नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 सकुलुदायी से धर्मचर्चा

सूत्र परिचय

यह सूत्र दीर्घनिकाय के प्रथम सूत्र में प्रतिपादित एक महत्वपूर्ण सिद्धांत को स्पष्ट करता है—कि सामान्य लोग जब बुद्ध की प्रशंसा करते हैं, तो वे प्रायः केवल सतही या गौण पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो मुख्यतः शील से संबंधित होते हैं। वे उन गहरे और उच्चतम कारणों को समझने में असमर्थ होते हैं जिनके आधार पर बुद्ध वास्तव में प्रशंसा के योग्य हैं।

उस सूत्र के समानांतर, इस सूत्र में भी भगवान अपने शिष्यों द्वारा उनके प्रति श्रद्धा के गहरे कारण बताते हैं। ये कारण दो श्रेणियों में विभाजित होते हैं—पहला, उनके स्वभाव और चरित्र की उत्कृष्टताएँ; और दूसरा, उनकी अद्वितीय क्षमता जिसके माध्यम से वे अपने शिष्यों को विविध साधनाओं में निपुण बनाते हैं, ताकि वे अंततः सम्पूर्ण दुःख की निवृत्ति तक पहुँच सकें।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन गिलहरी उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय बहुत से जाने-माने प्रसिद्ध घुमक्कड़ मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में निवास कर रहे थे, जैसे अन्नभार, वरधर, सकुलुदायी और अन्य जाने-माने प्रसिद्ध घुमक्कड़।

सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रवेश किया। तब भगवान को लगा, “अभी राजगृह में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न मैं मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास जाऊँ?”

तब भगवान मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास गए।

उस समय सकुलुदायी घुमक्कड़, विशाल घुमक्कड़ों की परिषद के साथ बैठकर चीखते-चिल्लाते, शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।

तब सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। देखकर अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ श्रमण गौतम आ रहे हैं। श्रमण गोतम के जितने श्रावक कौशांबी में निवास करते हैं, उनमें से एक भगवान हैं। इन आयुष्मान को कम बोलना पसंद है, कम बोलने की प्रशंसा करते हैं। संभव है, अपनी परिषद को कम बोलते देख यहाँ आए।”

ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।

तब भगवान सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान पधारे! भंते, भगवान का स्वागत है! बहुत दिनों के बाद, भंते, भगवान को यहाँ आने का अवसर मिला। बैठिए, भंते, भगवान के लिए यह आसन बिछा है।”

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान से कहा

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे बिछाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सकुलुदायी घुमक्कड़ से भगवान ने कहा, “अभी यहाँ बैठकर, सकुलुदायी, क्या चर्चा कर रहे थे? कौन सी चर्चा अधूरी रह गई?”

अंतरधार्मिक चर्चा

“छोड़िए इस बात को, भंते, कि अभी हम बैठकर क्या चर्चा कर रहे थे। ऐसी चर्चा को बाद में सुनना दुर्लभ नहीं है। कुछ दिनों पहले, भंते, अलग-अलग संप्रदायों के श्रमण-ब्राह्मण कुतूहल शाला में मिलकर साथ बैठे हुए थे। 1 तब उनमें यह चर्चा छिड़ी—

‘ओ श्रीमान, अङ्ग और मगध के लोग लाभी हैं! अङ्ग और मगध के लोग सौभाग्यशाली हैं! जहाँ उनके राजगृह में ऐसे श्रमण और ब्राह्मण, संघ के स्वामी, समुदायों के नेता, समुदायों के आचार्य, जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक, बहुत लोगों से सम्मानित, सभी वर्षावास के लिए पधारे हैं ।

समकालीन गुरु

  • उनमें पूरण कश्यप संघ के स्वामी, समुदाय के नेता, समुदाय के आचार्य हैं। वे जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। वे राजगृह में वर्षावास के लिए पधारे हैं।
  • उनमें मक्खलि गोसाल…
  • उनमें अजित केसकम्बल…
  • उनमें पकुध कच्चायन…
  • उनमें सञ्जय बेलट्ठपुत्त…
  • उनमें निगण्ठ नाटपुत्त…
  • उनमें श्रमण गोतम संघ के स्वामी, समुदाय के नेता, समुदाय के आचार्य हैं। वे जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। वे भी राजगृह में वर्षावास के लिए पधारे हैं।

इन सभी आदरणीय श्रमण-ब्राह्मणों — संघ के स्वामियों, समुदाय के नेताओं, समुदाय के आचार्यों, जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापकों, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं — में कौन अधिक श्रावकों द्वारा सत्कार किए जाते हैं, सम्मान किए जाते हैं, माने जाते हैं, पूजे जाते हैं? और, कैसे उनके श्रावक उनका सत्कार और सम्मान कर, उन पर निर्भर रह कर विहार करते हैं?’

तब कुछ लोगों ने कहा, ‘ये पूरण कश्यप 2 संघ के स्वामी, समुदाय के नेता, समुदाय के आचार्य हैं। वे जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। किन्तु, उनके श्रावक उनका न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न ही पूजते हैं। बल्कि, उनके श्रावक उनका बिना सत्कार, बिना सम्मान कर, उन पर बिना निर्भर रहे विहार करते हैं।

एक बार की बात है — पूरण कस्सप कई सैकड़ों की परिषद को धर्म बता रहा था। तब किसी पूरण कस्सप के श्रावक ने शोर मचाया, “मेरे भाइयों, पूरण कस्सप से ये मत पूछो। उसे ये नहीं पता। वो मुझे पता है। मुझसे पूछो, मैं तुम भाइयों को बताऊँगा।”

एक बार की बात है — पूरण कस्सप के बाहे पसार कर विलाप करने पर भी कुछ नहीं मिला, “अरे चुप हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करो! ये तुमसे नहीं पूछा गया। मुझसे पूछा गया। मैं उसका उत्तर दूँगा।”

और तो और, पूरण कस्सप के बहुत से श्रावक विवाद करते हुए भी छोड़ कर गए हैं, “तुम इस धर्म-विनय को नहीं जानते। मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तुम भला क्या इस धर्म-विनय को जानोगे? तुम्हारी साधना मिथ्या है! मेरी साधना सम्यक है! मेरी बात सार्थक है, तुम्हारी निरर्थक! पहले कहने वाली बात को अन्त में बताते हो, और अंत में कहने वाली बात को पहले। तुम्हारी परिकल्पना उलट गयी! तुम्हारी धारणा खंडित हुई! जाओ, बचाओ अपनी धारणा को! तुम इसमें फँस गए! हिम्मत है तो निकलो इससे!”

इस तरह पूरण कस्सप के श्रावक उनका न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न ही पूजते हैं। बल्कि, बिना सत्कार, बिना सम्मान कर, उन पर बिना निर्भर रहे विहार करते हैं। बल्कि, पूरण कस्सप को धिक्कारा भी गया हैं, जो धर्मानुसार ही धिक्कारना था।’

तब (ठीक उसी प्रकार) कुछ लोगों ने कहा, ‘ये मक्खलि गोसाल 3 भी… अजित केसकम्बल 4 भी… पकुध कच्चायन 5 भी… सञ्जय बेलट्ठपुत्त 6 भी… निगण्ठ नाटपुत्त 7 भी संघ के स्वामी, समुदाय के नेता, समुदाय के आचार्य हैं। वे जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। किन्तु, उनके श्रावक भी उनका न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न ही पूजते हैं। बल्कि, उनके श्रावक भी उनका बिना सत्कार, बिना सम्मान कर, उन पर बिना निर्भर रहे विहार करते हैं।

एक बार की बात है — निगण्ठ नाटपुत्त कई सैकड़ों की परिषद को धर्म बता रहा था। तब किसी निगण्ठ नाटपुत्त के श्रावक ने शोर मचाया, “मेरे भाइयों, निगण्ठ नाटपुत्त से ये मत पूछो। उसे ये नहीं पता। वो मुझे पता है। मुझसे पूछो, मैं तुम भाइयों को बताऊँगा।”

एक बार की बात है — निगण्ठ नाटपुत्त के बाहे पसार कर विलाप करने पर भी कुछ नहीं मिला, “अरे चुप हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करो! ये तुमसे नहीं पूछा गया। मुझसे पूछा गया। मैं उसका उत्तर दूँगा।”

और तो और, निगण्ठ नाटपुत्त के बहुत से श्रावक विवाद करते हुए भी छोड़ कर गए हैं, “तुम इस धर्म-विनय को नहीं जानते। मैं इस धर्म-विनय को जानता हूँ। तुम भला क्या इस धर्म-विनय को जानोगे? तुम्हारी साधना मिथ्या है! मेरी साधना सम्यक है! मेरी बात सार्थक है, तुम्हारी निरर्थक! पहले कहने वाली बात को अन्त में बताते हो, और अंत में कहने वाली बात को पहले। तुम्हारी परिकल्पना उलट गयी! तुम्हारी धारणा खंडित हुई! जाओ, बचाओ अपनी धारणा को! तुम इसमें फँस गए! हिम्मत है तो निकलो इससे!”

