इस सूत्र में भगवान के अग्र महाश्रावक “सारिपुत्त भंते” को अरहंत फल की प्राप्ति हुई, और लंबे नाखून वाले परिब्राजक “दीघनख घुमक्कड़” को धर्मचक्षु उत्पन्न हुए। अट्ठकथा में कहा गया है कि यह सूत्र माघ पूर्णिमा के पवित्र दिन घटित हुआ, और यह दीघनख, सारिपुत्त भंते का ही भाँजा था।
विनयपिटक के अनुसार, सारिपुत्त और महामोग्गल्लान भंते प्रारंभ में भगवान के समकालीन छह प्रमुख शिक्षकों में से एक, “सञ्जय बेलट्ठपुत्र” के प्रधान शिष्य थे। परंतु जब पञ्चवर्गीय भिक्षुओं में से एक, “अस्सजि भंते” से सारिपुत्त ने एक संक्षिप्त धर्मवचन सुना, तो उसी क्षण उनमें धर्मचक्षु उदित हुआ। उस उपदेश को उन्होंने जाकर महामोग्गल्लान को बताया, और उन्हें भी धर्मचक्षु उत्पन्न हुए। तत्पश्चात दोनों ने सैकड़ों शिष्यों के साथ अपने गुरु सञ्जय को त्याग दिया, जो सञ्जय के लिए बड़ा आघात था। (इस विषय पर विस्तार से पढ़ें — मार्गदर्शिका का यह भाग।)
दीघनिकाय २ के अनुसार, सञ्जय की दृष्टि थी कि वह किसी भी मत पर स्थिर नहीं था। यह विचार इस सूत्र में उपस्थित दीघनख घुमक्कड़ की धारणाओं से मेल खाता है, जिससे लगता है कि दीघनख भी सञ्जय का ही शिष्य रहा होगा। अवदानशतक और महाविभाषा जैसे ग्रंथों में कहा गया है कि दीघनख को यह जानकर क्रोध हुआ कि सारिपुत्त ने अपने पुराने गुरु को त्यागकर बुद्ध की शरण ली।
अंगुत्तरनिकाय ४.१७२ के अनुसार, सारिपुत्त भंते को प्रवज्जा के केवल पंद्रह दिन बाद ही अरहंत फल की प्राप्ति हुई। मज्झिमनिकाय १११ में उनके ध्यानाभ्यास का विवरण है। इससे पता चलता है कि यह सूत्र भी उनके प्रवज्जा के पंद्रह दिन बाद ही घटित हुआ हो।
इस सूत्र के अनुसार, दीघनख धर्मचक्षु प्राप्त करने पर गृहस्थ उपासक बना। लेकिन थेरवाद के अलावा दूसरी सभी परंपराओं में एक जैसा वर्णन मिलता है कि वह भिक्षु बना और अरहंत हुआ। जैसे वच्छगोत के उदाहरण में (मज्झिमनिकाय ७२) स्पष्ट है कि कोई संन्यासी धर्मचक्षु प्राप्त करने पर गृहस्थ बन जाए — यह बात दार्शनिक और सांस्कृतिक रूप से असंगत मानी जाती है। इसी कारण अनेक विद्वान पाली परंपरा के इस उल्लेख को त्रुटिपूर्ण मानते हैं।
महाप्रज्ञापारमिता-उपदेश-शास्त्र, तिब्बती मूल-सरवास्तिवाद विनय, और अवदानशतक में यह भी वर्णन है कि भिक्षु बनने से पूर्व दीघनख ने अपने लंबे नाखून काटे, और तब उसे उसके वास्तविक नाम “कोष्ठिल” से जाना गया — जो पाली में “महाकोठ्ठित” भंते के नाम से प्रसिद्ध है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह में गृद्धकूट पर्वत पर सुवर गुफा में विहार कर रहे थे। तब दीघनख घुमक्कड़ भगवान के पास गया। जाकर भगवान से हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर दीघनख घुमक्कड़ ने भगवान से कहा —
“गोतम जी, मेरा ऐसा सिद्धान्त है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद नहीं!’”
