ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कोसल में नळकपान के सागौन-वन में विहार कर रहे थे। उस समय बहुत से जाने-माने और प्रसिद्ध कुलपुत्र भगवान को उद्देश्य कर घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए थे — जैसे आयुष्मान अनुरुद्ध, आयुष्मान भद्दिय, आयुष्मान किमिल, आयुष्मान भगु, आयुष्मान कोण्डञ्ञ, आयुष्मान रेवत, आयुष्मान आनन्द, और दूसरे भी जाने-माने और प्रसिद्ध कुलपुत्र।
उस समय भगवान भिक्षुसंघ से घिर कर खुले आकाश के नीचे बैठे हुए थे। तब भगवान ने उन कुलपुत्रों के बारे में भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, ये जो कुलपुत्र मुझे उद्देश्य कर घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए हैं, अवश्य ही वे भिक्षु ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होंगे?”
जब ऐसा कहा गया, तब भिक्षु मौन हो गए।
तब दूसरी बार, भगवान ने उन कुलपुत्रों के बारे में भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, ये जो कुलपुत्र मुझे उद्देश्य कर घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए हैं, अवश्य ही वे भिक्षु ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होंगे?”
दूसरी बार भी भिक्षु मौन रहे।
तब तीसरी बार, भगवान ने उन कुलपुत्रों के बारे में भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं, ये जो कुलपुत्र मुझे उद्देश्य कर घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए हैं, अवश्य ही वे भिक्षु ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होंगे?”
तीसरी बार भी भिक्षु मौन रहे।
तब भगवान को लगा, “क्यों न मैं उन कुलपुत्रों से ही पूछूं?”
तब भगवान ने आयुष्मान अनुरुद्ध को संबोधित किया, “अनुरूद्धों 1 अवश्य ही तुम ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होंगे?”
“अवश्य, भंते। हम ब्रह्मचर्य से प्रसन्न हैं।”
“साधु साधु, अनुरूद्धों। तुम जैसे कुलपुत्रों के लिए, अनुरूद्धों, जो घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए हैं, ब्रह्मचर्य से प्रसन्न होना उचित हैं। तुम, अनुरूद्धों, उम्र के पहले चरण में, काले केश वाले, यौवन वरदान से युक्त होकर कामभोग भी कर सकते थे। किन्तु तुम, अनुरूद्धों, उम्र के पहले चरण में, काले केश वाले, यौवन वरदान से युक्त होकर, घर से बेघर होकर श्रद्धापूर्वक प्रवज्ज्यित हुए।
किन्तु, अनुरूद्धों, तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होने के लिए किसी राजा ने बाध्य नहीं किया, न ही किसी डाकू ने बाध्य किया, न ही ऋण (=कर्ज) के मारे, न ही डर के मारे, न ही जीविका कमाने के लिए तुम घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित हुए हो। 2 बल्कि, अनुरूद्धों, क्या तुमने इस तरह सोचते हुए घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित नहीं हुए, ‘मैं जन्म, बुढ़ापा और मौत से घिरा हूँ; शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा, इन दुःखों में पड़ा, इन दुःखों में डूबा हूँ। काश, मात्र इस दुःख के ढ़ेर को खात्मा पता चले’?”
“हाँ, भंते।”
“किन्तु, अनुरूद्धों, इस तरह प्रवज्ज्यित होने पर कुलपुत्रों को क्या करना चाहिए?
