ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, मैं (दिन में) एक बार बैठकर भोजन करता हूँ। एक ही बार भोजन करने से, भिक्षुओं, मुझे न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देता है।
तुम भी, भिक्षुओं, एक बार भोजन करो! एक ही बार भोजन करने से, भिक्षुओं, तुम्हें भी न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देगा।”
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान भद्दालि ने भगवान से कहा, “भंते, मैं एक बार भोजन पर नहीं रह सकता। एक ही बार भोजन पर रहने पर, भंते, मुझे पश्चाताप हो सकता है, उदासी हो सकती है।”
“ठीक है, भद्दालि, जहाँ तुम्हें निमंत्रण मिले, वहाँ जाकर एक हिस्सा खाओ, और एक हिस्सा लाकर खाओ। इस तरह भी, भद्दालि, तुम एक ही बार भोजन पर यापन करोगे।”
“नहीं, भंते, मैं उस तरह भी नहीं खाऊँगा। उस तरह भी खाने पर, भंते, मुझे पश्चाताप हो सकता है, उदासी हो सकती है।”
इस तरह, जब भगवान शिक्षापद (=नियम) समझा रहे थे, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु आयुष्मान भद्दालि ने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की।
तब आयुष्मान भद्दालि पूरे तीन महीने तक भगवान के सम्मुख नहीं आए, जैसे शास्ता की शिक्षा को अपूर्ण करने वाले के साथ होता ही है।
उस समय बहुत से भिक्षुगण भगवान के लिए चीवर सिलने में व्यस्त थे। चीवर तैयार होने पर (वर्षावास के) तीन महीने पश्चात भगवान भ्रमण पर निकल पड़ेंगे।
तब आयुष्मान भद्दालि उन भिक्षुओं के पास गए। जाकर उन भिक्षुओं से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान भद्दालि ने भिक्षुओं से कहा, “मित्र भद्दालि, हम भगवान के लिए चीवर सिल रहे हैं। चीवर तैयार होने पर तीन महीने खत्म होते ही भगवान भ्रमण पर निकल पड़ेंगे। अब चलो भी, मित्र भद्दालि, ठीक से अपनी गलती पर ध्यान दो। इसे इतना भी कठिन मत बनाओ।”
“ठीक है, मित्रों।” आयुष्मान भद्दालि ने भिक्षुओं को उत्तर देकर भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान भद्दालि ने भगवान से कहा, “भंते, मुझसे गलती हुई। मैं इतना मूर्ख, इतना मूढ़, इतना अकुशल था कि जब भगवान शिक्षापद समझा रहे थे, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु मैंने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की। भंते, मेरी उस गलती को भगवान ग्रहण करे, ताकि मैं भविष्य में संयम करूँ।”
“वाकई, भद्दालि, तुमसे गलती हुई। 1 तुम इतने मूर्ख, इतने मूढ़, इतने अकुशल थे कि जब मैं शिक्षापद समझा रहा था, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु तुमने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की। और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का अहसास नहीं हुआ कि ‘भगवान श्रावस्ती में ही विहार कर रहे हैं। वे भगवान मुझे इस तरह याद रखेंगे कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।
और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का भी अहसास नहीं हुआ कि ‘बहुत से भिक्षुगण श्रावस्ती में वर्षावास कर रहे हैं। वे मुझे इस तरह याद रखेंगे कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का भी, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।
और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का भी अहसास नहीं हुआ कि ‘बहुत सी भिक्षुणियाँ श्रावस्ती में वर्षावास कर रही हैं। वे मुझे इस तरह याद रखेंगी कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का भी, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।
और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का भी अहसास नहीं हुआ कि ‘बहुत से उपासक श्रावस्ती में रहते हैं। वे मुझे इस तरह याद रखेंगे कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का भी, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।
और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का भी अहसास नहीं हुआ कि ‘बहुत सी उपासिकाएँ श्रावस्ती में रहती हैं। वे मुझे इस तरह याद रखेंगी कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का भी, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।
और, भद्दालि, तुम्हें इस बात का भी अहसास नहीं हुआ कि ‘बहुत से परधर्मी श्रमण-ब्राह्मण श्रावस्ती में वर्षावास कर रहे हैं। वे मुझे इस तरह याद रखेंगे कि ‘भद्दालि नामक भिक्षु, जो श्रमण गोतम के वरिष्ठों में एक श्रावक है, वह शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।’ इस बात का भी, भद्दालि, तुम्हें अहसास नहीं हुआ।”
“भंते, मुझसे गलती हुई। मैं इतना मूर्ख, इतना मूढ़, इतना अकुशल था कि जब भगवान शिक्षापद समझा रहे थे, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु मैंने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की। भंते, मेरी उस गलती को भगवान ग्रहण करे, ताकि मैं भविष्य में संयम करूँ।”
“वाकई, भद्दालि, तुमसे गलती हुई। तुम इतने मूर्ख, इतने मूढ़, इतने अकुशल थे कि जब मैं शिक्षापद समझा रहा था, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु तुमने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की।
तुम्हें क्या लगता है, भद्दालि? यदि मैं किसी दोनों ओर से विमुक्त भिक्षु 2 से कहूँ, ‘चलो, भिक्षु, मेरे लिए कीचड़ पार करने का सेतु बनो।’ तो क्या वह स्वयं पार करेगा, या काया को अलग हटाएगा, या ‘नहीं’ बोलेगा?”
“नहीं, भंते।”
“तुम्हें क्या लगता है, भद्दालि? यदि मैं किसी —
“नहीं, भंते।”
तब, तुम्हें क्या लगता है, भद्दालि? क्या तुम उस समय दोनों ओर से विमुक्त थे, या प्रज्ञाविमुक्त थे, या कायसाक्षी थे, या दृष्टिप्राप्त थे, या श्रद्धाविमुक्त थे, या धम्मानुसारी थे, या श्रद्धानुसारी थे?"
