नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 असभ्य अरण्य भिक्षु

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन गिलहरियों के उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय रूखा (या असभ्य) बर्ताव करने वाला गोलियानि नामक अरण्यवासी (=जंगल में रहने वाला) भिक्षु किसी कार्य से संघ के बीच आया था।

तब आयुष्मान सारिपुत्त ने गोलियानि भिक्षु के बारे में भिक्षुओं को संबोधित किया —

सम्यक आचरण

(१) “मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे सब्रह्मचारियों के प्रति आदर और सम्मान होना चाहिए।

यदि, मित्रों, उस अरण्यवासी भिक्षु को सब्रह्मचारियों के प्रति आदर और सम्मान न हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब उस आयुष्मान को सब्रह्मचारियों के प्रति आदर और सम्मान नहीं है?’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे सब्रह्मचारियों के प्रति आदर और सम्मान होना चाहिए।

(२) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे बैठने का ढ़ंग (“आसनकुसल”) होना चाहिए, ‘मैं वरिष्ठ भिक्षुओं को धक्का देकर नहीं बैठूँगा, और नए भिक्षुओं के आसन नहीं हटाऊँगा।’

यदि, मित्रों, उस अरण्यवासी भिक्षु को बैठने का ढ़ंग न हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब उस आयुष्मान को बैठने का ढ़ंग नहीं है?’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे बैठने का ढ़ंग होना चाहिए।

(३) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे शिष्टाचार धर्म 1 पता होना चाहिए।

यदि, मित्रों, उस अरण्यवासी भिक्षु को शिष्टाचार धर्म पता न हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब उस आयुष्मान को शिष्टाचार धर्म नहीं पता है?’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे शिष्टाचार धर्म पता होना चाहिए।

(४) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे बहुत सुबह गाँव में प्रवेश नहीं करना चाहिए, और बहुत देर से नहीं निकलना चाहिए।

यदि, मित्रों, वह अरण्यवासी भिक्षु बहुत सुबह गाँव में प्रवेश करता हो, और बहुत देर से निकलता हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह बहुत सुबह गाँव में प्रवेश करता है, और बहुत देर से निकलता है।’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे बहुत सुबह गाँव में प्रवेश नहीं करना चाहिए, और बहुत देर से नहीं निकलना चाहिए।

(५) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे भोजन करने के पहले और भोजन करने के पश्चात परिवारों के पास नहीं भटकना चाहिए। 2

यदि, मित्रों, वह अरण्यवासी भिक्षु भोजन करने के पहले और भोजन करने के पश्चात परिवारों के पास भटकता हो, तो लोग कहेंगे, ‘अवश्य ही यह अरण्यवासी आयुष्मान अकेले स्वेछा से विहार करते हुए बेसमय भटकने का आदि होगा, जिस तरह संघ में आने पर भी ऐसा बर्ताव करता है।’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे भोजन करने के पहले और भोजन करने के पश्चात परिवारों के पास नहीं भटकना चाहिए।

(६) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे व्याकुल और विचलित नहीं होना चाहिए।

यदि, मित्रों, वह अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करते हुए व्याकुल और विचलित होता है, तो लोग कहेंगे, ‘अवश्य ही यह अरण्यवासी आयुष्मान अकेले स्वेछा से विहार करते हुए व्याकुल और विचलित होता होगा, जिस तरह संघ में आने पर भी ऐसा बर्ताव करता है।’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे व्याकुल और विचलित नहीं होना चाहिए।

(७) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे मुखर नहीं होना चाहिए, और बिखरी बातें नहीं करनी चाहिए।

यदि, मित्रों, वह अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करते हुए मुखर और बिखरी बातें करता हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह मुखर है और बिखरी बातें करता है।’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे मुखर नहीं होना चाहिए, और बिखरी बातें नहीं करनी चाहिए।

सम्यक प्रयास

(८) मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे सुवचो 3 होना चाहिए और उसके कल्याणमित्र होने चाहिए।

यदि, मित्रों, वह अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करते हुए दुर्वचो होता हो, और उसके पापमित्र होते हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह दुर्वचो है, और उसके पापमित्र हैं।’ इसलिए, मित्रों, जो अरण्यवासी भिक्षु संघ में विहार करने के लिए आया है, उसे सुवचो होना चाहिए और उसके कल्याणमित्र होने चाहिए।

(९) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को इंद्रियों की रक्षा करनी चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु अपने इंद्रियों की रक्षा नहीं करता हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह अपने इंद्रियों की रक्षा नहीं करता है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को इंद्रियों की रक्षा करनी चाहिए।

(१०) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को भोजन की मात्रा जानने वाला होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु अपने भोजन की मात्रा न जानता हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह अपने भोजन की मात्रा नहीं जानता है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को अपने भोजन की मात्रा जानना चाहिए।

