नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 भिक्षुओं पर मँडराते खतरे

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान चातुमा 1 के आँवला वन में विहार कर रहे थे। उस समय सारिपुत्त और मोग्गल्लान की प्रमुखता में पाँच सौ भिक्षु भगवान का दर्शन करने चातुमा पहुँचे। तब आगन्तुक भिक्षु आकर निवासी भिक्षुओं के साथ हालचाल पुछते हुए, निवास दिखाते हुए, पात्र और चीवर सँभालते हुए जोर-जोर से बात करने लगे।

तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “आनन्द, कौन इतना जोर-जोर से बात कर रहे हैं, मानो मछुवारे मछली पकड़ रहे हो।”

“भंते, सारिपुत्त और मोग्गल्लान की प्रमुखता में पाँच सौ भिक्षु भगवान का दर्शन करने चातुमा पहुँचे। वे आगन्तुक भिक्षु आकर निवासी भिक्षुओं के साथ हालचाल पुछते हुए, निवास दिखाते हुए, पात्र और चीवर सँभालते हुए जोर-जोर से बात कर रहे हैं।”

“तब, आनन्द, मेरे नाम पर उन भिक्षुओं को सूचना दो, ‘शास्ता आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।’”

“ठीक है, भंते!” आयुष्मान आनन्द ने भगवान को उत्तर दिया, उन भिक्षुओं के पास गए, और जाकर उन भिक्षुओं से कहा, “शास्ता आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।”

“ठीक है, मित्र!” उन भिक्षुओं ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे उन भिक्षुओं से भगवान ने कहा, “भिक्षुओं, क्यों तुम इतना जोर-जोर से बात कर रहे हो, मानो मछुवारे मछली पकड़ रहे हो?”

“भंते, हम सारिपुत्त और मोग्गल्लान की प्रमुखता में पाँच सौ भिक्षु भगवान का दर्शन करने चातुमा पहुँचे हैं। हम आगन्तुक भिक्षु निवासी भिक्षुओं के साथ हालचाल पुछते हुए, निवास दिखाते हुए, पात्र और चीवर सँभालते हुए जोर-जोर से बात कर रहे हैं।”

“जाओ, भिक्षुओं, तुम्हें निकालता हूँ। मेरे साथ मत रहो।”

“ठीक है, भंते।” उन भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया, और भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, निवास को ठीक कर, पात्र और चीवर लेकर चले गए।

शाक्य और ब्रह्मा की याचना

उस समय चातुमा के शाक्य किसी कार्य से सभागृह में एकत्र होकर बैठक कर रहे थे। उन चातुमा के शाक्यों ने उन भिक्षुओं को दूर से आते हुए देखा। देखकर वे उन भिक्षुओं के पास गए, और जाकर उन भिक्षुओं से कहा, “आप कहाँ जा रहे हैं, आयुष्मानों?”

“मित्रों, भगवान ने भिक्षुसंघ को निकाल दिया।”

“ठीक है, आयुष्मानों, एक मुहूर्त बैठिए। हो सकता है हम भगवान को आश्वस्त कर पाए।”

“ठीक है, मित्रों।” उन भिक्षुओं ने चातुमा के शाक्यों को उत्तर दिया।

तब चातुमा के शाक्य भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर चातुमा के शाक्यों ने भगवान से कहा —

“भंते, भगवान भिक्षुसंघ से प्रसन्न रहें। भंते, भगवान भिक्षुसंघ का स्वागत करें। भंते, जैसे भगवान पहले भिक्षुसंघ को आधार देते थे, उसी तरह भगवान अब भी भिक्षुसंघ को आधार दें।

भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

जैसे, भंते, नन्हें बीज को पानी न मिला, तो वह बदल सकता है, परिवर्तित हो सकता है। उसी तरह, भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

जैसे, भंते, नन्हें बछड़े को माँ न दिखे, तो वह बदल सकता है, परिवर्तित हो सकता है। उसी तरह, भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

भंते, भगवान भिक्षुसंघ से प्रसन्न रहें। भंते, भगवान भिक्षुसंघ का स्वागत करें। भंते, जैसे भगवान पहले भिक्षुसंघ को आधार देते थे, उसी तरह भगवान अब भी भिक्षुसंघ को आधार दें।”

तब, सहम्पति ब्रह्मा 2 ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। और, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और भगवान के समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर भगवान से कहा —

“भंते, भगवान भिक्षुसंघ से प्रसन्न रहें। भंते, भगवान भिक्षुसंघ का स्वागत करें। भंते, जैसे भगवान पहले भिक्षुसंघ को आधार देते थे, उसी तरह भगवान अब भी भिक्षुसंघ को आधार दें।

भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

जैसे, भंते, नन्हें बीज को पानी न मिला, तो वह बदल सकता है, परिवर्तित हो सकता है। उसी तरह, भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

जैसे, भंते, नन्हें बछड़े को माँ न दिखे, तो वह बदल सकता है, परिवर्तित हो सकता है। उसी तरह, भंते, ऐसे नए भिक्षु हैं, जिन्हें प्रवज्ज्यित हुए अधिक समय नहीं हुआ, जो इस धर्म-विनय में अभी-अभी आए हैं। उन्हें भगवान का दर्शन न मिले, तो वे बदल सकते हैं, परिवर्तित हो सकते हैं।

भंते, भगवान भिक्षुसंघ से प्रसन्न रहें। भंते, भगवान भिक्षुसंघ का स्वागत करें। भंते, जैसे भगवान पहले भिक्षुसंघ को आधार देते थे, उसी तरह भगवान अब भी भिक्षुसंघ को आधार दें।”

इस तरह, बीज और बछड़े की उपमा के सहारे चातुमा के शाक्य और सहम्पति ब्रह्मा भगवान को आश्वस्त कर पाए।

भगवान के प्रश्न

तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “उठो, मित्रों, अपना पात्र और चीवर लेकर। भगवान बीज और बछड़े की उपमा से चातुमा के शाक्य और सहम्पति ब्रह्मा के द्वारा आश्वस्त हुए हैं।”

“ठीक है, मित्र।” उन भिक्षुओं ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को उत्तर दिया और आसन से उठकर पात्र और चीवर लेकर भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे आयुष्मान सारिपुत्त से भगवान ने कहा, “सारिपुत्त, जब मैंने भिक्षुसंघ को निकाल दिया, तब तुम्हें क्या लगा?”

“भंते, मुझे लगा कि ‘भगवान ने भिक्षुसंघ को निकाल दिया है। अब भगवान अल्प-उत्सुक (=निष्क्रिय) होकर इस जीवन में सुखविहार के लिए समर्पित होकर विहार करेंगे। तब हम भी अल्प-उत्सुक होकर इस जीवन में सुखविहार के लिए संकल्पित होकर विहार करेंगे।’”

“रुको, रुको, तुम सारिपुत्त। इस जीवन में सुखविहार (के विचार) से रुको।”

तब भगवान ने आयुष्मान महामोग्गल्लान को संबोधित किया, “और तुम्हें क्या लगा, मोग्गल्लान, जब मैंने भिक्षुसंघ को निकाल दिया?”

“भंते, मुझे लगा कि ‘भगवान ने भिक्षुसंघ को निकाल दिया है। अब भगवान इस जीवन में सुखविहार के लिए समर्पित होकर विहार करेंगे। तब मैं और आयुष्मान सारिपुत्त भिक्षुसंघ का नेतृत्व करेंगे।’”

“साधु साधु, मोग्गल्लान। मोग्गल्लान, या तो मुझे भिक्षुसंघ का नेतृत्व करना चाहिए, अथवा सारिपुत्त और मोग्गल्लान को।”

चार भय

तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया —

“भिक्षुओं, पानी में उतरते हुए चार प्रकार के खतरों का अनुमान लगाना चाहिए। कौन से चार?

  • लहर का खतरा,
  • मगरमच्छ का खतरा,
  • भँवर का खतरा,
  • शार्क का खतरा।

इन चार खतरों का अनुमान, भिक्षुओं, पानी में उतरते हुए लगाना चाहिए। उसी तरह, भिक्षुओं, किसी व्यक्ति को इस धर्म-विनय में घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होते हुए चार खतरों का अनुमान लगाना चाहिए। कौन से चार?

  • लहर का खतरा,
  • मगरमच्छ का खतरा,
  • भँवर का खतरा,
  • शार्क का खतरा।

१. ऊमिभय

भिक्षुओं, यह लहर का खतरा क्या है?

भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित होता (=संन्यास ग्रहण करता) है, सोचते हुए, ‘मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा, इन दुःखों में पड़ा, इन दुःखों में डूबा हूँ। काश, मात्र इस दुःख के ढ़ेर को खात्मा पता चले!’