“अग्गिवेस्सन, क्या तुम्हें ‘मुझे कुछ पसंद नहीं’, यह दृष्टि भी पसंद नहीं है?” 1
“यदि मुझे वह पसंद भी हो, गोतम जी, तो वह भी वैसा ही (नापसंद) हो! वह भी वैसा ही हो!”
“अग्गिवेस्सन, बहुत लोग हैं इस लोक में, जो कहते हैं, ‘वह भी वैसा ही हो! वह भी वैसी ही हो’, किन्तु वे उस दृष्टि को त्यागते नहीं हैं, बल्कि अन्य दृष्टि भी पकड़ लेते हैं। जबकि, कम ही लोग हैं इस लोक में, जो कहते हैं, ‘वह भी वैसा ही हो! वह भी वैसी ही हो’, और वे उस दृष्टि को त्याग देते हैं, और अन्य दृष्टि भी नहीं पकड़ते हैं।’
ऐसे कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे सब पसंद है!’ और, ऐसे भी श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद नहीं!’ और, ऐसे भी कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद है, और कुछ नापसंद!’
अब, जो ऐसे कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे सब पसंद है’, वह दृष्टि राग (=दिलचस्पी) के समीप है, बंधन के समीप है, खुशी के समीप है, चिपकाव के समीप है, आसक्ति के समीप है।
जबकि, जो ऐसे कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद नहीं’, वह दृष्टि न राग के समीप है, न बंधन के समीप है, न खुशी के समीप है, न चिपकाव के समीप है, और न ही आसक्ति के समीप है।”
जब ऐसा कहा गया, तब (बात खत्म होने से पहले ही) दीघनख घुमक्कड़ भगवान से कह पड़ा, “श्रीमान गोतम मेरी दृष्टि की प्रशंसा करते हैं! श्रीमान गोतम मेरी दृष्टि की सिफारिश करते हैं!”
(भगवान बात को जारी रखते हुए:) “और, जो ऐसे कुछ श्रमण-ब्राह्मण हैं, अग्गिवेस्सन, जिनका ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद है, और कुछ नापसंद’, तब जो कुछ उन्हें पसंद हो — वह दृष्टि राग के समीप है, बंधन के समीप है, खुशी के समीप है, चिपकाव के समीप है, आसक्ति के समीप है; और जो कुछ उन्हें नापसंद हो — वह दृष्टि न राग के समीप है, न बंधन के समीप है, न खुशी के समीप है, न चिपकाव के समीप है, और न ही आसक्ति के समीप है।
अब, अग्गिवेस्सन, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे सब पसंद है’, तब उनमें कोई समझदार पुरुष सोचता है, ‘मेरी ऐसी दृष्टि है कि ‘मुझे सब पसंद है!’ अब यदि मैं इस दृष्टि को थाम लूँ और दृढ़ता से अड़े रहूँ कि ‘यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’, तब मेरी दो लोगों से बहस होगी —
— इन दो लोगों से मेरी बहस होगी। और, जब बहस होती है, तब विवाद होता है। विवाद होता है तो परेशानी होती है। परेशानी होती है तो हिंसा भी होती है।’
इस तरह, स्वयं में बहस, विवाद, परेशानी और हिंसा (की संभावना) को देखकर, वह उस दृष्टि को त्याग देता है, और अन्य कोई दृष्टि नहीं पकड़ता है। इस प्रकार वह दृष्टि त्यागी जाती है। इस प्रकार उस दृष्टि का परित्याग होता है।
और, अग्गिवेस्सन, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद नहीं’, तब उनमें कोई समझदार पुरुष सोचता है, ‘मेरी ऐसी दृष्टि है कि ‘मुझे कुछ पसंद नहीं!’ अब यदि मैं इस दृष्टि को थाम लूँ और दृढ़ता से अड़े रहूँ कि ‘यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’, तब मेरी दो लोगों से बहस होगी —
— इन दो लोगों से मेरी बहस होगी। और, जब बहस होती है, तब विवाद होता है। विवाद होता है तो परेशानी होती है। परेशानी होती है तो हिंसा भी होती है।’
इस तरह, स्वयं में बहस, विवाद, परेशानी और हिंसा (की संभावना) को देखकर, वह उस दृष्टि को त्याग देता है, और अन्य कोई दृष्टि नहीं पकड़ता है। इस प्रकार वह दृष्टि त्यागी जाती है। इस प्रकार उस दृष्टि का परित्याग होता है।
