ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान अङ्गुत्तराप में आपण नामक अङ्गुत्तराप नगर में विहार कर रहे थे। सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़ और पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए आपण में प्रवेश किया। आपण में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात दिन बिताने के लिए किसी उपवन में गए। उपवन में गहरे जाकर किसी वृक्ष के तले दिन बिताने के लिए बैठ गए।
तब आयुष्मान उदायी भी सुबह होने पर चीवर ओढ़ और पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए आपण में प्रवेश किया। आपण में भिक्षाटन कर भोजन करने के पश्चात दिन बिताने के लिए किसी उपवन में गए। उपवन में गहरे जाकर किसी वृक्ष के तले दिन बिताने के लिए बैठ गए।
तब आयुष्मान उदायी अकेले एकांतवास में थे, तब उनके मानस में विचारों की शृंखला उभरी, “भगवान ने हमसे कितने ही दुःखदायी बातों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही सुखकारक बातों का उपहार दिया हैं। भगवान ने हमसे कितने ही अकुशल स्वभावों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही कुशल स्वभावों का उपहार दिया हैं।”
तब आयुष्मान उदायी ने सायंकाल होने पर एकांतवास से निकले और भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान उदायी ने भगवान से कहा, “भंते, मैं अकेले एकांतवास में था, तब मेरे मानस में विचारों की शृंखला उभरी, ‘भगवान ने हमसे कितने ही दुःखदायी बातों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही सुखकारक बातों का उपहार दिया हैं। भगवान ने हमसे कितने ही अकुशल स्वभावों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही कुशल स्वभावों का उपहार दिया हैं।’
भंते, हम पहले सायंकाल को खाते थे, सुबह भी, और विकाल (=दोपहर) में भी। किन्तु एक समय आया, भंते, जब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, ‘चलो, भिक्षुओं, दिन के उस विकाल भोजन को त्याग दो।’ उस पर, भंते, हम नाराज हुए, हम व्यथित हुए, ‘किन्तु ये श्रद्धालु गृहस्थ दिन के विकाल में ही उत्तम खाद्य और भोजन देते हैं, और भगवान उसे भी त्यागने के लिए कहते हैं, सुगत उसे भी छोड़ देने के लिए कहते हैं।’
तब, भंते, हमने भगवान के लिए अपने प्रेम और आदर का ख्याल किया, लज्जा और भयभीरुता का ख्याल किया, और दिन के उस विकाल भोजन को त्याग दिया। तब, भंते, हम सायंकाल को और सुबह खाते थे।
किन्तु फिर एक समय आया, भंते, जब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, ‘चलो, भिक्षुओं, रात के उस विकाल भोजन को त्याग दो।’ उस पर, भंते, हम नाराज हुए, हम व्यथित हुए, सोचते हुए, ‘किन्तु वह दो समय के भोजन में उत्तमतर गिने जाने वाला है, और भगवान उसे भी त्यागने के लिए कहते हैं, सुगत उसे भी छोड़ देने के लिए कहते हैं।’
पहले की बात है, भंते, किसी पुरुष को दिन में सूप मिलने पर लगा, ‘चलो, इसे रख दो। सायंकाल में हम सभी मिलकर इसे खाएँगे।’
भंते, लगभग सभी स्वादिष्ट पकवान रात को होते हैं, दिन में कम ही होते हैं। तब, भंते, हमने भगवान के लिए अपने प्रेम और आदर का ख्याल किया, लज्जा और भयभीरुता का ख्याल किया, और रात के उस विकाल भोजन को भी त्याग दिया।
पहले की बात है, भंते, भिक्षुगण रात के अँधेरे में भिक्षाटन के लिए भटकते हुए कीचड़ में घुस जाते थे, नाली में गिर जाते थे, कंटीली झाड़ियों से टकराते थे, सोती गायों से टकराते थे, अपराध कर चुके या करने वाले युवकों से सामना करते थे, औरतों से अधर्मी निमंत्रण भी पाते थे।
पहले की बात है, भंते। मैं रात के अँधेरे में भिक्षाटन करने गया। तब, भंते, किसी बर्तन माँजती स्त्री ने मुझे बिजली चमकने (के प्रकाश) में देखा। देखकर वह डर के मारे चीख पड़ी, ‘मरी मैं! पिशाच!’
जब ऐसा हुआ, भंते, तो मैंने उस स्त्री को कहा, ‘मैं पिशाच नहीं हूँ, बहन! भिक्षु हूँ, भिक्षाटन के लिए खड़ा हूँ।’
‘भिक्षु का बाप मरे! भिक्षु की माँ मरे! भिक्षु को गाय काटने की तीक्ष्ण छुरी से अपना पेट काटना बेहतर है, बजाय उस पेट के लिए रात के अँधेरे में भिक्षा माँगना!’
भंते, जब मुझे वह घटना याद आती है, तो लगता है, ‘भगवान ने हमसे कितने ही दुःखदायी बातों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही सुखकारक बातों का उपहार दिया हैं। भगवान ने हमसे कितने ही अकुशल स्वभावों को छीन लिया हैं, और भगवान ने हमें कितने ही कुशल स्वभावों का उपहार दिया हैं।’”
“किन्तु, ऐसा होता है, उदायी, कि जब कुछ निकम्मे पुरुष मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात के लिए, इस तुच्छ बात के लिए जिद कर रहा है यह श्रमण!’ और वे उसे त्यागते नहीं हैं, बल्कि मेरे लिए कड़वाहट पालते हैं। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं 1, उदायी, उनके लिए वह शक्तिशाली बंधन होता है, मजबूत बंधन होता है, कड़ा बंधन होता है, बिना-सड़ता बंधन होता है, स्थूल और योगबन्धन होता है।
जैसे, उदायी, कोई बटेर पक्षी बदबूदार लता के फाँसे में बंध गयी हो, और वही वध, बंधन या मौत आने की प्रतीक्षा कर रही हो। तब, उदायी, क्या ऐसा कहना सही होगा कि ‘जिस बदबूदार लता के फाँसे में यह बटेर पक्षी बंध गयी है, और वही वध, बंधन या मौत आने की प्रतीक्षा कर रही है, उसके लिए वह दुर्बल बंधन है, कमजोर बंधन है, सड़ता हुआ बंधन है, निस्सार बंधन है’?”
