ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, क्या तुम्हें मेरे द्वारा बताएं निचले पाँच संयोजन याद हैं?”
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान मालुक्यपुत्त ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे भगवान के द्वारा बताएं निचले पाँच संयोजन याद हैं।”
“मालुक्यपुत्त, तुम्हें किस तरह मेरे द्वारा बताएं निचले पाँच संयोजन याद हैं?”
“भंते, मुझे भगवान के द्वारा बतायी —
इस तरह, भंते, मुझे भगवान के द्वारा बताएं निचले पाँच संयोजन याद हैं। 1
“इस तरह, मालुक्यपुत्त, मैंने निचले पाँच संयोजन किसे बताया, जिसे जानते हो? 2 क्या परधर्मी घुमक्कड़ बच्चे की उपमा से खण्डन नहीं करेंगे?
उतान लेटने वाले नासमझ बच्चे को ‘स्व’ (=मैं/मेरा) नहीं समझता है, तो भला उसे स्व-धारणा क्या उपजेगी? तब भी स्व-धारणा का अनुशय सुप्त अवस्था में बना रहता है।
उतान लेटने वाले नासमझ बच्चे को ‘धम्म’ (=शिक्षा) नहीं समझता है, तो भला उसे उलझन क्या होगी? तब भी उलझन का अनुशय सुप्त अवस्था में बना रहता है।
उतान लेटने वाले नासमझ बच्चे को ‘शील’ नहीं समझता है, तो भला उसे शील और व्रत में अटकना क्या होगा? तब भी शील और व्रत में अटकने का अनुशय सुप्त अवस्था में बना रहता है।
उतान लेटने वाले नासमझ बच्चे को ‘कामुकता’ नहीं समझती है, तो भला उसे कामुक दिलचस्पी क्या होगी? तब भी कामुक दिलचस्पी का अनुशय सुप्त अवस्था में बना रहता है।
उतान लेटने वाले नासमझ बच्चे को ‘सत्व’ नहीं समझता है, तो भला उसे दुर्भावना क्या होगी? तब भी दुर्भावना का अनुशय सुप्त अवस्था में बना रहता है।
क्या इस तरह, मालुक्यपुत्त, परधर्मी घुमक्कड़ बच्चे की उपमा से खण्डन नहीं करेंगे?
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान आनन्द ने भगवान से कहा, “भगवान, यही समय उचित है। सुगत, यही समय उचित है। भगवान निचले पाँच संयोजन सिखाएँ। भगवान से सुनकर भिक्षुगण उसी तरह धारण करेंगे।”
“ठीक है, आनन्द। ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया।
भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, कोई धर्म न सुना, आम आदमी हो, जो आर्यजनों के दर्शन से वंचित, आर्य-धर्म से अपरिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित न हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से वंचित, सत्पुरूष-धर्म से अपरिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित न हो —
(लेकिन) भिक्षुओं, कोई धर्म सुना आर्यश्रावक हो, जो आर्यजनों के दर्शन से लाभान्वित, आर्य-धर्म से परिचित, आर्य-धर्म में अनुशासित हो; या सत्पुरुषों के दर्शन से लाभान्वित, सत्पुरूष-धर्म से परिचित, सत्पुरूष-धर्म में अनुशासित हो —
आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग होता है, अभ्यास होता है। कोई उस मार्ग पर न चल, अभ्यास न कर, निचले पाँच संयोजन को जान पाए, देख पाए, या त्याग पाए — असंभव है।
जैसे, आनन्द, विशाल वृक्ष सारकाष्ठ के साथ खड़ा हो। कोई बिना उसकी छाल काटे, बिना उसकी मृदु-काष्ठ काटे, उसकी सार काट पाए — असंभव है। उसी तरह, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग होता है, अभ्यास होता है। कोई उस मार्ग पर न चल, अभ्यास न कर, निचले पाँच संयोजन को जान पाए, देख पाए, या त्याग पाए — असंभव है।
किन्तु, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग होता है, अभ्यास होता है। कोई उस मार्ग पर चल कर, अभ्यास कर, निचले पाँच संयोजन को जान पाए, देख पाए, या त्याग पाए — यह संभव है।
जैसे, आनन्द, विशाल वृक्ष सारकाष्ठ के साथ खड़ा हो। कोई उसकी छाल को काट कर, उसकी मृदु-काष्ठ को काट कर, उसकी सार काट पाए — यह संभव है। उसी तरह, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग होता है, अभ्यास होता है। कोई उस मार्ग पर चल कर, अभ्यास कर, निचले पाँच संयोजन को जान पाए, देख पाए, या त्याग पाए — यह संभव है।
जैसे, आनन्द, गंगा नदी जल से किनारे तक इतनी भरी हो कि कौवा भी पी सके। तब कोई दुर्बल पुरुष आता है, (सोचते हुए,) ‘मैं इस गंगा नदी को बाहों से तैर कर धारा को काटते हुए दूर के तट पर सुरक्षित पहुँच जाऊँगा।’ किन्तु, वह गंगा नदी को बाहों से तैर कर धारा को काटते हुए दूर के तट पर सुरक्षित नहीं पहुँच पाता है।
