नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 बेचारा सकुलुदायी

सूत्र परिचय

सकुलुदायी घुमक्कड़, भगवान बुद्ध के प्रति थोड़ी श्रद्धा और आदर रखता था, इसीलिए ऐसा लगता है कि भगवान उसे पहले धर्म की शिक्षा देने के बाद भी फिर से गंभीर धर्म समझाने की कोशिश कर रहे थे।

हालांकि, वह थोड़ा मजाकिया मूड में था और “पूर्वान्त”, या दुनिया की शुरुवात, पर जानना चाहता था। लेकिन जब भगवान ने उस विषय को छोड़कर गहरे विषय पर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की, तो उसने भगवान की बातों को काटकर अपने आचार्य की बातें लानी शुरू कर दी। फिर भगवान ने उसकी और उसके आचार्यों की बातों को काटते हुए, इस संवाद को दिलचस्प और मजेदार बना दिया।

हालांकि, अंततः वह पूरी तरह से आश्वस्त होकर भिक्षु बनना चाहता है, लेकिन उसके शिष्य उसे रोक देते हैं। और इस तरह, उसका अंत ‘अरहंतों में एक’ बनकर नहीं होता। इस घटना के पीछे की घुमक्कड़ों की प्रवृत्ति को समझने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान राजगृह के वेणुवन गिलहरी उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय सकुलुदायी घुमक्कड़ विशाल घुमक्कड़-परिषद के साथ मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में निवास कर रहे था।

सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षाटन के लिए राजगृह में प्रवेश किया। तब भगवान को लगा, “अभी राजगृह में भिक्षाटन करना बहुत जल्दी होगा। क्यों न मैं मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास जाऊँ?”

तब भगवान मोर उद्यान के घुमक्कड़ आश्रम में सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास गए।

उस समय सकुलुदायी घुमक्कड़, विशाल घुमक्कड़ों की परिषद के साथ बैठकर चीखते-चिल्लाते, शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।

तब सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान को दूर से आते हुए देखा। देखकर अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ श्रमण गौतम आ रहे हैं। श्रमण गोतम के जितने श्रावक कौशांबी में निवास करते हैं, उनमें से एक भगवान हैं। इन आयुष्मान को कम बोलना पसंद है, कम बोलने की प्रशंसा करते हैं। संभव है, अपनी परिषद को कम बोलते देख यहाँ आए।”

ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।

तब भगवान सकुलुदायी घुमक्कड़ के पास गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान पधारे! भंते, भगवान का स्वागत है! बहुत दिनों के बाद, भंते, भगवान को यहाँ आने का अवसर मिला। बैठिए, भंते, भगवान के लिए यह आसन बिछा है।”

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे लगाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान से कहा

भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। सकुलुदायी घुमक्कड़ ने अपना आसन नीचे बिछाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे सकुलुदायी घुमक्कड़ से भगवान ने कहा, “अभी यहाँ बैठकर, सकुलुदायी, क्या चर्चा कर रहे थे? कौन सी चर्चा अधूरी रह गई?”

“छोड़िए इस बात को, भंते, कि अभी हम बैठकर क्या चर्चा कर रहे थे। ऐसी चर्चा को बाद में सुनना दुर्लभ नहीं है। भंते, जब मैं इस परिषद में नहीं आता, तब यह परिषद बैठकर नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगी होती है। किन्तु, जब मैं इस परिषद में आता हूँ, तब वह परिषद बैठकर केवल मेरा मुख निहारने में लग जाती है, ‘जो धर्म श्रमण उदायी बोलेंगे, उसे हम सुनेंगे।’

किन्तु, भंते, जब भगवान इस परिषद में आते हैं, तब वह परिषद बैठकर केवल भगवान का मुख निहारने में लग जाती है, ‘जो धर्म भगवान बोलेंगे, उसे हम सुनेंगे।’"

“ठीक है, उदायी, सुझाव दो कि मैं किस विषय पर बोलूँ।”

दुनिया की शुरुवात

“कुछ दिनों पहले, भंते, कोई सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, बिना किसी अपवाद के ज्ञान-दर्शन होने का दावा कर रहे थे कि ‘मुझे चलते या खड़े होते, सोते या जागते हुए निरंतर और सदा ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है!’

हालाँकि जब मैंने ‘पूर्वान्त’ 1 पर प्रश्न पूछा, तो वे टालमटोल करते रहे, मुद्दे को इधर-उधर की बातों में, बाहर की बातों में भटकाते रहे, और खीज, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करते रहे। तब, भंते, मुझे भगवान की याद आयी, ‘अरे वे भगवान ही हैं, सुगत ही हैं, जो इन धर्मों में सुकुशल हैं!’’’

