नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 कीटागिरी के दो भिक्षु

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान काशी में विशाल भिक्षुसंघ के साथ भ्रमण कर रहे थे। वहाँ भगवान ने भिक्षुओं से कहा —

“भिक्षुओं, मैं रात्रिभोज से विरत 1 हूँ। रात्रिभोज से विरत रहने से, भिक्षुओं, मुझे न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देता है।

तुम भी, भिक्षुओं, रात्रिभोज से विरत रहो! रात्रिभोज से विरत रहने से, भिक्षुओं, तुम्हें भी न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देगा।”

“ठीक है, भंते।” भिक्षुओं ने भगवान को उत्तर दिया।

तब भगवान काशी में क्रम से भ्रमण करते हुए कीटागिरी नामक काशी नगर पहुँचे। वहाँ कीटागिरी नामक काशी नगर में भगवान ने विहार किया। उस समय अस्सजि और पुनब्बसुक 2 नामक भिक्षु कीटागिरी में आवासी थे।

तब बहुत से भिक्षुगण अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं के पास गए। जाकर अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं से कहा, “मित्रों, भगवान रात्रिभोज से विरत हैं, और भिक्षुसंघ भी। रात्रिभोज से विरत रहने से, मित्रों, हमें न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देता हैं।

तुम भी, मित्रों, रात्रिभोज से विरत रहो! रात्रिभोज से विरत रहने से, मित्रों, तुम्हें भी न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देगा।”

जब ऐसा कहा गया, तब अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं ने उन भिक्षुओं से कहा, “मित्रों, हम सायंकाल को भोजन करते हैं, सुबह भी, और दोपहर में भी। सायंकाल, सुबह और दोपहर में भोजन करने पर, मित्रों, हमें न के बराबर रोग, न के बराबर पीड़ा, हल्कापन, शक्ति और राहत से विहार करना दिखायी देता हैं। तब भला हम प्रत्यक्ष दिखने वाले को छोड़कर कालान्तर के पीछे क्यों भागे? 3 हम सायंकाल को भोजन करेंगे, सुबह भी, और दोपहर में भी।”

जब वे भिक्षुगण अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं को नहीं समझा पाए, तब वे भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन्होंने भगवान को (सब कुछ) बता दिया।

तब भगवान ने (पास खड़े) किसी भिक्षु को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षु, मेरे नाम पर अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं को सूचना दो, ‘शास्ता आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।’”

“ठीक है, भंते!” उस भिक्षु ने भगवान को उत्तर दिया, और अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं के पास गया, और जाकर अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं से कहा, “शास्ता आयुष्मानों को आमंत्रित करते हैं।”

“ठीक है, मित्र!” अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं ने उस भिक्षु को उत्तर दिया, और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर, अभिवादन कर, वे एक ओर बैठ गए।

भगवान का संवाद

एक ओर बैठे अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं से भगवान ने कहा:

“क्या यह सच है, भिक्षुओं, कि बहुत से भिक्षुगण तुम्हारे पास आए थे। उन्होंने आकर तुमसे कहा, ‘मित्रों, भगवान रात्रिभोज से विरत हैं, और भिक्षुसंघ भी… तुम भी, मित्रों, रात्रिभोज से विरत रहो… ऐसे कहने पर तुमने उन भिक्षुओं से कहा, ‘मित्रों… भला हम प्रत्यक्ष दिखने वाले को छोड़कर कालान्तर के पीछे क्यों भागे? हम सायंकाल को भोजन करेंगे, सुबह भी, और दोपहर में भी’?”

“हाँ, भंते!”

“भिक्षुओं, किसे मैंने इस तरह का धर्म बताया, जिसे जानते हो? कि कोई व्यक्ति जैसी भी अनुभूति करता हो, चाहे सुखद, दुखद या अदुखदसुखद हो, उनसे अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं?” 4

“नहीं, भंते!”

“क्या मुझे तुम इस तरह धर्म बताते हुए नहीं जानते हो कि — जब कोई एक प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं? किन्तु, जब वह दूसरे प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं?

जब कोई एक प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं? किन्तु, जब वह दूसरे प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं?

और, जब कोई एक प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं? किन्तु, जब वह दूसरे प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं?” 5

“हाँ, भंते।” 6

अकुशल सुख

“साधु, भिक्षुओं। भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई एक प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की सुखद अनुभूति को त्याग दो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई एक प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की सुखद अनुभूति को त्याग दो।’

कुशल सुख

और, भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की सुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की सुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की सुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो।’

अकुशल दुःख

और, भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई एक प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की दुखद अनुभूति को त्याग दो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई एक प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की दुखद अनुभूति को त्याग दो।’

कुशल दुःख

और, भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की दुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की दुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की दुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो।’

अकुशल अदुखदसुखद अनुभूति

और, भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई एक प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति को त्याग दो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई एक प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव बढ़ते हैं और कुशल स्वभाव घटते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति को त्याग दो।’

कुशल दुःख

और, भिक्षुओं, यदि यह (बात) मेरे लिए अनजान होती, अनदेखी होती, बिना अनुभूति के, बिना साक्षात्कार के, बिना प्रज्ञा से छूए होती कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — तब, क्या बिना जाने मेरे लिए यह कहना उचित होता कि ‘इस प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो’?”

