ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं!"
“भदंत”, भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
“भिक्षुओं, जैसे कोई वस्त्र गंदा हो, मैला पकड़ा हुआ। उस पर जो-जो रंग चढ़ाया जाए — नीला, या पीला, या लाल, या बैगनी — वह बेकार रंग का, अपरिशुद्ध रंग का ही दिखता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वस्त्र अपरिशुद्ध है, भिक्षुओं।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब चित्त गंदा हो, तो दुर्गति की ही आशा होती है।
(दूसरी ओर,) जैसे कोई परिशुद्ध वस्त्र स्वच्छ (=उजालेदार) हो। उस पर जो-जो रंग चढ़ाया जाए — नीला, या पीला, या लाल, या बैगनी — वह अच्छे रंग का, परिशुद्ध रंग का ही दिखता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वस्त्र परिशुद्ध है, भिक्षुओं।
उसी तरह, भिक्षुओं, जब चित्त परिशुद्ध हो, तो सद्गति की ही आशा होती है।
चित्त के उपक्लेश (=गंदगी) क्या हैं, भिक्षुओं?
भिक्षुओं, जिस भिक्षु को समझ आता है कि ‘लालच और विषम लोभ चित्त का उपक्लेश है’, वह उस चित्त के उपक्लेश ‘लालच और विषम लोभ’ को त्यागता है।
जिस भिक्षु को समझ आता है कि ‘दुर्भावना… दुर्भावना… क्रोध… बदले की भावना… तिरस्कार… अकड़ूपन… ईर्ष्या… कंजूसी… धोखेबाज़ी… डींग हांकना… अहंभाव… घमंड… नशा… लापरवाही चित्त का उपक्लेश है’, वह उस चित्त के उपक्लेश ‘लापरवाही’ को त्यागता है।
भिक्षुओं, जो भिक्षु समझ जाता है कि ‘लालच और विषम लोभ… दुर्भावना… दुर्भावना… क्रोध… बदले की भावना… अवमानी… अकड़ूपन… ईर्ष्या… कंजूसी… धोखेबाज़ी… डींग हांकना… अहंभाव… घमंड… नशा… लापरवाही — चित्त का उपक्लेश है’, और उससे वह चित्त के उपक्लेश त्याग दिया जाता है, तब —
जबकि वह उन्हें (चित्त के उपक्लेशों को) छोड़ देता हो, खत्म करता हो, मुक्त करता हो, जाने देता हो, और जो सोचता हो, “मुझे बुद्ध के प्रति आस्था सत्यापित हुई है” — उसे गहरा अर्थ (=ध्येय) प्राप्त होता है, गहरा धर्म प्राप्त होता है, और उसे धर्म से जुड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
और जो सोचता हो, “मुझे धर्म के प्रति आस्था सत्यापित हुई है” — उसे गहरा अर्थ प्राप्त होता है, गहरा धर्म प्राप्त होता है, और उसे धर्म से जुड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है।
और जो सोचता हो, “मुझे संघ के प्रति आस्था सत्यापित हुई है” — उसे गहरा अर्थ प्राप्त होता है, गहरा धर्म प्राप्त होता है, और उसे धर्म से जुड़ी प्रसन्नता प्राप्त होती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित हो जाता है।
भिक्षुओं, जब ऐसा भिक्षु, जिसका ऐसा शील, ऐसा धर्म (स्वभाव), ऐसी प्रज्ञा हो, वह भले ही पका हुआ बासमती चावल खाए, जिसके काले दाने निकाले गए हो, और जो अनेक स्वादिष्ट सूप और ब्यंजन से परोसा गया हो, तब भी उसे कोई बाधा (“अन्तराय”) नहीं होती। 3
जैसे, भिक्षुओं, कोई गंदगी पकड़ा हुआ मैला वस्त्र ‘स्वच्छ जल’ (में धोने) से परिशुद्ध और उजालेदार बनता है, या जैसे स्वर्ण भट्टी (में डालने) से परिशुद्ध और उजालेदार बनता है, उसी तरह जब ऐसा भिक्षु, जिसका ऐसा शील, ऐसा धर्म, ऐसी प्रज्ञा हो, वह भले ही पका हुआ बासमती चावल खाए, जिसके काले दाने निकाले गए हो, और जो अनेक स्वादिष्ट सूप और ब्यंजन से परोसा गया हो, तब भी उसे कोई बाधा नहीं होती।
वह सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
आगे, वह करुण चित्त… प्रसन्न [“मुदिता”] चित्त… तटस्थ [“उपेक्खा”] चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, वह ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।
उन्हें पता चलता हैं, “यह ऐसा है। यह इससे हीन है। यह उससे उत्तम है। यह इस नजरिए (संज्ञा) को लांघने का निकास-मार्ग है।” 4
इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
इसे कहते हैं, भिक्षुओं, “एक भिक्षु जिसने भीतर का स्नान किया!” 5
अब उस समय, सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण भगवान से अधिक दूर नहीं बैठा था। उस सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “किन्तु, क्या श्रीमान गौतम स्नान के लिए बाहुक नदी में जाते हैं?”
