आयुष्मान राहुल, जो पिछले सूत्र में केवल सात वर्ष के एक भोले बालक थे, अट्ठकथा के अनुसार इस सूत्र तक आते-आते अठारह वर्ष के हो चुके हैं, जो भिक्षाटन के लिए अपने पिता—भगवान बुद्ध—के पीछे-पीछे चलते हैं। इसी प्रसंग में वे भगवान से एक प्रकार की फटकार स्वरूप साधना का निर्देश प्राप्त करते हैं।
संयोगवश, उसी समय उनके प्रव्रज्या-गुरु, भंते सारिपुत्त, अनजाने में उन्हें आनापान-स्मृति की साधना में प्रवृत्त करते हैं, जो कि स्वयं उनकी अपनी अभ्यास विधि थी, और जिसे “सुखा पटिपदा” (सुखद साधनामार्ग) कहा जाता है। किन्तु जब राहुल पुनः भगवान से पूछते हैं, तो वे उन्हें आनापान की अपेक्षा पहले सोलह अन्य प्रकार की साधनाएँ विकसित करने का निर्देश देते हैं, और अंत में आनापान-स्मृति की ओर मार्गदर्शन करते हैं।
यहाँ यह स्पष्ट होता है कि राहुल की “जलधातु” प्रकृति के कारण उनके लिए “दुक्खा पटिपदा” (दुखद साधनामार्ग) अधिक उपयुक्त था। शायद इसी कारण भगवान ने उन्हें जिन ग्यारह साधनाओं का निर्देश दिया, वे सभी एक प्रकार की दुःखमार्ग साधनाएँ थीं। इन दोनों साधना-पद्धतियों—सुख पटिपदा और दुःख पटिपदा—के बीच के भेद को समझने के लिए हमारी यह मार्गदर्शिका पढ़ें। आयुष्मान राहुल किसी भी साधना को सीखने में इतना तत्पर रहते थे कि उन्हें इस मायने में भिक्षुसंघ में अग्र कहा गया।
जान लें कि भगवान ने अपने पुत्र राहुल को कुल तीन उपदेश दिए —
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए प्रवेश किया। आयुष्मान राहुल भी सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र लेकर भगवान के पीछे-पीछे चलने लगे। तब भगवान ने मुड़कर आयुष्मान राहुल को संबोधित किया —
“राहुल, जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।”
“केवल रूप ही, भगवान? केवल रूप ही, सुगत?”
“रूप भी, राहुल। और, अनुभूति भी, संज्ञा भी, रचना भी, और चैतन्य भी, राहुल।”
तब आयुष्मान राहुल को लगा, “भला कोई क्यों भगवान के मुख से निकले निर्देश से निर्देशित होकर भिक्षाटन के लिए गाँव में जाएगा?” तब वे मुड़कर किसी वृक्ष के तले पालथी मारकर, शरीर को सीधा रख, स्मरणशीलता को स्थापित कर बैठ गए। 1
तब आयुष्मान सारिपुत्त ने आयुष्मान राहुल को किसी वृक्ष के तले पालथी मारकर, शरीर को सीधा रख, स्मरणशीलता को स्थापित कर बैठे हुए देखा। देखकर उन्होंने आयुष्मान राहुल को संबोधित किया, “आनापान-स्मृति विकसित करो, राहुल। आनापान-स्मृति की साधना करना, उसे विकसित करना महाफलदायी महापुरस्कारी होता है।”
तब सायंकाल होने पर आयुष्मान राहुल एकांतवास से निकल कर भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान राहुल ने भगवान से कहा, “भंते, आनापान-स्मृति की कैसे साधना करें, कैसे विकसित करें, ताकि वह महाफलदायी महापुरस्कारी हो?”
“राहुल, जो भी रूप हो — भूत, भविष्य या वर्तमान के, आंतरिक या बाहरी, स्थूल या सूक्ष्म, हीन या उत्तम, दूर या समीप का। सभी रूपों को यह ‘मेरे नहीं हैं, मेरा आत्म नहीं हैं, मैं यह नहीं हूँ’, इस तरह, सम्यक अन्तर्ज्ञान से यथास्वरूप देखना है।
ये पाँच धातुएँ होती है, राहुल। कौन सी पाँच?
यह पृथ्वी धातु क्या है, राहुल?