“नहीं, भंते।”

“किन्तु, भिक्षुओं, चूंकि मेरे द्वारा यह जानी गयी, देखी गयी, अनुभूति हुई, साक्षात्कार हुई, प्रज्ञा से छुई गयी है कि — ‘जब कोई दूसरे प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति करता है, तो उसके अकुशल स्वभाव घटते हैं और कुशल स्वभाव बढ़ते हैं’ — इसीलिए मैं कहता हूँ कि ‘इस प्रकार की अदुखदसुखद अनुभूति में प्रवेश कर विहार करो।’

अप्रमाद का फल

भिक्षुओं, मैं सभी भिक्षुओं को यह नहीं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद (=बिना लापरवाही) से काम करना है।’ और, मैं सभी भिक्षुओं को यह भी नहीं कहता हूँ कि ‘बिना अप्रमाद से काम करना है।’

भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु हैं जो अरहंत हैं, क्षीणास्रव, मंज़िल पर पहुँचे, जो करना था सो कर चुके, बोझ नीचे रख चुके, सच्चा ध्येय प्राप्त कर चुके, भव-संयोजन (=अस्तित्व बंधन) पूर्णतः तोड़ चुके, सम्यक ज्ञान से विमुक्त हो चुके हैं। उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम नहीं करना है।’

ऐसा क्यों? क्योंकि, वे अप्रमाद से काम कर चुके हैं। अब वे प्रमादी होने में अक्षम हैं।

और, भिक्षुओं, ऐसे भिक्षु हैं जो सीख रहे हैं, अब तक मंजिल प्राप्त न किए, अनुत्तर योगबन्धन से सुरक्षा पाने के ध्येय से विहार कर रहे हैं। उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

सात प्रकार के व्यक्ति

भिक्षुओं, इस लोक में सात प्रकार के व्यक्ति पाए जाते हैं। कौन से सात?

  • दोनों तरह से विमुक्त
  • प्रज्ञाविमुक्त
  • कायसाक्षी
  • दृष्टिप्राप्त
  • श्रद्धाविमुक्त
  • धर्मानुसारी
  • श्रद्धानुसारी

(१) भिक्षुओं, यह दोनों तरह से विमुक्त व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार करता है, और प्रज्ञा से देखने पर उसके आस्रव नष्ट होते हैं। भिक्षुओं, इसे ‘दोनों तरह से विमुक्त व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम नहीं करना है।’ ऐसा क्यों? क्योंकि, वे अप्रमाद से काम कर चुके हैं। अब वे प्रमादी होने में अक्षम हैं।

(२) और, भिक्षुओं, यह प्रज्ञाविमुक्त व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार नहीं करता, किन्तु प्रज्ञा से देखने पर उसके आस्रव नष्ट होते हैं। भिक्षुओं, इसे ‘प्रज्ञाविमुक्त व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम नहीं करना है।’ ऐसा क्यों? क्योंकि, वे अप्रमाद से काम कर चुके हैं। अब वे प्रमादी होने में अक्षम हैं।

(३) और, भिक्षुओं, यह कायसाक्षी व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार करता है, किन्तु प्रज्ञा से देखने पर उसके कोई-कोई आस्रव ही नष्ट होते हैं। भिक्षुओं, इसे ‘कायसाक्षी व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’ ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

(४) और, भिक्षुओं, यह दृष्टिप्राप्त व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार नहीं करता, और प्रज्ञा से देखने पर उसके कोई-कोई आस्रव ही नष्ट होते हैं। किन्तु, वे तथागत के द्वारा घोषित धर्म को प्रज्ञा से स्पष्ट देखते और अपनाते हैं। भिक्षुओं, इसे ‘दृष्टिप्राप्त व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’ ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

(५) और, भिक्षुओं, यह श्रद्धाविमुक्त व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार नहीं करता, और प्रज्ञा से देखने पर उसके कोई-कोई आस्रव ही नष्ट होते हैं। किन्तु, तथागत पर उसकी श्रद्धा स्थापित होती है, जड़ पकड़ती है, प्रतिष्ठित होती है। भिक्षुओं, इसे ‘श्रद्धाविमुक्त व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’ ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

(६) और, भिक्षुओं, यह धर्मानुसारी व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार नहीं करता, और प्रज्ञा से देखने पर उसके कोई-कोई आस्रव ही नष्ट होते हैं। किन्तु, वह तथागत के द्वारा घोषित धर्म को सीमित प्रज्ञा से जाँचने पर अपनाते हैं। और उनमें ये धर्म होते हैं — श्रद्धा इंद्रिय, ऊर्जा इंद्रिय, स्मृति इंद्रिय, समाधि इंद्रिय, प्रज्ञा इंद्रिय। भिक्षुओं, इसे ‘धर्मानुसारी व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’ ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

(७) और, भिक्षुओं, यह श्रद्धानुसारी व्यक्ति क्या है?

