पिछले सूत्र में भगवान बुद्ध पर विश्वास स्थापित करने के बाद, वच्छगोत्त अब श्रावस्ती आकर भगवान से उन दस अघोषित, अव्याकृत मुद्दों पर प्रश्न पूछते हैं, जिन पर विभिन्न संन्यासियों और धार्मिक व्यक्तित्वों में उलझन और भ्रामकता बनी हुई है। यह वच्छगोत्त की गहरी जिज्ञासा और उसके धर्म की ओर बढ़ते हुए कदमों का संकेत है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब वच्छगोत्त घुमक्कड़ भगवान के पास गया। जाकर भगवान से हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठकर वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से कहा —
(१) “गोतम जी, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘लोक शाश्वत है! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी दृष्टि नहीं है कि ‘लोक शाश्वत है! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ!’”
(२) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘लोक अशाश्वत है! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(३) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘लोक सीमित है! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(४) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘लोक अनन्त है! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(५) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘जीव और शरीर एक हैं! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(६) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(७) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘तथागत मरणोपरान्त (अस्तित्व में) होते हैं! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(८) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘तथागत मरणोपरान्त नहीं होते हैं! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(९) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘तथागत मरणोपरान्त होते भी हैं और नहीं भी! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
(१०) “तब, क्या श्रीमान गोतम की ऐसी दृष्टि है कि — ‘तथागत मरणोपरान्त न होते हैं और न भी नहीं होते हैं! यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’?”
“नहीं, वच्छ। मेरी ऐसी भी दृष्टि नहीं है…”
“क्यों, गोतम जी, जब मैंने ये दस प्रश्न पूछा, तो श्रीमान गोतम कहते हैं कि ‘नहीं, वच्छ। मेरी इनमें से (कोई) दृष्टि नहीं है।’ किन खामियों को देखकर श्रीमान गोतम इन सभी मान्यताओं से दूर रहते हैं?”
“वच्छ, ‘लोक शाश्वत है’ — यह एक मिथ्यादृष्टि है, दृष्टियों की झुरमुट है, दृष्टियों का जंगल है, दृष्टियों का रेगिस्तान है, दृष्टियों की विकृति है, दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन है, दृष्टियों का बंधन है, जो दुःख के साथ है, व्याकुलता के साथ है, निराशा के साथ है, संताप के साथ है। यह न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाती है।
उसी तरह, वच्छ, ‘लोक अशाश्वत है’… ‘लोक सीमित है’… ‘लोक अनन्त है’… ‘जीव और शरीर एक हैं’… ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’… ‘तथागत मरणोपरान्त होते हैं’… ‘तथागत मरणोपरान्त नहीं होते हैं’… ‘तथागत मरणोपरान्त होते भी हैं और नहीं भी’… ‘तथागत मरणोपरान्त न होते हैं और न भी नहीं होते हैं’ — यह भी एक मिथ्यादृष्टि है, दृष्टियों की झुरमुट है, दृष्टियों का जंगल है, दृष्टियों का रेगिस्तान है, दृष्टियों की विकृति है, दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन है, दृष्टियों का बंधन है, जो दुःख के साथ है, व्याकुलता के साथ है, निराशा के साथ है, संताप के साथ है। यह न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाती है।
इन खामियों को देखकर, वच्छ, मैं इन सभी मान्यताओं से दूर रहता हूँ।”
“किन्तु, क्या श्रीमान गोतम की कोई मान्यता भी है?”
“वच्छ, तथागत मान्यताओं से दूर हो चुके हैं। 1 क्योंकि, वच्छ, अब तथागत ने (स्वयं) देख लिया हैं कि —
इसलिए, मैं कहता हूँ कि तथागत सभी प्रकार की मान्यता, सभी प्रकार के मंथन, सभी ‘मैं’ बनाने (“अहङ्कार”), ‘मेरा’ बनाने (“ममङ्कार”), अहंभाव की सुप्त-प्रवृत्ति (“मान-अनुशय”) का क्षय, विराग, निरोध, त्याग, परित्याग कर, अनासक्त हो विमुक्त हैं।"
“किन्तु, गोतम जी, जब किसी भिक्षु का ऐसा विमुक्त-चित्त हो, तब वह कहाँ पुनर्जन्म लेता है?”
