ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कौशांबी के घोषित उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय सन्दक घुमक्कड़ पाँच सौ घुमक्कड़ों की विशाल घुमक्कड़-परिषद के साथ प्लक्षगुफा में निवास करता था।
तब, सायंकाल होने पर आयुष्मान आनन्द ने एकांतवास से निकलकर भिक्षुओं को संबोधित किया, “चलो मित्रों, देवकत तालाब के पास जाकर गुफा का दर्शन करे।” 1
“ठीक है, मित्र।” भिक्षुओं ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया। तब आयुष्मान आनन्द बहुत से भिक्षुओं के साथ देवकत तालाब के पास गए।
उस समय सन्दक घुमक्कड़, विशाल घुमक्कड़ों की परिषद के साथ बैठकर चीखते-चिल्लाते, शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।
तब सन्दक घुमक्कड़ ने आयुष्मान आनन्द को दूर से आते हुए देखा। देखकर अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ श्रमण गौतम के श्रावक श्रमण आनन्द आ रहे हैं। श्रमण गोतम के जितने श्रावक कौशांबी में निवास करते हैं, उनमें से एक आयुष्मान आनन्द हैं। इन आयुष्मानों को कम बोलना पसंद है, कम बोलने में अभ्यस्त हैं, कम बोलने की प्रशंसा करते हैं। संभव है, अपनी परिषद को कम बोलते देख यहाँ आए।”
ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।
तब आयुष्मान आनन्द सन्दक घुमक्कड़ के पास गए। सन्दक घुमक्कड़ ने आयुष्मान आनन्द से कहा, “आईये, श्रीमान आनन्द! स्वागत है, श्रीमान आनन्द! बहुत दिन बीतें, जो आयुष्मान आनन्द ने यहाँ आने का अवसर लिया। बैठिए, आयुष्मान आनन्द, यहाँ आसन बिछा है।”
आयुष्मान आनन्द बिछे आसन पर बैठ गए। सन्दक घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे बिछाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सन्दक घुमक्कड़ को आयुष्मान आनन्द ने कहा, “अभी यहाँ बैठकर, सन्दक, क्या चर्चा कर रहे थे? कौन सी चर्चा अधूरी रह गई?”
“छोड़िए इस बात को, आनन्द जी, कि अभी हम बैठकर क्या चर्चा कर रहे थे। ऐसी चर्चा को बाद में सुनना दुर्लभ नहीं है। अच्छा होगा, जो श्रीमान आनन्द अपने आचार्य की धर्मचर्चा सुनाएँ।"
“ठीक है, सन्दक। ध्यान देकर गौर से सुनो, मैं बताता हूँ।”
“ठीक है, श्रीमान।” सन्दक घुमक्कड़ ने आयुष्मान आनन्द को उत्तर दिया। आयुष्मान आनन्द ने कहा —
“भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, चार प्रकार के अ-ब्रह्मचर्य जीवन बताते हैं, और चार प्रकार के अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य बताते हैं। कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।”
“किन्तु, आनन्द जी, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, वे कौन से चार प्रकार के अ-ब्रह्मचर्य जीवन बताते हैं, और कौन से चार प्रकार के अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य बताते हैं?…”
“सन्दक, किसी शास्ता (=गुरु) का ऐसा सिद्धांत होता है, ऐसी दृष्टि होती है कि — “दान (का फल) नहीं है। चढ़ावा नहीं है। आहुति नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते (“ओपपातिक”) सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।
चार महाभूतों से बना मानव जब मरता है तो पृथ्वी लौटकर (बाहरी) पृथ्वीधातु में विलीन हो जाती है, जल लौटकर जलधातु में विलीन हो जाती है, अग्नि लौटकर अग्निधातु में विलीन हो जाती है, वायु लौटकर वायुधातु में विलीन हो जाती है, और इन्द्रियाँ आकाश में बिखर जाती हैं। लाश को चार पुरुष अरथी पर लिटाकर ले जाते हैं, और केवल श्मशानघाट तक ही उसकी बातें करते हैं। हड्डियाँ कबूतर के रंग की हो जाती हैं। और सारी दक्षिणा भस्म हो जाती है।
दान की प्रेरणा मूर्ख देते हैं। मरणोपरान्त अस्तित्व की बातें झूठी हैं, खोखली बकवास हैं। मरणोपरान्त काया छूटने पर पंडित और मूर्ख दोनों का ही उच्छेद (=विलोप) होता है, विनाश होता है, मरणोपरान्त अस्तित्व नहीं होता है।” 2
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “इस शास्ता का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि ‘दान नहीं है। चढ़ावा नहीं है… मरणोपरान्त अस्तित्व नहीं होता है।’ यदि यह शास्ता सच कहता है, तो बिना (कुशल) किए भी मैंने कर लिया, बिना (ब्रह्मचर्य) पालन किए भी मैंने पालन कर लिया। और (यह शास्ता और मैं) हम दोनों ही एक समान श्रमण्यता प्राप्त हैं।
हालाँकि मैं नहीं कहता हूँ कि ‘मरणोपरान्त काया छूटने पर (पंडित और मूर्ख) दोनों का ही उच्छेद होता है, विनाश होता है, मरणोपरान्त अस्तित्व नहीं होता है।’ बल्कि इस शास्ता का अतिरेक होता है, जब वह नंगा रहता है, मुंडन करता है, उकड़ूँ बैठने का श्रम करता है, केश और दाढ़ी नोचता है। जबकि मैं घर में रहते, स्त्रियों और बालबच्चों से घिरे रहते, काशी के महँगे वस्त्र पहनते, चन्दन लगाते, माला पहनते, गंध और लेप लगाते, स्वर्ण और रुपये संभालते हुए भी मरणोपरांत इस शास्ता के ही समान गति पाऊँगा।
तब भला मैं क्या जानकर, क्या देखकर इस शास्ता के ब्रह्मचर्य का पालन करूँ? यह तो अ-ब्रह्मचर्य जीवन है!” ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस पहले प्रकार का अ-ब्रह्मचर्य जीवन, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, किसी शास्ता का ऐसा सिद्धांत होता है, ऐसी दृष्टि होती है कि — “(दुष्कर्म स्वयं) करने या (किसी अन्य से) कराने में, (किसी को) काटने या कटाने में, यातना देने या दिलाने में, शोक देने या दिलाने में, पीड़ा देने या दिलाने में, भयभीत करने या कराने में, हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में कोई पाप नहीं होता।
यदि कोई इस धरातल के तमाम जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के दाँए तट पर जीवों को मारते-मरवाते, काटते-कटवाते, यातना और प्रताड़ना देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के बाएँ तट पर जीवों को दान देते-दिलवाते, बलिदान देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पुण्य नहीं होगा, उसका कभी भला परिणाम नहीं आएगा। दान से, (स्वयं पर) काबू पाने से, (इंद्रिय) संयम से, सत्यवाणी से पुण्य नहीं होता है, उसका कभी भला परिणाम नहीं आता है।” 3