भिक्षुओं, कोई व्यक्ति रूप को लाँघ कर शान्त विमोक्ष ‘अरूप’ को काया से छूकर विहार नहीं करता, और प्रज्ञा से देखने पर उसके कोई-कोई आस्रव ही नष्ट होते हैं। किन्तु, उसे तथागत के लिए सीमित श्रद्धा होती है, सीमित प्रेम होता है। और उसमें ये धर्म होते हैं — श्रद्धा इंद्रिय, ऊर्जा इंद्रिय, स्मृति इंद्रिय, समाधि इंद्रिय, प्रज्ञा इंद्रिय। भिक्षुओं, इसे ‘श्रद्धानुसारी व्यक्ति’ कहते हैं।

उस प्रकार के भिक्षुओं के लिए, भिक्षुओं, मैं कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’ ऐसा क्यों? (सोचते हुए,) ‘काश, यह आयुष्मान अनुकूल निवास का उपयोग करते हुए, कल्याणमित्रों का सेवन करते हुए, इंद्रियों का संयम करते हुए, जिस उचित ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्जित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल को इसी जीवन में प्रवेश कर, स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर विहार करेगा।’

इसलिए मैं, भिक्षुओं, उन भिक्षुओं के लिए अप्रमाद का फल देखते हुए कहता हूँ कि ‘अप्रमाद से काम करना है।’

मुक्ति

भिक्षुओं, मैं यह नहीं कहता हूँ कि अज्ञता (“अञ्ञा” =सर्वोच्च ज्ञान) की प्राप्ति तत्काल होती है। बल्कि, भिक्षुओं, क्रमिक प्रशिक्षण, क्रमिक क्रिया और क्रमिक साधना से अज्ञता की प्राप्ति होती है। और, भिक्षुओं, कैसे क्रमिक प्रशिक्षण, क्रमिक क्रिया और क्रमिक साधना से अज्ञता की प्राप्ति होती है?

भिक्षुओं, श्रद्धा जागने पर (कोई, भगवान के) पास जाता है। पास जाकर समीप बैठता है। समीप बैठने पर सुनना चाहता है। सुनना चाहने पर धर्म सुनता है। सुनकर धर्म को याद रखता है। याद रखने पर धर्म के अर्थ को जाँचता है। अर्थ जाँचने पर धार्मिक तर्क को स्वीकार करता है। धार्मिक तर्क को स्वीकार करने पर रुचि जागती है। रुचि जागने पर उत्साह करता है। उत्साहित होकर विकल्प चुनता है। विकल्प चुनकर जुटता है। जुटने पर अपनी काया से परमसत्य का साक्षात्कार करता है, प्रज्ञा से गहरा देखता है।

किन्तु, भिक्षुओं, (तुम्हें) ऐसी कोई श्रद्धा नहीं थी। 7 ऐसा कोई पास जाना नहीं हुआ। ऐसा कोई समीप बैठना नहीं हुआ। ऐसी कोई सुनने की चाहत नहीं हुई। ऐसा कोई धर्म सुनना नहीं हुआ। ऐसे किसी धर्म को याद रखना नहीं हुआ। ऐसे किसी धर्म के अर्थ को जाँचना नहीं हुआ। ऐसे किसी धार्मिक तर्क को स्वीकारना नहीं हुआ। ऐसे किसी रुचि का जागना नहीं हुआ। ऐसा कोई उत्साह करना नहीं हुआ। ऐसा कोई विकल्प चुनना नहीं हुआ। ऐसा कोई जुटना नहीं हुआ।

तुमने रास्ता खो दिया, भिक्षुओं! तुम गलत रास्ते चले गए, भिक्षुओं! कितना दूर भटक गए हैं इस धर्म-विनय से ये निकम्मे पुरुष, भिक्षुओं!

भिक्षुओं, एक चतुर्पद स्पष्टीकरण हैं, जिसे कहने पर कोई समझदार पुरुष जल्द ही प्रज्ञा से अर्थ समझ लेगा। मैं उसे कहता हूँ, भिक्षुओं! देखते हैं, क्या तुम उसका अर्थ समझ पाते हो?”

“हम कहाँ, भंते, धर्म का अर्थ समझेंगे?!”

