नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 मागण्डिय को उपदेश

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कुरु देश में कम्मासधम्म नामक कुरु नगर में, भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला (=यज्ञभवन) में घास की चटाई पर विहार कर रहे थे।

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए कम्मासधम्म में प्रवेश किया। वे कम्मासधम्म में भिक्षाटन कर, भोजन करने के पश्चात, दिन बिताने के लिए किसी उपवन में गए। उस उपवन में गहरे जाकर, दिन में ध्यान-विहार करने के लिए, किसी वृक्ष के नीचे बैठ गए।

तब मागण्डिय घुमक्कड़ 1 चहलकदमी कर घूमते हुए, टहलते हुए, भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला में गया। वहाँ मागण्डिय घुमक्कड़ को भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला में घास की चटाई बिछी हुई दिखी। देखकर उसने भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण से कहा, “भारद्वाज जी, आपकी अग्निशाला में किसके लिए घास की चटाई बिछी है, जो किसी श्रमण का बिस्तर लगती है?”

“मागण्डिय जी, शाक्यपुत्र श्रमण गोतम शाक्यकुल से प्रवज्जित हुए हैं। उन श्रीमान गोतम के बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई वे ही भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ उन्हीं श्रीमान गोतम के लिए वह बिस्तर बिछा है।”

“ये क्या बुरा देख लिया, भारद्वाज जी! हाय, क्या बुरा देख लिया, भारद्वाज जी! मैंने उस भ्रूण-हत्यारे श्रीमान गोतम का बिस्तर देख लिया!”

“अपने वाणी को बचाओ, मागण्डिय! अपने वाणी की रक्षा करो। बहुत से ज्ञानी क्षत्रिय, ज्ञानी ब्राह्मण, ज्ञानी गृहस्थ, ज्ञानी श्रमण उन श्रीमान गोतम पर पूर्ण आस्था रखते हैं, उस कुशल धर्म आर्य व्यवस्था में अनुशासित होते हैं।”

“भारद्वाज जी, यदि मैंने उन श्रीमान गोतम को सम्मुख देखा, तब भी मैं उनके मुँह पर भी यह बोल सकता हूँ कि ‘श्रमण गोतम भ्रूण-हत्यारे हैं!’ ऐसा क्यों? क्योंकि, ऐसा हमारे सूत्र में आया हैं।”

“यदि मागण्डिय जी को समस्या न हो, तो मैं यह श्रमण गोतम को बताऊँगा।”

“चिंता मत करो, भारद्वाज जी। जैसा कहा वैसा बता दो।”

भगवान से मिलना

भगवान ने अपने विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्य श्रोतधातु से भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण को मागण्डिय घुमक्कड़ के साथ वार्तालाप करते हुए सुना। तब सायंकाल होने पर, भगवान एकांतवास से निकल कर भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण के अग्निशाला में गए। और जाकर भगवान घास की बिछी हुई चटाई पर बैठ गए।

तब भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण भगवान के पास आया। आकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण से भगवान ने कहा, “भारद्वाज, क्या तुम्हारा मागण्डिय घुमक्कड़ के साथ इस घास की चटाई को लेकर कोई वार्तालाप हुआ था?”

जब ऐसा कहा गया, तब भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण स्तब्ध होकर, रोंगटे खड़े कर भगवान से कहा, “मैं इसी बारे में श्रीमान गोतम को बताना चाह रहा था। किन्तु बिना बताए श्रीमान गोतम ने ही उसे बता दिया!”

भगवान का भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण से वार्तालाप अब समाप्त नहीं हुआ था कि तभी मागण्डिय घुमक्कड़ चहलकदमी कर घूमते हुए, टहलते हुए, भारद्वाज गोत्र ब्राह्मण की अग्निशाला में आ गया। आकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे मागण्डिय घुमक्कड़ से भगवान ने कहा, “मागण्डिय —

  • आँख को रूप भाते है, रूप पसंद होते है, रूप में आनंदित होते है।

— उसे तथागत ने काबू किया, बचा लिया, रक्षित किया, सँवर किया, और वे उसके सँवर का धर्म बताते हैं। मागण्डिय, क्या तुमने इस संबंध में कहा था, ‘श्रमण गोतम भ्रूण-हत्यारे हैं’?”

“ठीक इसी संबंध में, श्रीमान गोतम, मैंने कहा था, ‘श्रमण गोतम भ्रूण-हत्यारे हैं!’ ऐसा क्यों? क्योंकि, ऐसा हमारे सूत्र में आया है।”

“और, मागण्डिय —

  • कान को आवाज भाति है, आवाज पसंद होती है, आवाज में आनंदित होता है…
  • नाक को गंध भाति है, गंध पसंद होती है, गंध में आनंदित होता है…
  • जीभ को स्वाद भाते है, स्वाद पसंद होते है, स्वाद में आनंदित होती है…
  • काया को संस्पर्श भाते है, संस्पर्श पसंद होते है, संस्पर्श में आनंदित होती है…
  • मन को स्वभाव भाते है, स्वभाव पसंद होते है, स्वभाव में आनंदित होता है।

— तथागत ने उन्हें काबू किया, बचा लिया, रक्षित किया, सँवर किया, और वे उसके सँवर का धर्म बताते हैं। मागण्डिय, क्या तुमने इस संबंध में कहा था, ‘श्रमण गोतम भ्रूण-हत्यारे हैं’?”

“ठीक इसी संबंध में, श्रीमान गोतम, मैंने कहा, ‘श्रमण गोतम भ्रूण-हत्यारे हैं!’ ऐसा क्यों? क्योंकि, ऐसा हमारे सूत्र में आया है।”

“तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? ऐसा कोई हो, पहले जिसने —

  • आँखों से दिखायी देते रूपों का मजा उठाया हो, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो। किन्तु, पश्चात रूपों की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी और (बच निकलने के) निकास मार्ग को यथास्वरूप जान लिया हो, रूप के प्रति तृष्णा को त्याग कर, रूप के प्रति तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त हो, भीतर प्रशांत चित्त से विहार करता हो।

— ऐसे किसी को, मागण्डिय, तुम क्या कहोगे?”

“कुछ भी नहीं, गोतम जी!”

“और, तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? ऐसा कोई हो, पहले जिसने —

  • कान से सुनायी देती आवाज का मजा उठाया हो…
  • नाक से सुँघाई देती गंध का मजा उठाया हो…
  • जीभ से पता चलते स्वाद का मजा उठाया हो…
  • काया से पता चलते संस्पर्श का मजा उठाया हो, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो। किन्तु, पश्चात संस्पर्शों की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी और निकास मार्ग को यथास्वरूप जान लिया हो, संस्पर्श के प्रति तृष्णा को त्याग कर, संस्पर्श के प्रति तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त हो, भीतर प्रशांत चित्त से विहार करता हो।

— ऐसे किसी को, मागण्डिय, तुम क्या कहोगे?”

“कुछ भी नहीं, गोतम जी!”

“मागण्डिय, पहले जब मैं गृहस्थ था, पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए —

  • आँखों से दिखायी देते रूप का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।
  • कान से सुनायी देती आवाज का मजा उठाता था…
  • नाक से सुँघाई देती गंध का मजा उठाता था…
  • जीभ से पता चलते स्वाद का मजा उठाता था…
  • काया से पता चलते संस्पर्श का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।

मेरे लिए, मागण्डिय, तीन महल बने थे — एक शीतकाल के लिए, एक ग्रीष्मकाल के लिए, और एक वर्षाकाल के लिए। और, मागण्डिय, मैं वर्षाकाल के चारों महीने वर्षामहल में रहते हुए गायकी-नर्तकियों द्वारा बहलाया जाता, बिना अन्य पुरुष की उपस्थिति के।

किन्तु, पश्चात, कामुकता की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी और निकास मार्ग को यथास्वरूप जान कर, कामुकता के प्रति तृष्णा को त्याग कर, कामुकता के प्रति तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त हो, अब मैं भीतर प्रशांत चित्त से विहार करता हूँ।

मैं अन्य सत्व, जो कामुकता के प्रति अ-वीतरागी हैं, उन्हें कामुक तृष्णा से चबाए जाते हुए, कामुक ताप में झुलसते हुए, कामुकता का सेवन करते हुए देखता हूँ। मैं उनसे जलता नहीं हूँ, न ही मजा लेता हूँ। ऐसा क्यों?