इस तरह निगण्ठ नाटपुत्त के श्रावक भी उनका न सत्कार करते हैं, न सम्मान करते हैं, न मानते हैं, न ही पूजते हैं। बल्कि, बिना सत्कार, बिना सम्मान कर, उन पर बिना निर्भर रहे विहार करते हैं। बल्कि, निगण्ठ नाटपुत्त को भी धिक्कारा गया हैं, जो धर्मानुसार ही धिक्कारना था।’

श्रमण गोतम

तब कुछ लोगों ने कहा, ‘ये श्रमण गोतम संघ के स्वामी, समुदाय के नेता, समुदाय के आचार्य हैं। वे जाने-माने और यशस्वी धर्म-संस्थापक हैं, जो बहुत लोगों से सम्मानित हैं। और उनके श्रावक उनका सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। उनके श्रावक उनका सत्कार और सम्मान कर, उन पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

एक बार की बात है — श्रमण गोतम कई सैकड़ों की परिषद को धर्म बता रहा था। तब श्रमण गोतम के किसी श्रावक ने गला साफ किया। तभी उसके किसी सब्रह्मचारी ने उसे जाँघ से दबाया, “चुप रहो, आयुष्मान, आवाज मत करो। शास्ता, हमारे भगवान धर्म बता रहे हैं।”

जिस समय श्रमण गोतम कई सैकड़ों की परिषद को धर्म बताते हैं, उस समय श्रमण गोतम के श्रावकों में न खाँसने का आवाज होता है, न गला साफ करने का आवाज होता है। वह विशाल जनसभा उत्सुकता से तैयार होकर बैठती है, “भगवान जो धर्म बताएँगे, वो हम सुनेंगे।”

जैसे कोई पुरुष किसी बड़े चौराहे पर मधुमक्खी के छत्ते को निचोड़ता है, तब विशाल जनसभा उत्सुकता से तैयार होकर बैठती है। उसी तरह, जिस समय श्रमण गोतम कई सैकड़ों की परिषद को धर्म बताते हैं, उस समय श्रमण गोतम के श्रावकों में न खाँसने का आवाज होता है, न गला साफ करने का आवाज होता है। वह विशाल जनसभा उत्सुकता से तैयार होकर बैठती है — “भगवान जो धर्म बताएँगे, वो हम सुनेंगे।”

बल्कि, श्रमण गोतम के जो श्रावक सब्रह्मचारियों से लड़कर शिक्षा को छोड़ हीन जीवन में लौटते हैं, वे शास्ता की मात्र प्रशंसा करते हैं, धर्म की मात्र प्रशंसा करते हैं, संघ की मात्र प्रशंसा करते हैं, स्वयं को ही कोसते हैं, दूसरों को नहीं — “अरे, हम ही भाग्यशाली नहीं थे, हम ही कम पुण्यशाली थे, जो ऐसे स्पष्ट बताएँ धर्म-विनय में प्रवज्जित होकर भी, बिना सीखते हुए इतने परिपूर्ण और परिशुद्ध ब्रह्मचर्य का आजीवन पालन नहीं किया!”

और वे विहारों के सेवक बन जाते हैं, या उपासक बन जाते हैं, और पञ्चशील शिक्षापदों को आत्मसात कर वर्तन करते हैं।

इस तरह, श्रमण गोतम के श्रावक उनका सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और श्रमण गोतम के श्रावक उनका सत्कार और सम्मान कर, उन पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।"

भगवान के गुण

“किन्तु, उदायी, तुम मुझमें कितने गुण देखते हो? जिससे मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।”

पाँच साधारण गुण

“भंते, मैं भगवान में पाँच गुण देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे। कौन से पाँच?

(१) भंते, आप भगवान अल्पाहारी हैं, और अल्पाहार की प्रशंसा करते हैं।

भगवान का अल्पाहारी होना, और अल्पाहार की प्रशंसा करना — इस पहले गुण को, भंते, मैं आप भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।

(२) भंते, आप भगवान जैसे-तैसे चीवर में भी संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे चीवर में संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं।

भगवान का जैसे-तैसे चीवर में संतुष्ट होना, और जैसे-तैसे चीवर में संतुष्टि की प्रशंसा करना — इस दूसरे गुण को, भंते, मैं आप भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।

(३) भंते, आप भगवान जैसी-तैसी भिक्षा पर भी संतुष्ट होते हैं, जैसी-तैसी भिक्षा पर संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं।

भगवान का जैसी-तैसी भिक्षा पर भी संतुष्ट होना, और जैसी-तैसी भिक्षा पर संतुष्टि की प्रशंसा करना — इस तीसरे गुण को, भंते, मैं आप भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।

(४) भंते, आप भगवान जैसे-तैसे निवास से भी संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे निवास से संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं।

भगवान का जैसे-तैसे निवास से भी संतुष्ट होना, और जैसे-तैसे निवास से संतुष्टि की प्रशंसा करना — इस चौथे गुण को, भंते, मैं आप भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।

(५) भंते, आप भगवान निर्लिप्त एकांतवास से संतुष्ट होते हैं, निर्लिप्त एकांतवास की प्रशंसा करते हैं।

भगवान का निर्लिप्त एकांतवास से संतुष्ट होना, और निर्लिप्त एकांतवास की प्रशंसा करना — इस पाँचवे गुण को, भंते, मैं आप भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।

इन पाँच गुणों को, भंते, मैं भगवान में देखता हूँ, जिससे भगवान के श्रावक सत्कार करते होंगे, सम्मान करते होंगे, मानते होंगे और पूजते होंगे। और भगवान का सत्कार और सम्मान कर, भगवान पर निर्भर रह कर विहार करते होंगे।”

भगवान के द्वारा खण्डन

(१) “‘श्रमण गोतम अल्पाहारी हैं, और अल्पाहार की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से, उदायी, मेरे श्रावकों ने मेरा सत्कार किया होता, सम्मान किया होता, माना होता और पूजा होता, और मेरा सत्कार और सम्मान कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार किया होता — तब मेरे ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो एक कटोरी भर आहार लेते हैं, आधी कटोरी भर आहार लेते हैं, बेलुवा भर आहार लेते हैं, आधा बेलुवा भर आहार लेते हैं। जबकि मैं, उदायी, कभी-कभी इस भिक्षापात्र को पूरा भर कर खाता हूँ, या कभी-कभी उससे भी अधिक खाता हूँ।

इसलिए, उदायी, ‘श्रमण गोतम अल्पाहारी हैं, और अल्पाहार की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से मेरे श्रावकों ने मेरा सत्कार किया होता, सम्मान किया होता, माना होता और पूजा होता, और मेरा सत्कार और सम्मान कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार किया होता — तब मेरे जो ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो एक कटोरी भर आहार लेते हैं, आधी कटोरी भर आहार लेते हैं, बेलुवा भर आहार लेते हैं, आधा बेलुवा भर आहार लेते हैं — उन्होंने मेरा न सत्कार किया होता, न सम्मान किया होता, न माना होता, न ही पूजा होता। और मेरा सत्कार और सम्मान न कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं किया होता।

(२) ‘श्रमण गोतम जैसे-तैसे चीवर में संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे चीवर में संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से, उदायी, मेरे श्रावकों ने मेरा सत्कार किया होता, सम्मान किया होता, माना होता और पूजा होता, और मेरा सत्कार और सम्मान कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार किया होता — तब मेरे ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो पंसुकूलिक (=केवल फेंके गए कपड़ों से ही सिला चीवर ओढ़ने वाले) हैं, रूखा चीवर ओढ़ते हैं, जो श्मशान या कूड़े या ढ़ेर से चिथड़े इकट्ठा कर, उसकी संघाटी सिलकर ओढ़ते हैं। जबकि मैं, उदायी, कभी-कभी गृहस्थों के दिए चीवर भी ओढ़ता हूँ, जो मजबूत और मृदुरोमिल लौकी की तरह (मखमली) कोमल होते हैं।

इसलिए, उदायी, ‘श्रमण गोतम जैसे-तैसे चीवर में संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे चीवर में संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे जो ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो पंसुकूलिक हैं, रूखा चीवर ओढ़ते हैं, जो श्मशान या कूड़े या ढ़ेर से चिथड़े इकट्ठा कर उसकी संघाटी सिलकर ओढ़ते हैं — उन्होंने मेरा न सत्कार किया होता, न सम्मान किया होता, न माना होता, न ही पूजा होता। और मेरा सत्कार और सम्मान न कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं किया होता।

(३) ‘श्रमण गोतम जैसी-तैसी भिक्षा पर भी संतुष्ट होते हैं, जैसी-तैसी भिक्षा पर संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो पिण्डपातिक (=भोजन के लिए भिक्षाटन पर ही निर्भर रहने वाले, निमंत्रण न स्वीकारने वाले) हैं, सपदानचारी (=भिक्षा मार्ग में आए प्रत्येक दाता से भिक्षा लेने वाले, किसी को न छोड़ने वाले) हैं, जो फेंकने योग्य भिक्षा पर तुष्ट होते हैं, जो बस्ती में प्रवेश करने पर आसन पर बैठने का निमंत्रण भी स्वीकारते नहीं हैं। जबकि मैं, उदायी, कभी-कभी निमंत्रण भोज भी खाता हूँ, उत्तम चावल और कालिमा-रहित अनाज वाला, अनेक सूप और अनेक व्यंजन के साथ।

इसलिए, उदायी, ‘श्रमण गोतम जैसी-तैसी भिक्षा पर भी संतुष्ट होते हैं, जैसी-तैसी भिक्षा पर संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे जो ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो पिण्डपातिक हैं, सपदानचारी हैं, जो फेंकने योग्य भिक्षा पर तुष्ट होते हैं, जो बस्ती में प्रवेश करने पर आसन पर बैठने का निमंत्रण भी स्वीकारते नहीं हैं — उन्होंने मेरा न सत्कार किया होता, न सम्मान किया होता, न माना होता, न ही पूजा होता। और मेरा सत्कार और सम्मान न कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं किया होता। 8

(४) ‘श्रमण गोतम जैसे-तैसे निवास से भी संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे निवास से संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो रुक्खमूलिक (=किसी वृक्ष के नीचे निवास करने वाले) हैं, अब्भोकासिक (=खुले आकाश के नीचे रहने वाले) हैं, जो आठ महीने छत के नीचे नहीं जाते हैं। जबकि मैं, उदायी, कभी-कभी शिखर छत वाली हवेलियों में विहार करता हूँ, जो भीतर और बाहर से उपलिप्त (=पलस्तर किया) होती है, जिसमें बन्द होने वाला दरवाजे, और पवन से बचने के लिए बंद होने वाली खिड़कियाँ हो।

इसलिए, उदायी, ‘श्रमण गोतम जैसे-तैसे निवास से भी संतुष्ट होते हैं, जैसे-तैसे निवास से संतुष्टि की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे जो ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो रुक्खमूलिक हैं, अब्भोकासिक हैं, जो आठ महीने छत के नीचे नहीं जाते हैं — उन्होंने मेरा न सत्कार किया होता, न सम्मान किया होता, न माना होता, न ही पूजा होता। और मेरा सत्कार और सम्मान न कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं किया होता।