(११) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को जागरण के लिए समर्पित होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु जागरण के लिए समर्पित न हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह जागरण के लिए समर्पित नहीं है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को जागरण के लिए समर्पित होना चाहिए।

(१२) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊर्जा जागृत किया होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु निष्क्रिय हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह निष्क्रिय है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊर्जा जागृत किया होना चाहिए।

(१३) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को उपस्थित स्मृतिमान होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु भुलक्कड़ हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह भुलक्कड़ है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को उपस्थित स्मृतिमान होना चाहिए।

सम्यक प्रज्ञा

(१४) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को समाहित (=चित्त स्थिर-एकाग्रता में डूबने वाला) होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु असमाहित हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह असमाहित है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को समाहित होना चाहिए।

(१५) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को प्रज्ञावान होना चाहिए।

यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु दुष्प्रज्ञ हो, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह दुष्प्रज्ञ है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को प्रज्ञावान होना चाहिए।

(१६) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊँचे धर्म (“अभिधम्म”) और ऊँचे विनय (“अभिविनय”) 4 की साधना करनी चाहिए।

मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय पर प्रश्न पूछे जाते हैं। यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय पर प्रश्न पूछे जाने पर वह सही उत्तर न दे, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय पर प्रश्न पूछे जाने पर सही उत्तर नहीं देता है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को ऊँचे धर्म और ऊँचे विनय की साधना करनी चाहिए।

(१७) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ की साधना करनी चाहिए।

मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को रूप के परे शान्त विमोक्ष अरूप पर प्रश्न पूछे जाते हैं। यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को रूप के परे शान्त विमोक्ष अरूप पर प्रश्न पूछे जाने पर वह सही उत्तर न दे, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह रूप के परे शान्त विमोक्ष अरूप पर प्रश्न पूछे जाने पर सही उत्तर नहीं देता है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष अरूप की साधना करनी चाहिए।

(१८) मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को अलौकिक धर्म 5 की साधना करनी चाहिए।

मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को अलौकिक धर्म पर प्रश्न पूछे जाते हैं। यदि, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को अलौकिक धर्म पर प्रश्न पूछे जाने पर वह सही उत्तर न दे, तो लोग कहेंगे, ‘क्या भला हुआ इस अरण्यवासी आयुष्मान के अकेले स्वेछा से विहार करने का, जब वह जिस ध्येय से प्रवज्जित हुआ, उस ध्येय को नहीं जानता है?’ इसलिए, मित्रों, अरण्यवासी भिक्षु को अलौकिक धर्म की साधना करनी चाहिए।”

जब ऐसा कहा गया, तब आयुष्मान महामोग्गल्लान ने आयुष्मान सारिपुत्त से कहा, “मित्र सारिपुत्त, क्या केवल अरण्यवासी भिक्षु को इन धर्मों को धारण और वर्तन करना चाहिए, अथवा ग्रामीणवासी भिक्षु को भी?”

“मित्र मोग्गल्लान, अरण्यवासी भिक्षु को इन धर्मों को धारण और वर्तन करना चाहिए, और ग्रामीणवासी भिक्षु को अधिक।” 6

सुत्र समाप्त।


  1. आभिसमाचारिक धम्म’ का अर्थ है शिष्टाचार और सुव्यवहार से जुड़े विनय के वे नियम, जिन्हें ब्रह्मचर्य के मूल नियमों से अलग किया जाता है। (विनयपिटक: महाखन्धक १:३६.१२) ↩︎

  2. इसके ऊपर विनय का पाचित्तिय ४६ नियम भी है, जिसकी स्त्रोत कथा में उपनन्द शाक्य का उल्लेख होता है, जिसे भोजन के पहले और भोजन के पश्चात परिवारों के पास भटकने की आदत थी। दान के समय ही उनकी इस आदत से दायक और भिक्षु सभी परेशान हो गए थे। हालांकि, इस नियम के कुछ अपवाद हैं। ↩︎

  3. दुर्वचो वह होता है, जिससे कुछ कहना कठिन हो जाता है। ऐसे लोग सुनते नहीं, आलोचना सहन नहीं करते, और बात-बात में उग्र हो जाते हैं। वे अहंकार से भरे होते हैं, और इसी कारण लोग उनसे कुछ कहने से कतराते हैं। लेकिन पीठ पीछे, उनकी निंदा, भर्त्सना, और उपेक्षा होती है।

    इसके विपरीत, सुवचो वह होता है, जिससे कुछ भी कहना सरल हो। जो दूसरों की बात धैर्य और विनम्रता से सुनता है — यहाँ तक कि आलोचना, कटु सत्य, या अपमान भी सह लेता है, और फिर भी मैत्रीपूर्ण चित्त बनाए रखता है। ऐसे व्यक्ति का सम्मान उसके पीठ पीछे भी बना रहता है। ↩︎