“नहीं, भंते।”
“तब क्या उस समय, भद्दालि, तुम खोखले, तुच्छ और गलत नहीं थे?”
“हाँ, भंते। भंते, मुझसे गलती हुई। मैं इतना मूर्ख, इतना मूढ़, इतना अकुशल था कि जब भगवान शिक्षापद समझा रहे थे, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु मैंने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की। भंते, मेरी उस गलती को भगवान ग्रहण करे, ताकि मैं भविष्य में संयम करूँ।”
“वाकई, भद्दालि, तुमसे गलती हुई। तुम इतने मूर्ख, इतने मूढ़, इतने अकुशल थे कि जब मैं शिक्षापद समझा रहा था, भिक्षुसंघ उस शिक्षा को आत्मसात कर रहा था, किन्तु तुमने उस नियम का पालन न करने की घोषणा की। हालांकि तुम उस गलती को गलती देखते हैं और धर्मानुसार सुधार करते हो, तो मैं उसे ग्रहण करता हूँ। क्योंकि, भद्दालि, आर्य विनय में इसे ‘विकास’ माना जाता है जब कोई गलती को गलती देखता है, उसे धर्मानुसार सुधारता है, और भविष्य में संयम करता है।
कोई भिक्षु होता है, भद्दालि, जो शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है। उसे लगता है, ‘क्यों न मैं कहीं कोई एकांतवास लूँ — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। ताकि मुझे भी कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन का साक्षात्कार हो।’
तब वह कहीं एकांतवास लेता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। इस तरह निर्लिप्त विहार करते हुए वह शास्ता से फटकारा जाता है, या समझदार सब्रह्मचारी से फटकारा जाता है, या देवता से फटकारा जाता है, या स्वयं ही स्वयं से फटकारा जाता है।
इस तरह, वह शास्ता से फटकारा जाने पर, या समझदार सब्रह्मचारी से फटकारा जाने पर, या देवता से फटकारा जाने पर, या स्वयं ही स्वयं से फटकारा जाने पर उसे कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन का साक्षात्कार नहीं होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन नहीं करता है।
किन्तु, भद्दालि, कोई भिक्षु होता है, जो शास्ता के शासन में नियम पालन करता है। उसे लगता है, ‘क्यों न मैं कहीं कोई एकांतवास लूँ — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। ताकि मुझे भी कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन का साक्षात्कार हो।’
तब वह कहीं एकांतवास लेता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। इस तरह निर्लिप्त विहार करते हुए वह शास्ता से फटकारा नहीं जाता, या समझदार सब्रह्मचारी से फटकारा नहीं जाता, या देवता से फटकारा नहीं जाता, या स्वयं ही स्वयं से फटकारा नहीं जाता।
इस तरह, वह शास्ता से फटकारा न जाने पर, या समझदार सब्रह्मचारी से फटकारा न जाने पर, या देवता से फटकारा न जाने पर, या स्वयं ही स्वयं से फटकारा न जाने पर उसे अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन का साक्षात्कार होता है। वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, वह भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, वह भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, वह भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
आगे, भद्दालि, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।
‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ ऐसा क्यों? क्योंकि, भद्दालि, वह शास्ता के शासन में नियम पालन करता है।
जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान भद्दालि ने भगवान से कहा, “भंते, किस कारण और किस परिस्थिति में किसी भिक्षु को क्यों दबाव पर दबाव डाला जाता है? और, किस कारण, किस परिस्थिति में किसी भिक्षु को क्यों दबाव नहीं डाला जाता?”
“(१) भद्दालि, कोई भिक्षु हमेशा ही बहुत उल्लंघन करने वाला दोषी होता है। भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ चला जाता है; इधर-उधर की बात करता है; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करता है; सम्यक रूप से बर्ताव नहीं करता, अपने रोम नहीं गिराता (=शांति से मानता नहीं), स्वयं को मुक्त नहीं करता, ऐसा नहीं सोचता, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’
ऐसा हो, भद्दालि, तब भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु तो हमेशा ही बहुत उल्लंघन करने वाला दोषी है। भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ चला जाता है; इधर-उधर की बात करता है; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करता है; सम्यक रूप से बर्ताव नहीं करता, अपने रोम नहीं गिराता, स्वयं को मुक्त नहीं करता, ऐसा नहीं सोचता, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’ बहुत अच्छा होगा, आयुष्मानों, जो भिक्षुगण उसे यहाँ-वहाँ की ऐसी पूछताछ करें और जो भी उस पर अधिकरण 3 लगा हो, वह शीघ्र शांत न होने पाएँ।’
तब, भद्दालि, भिक्षुगण उसकी यहाँ-वहाँ की ऐसी पूछताछ करते हैं, और जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, उसे शीघ्र शांत नहीं होने देते हैं।
(२) और, भद्दालि, कोई दूसरा भिक्षु भी हमेशा ही बहुत उल्लंघन करने वाला दोषी होता है। किन्तु भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ नहीं चला जाता; इधर-उधर की बात नहीं करता; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट नहीं प्रकट करता; बल्कि सम्यक रूप से बर्ताव करता है, अपने रोम गिराता है (=शांति से मान जाता है), स्वयं को मुक्त करता है, ऐसा सोचता है, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’
