नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 अजेय श्रमण के गुण

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय उग्गाहमान घुमक्कड़, मुण्डिक (=गंजे) श्रमण का पुत्र (या शिष्य), पाँच सौ घुमक्कड़ों की विशाल परिषद के साथ (महारानी) मल्लिका के द्वारा (दार्शनिक) बहस के लिए बनाए आबनूस वृक्षों से घिरे एक-कक्ष आश्रम में रहता था।

तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग 1 दिन के मध्य भगवान का दर्शन लेने के लिए श्रावस्ती से निकला। तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग को लगा, ‘भगवान के दर्शन लेने का यह अनुचित समय है; भगवान एकांतवास में होंगे। मनोभावी भिक्षुओं के दर्शन लेने का भी यह अनुचित समय है; मनोभावी भिक्षु भी एकांतवास में होंगे। क्यों न मैं मल्लिका के द्वारा बहस के लिए बनाए आबनूस वृक्षों से घिरे एक-कक्ष आश्रम में मुण्डिक श्रमण का पुत्र उग्गाहमान घुमक्कड़ के पास जाऊँ?’

तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग मल्लिका के द्वारा बहस के लिए बनाए आबनूस वृक्षों से घिरे एक-कक्ष आश्रम में उग्गाहमान घुमक्कड़, मुण्डिक श्रमण का पुत्र के पास गया।

उस समय मुण्डिक श्रमण का पुत्र उग्गाहमान घुमक्कड़, विशाल घुमक्कड़ों की परिषद के साथ बैठकर चीखते-चिल्लाते, शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।

तब उग्गाहमान घुमक्कड़ ने राजाधिकारी पञ्चकङ्ग को दूर से आते हुए देखा। देखकर अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ श्रमण गौतम के श्रावक राजाधिकारी पञ्चकङ्ग आ रहे हैं। श्रमण गोतम के जितने श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ श्रावक श्रावस्ती में निवास करते हैं, उनमें से एक राजाधिकारी पञ्चकङ्ग एक हैं। इन आयुष्मानों को कम बोलना पसंद है, कम बोलने में अभ्यस्त हैं, कम बोलने की प्रशंसा करते हैं। संभव है, अपनी परिषद को कम बोलते देख यहाँ आए।”

ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।

तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग उग्गाहमान घुमक्कड़ के पास गए, और जाकर उग्गाहमान घुमक्कड़ से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे राजाधिकारी पञ्चकङ्ग से उग्गाहमान घुमक्कड़ ने कहा, “गृहस्थ, मैं चार अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण बताता हूँ। कौन से चार?

गृहस्थ, जब कोई काया से पापकर्म न करता हो, पापी वचन न बोलता हो, पापी संकल्प न करता हो, पापी आजीविका से जीवन यापन न करता हो — इन चार अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को, गृहस्थ, मैं संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण बताता हूँ।”

तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने उग्गाहमान घुमक्कड़ की बात का न अभिनंदन किया, न अस्वीकार किया। बिना अभिनंदन किए, बिना अस्वीकार किए, अपने आसन से उठकर चल दिया, (सोचते हुए,) “मैं भगवान से इस बात का अर्थ समझूँगा।”

तब राजाधिकारी पञ्चकङ्ग भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने उग्गाहमान घुमक्कड़ के साथ हुए वार्तालाप को पूरी तरह भगवान को सुना दिया।

जब ऐसा कहा गया, तब भगवान ने राजाधिकारी पञ्चकङ्ग से कहा, “यदि उग्गाहमान घुमक्कड़ की बात यथार्थ है, राजाधिकारी, तब उतान लेटने वाला नासमझ नवजात बच्चा ‘संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ है।

क्योंकि, राजाधिकारी, किसी उतान लेटने वाले नासमझ नवजात बच्चे को ‘काया’ नहीं समझती है। तो भला वह काया से पापकर्म क्या करेगा, थोड़ा छटपटाने के अलावा?

किसी उतान लेटने वाले नासमझ नवजात बच्चे को ‘वचन’ नहीं समझते है। तो भला वह पापी वचन क्या बोलेगा, थोड़ा रोने के अलावा?