“भिक्षुओं, जो शास्ता बहुत भोगी हो, भोगवस्तुओं का भागी हो, भोगवस्तुओं में लिप्त होकर विहार करता हो, उसके साथ भी इस तरह की बदतमीजी उचित नहीं है कि ‘होता है तो करेंगे, नहीं होता तो नहीं करेंगे।’ तब तथागत तो, भिक्षुओं, सभी भोगवस्तुओं से पूरी तरह निर्लिप्त होकर विहार करते हैं।

चतुर्पद व्याकरण

(१) भिक्षुओं, जिस श्रावक को श्रद्धा हो, जो शास्ता के निर्देश की गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसे लगता है — ‘भगवान शास्ता है, मैं उनका श्रावक हूँ! भगवान जानते हैं, मैं नहीं जानता!’

(२) जिस श्रावक को श्रद्धा हो, जो शास्ता के निर्देश की गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे शास्ता के निर्देश स्वास्थ्यवर्धन और पोषण देते हैं।

(३) जिस श्रावक को श्रद्धा हो, जो शास्ता के निर्देश की गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे धर्मानुसार ऐसे लगता है — ‘चाहे त्वचा, नसें और हड्डियाँ ही बची रहें! शरीर का रक्त-मांस सूख जाएँ! किन्तु, जिसे पौरुष-दृढ़ता, पौरुष-ऊर्जा, और पौरुष-पराक्रम से हासिल किया जाता है, उसे हासिल किए बिना अपनी ऊर्जा को राहत नहीं दूँगा!’

(४) जिस श्रावक को श्रद्धा हो, जो शास्ता के निर्देश की गहराई को भेदने के लिए जीता हो, उसे दो फलों में से एक फल अपेक्षित होता है — इसी जीवन में ‘अज्ञता’, अथवा आसक्ति के शेष रहने पर ‘अनागामिता’।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. भिक्षुओं के विनय में “पाचित्तिय ३७” नियम के अनुसार, भिक्षुओं के लिए विकालभोज (दोपहर के बाद) और रात्रिभोज (शाम के बाद) पूरी तरह से निषिद्ध हैं, और इसमें कोई अपवाद नहीं है, यहां तक कि बीमार अवस्था में भी इन्हें ग्रहण नहीं किया जा सकता। मज्झिमनिकाय ६६ के अनुसार, भगवान ने इस नियम को क्रमबद्ध रूप में स्थापित किया—पहले दिन के विकालभोज से विरति, और फिर रात्रि के विकालभोज से।

    हालांकि, इस नियम का अरहंत मार्ग से कोई प्रत्यक्ष संबंध नहीं है, क्योंकि पहले संघ के भिक्षु दिन और रात किसी भी समय भिक्षाटन करते थे। फिर भी, यह नियम भिक्षुसंघ को सुखविहार साधना और राहत के लिए सहायक सिद्ध होता है, और यह भिक्षुसंघ को कई प्रकार की मुसीबतों से बचाता है। मज्झिमनिकाय ६५ और मज्झिमनिकाय २१ के अनुसार, भगवान ने केवल एक बार बैठकर भोजन करने की प्रोत्साहना दी थी, लेकिन इस पर कोई सख्त नियम नहीं बनाया। इसलिए यह अभ्यास धुतांग के अंतर्गत आता है, लेकिन विनय में अनिवार्य नहीं है। ↩︎

  2. अस्सजि और पुनब्बसुक बेशर्म और “कुलदूसक” भिक्षुओं की एक जोड़ी थी, जो (विनयपिटक : विभङ्ग : सङ्घादिसेसकण्ड १३ और चूळवग्ग ११: कम्मक्खन्धक के अनुसार) अपने दिखावे से उपासकों को भ्रष्ट करने के लिए प्रसिद्ध थे। और (चूळवग्ग १६ : सेनासनक्खन्धक के अनुसार) संघ की कुटियों को गलत तरह से आबंटित कराने के लिए भी जाने जाते थे, और दूसरों को भी उसी पापी मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे।

    अस्सजि के नाम से भ्रमित न हो, जो पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक थे। वे अस्सजि (या अश्वजित) भिक्षुसंघ के पहले भिक्षुओं में से एक और अत्यंत प्रेरणादायी भिक्षु थे। अपने मौन आचरण से उन्होंने अनेक लोगों को प्रेरित किया, जिनमें सारिपुत्त भंते भी थे। सारिपुत्त भंते ने अस्सजि से धर्म सुनकर श्रोतापन्न अवस्था का अनुभव किया और वे जीवनभर उनके प्रति आभारी रहे, तथा हमेशा उनकी दिशा में वंदन करते रहे। ↩︎