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “इस शास्ता का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि ‘करने या कराने में, काटने या कटाने में… दान से, काबू पाने से, संयम से, सत्यवाणी से पुण्य नहीं होता है, उसका कभी भला परिणाम नहीं आता है।’
यदि यह शास्ता सच कहता है, तो बिना किए भी मैंने कर लिया, बिना पालन किए भी मैंने पालन कर लिया। और हम दोनों ही एक समान श्रमण्यता प्राप्त हैं।
हालाँकि मैं नहीं कहता हूँ कि ‘जब दोनों करते हैं तो पाप नहीं होता।’ बल्कि इस शास्ता का अतिरेक होता है, जब वह नंगा रहता है, मुंडन करता है, उकड़ूँ बैठने का श्रम करता है, केश और दाढ़ी नोचता है। जबकि मैं घर में रहते, स्त्रियों और बालबच्चों से घिरे रहते, काशी के महँगे वस्त्र पहनते, चन्दन लगाते, माला पहनते, गंध और लेप लगाते, स्वर्ण और रुपये संभालते हुए भी मरणोपरांत इस शास्ता के ही समान गति पाऊँगा।
तब भला मैं क्या जानकर, क्या देखकर इस शास्ता के ब्रह्मचर्य का पालन करूँ? यह तो अ-ब्रह्मचर्य जीवन है!” ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस दूसरे प्रकार का अ-ब्रह्मचर्य जीवन, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, किसी शास्ता का ऐसा सिद्धांत होता है, ऐसी दृष्टि होती है कि — “सत्वों की मलिनता (“किलेस”) का कोई कारण (“हेतु”) नहीं है, कोई आवश्यक परिस्थिति (“पच्चय”) नहीं है। अकारण, बिनाशर्त के सत्व मलिन हो जाते हैं। अकारण, बिनाशर्त के सत्व शुद्ध भी हो जाते हैं। (आत्म) बल नहीं होता, मेहनत (वीर्य) नहीं होती, पुरुष का दम नहीं होता, पुरुष की उद्यमता नहीं होती। बल्कि सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी अस्तित्व पाएँ जीव बेबस हैं, अबला हैं, बेअसर हैं, जो मात्र संयोग, भाग्य और प्रकृति के कारण छह जातियों में उत्पन्न होकर सुख-दुःख भोगते हैं।” 4
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “इस शास्ता का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि ‘सत्वों की मलिनता का कोई कारण नहीं है, कोई आवश्यक परिस्थिति नहीं है… सभी जीव बेबस हैं, अबला हैं, बेअसर हैं, जो मात्र संयोग, भाग्य और प्रकृति के कारण छह जातियों में उत्पन्न होकर सुख-दुःख भोगते हैं।’
यदि यह शास्ता सच कहता है, तो बिना किए भी मैंने कर लिया, बिना पालन किए भी मैंने पालन कर लिया। और हम दोनों ही एक समान श्रमण्यता प्राप्त हैं।
हालाँकि मैं नहीं कहता हूँ कि ‘जब दोनों करते हैं तो पाप नहीं होता।’ बल्कि इस शास्ता का अतिरेक होता है, जब वह नंगा रहता है, मुंडन करता है, उकड़ूँ बैठने का श्रम करता है, केश और दाढ़ी नोचता है। जबकि मैं घर में रहते, स्त्रियों और बालबच्चों से घिरे रहते, काशी के महँगे वस्त्र पहनते, चन्दन लगाते, माला पहनते, गंध और लेप लगाते, स्वर्ण और रुपये संभालते हुए भी मरणोपरांत इस शास्ता के ही समान गति पाऊँगा।
तब भला मैं क्या जानकर, क्या देखकर इस शास्ता के ब्रह्मचर्य का पालन करूँ? यह तो अ-ब्रह्मचर्य जीवन है!” ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस तीसरे प्रकार का अ-ब्रह्मचर्य जीवन, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, किसी शास्ता का ऐसा सिद्धांत होता है, ऐसी दृष्टि होती है कि — “सात तरह की काया [=समूह] अरचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं। कौन-सी सात?
पृथ्वी-काया, जल-काया, अग्नि-काया, वायु-काया, सुख, दुःख, और जीव। यही सात तरह की काया अ-रचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं।
और उनमें न कोई हत्यारा है, न हत्या करानेवाला; न कोई सुननेवाला है, न सुनानेवाला; न कोई जानने-वाला है, न जानकारी देनेवाला। जब तीक्ष्ण शस्त्र से कोई शिरच्छेद करता है, तो वह किसी के प्राण नहीं लेता है। वह तो सात काया के बीच से गुज़रता शस्त्र मात्र है।
कुल प्रमुख १४,०६,६०० योनियाँ हैं। ५०० तरह के कर्म हैं, ५ पूर्ण कर्म, ३ अर्ध कर्म हैं। ६२ प्रगतिपथ हैं, ६२ अन्तरकल्प हैं, ६ अभिजातियाँ हैं, ८ प्रकार के पुरुष हैं, ४९०० प्रकार की जीविका हैं, ४९०० प्रकार के घुमक्कड़ हैं, ४९०० प्रकार के नाग आवास हैं, २००० इंद्रियाँ हैं, ३००० नर्क हैं, ३६ धूलभरे लोक हैं, ७ बोधगम्य आयाम हैं, ७ बेहोश आयाम हैं, ७ तरह के निर्ग्रंथ गर्भ हैं, ७ तरह के देवता हैं, ७ तरह के मनुष्य हैं, ७ तरह के पिशाच हैं, ७ तरह के स्वर [अथवा महा-जलाशय] हैं, ७ बड़े गाँठ हैं, ७ छोटे गाँठ हैं, ७०० बड़े प्रपात हैं, ७०० छोटे प्रपात हैं, ७०० तरह के लंबे स्वप्न हैं, ७०० तरह के छोटे स्वप्न हैं, ८४,००० महाकल्प हैं। इनसे [जन्म-जन्मांतरण में] संसरण करते [=भटकते] हुए मूर्ख और पण्डित दोनों ही दुःखों का अन्त करेंगे।
भले ही किसी को लगे, ‘मैं शील से, व्रत से, तप से, या ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को पका दूँगा और पके कर्मों को भोगकर मिटा दूँगा’ — ऐसा असंभव है। सुख और दुःख गिने हुए हैं। जन्म-जन्मांतरण में संसरण करने की सीमा तय है, जिसे छोटा या लंबा नहीं किया जा सकता, तेज या धीमा नहीं किया सकता है। जैसे सूत की गेंद को उछालने पर खुलते हुए अन्त होती है, उसी तरह मूर्ख और पण्डित दोनों ही संसरण करते हुए दुःखों का अन्त करेंगे।” 5
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “इस शास्ता का ऐसा सिद्धांत है, ऐसी दृष्टि है कि ‘सात तरह की काया अरचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं… जैसे सूत की गेंद को उछालने पर खुलते हुए अन्त होती है, उसी तरह मूर्ख और पण्डित दोनों ही संसरण करते हुए दुःखों का अन्त करेंगे।’
