यह तीन सूत्रों की एक श्रृंखला है, जिसमें “वच्छगोत्त” नामक एक घुमक्कड़ साधक की आध्यात्मिक प्रगति का वर्णन मिलता है। इन सूत्रों में उसकी भगवान बुद्ध के प्रति जिज्ञासा और बढ़ती श्रद्धा स्पष्ट झलकती है। आरंभ में वह प्रश्नों के माध्यम से जिज्ञासु भाव दिखाता है, किंतु धीरे-धीरे उसमें आस्था पनपती है। इन तीन सूत्रों के अतिरिक्त अन्य सूत्रों (अंगुत्तरनिकाय ३.५७, संयुक्तनिकाय ४४.९) में भी उसका भगवान से रोचक संवाद मिलता है।
इस सूत्र में वच्छगोत्त पूछता है — “क्या भगवान सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं?” भगवान इसका सीधा उत्तर देते हैं — नहीं। पर यह “ना” टिक न सका; विचार ऐसा चिपका कि आज तक नहीं उतरा। किसी भी प्रारंभिक सूत्र में भगवान ने स्वयं को “सर्वज्ञ” नहीं कहा। बल्कि मज्झिमनिकाय ९० में वे स्पष्ट कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति सर्वज्ञ हो ही नहीं सकता। यह कथन उनके ज्ञान की सीमाओं नहीं, बल्कि उसकी व्यावहारिकता और उपयोगिता को दर्शाता है। उनका ज्ञान मुक्ति की दिशा में सहायक था, सर्वज्ञता के अहंकारी लेबल से रहित।
फिर भी, भगवान के परिनिर्वाण के कई शताब्दियों बाद रचे ग्रंथों में यह दृष्टिकोण बदल गया। मिलिन्दप्रश्न (५.१) में कहा गया कि “बुद्ध सर्वज्ञ थे, किंतु सब कुछ एक साथ नहीं जानते थे।” यही विचार आगे बुद्धवंस (२.५५), चूळनिद्देस (१०:५), पटिसम्भिदामग्ग (१.६), और कथावत्थु (३.१) जैसे ग्रंथों में “सर्वज्ञ बुद्ध” की धारणा बन गया। यह मोड़ तब आया, जब बौद्ध भिक्षुओं को जैन और आजीवक जैसी परंपराओं से दार्शनिक प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ना था। भगवान स्वयं ऐसे दावों से दूर रहे, पर शिष्यों ने उनके शब्दों को बढ़ाकर प्रस्तुत किया।
वास्तव में, “सर्वज्ञता” का दावा पहले से महावीर जैन और पूरण कस्सप जैसे आचार्यों से जुड़ा था। सूयगडंग, कल्पसूत्र और भगवतीसूत्र में महावीर की सर्वज्ञता का विस्तार से उल्लेख है, जबकि इसकी असली पीछे की सच्चाई इस उपालि सूत्र में पढ़ें। संभवतः इसी प्रभाव से बाद में बौद्ध अनुयायियों ने भी भगवान को सर्वज्ञ मानना शुरू किया।
परंतु प्रारंभिक सूत्रों में भगवान सच्चाई से अपनी बात रखते हैं, और असंभव और निरर्थक दावों को ठुकराते हैं। अंगुत्तरनिकाय ४.२४ में वे कहते हैं कि “जो कुछ देखा, सुना, अनुभव किया और जाना गया — वह मैं जानता हूँ,” पर यह अनुभवजन्य और मुक्ति-केंद्रित ज्ञान है, सर्वज्ञता का दावा नहीं। इसीलिए प्रारंभिक सूत्रों में भगवान “सर्वज्ञ” नहीं, बल्कि “बुद्ध” (जागृत) कहलाते हैं, जो लोगों को अनावश्यक जिज्ञासाओं से हटाकर आवश्यक सत्य की ओर ले जाते हैं — दुःख और उसका निरोध।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वैशाली के महावन में स्थित कूटागार मंडप में विहार कर रहे थे। उस समय वच्छगोत्त घुमक्कड़ घुमक्कड़ों के आश्रम ‘एक कमल’ में रहता था। 1
तब भगवान ने सुबह होने पर चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए वैशाली में प्रवेश किया। तब भगवान को लगा, “अभी वैशाली में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न मैं घुमक्कड़ों के आश्रम ‘एक कमल’ में वच्छगोत्त घुमक्कड़ के पास जाऊँ?”