“नहीं, भंते। जिस बदबूदार लता के फाँसे में वह बटेर पक्षी बंध गयी है, और वही वध, बंधन या मौत आने की प्रतीक्षा कर रही है, उसके लिए वह शक्तिशाली बंधन है, मजबूत बंधन है, कड़ा बंधन है, बिना-सड़ता बंधन है, स्थूल और योगबन्धन है।”
“उसी तरह, उदायी, जब कुछ निकम्मे पुरुष मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात के लिए, इस तुच्छ बात के लिए जिद कर रहा है यह श्रमण!’ और वे उसे त्यागते नहीं हैं, बल्कि मेरे लिए कड़वाहट पालते हैं। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, उदायी, उनके लिए वह शक्तिशाली बंधन होता है, मजबूत बंधन होता है, कड़ा बंधन होता है, बिना-सड़ता बंधन होता है, स्थूल और योगबन्धन होता है।
“किन्तु, उदायी, जब कुछ कुलपुत्र मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात, इस तुच्छ बात को त्यागने के लिए भगवान कह रहे हैं, सुगत कह रहे हैं!’ और वे उसे त्याग देते हैं, मेरे लिए कड़वाहट नहीं पालते। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, वे उसे त्याग कर निश्चिंत रहते हैं, रोम गिराकर (=अनुतेज्जित) रहते हैं, पराए दान पर संतुष्ट रहते हैं, जंगली हिरण की तरह मुक्त चित्त से विहार करते हैं। उनके लिए वह दुर्बल बंधन होता है, कमजोर बंधन होता है, सड़ता हुआ बंधन होता है, निस्सार बंधन होता है।
जैसे, उदायी, कोई राजा का नर हाथी हो — विराट काया वाला, रथ के स्तंभ जैसे लंबे दाँतों वाला, अच्छी नस्ल का, युद्ध में उतरने वाला, मजबूत चमड़े के बंधन में बंधा हुआ हो — काया को हल्का घुमाते ही उस बंधन को तोड़ कर, छिन्न कर, जहाँ जाना चाहे, वहाँ चला जाता है।
तब, उदायी, क्या ऐसा कहना सही होगा कि ‘राजा का नर हाथी है — विराट काया वाला, रथ के स्तंभ जैसे लंबे दाँतों वाला, अच्छी नस्ल का, युद्ध में उतरने वाला, मजबूत चमड़े के बंधन में बंधा हुआ हो, काया को हल्का घुमाते ही उस बंधन को तोड़ कर, छिन्न कर, जहाँ जाना चाहे, वहाँ चला जाता है — उसके लिए वह शक्तिशाली बंधन है, मजबूत बंधन है, कड़ा बंधन है, बिना-सड़ता बंधन है, स्थूल और योगबन्धन है?”
“नहीं, भंते। राजा का नर हाथी हो… — उसके लिए वह दुर्बल बंधन है, कमजोर बंधन है, सड़ता हुआ बंधन है, निस्सार बंधन है।’”
“उसी तरह, उदायी, जब कुछ कुलपुत्र मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात, इस तुच्छ बात को त्यागने के लिए भगवान कह रहे हैं, सुगत कह रहे हैं!’ और वे उसे त्याग देते हैं, मेरे लिए कड़वाहट नहीं पालते। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, वे उसे त्याग कर निश्चिंत रहते हैं, रोम गिराकर रहते हैं, पराए दान पर संतुष्ट रहते हैं, जंगली हिरण की तरह मुक्त चित्त से विहार करते हैं। उनके लिए वह दुर्बल बंधन होता है, कमजोर बंधन होता है, सड़ता हुआ बंधन होता है, निस्सार बंधन होता है।
जैसे, उदायी, कोई पुरुष हो — गरीब, धनहीन, कंगाल। उसकी एक झोपड़ी हो — टूटी, खस्ता हाल, कौवों के लिए खुली, बहुत सुंदर नहीं। उसकी एक खाट हो — टूटी, खस्ता हाल, बहुत सुंदर नहीं। उसका एक बर्तन हो — अनाज और कद्दू के बीज रखने के लिए, बहुत सुंदर नहीं। उसकी एक पत्नी हो — बहुत सुंदर नहीं। तब वह विहार में किसी भिक्षु को देखता है, जो हाथ-पैर धोकर, मनचाहा भोजन कर, शीतल छाँव में बैठकर, चित्त ऊँचा उठाने (=समाधि) के लिए समर्पित हो। उसे लगता है, ‘हाय कितनी सुखद है श्रमण्यता! कितनी स्वस्थ है श्रमण्यता! काश मैं भी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र ओढ़, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
किंतु वह उस एक झोपड़ी को नहीं त्याग पाता है — जो टूटी, खस्ता हाल, कौवों के लिए खुली, बहुत सुंदर नहीं। उस एक खाट को नहीं त्याग पाता है — जो टूटी, खस्ता हाल, बहुत सुंदर नहीं। उस एक बर्तन को नहीं त्याग पाता है — जो अनाज और कद्दू के बीज रखने के लिए है, बहुत सुंदर नहीं। उस एक पत्नी को नहीं त्याग पाता है — जो बहुत सुंदर नहीं। और सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र ओढ़, घर से बेघर हो प्रवज्यित नहीं होता।
तब, उदायी, क्या ऐसा कहना सही होगा कि ‘वह पुरुष जिस बंधन से बंधा होकर एक झोपड़ी… एक खाट… एक बर्तन… एक पत्नी को त्याग नहीं पाता… प्रवज्यित नहीं होता — उसके लिए वह दुर्बल बंधन है, कमजोर बंधन है, सड़ता हुआ बंधन है, निस्सार बंधन है’?”