अनुरूद्धों, जो कामुकता से निर्लिप्त और अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त प्रफुल्लता और सुख या उससे बेहतर शांति को प्राप्त नहीं करता —
यह, अनुरूद्धों, कामुकता से निर्लिप्त और अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त प्रफुल्लता और सुख या उससे बेहतर शांति न पाने पर होता है।
किन्तु, अनुरूद्धों, जो कामुकता से निर्लिप्त और अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त प्रफुल्लता और सुख या उससे बेहतर शांति को प्राप्त करता है —
यह, अनुरूद्धों, कामुकता से निर्लिप्त और अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त प्रफुल्लता और सुख या उससे बेहतर शांति पाने पर होता है।
क्या तुम्हें, अनुरूद्धों, मेरे बारे में ऐसा लगता है कि ‘ये आस्रव, जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — वे तथागत से नहीं त्यागे गए हैं? इसलिए तथागत सोच-समझकर (कुछ का) उपयोग करते हैं, सोच-समझकर (कुछ को) सहन करते हैं, सोच-समझकर (कुछ) टालते हैं, सोच-समझकर (कुछ) हटाते हैं’?” 3
“नहीं, भंते। हमें भगवान के बारे में ऐसा नहीं लगता कि ‘ये आस्रव, जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — वे तथागत से नहीं त्यागे गए हैं। इसलिए तथागत सोच-समझकर उपयोग करते हैं, सोच-समझकर सहन करते हैं, सोच-समझकर टालते हैं, सोच-समझकर हटाते हैं।’”
“साधु साधु, अनुरूद्धों। तथागत ने, अनुरूद्धों, ये आस्रव, जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — उन्हें त्याग दिया हैं, जड़ से उखाड़ दिया है, ताड़ की ठूँठ जैसा बना दिया है, अस्तित्व से मिटा दिया है, ताकि वे भविष्य में फिर से प्रकट न हो।
जैसे, अनुरूद्धों, ताड़ (वृक्ष) का सिरा काट देने पर उसका दुबारा उगना असंभव है। उसी तरह, अनुरूद्धों, ये आस्रव, जो मैला करते हैं, पुनरुत्पत्ति कराते हैं, परेशान करते हैं, दुःख परिणामी हैं, जन्म, बुढ़ापा और मौत लाते हैं — तथागत ने उन्हें त्याग दिया हैं, जड़ से उखाड़ दिया है, ताड़ की ठूँठ जैसा बना दिया है, अस्तित्व से मिटा दिया है, ताकि वे भविष्य में फिर से प्रकट न हो। इसलिए तथागत सोच-समझकर उपयोग करते हैं, सोच-समझकर सहन करते हैं, सोच-समझकर टालते हैं, सोच-समझकर हटाते हैं।
तुम्हें क्या लगता है, अनुरूद्धों? तथागत किस अर्थ को देखकर मर चुके श्रावकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित करते हैं, ‘यह यहाँ उत्पन्न हुआ, वह वहाँ उत्पन्न हुआ’?”
“भंते, हमारा धर्म भगवान की नींव पर हैं, भगवान के मार्गदर्शन से हैं, भगवान के प्रति शरण से हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान ही इस कहे का अर्थ बताएँ। भगवान से सुनकर भिक्षुगण धारण करेंगे।”
“अनुरूद्धों, तथागत — न जनता को धोखा देने के अर्थ से; न जनता को गदगद करने के अर्थ से; न लाभ, सत्कार और किर्ति पाने के अर्थ से; न सोचते हुए, ‘मेरे बारे में जनता को ऐसा पता चले’ — मर चुके श्रावकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित करते हैं, ‘यह यहाँ उत्पन्न हुआ, वह वहाँ उत्पन्न हुआ।’
बल्कि ऐसे श्रद्धालु कुलपुत्र हैं, अनुरूद्धों, जो बहुत प्रेरित होते हैं, बहुत प्रमुदित होते हैं। वे उसे सुनकर उस ध्येय से अपना चित्त लगाते हैं, जो उनके दीर्घकाल के लिए हितकारक और सुखदायी होता हैं।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षु सुनता है, ‘इस नाम का भिक्षु मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह अज्ञता (=सर्वोच्च ज्ञान, अरहंत-पद) में स्थापित हुआ!’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षु राहत से विहार करता है।
आगे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षु सुनता है, ‘इस नाम का भिक्षु मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह निचले पाँच संयोजन तोड़कर (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) स्वप्रकट हुआ है। वह वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा! (=अनागामी-अवस्था)’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षु राहत से विहार करता है।
आगे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षु सुनता है, ‘इस नाम का भिक्षु मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बना है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा।’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षु राहत से विहार करता है।