(५) ‘श्रमण गोतम निर्लिप्त एकांतवास से संतुष्ट होते हैं, निर्लिप्त एकांतवास की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो आरञ्ञिक (=जंगल में रहने वाले) हैं, निर्जन स्थानों में रहते हैं, दूर-दराज के जंगल और वन में गहरे प्रवेश कर वहाँ आवास लेते हैं, और केवल आधे महीने में एक बार पातिमोक्ष के उद्देश्य से संघ के बीच आते हैं। जबकि मैं, उदायी, कभी-कभी भिक्षुओं, भिक्षुणियों, उपासकों, उपासिकाओं, राजाओं, राजमहामंत्रियों, परधर्मी गुरुओं और उनके श्रावकों से घिरा रहता हूँ।

इसलिए, उदायी, ‘श्रमण गोतम निर्लिप्त एकांतवास से संतुष्ट होते हैं, निर्लिप्त एकांतवास की प्रशंसा करते हैं’ — यदि इस कारण से… — तब मेरे जो ऐसे श्रावक हैं, उदायी, जो आरञ्ञिक हैं, निर्जन स्थानों में रहते हैं, दूर-दराज के जंगल और वन में गहरे प्रवेश कर वहाँ आवास लेते हैं, और केवल आधे महीने में एक बार पातिमोक्ष के उद्देश्य से संघ के बीच आते हैं — उन्होंने मेरा न सत्कार किया होता, न सम्मान किया होता, न माना होता, न ही पूजा होता। और मेरा सत्कार और सम्मान न कर मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं किया होता।

इसलिए, उदायी, इन पाँच गुणों के कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार नहीं करते, सम्मान नहीं करते, नहीं मानते और नहीं पूजते हैं, और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार नहीं करते। बल्कि दूसरे पाँच गुण हैं, उदायी, जिन पाँच गुणों के कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं। कौन से पाँच?

पाँच असाधारण गुण

(१) उदायी, मेरे श्रावक अधिशील (=ऊँचे शील) को सम्मान देते हैं, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम शीलवान हैं, परम शील-स्कंध से युक्त हैं।’

और, मेरे श्रावकों द्वारा अधिशील को सम्मान देना, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम शीलवान हैं, परम शील-स्कंध से युक्त हैं’ — यह पहला गुण हैं, जिसके कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

(२) आगे, उदायी, मेरे श्रावक उत्कृष्ठ ज्ञान-दर्शन को सम्मान देते हैं, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम केवल जानने वाली बात को (ही कहते हैं कि) जानता हूँ, देखने वाली बात को (ही कहते हैं कि) देखता हूँ। श्रमण गोतम प्रत्यक्ष ज्ञान (“अभिञ्ञा”) के आधार पर धर्म बताते हैं, प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना नहीं। श्रमण गोतम कारण के साथ धर्म बताते हैं, कारण के बिना नहीं। श्रमण गोतम दर्शाते हुए धर्म बताते हैं, बिना दर्शाते हुए नहीं।

और, मेरे श्रावकों द्वारा उत्कृष्ठ ज्ञान-दर्शन को सम्मान देना, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम केवल जानने वाली बात को (ही कहते हैं कि) जानता हूँ, देखने वाली बात को (ही कहते हैं कि) देखता हूँ। श्रमण गोतम प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर धर्म बताते हैं, प्रत्यक्ष ज्ञान के बिना नहीं। श्रमण गोतम कारण के साथ धर्म बताते हैं, कारण के बिना नहीं। श्रमण गोतम दर्शाते हुए धर्म बताते हैं, बिना दर्शाते हुए नहीं’ — यह दूसरा गुण हैं, जिसके कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

(३) आगे, उदायी, मेरे श्रावक अधिप्रज्ञा (=ऊँचा अंतर्ज्ञान) को सम्मान देते हैं, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम प्रज्ञावान हैं, परम प्रज्ञा-स्कंध से युक्त हैं। ऐसा संभव नहीं है कि वे किसी सिद्धान्त के भविष्य में उपजने वाले परिणाम को न देख सके, या वर्तमान के किसी विपरीत सिद्धान्त का धर्मानुसार खण्डन, पूर्ण खण्डन न कर सके।’

तुम्हें क्या लगता है, उदायी? क्या मेरे श्रावक, इस तरह जानते हुए, इस तरह देखते हुए, मुझे बीच में टोकेंगे?”

“नहीं, भंते।”

“ऐसा नहीं है, उदायी, कि मैं अपने श्रावक से निर्देश लेना चाहता हूँ। बल्कि, मेरे श्रावक बिना चुके मुझसे निर्देश चाहते हैं।”

और, मेरे श्रावकों द्वारा अधिप्रज्ञा को सम्मान देना, (कहते हुए,) ‘श्रमण गोतम प्रज्ञावान हैं, परम प्रज्ञा-स्कंध से युक्त हैं। ऐसा संभव नहीं है कि वे किसी सिद्धान्त के भविष्य में उपजने वाले परिणाम को न देख सके, या वर्तमान के किसी विपरीत सिद्धान्त का धर्मानुसार खण्डन, पूर्ण खण्डन न कर सके’ — यह तीसरा गुण हैं, जिसके कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

(४) आगे, उदायी, मेरे श्रावक दुःखी, दुःख से घिरे, दुःख में फँसे होने पर मेरे पास ‘दुःख आर्यसत्य’ पूछने आते हैं। दुःख आर्यसत्य पूछने पर, मैं उन्हें उत्तर देता हूँ, उनके प्रश्नों पर स्पष्टीकरण से मैं उनके चित्त को आश्वस्त करता हूँ।

मेरे श्रावक दुःखी, दुःख से घिरे, दुःख में फँसे होने पर मेरे पास ‘दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य’ पूछने आते हैं… ‘दुःख निरोध आर्यसत्य’ पूछने आते हैं… ‘दुःख निरोधकर्ता मार्ग आर्यसत्य’ पूछने आते हैं। दुःख निरोधकर्ता मार्ग आर्यसत्य पूछने पर, मैं उन्हें उत्तर देता हूँ, उनके प्रश्नों पर स्पष्टीकरण से मैं उनके चित्त को आश्वस्त करता हूँ।

और, मेरे श्रावकों द्वारा दुःखी, दुःख से घिरे, दुःख में फँसे होने पर मेरे पास ‘दुःख आर्यसत्य’… ‘दुःख उत्पत्ति आर्यसत्य’… ‘दुःख निरोध आर्यसत्य’… ‘दुःख निरोधकर्ता मार्ग आर्यसत्य’ पूछने आना, और मेरा उन्हें उत्तर देना, उनके प्रश्नों पर स्पष्टीकरण से मेररा उनके चित्त को आश्वस्त करना — यह चौथा गुण हैं, जिसके कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

पाँचवा गुण 9

चार स्मृतिप्रस्थान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ (“पटिपदा”) दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक चार स्मृतिप्रस्थान विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु दुनिया के प्रति लालसा और नाराज़ी हटाकर —

  • काया को काया देखते हुए रहता है
  • संवेदना को संवेदना देखते हुए रहता है
  • चित्त को चित्त देखते हुए रहता है
  • स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहता है

— तत्पर, सचेत और स्मरणशील।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान (=अभिज्ञा) में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं। 10

चार सम्यक प्रधान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक चार सम्यक प्रधान विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • अनुत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न न हो — उसके लिए कोई चाह (“छन्द”) पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर (“वीरिय”) लगाता है, इरादा (“चित्त”) बनाकर जुटता है।
  • उत्पन्न पाप, अकुशल स्वभाव छोड़ने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • अनुत्पन्न कुशल स्वभाव उत्पन्न करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।
  • उत्पन्न कुशल स्वभाव टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

चार ऋद्धिपद

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक चार सम्यक प्रधान विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • चाहत (“छन्द”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • ऊर्जा (“वीरिय”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • मानस (“चित्त”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है,
  • विवेक (“वीमंस”) और परिश्रम से रचित समाधि से संपन्न ऋद्धिबल को विकसित करता है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

पाँच इंद्रिय

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक पाँच इंद्रिय विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • श्रद्धा इंद्रिय को विकसित करता है, जो प्रशांति की ओर बढ़ती है, संबोधि की ओर बढ़ती है,
  • ऊर्जा इंद्रिय को विकसित करता है…
  • स्मृति इंद्रिय को विकसित करता है…
  • समाधि इंद्रिय को विकसित करता है…
  • प्रज्ञा इंद्रिय को विकसित करता है, जो प्रशांति की ओर बढ़ती है, संबोधि की ओर बढ़ती है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

पाँच बल

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक पाँच बल विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • श्रद्धा बल को विकसित करता है, जो प्रशांति की ओर बढ़ती है, संबोधि की ओर बढ़ती है,
  • ऊर्जा बल को विकसित करता है…
  • स्मृति बल को विकसित करता है…
  • समाधि बल को विकसित करता है…
  • प्रज्ञा बल को विकसित करता है, जो प्रशांति की ओर बढ़ती है, संबोधि की ओर बढ़ती है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

सात संबोध्यङ्ग

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक सात संबोध्यङ्ग विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • स्मृति (“सति”)संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।
  • स्वभाव-विश्लेषण (“धम्मविचय”) संबोध्यङ्ग…
  • ऊर्जा (“विरिय”) संबोध्यङ्ग…
  • प्रफुल्लता (“पीति”) संबोध्यङ्ग…
  • प्रशान्ति (“पस्सद्धि”) संबोध्यङ्ग…
  • समाधि संबोध्यङ्ग…
  • तटस्थता (“उपेक्खा”) संबोध्यङ्ग की साधना निर्लिप्तता के सहारे, विराग के सहारे, निरोध के सहारे करता है, जो त्याग परिणामी हो।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

आर्य अष्टांगिक मार्ग

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक आर्य अष्टांगिक मार्ग विकसित करते हैं।

उदायी, कोई भिक्षु—

  • सम्यक दृष्टि विकसित करता है,
  • सम्यक संकल्प…
  • सम्यक वाणी…
  • सम्यक कार्य…
  • सम्यक जीविका…
  • सम्यक मेहनत…
  • सम्यक स्मृति…
  • सम्यक समाधि विकसित करता है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