“किन्तु, उदायी, वे कौन थे, जो सर्वज्ञ, सर्वदर्शी… होने का दावा कर रहे थे… हालाँकि प्रश्न पूछने पर टालमटोल… खीज, द्वेष और कड़वाहट प्रकट करते रहे?”

“भंते, वे निगण्ठ नाटपुत्त थे।” 2

“उदायी, जो अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म… जैसे एक जन्म, दो जन्म… शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करता है — वह मुझे पूर्वान्त पर प्रश्न पूछे, या मैं उसे पूर्वान्त पर प्रश्न पूछूँ, तो वह अपने उत्तर से मेरे चित्त को आश्वस्त करेगा, या मैं अपने उत्तर से उसके चित्त को आश्वस्त करूँगा।

और, उदायी, जो अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखता है कि कर्मानुसार ही सत्व कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति पाते अथवा दुर्गति पाते हैं — वह मुझे अपरान्त पर प्रश्न पूछे, या मैं उसे अपरान्त पर प्रश्न पूछूँ, तो वह अपने उत्तर से मेरे चित्त को आश्वस्त करेगा, या मैं अपने उत्तर से उसके चित्त को आश्वस्त करूँगा।

इसलिए, उदायी, पूर्वान्त को रहने दो, और अपरान्त को रहने दो। (उसके बजाय) मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ —

  • जब यह है, तब वह है।
  • इसके उत्पन्न होने से, वह उत्पन्न होने लगता है।
  • जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है।
  • इसके अन्त होने से, उसका भी अन्त होने लगता है।” 3

अपने आचार्य की बात

“भंते, मैंने अपने इसी आत्म-अवस्था (=इस जीवन) में जो अनुभव किया है, उसे भी शैली और विवरण के साथ अनुस्मरण नहीं कर सकता हूँ। तब, भंते, भला मैं कहाँ से अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म… जैसे एक जन्म, दो जन्म… शैली एवं विवरण के साथ अनुस्मरण करूँगा, जैसे भगवान करते हैं?

और, भंते, मैं अभी भूमट्ठ पिशाच 4 को भी नहीं देख पा रहा हूँ। तब, भंते, भला मैं कहाँ से अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखूँगा, जैसे भगवान करते हैं?

किन्तु तब, भंते, भगवान ने कहा, ‘उदायी, पूर्वान्त को रहने दो, और अपरान्त को रहने दो। (उसके बजाय) मैं तुम्हें धर्म बताता हूँ —

  • जब यह है, तब वह है।
  • इसके उत्पन्न होने से, वह उत्पन्न होने लगता है।
  • जब यह नहीं है, तब वह भी नहीं है।
  • इसके अन्त होने से, उसका भी अन्त होने लगता है।’

किन्तु वह मुझे उससे भी भीषण स्तर पर नहीं समझ रहा है। शायद, भंते, मैं स्वयं के आचार्य पर प्रश्नोत्तर से भगवान के चित्त को आश्वस्त कर सकता हूँ।”

“किन्तु, उदायी, तुम्हारे स्वयं के आचार्य क्या है?”

“भंते, मेरे स्वयं के आचार्य ऐसा कहते हैं — ‘यह परम वर्ण है! यह परम वर्ण है!’”

“किन्तु, उदायी, तुम्हारे आचार्य जो ऐसा कहते हैं — ‘यह परम वर्ण है! यह परम वर्ण है!’ वह परम वर्ण क्या है?”

“भंते, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।”

“किन्तु, उदायी, किस परम वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर है, न ही उत्कृष्ट?”

“भंते, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।”

बात काटना

“दीर्घकाल तक, उदायी, तुम इसे खींचते रह सकते हो, (कहते हुए,) ‘भंते, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।’ किन्तु उस वर्ण को बता नहीं रहे हो।

जैसे, उदायी, कोई पुरुष कहता है, ‘जो इस देश की परमसुंदरी है, वो मुझे चाहिए, मैं उसी को चाहता हूँ। तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी क्षत्रियी है, या ब्राह्मणी है, या वैश्यी है, या शूद्री है?’

ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।

तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि उस परमसुंदरी का यह नाम है, यह गोत्र है?’

ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।

तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी लंबी है, या नाटी है, या मध्यम है?’

ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।

तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी काली है, या साँवली है, या स्वर्णिम त्वचा वाली?’

ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।

तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी अमुक गाँव की है, या अमुक नगर की है, या अमुक शहर की?’

ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।

तब लोग उससे कहते हैं, ‘मेरे भाई, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो, क्या उसे जानते भी हो, कभी देखा भी है?’

ऐसा पूछने पर वह ‘हाँ’ कहता है।

तब, तुम्हें क्या लगता है, उदायी? यदि ऐसा हो तो उस पुरुष का बोलना दर्शाया नहीं जा सकता?’”