  3. यहाँ ध्यान दें कि वे धर्म के प्रसिद्ध गुणों “सन्दिट्ठिको” और “अकालिको” का अर्थ घुमा रहे हैं। इस संदर्भ में, वे पापी मार का अनुसरण कर रहे हैं, जिसने (संयुक्तनिकाय १.२० और ४.२१ में) ठीक यही तर्क प्रस्तुत किया था। पापी मार कहता है कि लोग कामसुख के तत्काल और प्रत्यक्ष सुख (“सन्दिट्ठिको”) को छोड़कर धर्म के कालांतर में फलित होने वाले सुख (“अकालिको”) की ओर भला क्यों बढ़ेंगे? ↩︎

  4. गौर करें कि यहाँ, अस्सजि और पुनब्बसुक भिक्षुओं की हठधर्मिता स्पष्ट होने के बावजूद, भगवान उन्हें अपने खास अंदाज में “निकम्मे पुरुषों!” (“मोघपुरिस!”) कहकर फटकारते नहीं हैं — जैसा कि वे अन्य भिक्षुओं के साथ करते। इसके विपरीत, वे पहले संवाद का मार्ग अपनाते हैं। कोसने के बजाय वे प्रोत्साहनपूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं — ऐसी भाषा, जो उनके समझने योग्य और हृदयस्पर्शी हो। यह दिखाता है कि किसी हठी व्यक्ति का मन खोलने के लिए पहले उससे सहमति और समझ का सेतु बनाना चाहिए। जब उसका हृदय खुल जाए, तभी उचित समय पर उसे फटकारना सार्थक होता है। ↩︎

  5. इस प्रकार के धर्म का उल्लेख मज्झिमनिकाय १३७ में है। ↩︎

  6. अब चूँकि हठधर्मी भिक्षुओं से एक प्राथमिक संवाद में आम सहमति बन चुकी है। इसलिए, आगे भगवान अब अपने धर्म को अनुभव पर आधारित बताते हैं, ताकि उनका धर्म ‘ठोस और प्रेरक’ लगे, न कि अनावश्यक रूप से भविष्य के पीछे भागने वाला। ↩︎

  7. आखिर में, भगवान उन हठी भिक्षुओं को अपने चिर-परिचित अंदाज़ में झिड़कते हैं — जैसे स्नेह के साथ सख़्ती भी हो। पहले वे उन्हें सही मार्ग स्पष्ट रूप से दिखा देते हैं, और फिर बड़े कौशल से उनके ही आचरण का दर्पण दिखाकर यह बोध कराते हैं कि वे किस प्रकार अपने मार्ग से भटक गए हैं। ↩︎

Pali

१७४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कासीसु चारिकं चरति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं. तत्र खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘अहं खो, भिक्खवे, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना [रत्तिभोजनं (क.)] भुञ्जामि. अञ्ञत्र खो पनाहं, भिक्खवे, रत्तिभोजना भुञ्जमानो अप्पाबाधतञ्च सञ्जानामि अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ, तुम्हेपि, भिक्खवे, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जथ. अञ्ञत्र खो पन, भिक्खवे, तुम्हेपि रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चा’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो ते भिक्खू भगवतो पच्चस्सोसुं. अथ खो भगवा कासीसु अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन कीटागिरि नाम कासीनं निगमो तदवसरि. तत्र सुदं भगवा कीटागिरिस्मिं विहरति कासीनं निगमे.

१७५. तेन खो पन समयेन अस्सजिपुनब्बसुका नाम भिक्खू कीटागिरिस्मिं आवासिका होन्ति. अथ खो सम्बहुला भिक्खू येन अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू एतदवोचुं – ‘‘भगवा खो, आवुसो, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जति भिक्खुसङ्घो च. अञ्ञत्र खो पनावुसो, रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानन्ति अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ, तुम्हेपि, आवुसो, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जथ. अञ्ञत्र खो पनावुसो, तुम्हेपि रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चा’’ति . एवं वुत्ते, अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू ते भिक्खू एतदवोचुं – ‘‘मयं खो, आवुसो, सायञ्चेव भुञ्जाम पातो च दिवा च विकाले. ते मयं सायञ्चेव भुञ्जमाना पातो च दिवा च विकाले अप्पाबाधतञ्च सञ्जानाम अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. ते मयं किं सन्दिट्ठिकं हित्वा कालिकं अनुधाविस्साम? सायञ्चेव मयं भुञ्जिस्साम पातो च दिवा च विकाले’’ति.