— पृथ्वी धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
यह भीतरी पृथ्वीधातु क्या है, राहुल?
— जो कुछ भीतर कठोर, ठोस, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — केश, लोम, नाख़ून, दाँत, त्वचा, मांस, नसें, हड्डी, हड्डीमज्जा, तिल्ली, हृदय, कलेजा, झिल्ली, गुर्दा, फेफड़ा, क्लोमक, आँत, छोटी-आँत, उदर, टट्टी — या [अन्य] जो कुछ भीतर कठोर, ठोस और आधारित है, उसे भीतरी पृथ्वी धातु कहते है।
अब, भीतरी पृथ्वी धातु हो, या बाहरी पृथ्वी धातु हो, वह केवल ‘पृथ्वी धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका पृथ्वी धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को पृथ्वी धातु से विरक्त करता है।
और, जल धातु क्या है, राहुल?
— जल धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी जल धातु क्या है, राहुल?
— जो कुछ भीतर जल, तरल, और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — पित्त, कफ, पीब, रक्त, पसीना, चर्बी, आँसू, तेल, थूक, बलगम, जोड़ों में तरल, मूत्र — या [अन्य] जो कुछ भीतर जल, तरल और आधारित है, उसे भीतरी जल धातु कहते हैं।
अब, भीतरी जल धातु हो, या बाहरी जल धातु हो, वह केवल ‘जल धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका जल धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को जल धातु से विरक्त करता है।
और, अग्नि धातु क्या है, राहुल?
— अग्नि धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी अग्नि धातु क्या है, राहुल?
— जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म, और [तृष्णा पर] आधारित है, जिससे शरीर गर्म रहता है, जीर्ण होता है, तपता है, और जिसके द्वारा खाए, पीए, चबाए, और निगले का पाचन होता है — या [अन्य] जो कुछ भीतर ज्वलनशील, गर्म, और आधारित है, उसे भीतरी अग्नि धातु कहते हैं ।
अब, भीतरी अग्नि धातु हो, या बाहरी अग्नि धातु हो, वह केवल ‘अग्नि धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका अग्नि धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को अग्नि धातु से विरक्त करता है।
और, यह वायु धातु क्या है, राहुल?
— वायु धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी वायु धातु क्या है, राहुल?
— जो कुछ भीतर वायु, पवन और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — ऊपर उठती वायु, नीचे गिरती वायु, पेट में वायु, आँत में वायु, शरीर में सर्वत्र घूमती वायु, आती जाती साँस — या जो कुछ भी भीतर वायु, पवन और आधारित है, उसे भीतरी वायु धातु कहते हैं।
अब, भीतरी वायु धातु हो, या बाहरी वायु धातु हो, वह केवल ‘वायु धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका वायु धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को वायु धातु से विरक्त करता है।
और, यह आकाश धातु क्या है, राहुल?
— आकाश धातु भीतरी हो सकती है, या बाहरी।
भीतरी आकाश धातु क्या है, राहुल?
— जो कुछ भीतर शरीर में खाली, रिक्त और [तृष्णा पर] आधारित है, जैसे — कान के छेद, नाक के छेद, मुख द्वार, और वह (रास्ता) जिससे खाया, पिया, चबाया और स्वाद लिया निगला जाता है, और जहाँ (उदर में) वह इकट्ठा होता है, और जहाँ नीचे से मल त्यागा जाता है — या जो कुछ भी भीतर शरीर में खाली, रिक्त और आधारित है, उसे भीतरी आकाश धातु कहते है।
अब, भीतरी आकाश धातु हो, या बाहरी आकाश धातु हो, वह केवल ‘आकाश धातु’ ही है। उसे यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखना है कि यह — ‘मेरी नहीं, मेरा आत्म नहीं, मैं यह नहीं!’