“नहीं, भंते। वह पुरुष जिस बंधन में बंध कर एक झोपड़ी… एक खाट… एक बर्तन… एक पत्नी को त्याग… प्रवज्यित नहीं होता — उसके लिए वह शक्तिशाली बंधन है, मजबूत बंधन है, कड़ा बंधन है, बिना-सड़ता बंधन है, स्थूल और योगबन्धन है।”
“उसी तरह, उदायी, जब कुछ निकम्मे पुरुष मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात के लिए, इस तुच्छ बात के लिए जिद कर रहा है यह श्रमण!’ और वे उसे त्यागते नहीं हैं, बल्कि मेरे लिए कड़वाहट पालते हैं। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, उदायी, उनके लिए वह शक्तिशाली बंधन होता है, मजबूत बंधन होता है, कड़ा बंधन होता है, बिना-सड़ता बंधन होता है, स्थूल और योगबन्धन होता है।
जैसे, उदायी, कोई गृहस्थ या गृहस्थ-पुत्र हो — अमीर, महाधनी, महासंपत्तिशाली। उसका विराट स्वर्णमुद्रा संचय हो, विराट धन-धान्य भंडार हो, विराट खेत-खलिहान हो, विस्तृत जमीन-जायदाद हो, बहुत संख्या में पत्नियाँ हो, बहुत संख्या में दास हो, बहुत संख्या में दासियाँ हो। तब वह विहार में किसी भिक्षु को देखता है, जो हाथ-पैर धोकर, मनचाहा भोजन कर, शीतल छाँव में बैठकर, चित्त ऊँचा उठाने के लिए समर्पित हो। उसे लगता है, ‘हाय कितनी सुखद है श्रमण्यता! कितनी स्वस्थ है श्रमण्यता! काश मैं भी सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र ओढ़, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
और, वह विराट स्वर्णमुद्रा संचय को त्याग पाता है, विराट धन-धान्य भंडार को त्याग पाता है, विराट खेत-खलिहान को त्याग पाता है, विस्तृत जमीन-जायदाद को त्याग पाता है, बहुत संख्या में पत्नियों को त्याग पाता है, बहुत संख्या में दासों को त्याग पाता है, बहुत संख्या में दासियों को त्याग पाता है, और सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र ओढ़, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
तब, उदायी, क्या ऐसा कहना सही होगा कि ‘वह पुरुष जिस बंधन से बंधा होकर विराट स्वर्णमुद्रा संचय… धन-धान्य भंडार… खेत-खलिहान… जमीन-जायदाद… पत्नियों… दासों… दासियों को त्याग पाता है… और प्रवज्यित होता है — उसके लिए वह शक्तिशाली बंधन है, मजबूत बंधन है, कड़ा बंधन है, बिना-सड़ता बंधन है, स्थूल और योगबन्धन है?”
“नहीं, भंते। वह पुरुष जिस बंधन से बंधा होकर विराट स्वर्णमुद्रा संचय… धन-धान्य भंडार… खेत-खलिहान… जमीन-जायदाद… पत्नियों… दासों… दासियों को त्याग पाता है… और प्रवज्यित होता है — उसके लिए वह दुर्बल बंधन है, कमजोर बंधन है, सड़ता हुआ बंधन है, निस्सार बंधन है।’”
उसी तरह, उदायी, जब कुछ कुलपुत्र मुझसे सुनते हैं, ‘इसे त्याग दो’, तो वे कहते हैं, ‘क्या इस छोटी बात, इस तुच्छ बात को त्यागने के लिए भगवान कह रहे हैं, सुगत कह रहे हैं!’ और वे उसे त्याग देते हैं, मेरे लिए कड़वाहट नहीं पालते। और जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, वे उसे त्याग कर निश्चिंत रहते हैं, रोम गिराकर रहते हैं, पराए दान पर संतुष्ट रहते हैं, जंगली हिरण की तरह मुक्त चित्त से विहार करते हैं। उनके लिए वह दुर्बल बंधन होता है, कमजोर बंधन होता है, सड़ता हुआ बंधन होता है, निस्सार बंधन होता है।
उदायी, इस लोक में चार प्रकार के व्यक्ति पाए जाते हैं। कौन से चार?