आठ विमोक्ष

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक आठ विमोक्ष विकसित करते हैं।

  • रूपवान होकर रूप देखना — पहला विमोक्ष है।
  • भीतर से अरूप नजरिया होना और बाहरी रूप देखना — दूसरा विमोक्ष है।
  • केवल अच्छाई (या सौंदर्य) देखना — तीसरा विमोक्ष है।
  • रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ (देखते हुए) अनंत आकाश-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — चौथा विमोक्ष है।
  • अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ (देखते हुए) अनंत चैतन्य-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — पाँचवा विमोक्ष है।
  • अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ (देखते हुए) सूने-आयाम में प्रवेश पाकर रहना — छटवा विमोक्ष है।
  • सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा (=न बोधगम्य, न अबोधगम्य) आयाम में प्रवेश पाकर रहना — सातवा विमोक्ष है।
  • न-संज्ञा-न-असंज्ञा आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, संज्ञा और संवेदना निरोध (अवस्था) में प्रवेश पाकर रहना — आठवा विमोक्ष है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

आठ प्रभुत्व आयाम

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक आठ प्रभुत्व आयाम विकसित करते हैं।

(१) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पहला आयाम है।

(२) भीतर से रूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का दूसरा आयाम है।

(३) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सीमित, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का तीसरा आयाम है।

(४) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी असीम, सुंदर और कुरूप रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का चौथा आयाम है।

(५) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा (=चमक) वाले रूप देखता है। जैसे, सन (=अलसी) का फूल होता है — नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, नीला, नीले वर्ण वाला, नीले लक्षणों वाला, नीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी नीले, नीले वर्ण वाले, नीले लक्षणों वाले, नीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का पाँचवा आयाम है।

(६) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। जैसे, कर्णिकार का फूल होता है — पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, पीला, पीले वर्ण वाला, पीले लक्षणों वाला, पीली आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी पीले, पीले वर्ण वाले, पीले लक्षणों वाले, पीली आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का छठा आयाम है।

(७) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। जैसे, बंधुजीवक (=अड़हल?) का फूल होता है — लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, लाल, लाल वर्ण वाला, लाल लक्षणों वाला, लाल आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी लाल, लाल वर्ण वाले, लाल लक्षणों वाले, लाल आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का सातवा आयाम है।

(८) भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। जैसे, शुक्र तारा (ग्रह) होता है — सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। या बनारसी मलमल होता है — दोनों ओर से चिकना, सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाला, सफ़ेद लक्षणों वाला, सफ़ेद आभा वाला। उसी तरह, भीतर से अरूप-नजरिया एक होकर, बाहरी सफ़ेद, सफ़ेद वर्ण वाले, सफ़ेद लक्षणों वाले, सफ़ेद आभा वाले रूप देखता है। उन पर प्रभुत्व पाकर, ‘मैं जानता हूँ, देखता हूँ’ — नजरिए वाला होता है। यह प्रभुत्व का आठवा आयाम है।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

दस समग्रता (“कसिण”) के आयाम

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक दस समग्रता के आयाम विकसित करते हैं।

(१) पृथ्वी की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र (=दो नहीं), असीम। (२) जल की समग्रता… (३) अग्नि की समग्रता… (४) वायु की समग्रता… (५) नीले की समग्रता… (६) पीले की समग्रता… (७) लाल की समग्रता… (८) सफ़ेद की समग्रता… (९) आकाश की समग्रता… (१०) चैतन्य की समग्रता पहचानता है — ऊपर, नीचे, आड़े-तिरछे, एकमात्र, असीम।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

चार ध्यान (“झान”)

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक चार ध्यान विकसित करते हैं।

(१) कोई भिक्षु, उदायी, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, कोई निपुण स्नान करानेवाला (या आटा गूँथनेवाला) हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण (या आटा) रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न।

उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

(२) आगे, उदायी, कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई (भीतर आता) अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा।

उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

(३) आगे, उदायी, कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, किसी पुष्करणी (=कमलपुष्प के तालाब) में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता।

उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।

(४) आगे, उदायी, कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए।

उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

विपश्यना ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक (प्रज्ञापूर्वक) समझते हैं, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य (“विञ्ञाण”) इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’

जैसे, उदायी, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक समझते हैं, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

मनोमय-ऋद्धि ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक इस काया से दूसरी काया निर्मित करते हैं — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।

जैसे, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक इस काया से दूसरी काया निर्मित करते हैं — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

विविध ऋद्धियाँ ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करते हैं — एक होकर अनेक बनते हैं, अनेक होकर एक बनते हैं। प्रकट होते हैं, विलुप्त होते हैं। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चले जाते हैं, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाते हैं, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलते हैं, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ते हैं, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूते और मलते हैं। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेते हैं।

जैसे, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है।

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक — विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करते हैं — एक होकर अनेक बनते हैं, अनेक होकर एक बनते हैं। प्रकट होते हैं, विलुप्त होते हैं। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चले जाते हैं, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाते हैं, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलते हैं, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ते हैं, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूते और मलते हैं। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेते हैं।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

दिव्यश्रोत ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज सुनते हैं — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

जैसे, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज सुनते हैं — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

परचित्त ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेते हैं।

उन्हें रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’

उन्हें विस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘विस्तारित चित्त है।’ अविस्तारित चित्त पता चलता है कि ‘अविस्तारित चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

जैसे, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक — अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेते हैं।

उन्हें रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है’… विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण करने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करते हैं।

जैसे, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।”

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण करने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म… उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वे अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करते हैं।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

दिव्यचक्षु ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखते हैं। और उन्हें पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

‘कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’

‘किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे।’

इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखते हैं। और उन्हें पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

जैसे, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।”

उसी तरह , उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखते हैं। और उन्हें पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं…

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

आस्रवक्षय ज्ञान

आगे, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करते हैं।

जैसे, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर (=झील) हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’

उसी तरह, उदायी, मैंने अपने श्रावकों को साधनापथ दर्शाया है, जिस साधनापथ से मेरे श्रावक आस्रवों के क्षय होने से अनास्रव होकर, इसी जीवन में चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति प्राप्त कर, प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर विहार करते हैं।

और मेरे बहुत से श्रावक प्रत्यक्ष ज्ञान में संपन्नता और परमता प्राप्त कर विहार करते हैं।

— यह पाँचवा गुण हैं, उदायी, जिसके कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।

इस तरह, ये पाँच (असली) गुण हैं, उदायी, जिन पाँच गुणों के कारण मेरे श्रावक मेरा सत्कार करते हैं, सम्मान करते हैं, मानते हैं और पूजते हैं। और मेरा सत्कार और सम्मान कर, मुझ पर निर्भर रह कर विहार करते हैं।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. प्राचीन भारत में श्रमण परंपरा ने विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के बीच सौहार्दपूर्ण संवाद को बढ़ावा दिया। साधु-संत, भिक्षु, और ब्राह्मणों के बीच गहरे और तीव्र विचार-विमर्श होते थे, जो न सिर्फ धार्मिक दृष्टिकोण को समृद्ध करते थे, बल्कि आपसी सम्मान और समझ को भी बढ़ावा देते थे। यह परंपरा सत्य की खोज में समर्पित थी, और हर विचार को सुना और आदर दिया जाता था।

    प्राचीन भारत में सम्राट अशोक और और मध्यकाल में अकबर महान जैसे शासकों ने धार्मिक विविधता को सम्मान देने और सांप्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रयास किए। सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाने के बाद अपने शिलालेखों के माध्यम से अहिंसा, सहिष्णुता और सभी धर्मों के प्रति सम्मान का संदेश फैलाया। वहीं, अकबर महान ने दीन-ए-इलाही की स्थापना की, जिसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों के बीच समझ और संवाद को बढ़ावा देना था।

    भारत की प्राचीन परंपरा से प्रेरित होकर, आधुनिक समय में विश्व धर्म महासभा (Parliament of the World’s Religions) जैसी अंतरराष्ट्रीय-अंतरधार्मिक संवाद के माध्यम से विभिन्न धर्मों के बीच शांति और सहयोग की भावना को बढ़ावा देती है। उसी महासभा में १८९३ में स्वामी विवेकानंद ने धर्म, मानवता और एकता का संदेश दिया, यह बताते हुए कि सभी धर्मों का मूल उद्देश्य एक ही है—आध्यात्मिक उन्नति और मानवता की सेवा। उनका यह संदेश धर्मों के बीच सौहार्दपूर्ण संवाद की नींव बना। ↩︎

  2. पूरण कश्यप के बारे में उपलब्ध जानकारी बहुत सीमित है, लेकिन उनके विचारों का प्रभाव काफी गहरा था। उनका “अक्रियावाद” या नास्तिकवाद सिद्धांत आज भी कई नास्तिकों द्वारा अपनाया जाता है। उनके अनुसार, कोई भी बुरा कार्य करने से कोई पाप नहीं होता, और कोई अच्छा कार्य करने से पुण्य नहीं मिलता। उनके दृष्टिकोण में, किसी भी कर्म का कोई वास्तविक परिणाम नहीं होता, और जीवन के चक्र में कर्मों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ↩︎

  3. मक्खलि गोसाल कार्य-कारण संबंध को नकारते थे। उनका मानना था कि सभी प्राणी १४ लाख योनियों में जन्म और मृत्यु के चक्कर में भटकते हुए दुःखों का अंत करते हैं। उनके अनुसार, इसके लिए किसी प्रकार का प्रयास या कर्म करने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि सब कुछ स्वाभाविक रूप से अपने आप ही घटित होता है। ↩︎