तब प्रवज्ज्यित होने पर उसके सब्रह्मचारी निर्देश देते हैं, अनुशासित करते हैं, ‘इस तरह आगे बढ़ना चाहिए, इस तरह लौट आना चाहिए। इस तरह नजर टिकाना चाहिए, इस तरह नजर हटाना चाहिए। इस तरह (अंग को) सिकोड़ना चाहिए, इस तरह पसारना चाहिए। इस तरह संघाटि, पात्र और चीवर धारण करना चाहिए।’

तब उसे लगता है, ‘जब पहले हम 3 गृहस्थ थे, तब दूसरों को निर्देश देते थे, अनुशासित करते थे। किन्तु, अब हमारे बच्चों के जैसे, नाती-पोतों के जैसे (भिक्षु) हमें निर्देश देते हैं, अनुशासित करते हैं।’

तब वह उस शिक्षा को छोड़ कर हीन (गृहस्थी) जीवन में लौट जाता है। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, लहर के खतरे से डरा कोई शिक्षा छोड़ कर हीन जीवन में लौटता है। ‘लहर का खतरा’, भिक्षुओं, उस क्रोध और निराशा को कहते हैं। 4

२. कुम्भीलभय

भिक्षुओं, यह मगरमच्छ का खतरा क्या है?

भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित होता है, सोचते हुए, ‘मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा, इन दुःखों में पड़ा, इन दुःखों में डूबा हूँ। काश, मात्र इस दुःख के ढ़ेर को खात्मा पता चले!’

तब प्रवज्ज्यित होने पर उसके सब्रह्मचारी निर्देश देते हैं, अनुशासित करते हैं, ‘तुम इसे खा सकते हो, उसे नहीं खा सकते। तुम इसका भोजन कर सकते हो, उसका भोजन नहीं कर सकते। तुम इसे चख सकते हो, उसे नहीं चख सकते। तुम इसे पी सकते हो, उसे नहीं पी सकते। तुम स्वीकार्य (“कप्पिय”) को खा सकते हो, अस्वीकार्य को नहीं खा सकते। तुम स्वीकार्य का भोजन कर सकते हो, अस्वीकार्य का भोजन नहीं कर सकते। तुम स्वीकार्य को चख सकते हो, अस्वीकार्य को नहीं चख सकते। तुम स्वीकार्य को पी सकते हो, अस्वीकार्य को नहीं पी सकते। तुम उचित समय खा सकते हो, बेसमय (=विकाल) नहीं खा सकते। तुम उचित समय भोजन कर सकते हो, बेसमय भोजन नहीं कर सकते। तुम उचित समय चख सकते हो, बेसमय नहीं चख सकते। तुम उचित समय पी सकते हो, बेसमय नहीं पी सकते।’

तब उसे लगता है, ‘जब पहले हम गृहस्थ थे, तब जो इच्छा हो, वो खाते थे; जो इच्छा न हो, वो नहीं खाते थे। जो इच्छा हो, उसका भोजन करते थे; जो इच्छा न हो, उसका भोजन नहीं करते थे। जो इच्छा हो, वो चखते थे; जो इच्छा न हो, वो नहीं चखते थे। जो इच्छा हो, वो पीते थे; जो इच्छा न हो, वो नहीं पीते थे। हम स्वीकार्य भी खाते थे, और अस्वीकार्य भी खाते थे। हम स्वीकार्य का भी भोजन करते थे, और अस्वीकार्य का भी भोजन करते थे। हम स्वीकार्य को भी चखते थे, और अस्वीकार्य को भी चखते थे। हम स्वीकार्य को भी पीते थे, और अस्वीकार्य को भी पीते थे। हम उचित समय भी खाते थे, और बेसमय भी खाते थे। हम उचित समय भी भोजन करते थे, और बेसमय भी भोजन करते थे। हम उचित समय भी चखते थे, और बेसमय भी चखते थे। हम उचित समय भी पीते थे, और बेसमय भी पीते थे। ये श्रद्धालु गृहस्थ दिन के बेसमय ही स्वादिष्ट और उत्तम खाद्य और भोजन देते हैं, और, ये लोग, मानो, हमारा मुँह ढक देते हैं।’

तब वह उस शिक्षा को छोड़ कर हीन जीवन में लौट जाता है। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, मगरमच्छ के खतरे से डरा कोई शिक्षा छोड़ कर हीन जीवन में लौटता है। ‘मगरमच्छ का खतरा’, भिक्षुओं, उस भुक्खड़पन को कहते हैं।

३. आवट्टभय

भिक्षुओं, यह भँवर का खतरा क्या है?

भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित होता है, सोचते हुए, ‘मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा, इन दुःखों में पड़ा, इन दुःखों में डूबा हूँ। काश, मात्र इस दुःख के ढ़ेर को खात्मा पता चले!’