उसी तरह, आनन्द, जब स्व-धारणा के निरोध के लिए धर्म बताया जाता है, तब किसी का चित्त नहीं उछलता, आश्वस्त नहीं होता, स्थिर नहीं होता, विमुक्त नहीं होता। जैसे उस दुर्बल पुरुष को जिस तरह देखा जाता है।
किन्तु, आनन्द, जैसे गंगा नदी जल से किनारे तक इतनी भरी हो कि कौवा भी पी सके। तब कोई बलवान पुरुष आता है, (सोचते हुए,) ‘मैं इस गंगा नदी को बाहों से तैर कर धारा को काटते हुए दूर के तट पर सुरक्षित पहुँच जाऊँगा।’ और, वह गंगा नदी को बाहों से तैर कर धारा को काटते हुए दूर के तट पर सुरक्षित पहुँचता है।
उसी तरह, आनन्द, जब स्व-धारणा के निरोध के लिए धर्म बताया जाता है, तब किसी का चित्त उछलता है, आश्वस्त होता है, स्थिर होता है, विमुक्त होता है। जैसे उस बलवान पुरुष को जिस तरह देखा जाता है।
और, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग क्या है, अभ्यास क्या है?
(१) आनन्द, कोई भिक्षु उपाधि से निलिप्त हो, अकुशल स्वभाव को त्याग, सभी शारीरिक परेशानियों 3 को पूरी तरह प्रशान्त कर, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब उस धर्म (=प्रथम ध्यान) से जुड़ा जो भी रूप हो, अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, (बींधने वाले) तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य (=खोखला) देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’ 4
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=प्रथम-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है। 5
— और यह, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(२) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब उस धर्म (=द्वितीय ध्यान) से जुड़ा जो भी रूप हो, अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=द्वितीय-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(३) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब उस धर्म (=तृतीय ध्यान) से जुड़ा जो भी रूप हो, अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=तृतीय ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(४) आगे, आनन्द, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
तब उस धर्म (=चतुर्थ ध्यान) से जुड़ा जो भी रूप हो, अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=चतुर्थ-ध्यान) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(५) आगे, आनन्द, वह भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
तब उस धर्म (=आकाश आयाम) से जुड़ी जो भी अनुभूति हो 6, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=आकाश आयाम) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(६) आगे, आनन्द, वह भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
तब उस धर्म (=चैतन्य आयाम) से जुड़ी जो भी अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=चैतन्य आयाम) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।
(७) आगे, आनन्द, वह भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है।
तब उस धर्म (=सूने आयाम) से जुड़ी जो भी अनुभूति हो, संज्ञा हो, रचना हो, या चैतन्य हो — उसे वह अनित्य देखता है, दुःख से जुड़ा देखता है, रोग के तौर पर देखता है, फोड़े के तौर पर देखता है, तीर के तौर पर देखता है, पीड़ा के तौर पर देखता है, मुसीबत के तौर पर देखता है, पराया देखता है, भंग होते देखता है, शून्य देखता है, अनात्म देखता है। और, अपने चित्त को विपरीत दिशा में झुकाता है।
और, ऐसा कर वह अपने चित्त को अमृत-धातु की ओर झुकाता है — (सोचते हुए,) ‘सबसे शांतिमय और सर्वोत्तम होगा — सभी रचनाओं का रुकना, सभी उपाधियों को त्यागना, तृष्णा का समाप्त होना, विराग होना, निरोध होना, निर्वाण होना।’
तब वही रुकने पर उसके आस्रवों का क्षय होता है। यदि आस्रवों का क्षय न हो, तो उस धर्म (=सूने आयाम) के प्रति दिलचस्पी, उस धर्म के प्रति खुशी के कारण, निचले पाँच संयोजन तोड़ कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट होकर वही परिनिर्वृत होता है, दुबारा इस लोक में लौटता नहीं है।