“ब्राह्मण, बाहुक नदी में क्यों जाना है? भला बाहुक नदी क्या कर सकती है?”
“बहुत से लोग मानते हैं, श्रीमान गौतम, कि बाहुक नदी स्वर्गलोक ले जाती है, पुण्य कराती है। बहुत से लोग बाहुक नदी में ही अपने पाप कर्म धोकर प्रवाहित करते हैं।”
तब भगवान ने सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को गाथाओं से संबोधित किया:
जब ऐसा कहा गया, तब सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! भन्ते, क्या मुझे प्रवज्जा [=संन्यास की धर्मदीक्षा], और भगवान की उपस्थिती में [भिक्षु बनने की] उपसंपदा मिलेगी?”
और सुन्दरिक भारद्वाज ब्राह्मण को भगवान की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा भी मिल गयी।
तब उपसंपदा पाए अधिक समय नहीं बीता था, जब आयुष्मान भारद्वाज निर्लिप्त-एकांतवास लेकर फ़िक्रमन्द, सचेत और दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर वे स्थित हुए। उन्होंने स्वयं जाना, साक्षात्कार किया, और उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ इस तरह, [अनेक] अर्हन्तों में एक आयुष्मान भारद्वाज हुए।
अवेच्च का सरल अर्थ है “अनुभवजन्य”, यानि जिसने अनुभव कर लिया हो, या जिसकी आस्था सत्यापित हो चुकी हो। ऐसा व्यक्ति अब केवल विश्वास के मारे नहीं मानता, बल्कि वह जानता है। क्योंकि उसने स्वयं देखा और अनुभव किया है। उसकी श्रद्धा अब अंधी नहीं, बल्कि “अनुभवजन्य और सत्यापित” हो चुकी है।
ऐसा व्यक्ति धर्म की धारा (श्रोत) में प्रवेश करता है, इसलिए उसे “श्रोतापन्न” कहते हैं। उन्हें बुद्ध में एक शिक्षक के रूप में अनुभवजन्य आस्था होती है, क्योंकि उन्होंने बुद्ध के मार्ग का अनुसरण किया है और वे परिणाम प्राप्त किए हैं जिनका बुद्ध ने वर्णन किया है। एक श्रोतापन्न ने चार आर्य सत्यों का प्रत्यक्ष अनुभव किया होता है, इसलिए उन्होंने इस बात की पुष्टि कर ली होती है कि यह शिक्षाएँ वास्तव में इसी जीवन में प्राप्त की जा सकती हैं। ↩︎
सुत्तों में संघ के दो भिन्न अर्थों में भेद किया गया है। पहला है “भिक्षु संघ”, जो भिक्षुओं और भिक्षुणियों का पारंपरिक समुदाय है। दूसरा है “श्रावक संघ”, जिसे संबोधि की अवस्थाओं के अनुसार चार भागों में विभाजित किया गया है: श्रोतापति, सकृदागामी (एक बार लौटने वाला), अनागामी (न लौटने वाला), और अरहंत (पूर्ण रूप से मुक्त, काबिल)।
इन प्रत्येक अवस्थाओं को फिर दो भागों में विभाजित किया जाता है: मार्ग पर स्थित व्यक्ति (जो अभी अभ्यास कर रहे हैं), और फल प्राप्त व्यक्ति (जिन्होंने उपलब्धि सिद्ध कर ली है)। इन्हें “आर्यश्रावक” कहा जाता है — मार्ग के चार और फल के चार — इस प्रकार कुल आठ प्रकार के व्यक्ति होते हैं। ↩︎
एक भिक्षु के लिए इस तरह का स्वादिष्ट भोजन दिन का सबसे शक्तिशाली और खतरनाक “प्रलोभन” माना जाता है। चीनी समांतर सूत्र (EA 13.5) में इस बात का उल्लेख केवल अरहत्व प्राप्ति के बाद किया गया है। ↩︎
यह श्रोतापति की अत्यंत विकसित अवस्था की अंतर्दृष्टि को दर्शाती है। साधक अपने ध्यानाभ्यास में अपने वर्तमान अनुभव की अवस्था को स्पष्ट रूप से समझता है, जो समाधि द्वारा विकसित चित्त की ऊँची अवस्था होती है। वह यह जानता है कि यह अवस्था “रचित” या “संकल्पित” (संस्कार) है, अर्थात यह किसी दूसरे आधार या कारण पर निर्भर है, और इसलिए इसमें ह्रास संभव है। यह चित्त एक निम्नतर, पहले से भी हीन अवस्था की ओर गिर सकता है। साधक यह भी जानता है कि चित्त की इससे भी उच्च अवस्थाएँ होती हैं जिन्हें अभी साधना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही, वह यह भी स्पष्ट रूप से समझता है कि ध्यान की समस्त अवस्थाएँ संज्ञा के क्षेत्र में ही आती हैं — वे अनुभव योग्य हैं, परिवर्तनशील हैं, और इसलिए अंतिम मुक्ति नहीं हैं। ऐसी स्थिति में वह जानता है कि एक परम और अंतिम मुक्ति संभव है, जो सभी संज्ञात्मक अवस्थाओं से परे है — यही निर्वाण है। ↩︎