  4. अजित केसकम्बल प्राचीन “भोगवाद” या “उच्छेदवाद” का एक प्रमुख प्रवर्तक था, और उसके विचारों को बाद में चार्वाक के नाम से जाना गया। अंगुत्तरनिकाय ३.१३७ के अनुसार और उसके नाम से भी यह स्पष्ट होता है कि वह श्रमण परंपरा से था, और अपने शरीर पर बालों से बना कंबल (केशकम्बल) पहनता था। उसका भोगवादी दृष्टिकोण यह था कि जीवन का प्रमुख उद्देश्य केवल भोग और आनंद प्राप्त करना है, और उसने आत्मा, पुनर्जन्म और कर्म जैसी धार्मिक अवधारणाओं को पूरी तरह से नकार दिया था। उसके विचारों ने बाद में चार्वाक दार्शनिक परंपरा को जन्म दिया, जो भौतिकवाद और इंद्रिय सुखों को सर्वोपरि मानती थी। ↩︎

  5. पकुध कच्चायन को कभी-कभी “ककुध” कच्चायन भी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है कूबड़। यह नाम शायद उसकी शारीरिक अवस्था या किसी विशेषता को दर्शाने के लिए उपयोग किया गया होगा। पकुध कच्चायन ने कर्मों और उनके परिणामों की संभावना को पूरी तरह से नकारते हुए अपने “भौतिक” सिद्धांत प्रस्तुत किए। उनके अनुसार, कर्मों का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं होता, और जीवन के चक्र में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। उनकी शिक्षाओं का प्रभाव बाद में कई दार्शनिक परंपराओं में देखा गया, हालांकि आजीवक और अन्य श्रमण परंपराओं में उनके विचारों पर मतभेद बने रहे। ↩︎

  6. सञ्जय बेलट्ठपुत्त एक अज्ञेयवादी या संशयवादी व्यक्ति थे, जिनका मानना था कि कोई भी चीज़ निश्चित रूप से ज्ञात नहीं की जा सकती, न ही उसे किसी निश्चित रूप में व्यक्त किया जा सकता है। जैसे बाम-मछली हाथों में फड़कते हुए छटपटाती है, उसी तरह वह हर प्रश्न पर केवल टालमटोल करते हुए यही कहते थे, “मुझे ऐसा नहीं लगता। मैं ऐसा नहीं सोचता। मुझे अन्यथा नहीं लगता। ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसा नहीं लगता। ऐसा भी नहीं है कि मुझे ऐसा नहीं लगता।”

    सारिपुत्त और मोग्गलान, जो पहले सञ्जय बेलट्ठपुत्त के प्रमुख शिष्य थे, अस्सजि भंते से धर्म सुनकर सञ्जय को छोड़ने का निर्णय लिया। इस पर सञ्जय गहरे सदमे में आ गए थे। लेकिन उसकी शिक्षा को सुनकर, कोई भी विवेकी व्यक्ति, जिसे कुशल, अकुशल और विमुक्ति के बारे में स्पष्टता चाहता हो, वह उसे छोड़ ही देता। ↩︎

  7. निगण्ठ नाटपुत्त को आज “महावीर जैन” के नाम से जाना जाता है। वे जैन धर्म के २४वें तीर्थंकर माने जाते हैं। उनका नाम “वर्धमान” था, लेकिन बाद में उन्हें महावीर के रूप में जाना गया। वे अपने जीवन में अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी से बचना], ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (वस्तुओं का न्यूनतम संग्रह] जैसे शील का पालन करते थे। महावीर ने जैन धर्म को व्यापक रूप से प्रचारित किया और अपने अनुयायियों को निर्ग्रंथ (=बिना बंधनों के] जीवन जीने की प्रेरणा दी। उनका प्रमुख संदेश था कि सभी जीवों में समान आत्मा होती है, और इसलिए अहिंसा को सर्वोत्तम धर्म माना जाना चाहिए। महावीर की शिक्षाओं ने भारतीय समाज में व्यापक प्रभाव डाला और जैन धर्म को एक प्रमुख धार्मिक परंपरा के रूप में स्थापित किया। ↩︎

  8. यहाँ भगवान पंसुकूलिक, पिण्डपातिक, सपदानचारी, रुक्खमूलिक, अब्भोकासिक, आरञ्ञिक आदि अनेक प्रकार के धुतांग अभ्यास का वर्णन कर रहे हैं। कुल तेरह धुतांग हैं, जिनके बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎

  9. यहाँ आया पाँचवाँ गुण, प्रारंभिक सूत्रों में ध्यान-साधना की सबसे विस्तृत और महत्वपूर्ण व्याख्याओं में से एक माना जाता है। चीनी समानांतर सूत्र (मध्यमआगम २०७) में सिर्फ इतना कहा गया है कि भगवान ने शिष्यों को संदेह से उबरने और दूर के तट तक पहुँचने का उपदेश दिया, जो कि पाली सूत्र की तुलना में बहुत संक्षेप में है।

    मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा लगता है कि पाली सूत्र में इस पाँचवे गुण को अपेक्षा से अधिक विस्तार दिया गया है; इस कारण यह मज्झिमनिकाय की अपेक्षा दीर्घनिकाय के किसी सूत्र में सम्मिलित होने के अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। इस पाँचवे गुण में विभिन्न पहलुओं के साथ-साथ ३७ “बोधिपक्खिय धम्म” का भी समावेश किया गया है। उनकी साधना के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका में पढ़ें — “कुशल कैसे बढ़ाएँ?” ↩︎

  10. यहाँ पारमि शब्द का दुर्लभ प्रयोग किया गया है — “अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता” के संदर्भ में, अर्थात “अरहत्व अवस्था” के संदर्भ में। पारमि या “पूर्णता”, प्रारंभिक बौद्ध साहित्य के चार मुख्य निकायों में केवल तीन सूत्रों में मिलता है — मज्झिमनिकाय १११, अंगुत्तरनिकाय ५.११, और यहाँ। इन तीनों संदर्भों में, इसका अर्थ किसी गुण के पूर्ण रूप से विकसित होने से है, और यह उन “दस पारमियों” का संदर्भ नहीं देता, जिन्हें भगवान के परिनिर्वाण के कई शताब्दियों बाद सूचीबद्ध किया गया। पारमि के बारे में जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें, और यह मार्गदर्शिका भी। ↩︎

Pali

२३७. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. तेन खो पन समयेन सम्बहुला अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता परिब्बाजका मोरनिवापे परिब्बाजकारामे पटिवसन्ति, सेय्यथिदं – अन्नभारो वरधरो सकुलुदायी च परिब्बाजको अञ्ञे च अभिञ्ञाता अभिञ्ञाता परिब्बाजका. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव राजगहे पिण्डाय चरितुं. यंनूनाहं येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामो येन सकुलुदायी परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति. अथ खो भगवा येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कमि. तेन खो पन समयेन सकुलुदायी परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा. अद्दसा खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेति – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु; मा भोन्तो सद्दमकत्थ. अयं समणो गोतमो आगच्छति; अप्पसद्दकामो खो पन सो आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी. अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति. अथ खो ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं. अथ खो भगवा येन सकुलुदायी परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि. अथ खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा. स्वागतं, भन्ते, भगवतो. चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय. निसीदतु, भन्ते, भगवा; इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. सकुलुदायीपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो सकुलुदायिं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच –

२३८. ‘‘कायनुत्थ , उदायि, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति? ‘‘तिट्ठतेसा, भन्ते, कथा याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना. नेसा, भन्ते, कथा भगवतो दुल्लभा भविस्सति पच्छापि सवनाय. पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं कुतूहलसालायं सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयमन्तराकथा उदपादि – ‘लाभा वत, भो, अङ्गमगधानं, सुलद्धलाभा वत, भो, अङ्गमगधानं! तत्रिमे [यत्थिमे (सी.)] समणब्राह्मणा सङ्घिनो गणिनो गणाचरिया ञाता यसस्सिनो तित्थकरा साधुसम्मता बहुजनस्स राजगहं वस्सावासं ओसटा. अयम्पि खो पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सोपि राजगहं वस्सावासं ओसटो. अयम्पि खो मक्खलि गोसालो…पे… अजितो केसकम्बलो… पकुधो कच्चायनो… सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो… निगण्ठो नाटपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सोपि राजगहं वस्सावासं ओसटो. अयम्पि खो समणो गोतमो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सोपि राजगहं वस्सावासं ओसटो. को नु खो इमेसं भवतं समणब्राह्मणानं सङ्घीनं गणीनं गणाचरियानं ञातानं यसस्सीनं तित्थकरानं साधुसम्मतानं बहुजनस्स सावकानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो, कञ्च पन सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा [गरुकत्वा (सी. स्या. कं. पी.)] उपनिस्साय विहरन्ती’’’ति?

२३९. ‘‘तत्रेकच्चे एवमाहंसु – ‘अयं खो पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सो च खो सावकानं न सक्कतो न गरुकतो न मानितो न पूजितो, न च पन पूरणं कस्सपं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. भूतपुब्बं पूरणो कस्सपो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति. तत्रञ्ञतरो पूरणस्स कस्सपस्स सावको सद्दमकासि – ‘‘मा भोन्तो पूरणं कस्सपं एतमत्थं पुच्छित्थ; नेसो एतं जानाति; मयमेतं जानाम, अम्हे एतमत्थं पुच्छथ; मयमेतं भवन्तानं ब्याकरिस्सामा’’ति. भूतपुब्बं पूरणो कस्सपो बाहा पग्गय्ह कन्दन्तो न लभति – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ. नेते, भवन्ते, पुच्छन्ति, अम्हे एते पुच्छन्ति; मयमेतेसं ब्याकरिस्सामा’’ति. बहू खो पन पूरणस्स कस्सपस्स सावका वादं आरोपेत्वा अपक्कन्ता – ‘‘न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि , किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मापटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते, पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितोसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी’’ति. इति पूरणो कस्सपो सावकानं न सक्कतो न गरुकतो न मानितो न पूजितो, न च पन पूरणं कस्सपं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. अक्कुट्ठो च पन पूरणो कस्सपो धम्मक्कोसेना’’’ति.