१. एक प्रकार का व्यक्ति उपाधियों 2 को त्यागने का, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करता है। तब, उपाधियों को त्यागने, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करते हुए, उसे उपाधियों से जुड़ी यादें और संकल्प घेर लेते हैं। वह उन्हें स्वीकारता है, त्यागता नहीं, हटाता नहीं, दूर नहीं करता, अस्तित्व से नहीं मिटाता है।
इस तरह के व्यक्ति को, उदायी, मैं ‘संयुक्त’ (=जुड़ा हुआ) कहता हूँ, ‘वियुक्त’ (=अलग-थलग) नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि, उदायी, मैं इस तरह के व्यक्ति की इंद्रिय विशेषता समझता हूँ।
२. दूसरे प्रकार का व्यक्ति उपाधियों को त्यागने का, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करता है। तब, उपाधियों को त्यागने, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करते हुए, उसे उपाधियों से जुड़ी यादें और संकल्प घेर लेते हैं। वह उन्हें बर्दाश्त नहीं करता है, बल्कि उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
इस तरह के व्यक्ति को भी, उदायी, मैं ‘संयुक्त’ कहता हूँ, ‘वियुक्त’ नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि, उदायी, मैं इस तरह के व्यक्ति की भी इंद्रिय विशेषता समझता हूँ।
३. तीसरे प्रकार का व्यक्ति उपाधियों को त्यागने का, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करता है। तब, उपाधियों को त्यागने, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करते हुए, कभी-कभी उसकी स्मृति खो जाती है और उपाधियों से जुड़ी यादें और संकल्प घेर लेते हैं। उसकी स्मृति धीमे जागती है, किन्तु तुरंत ही वह उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
जैसे, उदायी, किसी दिन भर तपाए तवे पर कोई पुरुष पानी की दो तीन बुँदे गिराता है। बूँदें धीमे गिरती हैं, किन्तु तुरंत ही भाप बनकर उड़ जाती हैं। उसी तरह, उदायी, कोई व्यक्ति उपाधियों को त्यागने का, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करता है। तब, उपाधियों को त्यागने, उपाधियों को छोड़ देने का अभ्यास करते हुए, कभी-कभी उसकी स्मृति खो जाती है और उपाधियों से जुड़ी यादें और संकल्प घेर लेते हैं। उसकी स्मृति धीमे जागती है, किन्तु तुरंत ही वह उन्हें त्यागता है, हटाता है, दूर करता है, अस्तित्व से मिटा देता है।
इस तरह के व्यक्ति को भी, उदायी, मैं ‘संयुक्त’ कहता हूँ, ‘वियुक्त’ नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि, उदायी, मैं इस तरह के व्यक्ति की भी इंद्रिय विशेषता समझता हूँ।
४. किन्तु, चौथे प्रकार का व्यक्ति ‘उपाधि दुःख की जड़ है’ समझते हुए उपाधि-रहित होता है, उपाधियों के क्षय होने से विमुक्त होता है।
इस तरह के व्यक्ति को, उदायी, मैं ‘वियुक्त’ कहता हूँ, ‘संयुक्त’ नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि, उदायी, मैं इस तरह के व्यक्ति की इंद्रिय विशेषता समझता हूँ।
ये चार प्रकार के व्यक्ति, उदायी, इस लोक में पाए जाते हैं।
उदायी, पाँच कामगुण होते हैं —
उदायी, ये पाँच कामगुण होते हैं। इन पाँच कामगुणों के आधार पर जो भी सुख और खुशी उत्पन्न होती है, उसे ‘कामसुख’ कहते हैं, ‘घिनौना सुख’ कहते हैं, ‘जन-साधारण सुख’ कहते हैं, ‘अनार्य सुख’ कहते हैं, जिसका सेवन नहीं करना चाहिए, साधना नहीं चाहिए, विकसित नहीं करना चाहिए । बल्कि, मैं कहता हूँ, ‘उस सुख से भयभीत होना चाहिए!’
कोई भिक्षु, उदायी, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, उदायी, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, उदायी, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, उदायी, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
इन्हें ‘निष्काम सुख’ कहते हैं, ‘निर्लिप्त सुख’ कहते हैं, ‘प्रशांति सुख’ कहते हैं, ‘संबोधि सुख’ कहते हैं, जिसका सेवन करना चाहिए, साधना करनी चाहिए, विकसित करना चाहिए । मैं कहता हूँ, ‘उस सुख से भयभीत नहीं होना चाहिए!’
(१) कोई भिक्षु, उदायी, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे, उदायी, मैं चंचलता कहता हूँ। उसमें क्या चंचलता है? जो भी सोच और विचार वहाँ निरुद्ध नहीं होते हैं, वही उसमें चंचलता है।
(२) आगे, उदायी, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे भी, उदायी, मैं चंचलता कहता हूँ। उसमें क्या चंचलता है? जो भी प्रफुल्लता और सुख वहाँ निरुद्ध नहीं होते हैं, वही उसमें चंचलता है।
(३) आगे, उदायी, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे भी, उदायी, मैं चंचलता कहता हूँ। उसमें क्या चंचलता है? जो भी तटस्थ-सुख वहाँ निरुद्ध नहीं होता है, वही उसमें चंचलता है।
(४) आगे, उदायी, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। इसे, उदायी, मैं निश्चलता 3 कहता हूँ।
(१) कोई भिक्षु, उदायी, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे लाँघो!’
(२) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(३) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(४) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(५) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(६) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ (देखते हुए) ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(७) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(८) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा (=न बोधगम्य, न अबोधगम्य) आयाम में प्रवेश पाकर रहता है। यह उसे लाँघता है। किन्तु, उदायी, मैं कहता हूँ ‘वह भी पर्याप्त नहीं!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी त्याग दो!’ मैं कहता हूँ, ‘उसे भी लाँघो!’
(९) उसे क्या लाँघता है? उदायी, आगे कोई भिक्षु न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा वेदना निरोध अवस्था में प्रवेश पाकर रहता है। यह उसे लाँघता है।
इस तरह, उदायी, मैं न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को भी त्यागने के लिए कहता हूँ। तब, उदायी, क्या तुम कोई छोटा या बड़ा संयोजन (=बंधन) देखते हो, जिसे मैं त्यागने के लिए नहीं कहता हूँ?”