“निश्चित ही, भंते, यदि ऐसा हो तो उस पुरुष का बोलना दर्शाया नहीं जा सकता।”

“उसी तरह, उदायी, जब तुम कहते हो, ‘भंते, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट, वह परम वर्ण है’ — किन्तु वह वर्ण बता नहीं रहे हो।”

आत्मा की आभा

“भंते, जैसे कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। उसे श्वेत ऊनी कंबल पर रखा जाता है, तो वह चमकता है, तपता है, और चकाचौंध करता है। उस तरह के वर्ण (=आभा) की आत्मा होती है, जो मरणोपरांत आरोग्यपूर्ण बनती है।” 5

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसका वर्ण (=आभा) अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होता है — कोई ऊँची जाति का शुभ मणि… जिसे श्वेत ऊनी कंबल पर रखने पर वह चमकता, तपता, चकाचौंध करता है? अथवा रात के घोर अंधकार में चमकता हुआ कोई जुगनू?”

“निश्चित ही, भंते, रात के घोर अंधकार में चमकते हुए किसी जुगनू का वर्ण दोनों के वर्ण में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होता है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में चमकते हुए कोई जुगनू? अथवा रात के घोर अंधकार में जलता हुआ कोई दीया?”

“निश्चित ही, भंते, रात के घोर अंधकार में जलते हुए किसी दीये की आभा दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में जलता हुआ कोई दीया? अथवा रात के घोर अंधकार में जलते हुए अग्नि का बड़ा ढ़ेर?”

“निश्चित ही, भंते, रात के घोर अंधकार में जलते हुए किसी अग्नि का बड़ा ढ़ेर दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में जलते हुए अग्नि का बड़ा ढ़ेर? अथवा रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में चमकता हुआ तारक देवता (=शुक्र तारा)?”

“निश्चित ही, भंते, रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में तारक देवता दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में तारक देवता? अथवा पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चमकता हुआ चाँद?”

“निश्चित ही, भंते, पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चाँद दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चाँद? अथवा वर्षाकाल के अंतिम महीने, शरदऋतु के समय, दिन के मध्य में बादलरहित आकाश में चमकता हुआ सूर्य?”

“निश्चित ही, भंते, वर्षाकाल के अंतिम महीने, शरदऋतु के समय, दिन के मध्य में बादलरहित आकाश में सूर्य दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”

“इसके आगे भी, उदायी, मैं बहुत से ऐसे देवताओं को प्रज्ञापूर्वक जानता हूँ, जिनके सामने चाँद-सूरज की आभा पता तक नहीं चलती। किन्तु तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि — ‘जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर है, न ही उत्कृष्ट।’ किन्तु तुम, उदायी, जो आभा किसी जुगनू की आभा से भी बदतर है, हीन है, उसे तुम परम वर्ण कहते हो। और, उस वर्ण को भी बता नहीं पाते।”

“भगवान ने बात ही काट दी। सुगत ने बात ही काट दी।”

“अब ऐसा क्यों कहते हो, उदायी, कि ‘भगवान ने बात ही काट दी। सुगत ने बात ही काट दी’?”

“क्योंकि, भंते, हमारे स्वयं के आचार्य को ऐसा कहते थे — ‘यह परम वर्ण है! यह परम वर्ण है!’ किन्तु, जब भगवान ने हमारे आचार्यों को जाँचा, परखा, और पूछताछ किया, तब हम खोखले, तुच्छ और फालतू लगे।”

परमपूर्ण सुख लोक

“उदायी, क्या ऐसा परमपूर्ण-सुखी लोक है? और क्या किसी प्रमाणित साधना से उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है?”

“भंते, हमारे स्वयं के आचार्य को ऐसा कहते थे — ‘ऐसा परमपूर्ण-सुखी लोक है। और ऐसी प्रमाणित साधना है, जिससे उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है।’

“कौन सी प्रमाणित साधना से, उदायी, उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है?”

“भंते, जब कोई हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है; ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है; कामुक व्यभिचार त्याग कर कामुक व्यभिचार से विरत रहता है; झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है; और वह किसी प्रकार की तपस्या को अपना कर वर्तन करता है। इसी प्रकार की प्रमाणित साधना से, भंते, उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? जिस समय कोई हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है, क्या उस समय उसकी आत्मा परमपूर्ण सुखी होती है, अथवा सुख-दुःखी (दर्द में घुला-मिला सुख)?”

“सुख-दुःखी, भंते।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? जिस समय कोई ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है, क्या उस समय उसकी आत्मा परमपूर्ण सुखी होती है, अथवा सुख-दुःखी?”