तब भगवान घुमक्कड़ों के आश्रम ‘एक कमल’ में वच्छगोत्त घुमक्कड़ के पास गए। वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान को दूर से आते देखा। देखकर भगवान से कहा, “भंते, भगवान पधारे! भंते, भगवान का स्वागत है! बहुत दिनों के बाद, भंते, भगवान को यहाँ आने का अवसर मिला। बैठिए, भंते, भगवान के लिए यह आसन बिछा है।”
भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से कहा —
“भंते, मैंने सुना है कि — ‘श्रमण गोतम सर्वज्ञ (=सब कुछ जानते) हैं, सर्वदर्शी (=सब कुछ देखते) हैं, बिना किसी अपवाद के ज्ञान-दर्शन का दावा करते हैं कि ‘मुझे चलते या खड़े होते, सोते या जागते हुए निरंतर और सदा ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है!’’
भंते, जो ऐसा कहते हैं, क्या वे भगवान के ही शब्द दोहराते हैं? कही तथ्यहीन बातों से भगवान का मिथ्यावर्णन तो नहीं करते? क्या वे धर्मानुरूप ही बोलते हैं, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे?”
“वच्छ, जो ऐसा कहते हैं कि — ‘श्रमण गोतम सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, बिना किसी अपवाद के ज्ञान-दर्शन का दावा करते हैं कि ‘मुझे चलते या खड़े होते, सोते या जागते हुए निरंतर और सदा ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है’ — वे मेरे शब्द नहीं दोहराते हैं, बल्कि असत्य और तथ्यहीन शब्दों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं।”
“तब, हम भला किस तरह उत्तर दें, भंते, जिससे भगवान के ही शब्द दोहराए जाएँगे? तथ्यहीन बातों से भगवान का मिथ्यावर्णन नहीं होगा, जो धर्मानुरूप ही बोला जाएगा, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे?”
“‘श्रमण गोतम त्रैविद्य (तीन विद्याओं को जानने वाले) हैं’ — इस तरह उत्तर देने पर, वच्छ, मेरे ही शब्द दोहराए जाएँगे, तथ्यहीन बातों से मेरा मिथ्यावर्णन नहीं होगा, जो धर्मानुरूप ही बोला जाएगा, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे!
क्योंकि, वच्छ, मैं जब चाहूँ, अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म अनुस्मरण करता हूँ — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैं अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करता हूँ।
और, वच्छ, मैं जब चाहूँ, अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता हूँ। और मुझे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता हूँ। और मुझे पता चलता है कि कर्मानुसार ही सत्व कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
और, वच्छ, मैंने आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, अभी इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान (अभिज्ञा) का साक्षात्कार किया हैं।
इस तरह, ‘श्रमण गोतम त्रैविद्य हैं’ — उत्तर देने पर, वच्छ, मेरे ही शब्द दोहराए जाएँगे, तथ्यहीन बातों से मेरा मिथ्यावर्णन नहीं होगा, जो धर्मानुरूप ही बोला जाएगा, ताकि किसी सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे!” 2
जब ऐसा कहा गया, तब वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “श्रीमान गोतम, क्या कोई ऐसे गृहस्थ हैं, जो गृहस्थों के बंधन को त्यागे बिना, काया छूटने पर, दुःखों का अंत करते हैं?”
“नहीं, वच्छ! ऐसे कोई गृहस्थ नहीं हैं, जो गृहस्थों के बंधन को त्यागे बिना, काया छूटने पर, दुःखों का अंत करते हैं।”
“किन्तु, श्रीमान गोतम, क्या कोई ऐसे गृहस्थ हैं, जो गृहस्थों के बंधन को त्यागे बिना, काया छूटने पर, स्वर्ग जाते हैं?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि बहुत सारे गृहस्थ हैं, जो गृहस्थों के बंधन को त्यागे बिना, काया छूटने पर, स्वर्ग जाते हैं।”
“और, श्रीमान गोतम, क्या कोई ऐसे आजीवक हैं, जो काया छूटने पर दुःखों का अंत करते हैं?”