किसी उतान लेटने वाले नासमझ नवजात बच्चे को ‘संकल्प’ नहीं समझते है। तो भला वह पापी संकल्प क्या करेगा, थोड़ा रिरियाने के अलावा?

किसी उतान लेटने वाले नासमझ नवजात बच्चे को ‘आजीविका’ नहीं समझती है। तो भला वह पापी आजीविका क्या करेगा, माँ के दूध के अलावा?

इस तरह, राजाधिकारी, यदि उग्गाहमान घुमक्कड़ की बात यथार्थ है, तब उतान लेटने वाला नासमझ नवजात बच्चा ‘संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ है।

राजाधिकारी, मैं चार अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को ‘न संपन्न कुशल, न परम कुशल, न उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ बताता हूँ, बल्कि ‘उतान लेटने वाला नासमझ नवजात बच्चा के समान स्तर का’ बताता हूँ। कौन से चार?

जब, राजाधिकारी, कोई काया से पापकर्म न करता हो, पापी वचन न बोलता हो, पापी संकल्प न करता हो, पापी आजीविका से जीवन यापन न करता हो — इन चार अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को मैं ‘न संपन्न कुशल, न परम कुशल, न उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’, बल्कि ‘उतान लेटने वाला नासमझ नवजात बच्चा के समान स्तर का’ बताता हूँ।

जानना चाहिए

राजाधिकारी, मैं दस अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को ‘संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ बताता हूँ। (किन्तु, पहले,) मैं कहता हूँ, राजाधिकारी, कि ये बातें उसे जाननी चाहिए —

  • ये शील अकुशल हैं,
  • ये अकुशल शील का स्त्रोत है,
  • यहाँ अकुशल शील बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं,
  • इस तरह साधना करने से अकुशल शील के निरोध की साधना होती है,
  • ये शील कुशल हैं,
  • ये कुशल शील का स्त्रोत है,
  • यहाँ कुशल शील बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं,
  • इस तरह साधना करने से कुशल शील के निरोध की साधना होती है,
  • ये अकुशल संकल्प हैं,
  • ये अकुशल संकल्प का स्त्रोत है,
  • यहाँ अकुशल संकल्प बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं,
  • इस तरह साधना करने से अकुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है,
  • ये संकल्प कुशल हैं,
  • ये कुशल संकल्प का स्त्रोत है,
  • यहाँ कुशल संकल्प बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं,
  • इस तरह साधना करने से कुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है,

— ये बातें, मैं कहता हूँ, राजाधिकारी, उसे जाननी चाहिए।

अकुशल शील

  • राजाधिकारी, अकुशल शील क्या होते हैं?

— अकुशल काया कर्म, अकुशल वाणी कर्म, और पापी आजीविका — इन्हें, राजाधिकारी, मैं अकुशल शील कहता हूँ।

  • और, राजाधिकारी, अकुशल शील का स्त्रोत क्या होता है? उनका स्त्रोत बताया गया हैं।

कहना चाहिए कि ‘उनका स्त्रोत चित्त है।’ कौन सा चित्त? चूंकि चित्त के भी अनेक तरह के और बहुत से भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं।

— जो रागपूर्ण, द्वेषपूर्ण, मोहपूर्ण चित्त हैं — वे अकुशल शील के स्त्रोत हैं।

  • और, राजाधिकारी, ये अकुशल शील कहाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं? उनका निरोध भी बताया गया हैं।

— कोई भिक्षु काया के दुराचार को त्याग कर, काया के सदाचार की साधना करता है; वाणी के दुराचार को त्याग कर, वाणी के सदाचार की साधना करता है; मन के दुराचार को त्याग कर, मन के सदाचार की साधना करता है; मिथ्या जीविका को त्याग कर, सम्यक जीविका की साधना करता है — यहाँ, राजाधिकारी, अकुशल शील बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।

  • और, राजाधिकारी, किस तरह साधना करने से अकुशल शील के निरोध की साधना होती है?