ऐसा हो, भद्दालि, तब भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु तो हमेशा ही बहुत उल्लंघन करने वाला दोषी है। किन्तु भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ नहीं चला जाता; इधर-उधर की बात नहीं करता; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट नहीं प्रकट करता; बल्कि सम्यक रूप से बर्ताव करता है, अपने रोम गिराता है (=शांति से मान जाता है), स्वयं को मुक्त करता है, ऐसा सोचता है, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’ बहुत अच्छा होगा, आयुष्मानों, जो भिक्षुगण उसकी इस तरह पूछताछ करें कि जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, वह शीघ्र शांत हो जाए।’
तब, भद्दालि, भिक्षुगण उसकी इस तरह पूछताछ करते हैं कि जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, वह शीघ्र शांत हो जाता है।
(३) आगे, भद्दालि, कोई भिक्षु बहुत कम उल्लंघन करने वाला अल्प दोषी होता है। किन्तु भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ चला जाता है; इधर-उधर की बात करता है; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करता है; सम्यक रूप से बर्ताव नहीं करता, अपने रोम नहीं गिराता, स्वयं को मुक्त नहीं करता, ऐसा नहीं सोचता, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’
ऐसा हो, भद्दालि, तब भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु बहुत कम उल्लंघन करने वाला अल्प दोषी अवश्य है। किन्तु भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ चला जाता है; इधर-उधर की बात करता है; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करता है; सम्यक रूप से बर्ताव नहीं करता, अपने रोम नहीं गिराता, स्वयं को मुक्त नहीं करता, ऐसा नहीं सोचता, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’ बहुत अच्छा होगा, आयुष्मानों, जो भिक्षुगण उसे यहाँ-वहाँ की ऐसी पूछताछ करें और जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, वह शीघ्र शांत न होने पाएँ।’
तब, भद्दालि, भिक्षुगण उसकी यहाँ-वहाँ की ऐसी पूछताछ करते हैं, और जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, उसे शीघ्र शांत नहीं होने देते हैं।
(४) आगे, भद्दालि, कोई भिक्षु बहुत कम उल्लंघन करने वाला अल्प दोषी होता है। किन्तु भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ नहीं चला जाता; इधर-उधर की बात नहीं करता; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट नहीं प्रकट करता; बल्कि सम्यक रूप से बर्ताव करता है, अपने रोम गिराता है (=शांति से मान जाता है), स्वयं को मुक्त करता है, ऐसा सोचता है, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’
ऐसा हो, भद्दालि, तब भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु बहुत कम उल्लंघन करने वाला अल्प दोषी है। और भिक्षुओं से फटकारे जाने पर, वह यहाँ-वहाँ नहीं चला जाता; इधर-उधर की बात नहीं करता; गुस्सा, द्वेष और कड़वाहट नहीं प्रकट करता; बल्कि सम्यक रूप से बर्ताव करता है, अपने रोम गिराता है, स्वयं को मुक्त करता है, ऐसा सोचता है, ‘जिससे संघ खुश होगा, वह मैं करूँगा।’ बहुत अच्छा होगा, आयुष्मानों, जो भिक्षुगण उसकी इस तरह पूछताछ करें कि जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, वह शीघ्र शांत हो जाए।’
तब, भद्दालि, भिक्षुगण उसकी इस तरह पूछताछ करते हैं कि जो भी उस पर अधिकरण लगा हो, वह शीघ्र शांत हो जाता है।
(५) आगे, भद्दालि, कोई भिक्षु केवल थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़े-से प्रेम मात्र से आगे बढ़ रहा होता है। तब, भद्दालि, भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु केवल थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़े-से प्रेम मात्र से आगे बढ़ रहा है। यदि हम इस भिक्षु पर दबाव पर दबाव डालें… अरे नहीं! कहीं उसकी थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़ा-सा प्रेम भी खो न जाए!’
जैसे, भद्दालि, किसी पुरुष की एक ही आँख हो। उसके मित्र-सहकारी, नाती-रिश्तेदार उसकी एक आँख की रक्षा करेंगे, ‘अरे नहीं! कहीं उसकी एक आँख भी खो न जाए!’ उसी तरह, भद्दालि, कोई भिक्षु केवल थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़े-से प्रेम मात्र से आगे बढ़ रहा होता है। तब, भद्दालि, भिक्षुओं को लगता है, ‘मित्रों, यह भिक्षु केवल थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़े-से प्रेम मात्र से आगे बढ़ रहा है। यदि हम इस भिक्षु पर दबाव पर दबाव डालें… अरे नहीं! कहीं उसकी थोड़ी-सी श्रद्धा और थोड़ा-सा प्रेम भी खो न जाए!’
इस कारण और इस परिस्थिति में, भद्दालि, किसी भिक्षु को दबाव पर दबाव डाला जाता है। और, इस कारण और इस परिस्थिति में किसी भिक्षु को दबाव नहीं डाला जाता है।”
“भंते, क्या कारण, क्या परिस्थिति है, जो पहले कम ही शिक्षापद होते थे, किन्तु अधिक भिक्षु अंतिम-ज्ञान (=अर्हतफल) में स्थापित थे। और, भंते, क्या कारण, क्या परिस्थिति है, जो आजकल अधिक शिक्षापद हैं, किन्तु कम ही भिक्षु अंतिम-ज्ञान में स्थापित हैं?”