ऐसा प्रतीत होता है, जैसे भगवान ने जान-बूझकर केवल ब्राह्मण को उकसाने के लिए ही ‘स्नान’ का जिक्र किया। ↩︎
७०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘भिक्खवो’’ति। ‘‘भदन्ते’’ति ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं। भगवा एतदवोच –
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, वत्थं संकिलिट्ठं मलग्गहितं; तमेनं रजको यस्मिं यस्मिं रङ्गजाते उपसंहरेय्य – यदि नीलकाय यदि पीतकाय यदि लोहितकाय यदि मञ्जिट्ठकाय मञ्जेट्ठकाय (सी॰ पी॰), मञ्जेट्ठिकाय (स्या॰) दुरत्तवण्णमेवस्स अपरिसुद्धवण्णमेवस्स। तं किस्स हेतु? अपरिसुद्धत्ता, भिक्खवे, वत्थस्स। एवमेव खो, भिक्खवे, चित्ते संकिलिट्ठे, दुग्गति पाटिकङ्खा। सेय्यथापि, भिक्खवे, वत्थं परिसुद्धं परियोदातं; तमेनं रजको यस्मिं यस्मिं रङ्गजाते उपसंहरेय्य – यदि नीलकाय यदि पीतकाय यदि लोहितकाय यदि मञ्जिट्ठकाय – सुरत्तवण्णमेवस्स परिसुद्धवण्णमेवस्स। तं किस्स हेतु? परिसुद्धत्ता, भिक्खवे, वत्थस्स। एवमेव खो, भिक्खवे, चित्ते असंकिलिट्ठे, सुगति पाटिकङ्खा।
७१. ‘‘कतमे च, भिक्खवे, चित्तस्स उपक्किलेसा? अभिज्झाविसमलोभो चित्तस्स उपक्किलेसो, ब्यापादो चित्तस्स उपक्किलेसो, कोधो चित्तस्स उपक्किलेसो, उपनाहो चित्तस्स उपक्किलेसो, मक्खो चित्तस्स उपक्किलेसो, पळासो चित्तस्स उपक्किलेसो, इस्सा चित्तस्स उपक्किलेसो, मच्छरियं चित्तस्स उपक्किलेसो, माया चित्तस्स उपक्किलेसो, साठेय्यं चित्तस्स उपक्किलेसो, थम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो, सारम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो, मानो चित्तस्स उपक्किलेसो, अतिमानो चित्तस्स उपक्किलेसो, मदो चित्तस्स उपक्किलेसो, पमादो चित्तस्स उपक्किलेसो।
७२. ‘‘स खो सो, भिक्खवे, भिक्खु ‘अभिज्झाविसमलोभो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा अभिज्झाविसमलोभं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘ब्यापादो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा ब्यापादं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति ; ‘कोधो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा कोधं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘उपनाहो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा उपनाहं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘मक्खो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मक्खं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘पळासो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा पळासं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘इस्सा चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा इस्सं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘मच्छरियं चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मच्छरियं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘माया चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मायं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘साठेय्यं चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा साठेय्यं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘थम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा थम्भं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘सारम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा सारम्भं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘मानो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मानं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘अतिमानो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा अतिमानं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘मदो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मदं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति; ‘पमादो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा पमादं चित्तस्स उपक्किलेसं पजहति।