— और यह भी, आनन्द, निचले पाँच संयोजन को त्यागने का मार्ग है, अभ्यास है।” 7
“भंते, यदि इन मार्गों से, इस अभ्यास से निचले पाँच संयोजन का परित्याग किया जाता है, तब भला कोई-कोई भिक्षु “चेतो-विमुक्त”, तो कोई-कोई भिक्षु “प्रज्ञा-विमुक्त” कैसे होता है?” 8
“उस मामले में, आनन्द, मैं कहता हूँ उनके इंद्रियों में अंतर होता है।” 9
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
संयोजन के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
यह बात दिलचस्प है कि आयुष्मान मालुंक्यपुत्त ने यहाँ सही उत्तर दिया, फिर भी भगवान उनसे इस तरह फटकार के स्वर में क्यों बात करते हैं। अक्सर भगवान ऐसा तभी करते थे जब किसी भिक्षु की दृष्टि बिल्कुल गलत या पापी हो, जैसे मज्झिमनिकाय २२। अट्ठकथा में बताया गया है कि आयुष्मान मालुंक्यपुत्त को यह लगता था कि संयोजन केवल तभी मौजूद होते हैं जब वे सामने सक्रिय रूप से काम कर रहे हों। इसी कारण भगवान ने बच्चे की उपमा दी, ताकि सुप्त प्रवृत्ति की बात साफ हो सके। फिर भी, पिछले सूत्र की तुलना में मालुंक्यपुत्त के रवैये में स्पष्ट सुधार दिखता है। इस बार वे एक महत्वपूर्ण प्रश्न का सोच-समझकर उत्तर देते हैं, और भिक्षु जीवन छोड़ने के मन से भी उबरे हुए दिखाई देते हैं। याद रखें कि वे इसी जीवन में अरहंत भी हुए। ↩︎
उपाधि के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। शारीरिक परेशानियों के बारे में अधिक जानने के लिए मज्झिमनिकाय १२७ पढ़ें। ↩︎
इस सूत्र में भी समथ के आधार पर विपस्सना का अभ्यास मार्ग प्रस्तुत किया गया है। इससे स्पष्ट होता है कि समथ और विपस्सना वास्तव में अलग-अलग मार्ग नहीं, बल्कि एक-दूसरे के पूरक हैं। यद्यपि आचार्य बुद्धघोष ने अपनी अट्ठकथा, विसुद्धिमग्ग और अभिधम्म में इन दोनों को भिन्न मार्गों के रूप में प्रतिपादित करने का प्रयास किया है, तथापि बुद्धवचन में इनका सार्थक समन्वय ही मुक्ति का वास्तविक पथ दर्शाता है। समथ मन को स्थिर करता है, विपस्सना उस स्थिर मन से वास्तविकता का साक्षात्कार कराती है। और, दोनों के संयुक्त साधन से ही निर्वाण के निकट पहुँचा जा सकता है। ↩︎
यह वर्णन अनागामी अवस्था का है। इसका सरल अर्थ यह है कि यदि कोई व्यक्ति प्रथम ध्यान की अवस्था को प्राप्त करके उसमें राग या दिलचस्पी रखता है, तो वह उसके परिणामस्वरूप अनागामी अवस्था तक पहुँच सकता है। हालांकि, यदि वह उसे प्रथम ध्यान में कोई दिलचस्पी न हो, तो वह अरहंत अवस्था भी प्राप्त कर सकता है। आस्रवों के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
यहाँ ध्यान देना आवश्यक है कि अरूप आयाम में “रूप” स्कंध का परित्याग कर दिया जाता है, जिससे उसे ‘अनित्य… अनात्म’ आदि दृष्टिकोणों से देखना संभव नहीं रह जाता। अतः इस आयाम में अब शेष चार स्कंध — ‘वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान’ — को ही ‘अनित्य… अनात्म’ इत्यादि के रूप में देखना आवश्यक होता है। ↩︎
गौर करें कि भगवान ने चौथे अरूप आयाम “न-संज्ञा न-असंज्ञा आयाम” को इस सूची में शामिल नहीं किया है। इसका कारण यह है कि यह अंतिम अरूप आयाम अत्यंत सूक्ष्म होता है, और उस अवस्था में रहते हुए न तो उस पर किसी प्रकार का चिंतन-मनन किया जा सकता है, न ही वहाँ रहते हुए उसे प्रज्ञापूर्वक समझा जा सकता है। विपस्सना का अभ्यास “संज्ञा” पर आधारित होता है। इसलिए “न-संज्ञा न-असंज्ञा आयाम” में विपस्सना करना असंभव होता है। अधिक जानने के लिए अंगुत्तरनिकाय ९.३६ पढ़ें। ↩︎
चेतोविमुक्त, प्रज्ञाविमुक्त और उभतोभागविमुक्त के बारे में अच्छे से जानने के लिए अंगुत्तरनिकाय ९.४३, ९.४४, और ९.४५ पढ़ें। ↩︎
इंद्रियों में अंतर होने की बात, भगवान संयुक्तनिकाय ४८.१३ और संयुक्तनिकाय ४८.१६ में भी करते हैं। इंद्रियों में अंतर के बारे में अधिक जानने के लिए मज्झिमनिकाय ६६ भी पढ़ें। ↩︎
१२९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘धारेथ नो तुम्हे, भिक्खवे, मया देसितानि पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानी’’ति?