“ऐसा ही है, भद्दालि। जब सत्वों का पतन हो रहा हो और सद्धर्म विलुप्त हो रहा हो, तब अधिक शिक्षापद होते हैं, किन्तु कम ही भिक्षु अंतिम-ज्ञान में स्थापित होते हैं।
भद्दालि, शास्ता तब तक श्रावकों को शिक्षापद नहीं समझाते हैं, जब तक कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में प्रकट नहीं होते हैं। किन्तु, भद्दालि, जब कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में प्रकट हो जाते हैं, तब शास्ता श्रावकों को शिक्षापद समझाते हैं, ताकि उन आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव को हटा सकें।
और, भद्दालि, कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में तब तक प्रकट नहीं होते हैं, जब तक संघ बहुत बड़ा नहीं हो जाता। किन्तु, भद्दालि, जब संघ बहुत बड़ा हो जाता है, तभी कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में प्रकट हो जाते हैं। और तभी शास्ता श्रावकों को शिक्षापद समझाते हैं, ताकि उन आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव को हटा सकें।
और, भद्दालि, कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में तब तक प्रकट नहीं होते हैं, जब तक संघ सर्वोच्च लाभ प्राप्तकर्ता नहीं बन जाता, सर्वोच्च किर्ति प्राप्तकर्ता नहीं बन जाता, बहुत-सी शिक्षाओं वाला नहीं बनता, वरिष्ठता प्राप्त नहीं करता है। किन्तु, भद्दालि, जब संघ इतनी वरिष्ठता प्राप्त कर लेता है, तभी कोई-कोई आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव संघ में प्रकट हो जाते हैं। और तभी शास्ता श्रावकों को शिक्षापद समझाते हैं, ताकि उन आस्रवों का आधार बनाने वाले स्वभाव को हटा सकें।
तुम थोड़े-से ही लोग थे, भद्दालि, जिस समय मैंने अच्छी नस्ल के तरुण घोड़े की उपमा से धर्म उपदेश दिया था। क्या तुम्हें याद है, भद्दालि?”
“नहीं, भंते!”
“क्या कारण है, भद्दालि?”
“भंते, अवश्य ही मैं दीर्घकाल से शास्ता के शासन में नियमों का पालन नहीं किया होगा।”
“यही एकमेव कारण नहीं है, भद्दालि। बल्कि मैंने दीर्घकाल से अपना मानस फैलाकर तुम्हारे मानस को जाना है कि ‘जब भी मैं धर्म बताता हूँ, यह निकम्मा पुरुष कभी ध्यान नहीं देता, गौर नहीं करता, पूरा मन नहीं लगाता, अच्छे से कान लगाकर धर्म नहीं सुनता है।’ तब भी, भद्दालि, मैं तुम्हें (फिर से) अच्छी नस्ल के तरुण घोड़े की उपमा से धर्म उपदेश दूँगा। ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, भंते।” आयुष्मान भद्दालि ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“जैसे, भद्दालि, कोई निपुण घोड़े का प्रशिक्षक हो, जो किसी अच्छे नस्ल के तरुण घोड़े को प्राप्त करे। वह सबसे पहले उसे लगाम पहनने की आदत डालता है। चूंकि उसने पहले कभी ऐसा नहीं किया होता, तो वह उस लगाम को पहनने पर तड़प, छटपटाहट और हिचकिचाहट प्रकट करता है। लेकिन नियमित और क्रमिक अभ्यास के साथ उसकी वह वृत्ति शान्त हो जाती है।
और, भद्दालि, जब नियमित और क्रमिक अभ्यास से उस अच्छे नस्ल के तरुण घोड़े की वृत्ति शान्त हो जाती है, तब वह घोड़े का प्रशिक्षक उसे साज पहनने की आदत डालता है। चूंकि उसने पहले कभी ऐसा नहीं किया होता, तो वह उस साज को पहनने पर तड़प, छटपटाहट और हिचकिचाहट प्रकट करता है। लेकिन नियमित और क्रमिक अभ्यास के साथ उसकी वह वृत्ति शान्त हो जाती है।
और, भद्दालि, जब नियमित और क्रमिक अभ्यास से उस अच्छे नस्ल के तरुण घोड़े की वृत्ति शान्त हो जाती है, तब वह घोड़े का प्रशिक्षक उसे कदम-ताल कराता है, गोल-गोल दौड़ाता है, (पिछले पैरो पर) खड़ा कराता है, कुदाता है, भगाता है, राजसी गुणों और राजसी वंश के अनुसार, गति में उत्तम, समूह में उत्तम, सौम्यता में उत्तम। चूंकि उसने पहले कभी ऐसा नहीं किया होता, तो वह उस सौम्यता में उत्तम के कारण तड़प, छटपटाहट और हिचकिचाहट प्रकट करता है। लेकिन नियमित और क्रमिक अभ्यास के साथ उसकी वह वृत्ति शान्त हो जाती है।
और, भद्दालि, जब नियमित और क्रमिक अभ्यास से उस अच्छे नस्ल के तरुण घोड़े की वृत्ति शान्त हो जाती है, तब वह घोड़े का प्रशिक्षक आगे उसे सुंदर (=साज-श्रुंगार) बनाकर, और मालिश देकर पुरस्कृत करता है। इस तरह, भद्दालि, दस अंगों से संपन्न अच्छे नस्ल का तरुण घोड़ा राजा के योग्य होता है, राजा द्वारा उपभोग किया जाता है, राजसी अंगों में गिना जाता है।
उसी तरह, भद्दालि, दस धर्मों से संपन्न भिक्षु उपहार के योग्य होता है, सत्कार के योग्य होता है, दक्षिणा के योग्य होता है, प्रणाम के योग्य होता है, दुनिया के लिए अनुत्तर पुण्यक्षेत्र होता है। कौन से दस?