आगे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षु सुनता है, ‘इस नाम का भिक्षु मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बना है — अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर!’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षु राहत से विहार करता है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षुणी सुनती है, ‘इस नाम की भिक्षुणी मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह अज्ञता में स्थापित हुई!’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षुणी राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षुणी सुनती है, ‘इस नाम की भिक्षुणी मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट हुई है। अब वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगी, इस लोक में नहीं लौटेगी!’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षुणी राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षुणी सुनती है, ‘इस नाम की भिक्षुणी मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बनी है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगी।’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षुणी राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई भिक्षुणी सुनती है, ‘इस नाम की भिक्षुणी मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनी है — अ-पतन स्वभाव की, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह भिक्षुणी राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई उपासक सुनता है, ‘इस नाम का उपासक मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट हुआ है। वह वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटेगा!’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासक राहत से विहार करता है।
आगे, अनुरूद्धों, कोई उपासक सुनता है, ‘इस नाम का उपासक मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बना है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगा!’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासक राहत से विहार करता है।
आगे, अनुरूद्धों, कोई उपासक सुनता है, ‘इस नाम का उपासक मर गया। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बना है — अ-पतन स्वभाव का, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर!’ तब वह आयुष्मान स्वयं देखता है या किसी से सुनता है कि ‘उस आयुष्मान का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाता है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासक राहत से विहार करता है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई उपासिका सुनती है, ‘इस नाम की उपासिका मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह निचले पाँच संयोजन तोड़कर स्वप्रकट हुई है। अब वही परिनिर्वाण प्राप्त करेगी, इस लोक में नहीं लौटेगी!’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासिका राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई उपासिका सुनती है, ‘इस नाम की उपासिका मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को दुर्बल कर सकृदागामी बनी है, जो इस लोक में दुबारा लौटकर अपने दुःखों का अन्त करेगी।’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासिका राहत से विहार करती है।
जैसे, अनुरूद्धों, कोई उपासिका सुनती है, ‘इस नाम की उपासिका मर गयी। भगवान ने घोषित किया — ‘वह तीन संयोजन तोड़कर श्रोतापन्न बनी है — अ-पतन स्वभाव की, निश्चित संबोधि की ओर अग्रसर।’ तब वह बहन स्वयं देखती है या किसी से सुनता है कि ‘उस बहन का इस तरह का शील था… इस तरह का धर्म था… इस तरह की प्रज्ञा थी… इस तरह की साधना थी… इस तरह की विमुक्ति थी।’ तब, वह उसके श्रद्धा, शील, श्रवण, त्याग और प्रज्ञा का अनुस्मरण कर उस ध्येय से अपना चित्त लगाती है। इस तरह, अनुरूद्धों, वह उपासिका राहत से विहार करती है।
इस तरह, अनुरूद्धों, तथागत — न जनता को धोखा देने के अर्थ से; न जनता को गदगद करने के अर्थ से; न लाभ, सत्कार और किर्ति पाने के अर्थ से; न सोचते हुए, ‘मेरे बारे में जनता को ऐसा पता चले’ — मर चुके श्रावकों की पुनरुत्पत्ति के बारे में घोषित करते हैं, ‘यह यहाँ उत्पन्न हुआ, वह वहाँ उत्पन्न हुआ।’
बल्कि ऐसे श्रद्धालु कुलपुत्र हैं, अनुरूद्धों, जो बहुत प्रेरित होते हैं, बहुत प्रमुदित होते हैं। वे उसे सुनकर उस ध्येय से अपना चित्त लगाते हैं, जो उनके दीर्घकाल के लिए हितकारक और सुखदायी होता हैं।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान अनुरुद्ध ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