“सुख-दुःखी, भंते।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? जिस समय कोई कामुक व्यभिचार त्याग कर कामुक व्यभिचार से विरत रहता है, क्या उस समय उसकी आत्मा परमपूर्ण सुखी होती है, अथवा सुख-दुःखी?”

“सुख-दुःखी, भंते।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? जिस समय कोई झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है, क्या उस समय उसकी आत्मा परमपूर्ण सुखी होती है, अथवा सुख-दुःखी?”

“सुख-दुःखी, भंते।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? जिस समय कोई किसी प्रकार की तपस्या को अपना कर वर्तन करता है, क्या उस समय उसकी आत्मा परमपूर्ण सुखी होती है, अथवा सुख-दुःखी?”

“सुख-दुःखी, भंते।”

“तुम्हें क्या लगता है, उदायी? क्या दर्द में घुले-मिले सुख की साधना करते हुए किसी को परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है?”

“भगवान ने (फिर से) बात ही काट दी। सुगत ने बात ही काट दी।”

“अब ऐसा क्यों कहते हो, उदायी, कि ‘भगवान ने बात ही काट दी। सुगत ने बात ही काट दी’?”

“क्योंकि, भंते, हमारे स्वयं के आचार्य को ऐसा कहते थे — ‘ऐसा परमपूर्ण-सुखी लोक है। और ऐसी प्रमाणित साधना है, जिससे उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है।’ किन्तु, जब भगवान ने हमारे आचार्यों को जाँचा, परखा, और पूछताछ किया, तब हम खोखले, तुच्छ और फालतू लगे।

किन्तु तब, भंते, क्या (वाकई) ऐसा परमपूर्ण-सुखी लोक है? और क्या किसी प्रमाणित साधना से उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है?”

प्रमाणित साधना

“हाँ, उदायी, ऐसा परमपूर्ण-सुखी लोक है। और ऐसी प्रमाणित साधना है, जिससे उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है।”

“वह कौन सी प्रमाणित साधना है, भंते, जिससे उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है?”

“उदायी, कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। आगे, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

आगे, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। यही वह प्रमाणित साधना है, उदायी, जिससे उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार होता है।”

“नहीं, भंते! इस प्रमाणित साधना से उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार (भविष्य में) नहीं होता है। बल्कि भंते, इससे परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार (अभी तत्काल इसी जीवन में) साध्य हो चुका होता है।”

“नहीं, उदायी! इससे परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार साध्य हो चुका नहीं होता। बल्कि, इस प्रमाणित साधना से उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार (भविष्य में) होता है।”

जब ऐसा कहा गया, तब सकुलुदायी की घुमक्कड़ परिषद चीखने-चिल्लाने और शोर मचाने लगी, “तब तो हम हार गए! आचार्य भी! तब तो हम हार गए! आचार्य भी! हमें इसके आगे कुछ बेहतर नहीं पता!”

तब सकुलुदायी ने अपनी घुमक्कड़ परिषद को चुप कराया, और भगवान से कहा, “किन्तु फिर, भंते, कब परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार (अभी तत्काल इसी जीवन में) साध्य हो चुका होता है?”

“जब आगे, उदायी, वह भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। ऐसे देवता जो परमपूर्ण-सुखी लोक में उत्पन्न हुए हैं, वह भिक्षु उन देवताओं के साथ जुड़ता है, वार्तालाप करता है, चर्चा करता है। तब इस मोड़ पर, उदायी, परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार (अभी तत्काल इसी जीवन में साध्य) हो चुका होता है।”

“निश्चित ही, भंते, उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार साध्य करने के उद्देश्य से ही भिक्षुगण भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते होंगे?”

“नहीं, उदायी। उस परमपूर्ण-सुखी लोक का साक्षात्कार साध्य करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य नहीं पालन करते हैं। इस धर्म के अलावा दूसरे अन्य धर्म अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिनका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।”

“इस धर्म के अलावा, भंते, भला कौन से दूसरे अन्य धर्म अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं? जिनका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”

अनुपुब्बिसिक्खा

“उदायी, यहाँ कभी इस लोक में ‘तथागत अरहंत सम्यकसम्बुद्ध’ प्रकट होते हैं — जो विद्या और आचरण से संपन्न होते हैं, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो।

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ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत के प्रति श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, “गृहस्थ जीवन बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?’

फिर वह समय पाकर, थोड़ी या अधिक धन-संपत्ति त्यागकर, छोटा या बड़ा परिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रव्रजित होता है।

शील

• प्रव्रजित होकर ऐसा भिक्षु शिक्षा और आजीविका से संपन्न होकर हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत!