यदि यह शास्ता सच कहता है, तो बिना किए भी मैंने कर लिया, बिना पालन किए भी मैंने पालन कर लिया। और हम दोनों ही एक समान श्रमण्यता प्राप्त हैं।
हालाँकि मैं नहीं कहता हूँ कि ‘हम दोनों ही संसरण करते हुए दुःखों का अन्त करेंगे।’ बल्कि इस शास्ता का अतिरेक होता है, जब वह नंगा रहता है, मुंडन करता है, उकड़ूँ बैठने का श्रम करता है, केश और दाढ़ी नोचता है। जबकि मैं घर में रहते, स्त्रियों और बालबच्चों से घिरे रहते, काशी के महँगे वस्त्र पहनते, चन्दन लगाते, माला पहनते, गंध और लेप लगाते, स्वर्ण और रुपये संभालते हुए भी मरणोपरांत इस शास्ता के ही समान गति पाऊँगा।
तब भला मैं क्या जानकर, क्या देखकर इस शास्ता के ब्रह्मचर्य का पालन करूँ? यह तो अ-ब्रह्मचर्य जीवन है!” ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस चौथे प्रकार का अ-ब्रह्मचर्य जीवन, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ये चार प्रकार के अ-ब्रह्मचर्य जीवन बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।”
“आश्चर्य है, श्रीमान आनन्द! अद्भुत है, श्रीमान आनन्द! जिस तरह भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ये चार प्रकार के अ-ब्रह्मचर्य जीवन बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
किन्तु, आनन्द जी, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, वे कौन से चार प्रकार के अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा?”
“सन्दक, कोई शास्ता सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, बिना अपवाद के ज्ञान-दर्शन समझने का दावा करता है — (कहते हुए,) “मुझे चलते हुए, खड़े रहे, लेटे हुए, और जागते हुए सदैव और निरंतर ज्ञानदर्शन प्रतिष्ठित रहता है।”
किन्तु वे किसी खाली घर में भी प्रवेश करते हैं; उन्हें भिक्षा भी नहीं मिलती; कुत्ता भी काट लेता है; चंड हाथी से भी सामना होता है; चंड घोड़े से भी सामना होता है; चंड साँड से भी सामना होता है; स्त्री या पुरुष से नाम-गोत्र भी पूछते हैं; गाँव या नगर का नाम और मार्ग भी पूछते हैं।
और जब उनसे पूछा जाता है कि (दावे के विपरीत) “ये कैसे हुआ?” तो उत्तर देते हैं, “मुझे खाली घर में ही प्रवेश करना था, इसलिए किया”; “मुझे भिक्षा नहीं ही मिलनी थी, इसलिए नहीं मिली”; “कुत्ते को काटना ही था, इसलिए मुझे काटा”; “चंड हाथी से सामना होना ही था, इसलिए हुआ”; “चंड घोड़े से सामना होना ही था, इसलिए हुआ”; “चंड साँड से सामना होना ही था, इसलिए हुआ”; “स्त्री या पुरुष से नाम-गोत्र पूछना ही था, इसलिए पूछा”; “गाँव या नगर का नाम पुछना ही था, इसलिए पूछा।” 6
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “इस शास्ता का ऐसा दावा है कि वह सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, बिना अपवाद के ज्ञान-दर्शन समझता है… किन्तु पूछने पर कहता है… ‘गाँव या नगर का नाम पुछना ही था, इसलिए पूछा।’ यह तो अ-विश्वसनीय ब्रह्मचर्य है!”
ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस पहले प्रकार का अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, कोई शास्ता (वेद) सुनने वाला होता है, जो सुने हुए को ही सच मानता है। वह श्रुति परंपरा और शास्त्र संपदा के अनुसार ही धर्म बताता है। 7
किन्तु, सन्दक, जब कोई शास्ता सुनने वाला होता है, सुने हुए को ही सच मानता है, तो उसका सुना सही भी हो सकता है, या गलत भी हो सकता है; यथार्थ भी हो सकता है, या भिन्न भी हो सकता है।
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “यह शास्ता सुनने वाला है, सुने हुए को सच मानता है। वह श्रुति परंपरा और शास्त्र संपदा के अनुसार धर्म बताता है। किन्तु, जब कोई शास्ता सुनने वाला हो, सुने हुए को ही सच मानता हो, तो उसका सुना सही भी हो सकता है, या गलत भी हो सकता है; यथार्थ भी हो सकता है, या भिन्न भी हो सकता है। यह तो अ-विश्वसनीय ब्रह्मचर्य है!”
ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस दूसरे प्रकार का अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, कोई शास्ता तार्किक और वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर धर्म बताता है।
किन्तु, सन्दक, जब कोई शास्ता तार्किक और वैचारिक हो, तो उसका तर्क सही भी हो सकता है, या गलत भी हो सकता है; यथार्थ भी हो सकता है, या भिन्न भी हो सकता है।
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “यह शास्ता तार्किक और वैचारिक है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर धर्म बताता है। किन्तु, जब कोई शास्ता तार्किक और वैचारिक हो, तो उसका तर्क सही भी हो सकता है, या गलत भी हो सकता है; यथार्थ भी हो सकता है, या भिन्न भी हो सकता है। यह तो अ-विश्वसनीय ब्रह्मचर्य है!”
ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस तीसरे प्रकार का अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
आगे, सन्दक, कोई शास्ता मतिमंद और मोह-मुढ़ित होता है। मतिमंद और मोह-मुढ़ित होने के कारण जैसा-जैसा भी प्रश्न पूछने पर गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसा छटपटाता है, “ऐसा मुझे नहीं लगता… मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ… मुझे अन्यथा नहीं लगता… ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता… ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता…”
तब इस बारे में, सन्दक, कोई समझदार पुरुष चिंतन करता है — “यह शास्ता मतिमंद और मोह-मुढ़ित है। मतिमंद और मोह-मुढ़ित होने के कारण जैसा-जैसा भी प्रश्न पुछो, तो गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसा छटपटाता है, ‘ऐसा मुझे नहीं लगता… मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ… मुझे अन्यथा नहीं लगता… ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता… ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता…’ यह तो अ-विश्वसनीय ब्रह्मचर्य है!”