— जो पापी अकुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — वह आगे भी प्रकट न हो, उसके लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो पापी अकुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे त्यागने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — उसे प्रकट करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे बनाएँ रखने और बढ़ाने के लिए, उसमें वृद्धि और प्रचुरता लाने के लिए, उन्हें विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । इस तरह साधना करने से, राजाधिकारी, अकुशल शील के निरोध की साधना होती है।

कुशल शील

  • और, राजाधिकारी, कुशल शील क्या होते हैं?

— कुशल काया कर्म, कुशल वाणी कर्म, और परिशुद्ध जीविका, इन्हें मैं शील में शामिल करता हूँ — इन्हें, राजाधिकारी, मैं कुशल शील कहता हूँ।

  • और, राजाधिकारी, कुशल शील का स्त्रोत क्या होता है? उनका स्त्रोत बताया गया हैं।

कहना चाहिए कि ‘उनका स्त्रोत चित्त है।’ कौन सा चित्त? चूंकि चित्त के भी अनेक तरह के और बहुत से भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं।

— जो वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह चित्त हैं — वे कुशल शील के स्त्रोत हैं।

  • और, राजाधिकारी, ये कुशल शील कहाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं? उनका निरोध भी बताया गया हैं।

— कोई भिक्षु शीलवान होता है, राजाधिकारी, लेकिन शीलमय नहीं। 2 और वे चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति को यथास्वरूप समझते हैं। वहीं कुशल शील बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।

  • और, राजाधिकारी, किस तरह साधना करने से कुशल शील के निरोध की साधना होती है?

— जो पापी अकुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — वह आगे भी प्रकट न हो, उसके लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो पापी अकुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे त्यागने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — उसे प्रकट करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे बनाएँ रखने और बढ़ाने के लिए, उसमें वृद्धि और प्रचुरता लाने के लिए, उन्हें विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । इस तरह साधना करने से, राजाधिकारी, कुशल शील के निरोध की साधना होती है।

अकुशल संकल्प

  • और, राजाधिकारी, अकुशल संकल्प क्या होते हैं?

— कामुक संकल्प, दुर्भावनापूर्ण संकल्प, और हिंसात्मक संकल्प — इन्हें, राजाधिकारी, मैं अकुशल संकल्प कहता हूँ।

  • और, राजाधिकारी, अकुशल संकल्प का स्त्रोत क्या होता है? उनका स्त्रोत बताया गया हैं।

कहना चाहिए कि ‘उनका स्त्रोत संज्ञा है।’ कौन सी संज्ञा? चूंकि संज्ञा के भी अनेक तरह के और बहुत से भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं।

— जो कामुक संज्ञा, दुर्भावनापूर्ण संज्ञा, और हिंसात्मक संज्ञा हैं — वे अकुशल संकल्प के स्त्रोत हैं।

  • और, राजाधिकारी, ये अकुशल संकल्प कहाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं? उनका निरोध भी बताया गया हैं।

— कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है — यहाँ, राजाधिकारी, अकुशल संकल्प बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।

  • और, राजाधिकारी, किस तरह साधना करने से अकुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है?

— जो पापी अकुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — वह आगे भी प्रकट न हो, उसके लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो पापी अकुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे त्यागने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — उसे प्रकट करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे बनाएँ रखने और बढ़ाने के लिए, उसमें वृद्धि और प्रचुरता लाने के लिए, उन्हें विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । इस तरह साधना करने से, राजाधिकारी, अकुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है।

कुशल संकल्प

  • और, राजाधिकारी, कुशल संकल्प क्या होते हैं?

— निष्काम संकल्प, दुर्भावनाविहीन संकल्प, और अहिंसात्मक संकल्प — इन्हें, राजाधिकारी, मैं कुशल संकल्प कहता हूँ।

  • और, राजाधिकारी, कुशल संकल्प का स्त्रोत क्या होता है? उनका स्त्रोत बताया गया हैं।

कहना चाहिए कि ‘उनका स्त्रोत चित्त है।’ कौन सा चित्त? चूंकि चित्त के भी अनेक तरह के और बहुत से भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं।

— जो निष्काम संज्ञा, दुर्भावनाविहीन संज्ञा, अहिंसात्मक संज्ञा हैं — वे कुशल संकल्प के स्त्रोत हैं।

  • और, राजाधिकारी, ये कुशल संकल्प कहाँ बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं? उनका निरोध भी बताया गया हैं।

— कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। वहीं कुशल संकल्प बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं।

  • और, राजाधिकारी, किस तरह साधना करने से कुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है?