“नहीं, वच्छ! ऐसे कोई आजीवक नहीं हैं, जो काया छूटने पर दुःखों का अंत करते हैं।”
“किन्तु, श्रीमान गोतम, क्या कोई ऐसे आजीवक हैं, जो काया छूटने पर स्वर्ग जाते हैं?”
“जब मैं पिछले इक्यानबे कल्पों का अनुस्मरण 3 करता हूँ, वच्छ, तब किसी भी आजीवक को स्वर्ग में जाते हुए नहीं देखता हूँ, बजाय एक के! और वह कर्मवादी क्रियावादी था।” 4
“यदि ऐसा हो तो वह संप्रदाय शून्य है, श्रीमान गोतम, स्वर्ग जाने के लिए भी।”
“हाँ, वच्छ, वह संप्रदाय शून्य है, स्वर्ग जाने के लिए भी।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
“परिब्बाजक” या घुमक्कड़ों की मानसिक स्थिति के बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि भगवान ने कुल “आठ” विद्याओं का उल्लेख किया है — जैसे, विपश्यना-ज्ञान, मनोमय-ऋद्धि-ज्ञान, विविध-ऋद्धियाँ-ज्ञान, दिव्यश्रोत-ज्ञान, परचित्त-ज्ञान, पूर्वजन्म-अनुस्मरण-ज्ञान, दिव्यचक्षु-ज्ञान, और आस्रवक्षय-ज्ञान। इन आठ अभिज्ञाओं की सूची और उनका विस्तार सभी “अनुपुब्बिसिक्खा” या क्रमिक प्रशिक्षण से संबद्ध प्रारंभिक सूत्रों में स्पष्ट रूप से मिलता है।
किन्तु अनेक सूत्रों में, जैसे मज्झिमनिकाय ७३ में भी, पहले दो को न गिनकर केवल छः प्रमुख बताएँ जाते हैं, जिन्हें “छः अभिज्ञा” भी कहते हैं। लेकिन यहाँ भगवान केवल “तीन” विद्याओं की सीमा निर्धारित करते हैं — क्योंकि यही तीन विद्याएँ संपूर्ण दुःख-मुक्ति के लिए सहायक और अनिवार्य हैं। शेष अभिज्ञाएँ न तो सहायक हैं, न ही अनिवार्य। ↩︎
जब भी भगवान ने स्मरण द्वारा पूर्वकाल की बातें कही हैं, तो वह हमेशा केवल इक्यानबे (=91) कल्पों तक ही सीमित रही हैं। किसी भी प्रारंभिक सूत्र में भगवान ने इस सीमा से आगे का उल्लेख नहीं किया। इक्यानबे कल्पों के अनुस्मरण में केवल “भगवान विपस्सी” तक का ही उल्लेख मिलता है — उससे पूर्व के बुद्धों का नहीं। परंतु भगवान के महापरिनिर्वाण के कई शताब्दियों बाद रचित ग्रन्थों में इससे भी पहले की अनेक कहानियाँ जोड़ी गईं, जैसे बुद्धवंश, जातक आदि, जिनका आधार क्या है, कोई नहीं जानता। ↩︎
इस प्रकार, भगवान ने अपने समकालीन छह गुरुओं में से दो — पूरण कश्यप और मक्खलि गोषाल — के उन आजीवक सिद्धांतों का खण्डन किया, जो कर्मवादी या क्रियावादी नहीं थे। पूरण कश्यप, इसके विपरीत, ‘अक्रियावाद’ का उपदेश देता था, जबकि मक्खलि गोषाल का लक्ष्य था ‘संसरण से शुद्धि’। इन आजीवकों के बारे में अधिक जानकारी के लिए दीघनिकाय २ अवश्य पढ़ें। ↩︎
१८५. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं. तेन खो पन समयेन वच्छगोत्तो परिब्बाजको एकपुण्डरीके परिब्बाजकारामे पटिवसति. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय वेसालिं पिण्डाय पाविसि. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव वेसालियं पिण्डाय चरितुं; यंनूनाहं येन एकपुण्डरीको परिब्बाजकारामो येन वच्छगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति. अथ खो भगवा येन एकपुण्डरीको परिब्बाजकारामो येन वच्छगोत्तो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा. स्वागतं [सागतं (सी. पी.)], भन्ते, भगवतो. चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय. निसीदतु, भन्ते, भगवा इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. वच्छगोत्तोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भन्ते – ‘समणो गोतमो सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी, अपरिसे+सं ञाणदस्सनं पटिजानाति, चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति. ये ते, भन्ते, एवमाहंसु – ‘समणो गोतमो सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी, अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति, चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति, कच्चि ते, भन्ते, भगवतो वुत्तवादिनो, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोन्ति, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छती’’ति? ‘‘ये ते, वच्छ, एवमाहंसु – ‘समणो गोतमो सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी, अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति, चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति, न मे ते वुत्तवादिनो, अब्भाचिक्खन्ति च पन मं असता अभूतेना’’ति.