क्योंकि, ऐसी ‘तुष्टि’ होती है, मागण्डिय, जो कामुकता के अलावा, अकुशल धर्मों के अलावा भी दिव्य सुख के समान स्तर पर खड़ी होती है। उस तुष्टि में डूब कर, लिप्त होकर, मैं हीनता से जलता नहीं हूँ, न ही मजा लेता हूँ।

नन्दन वन की उपमा

कल्पना करो, मागण्डिय, कोई गृहस्थ या गृहस्थ पुत्र अमीर, महाधनी और महासंपत्तिशाली हो, जो पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए —

  • आँखों से दिखायी देते रूप का मजा उठाता हो, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।
  • कान से सुनायी देती आवाज का मजा उठाता हो…
  • नाक से सुँघाई देती गंध का मजा उठाता हो…
  • जीभ से पता चलते स्वाद का मजा उठाता हो…
  • काया से पता चलते संस्पर्श का मजा उठाता हो, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते हो।

— किन्तु, वह काया से सदाचार पालन कर, वाणी से सदाचार पालन कर, मन से सदाचार पालन कर, मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है, तैतीस देवताओं के साथ। वहाँ नन्दन वन में अप्सराओं के संघ से घिरा हुआ, दिव्य पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होता है। वहाँ से वह किसी गृहस्थ या गृहस्थ पुत्र को पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए देखता है।

तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या वह देवपुत्र, नन्दन वन में अप्सराओं के संघ से घिरा हुआ, दिव्य पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए किसी गृहस्थ या गृहस्थ पुत्र को पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए देखकर जलेगा, या उस मानवीय पाँच कामभोग की ओर लौटना चाहेगा?”

“नहीं, गोतम जी। ऐसा क्यों? क्योंकि, गोतम जी, मानवीय कामुकता के आगे दिव्य कामुकता अधिक उत्कृष्ठ है, अधिक उत्तम है!”

“उसी तरह, मागण्डिय, पहले जब मैं गृहस्थ था, पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए —

  • आँखों से दिखायी देते रूप का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।
  • कान से सुनायी देती आवाज का मजा उठाता था…
  • नाक से सुँघाई देती गंध का मजा उठाता था…
  • जीभ से पता चलते स्वाद का मजा उठाता था…
  • काया से पता चलते संस्पर्श का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।

किन्तु, पश्चात, कामुकता की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी और निकास मार्ग को यथास्वरूप जान कर, कामुकता के प्रति तृष्णा को त्याग कर, कामुकता के प्रति तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त हो, अब मैं भीतर प्रशांत चित्त से विहार करता हूँ। मैं अन्य सत्व, जो कामुकता के प्रति अ-वीतरागी हैं, उन्हें कामुक तृष्णा से चबाए जाते हुए, कामुक ताप में झुलसते हुए, कामुकता का सेवन करते हुए देखता हूँ। मैं उनसे जलता नहीं हूँ, न ही मजा लेता हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, ऐसी ‘तुष्टि’ होती है, मागण्डिय, जो कामुकता के अलावा, अकुशल धर्मों के अलावा भी दिव्य सुख के समान स्तर पर खड़ी होती है।

कोढ़ी की पहली उपमा

कल्पना करो, मागण्डिय, कोई कोढ़ी पुरुष हो, जिसका सड़ चुके और पक चुके फोड़ों से भरा शरीर हो, जिसे कीड़े खाते हो। वह घाव के मुख को नाखून से कुरेदता हो और अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करता हो।

तब उसके मित्र, सहचारी और रिश्तेदार उसके लिए शल्य-चिकित्सक वैद्य का इंतजाम करते हैं। वह शल्य-चिकित्सक वैद्य उसकी चिकित्सा करता है। तब चिकित्सा से वह कोढ़ से मुक्त हो जाता है — निरोगी, सुखी, स्वतंत्र, स्वयं अपना मालिक, जहाँ जाना चाहे जा सकता है।

तब वह किसी अन्य कोढ़ी पुरुष को देखता है, जिसका सड़ चुके और पक चुके फोड़ों से भरा शरीर हो, जिसे कीड़े खाते हो। वह घाव के मुख को नाखून से कुरेदता हो और अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करता हो।

तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या वह पुरुष उस कोढ़ी पुरुष को अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करते हुए देखकर, या चिकित्सा होते देखकर जलेगा?”

“नहीं, गोतम जी। ऐसा क्यों? क्योंकि, गोतम जी, रोग होने पर ही चिकित्सा करानी होती है। रोग न हो तो चिकित्सा नहीं करनी होती।”

“उसी तरह, मागण्डिय, पहले जब मैं गृहस्थ था, पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए —

  • आँखों से दिखायी देते रूप का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।
  • कान से सुनायी देती आवाज का मजा उठाता था…
  • नाक से सुँघाई देती गंध का मजा उठाता था…
  • जीभ से पता चलते स्वाद का मजा उठाता था…
  • काया से पता चलते संस्पर्श का मजा उठाता था, जो अच्छे, सुंदर, मनपसंद, आकर्षक, कामुक, ललचाते थे।

किन्तु, पश्चात, कामुकता की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी और निकास मार्ग को यथास्वरूप जान कर, कामुकता के प्रति तृष्णा को त्याग कर, कामुकता के प्रति तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त हो, अब मैं भीतर प्रशांत चित्त से विहार करता हूँ। मैं अन्य सत्व, जो कामुकता के प्रति अ-वीतरागी हैं, उन्हें कामुक तृष्णा से चबाए जाते हुए, कामुक ताप में झुलसते हुए, कामुकता का सेवन करते हुए देखता हूँ। मैं उनसे जलता नहीं हूँ, न ही मजा लेता हूँ। ऐसा क्यों? क्योंकि, ऐसी ‘तुष्टि’ होती है, मागण्डिय, जो कामुकता के अलावा, अकुशल धर्मों के अलावा भी दिव्य सुख के समान स्तर पर खड़ी होती है।

कोढ़ी की दूसरी उपमा

अब कल्पना करो, मागण्डिय, कोई कोढ़ी पुरुष हो, जिसका सड़ चुके और पक चुके फोड़ों से भरा शरीर हो, जिसे कीड़े खाते हो। वह घाव के मुख को नाखून से कुरेदता हो और अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करता हो।

तब उसके मित्र, सहचारी और रिश्तेदार उसके लिए शल्य-चिकित्सक वैद्य का इंतजाम करते हैं। वह शल्य-चिकित्सक वैद्य उसकी चिकित्सा करता है। तब चिकित्सा से वह कोढ़ से मुक्त हो जाता है — निरोगी, सुखी, स्वतंत्र, स्वयं अपना मालिक, जहाँ जाना चाहे जा सकता है।

तब दो बलवान पुरुष आकर उसे बाहों से पकड़कर घसीटते हुए अंगारों के गड्ढे तक लाते हैं। तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या वह पुरुष अपनी काया को इधर-उधर मोड़ेगा?”