तब प्रवज्ज्यित होने पर, वह सुबह के समय चीवर ओढ़, पात्र और संघाटी लेकर गाँव या नगर में भिक्षाटन के लिए प्रवेश करता है। बिना काया से रक्षित होने पर, बिना वाणी से रक्षित होने पर, बिना स्मृति के प्रतिष्ठित करने पर, बिना इंद्रियों का संवर करने पर, वह किसी गृहस्थ या गृहस्थ के पुत्र को पाँच कामभोग 5 में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए देखता है।

तब उसे लगता है, ‘जब पहले हम गृहस्थ थे, तब हम भी पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते थे। मेरा परिवार भी तो भोगी (या धनी) है। मैं उस भोग को भोगते हुए पुण्य भी कर सकता हूँ।’

तब वह उस शिक्षा को छोड़ कर हीन जीवन में लौट जाता है। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, भँवर के खतरे से डरा कोई शिक्षा छोड़ कर हीन जीवन में लौटता है। ‘भँवर का खतरा’, भिक्षुओं, उस पाँच कामभोग को कहते हैं।

४. सुसुकाभय

भिक्षुओं, यह शार्क का खतरा क्या है?

भिक्षुओं, कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित होता है, सोचते हुए, ‘मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा, इन दुःखों में पड़ा, इन दुःखों में डूबा हूँ। काश, मात्र इस दुःख के ढ़ेर को खात्मा पता चले!’

तब प्रवज्ज्यित होने पर, वह सुबह के समय चीवर ओढ़, पात्र और संघाटी लेकर गाँव या नगर में भिक्षाटन के लिए प्रवेश करता है। बिना काया से रक्षित होने पर, बिना वाणी से रक्षित होने पर, बिना स्मृति के प्रतिष्ठित करने पर, बिना इंद्रियों का संवर करने पर, वह किसी ठीक से वस्त्र न ओढ़ी, ठीक से वस्त्र न पहनी स्त्री को देखता है।

तब, उस ठीक से वस्त्र न ओढ़ी, ठीक से वस्त्र न पहनी स्त्री को देख, राग उसके चित्त को पीड़ित करता है। और राग से पीड़ित चित्त होने पर, वह शिक्षा को छोड़ कर हीन जीवन में लौट जाता है। इसे कहते हैं, भिक्षुओं, शार्क के खतरे से डरा कोई शिक्षा छोड़ कर हीन जीवन में लौटता है। ‘शार्क का खतरा’, भिक्षुओं, उन स्त्रियॉं को कहते हैं। 6

भिक्षुओं, किसी व्यक्ति को इस धर्म-विनय में घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होते हुए, इन चार खतरों का अनुमान लगाना चाहिए।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. चातुमा, शाक्यों के राज्य कपिलवस्तु में एक नगर था, जिसका उल्लेख अन्यत्र नहीं मिलता। ↩︎

  2. सहम्पति ब्रह्मा को ‘ज्येष्ठ महाब्रह्मा’ भी कहा जाता है, जो प्रसिद्ध ‘बकब्रह्मा’ से ऊपर के ब्रह्मलोक में रहता है। सहम्पति पिछले जीवन में सहक नामक मनुष्य था, जो भगवान कश्यप बुद्ध के संघ में भिक्षु बना था। उसने भिक्षु जीवन में पाँच इंद्रियों (=श्रद्धा, शील, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा) को विकसित किया, जिसके फलस्वरूप आनागामि फ़ल प्राप्त कर ऊँचे ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। उसका बौद्ध धर्म में उपकार माना जाता है। उसी ने भगवान गौतम बुद्ध को धर्म सिखाने के लिए राजी किया, और मानवलोक का अनन्त कल्याण हुआ । यही नहीं, बल्कि वह महत्वपूर्ण क्षण में प्रकट होकर, भगवान गौतम बुद्ध को आश्वस्त भी करता, जैसे धर्म को गौरवान्वित करने के समय, या भिक्षुओं को चार स्मृतिप्रस्थान और पाँच इंद्रिय की साधना सिखाने से पूर्व। कहा जाता हैं कि उसे पश्चात ब्राह्मण साहित्य में ‘स्वयंभू ब्रह्मा’ के नाम पर शामिल किया गया। ↩︎

  3. इस स्थान पर “मैं” के बजाय “हम” का प्रयोग बहुत कुछ उजागर करता है। जब किसी अहंकारी व्यक्ति को कम उम्र के भंते से अनुशासन की शिक्षा मिलती है, तो उसके अहंकार पर चोट लगती है, और वह इसे अपमान के रूप में लेता है। हालांकि ऐसी कोई समस्या दूसरों को नहीं होती, केवल उसी को हो रही होती है, फिर भी वह अपने बचाव में बहुवचन ‘हम’ का उपयोग कर, उसे ‘सभी’ का अपमान बताने लगता है।

    आजकल के असुरी नेता भी अक्सर ऐसा ही करते हैं। जब उनकी आलोचना की जाती है, तो वे आक्रमक होकर उसे पूरे देश का अपमान, धर्म का अपमान, जाति का अपमान, फलाने-ढिमके का अपमान बताने लगते हैं। परिणामस्वरूप, सच्चाई के आधार पर उनकी कोई भी आलोचना करना कठिन हो जाता है, और लोगों का ध्यान असली मुद्दे से भटक जाता है। यह रणनीति भले ही राजनीति में स्वीकार्य हो, लेकिन धर्म में नहीं।