‘‘एकच्चे एवमाहंसु – ‘अयम्पि खो मक्खलि गोसालो…पे… अजितो केसकम्बलो… पकुधो कच्चायनो… सञ्जयो बेलट्ठपुत्तो… निगण्ठो नाटपुत्तो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सो च खो सावकानं न सक्कतो न गरुकतो न मानितो न पूजितो, न च पन निगण्ठं नाटपुत्तं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. भूतपुब्बं निगण्ठो नाटपुत्तो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति. तत्रञ्ञतरो निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावको सद्दमकासि – मा भोन्तो निगण्ठं नाटपुत्तं एतमत्थं पुच्छित्थ; नेसो एतं जानाति; मयमेतं जानाम, अम्हे एतमत्थं पुच्छथ; मयमेतं भवन्तानं ब्याकरिस्सामाति. भूतपुब्बं निगण्ठो नाटपुत्तो बाहा पग्गय्ह कन्दन्तो न लभति – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ. नेते भवन्ते पुच्छन्ति, अम्हे एते पुच्छन्ति; मयमेतेसं ब्याकरिस्सामा’’ति. बहू खो पन निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स सावका वादं आरोपेत्वा अपक्कन्ता – ‘‘न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि. किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि? मिच्छापटिपन्नो त्वमसि. अहमस्मि सम्मापटिपन्नो. सहितं मे असहितं ते, पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितोसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसी’’ति. इति निगण्ठो नाटपुत्तो सावकानं न सक्कतो न गरुकतो न मानितो न पूजितो, न च पन निगण्ठं नाटपुत्तं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. अक्कुट्ठो च पन निगण्ठो नाटपुत्तो धम्मक्कोसेना’’’ति.

२४०. ‘‘एकच्चे एवमाहंसु – ‘अयम्पि खो समणो गोतमो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स; सो च खो सावकानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो, समणञ्च पन गोतमं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. भूतपुब्बं समणो गोतमो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेसि. तत्रञ्ञतरो समणस्स गोतमस्स सावको उक्कासि. तमेनाञ्ञतरो सब्रह्मचारी जण्णुकेन [जण्णुके (सी.)] घट्टेसि – ‘‘अप्पसद्दो आयस्मा होतु, मायस्मा सद्दमकासि, सत्था नो भगवा धम्मं देसेसी’’ति. यस्मिं समये समणो गोतमो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति, नेव तस्मिं समये समणस्स गोतमस्स सावकानं खिपितसद्दो वा होति उक्कासितसद्दो वा. तमेनं महाजनकायो पच्चासीसमानरूपो [पच्चासिं समानरूपो (सी. स्या. कं. पी.)] पच्चुपट्ठितो होति – ‘‘यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं नो सोस्सामा’’ति. सेय्यथापि नाम पुरिसो चातुम्महापथे खुद्दमधुं [खुद्दं मधुं (सी. स्या. कं. पी.)] अनेलकं पीळेय्य [उप्पीळेय्य (सी.)]. तमेनं महाजनकायो पच्चासीसमानरूपो पच्चुपट्ठितो अस्स. एवमेव यस्मिं समये समणो गोतमो अनेकसताय परिसाय धम्मं देसेति, नेव तस्मिं समये समणस्स गोतमस्स सावकानं खिपितसद्दो वा होति उक्कासितसद्दो वा. तमेनं महाजनकायो पच्चासीसमानरूपो पच्चुपट्ठितो होति – ‘‘यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं नो सोस्सामा’’ति. येपि समणस्स गोतमस्स सावका सब्रह्मचारीहि सम्पयोजेत्वा सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तन्ति तेपि सत्थु चेव वण्णवादिनो होन्ति, धम्मस्स च वण्णवादिनो होन्ति, सङ्घस्स च वण्णवादिनो होन्ति, अत्तगरहिनोयेव होन्ति अनञ्ञगरहिनो, ‘‘मयमेवम्हा अलक्खिका मयं अप्पपुञ्ञा ते मयं एवं स्वाक्खाते धम्मविनये पब्बजित्वा नासक्खिम्हा यावजीवं परिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरितु’’न्ति. ते आरामिकभूता वा उपासकभूता वा पञ्चसिक्खापदे समादाय वत्तन्ति. इति समणो गोतमो सावकानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो, समणञ्च पन गोतमं सावका सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ती’’’ति.

२४१. ‘‘कति पन त्वं, उदायि, मयि धम्मे समनुपस्ससि, येहि ममं [मम (सब्बत्थ)] सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति [गरुकरोन्ति (सी. स्या. कं. पी.)] मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ती’’ति? ‘‘पञ्च खो अहं, भन्ते, भगवति धम्मे समनुपस्सामि येहि भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. कतमे पञ्च? भगवा हि, भन्ते, अप्पाहारो, अप्पाहारताय च वण्णवादी. यम्पि, भन्ते, भगवा अप्पाहारो, अप्पाहारताय च वण्णवादी इमं खो अहं, भन्ते, भगवति पठमं धम्मं समनुपस्सामि येन भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी. यम्पि, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, इमं खो अहं, भन्ते, भगवति दुतियं धम्मं समनुपस्सामि येन भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी. यम्पि, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, इमं खो अहं, भन्ते, भगवति ततियं धम्मं समनुपस्सामि येन भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया च वण्णवादी. यम्पि, भन्ते, भगवा सन्तुट्ठो इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया च वण्णवादी, इमं खो अहं, भन्ते, भगवति चतुत्थं धम्मं समनुपस्सामि येन भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, भन्ते, भगवा पविवित्तो, पविवेकस्स च वण्णवादी . यम्पि, भन्ते, भगवा पविवित्तो, पविवेकस्स च वण्णवादी, इमं खो अहं, भन्ते, भगवति पञ्चमं धम्मं समनुपस्सामि येन भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘इमे खो अहं, भन्ते, भगवति पञ्च धम्मे समनुपस्सामि येहि भगवन्तं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ती’’ति.

२४२. ‘‘‘अप्पाहारो समणो गोतमो, अप्पाहारताय च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, सन्ति खो पन मे, उदायि, सावका कोसकाहारापि अड्ढकोसकाहारापि बेलुवाहारापि अड्ढबेलुवाहारापि. अहं खो पन, उदायि, अप्पेकदा इमिना पत्तेन समतित्तिकम्पि भुञ्जामि भिय्योपि भुञ्जामि. ‘अप्पाहारो समणो गोतमो, अप्पाहारताय च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, ये ते, उदायि, मम सावका कोसकाहारापि अड्ढकोसकाहारापि बेलुवाहारापि अड्ढबेलुवाहारापि न मं ते इमिना धम्मेन सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं.

‘‘‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, सन्ति खो पन मे, उदायि, सावका पंसुकूलिका लूखचीवरधरा ते सुसाना वा सङ्कारकूटा वा पापणिका वा नन्तकानि [पापणिकानि वा नन्तकानि वा (सी.)] उच्चिनित्वा [उच्छिन्दित्वा (क.)] सङ्घाटिं करित्वा धारेन्ति. अहं खो पनुदायि, अप्पेकदा गहपतिचीवरानि धारेमि दळ्हानि सत्थलूखानि अलाबुलोमसानि. ‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन चीवरेन, इतरीतरचीवरसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, ये ते, उदायि, मम सावका पंसुकूलिका लूखचीवरधरा ते सुसाना वा सङ्कारकूटा वा पापणिका वा नन्तकानि उच्चिनित्वा सङ्घाटिं करित्वा धारेन्ति, न मं ते इमिना धम्मेन सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं.

‘‘‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, सन्ति खो पन मे, उदायि, सावका पिण्डपातिका सपदानचारिनो उञ्छासके वते रता, ते अन्तरघरं पविट्ठा समाना आसनेनपि निमन्तियमाना न सादियन्ति. अहं खो पनुदायि, अप्पेकदा निमन्तनेपि [निमन्तनस्सापि (क.)] भुञ्जामि सालीनं ओदनं विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं. ‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन पिण्डपातेन, इतरीतरपिण्डपातसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, ये ते, उदायि, मम सावका पिण्डपातिका सपदानचारिनो उञ्छासके वते रता ते अन्तरघरं पविट्ठा समाना आसनेनपि निमन्तियमाना न सादियन्ति, न मं ते इमिना धम्मेन सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं.

‘‘‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, सन्ति खो पन मे, उदायि, सावका रुक्खमूलिका अब्भोकासिका, ते अट्ठमासे छन्नं न उपेन्ति. अहं खो पनुदायि, अप्पेकदा कूटागारेसुपि विहरामि उल्लित्तावलित्तेसु निवातेसु फुसितग्गळेसु [फुस्सितग्गळेसु (सी. पी.)] पिहितवातपानेसु. ‘सन्तुट्ठो समणो गोतमो इतरीतरेन सेनासनेन, इतरीतरसेनासनसन्तुट्ठिया च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, ये ते, उदायि, मम सावका रुक्खमूलिका अब्भोकासिका ते अट्ठमासे छन्नं न उपेन्ति, न मं ते इमिना धम्मेन सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं.

‘‘‘पविवित्तो समणो गोतमो, पविवेकस्स च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, सन्ति खो पन मे, उदायि, सावका आरञ्ञिका पन्तसेनासना अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि अज्झोगाहेत्वा विहरन्ति, ते अन्वद्धमासं सङ्घमज्झे ओसरन्ति पातिमोक्खुद्देसाय. अहं खो पनुदायि, अप्पेकदा आकिण्णो विहरामि भिक्खूहि भिक्खुनीहि उपासकेहि उपासिकाहि रञ्ञा राजमहामत्तेहि तित्थियेहि तित्थियसावकेहि. ‘पविवित्तो समणो गोतमो, पविवेकस्स च वण्णवादी’ति, इति चे मं, उदायि, सावका सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं, ये ते, उदायि, मम सावका आरञ्ञका पन्तसेनासना अरञ्ञवनपत्थानि पन्तानि सेनासनानि अज्झोगाहेत्वा विहरन्ति ते अन्वद्धमासं सङ्घमज्झे ओसरन्ति पातिमोक्खुद्देसाय, न मं ते इमिना धम्मेन सक्करेय्युं गरुं करेय्युं मानेय्युं पूजेय्युं, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरेय्युं.