यतो खो ते भिक्खू नासक्खिंसु अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू सञ्ञापेतुं, अथ येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध मयं, भन्ते, येन अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू तेनुपसङ्कमिम्ह; उपसङ्कमित्वा अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू एतदवोचुम्ह – ‘भगवा खो, आवुसो, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जति भिक्खुसङ्घो च; अञ्ञत्र खो पनावुसो, रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानन्ति अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ, तुम्हेपि, आवुसो , अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जथ. अञ्ञत्र खो पनावुसो, तुम्हेपि रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चा’ति. एवं वुत्ते, भन्ते, अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू अम्हे एतदवोचुं – ‘मयं खो, आवुसो, सायञ्चेव भुञ्जाम पातो च दिवा च विकाले. ते मयं सायञ्चेव भुञ्जमाना पातो च दिवा च विकाले अप्पाबाधतञ्च सञ्जानाम अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. ते मयं किं सन्दिट्ठिकं हित्वा कालिकं अनुधाविस्साम? सायञ्चेव मयं भुञ्जिस्साम पातो च दिवा च विकाले’ति. यतो खो मयं, भन्ते, नासक्खिम्ह अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू सञ्ञापेतुं, अथ मयं एतमत्थं भगवतो आरोचेमा’’ति.

१७६. अथ खो भगवा अञ्ञतरं भिक्खुं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, भिक्खु, मम वचनेन अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू आमन्तेहि – ‘सत्था आयस्मन्ते आमन्तेती’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सो भिक्खु भगवतो पटिस्सुत्वा येन अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू एतदवोच – ‘‘सत्था आयस्मन्ते आमन्तेती’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो अस्सजिपुनब्बसुका भिक्खू तस्स भिक्खुनो पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ने खो अस्सजिपुनब्बसुके भिक्खू भगवा एतदवोच – ‘‘सच्चं किर, भिक्खवे, सम्बहुला भिक्खू तुम्हे उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘भगवा खो, आवुसो, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जति भिक्खुसङ्घो च. अञ्ञत्र खो पनावुसो, रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानन्ति अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. एथ, तुम्हेपि, आवुसो, अञ्ञत्रेव रत्तिभोजना भुञ्जथ. अञ्ञत्र खो पनावुसो, तुम्हेपि रत्तिभोजना भुञ्जमाना अप्पाबाधतञ्च सञ्जानिस्सथ अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्चा’ति. एवं वुत्ते किर [किं नु (क.)], भिक्खवे, तुम्हे ते भिक्खू एवं अवचुत्थ – ‘मयं खो पनावुसो, सायञ्चेव भुञ्जाम पातो च दिवा च विकाले. ते मयं सायञ्चेव भुञ्जमाना पातो च दिवा च विकाले अप्पाबाधतञ्च सञ्जानाम अप्पातङ्कतञ्च लहुट्ठानञ्च बलञ्च फासुविहारञ्च. ते मयं किं सन्दिट्ठिकं हित्वा कालिकं अनुधाविस्साम? सायञ्चेव मयं भुञ्जिस्साम पातो च दिवा च विकाले’’’ति. ‘‘एवं, भन्ते’’.

१७७. ‘‘किं नु मे तुम्हे, भिक्खवे, एवं धम्मं देसितं आजानाथ यं किञ्चायं पुरिसपुग्गलो पटिसंवेदेति सुखं वा दुक्खं वा अदुक्खमसुखं वा तस्स अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘ननु मे तुम्हे, भिक्खवे, एवं धम्मं देसितं आजानाथ इधेकच्चस्स यं एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ति, इध पनेकच्चस्स एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति , कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, इधेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ति, इध पनेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति, इधेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ति, इध पनेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’.

१७८. ‘‘साधु, भिक्खवे! मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं सुखं वेदनं पजहथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं सुखं वेदनं पजहथा’ति वदामि. मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं सुखं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं सुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति, कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं सुखं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदामि.

१७९. ‘‘मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं दुक्खं वेदनं पजहथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं दुक्खं वेदनं पजहथा’ति वदामि. मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं दुक्खं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति ? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं दुक्खं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं दुक्खं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदामि.

१८०. ‘‘मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं पजहथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा अभिवड्ढन्ति कुसला धम्मा परिहायन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं पजहथा’ति वदामि’’. मया चेतं, भिक्खवे, अञ्ञातं अभविस्स अदिट्ठं अविदितं असच्छिकतं अफस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, एवाहं अजानन्तो ‘एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदेय्यं; अपि नु मे एतं, भिक्खवे, पतिरूपं अभविस्सा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’. ‘‘यस्मा च खो एतं, भिक्खवे, मया ञातं दिट्ठं विदितं सच्छिकतं फस्सितं पञ्ञाय – ‘इधेकच्चस्स एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं वेदयतो अकुसला धम्मा परिहायन्ति कुसला धम्मा अभिवड्ढन्ती’ति, तस्माहं ‘एवरूपं अदुक्खमसुखं वेदनं उपसम्पज्ज विहरथा’ति वदामि.