— जो पापी अकुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — वह आगे भी प्रकट न हो, उसके लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो पापी अकुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे त्यागने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव अभी प्रकट न हुआ हो — उसे प्रकट करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । और, जो कुशल स्वभाव प्रकट हुआ हो — उसे बनाएँ रखने और बढ़ाने के लिए, उसमें वृद्धि और प्रचुरता लाने के लिए, उन्हें विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए चाह पैदा करना, मेहनत करना, ज़ोर लगाना, इरादा बनाकर जुटना । इस तरह साधना करने से, राजाधिकारी, कुशल संकल्प के निरोध की साधना होती है।

दस धर्म

और, राजाधिकारी, कौन से दस अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को मैं ‘संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ बताता हूँ?

कोई भिक्षु —

  • अशैक्ष्य (=अरहंत) की सम्यक दृष्टि से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक संकल्प से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक वाणी से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक कार्य से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक जीविका से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक प्रयास से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक स्मृति से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक समाधि से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक ज्ञान से युक्त होता है,
  • अशैक्ष्य की सम्यक विमुक्ति से युक्त होता है,

— इन दस अंगों से युक्त पुरुष व्यक्ति को, राजाधिकारी, मैं ‘संपन्न कुशल, परम कुशल, उत्तम अवस्था प्राप्त अजेय श्रमण’ बताता हूँ।”

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर राजाधिकारी पञ्चकङ्ग ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।

सुत्र समाप्त।


  1. पञ्चकङ्ग राज-अधिकारी मज्झिमनिकाय ५९ में भी प्रकट हुआ था, जो श्रावस्ती में भगवान का प्रसिद्ध उपासक था। ↩︎

  2. अर्थात, जो व्यक्ति केवल शील में ही ठहर जाता है, उसी से अपनी पहचान और आत्मीयता (“अतम्मयता”) जोड़ लेता है, वह “शीलमय” कहलाता है। परंतु साधक को शील तक सीमित नहीं रहना चाहिए। शील को साधन बनाकर आगे बढ़ना चाहिए—जैसे कोई सीढ़ी के सहारे ऊपर चढ़ता है। इसी प्रकार, शील से आगे बढ़कर समाधि और प्रज्ञा के मार्ग से चेतोविमुक्ति और प्रज्ञाविमुक्ति तक पहुँचना चाहिए, जहाँ शील बिना शेष बचे निरुद्ध होते हैं। ↩︎

Pali

२६०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. तेन खो पन समयेन उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो [समणमण्डिकापुत्तो (सी. पी.)] समयप्पवादके तिन्दुकाचीरे एकसालके मल्लिकाय आरामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं पञ्चमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि. अथ खो पञ्चकङ्गो थपति सावत्थिया निक्खमि दिवा दिवस्स भगवन्तं दस्सनाय. अथ खो पञ्चकङ्गस्स थपतिस्स एतदहोसि – ‘‘अकालो खो ताव भगवन्तं दस्सनाय; पटिसल्लीनो भगवा. मनोभावनियानम्पि भिक्खूनं असमयो दस्सनाय; पटिसल्लीना मनोभावनिया भिक्खू. यंनूनाहं येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो येन उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति. अथ खो पञ्चकङ्गो थपति येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो येन उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो तेनुपसङ्कमि.

तेन खो पन समयेन उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा.

अद्दसा खो उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो पञ्चकङ्गं थपतिं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ; अयं समणस्स गोतमस्स सावको आगच्छति पञ्चकङ्गो थपति. यावता खो पन समणस्स गोतमस्स सावका गिही ओदातवसना सावत्थियं पटिवसन्ति अयं तेसं अञ्ञतरो पञ्चकङ्गो थपति. अप्पसद्दकामा खो पन ते आयस्मन्तो अप्पसद्दविनीता अप्पसद्दस्स वण्णवादिनो; अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति. अथ खो ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं.