    सच्चक भी इसी रणनीति का उपयोग करता है, जब वह भगवान के साथ सरेआम बहस करता है। लेकिन भगवान उसकी बात को तुरंत खंडित करते हैं, और उसे ‘हम सब की यही राय है’ कहने के बजाय ‘यह मेरी व्यक्तिगत राय है’ कहने पर मजबूर कर देते हैं। इस पर अधिक जानकारी के लिए यह सच्चक सूत्र पढ़ें। ऐसे अहंकारियों से भगवान किस तरह बहस करते थे, इस पर अम्बट्ठ सुत्त सबसे बेहतरीन नमूना है। उसे अवश्य पढ़ें। ↩︎

  4. हमारी मराठी भाषा में एक कहावत है — “आली लहर, केला कहर!” यह कहावत उस “लहरी” व्यक्ति के लिए कही जाती है, जिसकी पुरानी प्रवृत्तियाँ समय-समय पर सिर उठाती हैं — मानो कोई पागलपन की लहर उठी हो — और तब वह चारों ओर कहर मचा देता है।

    जब कोई अहंकारी व्यक्ति संन्यास लेता है, और धर्म-अनुशासन के मार्ग पर चलते हुए उसके अहंकार पर आघात होने लगते हैं, तब उसकी पुरानी वृत्तियों की लहरें फिर से उभरने लगती हैं। उन लहरों के थपेड़े उसकी शांति को भंग करते हैं, उसके धर्म आधार को हिलाते हैं, उसे भीतर से व्याकुल बना देते हैं। ऐसे व्यक्ति को छोटी-छोटी बातों पर भी क्रोध आने लगता है। यदि वह अपनी इन पुरानी लहरों को पहचानकर नियंत्रित नहीं कर पाता, तो संन्यास जीवन उसके लिए निराशाजनक बन जाता है। और अंततः वह संन्यास का परित्याग कर गृहस्थ जीवन की ओर लौट जाता है। भगवान यहाँ इसी खतरे की ओर संकेत कर रहे हैं। ↩︎

  5. पाँच कामगुण होते हैं —

    • आँख से दिखायी देते रूप, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
    • कान से सुनायी देती आवाज़े, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
    • नाक से सुँघाई देती गन्ध, जो अच्छी, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाती हो।
    • जीभ से पता चलते स्वाद, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
    • काया से पता चलते संस्पर्श, जो अच्छे, मोहक, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
     ↩︎
  6. “सुसुका” को एक डरावनी और बड़ी मांसाहारी मछली (चण्डमच्छ) के रूप में जाना जाता है। गंगा नदी में शार्क की कई प्रजातियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से एक “सिंह शार्क” (Bull Shark) है, जिसके पंखों के छोर काले होते हैं। यह शार्क आदमियों को खींचकर डुबोने और उन्हें खा जाने के लिए कुख्यात है। संस्कृत में “सुसुका” शब्द का रूप “षुष्कल” है, जिसका अर्थ मछली की प्रजाति और “मांस” दोनों होता है।

    इस प्रकार, जो महिलाएँ अल्पवस्त्र पहनकर “मांस” का प्रदर्शन करती हैं, वे चंचल चित्त वाले भिक्षुओं के लिए किसी मांसाहारी शार्क से कम नहीं होतीं। उनका आकर्षक मांसल दर्शन भिक्षुओं को कामराग में खींच ले जाता है, और उनकी श्रमण्यता का दुखद अंत होता है। ↩︎