एवं वुत्ते, आयस्मा मालुक्यपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहं खो, भन्ते, धारेमि भगवता देसितानि पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानी’’ति. ‘‘यथा कथं पन त्वं, मालुक्यपुत्त, धारेसि मया देसितानि पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानी’’ति? ‘‘सक्कायदिट्ठिं खो अहं, भन्ते, भगवता ओरम्भागियं संयोजनं देसितं धारेमि; विचिकिच्छं खो अहं, भन्ते, भगवता ओरम्भागियं संयोजनं देसितं धारेमि; सीलब्बतपरामासं खो अहं, भन्ते, भगवता ओरम्भागियं संयोजनं देसितं धारेमि; कामच्छन्दं खो अहं, भन्ते, भगवता ओरम्भागियं संयोजनं देसितं धारेमि; ब्यापादं खो अहं, भन्ते, भगवता ओरम्भागियं संयोजनं देसितं धारेमि. एवं खो अहं, भन्ते, धारेमि भगवता देसितानि पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानी’’ति.
‘‘कस्स खो नाम त्वं, मालुक्यपुत्त, इमानि एवं पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि देसितानि धारेसि? ननु, मालुक्यपुत्त , अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका इमिना तरुणूपमेन उपारम्भेन उपारम्भिस्सन्ति? दहरस्स हि, मालुक्यपुत्त, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स सक्कायोतिपि न होति, कुतो पनस्स उप्पज्जिस्सति सक्कायदिट्ठि? अनुसेत्वेवस्स [अनुसेति त्वेवस्स (सी. पी.)] सक्कायदिट्ठानुसयो. दहरस्स हि, मालुक्यपुत्त, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स धम्मातिपि न होति, कुतो पनस्स उप्पज्जिस्सति धम्मेसु विचिकिच्छा? अनुसेत्वेवस्स विचिकिच्छानुसयो. दहरस्स हि, मालुक्यपुत्त, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स सीलातिपि न होति, कुतो पनस्स उप्पज्जिस्सति सीलेसु सीलब्बतपरामासो? अनुसेत्वेवस्स सीलब्बतपरामासानुसयो . दहरस्स हि, मालुक्यपुत्त, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स कामातिपि न होति, कुतो पनस्स उप्पज्जिस्सति कामेसु कामच्छन्दो? अनुसेत्वेवस्स कामरागानुसयो. दहरस्स हि, मालुक्यपुत्त, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स सत्तातिपि न होति, कुतो पनस्स उप्पज्जिस्सति सत्तेसु ब्यापादो? अनुसेत्वेवस्स ब्यापादानुसयो. ननु, मालुक्यपुत्त, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका इमिना तरुणूपमेन उपारम्भेन उपारम्भिस्सन्ती’’ति? एवं वुत्ते, आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतस्स, भगवा, कालो, एतस्स, सुगत, कालो यं भगवा पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि देसेय्य. भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति. ‘‘तेन हानन्द, सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि; भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –
१३०. ‘‘इधानन्द , अस्सुतवा पुथुज्जनो अरियानं अदस्सावी अरियधम्मस्स अकोविदो अरियधम्मे अविनीतो, सप्पुरिसानं अदस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स अकोविदो सप्पुरिसधम्मे अविनीतो सक्कायदिट्ठिपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति सक्कायदिट्ठिपरेतेन; उप्पन्नाय च सक्कायदिट्ठिया निस्सरणं यथाभूतं नप्पजानाति. तस्स सा सक्कायदिट्ठि थामगता अप्पटिविनीता ओरम्भागियं संयोजनं. विचिकिच्छापरियुट्ठितेन चेतसा विहरति विचिकिच्छापरेतेन; उप्पन्नाय च विचिकिच्छाय निस्सरणं यथाभूतं नप्पजानाति. तस्स सा विचिकिच्छा थामगता अप्पटिविनीता ओरम्भागियं संयोजनं. सीलब्बतपरामासपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति सीलब्बतपरामासपरेतेन; उप्पन्नस्स च सीलब्बतपरामासस्स निस्सरणं यथाभूतं नप्पजानाति. तस्स सो सीलब्बतपरामासो थामगतो अप्पटिविनीतो ओरम्भागियं संयोजनं. कामरागपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति कामरागपरेतेन ; उप्पन्नस्स च कामरागस्स निस्सरणं यथाभूतं नप्पजानाति. तस्स सो कामरागो थामगतो अप्पटिविनीतो ओरम्भागियं संयोजनं. ब्यापादपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति ब्यापादपरेतेन; उप्पन्नस्स च ब्यापादस्स निस्सरणं यथाभूतं नप्पजानाति. तस्स सो ब्यापादो थामगतो अप्पटिविनीतो ओरम्भागियं संयोजनं.
१३१. ‘‘सुतवा च खो, आनन्द, अरियसावको अरियानं दस्सावी अरियधम्मस्स कोविदो अरियधम्मे सुविनीतो, सप्पुरिसानं दस्सावी सप्पुरिसधम्मस्स कोविदो सप्पुरिसधम्मे सुविनीतो न सक्कायदिट्ठिपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति न सक्कायदिट्ठिपरेतेन; उप्पन्नाय च सक्कायदिट्ठिया निस्सरणं यथाभूतं पजानाति. तस्स सा सक्कायदिट्ठि सानुसया पहीयति. न विचिकिच्छापरियुट्ठितेन चेतसा विहरति न विचिकिच्छापरेतेन; उप्पन्नाय च विचिकिच्छाय निस्सरणं यथाभूतं पजानाति. तस्स सा विचिकिच्छा सानुसया पहीयति. न सीलब्बतपरामासपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति न सीलब्बतपरामासपरेतेन; उप्पन्नस्स च सीलब्बतपरामासस्स निस्सरणं यथाभूतं पजानाति. तस्स सो सीलब्बतपरामासो सानुसयो पहीयति. न कामरागपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति न कामरागपरेतेन; उप्पन्नस्स च कामरागस्स निस्सरणं यथाभूतं पजानाति. तस्स सो कामरागो सानुसयो पहीयति . न ब्यापादपरियुट्ठितेन चेतसा विहरति न ब्यापादपरेतेन; उप्पन्नस्स च ब्यापादस्स निस्सरणं यथाभूतं पजानाति. तस्स सो ब्यापादो सानुसयो पहीयति.
१३२. ‘‘यो, आनन्द, मग्गो या पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय तं मग्गं तं पटिपदं अनागम्म पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि ञस्सति वा दक्खति वा पजहिस्सति वाति – नेतं ठानं विज्जति. सेय्यथापि, आनन्द, महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो तचं अच्छेत्वा फेग्गुं अच्छेत्वा सारच्छेदो भविस्सतीति – नेतं ठानं विज्जति; एवमेव खो, आनन्द, यो मग्गो या पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय तं मग्गं तं पटिपदं अनागम्म पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि ञस्सति वा दक्खति वा पजहिस्सति वाति – नेतं ठानं विज्जति.