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

संतुष्टि

वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह ऐसे आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

इंद्रिय सँवर

  • वह आँखों से कोई रूप देखता है, तो न वह उसकी छाप [“निमित्त”] पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं [“अनुव्यंजन”] को ग्रहण करता है। यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, चक्षु-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।
  • कान से कोई ध्वनि सुनता है…
  • नाक से कोई गंध सूँघता है…
  • जीभ से कोई स्वाद चखता है…
  • शरीर से कोई संस्पर्श अनुभव करता है…
  • मन से कोई विचार करता है, तो न वह उसकी छाप पकड़ता है, न ही उसकी आकर्षक विशेषताओं को ग्रहण करता है। यदि वह मन-इंद्रिय पर संयम न रखे, तो लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव उसे घेर सकते हैं। इसलिए वह संयम का मार्ग अपनाता है, मन-इंद्रिय की रक्षा करता है, और उस पर संयम करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर भीतर निष्पाप सुख का अनुभव करता है।

स्मृति सचेतता

वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है।

इस तरह वह आर्य शीलस्कन्ध से संपन्न होकर, आर्य संतुष्टि से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य सँवर से संपन्न होकर, आर्य स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

नीवरण त्याग

  • वह दुनिया के प्रति लालसा [“अभिज्झा”] हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष [“ब्यापादपदोस”] हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा [“थिनमिद्धा”] हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है।
  • वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप [“उद्धच्चकुक्कुच्च”] हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है।
  • वह अनिश्चितता [“विचिकिच्छा”] हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

वह इन पाँच व्यवधानों (“नीवरण”) को हटाता है, ऐसे चित्त के उपक्लेश जो प्रज्ञा को दुर्बल बनाते हैं।

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समाधि

(१) तब, उदायी, वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

यह धर्म, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

(२) आगे, उदायी, वह सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

(३) आगे, उदायी, वह प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

(४) आगे, उदायी, वह सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है।

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

प्रज्ञा

आगे, उदायी, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

आगे, उदायी, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने [“चुतूपपात ञाण”] की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

आगे, उदायी, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है।

इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

यह धर्म भी, उदायी, अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट हैं, जिसका साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं। और उदायी, इन अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट धर्मों का साक्षात्कार करने के उद्देश्य से भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।”

जब ऐसा कहा गया, तब सकुलुदायी घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भंते! अतिउत्तम, भंते! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भन्ते, मुझे भगवान के पास प्रवज्जा मिले, और (भिक्षु बनने की) उपसंपदा मिले।”

जब ऐसा कहा गया, तब सकुलुदायी की घुमक्कड़ परिषद ने सकुलुदायी घुमक्कड़ से कहा, “उदायी जी, मत श्रमण गोतम का ब्रह्मचर्य पालन करो। उदायी जी, आप हमारे आचार्य होने पर किसी का शिष्यता मत लो।

जैसे, पानी का कोई घड़ा, पानी उठाने का चम्मच बनना चाहे! उसी तरह, उदायी जी, आप हो जाएंगे! उदायी जी, श्रमण गोतम का ब्रह्मचर्य मत पालन करो। उदायी जी, आप हमारे आचार्य होने पर किसी का शिष्यता मत लो।”

इस तरह, सकुलुदायी की घुमक्कड़ परिषद ने सकुलुदायी घुमक्कड़ को भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करने से बाधित (“अन्तराय”) किया।

सुत्र समाप्त।


  1. पूर्वान्त का अर्थ है — ‘दुनिया की शुरुवात कैसे हुई?’ और अपरान्त का अर्थ है — ‘दुनिया का अन्त कैसे होगा?’ जो व्यक्ति “सर्वज्ञ सर्वदर्शी” या त्रिकालदर्शी होने का दावा करते हैं, उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि वे इस रहस्यमयी गुत्थी को सुलझाकर जनता की जिज्ञासा को शांत करें।

    कई लोग यह अनुमान लगाते रहे हैं कि दुनिया की शुरुआत किसी विशेष कारण से ईश्वर या किसी ऐसी शक्ति ने की होगी, जो सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और सार्वभौमिक है। वहीं दूसरी ओर, कई नास्तिकों का मत है कि यह घटना कोई आकस्मिक प्रक्रिया हो सकती है, जैसे बिग-बैंग सिद्धांत।

    भगवान, जो ‘सर्वज्ञ सर्वदर्शी’ होने का दावा नहीं करते, इन गूढ़ प्रश्नों को एक ओर रख देते हैं। क्योंकि उनके अनुसार, इनसे दुःखों की समाप्ति का कोई संबंध नहीं है। इसके बजाय, भगवान ऐसे प्रश्नों की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं, जिनका उत्तर दुःखों से मुक्ति की राह दिखाता है। ↩︎