“हाँ, गोतम जी। ऐसा क्यों? क्योंकि, गोतम जी, अग्नि का पीड़ादायक स्पर्श बहुत ताप, बहुत दाह भरा होता है।”

“तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या अग्नि का पीड़ादायक स्पर्श अभी बहुत ताप, बहुत दाह भरा है, या पहले भी बहुत ताप, बहुत दाह भरा था?”

“गोतम जी, अग्नि का पीड़ादायक स्पर्श अभी बहुत ताप, बहुत दाह भरा है, और पहले भी बहुत ताप, बहुत दाह भरा ही था। किन्तु, जब वह पुरुष कोढ़ी था, जिसका सड़ चुके और पक चुके फोड़ों से भरा शरीर था, जिसे कीड़े खाते थे, और वह घाव के मुख को नाखून से कुरेदता था — तब उसकी इंद्रियाँ बाधित होने के कारण अग्नि के पीड़ादायक स्पर्श को विपरीत संज्ञा से सुख देखता था।”

उसी तरह, मागण्डिय, अतीत में कामुकता का पीड़ादायक स्पर्श बहुत ताप, बहुत दाह भरा था। भविष्य में कामुकता का पीड़ादायक स्पर्श बहुत ताप, बहुत दाह भरा होगा। और वर्तमान में कामुकता का पीड़ादायक स्पर्श बहुत ताप, बहुत दाह भरा होता है।

मागण्डिय, ये सत्व जो कामुकता के प्रति अ-वीतरागी हैं, कामुक तृष्णा से चबाए जाते हैं, कामुक ताप में झुलसते हैं — उनकी इंद्रियाँ बाधित होने के कारण कामुकता के पीड़ादायक स्पर्श को विपरीत संज्ञा से सुख देखते हैं।

कोढ़ी की तीसरी उपमा

अब कल्पना करो, मागण्डिय, कोई कोढ़ी पुरुष हो, जिसका सड़ चुके और पक चुके फोड़ों से भरा शरीर हो, जिसे कीड़े खाते हो। वह घाव के मुख को नाखून से कुरेदता हो और अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करता हो।

जितना-जितना वह कोढ़ी पुरुष घाव के मुख को नाखून से कुरेदता है, या अपने शरीर को जलते अंगारों से दग्ध करता है, उतना-उतना उसके घाव के मुख अधिक गंदे होते हैं, अधिक दुर्गंध देते हैं, अधिक सड़ते लगते हैं। तब भी उसे थोड़ा अच्छा लगता है, थोड़ा आकर्षण होता है — केवल, घाव के मुख में खुजलाहट के कारण।

उसी तरह, मागण्डिय, जो सत्व कामुकता के प्रति अ-वीतरागी हैं, कामुक तृष्णा से चबाए जाते हुए, कामुक ताप में झुलसते हुए, कामुकता का सेवन करते हैं। जितना-जितना वे कामुकता के प्रति अ-वीतरागी होकर कामुक तृष्णा से चबाए जाते हुए, कामुक ताप में झुलसते हुए, कामुकता का सेवन करते हैं, उतना-उतना उन सत्वों की कामुक तृष्णा बढ़ती है, कामुक ताप में झुलसते जाते हैं। तब भी उन्हें थोड़ा अच्छा लगता है, थोड़ा आकर्षण होता है — केवल, पाँच कामभोग के आधार पर।

तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या तुमने ऐसे राजा या राजमंत्री को देखा या सुना है, जो पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए, कामुक तृष्णा को त्यागे बिना, कामुक तड़प को दूर हटाए बिना, प्यास से मुक्त होकर भीतर प्रशांत चित्त से विहार किया हो, या करता हो, या करेगा?"

“नहीं, गोतम जी!”

“साधु, मागण्डिय! मैंने भी ऐसे किसी राजा या राजमंत्री को न देखा, न सुना है, जो पाँच कामभोग में पूरी तरह डूब कर, लिप्त होकर, सेवित होते हुए, कामुक तृष्णा को त्यागे बिना, कामुक तड़प को दूर हटाए बिना, प्यास से मुक्त होकर भीतर प्रशांत चित्त से विहार किया हो, या करता हो, या करेगा।

बल्कि, मागण्डिय, जितने भी श्रमण-ब्राह्मणों ने प्यास से मुक्त होकर भीतर प्रशांत चित्त से विहार किया हो, या करते हो, या करेंगे, वे सब कामुकता की उत्पत्ति, विलुप्ति, प्रलोभन, खामी, और निकास मार्ग को यथास्वरूप जान कर, कामुक तृष्णा को त्याग कर, कामुक तड़प को दूर हटा कर, प्यास से मुक्त होकर भीतर प्रशांत चित्त से विहार किया हैं, या करते हैं, या करेंगे।”

और, तब भगवान ने उस अवसर पर उदान बोल पड़े —

“आरोग्य परमलाभ है।
निर्वाण परमसुख है।
मार्गों में सुरक्षित — अष्टांगिक,
अमृत में पहुँचाता है।”

जब ऐसा कहा गया, तब मागण्डिय घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, श्रीमान गोतम! अद्भुत है, श्रीमान गोतम! कितना सुभाष्य किया श्रीमान गोतम ने — ‘आरोग्य परमलाभ है। निर्वाण परमसुख है।’ इसे मैंने भी सुना है, श्रीमान गोतम, अतीत के घुमक्कड़ आचार्य-प्राचार्यों को कहते हुए — ‘आरोग्य परमलाभ है। निर्वाण परमसुख है।’ यह, श्रीमान गोतम, उससे सहमत है।”

“किन्तु, मागण्डिय, जब तुमने अतीत के घुमक्कड़ आचार्य-प्राचार्यों को कहते हुए सुना — ‘आरोग्य परमलाभ है। निर्वाण परमसुख है’, तो उसमें आरोग्य क्या है? उसमें निर्वाण क्या है?”

ऐसा कहने पर मागण्डिय घुमक्कड़ ने हाथों से स्वयं के अंगों को रगड़ते हुए कहा, “यह है, गोतम जी, आरोग्य! यह है निर्वाण! क्योंकि मैं अभी निरोगी और सुखी हूँ! मुझे कोई बीमारी नहीं है।”

जन्मांध की पहली उपमा

“मागण्डिय, जैसे कोई पुरुष जन्म से अंधा हो — जो न काला-सफ़ेद रंगरूप देखता है। न नीला रंगरूप देखता है, न पीला रंगरूप देखता है, न लाल रंगरूप देखता है, न मंजिष्ठा, न सम-विषम देखता है, न तारें देखता है, न चाँद-सूरज देखता है। वह किसी चक्षुमान को बोलते हुए सुनता है, ‘हाय, श्वेत वस्त्र कितना बढ़िया होता है! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’

तब वह श्वेत की खोज में निकलता है। उसे कोई पुरुष तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े से चकमा देता है, ‘ओ प्यारे पुरुष, ये रहा तुम्हारे लिए श्वेत वस्त्र! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’

तब वह उसे ग्रहण करता है, ग्रहण कर पहनता है, पहन कर खुश होकर खुशी प्रकट करता है, ‘हाय, कितना बढ़िया होता है श्वेत वस्त्र! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’

तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या उस जन्म से अंधे पुरुष ने जानते हुए और देखते हुए उस तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े को ग्रहण कर.. पहन कर खुशी प्रकट किया… अथवा उस चक्षुमान पर श्रद्धा के मारे?”

“बिना देखे, बिना जाने, गोतम जी, उस जन्म से अंधे पुरुष ने तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े को ग्रहण कर.. पहन कर खुशी प्रकट किया… उस चक्षुमान पर श्रद्धा के मारे!”