“वच्छ, उस पर ‘पुनर्जन्म होना’ लागू नहीं होता।”
“तब, गोतम जी, क्या वह पुनर्जन्म नहीं लेता है?”
“वच्छ, उस पर ‘पुनर्जन्म न होना’ भी लागू नहीं होता।”
“तब, क्या वह पुनर्जन्म लेता भी है, और नहीं भी?”
“वच्छ, उस पर ‘पुनर्जन्म होना और नहीं भी होना’ भी लागू नहीं होता।”
“तब, क्या वह पुनर्जन्म न लेता है, और न भी नहीं?”
“वच्छ, उस पर ‘पुनर्जन्म न होना और नहीं भी नहीं होना’ भी लागू नहीं होता।”
“क्यों, गोतम जी, जब मैंने ये चार प्रश्न पूछा, तो श्रीमान गोतम कहते हैं कि ‘नहीं, वच्छ। ये (कुछ भी) लागू नहीं होता।’ मैं इस बात का अर्थ जान नहीं पा रहा हूँ, गोतम जी, भ्रमित हो गया हूँ। और, मुझे श्रीमान गोतम के साथ पूर्व वार्तालाप के दौरान जो थोड़ा-बहुत विश्वास हुआ था, वह भी अब खो गया है।”
“निश्चित ही, वच्छ, तुम जान नहीं पा रहे हो, भ्रमित हो गए हो। क्योंकि यह धर्म, वच्छ, बहुत गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। तुम्हारे लिए इसे जानना कठिन है, जो किसी परायी मान्यता, पराए संप्रदाय, परायी रुचि, परायी शरण, और पराया आचार्य (=गुरु) हो।
ठीक है, वच्छ। मैं तुम्हें प्रतिप्रश्न करता हूँ। जैसा लगे, वैसा उत्तर दो। तुम्हें क्या लगता है, वच्छ, यदि तुम्हारे सामने अग्नि जल रही हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि ‘मेरे सामने अग्नि जल रही है’?”
“हाँ, गोतम जी। यदि मेरे सामने अग्नि जल रही हो, तो मुझे पता चलेगा कि ‘मेरे सामने अग्नि जल रही है।’”
“किन्तु, वच्छ, यदि तुमसे पूछा जाए कि ‘जो अग्नि तुम्हारे सामने जल रही है, वह अग्नि किस आधार पर जल रही है?’ ऐसा पूछे जाने पर, वच्छ, तुम कैसे उत्तर दोगे?”
“गोतम जी, यदि मुझसे पूछा जाए… तो मैं कहूँगा, ‘जो अग्नि मेरे सामने जल रही है, वह अग्नि ‘घास’ या ‘लकड़ी’ के आधार पर जल रही है।’”
“और, वच्छ, यदि तुम्हारे सामने अग्नि बुझ जाए (“निब्बुतो” =निवृत होना), तो क्या तुम्हें पता चलेगा, ‘मेरे सामने अग्नि बुझ गयी’?”
“हाँ, गोतम जी। यदि मेरे सामने अग्नि बुझ जाए, तो मुझे पता चलेगा, ‘मेरे सामने अग्नि बुझ गयी।’”
“किन्तु, वच्छ, यदि तुमसे पूछा जाए कि ‘जो अग्नि तुम्हारे सामने बुझ गयी, वह अग्नि किस दिशा में गयी — पूर्व दिशा में, या दक्षिण दिशा में, या पश्चिम दिशा में, या उत्तर दिशा में?’ ऐसा पूछे जाने पर, वच्छ, तुम कैसे उत्तर दोगे?”