“नहीं, भंते!”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान उदायी ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
जो भिक्षु सीखना चाहते हैं, वे सच्चाई और ईमानदारी के साथ धर्माभ्यास करते हैं, फिर भी, उन्हें अपने भीतर के क्लेषों को दूर करने में संघर्ष करना पड़ता है। इसलिए, उनके लिए ये बंधन अत्यंत शक्तिशाली, दृढ़ और कठोर प्रतीत होते हैं। किन्तु, जब वे निरंतर साधना करते रहते हैं, तो धीरे-धीरे वे सीख जाते हैं — और अंततः सबसे कठोर बंधन भी तोड़ डालते हैं। ↩︎
उपधि या उपाधियों के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
अट्ठकथा के अनुसार, “निश्चलता” शब्द न केवल चतुर्थ ध्यान के लिए प्रयुक्त होता है, बल्कि चारों अरूप आयामों को भी समाहित करता है। लेकिन, मज्झिमनिकाय १०६ के अनुसार, “सूने आयाम” को निश्चलता में नहीं गिना गया है, और उससे आगे के अरूप आयाम को भी इसमें सम्मिलित नहीं किया गया है। ↩︎
१४८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अङ्गुत्तरापेसु विहरति आपणं नाम अङ्गुत्तरापानं निगमो. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय आपणं पिण्डाय पाविसि. आपणे पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येनञ्ञतरो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय. तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि. आयस्मापि खो उदायी पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय आपणं पिण्डाय पाविसि. आपणे पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येन सो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय. तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि. अथ खो आयस्मतो उदायिस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘‘बहूनं [बहुन्नं (सी. स्या. कं. पी.) एवमीदिसे अविञ्ञाणकप्पकरणे] वत नो भगवा दुक्खधम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा सुखधम्मानं उपहत्ता; बहूनं वत नो भगवा अकुसलानं धम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा कुसलानं धम्मानं उपहत्ता’’ति. अथ खो आयस्मा उदायी सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि .
१४९. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा उदायी भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इध मय्हं, भन्ते, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘बहूनं वत नो भगवा दुक्खधम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा सुखधम्मानं उपहत्ता; बहूनं वत नो भगवा अकुसलानं धम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा कुसलानं धम्मानं उपहत्ता’ति. मयञ्हि, भन्ते, पुब्बे सायञ्चेव भुञ्जाम पातो च दिवा च विकाले. अहु खो सो, भन्ते, समयो यं भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘इङ्घ तुम्हे, भिक्खवे, एतं दिवाविकालभोजनं पजहथा’ति. तस्स मय्हं, भन्ते, अहुदेव अञ्ञथत्तं, अहुदेव [अहु (सी. पी.)] दोमनस्सं – ‘यम्पि नो सद्धा गहपतिका दिवा विकाले पणीतं खादनीयं भोजनीयं देन्ति तस्सपि नो भगवा पहानमाह, तस्सपि नो सुगतो पटिनिस्सग्गमाहा’ति. ते मयं, भन्ते, भगवति पेमञ्च गारवञ्च हिरिञ्च ओत्तप्पञ्च सम्पस्समाना एवं तं दिवाविकालभोजनं पजहिम्हा. ते मयं, भन्ते, सायञ्चेव भुञ्जाम पातो च. अहु खो सो, भन्ते, समयो यं भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘इङ्घ तुम्हे, भिक्खवे, एतं रत्तिंविकालभोजनं पजहथा’ति. तस्स मय्हं, भन्ते, अहुदेव अञ्ञथत्तं अहुदेव दोमनस्सं – ‘यम्पि नो इमेसं द्विन्नं भत्तानं पणीतसङ्खाततरं तस्सपि नो भगवा पहानमाह, तस्सपि नो सुगतो पटिनिस्सग्गमाहा’ति. भूतपुब्बं, भन्ते, अञ्ञतरो पुरिसो दिवा सूपेय्यं लभित्वा एवमाह – ‘हन्द च इमं निक्खिपथ, सायं सब्बेव समग्गा भुञ्जिस्सामा’ति. या काचि, भन्ते, सङ्खतियो सब्बा ता रत्तिं, अप्पा दिवा. ते मयं, भन्ते, भगवति पेमञ्च गारवञ्च हिरिञ्च ओत्तप्पञ्च सम्पस्समाना एवं तं रत्तिंविकालभोजनं पजहिम्हा. भूतपुब्बं, भन्ते, भिक्खू रत्तन्धकारतिमिसायं पिण्डाय चरन्ता चन्दनिकम्पि पविसन्ति, ओलिगल्लेपि पपतन्ति, कण्टकावाटम्पि [कण्टकवत्तम्पि (सी. पी.), कण्टकराजिम्पि (स्या. कं.)] आरोहन्ति, सुत्तम्पि गाविं आरोहन्ति, माणवेहिपि समागच्छन्ति कतकम्मेहिपि अकतकम्मेहिपि, मातुगामोपि ते [तेन (क.)] असद्धम्मेन निमन्तेति. भूतपुब्बाहं, भन्ते, रत्तन्धकारतिमिसायं पिण्डाय चरामि. अद्दसा खो मं, भन्ते, अञ्ञतरा इत्थी विज्जन्तरिकाय भाजनं धोवन्ती. दिस्वा मं भीता विस्सरमकासि – ‘अभुम्मे [अब्भुम्मे (सी. पी.)] पिसाचो वत म’न्ति! एवं वुत्ते, अहं, भन्ते, तं इत्थिं एतदवोचं – ‘नाहं, भगिनि, पिसाचो; भिक्खु पिण्डाय ठितो’ति. ‘भिक्खुस्स आतुमारी, भिक्खुस्स मातुमारी [ठितो’ति. भिक्खुस्स आतुमातुमारी (क.)]! वरं ते, भिक्खु, तिण्हेन गोविकन्तनेन कुच्छि परिकन्तो, न त्वेव वरं यं [न त्वेव या (सी. पी.)] रत्तन्धकारतिमिसायं कुच्छिहेतु पिण्डाय चरसी’ति [चरसाति (सी. पी.)]. तस्स मय्हं, भन्ते, तदनुस्सरतो एवं होति – ‘बहूनं वत नो भगवा दुक्खधम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा सुखधम्मानं उपहत्ता; बहूनं वत नो भगवा अकुसलानं धम्मानं अपहत्ता, बहूनं वत नो भगवा कुसलानं धम्मानं उपहत्ता’’’ति.