जब कोई इस तरह यथास्वरूप सम्यक प्रज्ञा से देखता है, तब उसका आकाश धातु से मोहभंग होता है। वह अपने चित्त को आकाश धातु से विरक्त करता है।
राहुल, पृथ्वी के अनुरूप साधना विकसित करो।
पृथ्वी के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
जैसे, राहुल, पृथ्वी पर शुद्ध (वस्तु, जैसे फूल) भी फेंका जाता है, अशुद्ध भी फेंका जाता है — गू (=टट्टी) भी फेंका जाता है, मूत्र भी फेंका जाता है, थूंक भी फेंका जाता है, पीब भी फेंका जाता है, रक्त भी फेंका जाता है। किन्तु उस कारण पृथ्वी खिन्न, लज्जित, या घृणित नहीं होती।
उसी तरह, राहुल, पृथ्वी के अनुरूप साधना विकसित करो। पृथ्वी के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
राहुल, जल के अनुरूप साधना विकसित करो।
जल के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
जैसे, राहुल, जल में शुद्ध भी धोया जाता हैं, अशुद्ध भी धोया जाता हैं — गू भी धोया जाता है, मूत्र भी धोया जाता है, थूंक भी धोया जाता है, पीब भी धोया जाता है, रक्त भी धोया जाता है। किन्तु उस कारण जल खिन्न, लज्जित, या घृणित नहीं होती।
उसी तरह, राहुल, जल के अनुरूप साधना विकसित करो। जल के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
राहुल, अग्नि के अनुरूप साधना विकसित करो।
अग्नि के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
जैसे, राहुल, अग्नि में शुद्ध भी जलाया जाता हैं, अशुद्ध भी जलाया जाता हैं — गू भी जलाया जाता है, मूत्र भी जलाया जाता है, थूंक भी जलाया जाता है, पीब भी जलाया जाता है, रक्त भी जलाया जाता है। किन्तु उस कारण अग्नि खिन्न, लज्जित, या घृणित नहीं होती।
उसी तरह, राहुल, अग्नि के अनुरूप साधना विकसित करो। अग्नि के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
राहुल, वायु के अनुरूप साधना विकसित करो।
वायु के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
जैसे, राहुल, वायु शुद्ध छूकर बहती हैं, अशुद्ध भी छूकर बहती हैं — गू भी छूकर बहती है, मूत्र भी छूकर बहती है, थूंक भी छूकर बहती है, पीब भी छूकर बहती है, रक्त भी छूकर बहती है। किन्तु उस कारण वायु खिन्न, लज्जित, या घृणित नहीं होती।
उसी तरह, राहुल, वायु के अनुरूप साधना विकसित करो। वायु के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
राहुल, आकाश के अनुरूप साधना विकसित करो।
आकाश के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
जैसे, राहुल, आकाश में कुछ भी स्थापित नहीं होता।
उसी तरह, राहुल, आकाश के अनुरूप साधना विकसित करो। आकाश के अनुरूप साधना विकसित करने पर, राहुल, मनचाहे और अनचाहे संपर्क चित्त पर छाप नहीं छोड़ेंगे।
राहुल, सद्भावना विकसित करो।
सद्भावना विकसित करने पर जो भी दुर्भावना हो, वह छूट जाएगी।
राहुल, करुणा विकसित करो।
करुणा विकसित करने पर जो भी हिंसक वृत्ति (“विहेसा”) हो, वह छूट जाएगी।
राहुल, मुदिता (=दूसरों की खुशी में खुश होना) विकसित करो।
मुदिता विकसित करने पर जो भी नाराजी (“अरति”, अप्रसन्नता) हो, वह छूट जाएगी।
राहुल, तटस्थता विकसित करो।
तटस्थता विकसित करने पर जो भी प्रतिरोध (“पटिघ”) हो, वह छूट जाएगा।
राहुल, अनाकर्षक भावना विकसित करो।
अनाकर्षक भावना विकसित करने पर जो भी दिलचस्पी (“राग”) हो, वह छूट जाएगा।
राहुल, अनित्य संज्ञा विकसित करो।
अनित्य संज्ञा विकसित करने पर जो भी ‘मैं हूँ’ अहंभाव (“अस्मिमान”) छूट जायेगा।
आनापान-स्मृति की साधना विकसित करो, राहुल। आनापान-स्मृति की साधना करना, विकसित करना महाफलदायी महापुरस्कारी होता है। किस तरह, राहुल, आनापान-स्मृति की साधना करना, विकसित करना महाफलदायी महापुरस्कारी होता है?