और, अग्गिवेस्सन, जो श्रमण-ब्राह्मणों का ऐसा कहना है, ऐसी दृष्टि है कि — ‘मुझे कुछ पसंद है, और कुछ नापसंद’, तब उनमें कोई समझदार पुरुष सोचता है, ‘मेरी ऐसी दृष्टि है कि ‘मुझे कुछ पसंद है, और कुछ नापसंद!’ अब यदि मैं इस दृष्टि को थाम लूँ और दृढ़ता से अड़े रहूँ कि ‘यही इकलौता सच है, बाकी सब व्यर्थ’, तब मेरी दो लोगों से बहस होगी —
— इन दो लोगों से मेरी बहस होगी। और, जब बहस होती है, तब विवाद होता है। विवाद होता है तो परेशानी होती है। परेशानी होती है तो हिंसा भी होती है।’
इस तरह, स्वयं में बहस, विवाद, परेशानी और हिंसा (की संभावना) को देखकर, वह उस दृष्टि को त्याग देता है, और अन्य कोई दृष्टि नहीं पकड़ता है। इस प्रकार वह दृष्टि त्यागी जाती है। इस प्रकार उस दृष्टि का परित्याग होता है।
अग्गिवेस्सन, यह काया — जो रूपयुक्त है, चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। उसे अनित्य देखना चाहिए, दुःख से जुड़ा देखना चाहिए, रोग के तौर पर देखना चाहिए, फोड़े के तौर पर देखना चाहिए, (बींधने वाले) तीर के तौर पर देखना चाहिए, पीड़ा के तौर पर देखना चाहिए, मुसीबत के तौर पर देखना चाहिए, पराया देखना चाहिए, भंग होते देखना चाहिए, शून्य (=खोखला) देखना चाहिए, अनात्म देखना चाहिए।
काया को अनित्य, दुःख से जुड़ा, रोग के तौर पर, फोड़े के तौर पर, तीर के तौर पर, पीड़ा के तौर पर, मुसीबत के तौर पर, पराया, भंग होते, शून्य, अनात्म देखने पर काया के प्रति जो रुचि हो, स्नेह हो, दासता हो, वह छूट जाती है।
अग्गिवेस्सन, तीन प्रकार की अनुभूति होती हैं — सुखद अनुभूति, दुखद अनुभूति, अदुखद-असुखद अनुभूति।
जिस समय, अग्गिवेस्सन, सुखद अनुभूति महसूस होती है, उस समय दुखद अनुभूति नहीं होती, और न ही अदुखद-असुखद अनुभूति होती है। बल्कि, उस समय केवल सुखद अनुभूति ही महसूस होती है।
और, अग्गिवेस्सन, जिस समय दुखद अनुभूति महसूस होती है, उस समय सुखद अनुभूति नहीं होती, और न ही अदुखद-असुखद अनुभूति होती है। बल्कि, उस समय केवल दुखद अनुभूति ही महसूस होती है।
और, अग्गिवेस्सन, जिस समय अदुखद-असुखद अनुभूति महसूस होती है, उस समय सुखद अनुभूति नहीं होती, और न ही दुखद अनुभूति होती है। बल्कि, उस समय केवल अदुखद-असुखद अनुभूति ही महसूस होती है।
अग्गिवेस्सन, सुखद अनुभूति — अनित्य होती है, रचित होती है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न होती है, क्षय स्वभाव की, व्यय स्वभाव की, विराग स्वभाव की, और निरोध स्वभाव की होती है।
दुखद अनुभूति, अग्गिवेस्सन, अनित्य होती है, रचित होती है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न होती है, क्षय स्वभाव की, व्यय स्वभाव की, विराग स्वभाव की, और निरोध स्वभाव की होती है।
अदुखद-असुखद अनुभूति, अग्गिवेस्सन, अनित्य होती है, रचित होती है, आधारपूर्ण सहउत्पन्न होती है, क्षय स्वभाव की, व्यय स्वभाव की, विराग स्वभाव की, और निरोध स्वभाव की होती है।
इस तरह देखने पर, अग्गिवेस्सन, धर्म सुने आर्यश्रावक का सुखद अनुभूति से मोहभंग होता है, दुखद अनुभूति से मोहभंग होता है, अदुखद-असुखद अनुभूति से मोहभंग होता है। मोहभंग होने पर विराग होता है। विराग होने पर विमुक्त होता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
इस तरह विमुक्त चित्त हुआ भिक्षु, अग्गिवेस्सन, किसी से पक्षपात नहीं करता, न ही किसी से विवाद करता है। बल्कि वह इस लोक की भाषा का उपयोग करता है, बिना उससे चिपके हुए।”