“यह बात लागू नहीं होती, गोतम जी। क्योंकि, जो अग्नि घास या लकड़ी के आधार पर जल रही थी, वह आधार समाप्त होने पर, और अन्य आधार के न मिलने पर, उसे बिना आहार के बुझने में गिना जाएगा।”
“उसी तरह, वच्छ, तथागत का वर्णन करते हुए जिस भी ‘रूप’ से उनका वर्णन होता हो — तथागत ने उस रूप को त्याग दिया हैं, जड़ से उखाड़ दिया है, ताड़ की ठूँठ जैसा बना दिया है, अस्तित्व से मिटा दिया है, ताकि वे भविष्य में फिर से प्रकट न हो। 2
‘रूप’ के वर्गिकरण से विमुक्त तथागत — गहरे हैं, अप्रमाण हैं, जिन्हें नापना कठिन है, जैसे कोई महासमुद्र हो। ‘पुनर्जन्म होना’ उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म न होना’ भी उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म होना और नहीं भी होना’ भी उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म न होना और नहीं भी नहीं होना’ भी उन पर लागू नहीं होता है।
और, तथागत का वर्णन करते हुए जिस भी ‘अनुभूति… संज्ञा… रचना… चैतन्य’ से उनका वर्णन होता हो — तथागत ने उस ‘अनुभूति… संज्ञा… रचना… चैतन्य’ को त्याग दिया हैं, जड़ से उखाड़ दिया है, ताड़ की ठूँठ जैसा बना दिया है, अस्तित्व से मिटा दिया है, ताकि वे भविष्य में फिर से प्रकट न हो।
‘अनुभूति… संज्ञा… रचना… चैतन्य’ के वर्गिकरण से विमुक्त तथागत — गहरे हैं, अप्रमाण हैं, जिन्हें नापना कठिन है, जैसे कोई महासमुद्र हो। ‘पुनर्जन्म होना’ उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म न होना’ भी उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म होना और नहीं भी होना’ भी उन पर लागू नहीं होता। ‘पुनर्जन्म न होना और नहीं भी नहीं होना’ भी उन पर लागू नहीं होता है।”
जब ऐसा कहा गया, तब वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “गोतम जी, जैसे किसी गाँव या नगर से दूर कोई विशाल शाल-वृक्ष हो। अनित्यता के कारण उसकी टहनियाँ और पत्तियाँ गिर जाए, उसकी त्वचा और पपड़ी निकल जाए, उसकी मृदुकाष्ठ भी टूट जाए। और कुछ समय के पश्चात, वह टहनी और पत्तियों के बिना, त्वचा और पपड़ी के बिना, मृदुकाष्ठ के बिना, शुद्ध सार (के स्वरूप में) प्रतिष्ठित होता है।
उसी तरह, श्रीमान गोतम का प्रवचन भी टहनी और पत्तियों के बिना, त्वचा और पपड़ी के बिना, मृदुकाष्ठ के बिना, शुद्ध सार (के स्वरूप में) प्रतिष्ठित होता है।
अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं श्रीमान गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! श्रीमान गोतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!” 3
तथागत, चाहे भगवान बुद्ध हों या कोई अरहंत भिक्षु, उनके पास कोई “मान्यता” (दिट्ठिगत) नहीं होती, जिससे वे चिपके रहते हों। उनकी सम्यक-दृष्टि पूरी तरह से स्वयं “देखने” पर आधारित होती है, जिसमें कोई चिपकाव या जुड़ाव नहीं होता। दृष्टियों का आस्रव या अनुशय श्रोतापन्न अवस्था में ही टूट जाता है। ↩︎
यहाँ “तथागत” की संज्ञा भगवान के साथ साथ उनके अरहंत भिक्षुओं के ऊपर भी लागू होती है। तथागत के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
वच्छगोत्त पहले ही एक घुमक्कड़ संन्यासी के रूप में प्रवज्जा ले चुके थे, तो यह हैरानी की बात है कि वह शरण लेकर खुद को ‘उपासक’ कहते हैं। चीनी समानान्तर सूत्रों (स॰आ॰ ९६२, स॰आ॰२ १९६) में बस इतना ही कहा गया है कि वच्छगोत्त बिना शरण लिए ही निकल गए। चूंकि पाली परंपरा के अगले सूत्र में वच्छगोत्त का पुनः शरण ग्रहण करना बताया गया है, इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि इस सूत्र में शरण ग्रहण का उल्लेख शायद गलती से जोड़ दिया गया हो। ↩︎
१८७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच –
‘‘किं नु खो, भो गोतम, ‘सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि [एवंदिट्ठी (सी. स्या. कं. क.)] भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं पन, भो गोतम, ‘असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं नु खो, भो गोतम, ‘अन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘अन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं पन, भो गोतम, ‘अनन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘अनन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं नु खो, भो गोतम, ‘तं जीवं तं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘तं जीवं तं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं पन, भो गोतम, ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं नु खो, भो गोतम, ‘होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं पन, भो गोतम, ‘न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं नु खो, भो गोतम, ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति ? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
‘‘किं पन, भो गोतम, ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’’ति? ‘‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति.