ऐसा समझ आने पर, उस ब्रह्मचर्य से मोहभंग होने पर, वह चला जाता है।
इस चौथे प्रकार का अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य, सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
सन्दक, भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ये चार प्रकार के अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।”
“आश्चर्य है, श्रीमान आनन्द! अद्भुत है, श्रीमान आनन्द! जिस तरह भगवान, जो जानते हैं, देखते हैं, अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ये चार प्रकार के अविश्वसनीय ब्रह्मचर्य बताते हैं, जिसे कोई समझदार और सक्षम पुरुष उस ब्रह्मचर्य का पालन न करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी नहीं होगा।
किन्तु, आनन्द जी, शास्ता किसी समझदार और सक्षम पुरुष को क्या कहेंगे, क्या बताएँगे ताकि वह ब्रह्मचर्य का पालन करें। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा?”
“सन्दक, यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।
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ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’
फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।
• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।
वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।
इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।
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(१) तब, सन्दक, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
(२) आगे, सन्दक, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
(३) आगे, सन्दक, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
(४) आगे, सन्दक, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
आगे, सन्दक, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
आगे, सन्दक, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।
आगे, सन्दक, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।
इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
ऐसी ऊँची और विशेष अवस्था की प्राप्ति के लिए, सन्दक, कोई समझदार और सक्षम पुरुष शास्ता का श्रावक होकर ब्रह्मचर्य का पालन करेगा। जिसका पालन करने पर वह कुशल धर्म व्यवस्था में यशस्वी होगा।”
“किन्तु, आनन्द जी, जो ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु हो, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हो, कर्तव्य समाप्त किया हो, बोझ को नीचे रखा हो, परम-ध्येय प्राप्त किया हो, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हो, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हो, क्या वे कामुकता का परिभोग कर सकते हैं?”
“सन्दक, जो ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु होते हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हो, कर्तव्य समाप्त किया हो, बोझ को नीचे रखा हो, परम-ध्येय प्राप्त किया हो, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हो, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हो, उनके लिए असंभव होता है कि वे पाँच बातों का उल्लंघन करे।
सन्दक, जो ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु होते हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हो, कर्तव्य समाप्त किया हो, बोझ को नीचे रखा हो, परम-ध्येय प्राप्त किया हो, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हो, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हो, उनके लिए असंभव होता है कि वे इन पाँच बातों का उल्लंघन करे।”
“किन्तु, आनन्द जी, जो ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु हो, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हो, कर्तव्य समाप्त किया हो, बोझ को नीचे रखा हो, परम-ध्येय प्राप्त किया हो, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हो, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हो, क्या उन्हें चलते हुए, खड़े रहे, लेटे हुए, और जागते हुए सदैव और निरंतर ज्ञानदर्शन प्रतिष्ठित रहता है कि ‘मेरे आस्रव समाप्त हुए!’”
“ठीक है, सन्दक, मैं एक उपमा देता हूँ। क्योंकि उपमा से कोई समझदार पुरुष बताए का अर्थ समझ जाता है। जैसे किसी पुरुष के हाथ और पैर कटे हो। क्या उसे चलते हुए, खड़े रहे, लेटे हुए, और जागते हुए सदैव और निरंतर पता चलेगा, ‘मेरे हाथ और पैर कटे हैं।’ अथवा उन्हें जाँच-पड़ताल करने के पश्चात ही पता चलेगा, ‘ओह, मेरे हाथ और पैर कटे हैं!’?”
“नहीं, आनन्द जी, उसे सदैव और निरंतर पता नहीं चलेगा, ‘मेरे हाथ और पैर कटे हैं।’ बल्कि उसे जाँच-पड़ताल करने के पश्चात ही पता चलेगा, ‘ओह, मेरे हाथ और पैर कटे हैं!’”
“उसी तरह, सन्दक, जो ऐसे अरहंत क्षिणास्रव भिक्षु हो, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया हो, कर्तव्य समाप्त किया हो, बोझ को नीचे रखा हो, परम-ध्येय प्राप्त किया हो, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया हो, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए हो, उन्हें चलते हुए, खड़े रहे, लेटे हुए, और जागते हुए सदैव और निरंतर ज्ञानदर्शन प्रतिष्ठित नहीं होता है कि ‘मेरे आस्रव समाप्त हुए!’ बल्कि उन्हें जाँच-पड़ताल करने के पश्चात ही पता चलता हैं कि ‘मेरे आस्रव समाप्त हुए!’”
“किन्तु, आनन्द जी, इस धर्म-विनय में कितने तर गए (=अरहंत हुए)?”
“सन्दक, ऐसे एक सौ ही नहीं, दो सौ ही नहीं, तीन सौ ही नहीं, चार सौ ही नहीं, पाँच सौ ही नहीं, बल्कि बहुत सारे इस धर्म-विनय में तर गए।”
“आश्चर्य है, श्रीमान गोतम! अद्भुत है, श्रीमान गोतम! न अपने धर्म की प्रशंसा है, न ही परधर्म की अवमानना! बल्कि धर्म उपदेश का अपना (स्वतंत्र) आयाम होता है, और बहुत से तर चुके पहचाने जाते हैं।
किन्तु ये आजीवक, पुत्र मरे माता के पुत्र, तो बस अपनी ही प्रशंसा करते हैं, और परधर्म की अवमानना! और तर चुके तीन को ही पहचानते हैं — नन्द वच्छ, किस सङ्किच्च और मक्खलि गोसाल।”
तब सन्दक घुमक्कड़ ने अपनी स्वयं की परिषद को संबोधित किया, “जाओ, श्रीमानों, श्रमण गोतम का ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए। मुझसे तो लाभ, सत्कार और किर्ति को छोड़ना अब आसान नहीं है!”
