वच्छगोत्त की त्रयी के इस आखिरी हिस्से में हमारा नायक, वच्छगोत्त, अपनी व्यर्थ आध्यात्मिक उलझनों से ऊपर उठकर एक बेहतर जीवन जीने का निर्णय लेता है। बुद्ध की धैर्यता का फल मिलता है, जब वच्छगोत्त आखिरकार अपने लक्ष्य को हासिल कर लेता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन में गिलहरियों के उद्यान में विहार कर रहे थे। तब वच्छगोत्त घुमक्कड़ भगवान के पास गया। जाकर भगवान से हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से कहा —
“मैंने दीर्घकाल से गुरु गोतम के साथ चर्चा की है। अच्छा होगा, जो गोतम जी मुझे कुशल-अकुशल के बारे में संक्षिप्त में बताएं।”
“कुशल-अकुशल पर, वच्छ, मैं तुम्हें संक्षिप्त में बता सकता हूँ, और कुशल-अकुशल पर मैं तुम्हें विस्तार से भी बता सकता हूँ। तब, वच्छ, मैं कुशल-अकुशल पर तुम्हें संक्षिप्त में ही बताता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, श्रीमान!” वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान को उत्तर दिया। भगवान ने कहा —
— इस तरह, वच्छ, तीन धर्म अकुशल हैं, और तीन धर्म कुशल।
— इस तरह, वच्छ, दस धर्म अकुशल हैं, और दस धर्म कुशल।
और जब, वच्छ, कोई भिक्षु तृष्णा को त्याग देता है, जड़ से उखाड़ देता है, ताड़ के ठूँठ जैसे बना देता है, अस्तित्व से मिटा देता है, ताकि वे कभी पुनरुत्पन्न न हो, तब वह भिक्षु — अरहंत होता है, क्षिणास्रव, जिसने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया, कर्तव्य समाप्त किया, बोझ को नीचे रखा, परम-ध्येय प्राप्त किया, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुआ।"
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम का एक भी ऐसा भिक्षु श्रावक है, जो आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करता हो?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरे बहुत सारे भिक्षु श्रावक हैं, जो आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करते हैं।”
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। भिक्षुओं को भी छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम की एक भी ऐसी भिक्षुणी श्राविका है, जो आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करती हो?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरी बहुत सारी भिक्षुणी श्राविकाएँ हैं, जो आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करती हैं।”
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। भिक्षुओं को भी छोड़ देते हैं। भिक्षुणियों को भी छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम का एक भी ऐसा उपासक श्रावक है, जो सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी गृहस्थ हैं, जो निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट होते हैं, और वही परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, अब इस लोक में नहीं लौटते हैं?” 1
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरे बहुत सारे सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारी गृहस्थ हैं, जो निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट होते हैं, और वही परिनिर्वाण प्राप्त करते हैं, अब इस लोक में नहीं लौटते हैं।”
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। भिक्षुओं को भी छोड़ देते हैं। भिक्षुणियों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी उपासक ब्रह्मचारी गृहस्थों को भी छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम का एक भी ऐसा सफ़ेद-वस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक है, जो कामभोगी हो, शिक्षा पर चलने वाला, निर्देश का पालनकर्ता, जो संदेह लाँघ कर परे चला गया हो, जिसे अब कोई प्रश्न न रहा हो, जिसे निडरता प्राप्त हुई हो, जो शास्ता के शासन (=शिक्षा) में स्वावलंबी होकर विहार करता हो?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरे बहुत सारे सफ़ेद-वस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक हैं, जो कामभोगी हैं, शिक्षा पर चलने वाला, निर्देश का पालनकर्ता, जो संदेह लाँघ कर परे चले गए हैं, जिन्हें अब कोई प्रश्न न रहा हैं, जिन्हें निडरता प्राप्त हुई हैं, जो शास्ता के शासन में स्वावलंबी होकर विहार करते हैं।”