१८१. ‘‘नाहं, भिक्खवे, सब्बेसंयेव भिक्खूनं ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि; न पनाहं, भिक्खवे, सब्बेसंयेव भिक्खूनं ‘न अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. ये ते, भिक्खवे, भिक्खू अरहन्तो खीणासवा वुसितवन्तो कतकरणीया ओहितभारा अनुप्पत्तसदत्था परिक्खीणभवसंयोजना सम्मदञ्ञा विमुत्ता, तथारूपानाहं, भिक्खवे, भिक्खूनं ‘न अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? कतं तेसं अप्पमादेन. अभब्बा ते पमज्जितुं. ये च खो ते, भिक्खवे, भिक्खू सेक्खा अप्पत्तमानसा अनुत्तरं योगक्खेमं पत्थयमाना विहरन्ति, तथारूपानाहं, भिक्खवे, भिक्खूनं ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नामिमे आयस्मन्तो अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमाना कल्याणमित्ते भजमाना इन्द्रियानि समन्नानयमाना – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्युन्ति! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमेसं भिक्खूनं अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

१८२. ‘‘सत्तिमे , भिक्खवे, पुग्गला सन्तो संविज्जमाना लोकस्मिं. कतमे सत्त? उभतोभागविमुत्तो, पञ्ञाविमुत्तो, कायसक्खि, दिट्ठिप्पत्तो, सद्धाविमुत्तो, धम्मानुसारी, सद्धानुसारी.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो उभतोभागविमुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते कायेन फुसित्वा [फस्सित्वा (सी. पी.)] विहरति पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो उभतोभागविमुत्तो इमस्स खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘न अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? कतं तस्स अप्पमादेन. अभब्बो सो पमज्जितुं.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो पञ्ञाविमुत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते न कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो पञ्ञाविमुत्तो. इमस्सपि खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘न अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? कतं तस्स अप्पमादेन. अभब्बो सो पमज्जितुं.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो कायसक्खि? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा एकच्चे आसवा परिक्खीणा होन्ति. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो कायसक्खि. इमस्स खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नाम अयमायस्मा अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमानो कल्याणमित्ते भजमानो इन्द्रियानि समन्नानयमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्याति! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो दिट्ठिप्पत्तो? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते न कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा एकच्चे आसवा परिक्खीणा होन्ति, तथागतप्पवेदिता चस्स धम्मा पञ्ञाय वोदिट्ठा होन्ति वोचरिता. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो दिट्ठिप्पत्तो. इमस्सपि खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नाम अयमायस्मा अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमानो कल्याणमित्ते भजमानो इन्द्रियानि समन्नानयमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्याति! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो सद्धाविमुत्तो. इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते न कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा एकच्चे आसवा परिक्खीणा होन्ति, तथागते चस्स सद्धा निविट्ठा होति मूलजाता पतिट्ठिता. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो सद्धाविमुत्तो. इमस्सपि खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नाम अयमायस्मा अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमानो कल्याणमित्ते भजमानो इन्द्रियानि समन्नानयमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्याति! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो धम्मानुसारी? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते न कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा एकच्चे आसवा परिक्खीणा [दिस्वा आसवा अपरिक्खीणा (सी. पी.)] होन्ति, तथागतप्पवेदिता चस्स धम्मा पञ्ञाय मत्तसो निज्झानं खमन्ति, अपि चस्स इमे धम्मा होन्ति, सेय्यथिदं – सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञ्ञिन्द्रियं. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो धम्मानुसारी. इमस्सपि खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नाम अयमायस्मा अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमानो कल्याणमित्ते भजमानो इन्द्रियानि समन्नानयमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्याति ! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

‘‘कतमो च, भिक्खवे, पुग्गलो सद्धानुसारी? इध, भिक्खवे, एकच्चो पुग्गलो ये ते सन्ता विमोक्खा अतिक्कम्म रूपे आरुप्पा ते न कायेन फुसित्वा विहरति, पञ्ञाय चस्स दिस्वा एकच्चे आसवा परिक्खीणा [दिस्वा आसवा अपरिक्खीणा (सी. पी.)] होन्ति, तथागते चस्स सद्धामत्तं होति पेममत्तं, अपि चस्स इमे धम्मा होन्ति, सेय्यथिदं – सद्धिन्द्रियं, वीरियिन्द्रियं, सतिन्द्रियं, समाधिन्द्रियं, पञ्ञिन्द्रियं. अयं वुच्चति, भिक्खवे, पुग्गलो सद्धानुसारी. इमस्सपि खो अहं, भिक्खवे, भिक्खुनो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि. तं किस्स हेतु? अप्पेव नाम अयमायस्मा अनुलोमिकानि सेनासनानि पटिसेवमानो कल्याणमित्ते भजमानो इन्द्रियानि समन्नानयमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्याति! इमं खो अहं, भिक्खवे, इमस्स भिक्खुनो अप्पमादफलं सम्पस्समानो ‘अप्पमादेन करणीय’न्ति वदामि.