इस तरह सन्दक घुमक्कड़ ने अपने स्वयं की परिषद को भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करने के लिए भेजा।
भिक्षुओं के लिए दर्शनीय स्थलों की यात्रा केवल प्रकृति का आनंद लेने का माध्यम नहीं थी, बल्कि यह उन्हें ध्यान साधना के लिए उपयुक्त स्थानों की तलाश करने का भी एक महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करती थी। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी नास्तिकवादी या उच्छेदवादी दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, अजित केशकम्बल की थी। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी अक्रियावादी दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, पूरण कश्यप की थी। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, ऐसी कार्य-कारण संबंध न मानने की दृष्टि उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, मक्खलि गोषाल की थी। इस दृष्टि का अर्थ है कि मुक्ति के लिए प्रयास करना सार्थक नहीं है। बल्कि, मुक्ति की कोई संभावना ही नहीं है। जो होगा, अपने आप होगा। ↩︎
सामञ्ञफलसुत्त के अनुसार, इस दृष्टि में दो गुरुओं की मिलावट हुई है। पहला आधा हिस्सा उस समय के प्रसिद्ध छह गुरुओं में से एक, पकुध कच्चायन की थी, जबकि दूसरा आधा हिस्सा मक्खलि गोषाल की थी। ↩︎
यह दावा प्रमुख रूप से निगण्ठ नाटपुत्त (=महावीर जैन) का था, जिसका उल्लेख अनेक सूत्रों में, जैसे मज्झिमनिकाय १४, किया गया है। महापरिनिर्वाण के कई शताब्दियों बाद लिखे गए विभिन्न ग्रंथों में भगवान बुद्ध को भी “सर्वज्ञ” और “सर्वदर्शी” घोषित करने की नादान कोशिश की गई। हालांकि, प्रारंभिक सूत्रों (EBT) में भगवान बुद्ध और उनके श्रावक भिक्षुओं ने इस प्रकार के दावों की खोट निकाली, और उनका उपहास उड़ाया। ↩︎
मज्झिमनिकाय ९५ के अनुसार, “श्रुति परंपरा” में प्रमुख रूप से ब्राह्मणों और उनके वेदों का स्थान है। हालांकि, यह भी संभव है कि कुछ अन्य धर्मों के ग्रंथ, जो सुनकर याद किए गए हों और दूसरों को सुनाए गए हों, इस परंपरा का हिस्सा बन सकते हैं। उदाहरणस्वरूप, बाइबल, कुरान, और दुर्भाग्यवश बौद्ध पिटक भी इनमें शामिल हो सकते हैं।
तथापि, भगवान बुद्ध ने इस मौखिक या श्रुति परंपरा का परीक्षण करने के लिए कई उपाय और विधियाँ बताई हैं, जिन्हें विभिन्न सूत्रों में विस्तार से वर्णित किया गया है। इनमें से एक विधि, “६. सहमति की विधि”, विशेष रूप से दीघनिकाय २९ में उल्लेखित है, जिसे अवश्य पढ़ें। ↩︎
२२३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसम्बियं विहरति घोसितारामे. तेन खो पन समयेन सन्दको परिब्बाजको पिलक्खगुहायं पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं पञ्चमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि. अथ खो आयस्मा आनन्दो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आयामावुसो, येन देवकतसोब्भो तेनुपसङ्कमिस्साम गुहादस्सनाया’’ति. ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसुं. अथ खो आयस्मा आनन्दो सम्बहुलेहि भिक्खूहि सद्धिं येन देवकतसोब्भो तेनुपसङ्कमि. तेन खो पन समयेन सन्दको परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा. अद्दसा खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ; अयं समणस्स गोतमस्स सावको आगच्छति समणो आनन्दो. यावता खो पन समणस्स गोतमस्स सावका कोसम्बियं पटिवसन्ति, अयं तेसं अञ्ञतरो समणो आनन्दो. अप्पसद्दकामा खो पन ते आयस्मन्तो अप्पसद्दविनीता अप्पसद्दस्स वण्णवादिनो; अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति. अथ खो ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं.
२२४. अथ खो आयस्मा आनन्दो येन सन्दको परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि. अथ खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मन्तं आनन्दं एतदवोच – ‘‘एतु खो भवं आनन्दो, स्वागतं भोतो आनन्दस्स. चिरस्सं खो भवं आनन्दो इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय. निसीदतु भवं आनन्दो, इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति. निसीदि खो आयस्मा आनन्दो पञ्ञत्ते आसने. सन्दकोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो सन्दकं परिब्बाजकं आयस्मा आनन्दो एतदवोच – ‘‘कायनुत्थ, सन्दक, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति? ‘‘तिट्ठतेसा, भो आनन्द, कथा याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना. नेसा भोतो आनन्दस्स कथा दुल्लभा भविस्सति पच्छापि सवनाय. साधु वत भवन्तंयेव आनन्दं पटिभातु सके आचरियके धम्मीकथा’’ति. ‘‘तेन हि, सन्दक, सुणाहि , साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति. ‘‘एवं भो’’ति खो सन्दको परिब्बाजको आयस्मतो आनन्दस्स पच्चस्सोसि. आयस्मा आनन्दो एतदवोच – ‘‘चत्तारोमे , सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन अब्रह्मचरियवासा अक्खाता चत्तारि च अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि, यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च [वसन्तो वा (सी. पी.) एवमुपरिपि अनाराधनपक्खे] नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति. ‘‘कतमे पन ते, भो आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो अब्रह्मचरियवासा अक्खाता, यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति?
२२५. ‘‘इध, सन्दक, एकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठि – ‘नत्थि दिन्नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परोलोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ति. चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो यदा कालङ्करोति, पथवी पथवीकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति , आकासं इन्द्रियानि सङ्कमन्ति. आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति, यावाळाहना पदानि पञ्ञायन्ति. कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति. भस्सन्ता आहुतियो; दत्तुपञ्ञत्तं यदिदं दानं. तेसं तुच्छा मुसा विलापो ये केचि अत्थिकवादं वदन्ति. बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति न होन्ति परं मरणा’ति.