१५०. ‘‘एवमेव पनुदायि, इधेकच्चे मोघपुरिसा ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स अधिसल्लिखतेवायं समणो’ति. ते तञ्चेव नप्पजहन्ति, मयि च अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा तेसं तं, उदायि, होति बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो – सेय्यथापि, उदायि, लटुकिका सकुणिका पूतिलताय बन्धनेन बद्धा तत्थेव वधं वा बन्धं वा मरणं वा आगमेति. यो नु खो, उदायि, एवं वदेय्य – ‘येन सा लटुकिका सकुणिका पूतिलताय बन्धनेन बद्धा तत्थेव वधं वा बन्धं वा मरणं वा आगमेति, तञ्हि तस्सा अबलं बन्धनं , दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धन’न्ति; सम्मा नु खो सो, उदायि, वदमानो वदेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते. येन सा, भन्ते, लटुकिका सकुणिका पूतिलताय बन्धनेन बद्धा तत्थेव वधं वा बन्धं वा मरणं वा आगमेति, तञ्हि तस्सा बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’’ति. ‘‘एवमेव खो, उदायि, इधेकच्चे मोघपुरिसा ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स अधिसल्लिखतेवायं समणो’ति? ते तञ्चेव नप्पजहन्ति, मयि च अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा तेसं तं, उदायि, होति बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’’.
१५१. ‘‘इध पनुदायि, एकच्चे कुलपुत्ता ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स पहातब्बस्स यस्स नो भगवा पहानमाह, यस्स नो सुगतो पटिनिस्सग्गमाहा’ति? ते तञ्चेव पजहन्ति, मयि च न अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा ते तं पहाय अप्पोस्सुक्का पन्नलोमा परदत्तवुत्ता [परदवुत्ता (सी. स्या. कं. पी.)] मिगभूतेन चेतसा विहरन्ति. तेसं तं, उदायि, होति अबलं बन्धनं, दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धनं – सेय्यथापि, उदायि, रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो दळ्हेहि वरत्तेहि बन्धनेहि बद्धो ईसकंयेव कायं सन्नामेत्वा तानि बन्धनानि संछिन्दित्वा संपदालेत्वा येन कामं पक्कमति. यो नु खो, उदायि, एवं वदेय्य – ‘येहि सो रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो दळ्हेहि वरत्तेहि बन्धनेहि बद्धो ईसकंयेव कायं सन्नामेत्वा तानि बन्धनानि संछिन्दित्वा संपदालेत्वा येन कामं पक्कमति, तञ्हि तस्स बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’ति; सम्मा नु खो सो, उदायि, वदमानो वदेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते. येहि सो, भन्ते, रञ्ञो नागो ईसादन्तो उरूळ्हवा अभिजातो सङ्गामावचरो दळ्हेहि वरत्तेहि बन्धनेहि बद्धो ईसकंयेव कायं सन्नामेत्वा तानि बन्धनानि संछिन्दित्वा संपदालेत्वा येन कामं पक्कमति, तञ्हि तस्स अबलं बन्धनं…पे… असारकं बन्धन’’न्ति. ‘‘एवमेव खो, उदायि, इधेकच्चे कुलपुत्ता ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स पहातब्बस्स यस्स नो भगवा पहानमाह, यस्स नो सुगतो पटिनिस्सग्गमाहा’ति? ते तञ्चेव पजहन्ति, मयि च न अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा ते तं पहाय अप्पोस्सुक्का पन्नलोमा परदत्तवुत्ता मिगभूतेन चेतसा विहरन्ति. तेसं तं, उदायि, होति अबलं बन्धनं, दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धनं’’.