७३. ‘‘यतो खो यतो च खो (सी॰ स्या॰), भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अभिज्झाविसमलोभो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा अभिज्झाविसमलोभो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति, ‘ब्यापादो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा ब्यापादो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘कोधो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा कोधो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘उपनाहो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा उपनाहो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘मक्खो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मक्खो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘पळासो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा पळासो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘इस्सा चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा इस्सा चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘मच्छरियं चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मच्छरियं चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘माया चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा माया चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘साठेय्यं चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा साठेय्यं चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘थम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा थम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘सारम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा सारम्भो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘मानो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मानो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘अतिमानो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा अतिमानो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘मदो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा मदो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति; ‘पमादो चित्तस्स उपक्किलेसो’ति – इति विदित्वा पमादो चित्तस्स उपक्किलेसो पहीनो होति।
७४. ‘‘सो बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति; धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘स्वाक्खातो भगवता धम्मो सन्दिट्ठिको अकालिको एहिपस्सिको ओपनेय्यिको पच्चत्तं वेदितब्बो विञ्ञूही’ति; सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो होति – ‘सुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, उजुप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, ञायप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, सामीचिप्पटिपन्नो भगवतो सावकसङ्घो, यदिदं चत्तारि पुरिसयुगानि, अट्ठ पुरिसपुग्गला। एस भगवतो सावकसङ्घो आहुनेय्यो पाहुनेय्यो दक्खिणेय्यो अञ्जलिकरणीयो , अनुत्तरं पुञ्ञक्खेत्तं लोकस्सा’ति।