“उसी तरह, मागण्डिय, दूसरे संप्रदाय के घुमक्कड़ अंधे हैं, उनकी आँखें नहीं हैं! न आरोग्य जानते हैं, न निर्वाण देखते हैं, किन्तु फिर भी गाथा बोलते हैं — ‘आरोग्य परमलाभ है। निर्वाण परमसुख है!’

इस गाथा को, मागण्डिय, पूर्व के अरहंत सम्यक-सम्बुद्धों ने बोला था —

“आरोग्य परमलाभ है।
निर्वाण परमसुख है।
मार्गों में सुरक्षित — अष्टांगिक,
अमृत में पहुँचाता है।”

धीरे-धीरे अब यह आम-जनता की गाथा बन गयी।

किन्तु, मागण्डिय, यह काया एक रोग है, एक फोड़ा है, एक तीर है, एक व्यथा है, एक परेशानी है। तब भी ऐसी काया, जो एक रोग है, एक फोड़ा है, एक तीर है, एक व्यथा है, एक परेशानी है, तुम उसके बारे में कहते हो — ‘यह आरोग्य है, गोतम जी! यह निर्वाण है!’ मागण्डिय, तुम्हें ‘आर्य-चक्षु’ नहीं है, जिस आर्यचक्षु से तुम आरोग्य जान सको, निर्वाण देख सको।”

“मुझे श्रीमान गोतम पर विश्वास है। श्रीमान गोतम मुझे वह धर्म सिखा सकते हैं, जिससे मैं आरोग्य जान सकूँ, निर्वाण देख सकूँ।”

जन्मांध की दूसरी उपमा

“मागण्डिय, जैसे कोई पुरुष जन्म से अंधा हो — जो न काला-सफ़ेद रंगरूप देखता है। न नीला रंगरूप देखता है, न पीला रंगरूप देखता है, न लाल रंगरूप देखता है, न मंजिष्ठा, न सम-विषम देखता है, न तारें देखता है, न चाँद-सूरज देखता है।

तब उसके मित्र, सहचारी और रिश्तेदार उसके लिए शल्य-चिकित्सक वैद्य का इंतजाम करते हैं। वह शल्य-चिकित्सक वैद्य उसकी चिकित्सा करता है। किन्तु उस चिकित्सा से उसकी चक्षु ठीक नहीं होते हैं, उसकी दृष्टि सुधरती नहीं हैं। तुम्हें क्या लगता है, मागण्डिय? क्या वह वैद्य अंततः थकान और परेशानी के भागी होंगे?’

“हाँ, गोतम जी।”

“उसी तरह, मागण्डिय, यदि मैं तुम्हें धर्म सिखाऊँ — ‘यह आरोग्य है! यह निर्वाण है’, किन्तु तुम उस आरोग्य को जान न सको, उस निर्वाण को देख न सको, तब अंततः मैं थकान और परेशानी का भागी होगा।”

“मुझे श्रीमान गोतम पर विश्वास है। श्रीमान गोतम मुझे वह धर्म सिखा सकते हैं, जिससे मैं आरोग्य जान सकूँ, निर्वाण देख सकूँ।”

जन्मांध की तीसरी उपमा

“मागण्डिय, जैसे कोई पुरुष जन्म से अंधा हो — जो न काला-सफ़ेद रंगरूप देखता है। न नीला रंगरूप देखता है, न पीला रंगरूप देखता है, न लाल रंगरूप देखता है, न मंजिष्ठा, न सम-विषम देखता है, न तारें देखता है, न चाँद-सूरज देखता है। वह किसी चक्षुमान को बोलते हुए सुनता है, ‘हाय, श्वेत वस्त्र कितना बढ़िया होता है! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’

तब वह श्वेत की खोज में निकलता है। उसे कोई पुरुष तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े से चकमा देता है, ‘ओ प्यारे पुरुष, ये रहा तुम्हारे लिए श्वेत वस्त्र! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’ तब वह उसे ग्रहण करता है, ग्रहण कर पहनता है।

तब उसके मित्र, सहचारी और रिश्तेदार उसके लिए शल्य-चिकित्सक वैद्य का इंतजाम करते हैं। वह शल्य-चिकित्सक वैद्य उसकी चिकित्सा करता है। मुख से विरेचन (=जुलाब देकर) कराना, नीचे से विरेचन (=दस्त) कराना, अञ्जन (=मलहम) लगाना, प्रति-अञ्जन लगाना, नाक से दवाई देना। और उस चिकित्सा से उसकी चक्षु ठीक हो जाते हैं, उसकी दृष्टि सुधर जाती हैं।

और उसके चक्षु उत्पन्न होते ही वह उस तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े के लिए चाहत और दिलचस्पी खो देता है। और वह उस पुरुष को मित्र नहीं मानेगा, बल्कि शत्रु मानेगा, और उसको जान से मारने की सोचेगा, ‘दीर्घकाल तक, भाई, इस पुरुष ने मुझे इस तेल-चुपड़े मटमैले कपड़े से फँसाया है, चकमा दिया है, धोखा दिया है — ‘ओ प्यारे पुरुष, ये रहा तुम्हारे लिए श्वेत वस्त्र! बहुत सुंदर, निर्मल और पवित्र!’’

उसी तरह, मागण्डिय, यदि मैं तुम्हें धर्म सिखाऊँ — ‘यह आरोग्य है! यह निर्वाण है’, और तुम उस आरोग्य को जान लेते हो, उस निर्वाण को देख लेते हो, तब चक्षु उत्पन्न होते ही तुम पाँच आधार संग्रह (“पञ्च उपादान खन्ध”) के लिए चाहत और दिलचस्पी खो दोगे। और सोचोगे —

‘दीर्घकाल तक, भाई, इस चित्त ने मुझे फँसाया है, चकमा दिया है, धोखा दिया है। आधार के लिए मैं केवल रूप का ही आधार ले रहा था। आधार के लिए मैं केवल अनुभूति का ही आधार ले रहा था। आधार के लिए मैं केवल संज्ञा का ही आधार ले रहा था। आधार के लिए मैं केवल रचना का ही आधार ले रहा था। आधार के लिए मैं केवल चैतन्य का ही आधार ले रहा था। और मेरी आसक्ति के कारण भव (=अस्तित्व का गठन) हुआ। भव के कारण जन्म हुआ। जन्म के कारण बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा हुई। इसी तरह समस्त दुःख संग्रह की उत्पत्ति होती है।’”

“मुझे श्रीमान गोतम पर विश्वास है। श्रीमान गोतम मुझे वह धर्म सिखा सकते हैं, जिससे मैं इस आसन से अंधत्व हटाकर ही उठूँगा।”

संक्षिप्त निर्देश

“तब, मागण्डिय, तुम सत्पुरुष से संगति करो। जब तुम सत्पुरुष से संगति करोगे, तब सद्धर्म सुनोगे। जब सद्धर्म सुनोगे, तब धर्मानुसार प्रतिपादन (=साधना) करोगे। 2 और, जब तुम धर्मानुसार प्रतिपादन करोगे, तब तुम स्वयं जानोगे, स्वयं देखोगे — ये रोग है, फोड़ा है, तीर है। और यहाँ वह रोग, फोड़ा और तीर निरुद्ध होते हैं। आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है। भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है। जन्म के निरोध से बुढ़ापा, मौत, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा निरुद्ध होते हैं। इस तरह, इस पूरे दुःख के ढ़ेर का निरोध होता है।”

जब ऐसा कहा गया, तब मागण्डिय घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, गोतम जी! अतिउत्तम, गोतम जी! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं श्रीमान गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! गोतम जी, मुझे श्रीमान गोतम के पास प्रवज्जा मिले, और (भिक्षु बनने की) उपसंपदा मिले।”