  4. अभिधम्म का अर्थ भगवान के महापरिनिर्वाण के बाद बदल गया। पहले इसका अर्थ “गहरा” या “ऊँचा धर्म” था, जो धर्म के गहरे पहलुओं को दर्शाता था। समय के साथ, इसका प्रयोग और परिभाषा विकसित हुई, जिससे अब यह विशेष रूप से दार्शनिक और मानसिक आयामों से जुड़ा हुआ है। “अभिधम्म और अभिविनय” के विषय में अधिक जानकारी के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  5. उत्तरि मनुस्सधम्म का अर्थ है वह धर्म जो मनुष्यों के सामान्य अनुभव से परे हो। इसे मैं “अलौकिक धर्म” के रूप में अनुवादित करता हूँ, जबकि कुछ स्थानों पर इसे “मनुष्योत्तर धर्म” भी कहा है। जब इसे बहुवचन में प्रयोग किया जाता है, तो इसमें चार ध्यान अवस्थाएँ, चार अरूप आयाम और छह अभिज्ञाएँ शामिल होती हैं। लेकिन एकवचन में, जैसे कि इस सूत्र में, इसका संबंध प्रवज्जित होने के अंतिम लक्ष्य, अर्थात “अरहंत” अवस्था से है। ↩︎

  6. गाँव में रहने वाले भिक्षु सांसारिक प्रलोभनों से अधिक घिरे होते हैं, जिससे उन्हें आत्मसंयम और साधना में अतिरिक्त सतर्कता की आवश्यकता होती है। भगवान ने अरण्यवास को बेहतर जीवन पथ के रूप में सराहा, क्योंकि वहाँ भिक्षु बाहरी विघ्नों से मुक्त रहते हैं, और शांतिपूर्ण वातावरण उन्हें चित्त की शुद्धता और मुक्ति की दिशा में अधिक सहायक होता है।

    हालाँकि, अरण्य में रहने मात्र से अन्तर्ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। यह एक सहायक उपाय है जो साधक को संसार से कुछ हद तक दूर रखता है, ताकि वह आर्य सत्यों को पहचान सके। वहीं, गाँव में रहने वाले भिक्षु के लिए प्रलोभनों से बचना एक कठिन चुनौती बन जाती है, क्योंकि वहां सांसारिक विचार और भटकाव अधिक होते हैं। ↩︎

Pali

१७३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. तेन खो पन समयेन गोलियानि [गुलिस्सानि (सी. पी.), गोलिस्सानि (स्या. कं.)] नाम भिक्खु आरञ्ञिको [आरञ्ञको (सब्बत्थ)] पदसमाचारो [पदरसमाचारो (सी. स्या. कं. पी.)] सङ्घमज्झे ओसटो होति केनचिदेव करणीयेन. तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो गोलियानिं भिक्खुं आरब्भ भिक्खू आमन्तेसि –

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन सब्रह्मचारीसु सगारवेन भवितब्बं सप्पतिस्सेन. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो सब्रह्मचारीसु अगारवो होति अप्पतिस्सो, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन, यो अयमायस्मा सब्रह्मचारीसु अगारवो होति अप्पतिस्सो’ति – तस्स [अप्पतिस्सोतिस्स (सी. पी.)] भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन सब्रह्मचारीसु सगारवेन भवितब्बं सप्पतिस्सेन.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन आसनकुसलेन भवितब्बं – ‘इति थेरे च भिक्खू नानुपखज्ज निसीदिस्सामि नवे च भिक्खू न आसनेन पटिबाहिस्सामी’ति. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो न आसनकुसलो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन, यो अयमायस्मा आसनकुसलो न होती’ति [यो अयमायस्मा आभिसमाचारिकम्पि धम्मं न जानातीति (सी. स्या. कं. पी.)] – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन आसनकुसलेन भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन आभिसमाचारिकोपि धम्मो जानितब्बो. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो आभिसमाचारिकम्पि धम्मं न जानाति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा आभिसमाचारिकम्पि धम्मं न जानाती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन आभिसमाचारिकोपि धम्मो जानितब्बो [अयं आभिसमाचारिकततियवारो सी. स्या. कं. पी. पोत्थकेसु न दिस्सति].