पहले ऐसा प्रचलित था कि किसी समूह को उसके वरिष्ठ या अग्रिम नेता के नाम से पुकारा जाता है। इसलिए यहाँ भगवान उन सभी कुलपुत्रों को बहुवचनी “अनुरूद्धों” कहकर पुकारते हैं। ↩︎
भगवान ने सब्बासव सुत्त में आस्रवों को जड़ से समाप्त करने के सात तरीके बताए हैं। यहाँ भगवान युवा, आदर्शवादी भिक्षुओं से यह सवाल कर रहे हैं कि क्या उन्हें यह आभास होता है कि वे गुपचुप तरीके से आस्रवों से प्रभावित हो रहे हैं, और इसलिए वे उन सात में से चार तरीकों को अब भी अभ्यास में ला रहे हैं। ↩︎
१६६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु विहरति नळकपाने पलासवने. तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता कुलपुत्ता भगवन्तं उद्दिस्स सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता होन्ति – आयस्मा च अनुरुद्धो, आयस्मा च भद्दियो [नन्दियो (सी. पी.) विनये च म. नि. १ चूळगोसिङ्गे च], आयस्मा च किमिलो [किम्बिलो (सी. स्या. कं. पी.)], आयस्मा च भगु, आयस्मा च कोण्डञ्ञो [कुण्डधानो (सी. पी.)], आयस्मा च रेवतो, आयस्मा च आनन्दो, अञ्ञे च अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता कुलपुत्ता. तेन खो पन समयेन भगवा भिक्खुसङ्घपरिवुतो अब्भोकासे निसिन्नो होति. अथ खो भगवा ते कुलपुत्ते आरब्भ भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘ये ते, भिक्खवे, कुलपुत्ता ममं उद्दिस्स सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, कच्चि ते, भिक्खवे, भिक्खू अभिरता ब्रह्मचरिये’’ति? एवं वुत्ते, ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं. दुतियम्पि खो भगवा ते कुलपुत्ते आरब्भ भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘ये ते, भिक्खवे, कुलपुत्ता ममं उद्दिस्स सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, कच्चि ते, भिक्खवे, भिक्खू अभिरता ब्रह्मचरिये’’ति? दुतियम्पि खो ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं. ततियम्पि खो भगवा ते कुलपुत्ते आरब्भ भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘ये ते, भिक्खवे, कुलपुत्ता ममं उद्दिस्स सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता , कच्चि ते, भिक्खवे, भिक्खू अभिरता ब्रह्मचरिये’’ति? ततियम्पि खो ते भिक्खू तुण्ही अहेसुं.
१६७. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘यंनूनाहं ते कुलपुत्ते पुच्छेय्य’’न्ति! अथ खो भगवा आयस्मन्तं अनुरुद्धं आमन्तेसि – ‘‘कच्चि तुम्हे, अनुरुद्धा, अभिरता ब्रह्मचरिये’’ति? ‘‘तग्घ मयं, भन्ते, अभिरता ब्रह्मचरिये’’ति. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! एतं खो, अनुरुद्धा, तुम्हाकं पतिरूपं कुलपुत्तानं सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितानं यं तुम्हे अभिरमेय्याथ ब्रह्मचरिये. येन तुम्हे अनुरुद्धा, भद्रेन योब्बनेन समन्नागता पठमेन वयसा सुसुकाळकेसा कामे परिभुञ्जेय्याथ तेन तुम्हे, अनुरुद्धा, भद्रेनपि योब्बनेन समन्नागता पठमेन वयसा सुसुकाळकेसा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता. ते च खो पन तुम्हे, अनुरुद्धा, नेव राजाभिनीता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, न चोराभिनीता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, न इणट्टा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, न भयट्टा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता, नाजीविकापकता अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता. अपि च खोम्हि ओतिण्णो जातिया जराय मरणेन सोकेहि परिदेवेहि दुक्खेहि दोमनस्सेहि उपायासेहि, दुक्खोतिण्णो दुक्खपरेतो; अप्पेव नाम इमस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स अन्तकिरिया पञ्ञायेथाति – ननु तुम्हे, अनुरुद्धा, एवं सद्धा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. ‘‘एवं पब्बजितेन च पन, अनुरुद्धा, कुलपुत्तेन किमस्स करणीयं? विवेकं, अनुरुद्धा, कामेहि विवेकं अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं नाधिगच्छति अञ्ञं वा [अञ्ञं च (क.)] ततो सन्ततरं, तस्स अभिज्झापि चित्तं परियादाय तिट्ठति, ब्यापादोपि चित्तं परियादाय तिट्ठति, थीनमिद्धम्पि [थीनमिद्धम्पि (सी. स्या. कं. पी.)] चित्तं परियादाय तिट्ठति उद्धच्चकुक्कुच्चम्पि चित्तं परियादाय तिट्ठति, विचिकिच्छापि चित्तं परियादाय तिट्ठति, अरतीपि चित्तं परियादाय तिट्ठति, तन्दीपि चित्तं परियादाय तिट्ठति. विवेकं, अनुरुद्धा, कामेहि विवेकं अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं नाधिगच्छति अञ्ञं वा ततो सन्ततरं’’.