‘‘यो च खो, आनन्द, मग्गो या पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय तं मग्गं तं पटिपदं आगम्म पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि ञस्सति वा दक्खति वा पजहिस्सति वाति – ठानमेतं विज्जति. सेय्यथापि, आनन्द, महतो रुक्खस्स तिट्ठतो सारवतो तचं छेत्वा फेग्गुं छेत्वा सारच्छेदो भविस्सतीति – ठानमेतं विज्जति; एवमेव खो, आनन्द, यो मग्गो या पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय तं मग्गं तं पटिपदं आगम्म पञ्चोरम्भागियानि संयोजनानि ञस्सति वा दक्खति वा पजहिस्सति वाति – ठानमेतं विज्जति. सेय्यथापि, आनन्द, गङ्गा नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या. अथ दुब्बलको पुरिसो आगच्छेय्य – ‘अहं इमिस्सा गङ्गाय नदिया तिरियं बाहाय सोतं छेत्वा सोत्थिना पारं गच्छिस्सामी’ति [गच्छामीति (सी. पी.)]; सो न सक्कुणेय्य गङ्गाय नदिया तिरियं बाहाय सोतं छेत्वा सोत्थिना पारं गन्तुं. एवमेव खो, आनन्द, येसं केसञ्चि [यस्स कस्सचि (सब्बत्थ)] सक्कायनिरोधाय धम्मे देसियमाने चित्तं न पक्खन्दति नप्पसीदति न सन्तिट्ठति न विमुच्चति; सेय्यथापि सो दुब्बलको पुरिसो एवमेते दट्ठब्बा. सेय्यथापि, आनन्द, गङ्गा नदी पूरा उदकस्स समतित्तिका काकपेय्या. अथ बलवा पुरिसो आगच्छेय्य – ‘अहं इमिस्सा गङ्गाय नदिया तिरियं बाहाय सोतं छेत्वा सोत्थिना पारं गच्छिस्सामी’ति; सो सक्कुणेय्य गङ्गाय नदिया तिरियं बाहाय सोतं छेत्वा सोत्थिना पारं गन्तुं. एवमेव खो, आनन्द, येसं केसञ्चि सक्कायनिरोधाय धम्मे देसियमाने चित्तं पक्खन्दति पसीदति सन्तिट्ठति विमुच्चति; सेय्यथापि सो बलवा पुरिसो एवमेते दट्ठब्बा.
१३३. ‘‘कतमो चानन्द, मग्गो, कतमा पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय? इधानन्द, भिक्खु उपधिविवेका अकुसलानं धम्मानं पहाना सब्बसो कायदुट्ठुल्लानं पटिप्पस्सद्धिया विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो यदेव तत्थ होति रूपगतं वेदनागतं सञ्ञागतं सङ्खारगतं विञ्ञाणगतं ते धम्मे अनिच्चतो दुक्खतो रोगतो गण्डतो सल्लतो अघतो आबाधतो परतो पलोकतो सुञ्ञतो अनत्ततो समनुपस्सति. सो तेहि धम्मेहि चित्तं पटिवापेति [पटिपापेति (स्या.), पतिट्ठापेति (क.)]. सो तेहि धम्मेहि चित्तं पटिवापेत्वा अमताय धातुया चित्तं उपसंहरति – ‘एतं सन्तं एतं पणीतं यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बान’न्ति. सो तत्थ ठितो आसवानं खयं पापुणाति; नो चे आसवानं खयं पापुणाति तेनेव धम्मरागेन ताय धम्मनन्दिया पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति, तत्थ परिनिब्बायी, अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, आनन्द, मग्गो अयं पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय.
‘‘पुन चपरं, आनन्द, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति… ततियं झानं… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो यदेव तत्थ होति रूपगतं वेदनागतं सञ्ञागतं सङ्खारगतं विञ्ञाणगतं… अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, आनन्द, मग्गो अयं पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय.
‘‘पुन चपरं, आनन्द, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो यदेव तत्थ होति वेदनागतं सञ्ञागतं सङ्खारगतं विञ्ञाणगतं…पे… अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, आनन्द, मग्गो अयं पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय.
‘‘पुन चपरं, आनन्द, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो यदेव तत्थ होति वेदनागतं सञ्ञागतं सङ्खारगतं विञ्ञाणगतं…पे… अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, आनन्द, मग्गो अयं पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय.
‘‘पुन चपरं, आनन्द, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति. सो यदेव तत्थ होति वेदनागतं सञ्ञागतं सङ्खारगतं विञ्ञाणगतं…पे… अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका. अयम्पि खो, आनन्द, मग्गो अयं पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाया’’ति.
‘‘एसो चे, भन्ते, मग्गो एसा पटिपदा पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं पहानाय, अथ किञ्चरहि इधेकच्चे भिक्खू चेतोविमुत्तिनो एकच्चे भिक्खू पञ्ञाविमुत्तिनो’’ति? ‘‘एत्थ खो पनेसाहं [एत्थ खो तेसाहं (सी. स्या. कं. पी.)], आनन्द, इन्द्रियवेमत्ततं वदामी’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
महामालुक्यसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.