Pali

१५७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा चातुमायं विहरति आमलकीवने. तेन खो पन समयेन सारिपुत्तमोग्गल्लानप्पमुखानि पञ्चमत्तानि भिक्खुसतानि चातुमं अनुप्पत्तानि होन्ति भगवन्तं दस्सनाय. ते च आगन्तुका भिक्खू नेवासिकेहि भिक्खूहि सद्धिं पटिसम्मोदमाना सेनासनानि पञ्ञापयमाना पत्तचीवरानि पटिसामयमाना उच्चासद्दा महासद्दा अहेसुं. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि – ‘‘के पनेते, आनन्द, उच्चासद्दा महासद्दा, केवट्टा मञ्ञे मच्छविलोपे’’ति? ‘‘एतानि, भन्ते, सारिपुत्तमोग्गल्लानप्पमुखानि पञ्चमत्तानि भिक्खुसतानि चातुमं अनुप्पत्तानि भगवन्तं दस्सनाय. ते आगन्तुका भिक्खू नेवासिकेहि भिक्खूहि सद्धिं पटिसम्मोदमाना सेनासनानि पञ्ञापयमाना पत्तचीवरानि पटिसामयमाना उच्चासद्दा महासद्दा’’ति. ‘‘तेनहानन्द, मम वचनेन ते भिक्खू आमन्तेहि – ‘सत्था आयस्मन्ते आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो आयस्मा आनन्दो भगवतो पटिस्सुत्वा येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘सत्था आयस्मन्ते आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ने खो ते भिक्खू भगवा एतदवोच – ‘‘किं नु तुम्हे, भिक्खवे, उच्चासद्दा महासद्दा, केवट्टा मञ्ञे मच्छविलोपे’’ति? ‘‘इमानि, भन्ते, सारिपुत्तमोग्गल्लानप्पमुखानि पञ्चमत्तानि भिक्खुसतानि चातुमं अनुप्पत्तानि भगवन्तं दस्सनाय. तेमे आगन्तुका भिक्खू नेवासिकेहि भिक्खूहि सद्धिं पटिसम्मोदमाना सेनासनानि पञ्ञापयमाना पत्तचीवरानि पटिसामयमाना उच्चासद्दा महासद्दा’’ति. ‘‘गच्छथ, भिक्खवे, पणामेमि वो, न वो मम सन्तिके वत्थब्ब’’न्ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पटिस्सुत्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा सेनासनं संसामेत्वा पत्तचीवरमादाय पक्कमिंसु.

१५८. तेन खो पन समयेन चातुमेय्यका सक्या सन्थागारे [सन्धागारे (क.)] सन्निपतिता होन्ति केनचिदेव करणीयेन. अद्दसंसु खो चातुमेय्यका सक्या ते भिक्खू दूरतोव आगच्छन्ते; दिस्वान येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोचुं – ‘‘हन्द, कहं पन तुम्हे आयस्मन्तो गच्छथा’’ति? ‘‘भगवता खो, आवुसो, भिक्खुसङ्घो पणामितो’’ति. ‘‘तेनहायस्मन्तो मुहुत्तं निसीदथ, अप्पेव नाम मयं सक्कुणेय्याम भगवन्तं पसादेतु’’न्ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू चातुमेय्यकानं सक्यानं पच्चस्सोसुं. अथ खो चातुमेय्यका सक्या येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो चातुमेय्यका सक्या भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘अभिनन्दतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं; अभिवदतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं. सेय्यथापि, भन्ते , भगवता पुब्बे भिक्खुसङ्घो अनुग्गहितो, एवमेव भगवा एतरहि अनुग्गण्हातु भिक्खुसङ्घं. सन्तेत्थ, भन्ते, भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं. तेसं भगवन्तं दस्सनाय अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. सेय्यथापि, भन्ते, बीजानं तरुणानं उदकं अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं सिया विपरिणामो; एवमेव खो, भन्ते, सन्तेत्थ भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं, तेसं भगवन्तं दस्सनाय अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. सेय्यथापि, भन्ते, वच्छस्स तरुणस्स मातरं अपस्सन्तस्स सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो; एवमेव खो, भन्ते, सन्तेत्थ भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं, तेसं भगवन्तं अपस्सन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. अभिनन्दतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं; अभिवदतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं. सेय्यथापि, भन्ते, भगवता पुब्बे भिक्खुसङ्घो अनुग्गहितो; एवमेव भगवा एतरहि अनुग्गण्हातु भिक्खुसङ्घ’’न्ति.

१५९. अथ खो ब्रह्मा सहम्पति भगवतो चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं [सम्मिञ्जितं (सी. स्या. कं. पी.)] वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – ब्रह्मलोके अन्तरहितो भगवतो पुरतो पातुरहोसि. अथ खो ब्रह्मा सहम्पति एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिनन्दतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं; अभिवदतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं. सेय्यथापि, भन्ते, भगवता पुब्बे भिक्खुसङ्घो अनुग्गहितो; एवमेव भगवा एतरहि अनुग्गण्हातु भिक्खुसङ्घं. सन्तेत्थ, भन्ते, भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं, तेसं भगवन्तं दस्सनाय अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. सेय्यथापि, भन्ते, बीजानं तरुणानं उदकं अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो; एवमेव खो, भन्ते, सन्तेत्थ भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं, तेसं भगवन्तं दस्सनाय अलभन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. सेय्यथापि भन्ते, वच्छस्स तरुणस्स मातरं अपस्सन्तस्स सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो; एवमेव खो, भन्ते, सन्तेत्थ भिक्खू नवा अचिरपब्बजिता अधुनागता इमं धम्मविनयं, तेसं भगवन्तं अपस्सन्तानं सिया अञ्ञथत्तं, सिया विपरिणामो. अभिनन्दतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं; अभिवदतु, भन्ते, भगवा भिक्खुसङ्घं. सेय्यथापि, भन्ते, भगवता पुब्बे भिक्खुसङ्घो अनुग्गहितो; एवमेव भगवा एतरहि अनुग्गण्हातु भिक्खुसङ्घ’’न्ति.