उस समय आयुष्मान सारिपुत्त भगवान के पीछे खड़े थे, भगवान को पंखा झलते हुए। तब आयुष्मान सारिपुत्त को लगा, “वाकई, ऐसा लगता है जैसे भगवान इन धर्मों को प्रत्यक्ष जानकर त्यागने के लिए कहते हो! वाकई, ऐसा लगता है जैसे सुगत इन धर्मों को प्रत्यक्ष जानकर त्यागने के लिए कहते हो!” इस तरह आयुष्मान सारिपुत्त चिंतन करते हुए, उनका चित्त अनासक्त हो आस्रवों से विमुक्त हुआ।
और दीघनख घुमक्कड़ को धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — “जो धर्म उत्पत्ति-स्वभाव के हैं, सब निरोध-स्वभाव के हैं!” तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका दीघनख घुमक्कड़ संदेह लाँघकर परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई, तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ।
उसने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, श्रीमान गोतम! अतिउत्तम, श्रीमान गोतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं श्रीमान गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! श्रीमान गोतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
दीघनख को “अग्गिवेस्सन” पुकारना, यह उसकी “अग्निवेश” ब्राह्मण जाति प्रदर्शित करता है। साथ ही, यहाँ भगवान की तत्काल हाजिरजवाबी भी दिखती है। यह कहना बहुत सरल है कि “मुझे कुछ पसंद नहीं!” लेकिन असल में, अज्ञानता की यह स्थिति अपनी ही आसक्तियों को खुद से छुपाने का एक तरीका होती है। एक बार किसी ने मुझसे कहा था, “भंते, मुझे तो जरा भी अहंकार नहीं!” मैं भी भगवान का शिष्य हूँ, तो मैंने जवाब दिया, “ऐसा कहना ही तुम्हारे अहंकार को दर्शाता है। अगर सच में तुम्हारे भीतर अहंकार नहीं होता, तो तुम मुझे ऐसा जतलाने की कोशिश क्यों करते?” ↩︎
२०१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति गिज्झकूटे पब्बते सूकरखतायं. अथ खो दीघनखो परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो दीघनखो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहञ्हि, भो गोतम, एवंवादी एवंदिट्ठि – ‘सब्बं मे नक्खमती’’’ति. ‘‘यापि खो ते एसा, अग्गिवेस्सन, दिट्ठि – ‘सब्बं मे नक्खमती’ति, एसापि ते दिट्ठि नक्खमती’’ति? ‘‘एसा चे [एसापि (क.)] मे, भो गोतम, दिट्ठि खमेय्य, तंपस्स तादिसमेव, तंपस्स तादिसमेवा’’ति. ‘‘अतो खो ते, अग्गिवेस्सन, बहू हि बहुतरा लोकस्मिं ये एवमाहंसु – ‘तंपस्स तादिसमेव, तंपस्स तादिसमेवा’ति. ते तञ्चेव दिट्ठिं नप्पजहन्ति अञ्ञञ्च दिट्ठिं उपादियन्ति. अतो खो ते, अग्गिवेस्सन, तनू हि तनुतरा लोकस्मिं ये एवमाहंसु – ‘तंपस्स तादिसमेव, तंपस्स तादिसमेवा’ति. ते तञ्चेव दिट्ठिं पजहन्ति अञ्ञञ्च दिट्ठिं न उपादियन्ति. सन्तग्गिवेस्सन, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे खमती’ति; सन्तग्गिवेस्सन, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे नक्खमती’ति; सन्तग्गिवेस्सन , एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे नक्खमती’ति. तत्रग्गिवेस्सन, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे खमती’ति तेसमयं दिट्ठि सारागाय सन्तिके, सञ्ञोगाय सन्तिके, अभिनन्दनाय सन्तिके अज्झोसानाय सन्तिके उपादानाय सन्तिके; तत्रग्गिवेस्सन ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे नक्खमती’ति तेसमयं दिट्ठि असारागाय सन्तिके, असञ्ञोगाय सन्तिके, अनभिनन्दनाय सन्तिके, अनज्झोसानाय सन्तिके, अनुपादानाय सन्तिके’’ति.