१५२. ‘‘सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो दलिद्दो अस्सको अनाळ्हियो; तस्स’स्स एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं [काकातिडायिं (?)] नपरमरूपं, एका खटोपिका [कळोपिका (क.)] ओलुग्गविलुग्गा नपरमरूपा, एकिस्सा कुम्भिया धञ्ञसमवापकं नपरमरूपं, एका जायिका नपरमरूपा. सो आरामगतं भिक्खुं पस्सेय्य सुधोतहत्थपादं मनुञ्ञं भोजनं भुत्ताविं सीताय छायाय निसिन्नं अधिचित्ते युत्तं. तस्स एवमस्स – ‘सुखं वत, भो, सामञ्ञं, आरोग्यं वत, भो, सामञ्ञं! सो वतस्सं [सो वतस्स (क.)] योहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो न सक्कुणेय्य एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं नपरमरूपं पहाय, एकं खटोपिकं ओलुग्गविलुग्गं नपरमरूपं पहाय, एकिस्सा कुम्भिया धञ्ञसमवापकं नपरमरूपं पहाय, एकं जायिकं नपरमरूपं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं. यो नु खो, उदायि, एवं वदेय्य – ‘येहि सो पुरिसो बन्धनेहि बद्धो न सक्कोति एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं नपरमरूपं पहाय, एकं खटोपिकं ओलुग्गविलुग्गं नपरमरूपं पहाय, एकिस्सा कुम्भिया धञ्ञसमवापकं नपरमरूपं पहाय, एकं जायिकं नपरमरूपं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं; तञ्हि तस्स अबलं बन्धनं, दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धन’न्ति; सम्मा नु खो सो, उदायि, वदमानो वदेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते. येहि सो, भन्ते, पुरिसो बन्धनेहि बद्धो, न सक्कोति एकं अगारकं ओलुग्गविलुग्गं काकातिदायिं नपरमरूपं पहाय, एकं खटोपिकं ओलुग्गविलुग्गं नपरमरूपं पहाय, एकिस्सा कुम्भिया धञ्ञसमवापकं नपरमरूपं पहाय, एकं जायिकं नपरमरूपं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं; तञ्हि तस्स बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’’ति. ‘‘एवमेव खो, उदायि, इधेकच्चे मोघपुरिसा ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स अधिसल्लिखतेवायं समणो’ति? ते तञ्चेव नप्पजहन्ति, मयि च अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा तेसं तं, उदायि, होति बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’’.
१५३. ‘‘सेय्यथापि , उदायि, गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अड्ढो महद्धनो महाभोगो, नेकानं निक्खगणानं चयो, नेकानं धञ्ञगणानं चयो, नेकानं खेत्तगणानं चयो, नेकानं वत्थुगणानं चयो, नेकानं भरियगणानं चयो, नेकानं दासगणानं चयो, नेकानं दासिगणानं चयो; सो आरामगतं भिक्खुं पस्सेय्य सुधोतहत्थपादं मनुञ्ञं भोजनं भुत्ताविं सीताय छायाय निसिन्नं अधिचित्ते युत्तं. तस्स एवमस्स – ‘सुखं वत, भो, सामञ्ञं, आरोग्यं वत, भो, सामञ्ञं! सो वतस्सं योहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो सक्कुणेय्य नेकानि निक्खगणानि पहाय, नेकानि धञ्ञगणानि पहाय, नेकानि खेत्तगणानि पहाय, नेकानि वत्थुगणानि पहाय, नेकानि भरियगणानि पहाय, नेकानि दासगणानि पहाय, नेकानि दासिगणानि पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं. यो नु खो, उदायि, एवं वदेय्य – ‘येहि सो गहपति वा गहपतिपुत्तो वा बन्धनेहि बद्धो, सक्कोति नेकानि निक्खगणानि पहाय, नेकानि धञ्ञगणानि पहाय, नेकानि खेत्तगणानि पहाय, नेकानि वत्थुगणानि पहाय, नेकानि भरियगणानि पहाय, नेकानि दासगणानि पहाय, नेकानि दासिगणानि पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं, तञ्हि तस्स बलवं बन्धनं, दळ्हं बन्धनं, थिरं बन्धनं, अपूतिकं बन्धनं, थूलो, कलिङ्गरो’ति; सम्मा नु खो सो, उदायि, वदमानो वदेय्या’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते. येहि सो, भन्ते, गहपति वा गहपतिपुत्तो वा बन्धनेहि बद्धो, सक्कोति नेकानि निक्खगणानि पहाय, नेकानि धञ्ञगणानि पहाय, नेकानि खेत्तगणानि पहाय, नेकानि वत्थुगणानि पहाय, नेकानि भरियगणानि पहाय, नेकानि दासगणानि पहाय, नेकानि दासिगणानि पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं; तञ्हि तस्स अबलं बन्धनं, दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धन’’न्ति. ‘‘एवमेव खो, उदायि, इधेकच्चे कुलपुत्ता ‘इदं पजहथा’ति मया वुच्चमाना ते एवमाहंसु – ‘किं पनिमस्स अप्पमत्तकस्स ओरमत्तकस्स पहातब्बस्स यस्स नो भगवा पहानमाह यस्स, नो सुगतो पटिनिस्सग्गमाहा’ति? ते तञ्चेव पजहन्ति, मयि च न अप्पच्चयं उपट्ठापेन्ति. ये च भिक्खू सिक्खाकामा ते तं पहाय अप्पोस्सुक्का पन्नलोमा परदत्तवुत्ता मिगभूतेन चेतसा विहरन्ति. तेसं तं, उदायि, होति अबलं बन्धनं, दुब्बलं बन्धनं, पूतिकं बन्धनं, असारकं बन्धनं’’.
१५४. ‘‘चत्तारोमे , उदायि, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं. कतमे चत्तारो? इधुदायि, एकच्चो पुग्गलो उपधिपहानाय पटिपन्नो होति उपधिपटिनिस्सग्गाय. तमेनं उपधिपहानाय पटिपन्नं उपधिपटिनिस्सग्गाय उपधिपटिसंयुत्ता सरसङ्कप्पा समुदाचरन्ति. सो ते अधिवासेति, नप्पजहति, न विनोदेति, न ब्यन्तीकरोति, न अनभावं गमेति. इमं खो अहं, उदायि, पुग्गलं ‘संयुत्तो’ति वदामि नो ‘विसंयुत्तो’. तं किस्स हेतु? इन्द्रियवेमत्तता हि मे, उदायि, इमस्मिं पुग्गले विदिता.