राहुल, कोई भिक्षु जंगल में, पेड़ के तले, या ख़ाली गृह [“सुञ्ञागार”] में जाकर पालथी मारकर, शरीर को सीधा रख, स्मरणशील होकर बैठता है। वह स्मरणशील होकर साँस लेता है; स्मरणशील होकर साँस छोड़ता है।
इस तरह आनापान-स्मृति की साधना करना, विकसित करना, राहुल, महाफलदायी महापुरस्कारी होता है। जब इस तरह, राहुल, आनापान-स्मृति की साधना की जाएँ, विकसित किया जाएँ, तब अंतिम साँस भी पता चलती है, बिना जाने निरुद्ध नहीं होती।
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान राहुल ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
अर्थात, भूखे रहकर उस दिन उन्होंने दिन भर साधना करने की ठानी। ↩︎
मज्झिमनिकाय ४४ के अनुसार आती-जाती हुई साँस ही कायिक-रचना है। हम जिस-जिस तरह से साँस लेते हैं, उस-उस तरह से काया की रचना करते हैं, और उस तरह काया की अनुभूति होती हैं। यह पहली चौकड़ी “कायानुपस्सना” के अंतर्गत आती है। अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका में (३) और (४) पढ़ें। ↩︎
मज्झिमनिकाय ४४ के अनुसार “संज्ञा और अनुभूति” का जोड़ चैतसिक-रचना है। अर्थात, जिस संज्ञा से हम देखते हैं और जैसी अनुभूति करते हैं, उसी तरह चित्त की रचना होती है। यह दूसरी चौकड़ी “वेदनानुपस्सना” के अंतर्गत आती है। अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका में (७) और (८) पढ़ें। ↩︎
साधना करते-करते एक समय आता है, जब हमारा चित्त इतना सूक्ष्म हो जाता है कि हमें अब अपने चित्त की अवस्था स्पष्ट दिखायी देने लगती है। यह तीसरी चौकड़ी चित्तानुपस्सना के अंतर्गत आती है। अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका पढ़ें। ↩︎
यह चौथी और अंतिम चौकड़ी धम्मानुपस्सना के अंतर्गत आती है। अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका पढ़ें। ↩︎
११३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि. आयस्मापि खो राहुलो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धि. अथ खो भगवा अपलोकेत्वा आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘यं किञ्चि, राहुल, रूपं – अतीतानागतपच्चुप्पन्नं अज्झत्तं वा बहिद्धा वा ओळारिकं वा सुखुमं वा हीनं वा पणीतं वा यं दूरे सन्तिके वा – सब्बं रूपं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्ब’’न्ति. ‘‘रूपमेव नु खो, भगवा, रूपमेव नु खो, सुगता’’ति? ‘‘रूपम्पि, राहुल, वेदनापि, राहुल, सञ्ञापि, राहुल, सङ्खारापि, राहुल, विञ्ञाणम्पि, राहुला’’ति. अथ खो आयस्मा राहुलो ‘‘को नज्ज [को नुज्ज (स्या. कं.)] भगवता सम्मुखा ओवादेन ओवदितो गामं पिण्डाय पविसिस्सती’’ति ततो पटिनिवत्तित्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसीदि पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. अद्दसा खो आयस्मा सारिपुत्तो आयस्मन्तं राहुलं अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले निसिन्नं पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा . दिस्वान आयस्मन्तं राहुलं आमन्तेसि – ‘‘आनापानस्सतिं, राहुल, भावनं भावेहि. आनापानस्सति, राहुल, भावना भाविता बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा’’ति.
११४. अथ खो आयस्मा राहुलो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा राहुलो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कथं भाविता नु खो, भन्ते, आनापानस्सति, कथं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा’’ति? ‘‘यं किञ्चि, राहुल, अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – केसा लोमा नखा दन्ता तचो मंसं न्हारु [नहारु (सी. स्या. कं. पी.)] अट्ठि अट्ठिमिञ्जं वक्कं हदयं यकनं किलोमकं पिहकं पप्फासं अन्तं अन्तगुणं उदरियं करीसं, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं कक्खळं खरिगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चति, राहुल, अज्झत्तिका पथवीधातु [पठवीधातु (सी. स्या. कं. पी.)]. या चेव खो पन अज्झत्तिका पथवीधातु या च बाहिरा पथवीधातु, पथवीधातुरेवेसा. तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा पथवीधातुया निब्बिन्दति, पथवीधातुया चित्तं विराजेति’’.