१६०. असक्खिंसु खो चातुमेय्यका च सक्या ब्रह्मा च सहम्पति भगवन्तं पसादेतुं बीजूपमेन च तरुणूपमेन च. अथ खो आयस्मा महामोग्गल्लानो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘उट्ठेथावुसो, गण्हथ पत्तचीवरं. पसादितो भगवा चातुमेय्यकेहि च सक्येहि ब्रह्मुना च सहम्पतिना बीजूपमेन च तरुणूपमेन चा’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो महामोग्गल्लानस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना पत्तचीवरमादाय येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्नं खो आयस्मन्तं सारिपुत्तं भगवा एतदवोच – ‘‘किन्ति ते, सारिपुत्त, अहोसि मया भिक्खुसङ्घे पणामिते’’ति? ‘‘एवं खो मे, भन्ते, अहोसि – ‘भगवता भिक्खुसङ्घो पणामितो. अप्पोस्सुक्को दानि भगवा दिट्ठधम्मसुखविहारं अनुयुत्तो विहरिस्सति, मयम्पि दानि अप्पोस्सुक्का दिट्ठधम्मसुखविहारमनुयुत्ता विहरिस्सामा’’’ति. ‘‘आगमेहि त्वं, सारिपुत्त, आगमेहि त्वं, सारिपुत्त, दिट्ठधम्मसुखविहार’’न्ति. अथ खो भगवा आयस्मन्तं महामोग्गल्लानं आमन्तेसि – ‘‘किन्ति ते, मोग्गल्लान, अहोसि मया भिक्खुसङ्घे पणामिते’’ति? ‘‘एवं खो मे, भन्ते, अहोसि – ‘भगवता भिक्खुसङ्घो पणामितो. अप्पोस्सुक्को दानि भगवा दिट्ठधम्मसुखविहारं अनुयुत्तो विहरिस्सति, अहञ्च दानि आयस्मा च सारिपुत्तो भिक्खुसङ्घं परिहरिस्सामा’’’ति. ‘‘साधु साधु, मोग्गल्लान! अहं वा हि, मोग्गल्लान , भिक्खुसङ्घं परिहरेय्यं सारिपुत्तमोग्गल्लाना वा’’ति.

१६१. अथ खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘चत्तारिमानि, भिक्खवे, भयानि उदकोरोहन्ते पाटिकङ्खितब्बानि. कतमानि चत्तारि? ऊमिभयं [उम्मीभयं (स्या. कं.)], कुम्भीलभयं, आवट्टभयं, सुसुकाभयं – इमानि, भिक्खवे, चत्तारि भयानि उदकोरोहन्ते पाटिकङ्खितब्बानि. एवमेव खो, भिक्खवे, चत्तारिमानि भयानि इधेकच्चे पुग्गले इमस्मिं धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बजिते पाटिकङ्खितब्बानि. कतमानि चत्तारि? ऊमिभयं, कुम्भीलभयं, आवट्टभयं, सुसुकाभयं.

१६२. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, ऊमिभयं? इध, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो; अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. तमेनं तथा पब्बजितं समानं सब्रह्मचारी ओवदन्ति, अनुसासन्ति – ‘एवं ते अभिक्कमितब्बं, एवं ते पटिक्कमितब्बं, एवं ते आलोकितब्बं, एवं ते विलोकितब्बं, एवं ते समिञ्जितब्बं, एवं ते पसारितब्बं, एवं ते सङ्घाटिपत्तचीवरं धारेतब्ब’न्ति. तस्स एवं होति – ‘मयं खो पुब्बे अगारियभूता समाना अञ्ञे ओवदाम, अनुसासाम [ओवदामपि अनुसासामपि (सी. स्या. कं. पी.)]. इमे पनम्हाकं पुत्तमत्ता मञ्ञे, नत्तमत्ता मञ्ञे, अम्हे [एवं (क.)] ओवदितब्बं अनुसासितब्बं मञ्ञन्ती’ति. सो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, ऊमिभयस्स भीतो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तो. ‘ऊमिभय’न्ति खो, भिक्खवे, कोधुपायासस्सेतं अधिवचनं.