  2. निगण्ठ नाटपुत्त, या महावीर जैन के ‘सर्वज्ञ, सर्वदर्शी’ होने के दावे के बारे में हमें मज्झिमनिकाय १४ में भी सुनने मिलता है, जब महावीर जैन का शिष्य इस दावे को भगवान के आगे दोहराता है। भगवान बुद्ध के “सर्वज्ञ सर्वदर्शी” होने की झूठी अफवाह मज्झिमनिकाय ७१ में आती है, जिसे भगवान साफ नकारते हैं। ↩︎

  3. इदप्पच्चयता — यह भगवान के सबसे गंभीर धर्मों में से एक है। इसके बारे में जानने के लिए हमारी मार्गदर्शिका पढ़ें। ↩︎

  4. माना जाता है कि पंसुपिसाचक (पिंडपिशाच या भूमट्ठ पिशाच) एक अत्यंत स्थूल पिशाच (राक्षस या डीमन) है, जिसका रूप इतना काला होता है कि यह साधारण लोगों को कभी-कभी दिन हो या रात, दोनों ही समय में दिखाई दे सकता है। यह पिशाच शायद सभी अदृश्य सत्वों में सबसे अधिक देखा जाने वाला सत्व है। इसका उल्लेख उदान ४.४ में भी मिलता है। ↩︎

  5. कई लोग जो अपने दिव्यचक्षु से आत्मा की सूक्ष्म और मनोहर आभा का दर्शन करते हैं, उसे दिव्यता का परम सौंदर्य मानते हैं। मैं खुद ऐसे लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने ऐसा कहा। तब मुझे इसी सूत्र की याद आती है, जिसमें भगवान पूछते हैं कि आत्मा की आभा इतनी सुंदर क्यों लगती है, जब वह जुगनू के प्रकाश से भी तुच्छ है! और, उसका अनुभव करने का क्या लाभ, जब वह परम सुख या मुक्ति की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाता। सच्चा प्रकाश वह है, जो दुःखों के अंधकार को मिटाता है, न कि अस्तित्व की सौंदर्य को निहारते हुए बस मुसकाते रहना। ↩︎

Pali

२६९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति वेळुवने कलन्दकनिवापे. तेन खो पन समयेन सकुलुदायी परिब्बाजको मोरनिवापे परिब्बाजकारामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय राजगहं पिण्डाय पाविसि. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव राजगहे पिण्डाय चरितुं. यंनूनाहं येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामो येन सकुलुदायी परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति. अथ खो भगवा येन मोरनिवापो परिब्बाजकारामो तेनुपसङ्कमि.

तेन खो पन समयेन सकुलुदायी परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया, सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा. अद्दसा खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान सकं परिसं सण्ठापेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ. अयं समणो गोतमो आगच्छति; अप्पसद्दकामो खो पन सो आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी. अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति. अथ खो ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं .

२७०. अथ खो भगवा येन सकुलुदायी परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि. अथ खो सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा. स्वागतं, भन्ते, भगवतो. चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि यदिदं इधागमनाय. निसीदतु, भन्ते, भगवा; इदमासनं पञ्ञत्त’’न्ति. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. सकुलुदायीपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो सकुलुदायिं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच – ‘‘काय नुत्थ, उदायि, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति? ‘‘तिट्ठतेसा, भन्ते, कथा याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना. नेसा, भन्ते, कथा भगवतो दुल्लभा भविस्सति पच्छापि सवनाय. यदाहं, भन्ते, इमं परिसं अनुपसङ्कन्तो होमि अथायं परिसा अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्ती निसिन्ना होति; यदा च खो अहं, भन्ते, इमं परिसं उपसङ्कन्तो होमि अथायं परिसा ममञ्ञेव मुखं उल्लोकेन्ती निसिन्ना होति – ‘यं नो समणो उदायी धम्मं भासिस्सति तं [तं नो (सी. स्या. कं. पी.)] सोस्सामा’ति; यदा पन , भन्ते, भगवा इमं परिसं उपसङ्कन्तो होति अथाहञ्चेव अयञ्च परिसा भगवतो मुखं उल्लोकेन्ता [ओलोकेन्ती (स्या. कं. क.)] निसिन्ना होम – ‘यं नो भगवा धम्मं भासिस्सति तं सोस्सामा’’’ति.