‘‘विवेकं, अनुरुद्धा, कामेहि विवेकं अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं अधिगच्छति अञ्ञं वा ततो सन्ततरं, तस्स अभिज्झापि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, ब्यापादोपि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, थीनमिद्धम्पि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, उद्धच्चकुक्कुच्चम्पि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, विचिकिच्छापि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, अरतीपि चित्तं न परियादाय तिट्ठति, तन्दीपि चित्तं न परियादाय तिट्ठति. विवेकं, अनुरुद्धा, कामेहि विवेकं अकुसलेहि धम्मेहि पीतिसुखं अधिगच्छति अञ्ञं वा ततो सन्ततरं.
१६८. ‘‘किन्ति वो, अनुरुद्धा, मयि होति – ‘ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका [पोनोभविका (सी. पी.)] सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, अप्पहीना ते तथागतस्स; तस्मा तथागतो सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेती’’’ति? ‘‘न खो नो, भन्ते, भगवति एवं होति – ‘ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, अप्पहीना ते तथागतस्स; तस्मा तथागतो सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेती’ति. एवं खो नो, भन्ते, भगवति होति – ‘ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, पहीना ते तथागतस्स; तस्मा तथागतो सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेती’’’ति. ‘‘साधु साधु, अनुरुद्धा! तथागतस्स, अनुरुद्धा, ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, पहीना ते उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. सेय्यथापि, अनुरुद्धा, तालो मत्थकच्छिन्नो अभब्बो पुनविरूळ्हिया; एवमेव खो, अनुरुद्धा , तथागतस्स ये आसवा संकिलेसिका पोनोब्भविका सदरा दुक्खविपाका आयतिं जातिजरामरणिया, पहीना ते उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा; तस्मा तथागतो सङ्खायेकं पटिसेवति, सङ्खायेकं अधिवासेति, सङ्खायेकं परिवज्जेति, सङ्खायेकं विनोदेति’’.
‘‘तं किं मञ्ञसि, अनुरुद्धा, कं अत्थवसं सम्पस्समानो तथागतो सावके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति – ‘असु अमुत्र उपपन्नो; असु अमुत्र उपपन्नो’’’ति? ‘‘भगवंमूलका नो, भन्ते, धम्मा भगवंनेत्तिका भगवंपटिसरणा. साधु वत, भन्ते, भगवन्तंयेव पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो. भगवतो सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति . ‘‘न खो, अनुरुद्धा, तथागतो जनकुहनत्थं न जनलपनत्थं न लाभसक्कारसिलोकानिसंसत्थं न ‘इति मं जनो जानातू’ति सावके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति – ‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो’ति. सन्ति च खो, अनुरुद्धा, कुलपुत्ता सद्धा उळारवेदा उळारपामोज्जा. ते तं सुत्वा तदत्थाय चित्तं उपसंहरन्ति. तेसं तं, अनुरुद्धा, होति दीघरत्तं हिताय सुखाय’’.
१६९. ‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खु सुणाति – ‘इत्थन्नामो भिक्खु कालङ्कतो [कालकतो (सी. स्या. कं. पी.)]; सो भगवता ब्याकतो – अञ्ञाय सण्ठही’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंपञ्ञो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंविहारी सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनो फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा , भिक्खु सुणाति – ‘इत्थन्नामो भिक्खु कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो…पे… एवंपञ्ञो… एवंविहारी… एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनो फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खु सुणाति – ‘इत्थन्नामो भिक्खु कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो…पे… एवंपञ्ञो… एवंविहारी… एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनो फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खु सुणाति – ‘इत्थन्नामो भिक्खु कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो…पे… एवंपञ्ञो… एवंविहारी… एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनो फासुविहारो होति.