११५. ‘‘कतमा च, राहुल, आपोधातु? आपोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका आपोधातु ? यं अज्झत्तं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – पित्तं सेम्हं पुब्बो लोहितं सेदो मेदो अस्सु वसा खेळो सिङ्घाणिका लसिका मुत्तं, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं आपो आपोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चति, राहुल, अज्झत्तिका आपोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका आपोधातु या च बाहिरा आपोधातु आपोधातुरेवेसा. तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा आपोधातुया निब्बिन्दति, आपोधातुया चित्तं विराजेति.
११६. ‘‘कतमा च, राहुल, तेजोधातु? तेजोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका तेजोधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – येन च सन्तप्पति येन च जीरीयति येन च परिडय्हति येन च असितपीतखायितसायितं सम्मा परिणामं गच्छति, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं तेजो तेजोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चति, राहुल, अज्झत्तिका तेजोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका तेजोधातु या च बाहिरा तेजोधातु तेजोधातुरेवेसा. तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा तेजोधातुया निब्बिन्दति, तेजोधातुया चित्तं विराजेति.
११७. ‘‘कतमा च, राहुल, वायोधातु? वायोधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका वायोधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – उद्धङ्गमा वाता, अधोगमा वाता, कुच्छिसया वाता, कोट्ठासया [कोट्ठसया (सी. पी.)] वाता , अङ्गमङ्गानुसारिनो वाता, अस्सासो पस्सासो, इति यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं वायो वायोगतं उपादिन्नं – अयं वुच्चति, राहुल, अज्झत्तिका वायोधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका वायोधातु या च बाहिरा वायोधातु वायोधातुरेवेसा. तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि , न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा वायोधातुया निब्बिन्दति, वायोधातुया चित्तं विराजेति.
११८. ‘‘कतमा च, राहुल, आकासधातु? आकासधातु सिया अज्झत्तिका, सिया बाहिरा. कतमा च, राहुल, अज्झत्तिका आकासधातु? यं अज्झत्तं पच्चत्तं आकासं आकासगतं उपादिन्नं, सेय्यथिदं – कण्णच्छिद्दं नासच्छिद्दं मुखद्वारं, येन च असितपीतखायितसायितं अज्झोहरति, यत्थ च असितपीतखायितसायितं सन्तिट्ठति, येन च असितपीतखायितसायितं अधोभागं [अधोभागा (सी. स्या. कं. पी.)] निक्खमति, यं वा पनञ्ञम्पि किञ्चि अज्झत्तं पच्चत्तं आकासं आकासगतं, अघं अघगतं, विवरं विवरगतं, असम्फुट्ठं, मंसलोहितेहि उपादिन्नं [आकासगतं उपादिन्नं (सी. पी.)] – अयं वुच्चति, राहुल, अज्झत्तिका आकासधातु. या चेव खो पन अज्झत्तिका आकासधातु या च बाहिरा आकासधातु आकासधातुरेवेसा. तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मेसो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दट्ठब्बं. एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञाय दिस्वा आकासधातुया चित्तं निब्बिन्दति, आकासधातुया चित्तं विराजेति.
११९. ‘‘पथवीसमं, राहुल, भावनं भावेहि. पथवीसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति. सेय्यथापि, राहुल, पथविया सुचिम्पि निक्खिपन्ति, असुचिम्पि निक्खिपन्ति, गूथगतम्पि निक्खिपन्ति, मुत्तगतम्पि निक्खिपन्ति, खेळगतम्पि निक्खिपन्ति, पुब्बगतम्पि निक्खिपन्ति, लोहितगतम्पि निक्खिपन्ति, न च तेन पथवी अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, पथवीसमं भावनं भावेहि. पथवीसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति.
‘‘आपोसमं, राहुल, भावनं भावेहि. आपोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति. सेय्यथापि, राहुल, आपस्मिं सुचिम्पि धोवन्ति, असुचिम्पि धोवन्ति, गूथगतम्पि धोवन्ति, मुत्तगतम्पि धोवन्ति, खेळगतम्पि धोवन्ति, पुब्बगतम्पि धोवन्ति, लोहितगतम्पि धोवन्ति, न च तेन आपो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, आपोसमं भावनं भावेहि. आपोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति.
‘‘तेजोसमं, राहुल, भावनं भावेहि. तेजोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति. सेय्यथापि, राहुल, तेजो सुचिम्पि दहति, असुचिम्पि दहति, गूथगतम्पि दहति, मुत्तगतम्पि दहति, खेळगतम्पि दहति, पुब्बगतम्पि दहति, लोहितगतम्पि दहति, न च तेन तेजो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, तेजोसमं भावनं भावेहि. तेजोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति.