१८८. ‘‘‘किं नु खो, भो गोतम, सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि [मोघमञ्ञन्तीति वदेसि (सी.), मोघमञ्ञन्ति इति वदेसि (?)]. ‘किं पन, भो गोतम, असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ , एवंदिट्ठि – असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं नु खो, भो गोतम, अन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – अन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं पन, भो गोतम, अनन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – अनन्तवा लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं नु खो, भो गोतम, तं जीवं तं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – तं जीवं तं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं पन, भो गोतम, अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं नु खो, भो गोतम, होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि.
‘‘‘किं पन, भो गोतम, न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं नु खो, भो गोतम, होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – होति च न च होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि. ‘किं पन, भो गोतम, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति – एवंदिट्ठि भवं गोतमो’ति इति पुट्ठो समानो ‘न खो अहं, वच्छ, एवंदिट्ठि – नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति वदेसि.
‘‘किं पन भो गोतमो आदीनवं सम्पस्समानो एवं इमानि सब्बसो दिट्ठिगतानि अनुपगतो’’ति?
१८९. ‘‘‘सस्सतो लोको’ति खो, वच्छ, दिट्ठिगतमेतं दिट्ठिगहनं दिट्ठिकन्तारो [दिट्ठिकन्तारं (सी. पी.)] दिट्ठिविसूकं दिट्ठिविप्फन्दितं दिट्ठिसंयोजनं सदुक्खं सविघातं सउपायासं सपरिळाहं, न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति . ‘असस्सतो लोको’ति खो, वच्छ…पे… ‘अन्तवा लोको’ति खो, वच्छ…पे… ‘अनन्तवा लोको’ति खो, वच्छ…पे… ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति खो, वच्छ…पे… ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति खो, वच्छ…पे… ‘होति तथागतो परं मरणा’ति खो, वच्छ …पे… ‘न होति तथागतो परं मरणा’ति खो, वच्छ…पे… ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा’ति खो, वच्छ…पे… ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति खो, वच्छ, दिट्ठिगतमेतं दिट्ठिगहनं दिट्ठिकन्तारो दिट्ठिविसूकं दिट्ठिविप्फन्दितं दिट्ठिसंयोजनं सदुक्खं सविघातं सउपायासं सपरिळाहं, न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति. इमं खो अहं, वच्छ, आदीनवं सम्पस्समानो एवं इमानि सब्बसो दिट्ठिगतानि अनुपगतो’’ति.
‘‘अत्थि पन भोतो गोतमस्स किञ्चि दिट्ठिगत’’न्ति? ‘‘दिट्ठिगतन्ति खो, वच्छ, अपनीतमेतं तथागतस्स. दिट्ठञ्हेतं, वच्छ, तथागतेन – ‘इति रूपं, इति रूपस्स समुदयो, इति रूपस्स अत्थङ्गमो; इति वेदना, इति वेदनाय समुदयो, इति वेदनाय अत्थङ्गमो; इति सञ्ञा, इति सञ्ञाय समुदयो, इति सञ्ञाय अत्थङ्गमो; इति सङ्खारा, इति सङ्खारानं समुदयो, इति सङ्खारानं अत्थङ्गमो; इति विञ्ञाणं, इति विञ्ञाणस्स समुदयो, इति विञ्ञाणस्स अत्थङ्गमो’ति. तस्मा तथागतो सब्बमञ्ञितानं सब्बमथितानं सब्बअहंकारममंकारमानानुसयानं खया विरागा निरोधा चागा पटिनिस्सग्गा अनुपादा विमुत्तोति वदामी’’ति.