२६१. अथ खो पञ्चकङ्गो थपति येन उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा उग्गाहमानेन परिब्बाजकेन समणमुण्डिकापुत्तेन सद्धिं सम्मोदि . सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो पञ्चकङ्गं थपतिं उग्गाहमानो परिब्बाजको समणमुण्डिकापुत्तो एतदवोच – ‘‘चतूहि खो अहं, गहपति, धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि सम्पन्नकुसलं परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं. कतमेहि चतूहि? इध, गहपति, न कायेन पापकम्मं करोति, न पापकं वाचं भासति, न पापकं सङ्कप्पं सङ्कप्पेति, न पापकं आजीवं आजीवति – इमेहि खो अहं, गहपति, चतूहि धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि सम्पन्नकुसलं परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झ’’न्ति.

अथ खो पञ्चकङ्गो थपति उग्गाहमानस्स परिब्बाजकस्स समणमुण्डिकापुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दि नप्पटिक्कोसि. अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा उट्ठायासना पक्कामि – ‘‘भगवतो सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थं आजानिस्सामी’’ति. अथ खो पञ्चकङ्गो थपति येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो पञ्चकङ्गो थपति यावतको अहोसि उग्गाहमानेन परिब्बाजकेन समणमुण्डिकापुत्तेन सद्धिं कथासल्लापो तं सब्बं भगवतो आरोचेसि.

२६२. एवं वुत्ते, भगवा पञ्चकङ्गं थपतिं एतदवोच – ‘‘एवं सन्ते खो, थपति, दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेय्यको सम्पन्नकुसलो भविस्सति परमकुसलो उत्तमपत्तिपत्तो समणो अयोज्झो, यथा उग्गाहमानस्स परिब्बाजकस्स समणमुण्डिकापुत्तस्स वचनं. दहरस्स हि, थपति, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स कायोतिपि न होति, कुतो पन कायेन पापकम्मं करिस्सति, अञ्ञत्र फन्दितमत्ता! दहरस्स हि, थपति, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स वाचातिपि न होति, कुतो पन पापकं वाचं भासिस्सति, अञ्ञत्र रोदितमत्ता ! दहरस्स हि, थपति, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स सङ्कप्पोतिपि न होति, कुतो पन पापकं सङ्कप्पं सङ्कप्पिस्सति, अञ्ञत्र विकूजितमत्ता [विकुज्जितमत्ता (सी. स्या. कं. पी.)]! दहरस्स हि, थपति, कुमारस्स मन्दस्स उत्तानसेय्यकस्स आजीवोतिपि न होति, कुतो पन पापकं आजीवं आजीविस्सति, अञ्ञत्र मातुथञ्ञा! एवं सन्ते खो, थपति, दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेय्यको सम्पन्नकुसलो भविस्सति परमकुसलो उत्तमपत्तिपत्तो समणो अयोज्झो, यथा उग्गाहमानस्स परिब्बाजकस्स समणमुण्डिकापुत्तस्स वचनं.

२६३. ‘‘चतूहि खो अहं, थपति, धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि न चेव सम्पन्नकुसलं न परमकुसलं न उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं, अपि चिमं दहरं कुमारं मन्दं उत्तानसेय्यकं समधिगय्ह तिट्ठति. कतमेहि चतूहि? इध, थपति, न कायेन पापकम्मं करोति, न पापकं वाचं भासति, न पापकं सङ्कप्पं सङ्कप्पेति, न पापकं आजीवं आजीवति – इमेहि खो अहं, थपति, चतूहि धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि न चेव सम्पन्नकुसलं न परमकुसलं न उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं, अपि चिमं दहरं कुमारं मन्दं उत्तानसेय्यकं समधिगय्ह तिट्ठति.