७५. ‘‘यथोधि यतोधि (अट्ठकथायं पाठन्तरं) खो पनस्स चत्तं होति वन्तं मुत्तं पहीनं पटिनिस्सट्ठं, सो ‘बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतोम्ही’ति लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं। पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति; ‘धम्मे…पे॰… सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतोम्ही’ति लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं; पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। ‘यथोधि खो पन मे चत्तं वन्तं मुत्तं पहीनं पटिनिस्सट्ठ’न्ति लभति अत्थवेदं, लभति धम्मवेदं, लभति धम्मूपसंहितं पामोज्जं; पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति।
७६. ‘‘स खो सो, भिक्खवे, भिक्खु एवंसीलो एवंधम्मो एवंपञ्ञो सालीनं चेपि पिण्डपातं भुञ्जति विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं, नेवस्स तं होति अन्तरायाय। सेय्यथापि, भिक्खवे, वत्थं संकिलिट्ठं मलग्गहितं अच्छोदकं आगम्म परिसुद्धं होति परियोदातं , उक्कामुखं वा पनागम्म जातरूपं परिसुद्धं होति परियोदातं, एवमेव खो, भिक्खवे, भिक्खु एवंसीलो एवंधम्मो एवंपञ्ञो सालीनं चेपि पिण्डपातं भुञ्जति विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं , नेवस्स तं होति अन्तरायाय।
७७. ‘‘सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं चतुत्थिं (सी॰ पी॰)। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति; करुणासहगतेन चेतसा…पे॰… मुदितासहगतेन चेतसा…पे॰… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरति, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं। इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्यापज्जेन फरित्वा विहरति।
७८. ‘‘सो ‘अत्थि इदं, अत्थि हीनं, अत्थि पणीतं, अत्थि इमस्स सञ्ञागतस्स उत्तरिं निस्सरण’न्ति पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति। विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति। ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति । अयं वुच्चति, भिक्खवे – ‘भिक्खु सिनातो अन्तरेन सिनानेना’’’ति।
७९. तेन खो पन समयेन सुन्दरिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवतो अविदूरे निसिन्नो होति। अथ खो सुन्दरिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘गच्छति पन भवं गोतमो बाहुकं नदिं सिनायितु’’न्ति? ‘‘किं, ब्राह्मण, बाहुकाय नदिया? किं बाहुका नदी करिस्सती’’ति? ‘‘लोक्खसम्मता लोख्यसम्मता (सी॰), मोक्खसम्मता (पी॰) हि, भो गोतम, बाहुका नदी बहुजनस्स, पुञ्ञसम्मता हि, भो गोतम, बाहुका नदी बहुजनस्स, बाहुकाय पन नदिया बहुजनो पापकम्मं कतं पवाहेती’’ति। अथ खो भगवा सुन्दरिकभारद्वाजं ब्राह्मणं गाथाहि अज्झभासि –
‘‘बाहुकं अधिकक्कञ्च, गयं सुन्दरिकं मपि सुन्दरिकामपि (सी॰ स्या॰ पी॰), सुन्दरिकं महिं (इतिपि)।
सरस्सतिं पयागञ्च, अथो बाहुमतिं नदिं।
निच्चम्पि बालो पक्खन्दो पक्खन्नो (सी॰ स्या॰ पी॰), कण्हकम्मो न सुज्झति॥
‘‘किं सुन्दरिका करिस्सति, किं पयागा पयागो (सी॰ स्या॰ पी॰) किं बाहुका नदी।
वेरिं कतकिब्बिसं नरं, न हि नं सोधये पापकम्मिनं॥
‘‘सुद्धस्स वे सदा फग्गु, सुद्धस्सुपोसथो सदा।
सुद्धस्स सुचिकम्मस्स, सदा सम्पज्जते वतं।
इधेव सिनाहि ब्राह्मण, सब्बभूतेसु करोहि खेमतं॥
‘‘सचे मुसा न भणसि, सचे पाणं न हिंससि।
सचे अदिन्नं नादियसि, सद्दहानो अमच्छरी।
किं काहसि गयं गन्त्वा, उदपानोपि ते गया’’ति॥
८०. एवं वुत्ते, सुन्दरिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। लभेय्याहं भोतो गोतमस्स सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति। अलत्थ खो सुन्दरिकभारद्वाजो ब्राह्मणो भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं। अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा भारद्वाजो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेवधम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। ‘‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’’ति अब्भञ्ञासि। अञ्ञतरो खो पनायस्मा भारद्वाजो अरहतं अहोसीति।
वत्थसुत्तं निट्ठितं सत्तमं।