जब, भद्दालि, कोई भिक्षु —
इन दस धर्मों से संपन्न भिक्षु, भद्दालि, उपहार के योग्य होता है, सत्कार के योग्य होता है, दक्षिणा के योग्य होता है, प्रणाम के योग्य होता है, दुनिया के लिए अनुत्तर पुण्यक्षेत्र होता है।” 4
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान भद्दालि ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
हर व्यक्ति कभी न कभी मिथ्यादृष्टि के कारण गलती करता है। लेकिन जब वह उसे सचमुच गलती की तरह देखने लगता है, तभी उसकी दृष्टि बदलती है। यही क्षण होता है जब मिथ्या दृष्टि का अहंकार टूटता है, और सम्यक दृष्टि की विनम्रता जन्म लेती है। जब कोई सच्चे दिल से अपनी गलती स्वीकार करता है, तो भगवान उसे नज़रअंदाज़ नहीं करते। वे उस स्वीकारोक्ति को गंभीरता से ग्रहण करते हैं। क्योंकि वे जानते हैं कि इस क्षण तक पहुँचने के लिए व्यक्ति ने अपने भीतर आत्ममंथन किया होगा और साहस जुटाया होगा। गलती को नकारना, उस आध्यात्मिक यात्रा की अवहेलना करना है, जिसे वह पार कर उस स्वीकृति तक पहुँचा है। यह क्षमा से अधिक एक जागृति का क्षण होता है। ↩︎
दोनों ओर से विमुक्त, या “उभतोभागविमुत्त”, चेतोविमुक्त और प्रज्ञाविमुक्त अरहंत होता है। इन सभी सात प्रकार के आर्यश्रावक अवस्थाओं के बारे में जानने के लिए मज्झिमनिकाय ७० पढ़ें। ↩︎
अधिकरण विनय पर आधारित एक प्रावधान है, जो भिक्षुसंघ की न्यायिक प्रक्रिया से संबंधित होता है। इसमें चार अधिकरण नियम होते हैं, जिनका उल्लेख मज्झिमनिकाय १०४ में भी मिलता है। इस प्रक्रिया के अंतर्गत किसी भिक्षु पर आरोप लगाए जाते हैं, और फिर विनयधारी भिक्षुओं को बुलाकर संघिक मुकदमा चलाया जाता है। यदि भिक्षु सच्चा हो और अच्छा बर्ताव करता हो, तो वह प्रायः शीघ्र ही मुक्त हो जाता है।
किन्तु यदि भिक्षु हठी या मूढ़ हो, तो मामला लंबा खिंच सकता है। यदि विस्तृत पूछताछ के बाद दोष स्वीकार कर लिया जाए, तो उस भिक्षु पर विभिन्न प्रकार के दंड लगाए जा सकते हैं—जो कभी-कभी वर्षों तक चलते हैं। आवश्यकता पड़ने पर उसे संघ से बहिष्कृत भी किया जा सकता है। ↩︎
इस तरह, जैसे घोड़ा प्रशिक्षक सबसे पहले घोड़े को लगाम पहनने की आदत डालता है, उसी प्रकार भगवान भिक्षुओं को विनय (शील) की लगाम कसते हैं। घोड़े को साज पहनाना — भिक्षु के ध्यान (समाधि) का प्रतीक है। घोड़े को सौम्य और नियंत्रित बनाना — भिक्षु की प्रज्ञा के विकास का संकेत है। और अंत में, घोड़े को सुंदर बनाकर, उसे मालिश देकर और पुरस्कार देकर सम्मानित करना — यह भिक्षु की अरहन्त फल की प्राप्ति के समान है। ↩︎
१३४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति. ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. भगवा एतदवोच – ‘‘अहं खो, भिक्खवे, एकासनभोजनं भुञ्जामि; एकासनभोजनं खो, अहं, भिक्खवे, भुञ्जमानो अप्पाबाधतञ्च सञ्जानामि अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ, तुम्हेपि, भिक्खवे, एकासनभोजनं भुञ्जथ; एकासनभोजनं खो, भिक्खवे, तुम्हेपि भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चा’’ति. एवं वुत्ते, आयस्मा भद्दालि भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहं खो, भन्ते, न उस्सहामि एकासनभोजनं भुञ्जितुं; एकासनभोजनञ्हि मे, भन्ते, भुञ्जतो सिया कुक्कुच्चं, सिया विप्पटिसारो’’ति. ‘‘तेन हि त्वं, भद्दालि, यत्थ निमन्तितो अस्ससि तत्थ एकदेसं भुञ्जित्वा एकदेसं नीहरित्वापि भुञ्जेय्यासि. एवम्पि खो त्वं, भद्दालि, भुञ्जमानो एकासनो यापेस्ससी’’ति [भुञ्जमानो यापेस्ससीति (सी. स्या. कं. पी.)]. ‘‘एवम्पि खो अहं, भन्ते, न उस्सहामि भुञ्जितुं; एवम्पि हि मे, भन्ते, भुञ्जतो सिया कुक्कुच्चं, सिया विप्पटिसारो’’ति. अथ खो आयस्मा भद्दालि भगवता सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसि. अथ खो आयस्मा भद्दालि सब्बं तं तेमासं न भगवतो सम्मुखीभावं अदासि, यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी.
१३५. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू भगवतो चीवरकम्मं करोन्ति – निट्ठितचीवरो भगवा तेमासच्चयेन चारिकं पक्कमिस्सतीति. अथ खो आयस्मा भद्दालि येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तेहि भिक्खूहि सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं भद्दालिं ते भिक्खू एतदवोचुं – ‘‘इदं खो, आवुसो भद्दालि, भगवतो चीवरकम्मं करीयति [करणीयं (क.)]. निट्ठितचीवरो भगवा तेमासच्चयेन चारिकं पक्कमिस्सति. इङ्घावुसो भद्दालि, एतं दोसकं साधुकं मनसि करोहि, मा ते पच्छा दुक्करतरं अहोसी’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो आयस्मा भद्दालि तेसं भिक्खूनं पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा भद्दालि भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, योहं भगवता सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसिं. तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया’’ति.