“मागण्डिय, यदि परधार्मिक व्यक्ति इस धर्म-विनय में प्रवज्जा की आकांक्षा रखता है, उपसंपदा की आकांक्षा रखता, तो उसे (परखने के लिए) चार महीने का परिवास दिया जाता है। चार महीने बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे उसे प्रवज्जा देते हैं, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करते हैं। हालाँकि, मैं इस मामले में व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर पहचानता हूँ।”

“गोतम जी, यदि… चार महीने का परिवास आवश्यक हो, तो मुझे चार वर्ष का परिवास मिले। चार वर्ष बीतने पर, यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे मुझे प्रवज्जा दें, भिक्षु-भाव में उपसंपादित करें।”

तब मागण्डिय घुमक्कड़ को भगवान के पास प्रवज्जा और उपसंपदा मिली।

तब उपसंपदा पाकर अधिक समय नहीं बीता था, जब आयुष्मान मागण्डिय अकेले एकांतवास लेकर अप्रमत्त, तत्पर और समर्पित होकर विहार करने लगे। तब उन्होंने जल्द ही इसी जीवन में स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंजिल पर पहुँचकर स्थित हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं। उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’

इस तरह, आयुष्मान मागण्डिय (अनेक) अर्हन्तों में एक हुए।

सुत्र समाप्त।


  1. इस सूत्र के अलावा एक और “मागण्डिय” का उल्लेख सुत्तनिपात ४.९ में भी मिलता है। वहाँ मागण्डिय अपनी सुंदर कन्या के द्वारा बुद्ध को मोहित करने का प्रयास करता है। उस घटना का उल्लेख संयुत्तनिकाय २२.३ में भी पाया जाता है। अट्ठकथा यह भी स्पष्ट करती है कि इस सुत्त में वर्णित मागण्डिय, सुत्तनिपात ४.९ में आए मागण्डिय का भतीजा था। ↩︎

  2. यहाँ भगवान मागण्डिय को “श्रोतापन्न के चार अंगों” में से तीन को विकसित करने का उपदेश देते हैं। जल-धातु प्रकृति वाले साधकों के लिए ब्रह्मचर्य का पालन इन्हीं तीन अंगों के माध्यम से सार्थक होता है। “श्रोतापन्न के चार अंग” धर्म-मार्ग पर प्रारंभिक प्रवेश के लिए अनिवार्य माने गए हैं, क्योंकि इन्हीं से साधक की प्रेरणा, कुशलता, आस्था, समझ और अभ्यास की नींव सुदृढ़ होती है। उनके विषय में अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका पढ़ें — शुरुवात कैसे करें? ↩︎

Pali

२०७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कुरूसु विहरति कम्मासधम्मं नाम कुरूनं निगमो, भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारे तिणसन्थारके [तिणसन्थरके (सी. स्या. कं. पी.)]. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय कम्मासधम्मं पिण्डाय पाविसि. कम्मासधम्मं पिण्डाय चरित्वा पच्छाभत्तं पिण्डपातपटिक्कन्तो येन अञ्ञतरो वनसण्डो तेनुपसङ्कमि दिवाविहाराय. तं वनसण्डं अज्झोगाहेत्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि. अथ खो मागण्डियो [मागन्दियो (सी. पी.)] परिब्बाजको जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारं तेनुपसङ्कमि. अद्दसा खो मागण्डियो परिब्बाजको भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारे तिणसन्थारकं पञ्ञत्तं. दिस्वान भारद्वाजगोत्तं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘कस्स न्वयं भोतो भारद्वाजस्स अग्यागारे तिणसन्थारको पञ्ञत्तो, समणसेय्यानुरूपं [समणसेय्यारूपं (सी. पी.)] मञ्ञे’’ति? ‘‘अत्थि, भो मागण्डिय, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो. तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति. तस्सेसा भोतो गोतमस्स सेय्या पञ्ञत्ता’’ति. ‘‘दुद्दिट्ठं वत, भो भारद्वाज, अद्दसाम; दुद्दिट्ठं वत, भो भारद्वाज, अद्दसाम! ये मयं तस्स भोतो गोतमस्स भूनहुनो [भूनहनस्स (स्या. कं.)] सेय्यं अद्दसामा’’ति. ‘‘रक्खस्सेतं, मागण्डिय, वाचं; रक्खस्सेतं , मागण्डिय, वाचं. बहू हि तस्स भोतो गोतमस्स खत्तियपण्डितापि ब्राह्मणपण्डितापि गहपतिपण्डितापि समणपण्डितापि अभिप्पसन्ना विनीता अरिये ञाये धम्मे कुसले’’ति. ‘‘सम्मुखा चेपि मयं, भो भारद्वाज, तं भवन्तं गोतमं पस्सेय्याम, सम्मुखापि नं वदेय्याम – ‘भूनहु [भूनहनो (स्या. कं.)] समणो गोतमो’ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि नो सुत्ते ओचरती’’ति. ‘‘सचे तं भोतो मागण्डियस्स अगरु आरोचेय्यामि तं [आरोचेय्यमेतं (सी. पी.), आरोचेस्सामि तस्स (स्या. कं.)] समणस्स गोतमस्सा’’ति. ‘‘अप्पोस्सुक्को भवं भारद्वाजो वुत्तोव नं वदेय्या’’ति.

२०८. अस्सोसि खो भगवा दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स मागण्डियेन परिब्बाजकेन सद्धिं इमं कथासल्लापं. अथ खो भगवा सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा निसीदि भगवा पञ्ञत्ते तिणसन्थारके. अथ खो भारद्वाजगोत्तो ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो भारद्वाजगोत्तं ब्राह्मणं भगवा एतदवोच – ‘‘अहु पन ते, भारद्वाज, मागण्डियेन परिब्बाजकेन सद्धिं इमंयेव तिणसन्थारकं आरब्भ कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? एवं वुत्ते, भारद्वाजगोत्तो ब्राह्मणो संविग्गो लोमहट्ठजातो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतदेव खो पन मयं भोतो गोतमस्स आरोचेतुकामा. अथ च पन भवं गोतमो अनक्खातंयेव अक्खासी’’ति. अयञ्च हि [अयञ्च हिदं (सी. स्या. कं. पी.)] भगवतो भारद्वाजगोत्तेन ब्राह्मणेन सद्धिं अन्तराकथा विप्पकता होति. अथ खो मागण्डियो परिब्बाजको जङ्घाविहारं अनुचङ्कममानो अनुविचरमानो येन भारद्वाजगोत्तस्स ब्राह्मणस्स अग्यागारं येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो मागण्डियं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच –

२०९. ‘‘चक्खुं खो, मागण्डिय, रूपारामं रूपरतं रूपसम्मुदितं. तं तथागतस्स दन्तं गुत्तं रक्खितं संवुतं, तस्स च संवराय धम्मं देसेति. इदं नु ते एतं, मागण्डिय, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’’’ति? ‘‘एतदेव खो पन मे, भो गोतम, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि नो सुत्ते ओचरती’’ति. ‘‘सोतं खो, मागण्डिय, सद्दारामं…पे… घानं खो, मागण्डिय गन्धारामं… जिव्हा खो, मागण्डिय, रसारामा रसरता रससम्मुदिता. सा तथागतस्स दन्ता गुत्ता रक्खिता संवुता, तस्सा च संवराय धम्मं देसेति. इदं नु ते एतं, मागण्डिय, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’’’ति? ‘‘एतदेव खो पन मे, भो गोतम, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि नो सुत्ते ओचरती’’ति. ‘‘कायो खो, मागण्डिय, फोट्ठब्बारामो फोट्ठब्बरतो…पे… मनो खो, मागण्डिय, धम्मारामो धम्मरतो धम्मसम्मुदितो. सो तथागतस्स दन्तो गुत्तो रक्खितो संवुतो, तस्स च संवराय धम्मं देसेति. इदं नु ते एतं, मागण्डिय, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’’’ति? ‘‘एतदेव खो पन मे, भो गोतम, सन्धाय भासितं – ‘भूनहु समणो गोतमो’ति. तं किस्स हेतु? एवञ्हि नो सुत्ते ओचरती’’ति.