१८३. ‘‘नाहं, भिक्खवे, आदिकेनेव अञ्ञाराधनं वदामि; अपि च, भिक्खवे, अनुपुब्बसिक्खा अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा अञ्ञाराधना होति. कथञ्च, भिक्खवे, अनुपुब्बसिक्खा अनुपुब्बकिरिया अनुपुब्बपटिपदा अञ्ञाराधना होति? इध, भिक्खवे, सद्धाजातो उपसङ्कमति, उपसङ्कमन्तो पयिरुपासति, पयिरुपासन्तो सोतं ओदहति, ओहितसोतो धम्मं सुणाति, सुत्वा धम्मं धारेति, धतानं [धातानं (क.)] धम्मानं अत्थं उपपरिक्खति, अत्थं उपपरिक्खतो धम्मा निज्झानं खमन्ति, धम्मनिज्झानक्खन्तिया सति छन्दो जायति, छन्दजातो उस्सहति, उस्साहेत्वा तुलेति, तुलयित्वा पदहति, पहितत्तो समानो कायेन चेव परमसच्चं सच्छिकरोति, पञ्ञाय च नं अतिविज्झ पस्सति. सापि नाम, भिक्खवे, सद्धा नाहोसि; तम्पि नाम, भिक्खवे, उपसङ्कमनं नाहोसि; सापि नाम, भिक्खवे, पयिरुपासना नाहोसि; तम्पि नाम, भिक्खवे, सोतावधानं नाहोसि ; तम्पि नाम, भिक्खवे, धम्मस्सवनं नाहोसि; सापि नाम, भिक्खवे, धम्मधारणा नाहोसि; सापि नाम, भिक्खवे, अत्थूपपरिक्खा नाहोसि; सापि नाम, भिक्खवे, धम्मनिज्झानक्खन्ति नाहोसि; सोपि नाम, भिक्खवे, छन्दो नाहोसि; सोपि नाम, भिक्खवे, उस्साहो नाहोसि; सापि नाम, भिक्खवे, तुलना नाहोसि; तम्पि नाम, भिक्खवे, पधानं नाहोसि. विप्पटिपन्नात्थ, भिक्खवे, मिच्छापटिपन्नात्थ, भिक्खवे. कीव दूरेविमे, भिक्खवे, मोघपुरिसा अपक्कन्ता इमम्हा धम्मविनया.

१८४. ‘‘अत्थि , भिक्खवे, चतुप्पदं वेय्याकरणं यस्सुद्दिट्ठस्स विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव पञ्ञायत्थं आजानेय्य. उद्दिसिस्सामि वो [उद्दिट्ठस्सापि (क.)], भिक्खवे, आजानिस्सथ मे त’’न्ति? ‘‘के च मयं, भन्ते, के च धम्मस्स अञ्ञातारो’’ति? योपि सो, भिक्खवे, सत्था आमिसगरु आमिसदायादो आमिसेहि संसट्ठो विहरति तस्स पायं एवरूपी पणोपणविया न उपेति – ‘एवञ्च नो अस्स अथ नं करेय्याम, न च नो एवमस्स न नं करेय्यामा’ति, किं पन, भिक्खवे, यं तथागतो सब्बसो आमिसेहि विसंसट्ठो विहरति. सद्धस्स, भिक्खवे, सावकस्स सत्थुसासने परियोगाहिय [परियोगाय (सी. पी. क.), परियोगय्ह (स्या. कं.)] वत्ततो अयमनुधम्मो होति – ‘सत्था भगवा, सावकोहमस्मि; जानाति भगवा, नाहं जानामी’ति. सद्धस्स, भिक्खवे, सावकस्स सत्थुसासने परियोगाहिय वत्ततो रुळ्हनीयं [रुम्हनियं (सी. पी.)] सत्थुसासनं होति ओजवन्तं. सद्धस्स, भिक्खवे, सावकस्स सत्थुसासने परियोगाहिय वत्ततो अयमनुधम्मो होति – ‘कामं तचो च न्हारु च अट्ठि च अवसिस्सतु, सरीरे उपसुस्सतु [उपसुस्सतु सरीरे (सी.), सरीरे अवसुस्सतु (क.)] मंसलोहितं, यं तं पुरिसथामेन पुरिसवीरियेन पुरिसपरक्कमेन पत्तब्बं न तं अपापुणित्वा वीरियस्स सण्ठानं [सन्थानं (सी. स्या. पी.)] भविस्सती’ति. सद्धस्स, भिक्खवे, सावकस्स सत्थुसासने परियोगाहिय वत्ततो द्विन्नं फलानं अञ्ञतरं फलं पाटिकङ्खं – दिट्ठेव धम्मे अञ्ञा, सति वा उपादिसेसे अनागामिता’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.

कीटागिरिसुत्तं निट्ठितं दसमं.

भिक्खुवग्गो निट्ठितो दुतियो.