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन नातिकालेन गामो पविसितब्बो नातिदिवा [न दिवा (स्या. कं. पी. क.)] पटिक्कमितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो अतिकालेन गामं पविसति अतिदिवा पटिक्कमति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा अतिकालेन गामं पविसति अतिदिवा पटिक्कमती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन नातिकालेन गामो पविसितब्बो, नातिदिवा पटिक्कमितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन न पुरेभत्तं पच्छाभत्तं कुलेसु चारित्तं आपज्जितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो पुरेभत्तं पच्छाभत्तं कुलेसु चारित्तं आपज्जति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘अयं नूनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन विहरतो विकालचरिया बहुलीकता, तमेनं सङ्घगतम्पि समुदाचरती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन न पुरेभत्तं पच्छाभत्तं कुलेसु चारित्तं आपज्जितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन अनुद्धतेन भवितब्बं अचपलेन. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो उद्धतो होति चपलो, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘इदं नूनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन विहरतो उद्धच्चं चापल्यं बहुलीकतं, तमेनं सङ्घगतम्पि समुदाचरती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन अनुद्धतेन भवितब्बं अचपलेन.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो , भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन अमुखरेन भवितब्बं अविकिण्णवाचेन. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो मुखरो होति विकिण्णवाचो, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा मुखरो विकिण्णवाचो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन अमुखरेन भवितब्बं अविकिण्णवाचेन.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन सुवचेन [सुब्बचेन (सी. क.)] भवितब्बं कल्याणमित्तेन. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु सङ्घगतो सङ्घे विहरन्तो दुब्बचो होति पापमित्तो, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा दुब्बचो पापमित्तो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना सङ्घगतेन सङ्घे विहरन्तेन सुवचेन भवितब्बं कल्याणमित्तेन.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना इन्द्रियेसु गुत्तद्वारेन भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा इन्द्रियेसु अगुत्तद्वारो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना इन्द्रियेसु गुत्तद्वारेन भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना भोजने मत्तञ्ञुना भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भोजने अमत्तञ्ञू होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा भोजने अमत्तञ्ञू’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना भोजने मत्तञ्ञुना भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना जागरियं अनुयुत्तेन भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु जागरियं अननुयुत्तो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा जागरियं अननुयुत्तो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना जागरियं अनुयुत्तेन भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो , भिक्खुना आरद्धवीरियेन भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु कुसीतो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा कुसीतो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना आरद्धवीरियेन भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना उपट्ठितस्सतिना भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु मुट्ठस्सती होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा मुट्ठस्सती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना उपट्ठितस्सतिना भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना समाहितेन भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु असमाहितो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा असमाहितो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना समाहितेन भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना पञ्ञवता भवितब्बं. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु दुप्पञ्ञो होति, तस्स भवन्ति वत्तारो . ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा दुप्पञ्ञो’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना पञ्ञवता भवितब्बं.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना अभिधम्मे अभिविनये योगो करणीयो. सन्तावुसो, आरञ्ञिकं भिक्खुं अभिधम्मे अभिविनये पञ्हं पुच्छितारो. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु अभिधम्मे अभिविनये पञ्हं पुट्ठो न सम्पायति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा अभिधम्मे अभिविनये पञ्हं पुट्ठो न सम्पायती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना अभिधम्मे अभिविनये योगो करणीयो.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो , भिक्खुना ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा तत्थ योगो करणीयो. सन्तावुसो, आरञ्ञिकं भिक्खुं ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा तत्थ पञ्हं पुच्छितारो. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा तत्थ पञ्हं पुट्ठो न सम्पायति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा तत्थ पञ्हं पुट्ठो न सम्पायती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा तत्थ योगो करणीयो.

‘‘आरञ्ञिकेनावुसो, भिक्खुना उत्तरि मनुस्सधम्मे योगो करणीयो. सन्तावुसो, आरञ्ञिकं भिक्खुं उत्तरि मनुस्सधम्मे पञ्हं पुच्छितारो. सचे, आवुसो, आरञ्ञिको भिक्खु उत्तरि मनुस्सधम्मे पञ्हं पुट्ठो न सम्पायति, तस्स भवन्ति वत्तारो. ‘किं पनिमस्सायस्मतो आरञ्ञिकस्स एकस्सारञ्ञे सेरिविहारेन यो अयमायस्मा यस्सत्थाय पब्बजितो तमत्थं न जानाती’ति – तस्स भवन्ति वत्तारो. तस्मा आरञ्ञिकेन भिक्खुना उत्तरि मनुस्सधम्मे योगो करणीयो’’ति.

एवं वुत्ते, आयस्मा महामोग्गल्लानो [महामोग्गलानो (क.)] आयस्मन्तं सारिपुत्तं एतदवोच – ‘‘आरञ्ञिकेनेव नु खो, आवुसो सारिपुत्त, भिक्खुना इमे धम्मा समादाय वत्तितब्बा उदाहु गामन्तविहारिनापी’’ति ? ‘‘आरञ्ञिकेनापि खो, आवुसो मोग्गल्लान, भिक्खुना इमे धम्मा समादाय वत्तितब्बा पगेव गामन्तविहारिना’’ति.

गोलियानिसुत्तं निट्ठितं नवमं.