‘‘इति खो, उदायि, न ममं सावका इमेहि पञ्चहि धम्मेहि सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

२४३. ‘‘अत्थि खो, उदायि, अञ्ञे च पञ्च धम्मा येहि पञ्चहि धम्मेहि ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति , सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति. कतमे पञ्च? इधुदायि, ममं सावका अधिसीले सम्भावेन्ति – ‘सीलवा समणो गोतमो परमेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो’ति. यम्पुदायि [यमुदायि (स्या. क.)], ममं सावका अधिसीले सम्भावेन्ति – ‘सीलवा समणो गोतमो परमेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो’ति, अयं खो, उदायि , पठमो धम्मो येन ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

२४४. ‘‘पुन चपरं, उदायि, ममं सावका अभिक्कन्ते ञाणदस्सने सम्भावेन्ति – ‘जानंयेवाह समणो गोतमो – जानामीति, पस्संयेवाह समणो गोतमो – पस्सामीति; अभिञ्ञाय समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अनभिञ्ञाय; सनिदानं समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अनिदानं; सप्पाटिहारियं समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अप्पाटिहारिय’न्ति. यम्पुदायि, ममं सावका अभिक्कन्ते ञाणदस्सने सम्भावेन्ति – ‘जानंयेवाह समणो गोतमो – जानामीति, पस्संयेवाह समणो गोतमो – पस्सामीति; अभिञ्ञाय समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अनभिञ्ञाय; सनिदानं समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अनिदानं; सप्पाटिहारियं समणो गोतमो धम्मं देसेति नो अप्पाटिहारिय’न्ति, अयं खो, उदायि, दुतियो धम्मो येन ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

२४५. ‘‘पुन चपरं, उदायि, ममं सावका अधिपञ्ञाय सम्भावेन्ति – ‘पञ्ञवा समणो गोतमो परमेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो; तं वत अनागतं वादपथं न दक्खति, उप्पन्नं वा परप्पवादं न सहधम्मेन सुनिग्गहितं निग्गण्हिस्सतीति – नेतं ठानं विज्जति’. तं किं मञ्ञसि, उदायि, अपि नु मे सावका एवं जानन्ता एवं पस्सन्ता अन्तरन्तरा कथं ओपातेय्यु’’न्ति?

‘‘नो हेतं, भन्ते’’.

‘‘न खो पनाहं, उदायि, सावकेसु अनुसासनिं पच्चासीसामि [पच्चासिंसामि (सी. स्या. कं. पी.)]; अञ्ञदत्थु ममयेव सावका अनुसासनिं पच्चासीसन्ति.

‘‘यम्पुदायि, ममं सावका अधिपञ्ञाय सम्भावेन्ति – ‘पञ्ञवा समणो गोतमो परमेन पञ्ञाक्खन्धेन समन्नागतो; तं वत अनागतं वादपथं न दक्खति, उप्पन्नं वा परप्पवादं न सहधम्मेन निग्गहितं निग्गण्हिस्सतीति – नेतं ठानं विज्जति’. अयं खो, उदायि, ततियो धम्मो येन ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

२४६. ‘‘पुन चपरं, उदायि, मम सावका येन दुक्खेन दुक्खोतिण्णा दुक्खपरेता ते मं उपसङ्कमित्वा दुक्खं अरियसच्चं पुच्छन्ति, तेसाहं दुक्खं अरियसच्चं पुट्ठो ब्याकरोमि, तेसाहं चित्तं आराधेमि पञ्हस्स वेय्याकरणेन; ते मं दुक्खसमुदयं… दुक्खनिरोधं… दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदं अरियसच्चं पुच्छन्ति, तेसाहं दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदं अरियसच्चं पुट्ठो ब्याकरोमि , तेसाहं चित्तं आराधेमि पञ्हस्स वेय्याकरणेन. यम्पुदायि, मम सावका येन दुक्खेन दुक्खोतिण्णा दुक्खपरेता ते मं उपसङ्कमित्वा दुक्खं अरियसच्चं पुच्छन्ति, तेसाहं दुक्खं अरियसच्चं पुट्ठो ब्याकरोमि, तेसाहं चित्तं आराधेमि पञ्हस्स वेय्याकरणेन. ते मं दुक्खसमुदयं … दुक्खनिरोधं… दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदं अरियसच्चं पुच्छन्ति. तेसाहं दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदं अरियसच्चं पुट्ठो ब्याकरोमि. तेसाहं चित्तं आराधेमि पञ्हस्स वेय्याकरणेन. अयं खो, उदायि, चतुत्थो धम्मो येन ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

२४७. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका चत्तारो सतिपट्ठाने भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु काये कायानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं; वेदनासु वेदनानुपस्सी विहरति… चित्ते चित्तानुपस्सी विहरति… धम्मेसु धम्मानुपस्सी विहरति आतापी सम्पजानो सतिमा विनेय्य लोके अभिज्झादोमनस्सं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका चत्तारो सम्मप्पधाने भावेन्ति. इधुदायि , भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति, वायमति, वीरियं आरभति, चित्तं पग्गण्हाति, पदहति; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय छन्दं जनेति, वायमति, वीरियं आरभति, चित्तं पग्गण्हाति, पदहति; अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय छन्दं जनेति, वायमति, वीरियं आरभति, चित्तं पग्गण्हाति, पदहति; उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति, वायमति, वीरियं आरभति, चित्तं पग्गण्हाति, पदहति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका चत्तारो इद्धिपादे भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु छन्दसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, वीरियसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, चित्तसमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति, वीमंसासमाधिपधानसङ्खारसमन्नागतं इद्धिपादं भावेति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका पञ्चिन्द्रियानि भावेन्ति. इधुदायि , भिक्खु सद्धिन्द्रियं भावेति उपसमगामिं सम्बोधगामिं; वीरियिन्द्रियं भावेति…पे… सतिन्द्रियं भावेति… समाधिन्द्रियं भावेति… पञ्ञिन्द्रियं भावेति उपसमगामिं सम्बोधगामिं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका पञ्च बलानि भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु सद्धाबलं भावेति उपसमगामिं सम्बोधगामिं; वीरियबलं भावेति…पे… सतिबलं भावेति… समाधिबलं भावेति… पञ्ञाबलं भावेति उपसमगामिं सम्बोधगामिं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका सत्तबोज्झङ्गे भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु सतिसम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामिं; धम्मविचयसम्बोज्झङ्गं भावेति…पे… वीरियसम्बोज्झङ्गं भावेति… पीतिसम्बोज्झङ्गं भावेति… पस्सद्धिसम्बोज्झङ्गं भावेति… समाधिसम्बोज्झङ्गं भावेति… उपेक्खासम्बोज्झङ्गं भावेति विवेकनिस्सितं विरागनिस्सितं निरोधनिस्सितं वोस्सग्गपरिणामिं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अरियं अट्ठङ्गिकं मग्गं भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु सम्मादिट्ठिं भावेति, सम्मासङ्कप्पं भावेति, सम्मावाचं भावेति , सम्माकम्मन्तं भावेति, सम्माआजीवं भावेति, सम्मावायामं भावेति, सम्मासतिं भावेति, सम्मासमाधिं भावेति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२४८. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अट्ठ विमोक्खे भावेन्ति. रूपी रूपानि पस्सति, अयं पठमो विमोक्खो; अज्झत्तं अरूपसञ्ञी बहिद्धा रूपानि पस्सति, अयं दुतियो विमोक्खो; सुभन्तेव अधिमुत्तो होति, अयं ततियो विमोक्खो; सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं चतुत्थो विमोक्खो; सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं पञ्चमो विमोक्खो; सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं छट्ठो विमोक्खो; सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति, अयं सत्तमो विमोक्खो; सब्बसो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं समतिक्कम्म सञ्ञावेदयितनिरोधं उपसम्पज्ज विहरति, अयं अट्ठमो विमोक्खो. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२४९. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अट्ठ अभिभायतनानि भावेन्ति. अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं पठमं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं रूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं दुतियं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति परित्तानि सुवण्णदुब्बण्णानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं ततियं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति अप्पमाणानि सुवण्णदुब्बण्णानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं चतुत्थं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि. सेय्यथापि नाम उमापुप्फं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं, सेय्यथापि वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं नीलं नीलवण्णं नीलनिदस्सनं नीलनिभासं; एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति नीलानि नीलवण्णानि नीलनिदस्सनानि नीलनिभासानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं पञ्चमं अभिभायतनं .

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि. सेय्यथापि नाम कणिकारपुप्फं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं, सेय्यथापि वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं पीतं पीतवण्णं पीतनिदस्सनं पीतनिभासं; एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति पीतानि पीतवण्णानि पीतनिदस्सनानि पीतनिभासानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं छट्ठं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि. सेय्यथापि नाम बन्धुजीवकपुप्फं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं, सेय्यथापि वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं लोहितकं लोहितकवण्णं लोहितकनिदस्सनं लोहितकनिभासं; एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति लोहितकानि लोहितकवण्णानि लोहितकनिदस्सनानि लोहितकनिभासानि. ‘तानि अभिभुय्य जानामि, पस्सामी’ति एवं सञ्ञी होति. इदं सत्तमं अभिभायतनं.