‘‘तग्घ त्वं, भद्दालि, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यं त्वं मया सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘भगवा खो सावत्थियं विहरति, भगवापि मं जानिस्सति – भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘सम्बहुला खो भिक्खु सावत्थियं वस्सं उपगता, तेपि मं जानिस्सन्ति – भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘सम्बहुला खो भिक्खुनियो सावत्थियं वस्सं उपगता, तापि मं जानिस्सन्ति – भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘सम्बहुला खो उपासका सावत्थियं पटिवसन्ति, तेपि मं जानिस्सन्ति – भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘सम्बहुला खो उपासिका सावत्थियं पटिवसन्ति, तापि मं जानिस्सन्ति – भद्दालि नाम भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि , समयो अप्पटिविद्धो अहोसि. समयोपि खो ते, भद्दालि, अप्पटिविद्धो अहोसि – ‘सम्बहुला खो नानातित्थिया समणब्राह्मणा सावत्थियं वस्सं उपगता, तेपि मं जानिस्सन्ति – भद्दालि नाम भिक्खु समणस्स गोतमस्स सावको थेरञ्ञतरो भिक्खु सासने सिक्खाय अपरिपूरकारी’ति. अयम्पि खो ते, भद्दालि, समयो अप्पटिविद्धो अहोसी’’ति.
‘‘अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, योहं भगवता सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसिं. तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया’’ति. ‘‘तग्घ त्वं, भद्दालि, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यं त्वं मया सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसि’’.
१३६. ‘‘तं किं मञ्ञसि, भद्दालि, इधस्स भिक्खु उभतोभागविमुत्तो, तमहं एवं वदेय्यं – ‘एहि मे त्वं, भिक्खु, पङ्के सङ्कमो होही’ति, अपि नु खो सो सङ्कमेय्य वा अञ्ञेन वा कायं सन्नामेय्य, ‘नो’ति वा वदेय्या’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तं किं मञ्ञसि, भद्दालि, इधस्स भिक्खु पञ्ञाविमुत्तो… कायसक्खि… दिट्ठिप्पत्तो… सद्धाविमुत्तो… धम्मानुसारी… सद्धानुसारी, तमहं एवं वदेय्यं – ‘एहि मे त्वं, भिक्खु, पङ्के सङ्कमो होही’ति, अपि नु खो सो सङ्कमेय्य वा अञ्ञेन वा कायं सन्नामेय्य, ‘नो’ति वा वदेय्या’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तं किं मञ्ञसि, भद्दालि, अपि नु त्वं, भद्दालि, तस्मिं समये उभतोभागविमुत्तो वा होसि पञ्ञाविमुत्तो वा कायसक्खि वा दिट्ठिप्पत्तो वा सद्धाविमुत्तो वा धम्मानुसारी वा सद्धानुसारी वा’’ति?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘ननु त्वं, भद्दालि, तस्मिं समये रित्तो तुच्छो अपरद्धो’’ति?
‘‘एवं , भन्ते. अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, योहं भगवता सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसिं. तस्स मे, भन्ते, भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया’’ति. ‘‘तग्घ त्वं, भद्दालि, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यं त्वं मया सिक्खापदे पञ्ञापियमाने भिक्खुसङ्घे सिक्खं समादियमाने अनुस्साहं पवेदेसि. यतो च खो त्वं, भद्दालि, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम. वुद्धिहेसा, भद्दालि, अरियस्स विनये यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोति, आयतिं संवरं आपज्जति’’.
१३७. ‘‘इध, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी होति. तस्स एवं होति – ‘यंनूनाहं विवित्तं सेनासनं भजेय्यं अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. अप्पेव नामाहं उत्तरि [उत्तरिं (सी. स्या. कं. पी.)] मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं सच्छिकरेय्य’न्ति. सो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. तस्स तथावूपकट्ठस्स विहरतो सत्थापि उपवदति, अनुविच्चपि विञ्ञू सब्रह्मचारी उपवदन्ति, देवतापि उपवदन्ति, अत्तापि अत्तानं उपवदति. सो सत्थारापि उपवदितो, अनुविच्चपि विञ्ञूहि सब्रह्मचारीहि उपवदितो, देवताहिपि उपवदितो, अत्तनापि अत्तानं उपवदितो न उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं सच्छिकरोति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारिस्स.
१३८. ‘‘इध पन, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारी होति. तस्स एवं होति – ‘यंनूनाहं विवित्तं सेनासनं भजेय्यं अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. अप्पेव नामाहं उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं सच्छिकरेय्य’न्ति. सो विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं. तस्स तथावूपकट्ठस्स विहरतो सत्थापि न उपवदति, अनुविच्चपि विञ्ञू सब्रह्मचारी न उपवदन्ति, देवतापि न उपवदन्ति, अत्तापि अत्तानं न उपवदति. सो सत्थारापि अनुपवदितो , अनुविच्चपि विञ्ञूहि सब्रह्मचारीहि अनुपवदितो, देवताहिपि अनुपवदितो, अत्तनापि अत्तानं अनुपवदितो उत्तरि मनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं सच्छिकरोति. सो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
१३९. ‘‘पुन चपरं, भद्दालि, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
‘‘पुन चपरं, भद्दालि, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
‘‘पुन चपरं, भद्दालि, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता…पे… विनिपातं निरयं उपपन्ना; इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता…पे… सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्स.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति; ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि तं, भद्दालि, होति यथा तं सत्थुसासने सिक्खाय परिपूरकारिस्सा’’ति.