‘‘दसहि खो अहं, थपति, धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि सम्पन्नकुसलं परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं. इमे अकुसला सीला; तमहं [कहं (सी.), तहं (पी.)], थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इतोसमुट्ठाना अकुसला सीला; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इध अकुसला सीला अपरिसेसा निरुज्झन्ति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. एवं पटिपन्नो अकुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि.

‘‘इमे कुसला सीला; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इतोसमुट्ठाना कुसला सीला; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इध कुसला सीला अपरिसेसा निरुज्झन्ति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. एवं पटिपन्नो कुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि.

‘‘इमे अकुसला सङ्कप्पा; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इतोसमुट्ठाना अकुसला सङ्कप्पा ; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इध अकुसला सङ्कप्पा अपरिसेसा निरुज्झन्ति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. एवं पटिपन्नो अकुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि.

‘‘इमे कुसला सङ्कप्पा; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इतोसमुट्ठाना कुसला सङ्कप्पा ; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. इध कुसला सङ्कप्पा अपरिसेसा निरुज्झन्ति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि. एवं पटिपन्नो कुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति; तमहं, थपति, वेदितब्बन्ति वदामि.

२६४. ‘‘कतमे च, थपति, अकुसला सीला? अकुसलं कायकम्मं, अकुसलं वचीकम्मं, पापको आजीवो – इमे वुच्चन्ति, थपति, अकुसला सीला.

‘‘इमे च, थपति, अकुसला सीला किंसमुट्ठाना? समुट्ठानम्पि नेसं वुत्तं. ‘चित्तसमुट्ठाना’तिस्स वचनीयं. कतमं चित्तं? चित्तम्पि हि बहुं अनेकविधं नानप्पकारकं. यं चित्तं सरागं सदोसं समोहं, इतोसमुट्ठाना अकुसला सीला.

‘‘इमे च, थपति, अकुसला सीला कुहिं अपरिसेसा निरुज्झन्ति? निरोधोपि नेसं वुत्तो. इध, थपति, भिक्खु कायदुच्चरितं पहाय कायसुचरितं भावेति, वचीदुच्चरितं पहाय वचीसुचरितं भावेति, मनोदुच्चरितं पहाय मनोसुचरितं भावेति, मिच्छाजीवं पहाय सम्माजीवेन जीवितं कप्पेति – एत्थेते अकुसला सीला अपरिसेसा निरुज्झन्ति.

‘‘कथं पटिपन्नो, थपति, अकुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति? इध, थपति, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति. एवं पटिपन्नो खो, थपति, अकुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति.

२६५. ‘‘कतमे च, थपति, कुसला सीला? कुसलं कायकम्मं, कुसलं वचीकम्मं, आजीवपरिसुद्धम्पि खो अहं, थपति, सीलस्मिं वदामि. इमे वुच्चन्ति, थपति, कुसला सीला.

‘‘इमे च, थपति, कुसला सीला किंसमुट्ठाना? समुट्ठानम्पि नेसं वुत्तं. ‘चित्तसमुट्ठाना’तिस्स वचनीयं. कतमं चित्तं? चित्तम्पि हि बहुं अनेकविधं नानप्पकारकं. यं चित्तं वीतरागं वीतदोसं वीतमोहं, इतोसमुट्ठाना कुसला सीला.

‘‘इमे च, थपति, कुसला सीला कुहिं अपरिसेसा निरुज्झन्ति? निरोधोपि नेसं वुत्तो. इध, थपति, भिक्खु सीलवा होति नो च सीलमयो, तञ्च चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं यथाभूतं पजानाति; यत्थस्स ते कुसला सीला अपरिसेसा निरुज्झन्ति.

‘‘कथं पटिपन्नो च, थपति, कुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति? इध, थपति, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति ; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय…पे… अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय…पे… उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति. एवं पटिपन्नो खो, थपति, कुसलानं सीलानं निरोधाय पटिपन्नो होति.

२६६. ‘‘कतमे च, थपति, अकुसला सङ्कप्पा? कामसङ्कप्पो, ब्यापादसङ्कप्पो, विहिंसासङ्कप्पो – इमे वुच्चन्ति, थपति, अकुसला सङ्कप्पा.