२०२. एवं वुत्ते, दीघनखो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘उक्कंसेति [उक्कंसति (सी. पी. क.)] मे भवं गोतमो दिट्ठिगतं, समुक्कंसेति [सम्पहंसति (क.)] मे भवं गोतमो दिट्ठिगत’’न्ति. ‘‘तत्रग्गिवेस्सन, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे नक्खमती’ति. या हि तेसं खमति सायं दिट्ठि सारागाय सन्तिके, सञ्ञोगाय सन्तिके, अभिनन्दनाय सन्तिके, अज्झोसानाय सन्तिके, उपादानाय सन्तिके; या हि तेसं नक्खमति सायं दिट्ठि असारागाय सन्तिके, असञ्ञोगाय सन्तिके, अनभिनन्दनाय सन्तिके, अनज्झोसानाय सन्तिके, अनुपादानाय सन्तिके. तत्रग्गिवेस्सन, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे खमती’ति तत्थ विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘या खो मे अयं दिट्ठि – सब्बं मे खमतीति, इमञ्चे अहं दिट्ठिं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरेय्यं – इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति; द्वीहि मे अस्स विग्गहो – यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – सब्बं मे नक्खमतीति, यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे नक्खमतीति – इमेहि अस्स द्वीहि विग्गहो. इति विग्गहे सति विवादो, विवादे सति विघातो, विघाते सति विहेसा’. इति सो विग्गहञ्च विवादञ्च विघातञ्च विहेसञ्च अत्तनि सम्पस्समानो तञ्चेव दिट्ठिं पजहति अञ्ञञ्च दिट्ठिं न उपादियति. एवमेतासं दिट्ठीनं पहानं होति, एवमेतासं दिट्ठीनं पटिनिस्सग्गो होति.
२०३. ‘‘तत्रग्गिवेस्सन, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘सब्बं मे नक्खमती’ति तत्थ विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘या खो मे अयं दिट्ठि – सब्बं मे नक्खमती’ति, इमञ्चे अहं दिट्ठिं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरेय्यं – इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति; द्वीहि मे अस्स विग्गहो – यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – सब्बं मे खमतीति, यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – एकच्चं मे खमति एकच्चं मे नक्खमतीति – इमेहि अस्स द्वीहि विग्गहो. इति विग्गहे सति विवादो, विवादे सति विघातो, विघाते सति विहेसा’. इति सो विग्गहञ्च विवादञ्च विघातञ्च विहेसञ्च अत्तनि सम्पस्समानो तञ्चेव दिट्ठिं पजहति अञ्ञञ्च दिट्ठिं न उपादियति. एवमेतासं दिट्ठीनं पहानं होति, एवमेतासं दिट्ठीनं पटिनिस्सग्गो होति.