१४०. एवं वुत्ते, आयस्मा भद्दालि भगवन्तं एतदवोच – ‘‘को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो येन मिधेकच्चं भिक्खुं पसय्ह पसय्ह [पवय्ह पवय्ह (सी. स्या. कं. पी.)] कारणं करोन्ति? को पन, भन्ते, हेतु, को पच्चयो येन मिधेकच्चं भिक्खुं नो तथा पसय्ह पसय्ह कारणं करोन्ती’’ति? ‘‘इध, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु अभिण्हापत्तिको होति आपत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं अपनामेति, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, न सम्मा वत्तति, न लोमं पातेति, न नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति नाह. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – अयं खो, आवुसो, भिक्खु अभिण्हापत्तिको आपत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं अपनामेति, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, न सम्मा वत्तति, न लोमं पातेति, न नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति नाह. साधु वतायस्मन्तो इमस्स भिक्खुनो तथा तथा उपपरिक्खथ यथास्सिदं [यथयिदं (स्या. कं. क.)] अधिकरणं न खिप्पमेव वूपसमेय्याति. तस्स खो एवं, भद्दालि, भिक्खुनो भिक्खू तथा तथा उपपरिक्खन्ति यथास्सिदं अधिकरणं न खिप्पमेव वूपसम्मति.
१४१. ‘‘इध पन, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु अभिण्हापत्तिको होति आपत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो नाञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं न अपनामेति, न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, सम्मा वत्तति, लोमं पातेति, नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति आह. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – अयं खो, आवुसो, भिक्खु अभिण्हापत्तिको आपत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो नाञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं न अपनामेति, न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, सम्मा वत्तति, लोमं पातेति, नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति आह. साधु वतायस्मन्तो, इमस्स भिक्खुनो तथा तथा उपपरिक्खथ यथास्सिदं अधिकरणं खिप्पमेव वूपसमेय्याति. तस्स खो एवं, भद्दालि, भिक्खुनो भिक्खू तथा तथा उपपरिक्खन्ति यथास्सिदं अधिकरणं खिप्पमेव वूपसम्मति.
१४२. ‘‘इध, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु अधिच्चापत्तिको होति अनापत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं अपनामेति, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, न सम्मा वत्तति, न लोमं पातेति, न नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति नाह. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – अयं खो, आवुसो, भिक्खु अधिच्चापत्तिको अनापत्तिबहुलो . सो भिक्खूहि वुच्चमानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, बहिद्धा कथं अपनामेति, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, न सम्मा वत्तति, न लोमं पातेति, न नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति नाह. साधु वतायस्मन्तो, इमस्स भिक्खुनो तथा तथा उपपरिक्खथ यथास्सिदं अधिकरणं न खिप्पमेव वूपसमेय्याति. तस्स खो एवं, भद्दालि, भिक्खुनो भिक्खू तथा तथा उपपरिक्खन्ति यथास्सिदं अधिकरणं न खिप्पमेव वूपसम्मति.
१४३. ‘‘इध पन, भद्दालि, एकच्चो भिक्खु अधिच्चापत्तिको होति अनापत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो नाञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, न बहिद्धा कथं अपनामेति, न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, सम्मा वत्तति, लोमं पातेति, नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति आह. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – अयं खो, आवुसो, भिक्खु अधिच्चापत्तिको अनापत्तिबहुलो. सो भिक्खूहि वुच्चमानो नाञ्ञेनञ्ञं पटिचरति, न बहिद्धा कथं अपनामेति, न कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पातुकरोति, सम्मा वत्तति, लोमं पातेति, नेत्थारं वत्तति, ‘येन सङ्घो अत्तमनो होति तं करोमी’ति आह. साधु वतायस्मन्तो, इमस्स भिक्खुनो तथा तथा उपपरिक्खथ यथास्सिदं अधिकरणं खिप्पमेव वूपसमेय्याति. तस्स खो एवं, भद्दालि, भिक्खुनो भिक्खू तथा तथा उपपरिक्खन्ति यथास्सिदं अधिकरणं खिप्पमेव वूपसम्मति.
१४४. ‘‘इध , भद्दालि, एकच्चो भिक्खु सद्धामत्तकेन वहति पेममत्तकेन. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – ‘अयं खो, आवुसो, भिक्खु सद्धामत्तकेन वहति पेममत्तकेन. सचे मयं इमं भिक्खुं पसय्ह पसय्ह कारणं करिस्साम – मा यम्पिस्स तं सद्धामत्तकं पेममत्तकं तम्हापि परिहायी’ति. सेय्यथापि, भद्दालि, पुरिसस्स एकं चक्खुं, तस्स मित्तामच्चा ञातिसालोहिता तं एकं चक्खुं रक्खेय्युं – ‘मा यम्पिस्स तं एकं चक्खुं तम्हापि परिहायी’ति; एवमेव खो, भद्दालि, इधेकच्चो भिक्खु सद्धामत्तकेन वहति पेममत्तकेन. तत्र, भद्दालि, भिक्खूनं एवं होति – ‘अयं खो, आवुसो, भिक्खु सद्धामत्तकेन वहति पेममत्तकेन. सचे मयं इमं भिक्खुं पसय्ह पसय्ह कारणं करिस्साम – मा यम्पिस्स तं सद्धामत्तकं पेममत्तकं तम्हापि परिहायी’ति. अयं खो, भद्दालि, हेतु अयं पच्चयो येन मिधेकच्चं भिक्खुं पसय्ह पसय्ह कारणं करोन्ति. अयं पन, भद्दालि, हेतु अयं पच्चयो, येन मिधेकच्चं भिक्खुं नो तथा पसय्ह पसय्ह कारणं करोन्ती’’ति.