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। भिक्षुओं को भी छोड़ देते हैं। भिक्षुणियों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी उपासक ब्रह्मचारी गृहस्थों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक गृहस्थों को भी छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम की एक भी ऐसी सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारिनी गृहिणी श्राविका हैं, जो निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट हुई हो, और वही परिनिर्वाण प्राप्त किया हो, अब इस लोक में नहीं लौटी हो?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरी बहुत सारी सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारिनी गृहिणी श्राविकाएँ हैं, जो निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट हुई हैं, और वही परिनिर्वाण प्राप्त किया हैं, अब इस लोक में नहीं लौटी हैं।”
“श्रीमान गोतम को छोड़ देते हैं। भिक्षुओं को भी छोड़ देते हैं। भिक्षुणियों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी उपासक ब्रह्मचारी गृहस्थों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक गृहस्थों को भी छोड़ देते हैं। सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारिनी गृहिणी उपासिकाओं को भी छोड़ देते हैं। क्या श्रीमान गोतम की एक भी ऐसी सफ़ेद-वस्त्रधारी गृहिणी श्राविका है, जो कामभोगिनी हो, शिक्षा पर चलने वाली, निर्देश की पालनकर्ता, जो संदेह लाँघ कर परे चली गयी हो, जिसे अब कोई प्रश्न न रहा हो, जिसे निडरता प्राप्त हुई हो, जो शास्ता के शासन में स्वावलंबी होकर विहार करती हो?”
“वच्छ, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि मेरी बहुत सारी ऐसी सफ़ेद-वस्त्रधारी गृहिणी श्राविकाएँ हैं, जो कामभोगिनी हैं, शिक्षा पर चलने वाली, निर्देश की पालनकर्ता, जो संदेह लाँघ कर परे चली गयी हैं, जिसे अब कोई प्रश्न न रहा हैं, जिसे निडरता प्राप्त हुई हैं, जो शास्ता के शासन में स्वावलंबी होकर विहार करती हैं।”
“गोतम जी, यदि इस धर्म में इकलौते गुरु गोतम ही यशस्वी होते, किन्तु कोई भिक्षु यशस्वी न होता, तब उस मायने में यह (भगवान का) ब्रह्मचर्य अधूरा रहता। किन्तु, गोतम जी, चूँकि इस धर्म में गुरु गोतम भी यशस्वी हैं और भिक्षुगण भी। इसलिए उस मायने में यह ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हैं।
गोतम जी, यदि इस धर्म में गुरु गोतम और भिक्षुगण ही यशस्वी होते, किन्तु कोई भिक्षुणी यशस्वी न होते… सफ़ेद-वस्त्रधारी उपासक ब्रह्मचारी गृहस्थ यशस्वी न होते… सफ़ेद-वस्त्रधारी कामभोगी उपासक गृहस्थ यशस्वी न होते… सफ़ेद-वस्त्रधारी ब्रह्मचारिनी गृहिणी उपासिकाएँ यशस्वी न होती… सफ़ेद-वस्त्रधारी कामभोगिनी उपासिकाएँ गृहिणी यशस्वी न होती, तब उस मायने में यह ब्रह्मचर्य अधूरा रहता।
किन्तु, गोतम जी, चूँकि इस धर्म में गुरु गोतम भी यशस्वी हैं, और —
— इसलिए उस मायने में यह ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हैं।
जैसे, गुरु गोतम, गंगा नदी समुद्र की ओर मुड़ती है, समुद्र की ओर झुकती है, समुद्र की ओर प्रवृत्त होती है, और समुद्र में जाकर ही दम लेती है; उसी तरह, गुरु गोतम की परिषद, गृहस्थ हो या प्रवज्जित हो, निर्वाण की ओर मुड़ती है, निर्वाण की ओर झुकती है, निर्वाण की ओर प्रवृत्त होती है, और निर्वाण में जाकर ही दम लेती है।
अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं श्रीमान गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी!