२७१. ‘‘तेनहुदायि, तंयेवेत्थ पटिभातु यथा मं पटिभासेय्या’’सि. ‘‘पुरिमानि , भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानमानो ‘चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति. सो मया [पच्चुपट्ठित’’न्ति मया (?)] पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हं पुट्ठो समानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरि, बहिद्धा कथं अपनामेसि, कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासि. तस्स मय्हं, भन्ते, भगवन्तंयेव आरब्भ सति उदपादि – ‘अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो! यो इमेसं धम्मानं सुकुसलो’’’ति. ‘‘को पन सो, उदायि, सब्बञ्ञू सब्बदस्सावी अपरिसेसं ञाणदस्सनं पटिजानमानो ‘चरतो च मे तिट्ठतो च सुत्तस्स च जागरस्स च सततं समितं ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठित’न्ति, यो तया पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हं पुट्ठो समानो अञ्ञेनञ्ञं पटिचरि, बहिद्धा कथं अपनामेसि कोपञ्च दोसञ्च अप्पच्चयञ्च पात्वाकासी’’ति? ‘निगण्ठो, भन्ते, नाटपुत्तो’ति.

‘‘यो खो, उदायि, अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्य, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरेय्य, सो वा मं पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हं पुच्छेय्य, तं वाहं पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हं पुच्छेय्यं; सो वा मे पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्य, तस्स वाहं पुब्बन्तं आरब्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्यं.

‘‘यो [सो (सी. पी.)] खो, उदायि, दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सेय्य चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानेय्य, सो वा मं अपरन्तं आरब्भ पञ्हं पुच्छेय्य, तं वाहं अपरन्तं आरब्भ पञ्हं पुच्छेय्यं; सो वा मे अपरन्तं आरब्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्य, तस्स वाहं अपरन्तं आरब्भ पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेय्यं.

‘‘अपि च, उदायि, तिट्ठतु पुब्बन्तो, तिट्ठतु अपरन्तो. धम्मं ते देसेस्सामि – इमस्मिं सति इदं होति, इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जति; इमस्मिं असति इदं न होति, इमस्स निरोधा इदं निरुज्झती’’ति.

‘‘अहञ्हि, भन्ते, यावतकम्पि मे इमिना अत्तभावेन पच्चनुभूतं तम्पि नप्पहोमि साकारं सउद्देसं अनुस्सरितुं, कुतो पनाहं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरिस्सामि, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरिस्सामि, सेय्यथापि भगवा? अहञ्हि, भन्ते, एतरहि पंसुपिसाचकम्पि न पस्सामि, कुतो पनाहं दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सिस्सामि चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानिस्सामि, सेय्यथापि भगवा? यं पन मं, भन्ते, भगवा एवमाह – ‘अपि च, उदायि, तिट्ठतु पुब्बन्तो, तिट्ठतु अपरन्तो; धम्मं ते देसेस्सामि – इमस्मिं सति इदं होति, इमस्सुप्पादा इदं उप्पज्जति; इमस्मिं असति इदं न होति, इमस्स निरोधा इदं निरुज्झती’ति तञ्च पन मे भिय्योसोमत्ताय न पक्खायति. अप्पेव नामाहं, भन्ते, सके आचरियके भगवतो चित्तं आराधेय्यं पञ्हस्स वेय्याकरणेना’’ति.

२७२. ‘‘किन्ति पन ते, उदायि, सके आचरियके होती’’ति? ‘‘अम्हाकं, भन्ते, सके आचरियके एवं होति – ‘अयं परमो वण्णो, अयं परमो वण्णो’’’ति.

‘‘यं पन ते एतं, उदायि, सके आचरियके एवं होति – ‘अयं परमो वण्णो, अयं परमो वण्णो’ति, कतमो सो परमो वण्णो’’ति? ‘‘यस्मा, भन्ते, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’’ति.

‘‘कतमो पन सो परमो वण्णो यस्मा वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थी’’ति? ‘‘यस्मा , भन्ते, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’’ति.

‘‘दीघापि खो ते एसा, उदायि, फरेय्य – ‘यस्मा, भन्ते, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’ति वदेसि, तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसि. सेय्यथापि, उदायि, पुरिसो एवं वदेय्य – ‘अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी तं इच्छामि, तं कामेमी’ति. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं – खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वा सुद्दी वा’’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं – एवंनामा एवंगोत्ताति वाति…पे… दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति… अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी’’’ति? इति पुट्ठो ‘आमा’ति वदेय्य.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि – ननु एवं सन्ते, तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति.

‘‘एवमेव खो त्वं, उदायि, ‘यस्मा, भन्ते, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’ति वदेसि, तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसी’’ति.

‘‘सेय्यथापि, भन्ते, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो पण्डुकम्बले निक्खित्तो भासते च तपते च विरोचति च, एवं वण्णो अत्ता होति अरोगो परं मरणा’’ति.