‘‘तत्र , सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि – नत्थि दिन्नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको, नत्थि परोलोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता सम्मापटिपन्ना ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ति. चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो यदा कालङ्करोति, पथवी पथवीकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आकासं इन्द्रियानि सङ्कमन्ति. आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति, यावाळाहना पदानि पञ्ञायन्ति. कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति. भस्सन्ता आहुतियो; दत्तुपञ्ञत्तं यदिदं दानं. तेसं तुच्छा मुसा विलापो ये केचि अत्थिकवादं वदन्ति. बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति न होन्ति परं मरणा’ति. सचे इमस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अकतेन मे एत्थ कतं, अवुसितेन मे एत्थ वुसितं. उभोपि मयं एत्थ समसमा सामञ्ञं पत्ता, यो चाहं न वदामि ‘उभो कायस्स भेदा उच्छिज्जिस्साम, विनस्सिस्साम, न भविस्साम परं मरणा’ति. अतिरेकं खो पनिमस्स भोतो सत्थुनो नग्गियं मुण्डियं उक्कुटिकप्पधानं केसमस्सुलोचनं योहं पुत्तसम्बाधसयनं [पुत्तसम्बाधवसनं (सी.)] अज्झावसन्तो कासिकचन्दनं पच्चनुभोन्तो मालागन्धविलेपनं धारेन्तो जातरूपरजतं सादियन्तो इमिना भोता सत्थारा समसमगतिको भविस्सामि. अभिसम्परायं सोहं किं जानन्तो किं पस्सन्तो इमस्मिं सत्थरि ब्रह्मचरियं चरिस्सामि? ‘सो अब्रह्मचरियवासो अय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति [निब्बिज्जापक्कमति (सी.)]. अयं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमो अब्रह्मचरियवासो अक्खातो यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२२६. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठि – ‘करोतो कारयतो छिन्दतो छेदापयतो पचतो पाचापयतो सोचयतो सोचापयतो किलमतो किलमापयतो फन्दतो फन्दापयतो पाणमतिपातयतो अदिन्नं आदियतो सन्धिं छिन्दतो निल्लोपं हरतो एकागारिकं करोतो परिपन्थे तिट्ठतो परदारं गच्छतो मुसा भणतो करोतो न करीयति पापं. खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो छिन्दन्तो छेदापेन्तो पचन्तो पचापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो यजन्तो यजापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो. दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन नत्थि पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति.
‘‘तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि – करोतो कारयतो छिन्दतो छेदापयतो पचतो पाचापयतो सोचतो सोचापयतो किलमतो किलमापयतो फन्दतो फन्दापयतो पाणमतिपातयतो अदिन्नं आदियतो सन्धिं छिन्दतो निल्लोपं हरतो एकागारिकं करोतो परिपन्थे तिट्ठतो परदारं गच्छतो मुसा भणतो करोतो न करीयति पापं खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. दक्खिणञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो छिन्दन्तो छेदापेन्तो पचन्तो पचापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो. उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो यजन्तो यजापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो. दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन नत्थि पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति. सचे इमस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अकतेन मे एत्थ कतं, अवुसितेन मे एत्थ वुसितं. उभोपि मयं एत्थ समसमा सामञ्ञं पत्ता, यो चाहं न वदामि ‘उभिन्नं कुरुतं न करीयति पाप’न्ति. अतिरेकं खो पनिमस्स भोतो सत्थुनो नग्गियं मुण्डियं उक्कुटिकप्पधानं केसमस्सुलोचनं योहं पुत्तसम्बाधसयनं अज्झावसन्तो कासिकचन्दनं पच्चनुभोन्तो मालागन्धविलेपनं धारेन्तो जातरूपरजतं सादियन्तो इमिना भोता सत्थारा समसमगतिको भविस्सामि. अभिसम्परायं सोहं किं जानन्तो किं पस्सन्तो इमस्मिं सत्थरि ब्रह्मचरियं चरिस्सामि? ‘सो अब्रह्मचरियवासो अय’न्ति इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. अयं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दुतियो अब्रह्मचरियवासो अक्खातो यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२२७. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठि – ‘नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय; अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति; नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया; अहेतू अप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति; नत्थि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो , नत्थि पुरिसपरक्कमो; सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति.
‘‘तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि – नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय, अहेतू अप्पच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति. नत्थि हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया, अहेतू अप्पच्चया सत्ता विसुज्झन्ति. नत्थि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो, सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं पटिसंवेदेन्ती’ति. सचे इमस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अकतेन मे एत्थ कतं, अवुसितेन मे एत्थ वुसितं. उभोपि मयं एत्थ समसमा सामञ्ञं पत्ता, यो चाहं न वदामि ‘उभो अहेतू अप्पच्चया विसुज्झिस्सामा’ति. अतिरेकं खो पनिमस्स भोतो सत्थुनो नग्गियं मुण्डियं उक्कुटिकप्पधानं केसमस्सुलोचनं योहं पुत्तसम्बाधसयनं अज्झावसन्तो कासिकचन्दनं पच्चनुभोन्तो मालागन्धविलेपनं धारेन्तो जातरूपरजतं सादियन्तो इमिना भोता सत्थारा समसमगतिको भविस्सामि. अभिसम्परायं सोहं किं जानन्तो किं पस्सन्तो इमस्मिं सत्थरि ब्रह्मचरियं चरिस्सामि? ‘सो अब्रह्मचरियवासो अय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. अयं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ततियो अब्रह्मचरियवासो अक्खातो यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२२८. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था एवंवादी होति एवंदिट्ठि – ‘सत्तिमे काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता, ते न इञ्जन्ति न विपरिणमन्ति न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा. कतमे सत्त? पथवीकायो आपोकायो तेजोकायो वायोकायो सुखे दुक्खे जीवे सत्तमे – इमे सत्तकाया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता. ते न इञ्जन्ति न विपरिणमन्ति न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति. नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा. तत्थ नत्थि हन्ता वा घातेता वा सोता वा सावेता वा विञ्ञाता वा विञ्ञापेता वा. योपि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि कञ्चि [किञ्चि (क.)] जीविता वोरोपेति. सत्तन्नंत्वेव कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतति. चुद्दस खो पनिमानि योनिपमुखसतसहस्सानि सट्ठि च सतानि छ च सतानि पञ्च च कम्मुनो सतानि पञ्च च कम्मानि तीणि च कम्मानि, कम्मे च अड्ढकम्मे च, द्वट्ठिपटिपदा, द्वट्ठन्तरकप्पा, छळाभिजातियो, अट्ठ पुरिसभूमियो, एकूनपञ्ञास आजीवकसते, एकूनपञ्ञास परिब्बाजकसते, एकूनपञ्ञास नागावाससते, वीसे इन्द्रियसते, तिंसे निरयसते, छत्तिंस रजोधातुयो, सत्त सञ्ञीगब्भा, सत्त असञ्ञीगब्भा, सत्त निगण्ठिगब्भा, सत्त देवा, सत्त मानुसा, सत्त पेसाचा, सत्त सरा, सत्त पवुटा, सत्त पपाता, सत्त पपातसतानि, सत्त सुपिना, सत्त सुपिनसतानि, चुल्लासीति [चूळासीति (सी. स्या. कं. पी.)] महाकप्पिनो [महाकप्पुनो (सी. पी.)] सतसहस्सानि, यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति. तत्थ नत्थि इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्कं वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्कं वा कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तिं करिस्सामीति. हेवं नत्थि दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नत्थि उक्कंसावकंसे. सेय्यथापि नाम सुत्तगुळे खित्ते निब्बेठियमानमेव पलेति, एवमेव बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ती’ति.