मुझे गुरु गोतम के पास प्रवज्जा मिले, (भिक्षुत्व) उपसंपदा मिले।”
“वच्छ, यदि परधार्मिक व्यक्ति इस धर्म-विनय में प्रवज्जा की आकांक्षा रखता है, उपसंपदा की आकांक्षा रखता है, तो उसे (परखने के लिए) चार महीने का परिवास दिया जाता है। चार महीने बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे उसे प्रवज्जा देते हैं, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करते हैं। हालाँकि, मैं इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर पहचानता हूँ।”
“भंते, यदि… चार महीने का परिवास आवश्यक हो, तो मुझे चार वर्ष का परिवास मिले। चार वर्ष बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे मुझे प्रवज्जा दें, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करें।”
तब उस वच्छगोत्त घुमक्कड़ को भगवान के पास प्रवज्जा और उपसंपदा मिली।
तब अधिक समय नहीं बीता था, उपसंपदा पाकर आधा महिना हुआ था, जब आयुष्मान वच्छगोत्त भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान वच्छगोत्त ने भगवान से कहा —
“भंते, जहाँ तक शैक्ष्य (=सीखते भिक्षु के) ज्ञान और शैक्ष्य विद्या प्राप्त होती है, मैंने उसे प्राप्त कर लिया है। अब भगवान मुझे अगला धर्म बताएँ।”
“ठीक है, वच्छ, तब इसके आगे दो धर्म विकसित करो — समथ (=निश्चलता), और विपस्सना (=अंतर्दृष्टि)। 2 जब तुम इन दो धर्मों — समथ और विपस्सना — को विकसित कर लोगे, तब वे अनेक धातुओं की गहराई (“पटिवेधन”) तक ले जाएँगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मैं विविध ऋद्धियों का उपयोग करू पाऊँ — एक होकर अनेक बनूँ, अनेक होकर एक बनूँ। प्रकट होऊँ, विलुप्त होऊँ। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाऊँ, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाऊँ, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलूँ, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ूँ, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूऊँ और मलूँ। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लूँ।” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मैं अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुन लूँ — चाहे दिव्य हो या मानवी, दूर की हो या पास की।” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मैं अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लूँ। मुझे रागपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलें कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलें कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलें कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलें कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलें कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलें कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलें कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलें कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलें कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलें कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलें कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलें कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलें कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलें कि ‘अविमुक्त चित्त है।’” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मुझे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण हों — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैं अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करूँ।” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखें। और मुझे पता चलें कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैं अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखूँ।” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।
तब, वच्छ, तुम जब चाहोगे — “मैं आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, [अर्हत्व] प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर रहूँ।” इस तरह जहाँ-जहाँ आयाम होगा, वहाँ-वहाँ तुम साक्षात्कार करोगे।”
तब हर्षित होकर आयुष्मान वच्छगोत्त ने भगवान के कथन का अभिनंदन किया। और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा करते हुए चला गया।
तब, आयुष्मान वच्छगोत्त अकेले एकांतवास लेकर अप्रमत्त, तत्पर और समर्पित होकर विहार करने लगे। तब उन्होंने जल्द ही इसी जीवन में स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंजिल पर पहुँचकर स्थित हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं। उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’
इस तरह, आयुष्मान वच्छगोत्त (अनेक) अर्हन्तों में एक हुए।
उस समय बहुत से भिक्षुगण भगवान का दर्शन करने जा रहे थे। आयुष्मान वच्छगोत्त ने उन भिक्षुओं को दूर से आते हुए देखा। देखकर वे उन भिक्षुओं के पास गए, और जाकर उन भिक्षुओं से पूछा, “आप सब आयुष्मान कहाँ जा रहे हैं?”
“मित्र, हम भगवान का दर्शन करने जा रहे हैं।”
“तब, आयुष्मानों, मेरे नाम से भगवान के चरणों पर सिर से वंदन करना, और कहना, ‘भंते, वच्छगोत्त भिक्षु भगवान के चरणों पर सिर से वंदन करता है, और कहता है — ‘मैंने भगवान की सेवा कर ली! मैंने सुगत की सेवा कर ली!’”
“ठीक है, मित्र।” उन भिक्षुओं ने आयुष्मान वच्छगोत्त को उत्तर दिया। और तब वे भिक्षु भगवान के पास गए। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन भिक्षुओं ने भगवान से कहा, “भंते, आयुष्मान वच्छगोत्त भगवान के चरणों पर सिर से वंदन करता है, और कहता है — ‘मैंने भगवान की सेवा कर ली! मैंने सुगत की सेवा कर ली!’”
“भिक्षुओं, मैंने पहले ही वच्छगोत्त भिक्षु के चित्त को अपना मानस फैलाकर जान लिया है कि — ‘वच्छगोत्त भिक्षु त्रैविद्य, महाऋद्धिमानी और महाप्रभावशाली है।’ और देवताओं ने भी मुझे ऐसा सूचित किया कि — ‘वच्छगोत्त भिक्षु त्रैविद्य, महाऋद्धिमानी और महाप्रभावशाली है।’” 3
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
बौद्ध धर्म में श्रद्धालु उपासक अपने रोजमर्रा के जीवन में पञ्चशील का पालन करते हैं और उपोसथ के दिनों में अष्टशील अपनाते हैं, जिनमें ब्रह्मचर्य भी शामिल है। हालांकि, यह भी प्रतीत होता है कि जैसे आजकल, वैसे ही उस समय भी एक कम औपचारिक उपासक वर्ग था, जो निरंतर अष्टशीलों का पालन करते थे। सफेद वस्त्रधारी ब्रह्मचारी उपासकों का उल्लेख दीघनिकाय २९ में मिलता है, जहाँ उन्हें एक समृद्ध और पूर्ण विकसित धर्म का हिस्सा माना गया है। ब्रह्मचारी उपासकों का उल्लेख अंगुत्तरनिकाय ५.१८० और अंगुत्तरनिकाय १०.७५ में भी किया गया है। यह स्पष्ट है कि ऐसे उपासकों में अनागामी अवस्था को प्राप्त करने की संभावना होती है। ↩︎
इस प्रकार, पिछले सूत्र में जब वच्छगोत्त घुमक्कड़ ने भगवान से “सर्वज्ञ, सर्वदर्शी” होने के बारे में पूछा था, तो भगवान ने उसे “त्रैविद्य” बताया था। अब उसी त्रैविद्य के संदर्भ में भगवान अरहंत हो चुके वच्छगोत्त को संबोधित करते हैं। इस से अधिक सुंदर और उपयुक्त कुछ भी इस दुनिया में नहीं हो सकता। थेरगाथा १.११२ में वच्छगोत्त की प्राप्तियों की गाथाएँ संकलित की गई हैं। ↩︎
१९३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. अथ खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘दीघरत्ताहं भोता गोतमेन सहकथी. साधु मे भवं गोतमो संखित्तेन कुसलाकुसलं देसेतू’’ति. ‘‘संखित्तेनपि खो ते अहं, वच्छ, कुसलाकुसलं देसेय्यं, वित्थारेनपि खो ते अहं, वच्छ, कुसलाकुसलं देसेय्यं; अपि च ते अहं, वच्छ, संखित्तेन कुसलाकुसलं देसेस्सामि. तं सुणाहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवतो पच्चस्सोसि. भगवा एतदवोच –
१९४. ‘‘लोभो खो, वच्छ, अकुसलं, अलोभो कुसलं; दोसो खो, वच्छ, अकुसलं, अदोसो कुसलं; मोहो खो, वच्छ, अकुसलं, अमोहो कुसलं. इति खो, वच्छ, इमे तयो धम्मा अकुसला, तयो धम्मा कुसला.