१७०. ‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खुनी सुणाति – ‘इत्थन्नामा भिक्खुनी कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – अञ्ञाय सण्ठही’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा सा भगिनी अहोसि इतिपि , एवंपञ्ञा सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंविहारिनी सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनिया फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा , भिक्खुनी सुणाति – ‘इत्थन्नामा भिक्खुनी कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनी अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा…पे… एवंपञ्ञा… एवंविहारिनी… एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनिया फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खुनी सुणाति – ‘इत्थन्नामा भिक्खुनी कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा…पे… एवंपञ्ञा… एवंविहारिनी… एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनिया फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, भिक्खुनी सुणाति – ‘इत्थन्नामा भिक्खुनी कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा’ति . सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा… एवंपञ्ञा… एवंविहारिनी… एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, भिक्खुनिया फासुविहारो होति.
१७१. ‘‘इधानुरुद्धा, उपासको सुणाति – ‘इत्थन्नामो उपासको कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंपञ्ञो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंविहारी सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, उपासकस्स फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, उपासको सुणाति – ‘इत्थन्नामो उपासको कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो… एवंपञ्ञो… एवंविहारी… एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, उपासकस्स फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, उपासको सुणाति – ‘इत्थन्नामो उपासको कालङ्कतो; सो भगवता ब्याकतो – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो’ति. सो खो पनस्स आयस्मा सामं दिट्ठो वा होति अनुस्सवस्सुतो वा – ‘एवंसीलो सो आयस्मा अहोसि इतिपि, एवंधम्मो…पे… एवंपञ्ञो… एवंविहारी… एवंविमुत्तो सो आयस्मा अहोसि इतिपी’ति. सो तस्स सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्तो तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा उपासकस्स फासुविहारो होति.
१७२. ‘‘इधानुरुद्धा , उपासिका सुणाति – ‘इत्थन्नामा उपासिका कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनी अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा… एवंपञ्ञा… एवंविहारिनी… एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, उपासिकाय फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, उपासिका सुणाति – ‘इत्थन्नामा उपासिका कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामिनी सकिदेव इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सती’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा… एवंपञ्ञा… एवंविहारिनी… एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, उपासिकाय फासुविहारो होति.
‘‘इधानुरुद्धा, उपासिका सुणाति – ‘इत्थन्नामा उपासिका कालङ्कता; सा भगवता ब्याकता – तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्ना अविनिपातधम्मा नियता सम्बोधिपरायणा’ति. सा खो पनस्सा भगिनी सामं दिट्ठा वा होति अनुस्सवस्सुता वा – ‘एवंसीला सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंधम्मा सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंपञ्ञा सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंविहारिनी सा भगिनी अहोसि इतिपि, एवंविमुत्ता सा भगिनी अहोसि इतिपी’ति. सा तस्सा सद्धञ्च सीलञ्च सुतञ्च चागञ्च पञ्ञञ्च अनुस्सरन्ती तदत्थाय चित्तं उपसंहरति. एवम्पि खो, अनुरुद्धा, उपासिकाय फासुविहारो होति.
‘‘इति खो, अनुरुद्धा, तथागतो न जनकुहनत्थं न जनलपनत्थं न लाभसक्कारसिलोकानिसंसत्थं न ‘इति मं जनो जानातू’ति सावके अब्भतीते कालङ्कते उपपत्तीसु ब्याकरोति – ‘असु अमुत्र उपपन्नो, असु अमुत्र उपपन्नो’ति. सन्ति च खो, अनुरुद्धा, कुलपुत्ता सद्धा उळारवेदा उळारपामोज्जा. ते तं सुत्वा तदत्थाय चित्तं उपसंहरन्ति. तेसं तं, अनुरुद्धा, होति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा अनुरुद्धो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
नळकपानसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.