१८६. ‘‘कथं ब्याकरमाना पन मयं, भन्ते, वुत्तवादिनो चेव भगवतो अस्साम, न च भगवन्तं अभूतेन अब्भाचिक्खेय्याम, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरेय्याम, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छेय्या’’ति?
‘‘‘तेविज्जो समणो गोतमो’ति खो, वच्छ, ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव मे अस्स, न च मं अभूतेन अब्भाचिक्खेय्य, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरेय्य, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छेय्य. अहञ्हि, वच्छ, यावदेव आकङ्खामि अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि. अहञ्हि, वच्छ, यावदेव आकङ्खामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सामि चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानामि. अहञ्हि, वच्छ, आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामि.
‘‘‘तेविज्जो समणो गोतमो’ति खो, वच्छ, ब्याकरमानो वुत्तवादी चेव मे अस्स, न च मं अभूतेन अब्भाचिक्खेय्य, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरेय्य, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छेय्या’’ति.
एवं वुत्ते, वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अत्थि नु खो, भो गोतम, कोचि गिही गिहिसंयोजनं अप्पहाय कायस्स भेदा दुक्खस्सन्तकरो’’ति? ‘‘नत्थि खो, वच्छ, कोचि गिही गिहिसंयोजनं अप्पहाय कायस्स भेदा दुक्खस्सन्तकरो’’ति.
‘‘अत्थि पन, भो गोतम, कोचि गिही गिहिसंयोजनं अप्पहाय कायस्स भेदा सग्गूपगो’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव ये गिही गिहिसंयोजनं अप्पहाय कायस्स भेदा सग्गूपगा’’ति [‘‘अत्थि खो वच्छ कोचि गिही गिहिसंयोजनं अप्पहाय कायस्स भेदा सग्गूपगोति’’. (क.)].
‘‘अत्थि नु खो, भो गोतम, कोचि आजीवको [आजीविको (क.)] कायस्स भेदा दुक्खस्सन्तकरो’’ति? ‘‘नत्थि खो, वच्छ, कोचि आजीवको कायस्स भेदा दुक्खस्सन्तकरो’’ति.
‘‘अत्थि पन, भो गोतम, कोचि आजीवको कायस्स भेदा सग्गूपगो’’ति? ‘‘इतो खो सो, वच्छ, एकनवुतो कप्पो [इतो को वच्छ एकनवुते कप्पे (क.)] यमहं अनुस्सरामि, नाभिजानामि कञ्चि आजीवकं सग्गूपगं अञ्ञत्र एकेन; सोपासि कम्मवादी किरियवादी’’ति. ‘‘एवं सन्ते, भो गोतम, सुञ्ञं अदुं तित्थायतनं अन्तमसो सग्गूपगेनपी’’ति? ‘‘एवं, वच्छ, सुञ्ञं अदुं तित्थायतनं अन्तमसो सग्गूपगेनपी’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
तेविज्जवच्छसुत्तं निट्ठितं पठमं.