‘‘तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था एवंवादी एवंदिट्ठि – सत्तिमे काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता. ते न इञ्जन्ति न विपरिणमन्ति न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति. नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा. कतमे सत्त ? पथवीकायो आपोकायो तेजोकायो वायोकायो सुखे दुक्खे जीवे सत्तमे – इमे सत्त काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता. ते न इञ्जन्ति न विपरिणमन्ति न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति. नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा. तत्थ नत्थि हन्ता वा घातेता वा सोता वा सावेता वा विञ्ञाता वा विञ्ञापेता वा. योपि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि कञ्चि जीविता वोरोपेति . सत्तन्नंत्वेव कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतति. चुद्दस खो पनिमानि योनिपमुखसतसहस्सानि सट्ठि च सतानि छ च सतानि पञ्च च कम्मुनो सतानि पञ्च च कम्मानि तीणि च कम्मानि, कम्मे च अड्ढकम्मे च, द्वट्ठिपटिपदा, द्वट्ठन्तरकप्पा, छळाभिजातियो, अट्ठ पुरिसभूमियो, एकूनपञ्ञास आजीवकसते, एकूनपञ्ञास परिब्बाजकसते, एकूनपञ्ञास नागावाससते, वीसे इन्द्रियसते, तिंसे निरयसते, छत्तिंस रजोधातुयो, सत्त सञ्ञीगब्भा, सत्त असञ्ञीगब्भा, सत्त निगण्ठिगब्भा, सत्त देवा, सत्त मानुसा, सत्त पेसाचा, सत्त सरा, सत्त पवुटा, सत्त पपाता, सत्त पपातसतानि, सत्त सुपिना, सत्त सुपिनसतानि, चुल्लासीति महाकप्पिनो सतसहस्सानि, यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति. तत्थ नत्थि इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्कं वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्कं वा कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तिं करिस्सामीति, हेवं नत्थि दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नत्थि उक्कंसावकंसे. सेय्यथापि नाम सुत्तगुळे खित्ते निब्बेठियमानमेव पलेति, एवमेव बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ती’ति. सचे पन इमस्स भोतो सत्थुनो सच्चं वचनं, अकतेन मे एत्थ कतं, अवुसितेन मे एत्थ वुसितं. उभोपि मयं एत्थ समसमा सामञ्ञं पत्ता, यो चाहं न वदामि. ‘उभो सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सामा’ति. अतिरेकं खो पनिमस्स भोतो सत्थुनो नग्गियं मुण्डियं उक्कुटिकप्पधानं केसमस्सुलोचनं योहं पुत्तसम्बाधसयनं अज्झावसन्तो कासिकचन्दनं पच्चनुभोन्तो मालागन्धविलेपनं धारेन्तो जातरूपरजतं सादियन्तो इमिना भोता सत्थारा समसमगतिको भविस्सामि. अभिसम्परायं सोहं किं जानन्तो किं पस्सन्तो इमस्मिं सत्थरि ब्रह्मचरियं चरिस्सामि? ‘सो अब्रह्मचरियवासो अय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. अयं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चतुत्थो अब्रह्मचरियवासो अक्खातो यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘इमे खो ते, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो अब्रह्मचरियवासा अक्खाता यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति.
‘‘अच्छरियं , भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द! यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो अब्रह्मचरियवासाव समाना ‘अब्रह्मचरियवासा’ति अक्खाता यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलन्ति. कतमानि पन तानि, भो आनन्द, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति?
२२९. ‘‘इध, सन्दक, एकच्चो सत्था सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति – ‘चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति. सो सुञ्ञम्पि अगारं पविसति, पिण्डम्पि न लभति, कुक्कुरोपि डंसति, चण्डेनपि हत्थिना समागच्छति, चण्डेनपि अस्सेन समागच्छति, चण्डेनपि गोणेन समागच्छति, इत्थियापि पुरिसस्सपि नामम्पि गोत्तम्पि पुच्छति, गामस्सपि निगमस्सपि नामम्पि मग्गम्पि पुच्छति. सो ‘किमिद’न्ति पुट्ठो समानो ‘सुञ्ञं मे अगारं पविसितब्बं अहोसि’, तेन पाविसिं; ‘पिण्डम्पि अलद्धब्बं अहोसि’, तेन नालत्थं ; ‘कुक्कुरेन डंसितब्बं अहोसि’, तेनम्हि [तेन (क.), तेनासिं (?)] दट्ठो; ‘चण्डेन हत्थिना समागन्तब्बं अहोसि’, तेन समागमिं; ‘चण्डेन अस्सेन समागन्तब्बं अहोसि’, तेन समागमिं; ‘चण्डेन गोणेन समागन्तब्बं अहोसि’, तेन समागमिं; ‘इत्थियापि पुरिसस्सपि नामम्पि गोत्तम्पि पुच्छितब्बं अहोसि’, तेन पुच्छिं; ‘गामस्सपि निगमस्सपि नामम्पि मग्गम्पि पुच्छितब्बं अहोसि’, तेन पुच्छिन्ति. तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानाति…पे… ‘गामस्सपि निगमस्सपि नामम्पि मग्गम्पि पुच्छितब्बं अहोसि, तेन पुच्छि’न्ति . सो ‘अनस्सासिकं इदं ब्रह्मचरिय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. इदं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमं अनस्सासिकं ब्रह्मचरियं अक्खातं यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२३०. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था अनुस्सविको होति अनुस्सवसच्चो. सो अनुस्सवेन इतिहितिहपरम्पराय पिटकसम्पदाय धम्मं देसेति. अनुस्सविकस्स खो पन, सन्दक , सत्थुनो अनुस्सवसच्चस्स सुस्सुतम्पि होति दुस्सुतम्पि होति तथापि होति अञ्ञथापि होति. तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था अनुस्सविको अनुस्सवसच्चो सो अनुस्सवेन इतिहितिहपरम्पराय पिटकसम्पदाय धम्मं देसेति. अनुस्सविकस्स खो पन सत्थुनो अनुस्सवसच्चस्स सुस्सुतम्पि होति दुस्सुतम्पि होति तथापि होति अञ्ञथापि होति’. सो ‘अनस्सासिकं इदं ब्रह्मचरिय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. इदं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दुतियं अनस्सासिकं ब्रह्मचरियं अक्खातं यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२३१. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था तक्की होति वीमंसी. सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं धम्मं देसेति. तक्किस्स खो पन, सन्दक, सत्थुनो वीमंसिस्स सुतक्कितम्पि होति दुत्तक्कितम्पि होति तथापि होति अञ्ञथापि होति. तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था तक्की वीमंसी. सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं धम्मं देसेति. तक्किस्स खो पन सत्थुनो वीमंसिस्स सुतक्कितम्पि होति दुत्तक्कितम्पि होति तथापि होति अञ्ञथापि होति’. सो ‘अनस्सासिकं इदं ब्रह्मचरिय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. इदं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ततियं अनस्सासिकं ब्रह्मचरियं अक्खातं यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
२३२. ‘‘पुन चपरं, सन्दक, इधेकच्चो सत्था मन्दो होति मोमूहो. सो मन्दत्ता मोमूहत्ता तत्थ तत्थ [तथा तथा (सी. स्या. कं. पी.)] पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – ‘एवन्तिपि [एवम्पि (सी. पी.)] मे नो, तथातिपि [तथापि (सी. पी.)] मे नो, अञ्ञथातिपि [अञ्ञथापि (सी. पी.) ( ) सब्बत्थ नत्थि] मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो’ति. तत्र, सन्दक, विञ्ञू पुरिसो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अयं खो भवं सत्था मन्दो मोमूहो. सो मन्दत्ता मोमूहत्ता तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो’ति. सो ‘अनस्सासिकं इदं ब्रह्मचरिय’न्ति – इति विदित्वा तस्मा ब्रह्मचरिया निब्बिज्ज पक्कमति. इदं खो, सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चतुत्थं अनस्सासिकं ब्रह्मचरियं अक्खातं यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘इमानि खो, (तानि सन्दक, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानि अक्खातानि यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति.