२०४. ‘‘तत्रग्गिवेस्सन, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे नक्खमती’ति तत्थ विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘या खो मे अयं दिट्ठि – एकच्चं मे खमति, एकच्चं मे नक्खमतीति, इमञ्चे अहं दिट्ठिं थामसा परामासा अभिनिविस्स वोहरेय्यं – इदमेव सच्चं मोघमञ्ञन्ति; द्वीहि मे अस्स विग्गहो – यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – सब्बं मे खमतीति, यो चायं समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी एवंदिट्ठि – सब्बं मे नक्खमतीति – इमेहि अस्स द्वीहि विग्गहो. इति विग्गहे सति विवादो, विवादे सति विघातो, विघाते सति विहेसा’. इति सो विग्गहञ्च विवादञ्च विघातञ्च विहेसञ्च अत्तनि सम्पस्समानो तञ्चेव दिट्ठिं पजहति अञ्ञञ्च दिट्ठिं न उपादियति. एवमेतासं दिट्ठीनं पहानं होति, एवमेतासं दिट्ठीनं पटिनिस्सग्गो होति.
२०५. ‘‘अयं खो पनग्गिवेस्सन, कायो रूपी चातुमहाभूतिको [चातुम्महाभूतिको (सी. स्या.)] मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासुपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो, अनिच्चतो दुक्खतो रोगतो गण्डतो सल्लतो अघतो आबाधतो परतो पलोकतो सुञ्ञतो अनत्ततो समनुपस्सितब्बो . तस्सिमं कायं अनिच्चतो दुक्खतो रोगतो गण्डतो सल्लतो अघतो आबाधतो परतो पलोकतो सुञ्ञतो अनत्ततो समनुपस्सतो यो कायस्मिं कायछन्दो कायस्नेहो कायन्वयता सा पहीयति.
‘‘तिस्सो खो इमा, अग्गिवेस्सन, वेदना – सुखा वेदना, दुक्खा वेदना, अदुक्खमसुखा वेदना. यस्मिं, अग्गिवेस्सन, समये सुखं वेदनं वेदेति , नेव तस्मिं समये दुक्खं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति; सुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति. यस्मिं, अग्गिवेस्सन, समये दुक्खं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति; दुक्खंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति. यस्मिं, अग्गिवेस्सन, समये अदुक्खमसुखं वेदनं वेदेति, नेव तस्मिं समये सुखं वेदनं वेदेति, न दुक्खं वेदनं वेदेति; अदुक्खमसुखंयेव तस्मिं समये वेदनं वेदेति. सुखापि खो, अग्गिवेस्सन, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा; दुक्खापि खो, अग्गिवेस्सन, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा; अदुक्खमसुखापि खो, अग्गिवेस्सन, वेदना अनिच्चा सङ्खता पटिच्चसमुप्पन्ना खयधम्मा वयधम्मा विरागधम्मा निरोधधम्मा. एवं पस्सं, अग्गिवेस्सन, सुतवा अरियसावको सुखायपि वेदनाय निब्बिन्दति, दुक्खायपि वेदनाय निब्बिन्दति, अदुक्खमसुखायपि वेदनाय निब्बिन्दति ; निब्बिन्दं विरज्जति, विरागा विमुच्चति. विमुत्तस्मिं, विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. एवं विमुत्तचित्तो खो, अग्गिवेस्सन, भिक्खु न केनचि संवदति, न केनचि विवदति, यञ्च लोके वुत्तं तेन वोहरति, अपरामस’’न्ति.
२०६. तेन खो पन समयेन आयस्मा सारिपुत्तो भगवतो पिट्ठितो ठितो होति भगवन्तं बीजयमानो [वीजयमानो (सी. पी.)]. अथ खो आयस्मतो सारिपुत्तस्स एतदहोसि – ‘‘तेसं तेसं किर नो भगवा धम्मानं अभिञ्ञा पहानमाह, तेसं तेसं किर नो सुगतो धम्मानं अभिञ्ञा पटिनिस्सग्गमाहा’’ति. इति हिदं आयस्मतो सारिपुत्तस्स पटिसञ्चिक्खतो अनुपादाय आसवेहि चित्तं विमुच्चि. दीघनखस्स पन परिब्बाजकस्स विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्चि समुदयधम्मं सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति. अथ खो दीघनखो परिब्बाजको दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति – एवमेव खो भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
दीघनखसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.