‘‘पाणातिपातो खो, वच्छ, अकुसलं, पाणातिपाता वेरमणी कुसलं; अदिन्नादानं खो, वच्छ, अकुसलं, अदिन्नादाना वेरमणी कुसलं; कामेसुमिच्छाचारो खो, वच्छ, अकुसलं, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी कुसलं; मुसावादो खो, वच्छ, अकुसलं, मुसावादा वेरमणी कुसलं; पिसुणा वाचा खो, वच्छ, अकुसलं , पिसुणाय वाचाय वेरमणी कुसलं; फरुसा वाचा खो, वच्छ, अकुसलं, फरुसाय वाचाय वेरमणी कुसलं; सम्फप्पलापो खो, वच्छ, अकुसलं, सम्फप्पलापा वेरमणी कुसलं; अभिज्झा खो, वच्छ, अकुसलं, अनभिज्झा कुसलं; ब्यापादो खो, वच्छ, अकुसलं, अब्यापादो कुसलं; मिच्छादिट्ठि खो, वच्छ, अकुसलं सम्मादिट्ठि कुसलं. इति खो, वच्छ, इमे दस धम्मा अकुसला, दस धम्मा कुसला.
‘‘यतो खो, वच्छ, भिक्खुनो तण्हा पहीना होति उच्छिन्नमूला तालावत्थुकता अनभावंकता आयतिं अनुप्पादधम्मा, सो होति भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो’’ति.
१९५. ‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो. अत्थि पन ते भोतो गोतमस्स एकभिक्खुपि सावको यो आसवानं खया [सावको आसवानं खया (सी. स्या. कं. पी.) एवमुपरिपि] अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरती’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव ये भिक्खू मम सावका आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ती’’ति.
‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तिट्ठन्तु भिक्खू. अत्थि पन भोतो गोतमस्स एका भिक्खुनीपि साविका या आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरती’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव या भिक्खुनियो मम साविका आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ती’’ति.
‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तिट्ठन्तु भिक्खू, तिट्ठन्तु भिक्खुनियो. अत्थि पन भोतो गोतमस्स एकुपासकोपि सावको गिही ओदातवसनो ब्रह्मचारी यो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव ये उपासका मम सावका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका’’ति.
‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तिट्ठन्तु भिक्खू, तिट्ठन्तु भिक्खुनियो, तिट्ठन्तु उपासका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो. अत्थि पन भोतो गोतमस्स एकुपासकोपि सावको गिही ओदातवसनो कामभोगी सासनकरो ओवादप्पटिकरो यो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने विहरती’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि , अथ खो भिय्योव ये उपासका मम सावका गिही ओदातवसना कामभोगिनो सासनकरा ओवादप्पटिकरा तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विहरन्ती’’ति.
‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तिट्ठन्तु भिक्खू, तिट्ठन्तु भिक्खुनियो, तिट्ठन्तु उपासका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो, तिट्ठन्तु उपासका गिही ओदातवसना कामभोगिनो. अत्थि पन भोतो गोतमस्स एकुपासिकापि साविका गिहिनी ओदातवसना ब्रह्मचारिनी या पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनी अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव या उपासिका मम साविका गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिका तत्थ परिनिब्बायिनियो अनावत्तिधम्मा तस्मा लोका’’ति.
‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तिट्ठन्तु भिक्खू, तिट्ठन्तु भिक्खुनियो, तिट्ठन्तु उपासका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो, तिट्ठन्तु उपासका गिही ओदातवसना कामभोगिनो, तिट्ठन्तु उपासिका गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो. अत्थि पन भोतो गोतमस्स एकुपासिकापि साविका गिहिनी ओदातवसना कामभोगिनी सासनकरा ओवादप्पटिकरा या तिण्णविचिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विहरती’’ति? ‘‘न खो, वच्छ, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव या उपासिका मम साविका गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो सासनकरा ओवादप्पटिकरा तिण्णविच्छिकिच्छा विगतकथंकथा वेसारज्जप्पत्ता अपरप्पच्चया सत्थुसासने विहरन्ती’’ति.