‘‘वायोसमं, राहुल, भावनं भावेहि. वायोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति. सेय्यथापि, राहुल, वायो सुचिम्पि उपवायति, असुचिम्पि उपवायति, गूथगतम्पि उपवायति, मुत्तगतम्पि उपवायति, खेळगतम्पि उपवायति, पुब्बगतम्पि उपवायति, लोहितगतम्पि उपवायति, न च तेन वायो अट्टीयति वा हरायति वा जिगुच्छति वा; एवमेव खो त्वं, राहुल, वायोसमं भावनं भावेहि. वायोसमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति.
‘‘आकाससमं, राहुल, भावनं भावेहि. आकाससमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति. सेय्यथापि, राहुल, आकासो न कत्थचि पतिट्ठितो; एवमेव खो त्वं, राहुल, आकाससमं भावनं भावेहि. आकाससमञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो उप्पन्ना मनापामनापा फस्सा चित्तं न परियादाय ठस्सन्ति.
१२०. ‘‘मेत्तं, राहुल, भावनं भावेहि. मेत्तञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो ब्यापादो सो पहीयिस्सति. करुणं, राहुल, भावनं भावेहि. करुणञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो या विहेसा सा पहीयिस्सति. मुदितं, राहुल, भावनं भावेहि. मुदितञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो या अरति सा पहीयिस्सति. उपेक्खं , राहुल, भावनं भावेहि. उपेक्खञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो पटिघो सो पहीयिस्सति. असुभं, राहुल, भावनं भावेहि. असुभञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो रागो सो पहीयिस्सति. अनिच्चसञ्ञं, राहुल, भावनं भावेहि. अनिच्चसञ्ञञ्हि ते, राहुल, भावनं भावयतो यो अस्मिमानो सो पहीयिस्सति.
१२१. ‘‘आनापानस्सतिं, राहुल, भावनं भावेहि. आनापानस्सति हि ते, राहुल, भाविता बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा. कथं भाविता च, राहुल, आनापानस्सति, कथं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा ? इध, राहुल, भिक्खु अरञ्ञगतो वा रुक्खमूलगतो वा सुञ्ञागारगतो वा निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा. सो सतोव अस्ससति सतोव [सतो (सी. स्या. कं. पी.)] पस्ससति.
‘‘दीघं वा अस्ससन्तो ‘दीघं अस्ससामी’ति पजानाति, दीघं वा पस्ससन्तो ‘दीघं पस्ससामी’ति पजानाति; रस्सं वा अस्ससन्तो ‘रस्सं अस्ससामी’ति पजानाति, रस्सं वा पस्ससन्तो ‘रस्सं पस्ससामी’ति पजानाति. ‘सब्बकायप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘सब्बकायप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं कायसङ्खारं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति.
‘‘‘पीतिप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पीतिप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘सुखप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘सुखप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘चित्तसङ्खारप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘चित्तसङ्खारप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पस्सम्भयं चित्तसङ्खारं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति.
‘‘‘चित्तप्पटिसंवेदी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘चित्तप्पटिसंवेदी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति ; ‘अभिप्पमोदयं चित्तं अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘अभिप्पमोदयं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘समादहं चित्तं अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘समादहं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘विमोचयं चित्तं अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘विमोचयं चित्तं पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति.
‘‘‘अनिच्चानुपस्सी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘अनिच्चानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘विरागानुपस्सी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘विरागानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘निरोधानुपस्सी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘निरोधानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पटिनिस्सग्गानुपस्सी अस्ससिस्सामी’ति सिक्खति; ‘पटिनिस्सग्गानुपस्सी पस्ससिस्सामी’ति सिक्खति.
‘‘एवं भाविता खो, राहुल, आनापानस्सति, एवं बहुलीकता महप्फला होति महानिसंसा. एवं भाविताय, राहुल, आनापानस्सतिया, एवं बहुलीकताय येपि ते चरिमका अस्सासा तेपि विदिताव निरुज्झन्ति नो अविदिता’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा राहुलो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
महाराहुलोवादसुत्तं निट्ठितं दुतियं.