२१०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय – ‘इधेकच्चो चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि परिचारितपुब्बो अस्स इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सो अपरेन समयेन रूपानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा रूपतण्हं पहाय रूपपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहरेय्य. इमस्स पन ते, मागण्डिय, किमस्स वचनीय’’’न्ति? ‘‘न किञ्चि, भो गोतम’’. ‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय – ‘इधेकच्चो सोतविञ्ञेय्येहि सद्देहि…पे… घानविञ्ञेय्येहि गन्धेहि… जिव्हाविञ्ञेय्येहि रसेहि… कायविञ्ञेय्येहि फोट्ठब्बेहि परिचारितपुब्बो अस्स इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सो अपरेन समयेन फोट्ठब्बानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा फोट्ठब्बतण्हं पहाय फोट्ठब्बपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहरेय्य. इमस्स पन ते, मागण्डिय, किमस्स वचनीय’’’न्ति? ‘‘न किञ्चि, भो गोतम’’.

२११. ‘‘अहं खो पन, मागण्डिय, पुब्बे अगारियभूतो समानो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेसिं चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सोतविञ्ञेय्येहि सद्देहि…पे… घानविञ्ञेय्येहि गन्धेहि… जिव्हाविञ्ञेय्येहि रसेहि… कायविञ्ञेय्येहि फोट्ठब्बेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि. तस्स मय्हं, मागण्डिय, तयो पासादा अहेसुं – एको वस्सिको, एको हेमन्तिको, एको गिम्हिको. सो खो अहं, मागण्डिय, वस्सिके पासादे वस्सिके चत्तारो [वस्सिके पासादे चत्तारो (स्या. कं.)] मासे निप्पुरिसेहि तूरियेहि [तुरियेहि (सी. स्या. कं. पी.)] परिचारयमानो [परिचारियमानो (सब्बत्थ)] न हेट्ठापासादं ओरोहामि. सो अपरेन समयेन कामानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा कामतण्हं पहाय कामपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहरामि. सो अञ्ञे सत्ते पस्सामि कामेसु अवीतरागे कामतण्हाहि खज्जमाने कामपरिळाहेन परिडय्हमाने कामे पटिसेवन्ते. सो तेसं न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि . तं किस्स हेतु? याहयं, मागण्डिय, रति, अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि – अपि दिब्बं सुखं समधिगय्ह तिट्ठति – ताय रतिया रममानो हीनस्स न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि.

२१२. ‘‘सेय्यथापि, मागण्डिय, गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अड्ढो महद्धनो महाभोगो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेय्य चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि…पे… फोट्ठब्बेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि. सो कायेन सुचरितं चरित्वा वाचाय सुचरितं चरित्वा मनसा सुचरितं चरित्वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्य देवानं तावतिंसानं सहब्यतं. सो तत्थ नन्दने वने अच्छरासङ्घपरिवुतो दिब्बेहि पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेय्य. सो पस्सेय्य गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गीभूतं परिचारयमानं.

‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, अपि नु सो देवपुत्तो नन्दने वने अच्छरासङ्घपरिवुतो दिब्बेहि पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारयमानो अमुस्स गहपतिस्स वा गहपतिपुत्तस्स वा पिहेय्य, मानुसकानं वा पञ्चन्नं कामगुणानं मानुसकेहि वा कामेहि आवट्टेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’. तं किस्स हेतु? मानुसकेहि, भो गोतम, कामेहि दिब्बकामा अभिक्कन्ततरा च पणीततरा चा’’ति. ‘‘एवमेव खो अहं, मागण्डिय, पुब्बे अगारियभूतो समानो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेसिं चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सोतविञ्ञेय्येहि सद्देहि…पे… घानविञ्ञेय्येहि गन्धेहि… जिव्हाविञ्ञेय्येहि रसेहि… कायविञ्ञेय्येहि फोट्ठब्बेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि. सो अपरेन समयेन कामानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा कामतण्हं पहाय कामपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहरामि. सो अञ्ञे सत्ते पस्सामि कामेसु अवीतरागे कामतण्हाहि खज्जमाने कामपरिळाहेन परिडय्हमाने कामे पटिसेवन्ते, सो तेसं न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि. तं किस्स हेतु? याहयं, मागण्डिय, रति अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि – अपि दिब्बं सुखं समधिगय्ह तिट्ठति – ताय रतिया रममानो हीनस्स न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि.

२१३. ‘‘सेय्यथापि , मागण्डिय, कुट्ठी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानो अङ्गारकासुया कायं परितापेय्य. तस्स मित्तामच्चा ञातिसालोहिता भिसक्कं सल्लकत्तं उपट्ठापेय्युं. तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो भेसज्जं करेय्य. सो तं भेसज्जं आगम्म कुट्ठेहि परिमुच्चेय्य, अरोगो अस्स सुखी सेरी सयंवसी येन कामं गमो. सो अञ्ञं कुट्ठिं पुरिसं पस्सेय्य अरुगत्तं पक्कगत्तं किमीहि खज्जमानं नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानं अङ्गारकासुया कायं परितापेन्तं.

‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, अपि नु सो पुरिसो अमुस्स कुट्ठिस्स पुरिसस्स पिहेय्य अङ्गारकासुया वा भेसज्जं पटिसेवनाय वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम. तं किस्स हेतु? रोगे हि, भो गोतम, सति भेसज्जेन करणीयं होति, रोगे असति न भेसज्जेन करणीयं होती’’ति. ‘‘एवमेव खो अहं, मागण्डिय, पुब्बे अगारियभूतो समानो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेसिं, चक्खुविञ्ञेय्येहि रूपेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि, सोतविञ्ञेय्येहि सद्देहि…पे… घानविञ्ञेय्येहि गन्धेहि… जिव्हाविञ्ञेय्येहि रसेहि… कायविञ्ञेय्येहि फोट्ठब्बेहि इट्ठेहि कन्तेहि मनापेहि पियरूपेहि कामूपसंहितेहि रजनीयेहि. सो अपरेन समयेन कामानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा कामतण्हं पहाय कामपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहरामि. सो अञ्ञे सत्ते पस्सामि कामेसु अवीतरागे कामतण्हाहि खज्जमाने कामपरिळाहेन परिडय्हमाने कामे पटिसेवन्ते. सो तेसं न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि. तं किस्स हेतु? याहयं, मागण्डिय, रति, अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेहि – अपि दिब्बं सुखं समधिगय्ह तिट्ठति – ताय रतिया रममानो हीनस्स न पिहेमि, न तत्थ अभिरमामि.

२१४. ‘‘सेय्यथापि , मागण्डिय, कुट्ठी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानो अङ्गारकासुया कायं परितापेय्य. तस्स मित्तामच्चा ञातिसालोहिता भिसक्कं सल्लकत्तं उपट्ठापेय्युं. तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो भेसज्जं करेय्य. सो तं भेसज्जं आगम्म कुट्ठेहि परिमुच्चेय्य, अरोगो अस्स सुखी सेरी सयंवसी येन कामं गमो. तमेनं द्वे बलवन्तो पुरिसा नानाबाहासु गहेत्वा अङ्गारकासुं उपकड्ढेय्युं.

‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, अपि नु सो पुरिसो इति चितिचेव कायं सन्नामेय्या’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’. ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘असु हि, भो गोतम, अग्गि दुक्खसम्फस्सो चेव महाभितापो च महापरिळाहो चा’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, इदानेव नु खो सो अग्गि दुक्खसम्फस्सो चेव महाभितापो च महापरिळाहो च उदाहु पुब्बेपि सो अग्गि दुक्खसम्फस्सो चेव महाभितापो च महापरिळाहो चा’’ति ? ‘‘इदानि चेव, भो गोतम, सो अग्गि दुक्खसम्फस्सो चेव महाभितापो च महापरिळाहो च, पुब्बेपि सो अग्गि दुक्खसम्फस्सो चेव महाभितापो च महापरिळाहो च. असु च [असु हि च (सी. पी.)], भो गोतम, कुट्ठी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानो उपहतिन्द्रियो दुक्खसम्फस्सेयेव अग्गिस्मिं सुखमिति विपरीतसञ्ञं पच्चलत्था’’ति. ‘‘एवमेव खो, मागण्डिय, अतीतम्पि अद्धानं कामा दुक्खसम्फस्सा चेव महाभितापा च महापरिळाहा च, अनागतम्पि अद्धानं कामा दुक्खसम्फस्सा चेव महाभितापा च महापरिळाहा च, एतरहिपि पच्चुप्पन्नं अद्धानं कामा दुक्खसम्फस्सा चेव महाभितापा च महापरिळाहा च. इमे च, मागण्डिय, सत्ता कामेसु अवीतरागा कामतण्हाहि खज्जमाना कामपरिळाहेन परिडय्हमाना उपहतिन्द्रिया दुक्खसम्फस्सेसुयेव कामेसु सुखमिति विपरीतसञ्ञं पच्चलत्थुं.

२१५. ‘‘सेय्यथापि, मागण्डिय, कुट्ठी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानो अङ्गारकासुया कायं परितापेति. यथा यथा खो, मागण्डिय, असु कुट्ठी पुरिसो अरुगत्तो पक्कगत्तो किमीहि खज्जमानो नखेहि वणमुखानि विप्पतच्छमानो अङ्गारकासुया कायं परितापेति तथा तथा’स्स [तथा तथा तस्सेव (स्या. कं. क.)] तानि वणमुखानि असुचितरानि चेव होन्ति दुग्गन्धतरानि च पूतिकतरानि च , होति चेव काचि सातमत्ता अस्सादमत्ता – यदिदं वणमुखानं कण्डूवनहेतु; एवमेव खो, मागण्डिय, सत्ता कामेसु अवीतरागा कामतण्हाहि खज्जमाना कामपरिळाहेन च परिडय्हमाना कामे पटिसेवन्ति. यथा यथा खो, मागण्डिय, सत्ता कामेसु अवीतरागा कामतण्हाहि खज्जमाना कामपरिळाहेन च परिडय्हमाना कामे पटिसेवन्ति तथा तथा तेसं तेसं सत्तानं कामतण्हा चेव पवड्ढति, कामपरिळाहेन च परिडय्हन्ति, होति चेव सातमत्ता अस्सादमत्ता – यदिदं पञ्चकामगुणे पटिच्च.

‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, अपि नु ते दिट्ठो वा सुतो वा राजा वा राजमहामत्तो वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारयमानो कामतण्हं अप्पहाय कामपरिळाहं अप्पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहासि वा विहरति वा विहरिस्सति वा’’ति ? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’. ‘‘साधु, मागण्डिय! मयापि खो एतं, मागण्डिय, नेव दिट्ठं न सुतं राजा वा राजमहामत्तो वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारयमानो कामतण्हं अप्पहाय कामपरिळाहं अप्पटिविनोदेत्वा विगतपिपासो अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो विहासि वा विहरति वा विहरिस्सति वा. अथ खो, मागण्डिय, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा विगतपिपासा अज्झत्तं वूपसन्तचित्ता विहासुं वा विहरन्ति वा विहरिस्सन्ति वा सब्बे ते कामानंयेव समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा कामतण्हं पहाय कामपरिळाहं पटिविनोदेत्वा विगतपिपासा अज्झत्तं वूपसन्तचित्ता विहासुं वा विहरन्ति वा विहरिस्सन्ति वा’’ति. अथ खो भगवा तायं वेलायं इमं उदानं उदानेसि –

‘‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुखं;

अट्ठङ्गिको च मग्गानं, खेमं अमतगामिन’’न्ति.

२१६. एवं वुत्ते, मागण्डियो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भो गोतम, अब्भुतं, भो गोतम! याव सुभासितं चिदं भोता गोतमेन – ‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुख’न्ति. मयापि खो एतं, भो गोतम, सुतं पुब्बकानं परिब्बाजकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुख’न्ति; तयिदं, भो गोतम, समेती’’ति. ‘‘यं पन ते एतं, मागण्डिय, सुतं पुब्बकानं परिब्बाजकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुख’न्ति, कतमं तं आरोग्यं, कतमं तं निब्बान’’न्ति? एवं वुत्ते, मागण्डियो परिब्बाजको सकानेव सुदं गत्तानि पाणिना अनोमज्जति – ‘‘इदन्तं, भो गोतम, आरोग्यं, इदन्तं निब्बानं. अहञ्हि, भो गोतम, एतरहि अरोगो सुखी, न मं किञ्चि आबाधती’’ति.

२१७. ‘‘सेय्यथापि, मागण्डिय, जच्चन्धो पुरिसो; सो न पस्सेय्य कण्हसुक्कानि रूपानि, न पस्सेय्य नीलकानि रूपानि, न पस्सेय्य पीतकानि रूपानि, न पस्सेय्य लोहितकानि रूपानि, न पस्सेय्य मञ्जिट्ठकानि [मञ्जेट्ठिकानि (सी. स्या. कं. पी.), मञ्जेट्ठकानि (क.)] रूपानि, न पस्सेय्य समविसमं, न पस्सेय्य तारकरूपानि, न पस्सेय्य चन्दिमसूरिये. सो सुणेय्य चक्खुमतो भासमानस्स – ‘छेकं वत, भो , ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति! सो ओदातपरियेसनं चरेय्य. तमेनं अञ्ञतरो पुरिसो तेलमलिकतेन साहुळिचीरेन [तेलमसिकतेन साहुळचीवरेन (सी. स्या. कं. पी.)] वञ्चेय्य – ‘इदं ते, अम्भो पुरिस, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति. सो तं पटिग्गण्हेय्य, पटिग्गहेत्वा पारुपेय्य, पारुपेत्वा अत्तमनो अत्तमनवाचं निच्छारेय्य – ‘छेकं वत, भो, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति!

‘‘तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, अपि नु सो जच्चन्धो पुरिसो जानन्तो पस्सन्तो अमुं तेलमलिकतं साहुळिचीरं पटिग्गण्हेय्य, पटिग्गहेत्वा पारुपेय्य, पारुपेत्वा अत्तमनो अत्तमनवाचं निच्छारेय्य – ‘छेकं वत, भो, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति उदाहु चक्खुमतो सद्धाया’’ति? ‘‘अजानन्तो हि, भो गोतम, अपस्सन्तो सो जच्चन्धो पुरिसो अमुं तेलमलिकतं साहुळिचीरं पटिग्गण्हेय्य, पटिग्गहेत्वा पारुपेय्य, पारुपेत्वा अत्तमनो अत्तमनवाचं निच्छारेय्य – ‘छेकं वत, भो, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति, चक्खुमतो सद्धाया’’ति. ‘‘एवमेव खो, मागण्डिय, अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका अजानन्ता आरोग्यं, अपस्सन्ता निब्बानं , अथ च पनिमं गाथं भासन्ति – ‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुख’न्ति. पुब्बकेहेसा, मागण्डिय, अरहन्तेहि सम्मासम्बुद्धेहि गाथा भासिता –

‘आरोग्यपरमा लाभा, निब्बानं परमं सुखं;

अट्ठङ्गिको च मग्गानं, खेमं अमतगामिन’न्ति.