‘‘अच्छरियं, भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द! यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारि अनस्सासिकानेव ब्रह्मचरियानि अनस्सासिकानि ब्रह्मचरियानीति अक्खातानि यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं न वसेय्य, वसन्तो च नाराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं. सो पन, भो आनन्द, सत्था किं वादी किं अक्खायी यत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति.
२३३. ‘‘इध, सन्दक, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा…पे… [वित्थारो म. नि. २.९-१० कन्दरकसुत्ते] सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. यस्मिं खो [यस्मिं खो पन (स्या. कं. क.)], सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘पुन चपरं, सन्दक, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘पुन चपरं, सन्दक, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘पुन चपरं, सन्दक, भिक्खु सुखस्स च पहाना…पे… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसलं.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति; ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. यस्मिं खो, सन्दक, सत्थरि सावको एवरूपं उळारविसेसं अधिगच्छति तत्थ विञ्ञू पुरिसो ससक्कं ब्रह्मचरियं वसेय्य, वसन्तो च आराधेय्य ञायं धम्मं कुसल’’न्ति.
२३४. ‘‘यो पन सो, भो आनन्द, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो परिभुञ्जेय्य सो कामे’’ति? ‘‘यो सो, सन्दक, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो अभब्बो सो पञ्चट्ठानानि अज्झाचरितुं. अभब्बो खीणासवो भिक्खु सञ्चिच्च पाणं जीविता वोरोपेतुं, अभब्बो खीणासवो भिक्खु अदिन्नं थेय्यसङ्खातं आदातुं, अभब्बो खीणासवो भिक्खु मेथुनं धम्मं पटिसेवेतुं, अभब्बो खीणासवो भिक्खु सम्पजानमुसा भासितुं, अभब्बो खीणासवो भिक्खु सन्निधिकारकं कामे परिभुञ्जितुं, सेय्यथापि पुब्बे अगारियभूतो. यो सो, सन्दक, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो अभब्बो सो इमानि पञ्चट्ठानानि अज्झाचरितु’’न्ति.
२३५. ‘‘यो पन सो, भो आनन्द, भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो तस्स चरतो चेव तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठितं – ‘खीणा मे आसवा’’’ति? ‘‘तेन हि, सन्दक, उपमं ते करिस्सामि; उपमायपिधेकच्चे विञ्ञू पुरिसा भासितस्स अत्थं आजानन्ति. सेय्यथापि, सन्दक, पुरिसस्स हत्थपादा छिन्ना; तस्स चरतो चेव तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं (जानाति – ‘छिन्ना मे हत्थपादा’ति, उदाहु पच्चवेक्खमानो जानाति – ‘छिन्ना मे हत्थपादा’’’ति? ‘‘न खो, भो आनन्द, सो पुरिसो सततं समितं जानाति – ‘छिन्ना मे हत्थपादा’ ति.) [(छिन्नाव हत्थपादा,) (सी. स्या. कं. पी.)] अपि च खो पन नं पच्चवेक्खमानो जानाति – ‘छिन्ना मे हत्थपादा’’’ति. ‘‘एवमेव खो, सन्दक, यो सो भिक्खु अरहं खीणासवो वुसितवा कतकरणीयो ओहितभारो अनुप्पत्तसदत्थो परिक्खीणभवसंयोजनो सम्मदञ्ञा विमुत्तो तस्स चरतो चेव तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं (ञाणदस्सनं न पच्चुपट्ठितं – ‘खीणा मे आसवा’ति;) [(खीणाव आसवा,) (सी. स्या. कं. पी.)] अपि च खो पन नं पच्चवेक्खमानो जानाति – ‘खीणा मे आसवा’’’ति.
२३६. ‘‘कीवबहुका पन, भो आनन्द, इमस्मिं धम्मविनये निय्यातारो’’ति? ‘‘न खो, सन्दक, एकंयेव सतं न द्वे सतानि न तीणि सतानि न चत्तारि सतानि न पञ्च सतानि, अथ खो भिय्योव ये इमस्मिं धम्मविनये निय्यातारो’’ति. ‘‘अच्छरियं, भो आनन्द, अब्भुतं, भो आनन्द! न च नाम सधम्मोक्कंसना भविस्सति, न परधम्मवम्भना, आयतने च धम्मदेसना ताव बहुका च निय्यातारो पञ्ञायिस्सन्ति. इमे पनाजीवका पुत्तमताय पुत्ता अत्तानञ्चेव उक्कंसेन्ति, परे च वम्भेन्ति तयो चेव निय्यातारो पञ्ञपेन्ति, सेय्यथिदं – नन्दं वच्छं, किसं संकिच्चं, मक्खलिं गोसाल’’न्ति. अथ खो सन्दको परिब्बाजको सकं परिसं आमन्तेसि – ‘‘चरन्तु भोन्तो समणे गोतमे ब्रह्मचरियवासो. न दानि सुकरं अम्हेहि लाभसक्कारसिलोके परिच्चजितु’’न्ति. इति हिदं सन्दको परिब्बाजको सकं परिसं उय्योजेसि भगवति ब्रह्मचरियेति.
सन्दकसुत्तं निट्ठितं छट्ठं.