१६३. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, कुम्भीलभयं? इध, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो; अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. तमेनं तथा पब्बजितं समानं सब्रह्मचारी ओवदन्ति अनुसासन्ति – ‘इदं ते खादितब्बं, इदं ते न खादितब्बं; इदं ते भुञ्जितब्बं, इदं ते न भुञ्जितब्बं; इदं ते सायितब्बं, इदं ते न सायितब्बं; इदं ते पातब्बं, इदं ते न पातब्बं; कप्पियं ते खादितब्बं, अकप्पियं ते न खादितब्बं; कप्पियं ते भुञ्जितब्बं, अकप्पियं ते न भुञ्जितब्बं; कप्पियं ते सायितब्बं, अकप्पियं ते न सायितब्बं ; कप्पियं ते पातब्बं, अकप्पियं ते न पातब्बं; काले ते खादितब्बं, विकाले ते न खादितब्बं; काले ते भुञ्जितब्बं, विकाले ते न भुञ्जितब्बं; काले ते सायितब्बं, विकाले ते न सायितब्बं; काले ते पातब्बं, विकाले ते न पातब्ब’न्ति. तस्स एवं होति – ‘मयं खो पुब्बे अगारियभूता समाना यं इच्छाम तं खादाम, यं न इच्छाम न तं खादाम; यं इच्छाम तं भुञ्जाम, यं न इच्छाम न तं भुञ्जाम; यं इच्छाम तं सायाम, यं न इच्छाम न तं सायाम; यं इच्छाम तं पिवाम [पिपाम (सी. पी.)], यं न इच्छाम न तं पिवाम; कप्पियम्पि खादाम, अकप्पियम्पि खादाम; कप्पियम्पि भुञ्जाम, अकप्पियम्पि भुञ्जाम; कप्पियम्पि सायाम, अकप्पियम्पि सायाम; कप्पियम्पि पिवाम, अकप्पियम्पि पिवाम; कालेपि खादाम, विकालेपि खादाम; कालेपि भुञ्जाम विकालेपि भुञ्जाम; कालेपि सायाम, विकालेपि सायाम; कालेपि पिवाम, विकालेपि पिवाम. यम्पि नो सद्धा गहपतिका दिवा विकाले पणीतं खादनीयं भोजनीयं देन्ति तत्थपिमे मुखावरणं मञ्ञे करोन्ती’ति. सो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, कुम्भीलभयस्स भीतो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तो. ‘कुम्भीलभय’न्ति खो, भिक्खवे, ओदरिकत्तस्सेतं अधिवचनं.

१६४. ‘‘कतमञ्च, भिक्खवे, आवट्टभयं? इध, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो; अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय गामं वा निगमं वा पिण्डाय पविसति. अरक्खितेनेव कायेन अरक्खिताय वाचाय अनुपट्ठिताय सतिया असंवुतेहि इन्द्रियेहि सो तत्थ पस्सति गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गीभूतं परिचारयमानं [परिचारियमानं (स्या. कं. क.)]. तस्स एवं होति – ‘मयं खो पुब्बे अगारियभूता समाना पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारिम्हा. संविज्जन्ति खो पन मे कुले [संविज्जन्ति खो कुले (सी. स्या. कं. पी.)] भोगा. सक्का भोगे च भुञ्जितुं पुञ्ञानि च कातु’न्ति. सो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, आवट्टभयस्स भीतो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तो. ‘आवट्टभय’न्ति खो, भिक्खवे, पञ्चन्नेतं कामगुणानं अधिवचनं.

१६५. ‘‘कतमञ्च , भिक्खवे, सुसुकाभयं? इध, भिक्खवे, एकच्चो कुलपुत्तो सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो होति – ‘ओतिण्णोम्हि जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो; अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथा’ति. सो एवं पब्बजितो समानो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय गामं वा निगमं वा पिण्डाय पविसति. अरक्खितेनेव कायेन अरक्खिताय वाचाय अनुपट्ठिताय सतिया असंवुतेहि इन्द्रियेहि सो तत्थ पस्सति मातुगामं दुन्निवत्थं वा दुप्पारुतं वा. तस्स मातुगामं दिस्वा दुन्निवत्थं वा दुप्पारुतं वा रागो चित्तं अनुद्धंसेति. सो रागानुद्धंसेन [अनुद्धस्तेन (सी. पी.)] चित्तेन सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तति . अयं वुच्चति, भिक्खवे, सुसुकाभयस्स भीतो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तो. ‘सुसुकाभय’न्ति खो, भिक्खवे, मातुगामस्सेतं अधिवचनं. इमानि खो, भिक्खवे, चत्तारि भयानि, इधेकच्चे पुग्गले इमस्मिं धम्मविनये अगारस्मा अनगारियं पब्बजिते पाटिकङ्खितब्बानी’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

चातुमसुत्तं निट्ठितं सत्तमं.