१९६. ‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवंयेव गोतमो आराधको अभविस्स, नो च खो भिक्खू आराधका अभविस्संसु ; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको भिक्खू च आराधका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको अभविस्स, भिक्खू च आराधका अभविस्संसु, नो च खो भिक्खुनियो आराधिका अभविस्संसु; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको, भिक्खू च आराधका, भिक्खुनियो च आराधिका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको अभविस्स, भिक्खू च आराधका अभविस्संसु, भिक्खुनियो च आराधिका अभविस्संसु, नो च खो उपासका गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका अभविस्संसु; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको, भिक्खू च आराधका, भिक्खुनियो च आराधिका, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको अभविस्स, भिक्खू च आराधका अभविस्संसु, भिक्खुनियो च आराधिका अभविस्संसु, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका अभविस्संसु, नो च खो उपासका गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका अभविस्संसु; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको, भिक्खू च आराधका, भिक्खुनियो च आराधिका, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका, उपासका च गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको अभविस्स, भिक्खू च आराधका अभविस्संसु, भिक्खुनियो च आराधिका अभविस्संसु, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका अभविस्संसु, उपासका च गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका अभविस्संसु, नो च खो उपासिका गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो आराधिका अभविस्संसु; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको, भिक्खू च आराधका, भिक्खुनियो च आराधिका, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका, उपासका च गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका , उपासिका च गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो आराधिका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
‘‘सचे हि, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको अभविस्स, भिक्खू च आराधका अभविस्संसु, भिक्खुनियो च आराधिका अभविस्संसु, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका अभविस्संसु, उपासका च गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका अभविस्संसु, उपासिका च गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो आराधिका अभविस्संसु, नो च खो उपासिका गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो आराधिका अभविस्संसु; एवमिदं ब्रह्मचरियं अपरिपूरं अभविस्स तेनङ्गेन. यस्मा च खो, भो गोतम, इमं धम्मं भवञ्चेव गोतमो आराधको, भिक्खू च आराधका, भिक्खुनियो च आराधिका, उपासका च गिही ओदातवसना ब्रह्मचारिनो आराधका, उपासका च गिही ओदातवसना कामभोगिनो आराधका, उपासिका च गिहिनियो ओदातवसना ब्रह्मचारिनियो आराधिका, उपासिका च गिहिनियो ओदातवसना कामभोगिनियो आराधिका; एवमिदं ब्रह्मचरियं परिपूरं तेनङ्गेन.
१९७. ‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, गङ्गा नदी समुद्दनिन्ना समुद्दपोणा समुद्दपब्भारा समुद्दं आहच्च तिट्ठति, एवमेवायं भोतो गोतमस्स परिसा सगहट्ठपब्बजिता निब्बाननिन्ना निब्बानपोणा निब्बानपब्भारा निब्बानं आहच्च तिट्ठति. अभिक्कन्तं, भो गोतम…पे… एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. लभेय्याहं भोतो गोतमस्स सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति . ‘‘यो खो, वच्छ, अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति. चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय; अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता’’ति. ‘‘सचे, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खन्ता पब्बज्जं, आकङ्खन्ता उपसम्पदं चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय; अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि. चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया’’ति. अलत्थ खो वच्छगोत्तो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके पब्बज्जं अलत्थ उपसम्पदं.
अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा वच्छगोत्तो अद्धमासूपसम्पन्नो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा वच्छगोत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘यावतकं, भन्ते, सेखेन ञाणेन सेखाय विज्जाय पत्तब्बं, अनुप्पत्तं तं मया; उत्तरि च मे [उत्तरिं मे (सी. स्या. कं. पी.)] भगवा धम्मं देसेतू’’ति. ‘‘तेन हि त्वं, वच्छ, द्वे धम्मे उत्तरि भावेहि – समथञ्च विपस्सनञ्च. इमे खो ते, वच्छ, द्वे धम्मा उत्तरि भाविता – समथो च विपस्सना च – अनेकधातुपटिवेधाय संवत्तिस्सन्ति.
१९८. ‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव [यावदे (पी.)] आकङ्खिस्ससि – ‘अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभवेय्यं – एकोपि हुत्वा बहुधा अस्सं, बहुधापि हुत्वा एको अस्सं; आविभावं, तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छेय्यं, सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करेय्यं, सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छेय्यं, सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमेय्यं, सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परिमसेय्यं, परिमज्जेय्यं; यावब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेय्य’न्ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने.
‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव आकङ्खिस्ससि – ‘दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणेय्यं – दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके चा’ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने.
‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव आकङ्खिस्ससि – ‘परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानेय्यं – सरागं वा चित्तं सरागं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतरागं वा चित्तं वीतरागं चित्तन्ति पजानेय्यं; सदोसं वा चित्तं सदोसं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतदोसं वा चित्तं वीतदोसं चित्तन्ति पजानेय्यं; समोहं वा चित्तं समोहं चित्तन्ति पजानेय्यं, वीतमोहं वा चित्तं वीतमोहं चित्तन्ति पजानेय्यं; संखित्तं वा चित्तं संखित्तं चित्तन्ति पजानेय्यं, विक्खित्तं वा चित्तं विक्खित्तं चित्तन्ति पजानेय्यं; महग्गतं वा चित्तं महग्गतं चित्तन्ति पजानेय्यं, अमहग्गतं वा चित्तं अमहग्गतं चित्तन्ति पजानेय्यं; सउत्तरं वा चित्तं सउत्तरं चित्तन्ति पजानेय्यं, अनुत्तरं वा चित्तं अनुत्तरं चित्तन्ति पजानेय्यं; समाहितं वा चित्तं समाहितं चित्तन्ति पजानेय्यं, असमाहितं वा चित्तं असमाहितं चित्तन्ति पजानेय्यं; विमुत्तं वा चित्तं विमुत्तं चित्तन्ति पजानेय्यं, अविमुत्तं वा चित्तं अविमुत्तं चित्तन्ति पजानेय्य’न्ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने.
‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव आकङ्खिस्ससि – ‘अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्यं, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि; अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति; इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्य’न्ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने.
‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव आकङ्खिस्ससि – ‘दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सेय्यं चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानेय्यं – इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना; इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नाति; इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सेय्यं चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानेय्य’न्ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने.
‘‘सो त्वं, वच्छ, यावदेव आकङ्खिस्ससि – ‘आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य’न्ति, तत्र तत्रेव सक्खिभब्बतं पापुणिस्ससि, सति सतिआयतने’’ति.
१९९. अथ खो आयस्मा वच्छगोत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि. अथ खो आयस्मा वच्छगोत्तो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासि. अञ्ञतरो खो पनायस्मा वच्छगोत्तो अरहतं अहोसि.
२००. तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू भगवन्तं दस्सनाय गच्छन्ति. अद्दसा खो आयस्मा वच्छगोत्तो ते भिक्खू दूरतोव आगच्छन्ते. दिस्वान येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘हन्द! कहं पन तुम्हे आयस्मन्तो गच्छथा’’ति? ‘‘भगवन्तं खो मयं, आवुसो, दस्सनाय गच्छामा’’ति . ‘‘तेनहायस्मन्तो मम वचनेन भगवतो पादे सिरसा वन्दथ, एवञ्च वदेथ – ‘वच्छगोत्तो, भन्ते, भिक्खु भगवतो पादे सिरसा वन्दति, एवञ्च वदेति – परिचिण्णो मे भगवा, परिचिण्णो मे सुगतो’’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो वच्छगोत्तस्स पच्चस्सोसुं. अथ खो ते भिक्खू येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ना खो ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘आयस्मा, भन्ते, वच्छगोत्तो भगवतो पादे सिरसा वन्दति, एवञ्च वदेति – ‘परिचिण्णो मे भगवा, परिचिण्णो मे सुगतो’’’ति. ‘‘पुब्बेव मे, भिक्खवे, वच्छगोत्तो भिक्खु चेतसा चेतो परिच्च विदितो – ‘तेविज्जो वच्छगोत्तो भिक्खु महिद्धिको महानुभावो’ति. देवतापि मे एतमत्थं आरोचेसुं – ‘तेविज्जो, भन्ते, वच्छगोत्तो भिक्खु महिद्धिको महानुभावो’’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति.
महावच्छसुत्तं निट्ठितं ततियं.