२१८. ‘‘सा एतरहि अनुपुब्बेन पुथुज्जनगाथा [पुथुज्जनगता (सी. पी.)]. अयं खो पन, मागण्डिय, कायो रोगभूतो गण्डभूतो सल्लभूतो अघभूतो आबाधभूतो, सो त्वं इमं कायं रोगभूतं गण्डभूतं सल्लभूतं अघभूतं आबाधभूतं – ‘इदन्तं, भो गोतम, आरोग्यं, इदन्तं निब्बान’न्ति वदेसि. तञ्हि ते, मागण्डिय, अरियं चक्खुं नत्थि येन त्वं अरियेन चक्खुना आरोग्यं जानेय्यासि, निब्बानं पस्सेय्यासी’’ति. ‘‘एवं पसन्नो अहं भोतो गोतमस्स! पहोति मे भवं गोतमो तथा धम्मं देसेतुं यथाहं आरोग्यं जानेय्यं, निब्बानं पस्सेय्य’’न्ति.

२१९. ‘‘सेय्यथापि , मागण्डिय, जच्चन्धो पुरिसो; सो न पस्सेय्य कण्हसुक्कानि रूपानि, न पस्सेय्य नीलकानि रूपानि, न पस्सेय्य पीतकानि रूपानि, न पस्सेय्य लोहितकानि रूपानि, न पस्सेय्य मञ्जिट्ठकानि रूपानि, न पस्सेय्य समविसमं, न पस्सेय्य तारकरूपानि, न पस्सेय्य चन्दिमसूरिये. तस्स मित्तामच्चा ञातिसालोहिता भिसक्कं सल्लकत्तं उपट्ठापेय्युं. तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो भेसज्जं करेय्य. सो तं भेसज्जं आगम्म न चक्खूनि उप्पादेय्य, न चक्खूनि विसोधेय्य. तं किं मञ्ञसि, मागण्डिय, ननु सो वेज्जो यावदेव किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति? ‘‘एवं, भो गोतम’’. ‘‘एवमेव खो, मागण्डिय, अहञ्चे ते धम्मं देसेय्यं – ‘इदन्तं आरोग्यं, इदन्तं निब्बान’न्ति, सो त्वं आरोग्यं न जानेय्यासि, निब्बानं न पस्सेय्यासि. सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’’ति. ‘‘एवं पसन्नो अहं भोतो गोतमस्स. पहोति मे भवं गोतमो तथा धम्मं देसेतुं यथाहं आरोग्यं जानेय्यं, निब्बानं पस्सेय्य’’न्ति.

२२०. ‘‘सेय्यथापि, मागण्डिय, जच्चन्धो पुरिसो; सो न पस्सेय्य कण्हसुक्कानि रूपानि, न पस्सेय्य नीलकानि रूपानि, न पस्सेय्य पीतकानि रूपानि, न पस्सेय्य लोहितकानि रूपानि, न पस्सेय्य मञ्जिट्ठकानि रूपानि, न पस्सेय्य समविसमं, न पस्सेय्य तारकरूपानि, न पस्सेय्य चन्दिमसूरिये. सो सुणेय्य चक्खुमतो भासमानस्स – ‘छेकं वत, भो, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति! सो ओदातपरियेसनं चरेय्य. तमेनं अञ्ञतरो पुरिसो तेलमलिकतेन साहुळिचीरेन वञ्चेय्य – ‘इदं ते, अम्भो पुरिस, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति. सो तं पटिग्गण्हेय्य, पटिग्गहेत्वा पारुपेय्य. तस्स मित्तामच्चा ञातिसालोहिता भिसक्कं सल्लकत्तं उपट्ठापेय्युं. तस्स सो भिसक्को सल्लकत्तो भेसज्जं करेय्य – उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं अञ्जनं पच्चञ्जनं नत्थुकम्मं. सो तं भेसज्जं आगम्म चक्खूनि उप्पादेय्य, चक्खूनि विसोधेय्य. तस्स सह चक्खुप्पादा यो अमुस्मिं तेलमलिकते साहुळिचीरे छन्दरागो सो पहीयेथ. तञ्च नं पुरिसं अमित्ततोपि दहेय्य, पच्चत्थिकतोपि दहेय्य, अपि च जीविता वोरोपेतब्बं मञ्ञेय्य – ‘दीघरत्तं वत, भो, अहं इमिना पुरिसेन तेलमलिकतेन साहुळिचीरेन निकतो वञ्चितो पलुद्धो – इदं ते, अम्भो पुरिस, ओदातं वत्थं अभिरूपं निम्मलं सुची’ति. एवमेव खो, मागण्डिय, अहञ्चे ते धम्मं देसेय्यं – ‘इदन्तं आरोग्यं, इदन्तं निब्बान’न्ति. सो त्वं आरोग्यं जानेय्यासि, निब्बानं पस्सेय्यासि. तस्स ते सह चक्खुप्पादा यो पञ्चसुपादानक्खन्धेसु छन्दरागो सो पहीयेथ; अपि च ते एवमस्स – ‘दीघरत्तं वत, भो, अहं इमिना चित्तेन निकतो वञ्चितो पलुद्धो [पलद्धो (सी. पी.)]. अहञ्हि रूपंयेव उपादियमानो उपादियिं, वेदनंयेव उपादियमानो उपादियिं, सञ्ञंयेव उपादियमानो उपादियिं, सङ्खारेयेव उपादियमानो उपादियिं, विञ्ञाणंयेव उपादियमानो उपादियिं. तस्स मे उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति; एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स समुदयो होती’’’ति. ‘‘एवं पसन्नो अहं भोतो गोतमस्स! पहोति मे भवं गोतमो तथा धम्मं देसेतुं यथाहं इमम्हा आसना अनन्धो वुट्ठहेय्य’’न्ति.

२२१. ‘‘तेन हि त्वं, मागण्डिय, सप्पुरिसे भजेय्यासि. यतो खो त्वं, मागण्डिय, सप्पुरिसे भजिस्ससि ततो त्वं, मागण्डिय, सद्धम्मं सोस्ससि; यतो खो त्वं, मागण्डिय, सद्धम्मं सोस्ससि ततो त्वं, मागण्डिय, धम्मानुधम्मं पटिपज्जिस्ससि; यतो खो त्वं, मागण्डिय, धम्मानुधम्मं पटिपज्जिस्ससि ततो त्वं, मागण्डिय, सामंयेव ञस्ससि, सामं दक्खिस्ससि – इमे रोगा गण्डा सल्ला; इध रोगा गण्डा सल्ला अपरिसेसा निरुज्झन्ति. तस्स मे उपादाननिरोधा भवनिरोधो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, जातिनिरोधा जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा निरुज्झन्ति; एवमेतस्स केवलस्स दुक्खक्खन्धस्स निरोधो होती’’ति.

२२२. एवं वुत्ते, मागण्डियो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्तीति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च . लभेय्याहं भोतो गोतमस्स सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति. ‘‘यो खो, मागण्डिय, अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति; चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति , उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय. अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता’’ति. ‘‘सचे, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खन्ता पब्बज्जं, आकङ्खन्ता उपसम्पदं चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय; अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि, चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु, उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया’’ति . अलत्थ खो मागण्डियो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं. अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा मागण्डियो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासि. अञ्ञतरो खो पनायस्मा मागण्डियो अरहतं अहोसीति.

मागण्डियसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.