‘‘इध पनुदायि, एकच्चो पुग्गलो उपधिपहानाय पटिपन्नो होति उपधिपटिनिस्सग्गाय. तमेनं उपधिपहानाय पटिपन्नं उपधिपटिनिस्सग्गाय उपधिपटिसंयुत्ता सरसङ्कप्पा समुदाचरन्ति. सो ते नाधिवासेति, पजहति, विनोदेति, ब्यन्तीकरोति, अनभावं गमेति. इमम्पि खो अहं, उदायि , पुग्गलं ‘संयुत्तो’ति वदामि नो ‘विसंयुत्तो’. तं किस्स हेतु? इन्द्रियवेमत्तता हि मे, उदायि, इमस्मिं पुग्गले विदिता.
‘‘इध पनुदायि, एकच्चो पुग्गलो उपधिपहानाय पटिपन्नो होति उपधिपटिनिस्सग्गाय. तमेनं उपधिपहानाय पटिपन्नं उपधिपटिनिस्सग्गाय कदाचि करहचि सतिसम्मोसा उपधिपटिसंयुत्ता सरसङ्कप्पा समुदाचरन्ति; दन्धो, उदायि, सतुप्पादो. अथ खो नं खिप्पमेव पजहति, विनोदेति, ब्यन्तीकरोति, अनभावं गमेति. सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो दिवसंसन्तत्ते [दिवससन्तत्ते (सी. स्या. कं. पी.)] अयोकटाहे द्वे वा तीणि वा उदकफुसितानि निपातेय्य; दन्धो, उदायि, उदकफुसितानं निपातो. अथ खो नं खिप्पमेव परिक्खयं परियादानं गच्छेय्य. एवमेव खो, उदायि, इधेकच्चो पुग्गलो उपधिपहानाय पटिपन्नो होति उपधिपटिनिस्सग्गाय. तमेनं उपधिपहानाय पटिपन्नं उपधिपटिनिस्सग्गाय कदाचि करहचि सतिसम्मोसा उपधिपटिसंयुत्ता सरसङ्कप्पा समुदाचरन्ति; दन्धो, उदायि, सतुप्पादो. अथ खो नं खिप्पमेव पजहति, विनोदेति, ब्यन्तीकरोति, अनभावं गमेति. इमम्पि खो अहं, उदायि, पुग्गलं ‘संयुत्तो’ति वदामि नो ‘विसंयुत्तो’. तं किस्स हेतु? इन्द्रियवेमत्तता हि मे, उदायि, इमस्मिं पुग्गले विदिता.
‘‘इध पनुदायि, एकच्चो पुग्गलो ‘उपधि दुक्खस्स मूल’न्ति – इति विदित्वा निरुपधि होति, उपधिसङ्खये विमुत्तो. इमं खो अहं, उदायि, पुग्गलं ‘विसंयुत्तो’ति वदामि नो ‘संयुत्तो’ति . तं किस्स हेतु? इन्द्रियवेमत्तता हि मे, उदायि, इमस्मिं पुग्गले विदिता. इमे खो, उदायि, चत्तारो पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं.
१५५. ‘‘पञ्च खो इमे, उदायि, कामगुणा. कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे… घानविञ्ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया. इमे खो, उदायि, पञ्च कामगुणा. यं खो, उदायि, इमे पञ्च कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं इदं वुच्चति कामसुखं मिळ्हसुखं [मीळ्हसुखं (सी. पी.)] पुथुज्जनसुखं अनरियसुखं, न सेवितब्बं, न भावेतब्बं, न बहुलीकातब्बं; ‘भायितब्बं एतस्स सुखस्सा’ति वदामि.
१५६. ‘‘इधुदायि , भिक्खु विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, वितक्कविचारानं वूपसमा… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, पीतिया च विरागा… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, सुखस्स च पहाना… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. इदं वुच्चति नेक्खम्मसुखं पविवेकसुखं उपसमसुखं सम्बोधसुखं, आसेवितब्बं, भावेतब्बं, बहुलीकातब्बं; ‘न भायितब्बं एतस्स सुखस्सा’ति वदामि.
‘‘इधुदायि, भिक्खु विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; इदं खो अहं, उदायि, इञ्जितस्मिं वदामि. किञ्च तत्थ इञ्जितस्मिं? यदेव तत्थ वितक्कविचारा अनिरुद्धा होन्ति इदं तत्थ इञ्जितस्मिं. इधुदायि, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; इदम्पि खो अहं, उदायि, इञ्जितस्मिं वदामि. किञ्च तत्थ इञ्जितस्मिं? यदेव तत्थ पीतिसुखं अनिरुद्धं होति इदं तत्थ इञ्जितस्मिं. इधुदायि, भिक्खु पीतिया च विरागा…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; इदम्पि खो अहं, उदायि, इञ्जितस्मिं वदामि. किञ्च तत्थ इञ्जितस्मिं? यदेव तत्थ उपेक्खासुखं अनिरुद्धं होति इदं तत्थ इञ्जितस्मिं. इधुदायि, भिक्खु सुखस्स च पहाना…पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति; इदं खो अहं, उदायि, अनिञ्जितस्मिं वदामि.
‘‘इधुदायि , भिक्खु विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; इदं खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु पीतिया च विरागा… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सुखस्स च पहाना… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो ; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इदम्पि खो अहं, उदायि, ‘अनल’न्ति वदामि, ‘पजहथा’ति वदामि, ‘समतिक्कमथा’ति वदामि. को च तस्स समतिक्कमो? इधुदायि, भिक्खु सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं तस्स समतिक्कमो; इति खो अहं, उदायि, नेवसञ्ञानासञ्ञायतनस्सपि पहानं वदामि. पस्ससि नो त्वं, उदायि, तं संयोजनं अणुं वा थूलं वा यस्साहं नो पहानं वदामी’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा उदायी भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
लटुकिकोपमसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.