१९०. ‘‘एवं विमुत्तचित्तो पन, भो गोतम, भिक्खु कुहिं उपपज्जती’’ति? ‘‘उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेति’’. ‘‘तेन हि, भो गोतम, न उपपज्जती’’ति? ‘‘न उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेति’’. ‘‘तेन हि, भो गोतम, उपपज्जति च न च उपपज्जती’’ति? ‘‘उपपज्जति च न च उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेति’’. ‘‘तेन हि, भो गोतम, नेव उपपज्जति न न उपपज्जती’’ति? ‘‘नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेति’’.
‘‘‘एवं विमुत्तचित्तो पन, भो गोतम, भिक्खु कुहिं उपपज्जती’ति इति पुट्ठो समानो ‘उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेती’ति वदेसि. ‘तेन हि, भो गोतम, न उपपज्जती’ति इति पुट्ठो समानो ‘न उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेती’ति वदेसि. ‘तेन हि, भो गोतम, उपपज्जति च न च उपपज्जती’ति इति पुट्ठो समानो ‘उपपज्जति च न च उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेती’ति वदेसि. ‘तेन हि, भो गोतम, नेव उपपज्जति न न उपपज्जती’ति इति पुट्ठो समानो ‘नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति खो, वच्छ, न उपेती’ति वदेसि. एत्थाहं, भो गोतम, अञ्ञाणमापादिं, एत्थ सम्मोहमापादिं. यापि मे एसा भोतो गोतमस्स पुरिमेन कथासल्लापेन अहु पसादमत्ता सापि मे एतरहि अन्तरहिता’’ति. ‘‘अलञ्हि ते, वच्छ, अञ्ञाणाय, अलं सम्मोहाय. गम्भीरो हायं, वच्छ, धम्मो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो. सो तया दुज्जानो अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रयोगेन [अञ्ञत्रायोगेन (दी. नि. १.४२०)] अञ्ञत्राचरियकेन’’ [अञ्ञत्थाचरियकेन (सी. स्या. कं. पी.)].
१९१. ‘‘तेन हि, वच्छ, तञ्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि; यथा ते खमेय्य तथा नं ब्याकरेय्यासि. तं किं मञ्ञसि, वच्छ, सचे ते पुरतो अग्गि जलेय्य, जानेय्यासि त्वं – ‘अयं मे पुरतो अग्गि जलती’’’ति? ‘‘सचे मे, भो गोतम, पुरतो अग्गि जलेय्य, जानेय्याहं – ‘अयं मे पुरतो अग्गि जलती’’’ति.
‘‘सचे पन तं, वच्छ, एवं पुच्छेय्य – ‘यो ते अयं पुरतो अग्गि जलति अयं अग्गि किं पटिच्च जलती’ति, एवं पुट्ठो त्वं, वच्छ, किन्ति ब्याकरेय्यासी’’ति? ‘‘सचे मं, भो गोतम, एवं पुच्छेय्य – ‘यो ते अयं पुरतो अग्गि जलति अयं अग्गि किं पटिच्च जलती’ति, एवं पुट्ठो अहं, भो गोतम, एवं ब्याकरेय्यं – ‘यो मे अयं पुरतो अग्गि जलति अयं अग्गि तिणकट्ठुपादानं पटिच्च जलती’’’ति.
‘‘सचे ते, वच्छ, पुरतो सो अग्गि निब्बायेय्य, जानेय्यासि त्वं – ‘अयं मे पुरतो अग्गि निब्बुतो’’’ति? ‘‘सचे मे, भो गोतम, पुरतो सो अग्गि निब्बायेय्य, जानेय्याहं – ‘अयं मे पुरतो अग्गि निब्बुतो’’’ति.
‘‘सचे पन तं, वच्छ, एवं पुच्छेय्य – ‘यो ते अयं पुरतो अग्गि निब्बुतो सो अग्गि इतो कतमं दिसं गतो – पुरत्थिमं वा दक्खिणं वा पच्छिमं वा उत्तरं वा’ति, एवं पुट्ठो त्वं, वच्छ, किन्ति ब्याकरेय्यासी’’ति? ‘‘न उपेति, भो गोतम, यञ्हि सो, भो गोतम, अग्गि तिणकट्ठुपादानं पटिच्च अजलि [जलति (स्या. कं. क.)] तस्स च परियादाना अञ्ञस्स च अनुपहारा अनाहारो निब्बुतो त्वेव सङ्ख्यं गच्छती’’ति.