‘‘इमे च, थपति, अकुसला सङ्कप्पा किंसमुट्ठाना? समुट्ठानम्पि नेसं वुत्तं. ‘सञ्ञासमुट्ठाना’तिस्स वचनीयं. कतमा सञ्ञा? सञ्ञापि हि बहू अनेकविधा नानप्पकारका. कामसञ्ञा, ब्यापादसञ्ञा, विहिंसासञ्ञा – इतोसमुट्ठाना अकुसला सङ्कप्पा.

‘‘इमे च, थपति, अकुसला सङ्कप्पा कुहिं अपरिसेसा निरुज्झन्ति? निरोधोपि नेसं वुत्तो. इध, थपति, भिक्खु विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; एत्थेते अकुसला सङ्कप्पा अपरिसेसा निरुज्झन्ति.

‘‘कथं पटिपन्नो च, थपति, अकुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति? इध, थपति, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय…पे… अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय…पे… उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति. एवं पटिपन्नो खो, थपति, अकुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति.

२६७. ‘‘कतमे च, थपति, कुसला सङ्कप्पा? नेक्खम्मसङ्कप्पो, अब्यापादसङ्कप्पो, अविहिंसासङ्कप्पो – इमे वुच्चन्ति, थपति, कुसला सङ्कप्पा.

‘‘इमे च, थपति, कुसला सङ्कप्पा किंसमुट्ठाना? समुट्ठानम्पि नेसं वुत्तं. ‘सञ्ञासमुट्ठाना’तिस्स वचनीयं. कतमा सञ्ञा? सञ्ञापि हि बहू अनेकविधा नानप्पकारका. नेक्खम्मसञ्ञा, अब्यापादसञ्ञा, अविहिंसासञ्ञा – इतोसमुट्ठाना कुसला सङ्कप्पा.

‘‘इमे च, थपति, कुसला सङ्कप्पा कुहिं अपरिसेसा निरुज्झन्ति? निरोधोपि नेसं वुत्तो. इध, थपति, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; एत्थेते कुसला सङ्कप्पा अपरिसेसा निरुज्झन्ति.

‘‘कथं पटिपन्नो च, थपति, कुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति? इध, थपति, भिक्खु अनुप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं अनुप्पादाय छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति; उप्पन्नानं पापकानं अकुसलानं धम्मानं पहानाय…पे… अनुप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं उप्पादाय…पे… उप्पन्नानं कुसलानं धम्मानं ठितिया असम्मोसाय भिय्योभावाय वेपुल्लाय भावनाय पारिपूरिया छन्दं जनेति वायमति वीरियं आरभति चित्तं पग्गण्हाति पदहति. एवं पटिपन्नो खो, थपति, कुसलानं सङ्कप्पानं निरोधाय पटिपन्नो होति.

२६८. ‘‘कतमेहि चाहं, थपति, दसहि धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि सम्पन्नकुसलं परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झं? इध, थपति, भिक्खु असेखाय सम्मादिट्ठिया समन्नागतो होति, असेखेन सम्मासङ्कप्पेन समन्नागतो होति, असेखाय सम्मावाचाय समन्नागतो होति, असेखेन सम्माकम्मन्तेन समन्नागतो होति, असेखेन सम्माआजीवेन समन्नागतो होति, असेखेन सम्मावायामेन समन्नागतो होति, असेखाय सम्मासतिया समन्नागतो होति, असेखेन सम्मासमाधिना समन्नागतो होति, असेखेन सम्माञाणेन समन्नागतो होति, असेखाय सम्माविमुत्तिया समन्नागतो होति – इमेहि खो अहं, थपति, दसहि धम्मेहि समन्नागतं पुरिसपुग्गलं पञ्ञपेमि सम्पन्नकुसलं परमकुसलं उत्तमपत्तिपत्तं समणं अयोज्झ’’न्ति.

इदमवोच भगवा. अत्तमनो पञ्चकङ्गो थपति भगवतो भासितं अभिनन्दीति.

समणमुण्डिकसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं.