल ही है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित कार्य करना जारी रखना चाहिए।

करने करने के पश्चात

वाणी से कर्म करने के पश्चात भी, राहुल, तुम्हें उस शाब्दिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैंने शाब्दिक कर्म किया, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हुई, या परपीड़ा तो नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने शाब्दिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा हुई, या परपीड़ा हुई, या पारस्परिक पीड़ा हुई। वह कार्य अकुशल ही था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ।’ तब ऐसे शाब्दिक कृत्य को, राहुल, शास्ता, या समझदार व्यक्ति, या सब्रह्मचारी को बता देना चाहिये, खोल देना चाहिए, उजागर करना चाहिये। और बता कर, खोल कर, उजागर कर भविष्य में संयम बरतना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने शाब्दिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा नहीं हुई, या परपीड़ा नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा भी नहीं हुई। वह कार्य कुशल था, जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हुआ।’ तब, राहुल, तुम्हें प्रसन्नता और प्रफुल्लता के साथ विहार करना चाहिए, और रात-दिन ऐसे कुशल धर्मों को सीखते रहना चाहिए।

मन से कर्म

कर्म करने से पहले

राहुल, जब भी तुम्हें मन से कोई कर्म करना हो, तो तुम्हें उस मानसिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं मानसिक कर्म करना चाहता हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं होगी? या परपीड़ा तो नहीं होगी? या आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं मानसिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा होगी, या परपीड़ा होगी, या आपसी पीड़ा होगी। वह कर्म अकुशल है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित मानसिक कर्म नहीं करना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं मानसिक कर्म करना चाहता हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं होगी, या परपीड़ा नहीं होगी, या आपसी पीड़ा नहीं होगी। बल्कि वह कर्म कुशल है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद होगा।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित मानसिक कर्म करना चाहिये।

कर्म करते हुए

मन से कर्म करते हुए भी, राहुल, तुम्हें उस मानसिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं मानसिक कर्म कर रहा हूँ, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हो रही है, या परपीड़ा तो नहीं हो रही है, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं मानसिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा हो रही है, या परपीड़ा हो रही है, या आपसी पीड़ा हो रही है। वह कर्म अकुशल ही है जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हो रहा है।’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा अनुचित मानसिक कर्म रोक देना चाहिए, त्याग देना चाहिए।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैं मानसिक कर्म कर रहा हूँ, उससे आत्मपीड़ा नहीं हो रही है, या परपीड़ा नहीं हो रही है, या आपसी पीड़ा नहीं हो रही है। वह कर्म कुशल ही है जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब, राहुल, तुम्हें ऐसा उचित कार्य करना जारी रखना चाहिए।

करने करने के पश्चात

मन से कर्म करने के पश्चात भी, राहुल, तुम्हें उस मानसिक कर्म का निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैंने मानसिक कर्म किया, कहीं उससे आत्मपीड़ा तो नहीं हुई, या परपीड़ा तो नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ?’

यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने मानसिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा हुई, या परपीड़ा हुई, या पारस्परिक पीड़ा हुई। वह कार्य अकुशल ही था, जो परिणामतः दुःख, फलस्वरूप दुखद हुआ।’ तब ऐसे मानसिक कृत्य से, राहुल, तुम्हें खिन्न होना चाहिए, लज्जित होना चाहिए, घृणित होना चाहिए। और खिन्न होकर, लज्जित होकर, घृणित होकर भविष्य में संयम बरतना चाहिये।

किन्तु, यदि, राहुल, तुम्हें निरीक्षण करने पर पता चले कि — ‘जो मैंने मानसिक कर्म किया, उससे आत्मपीड़ा नहीं हुई, या परपीड़ा नहीं हुई, या पारस्परिक पीड़ा भी नहीं हुई। वह कार्य कुशल था, जो परिणामतः सुख, फलस्वरूप सुखद हुआ।’ तब, राहुल, तुम्हें प्रसन्नता और प्रफुल्लता के साथ विहार करना चाहिए, और रात-दिन ऐसे कुशल धर्मों को सीखते रहना चाहिए।

सनातन परंपरा

अतीतकाल में, राहुल, जितने भी श्रमणों और ब्राह्मणों ने अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध किया (=सुधारा) है, शाब्दिक कर्म को शुद्ध किया है, मानसिक कर्म को शुद्ध किया है, सभी ने इसी प्रकार आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध किया है, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शाब्दिक कर्म को शुद्ध किया है, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने मानसिक कर्म को शुद्ध किया है।

भविष्यकाल में, राहुल, जितने भी श्रमण और ब्राह्मण अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध करेंगे, शाब्दिक कर्म को शुद्ध करेंगे, मानसिक कर्म को शुद्ध करेंगे, सभी इसी प्रकार आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध करेंगे, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शाब्दिक कर्म को शुद्ध करेंगे, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने मानसिक कर्म को शुद्ध करेंगे।

वर्तमान काल में भी, राहुल, जितने भी श्रमण और ब्राह्मण अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं, शाब्दिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं, मानसिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं, सभी इसी प्रकार आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शाब्दिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने मानसिक कर्म को शुद्ध कर रहे हैं।

इसलिये, राहुल, तुम्हें भी सीखना चाहिये कि — ‘मैं भी इसी तरह आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शारीरिक कर्म को शुद्ध करूँगा, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने शाब्दिक कर्म को शुद्ध करूँगा, आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने मानसिक कर्म को शुद्ध करूँगा।’”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान राहुल ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. अट्ठकथा के अनुसार, “अम्बलट्ठिका” नामक यह उद्यान वेणुवन के निकट स्थित था। परंतु ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रह्मजाल सुत्त की शुरुआत में जिस अम्बलट्ठिका उद्यान के राजसी भवन में भगवान अपने विशाल भिक्षुसंघ के साथ ठहरते हैं, वह कोई और स्थल है — यह वही उद्यान नहीं है। ↩︎

  2. “श्रमण” और “श्रमण्यता” की परिभाषा जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  3. ध्यान देने योग्य बात यह है कि यहाँ भगवान ने इस उपमा को नकारात्मक संदर्भ में प्रस्तुत किया है। अर्थात, हाथी को किसी राजा के लिए युद्ध करते हुए अपने परमार्थ को दाँव पर नहीं लगाना चाहिए। अक्सर देखा गया है कि जब कोई भोला व्यक्ति किसी विचारधारा या नेता के प्रति पूरी निष्ठा से समर्पित हो जाता है, तो शीर्ष पर बैठे लोग उसका दुरुपयोग करते हैं — ठीक किसी हाथीरोही की तरह। क्योंकि चाहे वह कार्य सही हो या गलत, भोला व्यक्ति किसी भी आदेश का पालन करता है, बिना प्रश्न किए, बिना सोचे, बिना परमार्थ जाने। इसलिए, चाहे हम किसी के अधीन काम कर रहे हों या किसी उद्देश्य की सेवा में लगे हों, हमें कभी अपना विवेक और परमार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। निष्ठा तब तक ही पुण्यशाली होती है, जब तक विवेक के साथ जुड़ी हो। ↩︎

  4. धर्म में हँसी-मज़ाक करना मना नहीं है, ‘झूठ बोलना’ मना है। कहा जाता है कि असली “जोक” वही होता है, जो दुनिया की विसंगतियों और विचित्रताओं को इस अंदाज़ में पेश करे कि श्रोता हँसते-हँसते सोचने पर मजबूर हो जाएँ। उसी तरह, एक सच्चा और प्रतिभाशाली स्टैंडअप कॉमेडियन वही होता है जो समाज को आइना दिखाए — ऐसा आइना जिसमें लोग हँसते-हँसते अपनी ही परछाइयाँ देख लें। उसे हँसी के लिए झूठ गढ़ने की ज़रूरत न पड़े, बल्कि वह समाज की सच्चाइयों को इस तरह पेश करे कि कटाक्ष भी लगे और होश भी जागे। क्योंकि हँसी अगर सच के साथ हो तो वह मज़ाक के साथ जागृति भी बनती है। ↩︎

  5. मज्झिमनिकाय ७७ के अनुसार, चमकदार कांसे के दर्पण उस समय के सेल्फ़ी हुआ करते थे — युवाओं में पनपते खोखले अहंकार का एक संस्कार। विनयपिटक के चुल्लवग्ग १५:२.४ के अनुसार, भिक्षुओं के लिए इन्हें देखना मना था, सिवाय कोई रोग होने पर आत्म-प्रतिबिंब देखना आवश्यक पड़े तो। ↩︎

Pali

१०७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. तेन खो पन समयेन आयस्मा राहुलो अम्बलट्ठिकायं विहरति. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन अम्बलट्ठिका येनायस्मा राहुलो तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो आयस्मा राहुलो भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान आसनं पञ्ञापेसि, उदकञ्च पादानं. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. निसज्ज पादे पक्खालेसि. आयस्मापि खो राहुलो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि.

१०८. अथ खो भगवा परित्तं उदकावसेसं उदकाधाने ठपेत्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘पस्ससि नो त्वं, राहुल, इमं परित्तं उदकावसेसं उदकाधाने ठपित’’न्ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘एवं परित्तकं खो, राहुल, तेसं सामञ्ञं येसं नत्थि सम्पजानमुसावादे लज्जा’’ति. अथ खो भगवा परित्तं उदकावसेसं छड्डेत्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘पस्ससि नो त्वं, राहुल, परित्तं उदकावसेसं छड्डित’’न्ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘एवं छड्डितं खो, राहुल, तेसं सामञ्ञं येसं नत्थि सम्पजानमुसावादे लज्जा’’ति. अथ खो भगवा तं उदकाधानं निक्कुज्जित्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘पस्ससि नो त्वं, राहुल, इमं उदकाधानं निक्कुज्जित’’न्ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘एवं निक्कुज्जितं खो, राहुल, तेसं सामञ्ञं येसं नत्थि सम्पजानमुसावादे लज्जा’’ति. अथ खो भगवा तं उदकाधानं उक्कुज्जित्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘पस्ससि नो त्वं, राहुल, इमं उदकाधानं रित्तं तुच्छ’’न्ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘एवं रित्तं तुच्छं खो, राहुल, तेसं सामञ्ञं येसं नत्थि सम्पजानमुसावादे लज्जाति. सेय्यथापि, राहुल, रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा [उब्बूळ्हवा (सी. पी.)] अभिजातो सङ्गामावचरो सङ्गामगतो पुरिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पच्छिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पुरिमेनपि कायेन कम्मं करोति, पच्छिमेनपि कायेन कम्मं करोति, सीसेनपि कम्मं करोति, कण्णेहिपि कम्मं करोति, दन्तेहिपि कम्मं करोति, नङ्गुट्ठेनपि कम्मं करोति; रक्खतेव सोण्डं. तत्थ हत्थारोहस्स एवं होति – ‘अयं खो रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो सङ्गामगतो पुरिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पच्छिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति…पे… नङ्गुट्ठेनपि कम्मं करोति; रक्खतेव सोण्डं . अपरिच्चत्तं खो रञ्ञो नागस्स जीवित’न्ति. यतो खो, राहुल, रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो सङ्गामगतो पुरिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पच्छिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति…पे… नङ्गुट्ठेनपि कम्मं करोति, सोण्डायपि कम्मं करोति, तत्थ हत्थारोहस्स एवं होति – ‘अयं खो रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो सङ्गामगतो पुरिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पच्छिमेहिपि पादेहि कम्मं करोति, पुरिमेनपि कायेन कम्मं करोति, पच्छिमेनपि कायेन कम्मं करोति, सीसेनपि कम्मं करोति, कण्णेहिपि कम्मं करोति, दन्तेहिपि कम्मं करोति, नङ्गुट्ठेनपि कम्मं करोति, सोण्डायपि कम्मं करोति. परिच्चत्तं खो रञ्ञो नागस्स जीवितं. नत्थि दानि किञ्चि रञ्ञो नागस्स अकरणीय’न्ति. एवमेव खो, राहुल, यस्स कस्सचि सम्पजानमुसावादे नत्थि लज्जा, नाहं तस्स किञ्चि पापं अकरणीयन्ति वदामि. तस्मातिह ते, राहुल, ‘हस्सापि न मुसा भणिस्सामी’ति – एवञ्हि ते, राहुल, सिक्खितब्बं.

१०९. ‘‘तं किं मञ्ञसि, राहुल, किमत्थियो आदासो’’ति? ‘‘पच्चवेक्खणत्थो, भन्ते’’ति. ‘‘एवमेव खो, राहुल, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायेन कम्मं कत्तब्बं, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वाचाय कम्मं कत्तब्बं, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनसा कम्मं कत्तब्बं. यदेव त्वं, राहुल, कायेन कम्मं कत्तुकामो अहोसि, तदेव ते कायकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं कायेन कम्मं कत्तुकामो इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं [दुक्खुन्द्रयं, दुक्खुदयं (क.)] दुक्खविपाक’न्ति? सचे त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं कत्तुकामो इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, कायेन कम्मं ससक्कं न करणीयं [संसक्कं न च करणीयं (क.)]. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं कत्तुकामो इदं मे कायकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, न परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, न उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – कुसलं इदं कायकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, कायेन कम्मं करणीयं.

‘‘करोन्तेनपि ते, राहुल, कायेन कम्मं तदेव ते कायकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं कायेन कम्मं करोमि इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं करोमि इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, पटिसंहरेय्यासि त्वं, राहुल, एवरूपं कायकम्मं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं करोमि इदं मे कायकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं कायकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, अनुपदज्जेय्यासि त्वं, राहुल, एवरूपं कायकम्मं.

‘‘कत्वापि ते, राहुल, कायेन कम्मं तदेव ते कायकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं कायेन कम्मं अकासिं इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति [संवत्ति (पी.)], परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे खो त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं अकासिं, इदं मे कायकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं कायकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, कायकम्मं सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु देसेतब्बं, विवरितब्बं, उत्तानीकातब्बं; देसेत्वा विवरित्वा उत्तानीकत्वा आयतिं संवरं आपज्जितब्बं . सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं कायेन कम्मं अकासिं इदं मे कायकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं कायकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, तेनेव त्वं, राहुल, पीतिपामोज्जेन विहरेय्यासि अहोरत्तानुसिक्खी कुसलेसु धम्मेसु.

११०. ‘‘यदेव त्वं, राहुल, वाचाय कम्मं कत्तुकामो अहोसि, तदेव ते वचीकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं वाचाय कम्मं कत्तुकामो इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं कत्तुकामो इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, वाचाय कम्मं ससक्कं न करणीयं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं कत्तुकामो इदं मे वचीकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, न परब्याबाधायपि संवत्तेय्य – कुसलं इदं वचीकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, वाचाय कम्मं करणीयं.

‘‘करोन्तेनपि, राहुल, वाचाय कम्मं तदेव ते वचीकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं वाचाय कम्मं करोमि इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं करोमि इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, पटिसंहरेय्यासि त्वं, राहुल, एवरूपं वचीकम्मं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं करोमि इदं मे वचीकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं वचीकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, अनुपदज्जेय्यासि, त्वं राहुल, एवरूपं वचीकम्मं.

‘‘कत्वापि ते, राहुल, वाचाय कम्मं तदेव ते वचीकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं वाचाय कम्मं अकासिं इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति [संवत्ति (सी. पी.)], परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे खो त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं अकासिं इदं मे वचीकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं वचीकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, वचीकम्मं सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु देसेतब्बं, विवरितब्बं, उत्तानीकत्तब्बं ; देसेत्वा विवरित्वा उत्तानीकत्वा आयतिं संवरं आपज्जितब्बं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं वाचाय कम्मं अकासिं इदं मे वचीकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं वचीकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, तेनेव त्वं, राहुल, पीतिपामोज्जेन विहरेय्यासि अहोरत्तानुसिक्खी कुसलेसु धम्मेसु.

१११. ‘‘यदेव त्वं, राहुल, मनसा कम्मं कत्तुकामो अहोसि, तदेव ते मनोकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं मनसा कम्मं कत्तुकामो इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं कत्तुकामो इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, मनसा कम्मं ससक्कं न करणीयं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं कत्तुकामो इदं मे मनोकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तेय्य, न परब्याबाधायपि संवत्तेय्य, न उभयब्याबाधायपि संवत्तेय्य – कुसलं इदं मनोकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, एवरूपं ते, राहुल, मनसा कम्मं करणीयं.

‘‘करोन्तेनपि ते, राहुल, मनसा कम्मं तदेव ते मनोकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं मनसा कम्मं करोमि इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं करोमि इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, पटिसंहरेय्यासि त्वं, राहुल, एवरूपं मनोकम्मं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं करोमि इदं मे मनोकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं मनोकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, अनुपदज्जेय्यासि त्वं, राहुल, एवरूपं मनोकम्मं.

‘‘कत्वापि ते, राहुल, मनसा कम्मं तदेव ते मनोकम्मं पच्चवेक्खितब्बं – ‘यं नु खो अहं इदं मनसा कम्मं अकासिं इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति [संवत्ति (सी. पी.)], परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति? सचे खो त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं अकासिं इदं मे मनोकम्मं अत्तब्याबाधायपि संवत्तति, परब्याबाधायपि संवत्तति, उभयब्याबाधायपि संवत्तति – अकुसलं इदं मनोकम्मं दुक्खुद्रयं दुक्खविपाक’न्ति, एवरूपं पन [एवरूपे (सी. पी.), एवरूपे पन (स्या. कं.)] ते, राहुल, मनोकम्मं [मनोकम्मे (सी. स्या. कं. पी.)] अट्टीयितब्बं हरायितब्बं जिगुच्छितब्बं; अट्टीयित्वा हरायित्वा जिगुच्छित्वा आयतिं संवरं आपज्जितब्बं. सचे पन त्वं, राहुल, पच्चवेक्खमानो एवं जानेय्यासि – ‘यं खो अहं इदं मनसा कम्मं अकासिं इदं मे मनोकम्मं नेवत्तब्याबाधायपि संवत्तति, न परब्याबाधायपि संवत्तति, न उभयब्याबाधायपि संवत्तति – कुसलं इदं मनोकम्मं सुखुद्रयं सुखविपाक’न्ति, तेनेव त्वं, राहुल, पीतिपामोज्जेन विहरेय्यासि अहोरत्तानुसिक्खी कुसलेसु धम्मेसु.

११२. ‘‘ये हि केचि, राहुल, अतीतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा कायकम्मं परिसोधेसुं, वचीकम्मं परिसोधेसुं, मनोकम्मं परिसोधेसुं, सब्बे ते एवमेवं पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायकम्मं परिसोधेसुं, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वचीकम्मं परिसोधेसुं, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनोकम्मं परिसोधेसुं. येपि हि केचि, राहुल, अनागतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा कायकम्मं परिसोधेस्सन्ति, वचीकम्मं परिसोधेस्सन्ति, मनोकम्मं परिसोधेस्सन्ति, सब्बे ते एवमेवं पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायकम्मं परिसोधेस्सन्ति, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वचीकम्मं परिसोधेस्सन्ति , पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनोकम्मं परिसोधेस्सन्ति. येपि हि केचि, राहुल, एतरहि समणा वा ब्राह्मणा वा कायकम्मं परिसोधेन्ति, वचीकम्मं परिसोधेन्ति, मनोकम्मं परिसोधेन्ति, सब्बे ते एवमेवं पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायकम्मं परिसोधेन्ति, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वचीकम्मं परिसोधेन्ति, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनोकम्मं परिसोधेन्ति. तस्मातिह, राहुल, ‘पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा कायकम्मं परिसोधेस्सामि, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा वचीकम्मं परिसोधेस्सामि, पच्चवेक्खित्वा पच्चवेक्खित्वा मनोकम्मं परिसोधेस्सामी’ति – एवञ्हि ते, राहुल, सिक्खितब्ब’’न्ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा राहुलो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

अम्बलट्ठिकराहुलोवादसुत्तं निट्ठितं पठमं.