‘‘अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि. सेय्यथापि नाम ओसधितारका ओदाता ओदातवण्णा ओदातनिदस्सना ओदातनिभासा, सेय्यथापि वा पन तं वत्थं बाराणसेय्यकं उभतोभागविमट्ठं ओदातं ओदातवण्णं ओदातनिदस्सनं ओदातनिभासं; एवमेव अज्झत्तं अरूपसञ्ञी एको बहिद्धा रूपानि पस्सति ओदातानि ओदातवण्णानि ओदातनिदस्सनानि ओदातनिभासानि . ‘तानि अभिभुय्य जानामि , पस्सामी’ति एवंसञ्ञी होति. इदं अट्ठमं अभिभायतनं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५०. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका दस कसिणायतनानि भावेन्ति. पथवीकसिणमेको सञ्जानाति उद्धमधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं; आपोकसिणमेको सञ्जानाति…पे… तेजोकसिणमेको सञ्जानाति… वायोकसिणमेको सञ्जानाति… नीलकसिणमेको सञ्जानाति… पीतकसिणमेको सञ्जानाति… लोहितकसिणमेको सञ्जानाति… ओदातकसिणमेको सञ्जानाति… आकासकसिणमेको सञ्जानाति … विञ्ञाणकसिणमेको सञ्जानाति उद्धमधो तिरियं अद्वयं अप्पमाणं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५१. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका चत्तारि झानानि भावेन्ति. इधुदायि, भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, उदायि, दक्खो न्हापको [नहापको (सी. पी.)] वा न्हापकन्तेवासी वा कंसथाले न्हानीयचुण्णानि [नहानीयचुण्णानि (सी. पी.)] आकिरित्वा उदकेन परिप्फोसकं परिप्फोसकं सन्नेय्य, सायं न्हानीयपिण्डि [सास्स नहानीयपिण्डी (सी. स्या. कं.)] स्नेहानुगता स्नेहपरेतो सन्तरबाहिरा फुटा स्नेहेन न च पग्घरिणी; एवमेव खो, उदायि, भिक्खु इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति . सेय्यथापि, उदायि, उदकरहदो गम्भीरो उब्भिदोदको [उब्भितोदको (स्या. कं. क.)]. तस्स नेवस्स पुरत्थिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं , न पच्छिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न उत्तराय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न दक्खिणाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, देवो च न कालेन कालं सम्मा धारं अनुप्पवेच्छेय्य; अथ खो तम्हाव उदकरहदा सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वा तमेव उदकरहदं सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, नास्स [न नेसं (सी.)] किञ्चि सब्बावतो उदकरहदस्स सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स. एवमेव खो, उदायि, भिक्खु इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, भिक्खु पीतिया च विरागा…पे… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, उदायि, उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तो निमुग्गपोसीनि, तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि परिपूरानि परिप्फुटानि, नास्स किञ्चि सब्बावतं, उप्पलानं वा पदुमानं वा पुण्डरीकानं वा सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, उदायि, भिक्खु इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति.

‘‘पुन चपरं, उदायि, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति. सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो ओदातेन वत्थेन ससीसं पारुपित्वा निसिन्नो अस्स, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, उदायि, भिक्खु इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५२. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका एवं पजानन्ति – ‘अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो; इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्धं’. सेय्यथापि, उदायि, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो सब्बाकारसम्पन्नो; तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा. तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य – ‘अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो सब्बाकारसम्पन्नो; तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा’ति. एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका एवं पजानन्ति – ‘अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो; इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध’न्ति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५३. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका इमम्हा काया अञ्ञं कायं अभिनिम्मिनन्ति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं. सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिकं पब्बाहेय्य; तस्स एवमस्स – ‘अयं मुञ्जो, अयं ईसिका; अञ्ञो मुञ्जो, अञ्ञा ईसिका; मुञ्जम्हात्वेव ईसिका पब्बाळ्हा’ति. सेय्यथा वा पनुदायि, पुरिसो असिं कोसिया पब्बाहेय्य; तस्स एवमस्स – ‘अयं असि, अयं कोसि; अञ्ञो असि अञ्ञा कोसि; कोसियात्वेव असि पब्बाळ्हो’ति. सेय्यथा वा, पनुदायि , पुरिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्य; तस्स एवमस्स – ‘अयं अहि, अयं करण्डो; अञ्ञो अहि, अञ्ञो करण्डो; करण्डात्वेव अहि उब्भतो’ति. एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका इमम्हा काया अञ्ञं कायं अभिनिम्मिनन्ति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५४. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्ति – एकोपि हुत्वा बहुधा होन्ति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं, तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमाना गच्छन्ति, सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोन्ति, सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने [अभिज्जमाना (क.)] गच्छन्ति, सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमन्ति, सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परिमसन्ति परिमज्जन्ति, याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्ति. सेय्यथापि, उदायि, दक्खो कुम्भकारो वा कुम्भकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकताय मत्तिकाय यं यदेव भाजनविकतिं आकङ्खेय्य तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य; सेय्यथा वा पनुदायि, दक्खो दन्तकारो वा दन्तकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं दन्तस्मिं यं यदेव दन्तविकतिं आकङ्खेय्य तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य; सेय्यथा वा पनुदायि, दक्खो सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं सुवण्णस्मिं यं यदेव सुवण्णविकतिं आकङ्खेय्य तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य. एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्ति – एकोपि हुत्वा बहुधा होन्ति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं, तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमाना गच्छन्ति, सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोन्ति, सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छन्ति , सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमन्ति, सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परिमसन्ति परिमज्जन्ति, याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्ति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५५. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणन्ति – दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके च. सेय्यथापि, उदायि, बलवा सङ्खधमो अप्पकसिरेनेव चातुद्दिसा विञ्ञापेय्य; एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणन्ति – दिब्बे च मानुसे च, ये दूरे सन्तिके च. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५६. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानन्ति – सरागं वा चित्तं ‘सरागं चित्त’न्ति पजानन्ति, वीतरागं वा चित्तं ‘वीतरागं चित्त’न्ति पजानन्ति; सदोसं वा चित्तं ‘सदोसं चित्त’न्ति पजानन्ति, वीतदोसं वा चित्तं ‘वीतदोसं चित्त’न्ति पजानन्ति; समोहं वा चित्तं ‘समोहं चित्त’न्ति पजानन्ति, वीतमोहं वा चित्तं ‘वीतमोहं चित्त’न्ति पजानन्ति; संखित्तं वा चित्तं ‘सङ्खित्तं चित्त’न्ति पजानन्ति, विक्खित्तं वा चित्तं ‘विक्खित्तं चित्त’न्ति पजानन्ति; महग्गतं वा चित्तं ‘महग्गतं चित्त’न्ति पजानन्ति, अमहग्गतं वा चित्तं ‘अमहग्गतं चित्त’न्ति पजानन्ति; सउत्तरं वा चित्तं ‘सउत्तरं चित्त’न्ति पजानन्ति, अनुत्तरं वा चित्तं ‘अनुत्तरं चित्त’न्ति पजानन्ति; समाहितं वा चित्तं ‘समाहितं चित्त’न्ति पजानन्ति, असमाहितं वा चित्तं ‘असमाहितं चित्त’न्ति पजानन्ति; विमुत्तं वा चित्तं ‘विमुत्तं चित्त’न्ति पजानन्ति, अविमुत्तं वा चित्तं ‘अविमुत्तं चित्त’न्ति पजानन्ति. सेय्यथापि, उदायि, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनकजातिको आदासे वा परिसुद्धे परियोदाते अच्छे वा उदकपत्ते सकं मुखनिमित्तं पच्चवेक्खमानो सकणिकं वा ‘सकणिक’न्ति [सकणिकङ्गं वा सकणिकङ्गन्ति (सी.)] जानेय्य , अकणिकं वा ‘अकणिक’न्ति [अकणिकङ्गं वा अकणिकङ्गन्ति (सी.)] जानेय्य; एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानन्ति – सरागं वा चित्तं ‘सरागं चित्त’न्ति पजानन्ति, वीतरागं वा चित्तं…पे… सदोसं वा चित्तं… वीतदोसं वा चित्तं… समोहं वा चित्तं… वीतमोहं वा चित्तं… सङ्खित्तं वा चित्तं… विक्खित्तं वा चित्तं… महग्गतं वा चित्तं… अमहग्गतं वा चित्तं… सउत्तरं वा चित्तं… अनुत्तरं वा चित्तं… समाहितं वा चित्तं… असमाहितं वा चित्तं… विमुत्तं वा चित्तं… अविमुत्तं वा चित्तं ‘अविमुत्तं चित्त’न्ति पजानन्ति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५७. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्ति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि, अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति. इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो सकम्हा गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य, तम्हापि गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य; सो तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागच्छेय्य; तस्स एवमस्स – ‘अहं खो सकम्हा गामा अञ्ञं गामं अगच्छिं, तत्र एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासिं एवं तुण्ही अहोसिं; तम्हापि गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्रापि एवं अट्ठासिं एवं निसीदिं एवं अभासिं एवं तुण्ही अहोसिं, सोम्हि तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागतो’ति. एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्ति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरन्ति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५८. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सन्ति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानन्ति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना; इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति. इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सन्ति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानन्ति. सेय्यथापि, उदायि, द्वे अगारा सद्वारा [सन्नद्वारा (क.)]. तत्र चक्खुमा पुरिसो मज्झे ठितो पस्सेय्य मनुस्से गेहं पविसन्तेपि निक्खमन्तेपि अनुचङ्कमन्तेपि अनुविचरन्तेपि; एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सन्ति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानन्ति…पे… तत्र च प मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति.

२५९. ‘‘पुन चपरं, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ति. सेय्यथापि, उदायि, पब्बतसङ्खेपे उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो, तत्थ चक्खुमा पुरिसो तीरे ठितो पस्सेय्य सिप्पिसम्बुकम्पि [सिप्पिकसम्बुकम्पि (स्या. कं. क.)] सक्खरकठलम्पि मच्छगुम्बम्पि चरन्तम्पि तिट्ठन्तम्पि. तस्स एवमस्स – ‘अयं खो उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो, तत्रिमे सिप्पिसम्बुकापि सक्खरकठलापि मच्छगुम्बापि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपी’ति. एवमेव खो, उदायि, अक्खाता मया सावकानं पटिपदा, यथापटिपन्ना मे सावका आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरन्ति. तत्र च पन मे सावका बहू अभिञ्ञावोसानपारमिप्पत्ता विहरन्ति. अयं खो, उदायि, पञ्चमो धम्मो येन मम सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ति.

‘‘इमे खो, उदायि, पञ्च धम्मा येहि ममं सावका सक्करोन्ति गरुं करोन्ति मानेन्ति पूजेन्ति, सक्कत्वा गरुं कत्वा उपनिस्साय विहरन्ती’’ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

महासकुलुदायिसुत्तं निट्ठितं सत्तमं.