१९२. ‘‘एवमेव खो, वच्छ, येन रूपेन तथागतं पञ्ञापयमानो पञ्ञापेय्य तं रूपं तथागतस्स पहीनं उच्छिन्नमूलं तालावत्थुकतं अनभावंकतं आयतिं अनुप्पादधम्मं. रूपसङ्खयविमुत्तो [रूपसङ्खाविमुत्तो (सी. स्या. कं. पी.) एवं वेदनासङ्खयादीसुपि] खो, वच्छ, तथागतो गम्भीरो अप्पमेय्यो दुप्परियोगाळ्हो – सेय्यथापि महासमुद्दो. उपपज्जतीति न उपेति, न उपपज्जतीति न उपेति, उपपज्जति च न च उपपज्जतीति न उपेति, नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति न उपेति.
‘‘याय वेदनाय तथागतं पञ्ञापयमानो पञ्ञापेय्य सा वेदना तथागतस्स पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. वेदनासङ्खयविमुत्तो खो, वच्छ, तथागतो गम्भीरो अप्पमेय्यो दुप्परियोगाळ्हो – सेय्यथापि महासमुद्दो. उपपज्जतीति न उपेति, न उपपज्जतीति न उपेति, उपपज्जति च न च उपपज्जतीति न उपेति, नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति न उपेति.
‘‘याय सञ्ञाय तथागतं पञ्ञापयमानो पञ्ञापेय्य सा सञ्ञा तथागतस्स पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. सञ्ञासङ्खयविमुत्तो खो, वच्छ, तथागतो गम्भीरो अप्पमेय्यो दुप्परियोगाळ्हो – सेय्यथापि महासमुद्दो. उपपज्जतीति न उपेति, न उपपज्जतीति न उपेति, उपपज्जति च न च उपपज्जतीति न उपेति, नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति न उपेति.
‘‘येहि सङ्खारेहि तथागतं पञ्ञापयमानो पञ्ञापेय्य ते सङ्खारा तथागतस्स पहीना उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा. सङ्खारसङ्खयविमुत्तो खो, वच्छ, तथागतो गम्भीरो अप्पमेय्यो दुप्परियोगाळ्हो – सेय्यथापि महासमुद्दो. उपपज्जतीति न उपेति , न उपपज्जतीति न उपेति, उपपज्जति च न च उपपज्जतीति न उपेति, नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति न उपेति.
‘‘येन विञ्ञाणेन तथागतं पञ्ञापयमानो पञ्ञापेय्य तं विञ्ञाणं तथागतस्स पहीनं उच्छिन्नमूलं तालावत्थुकतं अनभावंकतं आयतिं अनुप्पादधम्मं. विञ्ञाणसङ्खयविमुत्तो खो, वच्छ, तथागतो गम्भीरो अप्पमेय्यो दुप्परियोगाळ्हो – सेय्यथापि महासमुद्दो. उपपज्जतीति न उपेति, न उपपज्जतीति न उपेति, उपपज्जति च न च उपपज्जतीति न उपेति, नेव उपपज्जति न न उपपज्जतीति न उपेति’’.
एवं वुत्ते, वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, गामस्स वा निगमस्स वा अविदूरे महासालरुक्खो. तस्स अनिच्चता साखापलासा पलुज्जेय्युं [साखापलासं पलुज्जेय्य], तचपपटिका पलुज्जेय्युं, फेग्गू पलुज्जेय्युं [फेग्गु पलुज्जेय्य (सी. स्या. कं. पी.)]; सो अपरेन समयेन अपगतसाखापलासो अपगततचपपटिको अपगतफेग्गुको सुद्धो अस्स, सारे पतिट्ठितो; एवमेव भोतो गोतमस्स पावचनं अपगतसाखापलासं अपगततचपपटिकं अपगतफेग्गुकं सुद्धं, सारे पतिट्ठितं. अभिक्कन्तं, भो गोतम…पे… उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
अग्गिवच्छसुत्तं निट्ठितं दुतियं.