१४५. ‘‘‘को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो येन पुब्बे अप्पतरानि चेव सिक्खापदानि अहेसुं बहुतरा च भिक्खू अञ्ञाय सण्ठहिंसु? को पन, भन्ते, हेतु, को पच्चयो येन एतरहि बहुतरानि चेव सिक्खापदानि होन्ति अप्पतरा च भिक्खू अञ्ञाय सण्ठहन्ती’ति? ‘‘एवमेतं, भद्दालि, होति सत्तेसु हायमानेसु, सद्धम्मे अन्तरधायमाने, बहुतरानि चेव सिक्खापदानि होन्ति अप्पतरा च भिक्खू अञ्ञाय सण्ठहन्तीति. न ताव, भद्दालि, सत्था सावकानं सिक्खापदं पञ्ञापेति याव न इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति. यतो च खो, भद्दालि, इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति, अथ सत्था सावकानं सिक्खापदं पञ्ञापेति तेसंयेव आसवट्ठानीयानं धम्मानं पटिघाताय. न ताव, भद्दालि, इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति याव न सङ्घो महत्तं पत्तो होति. यतो च खो, भद्दालि, सङ्घो महत्तं पत्तो होति, अथ इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति. अथ सत्था सावकानं सिक्खापदं पञ्ञापेति तेसंयेव आसवट्ठानीयानं धम्मानं पटिघाताय. न ताव, भद्दालि, इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति याव न सङ्घो लाभग्गं पत्तो होति, यसग्गं पत्तो होति, बाहुसच्चं पत्तो होति, रत्तञ्ञुतं पत्तो होति. यतो च खो, भद्दालि, सङ्घो रत्तञ्ञुतं पत्तो होति, अथ इधेकच्चे आसवट्ठानीया धम्मा सङ्घे पातुभवन्ति, अथ सत्था सावकानं सिक्खापदं पञ्ञापेति तेसंयेव आसवट्ठानीयानं धम्मानं पटिघाताय.
१४६. ‘‘अप्पका खो तुम्हे, भद्दालि, तेन समयेन अहुवत्थ यदा वो अहं आजानीयसुसूपमं धम्मपरियायं देसेसिं. तं सरसि [सरसि त्वं (सी. पी.), सरसि तं (?)] भद्दाली’’ति ?
‘‘नो हेतं, भन्ते’’.
‘‘तत्र, भद्दालि, कं हेतुं पच्चेसी’’ति?
‘‘सो हि नूनाहं, भन्ते, दीघरत्तं सत्थुसासने सिक्खाय अपरिपूरकारी अहोसि’’न्ति.
‘‘न खो, भद्दालि, एसेव हेतु, एस पच्चयो. अपि च मे त्वं, भद्दालि, दीघरत्तं चेतसा चेतोपरिच्च विदितो – ‘न चायं मोघपुरिसो मया धम्मे देसियमाने अट्ठिं कत्वा मनसि कत्वा सब्बचेतसो [सब्बं चेतसो (क.)] समन्नाहरित्वा ओहितसोतो धम्मं सुणाती’ति. अपि च ते अहं, भद्दालि, आजानीयसुसूपमं धम्मपरियायं देसेस्सामि. तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि ; भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा भद्दालि भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –
१४७. ‘‘सेय्यथापि, भद्दालि, दक्खो अस्सदमको भद्रं अस्साजानीयं लभित्वा पठमेनेव मुखाधाने कारणं कारेति. तस्स मुखाधाने कारणं कारियमानस्स होन्तियेव विसूकायितानि विसेवितानि विप्फन्दितानि कानिचि कानिचि, यथा तं अकारितपुब्बं कारणं कारियमानस्स. सो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बायति. यतो खो, भद्दालि, भद्रो अस्साजानीयो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बुतो होति, तमेनं अस्सदमको उत्तरि कारणं कारेति युगाधाने. तस्स युगाधाने कारणं कारियमानस्स होन्तियेव विसूकायितानि विसेवितानि विप्फन्दितानि कानिचि कानिचि, यथा तं अकारितपुब्बं कारणं कारियमानस्स. सो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बायति . यतो खो, भद्दालि, भद्रो अस्साजानीयो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बुतो होति, तमेनं अस्सदमको उत्तरि कारणं कारेति अनुक्कमे मण्डले खुरकासे [खुरकाये (सी. पी.)] धावे दवत्ते [रवत्थे (सी. स्या. कं. पी.)] राजगुणे राजवंसे उत्तमे जवे उत्तमे हये उत्तमे साखल्ये. तस्स उत्तमे जवे उत्तमे हये उत्तमे साखल्ये कारणं कारियमानस्स होन्तियेव विसूकायितानि विसेवितानि विप्फन्दितानि कानिचि कानिचि, यथा तं अकारितपुब्बं कारणं कारियमानस्स. सो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बायति. यतो खो, भद्दालि, भद्रो अस्साजानीयो अभिण्हकारणा अनुपुब्बकारणा तस्मिं ठाने परिनिब्बुतो होति, तमेनं अस्सदमको उत्तरि वण्णियञ्च पाणियञ्च [वलियञ्च (सी. पी.), बलियञ्च (स्या. कं.)] अनुप्पवेच्छति. इमेहि खो, भद्दालि, दसहङ्गेहि समन्नागतो भद्रो अस्साजानीयो राजारहो होति राजभोग्गो रञ्ञो अङ्गन्तेव सङ्ख्यं गच्छति.
‘‘एवमेव खो, भद्दालि, दसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु आहुनेय्यो होति पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्स. कतमेहि दसहि? इध, भद्दालि, भिक्खु असेखाय सम्मादिट्ठिया समन्नागतो होति, असेखेन सम्मासङ्कप्पेन समन्नागतो होति, असेखाय सम्मावाचाय समन्नागतो होति, असेखेन सम्माकम्मन्तेन समन्नागतो होति, असेखेन सम्माआजीवेन समन्नागतो होति, असेखेन सम्मावायामेन समन्नागतो होति , असेखाय सम्मासतिया समन्नागतो होति, असेखेन सम्मासमाधिना समन्नागतो होति, असेखेन सम्माञाणेन समन्नागतो होति, असेखाय सम्माविमुत्तिया समन्नागतो होति – इमेहि खो, भद्दालि, दसहि धम्मेहि समन्नागतो भिक्खु आहुनेय्यो होति पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्सा’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा भद्दालि भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
भद्दालिसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.