२७३. ‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यो वा मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो पण्डुकम्बले निक्खित्तो भासते च तपते च विरोचति च, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो, या वा रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, या वा रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका, यो वा तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो [अभिदे (क. सी.), अभिदोसं (क.) अभिदोति अभिसद्देन समानत्थनिपातपदं (छक्कङ्गुत्तरटीका महावग्ग अट्ठमसुत्तवण्णना)] अड्ढरत्तसमयं चन्दो – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अड्ढरत्तसमयं चन्दो – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यो वा तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अड्ढरत्तसमयं चन्दो, यो वा वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो मज्झन्हिकसमयं सूरियो – इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भन्ते, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो मज्झन्हिकसमयं सूरियो – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.

‘‘अतो खो ते, उदायि, बहू हि बहुतरा देवा ये इमेसं चन्दिमसूरियानं आभा नानुभोन्ति, त्याहं पजानामि. अथ च पनाहं न वदामि – ‘यस्मा वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थी’ति. अथ च पन त्वं, उदायि, ‘य्वायं वण्णो किमिना खज्जोपनकेन निहीनतरो [हीनतरो (सी. पी.)] च पतिकिट्ठतरो च सो परमो वण्णो’ति वदेसि, तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसी’’ति. ‘‘अच्छिदं [अच्छिर (क.), अच्छिद (?)] भगवा कथं, अच्छिदं सुगतो कथ’’न्ति!

‘‘किं पन त्वं, उदायि, एवं वदेसि – ‘अच्छिदं भगवा कथं, अच्छिदं सुगतो कथं’’’ति? ‘‘अम्हाकं, भन्ते, सके आचरियके एवं होति – ‘अयं परमो वण्णो, अयं परमो वण्णो’ति. ते मयं, भन्ते, भगवता सके आचरियके समनुयुञ्जियमाना समनुग्गाहियमाना समनुभासियमाना रित्ता तुच्छा अपरद्धा’’ति.

२७४. ‘‘किं पनुदायि, अत्थि एकन्तसुखो लोको, अत्थि आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘अम्हाकं, भन्ते, सके आचरियके एवं होति – ‘अत्थि एकन्तसुखो लोको, अत्थि आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’’ति.

‘‘कतमा पन सा, उदायि, आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘इध, भन्ते, एकच्चो पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति, कामेसुमिच्छाचारं पहाय कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति, अञ्ञतरं वा पन तपोगुणं समादाय वत्तति. अयं खो सा, भन्ते, आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यस्मिं समये पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति, एकन्तसुखी वा तस्मिं समये अत्ता होति सुखदुक्खी वा’’ति? ‘‘सुखदुक्खी, भन्ते’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यस्मिं समये अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति, एकन्तसुखी वा तस्मिं समये अत्ता होति सुखदुक्खी वा’’ति? ‘‘सुखदुक्खी, भन्ते’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यस्मिं समये कामेसुमिच्छाचारं पहाय कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो होति, एकन्तसुखी वा तस्मिं समये अत्ता होति सुखदुक्खी वा’’ति? ‘‘सुखदुक्खी, भन्ते’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यस्मिं समये मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति, एकन्तसुखी वा तस्मिं समये अत्ता होति सुखदुक्खी वा’’ति? ‘‘सुखदुक्खी, भन्ते’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, यस्मिं समये अञ्ञतरं तपोगुणं समादाय वत्तति, एकन्तसुखी वा तस्मिं समये अत्ता होति सुखदुक्खी वा’’ति? ‘‘सुखदुक्खी, भन्ते’’.

‘‘तं किं मञ्ञसि, उदायि, अपि नु खो वोकिण्णसुखदुक्खं पटिपदं आगम्म एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरिया होती’’ति [सच्छिकिरियायाति (क.)]? ‘‘अच्छिदं भगवा कथं, अच्छिदं सुगतो कथ’’न्ति!

‘‘किं पन त्वं, उदायि, वदेसि – ‘अच्छिदं भगवा कथं, अच्छिदं सुगतो कथं’’’ति? ‘‘अम्हाकं, भन्ते, सके आचरियके एवं होति – ‘अत्थि एकन्तसुखो लोको, अत्थि आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’ति. ते मयं, भन्ते, भगवता सके आचरियके समनुयुञ्जियमाना समनुग्गाहियमाना समनुभासियमाना रित्ता तुच्छा अपरद्धा’’ति [अपरद्धा (सी.), अपरद्धापि (स्या. कं. पी.)].

२७५. ‘‘किं पन, भन्ते, अत्थि एकन्तसुखो लोको, अत्थि आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘अत्थि खो, उदायि, एकन्तसुखो लोको, अत्थि आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति.

‘‘कतमा पन सा, भन्ते, आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘इधुदायि, भिक्खु विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति; वितक्कविचारानं वूपसमा… दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति; पीतिया च विरागा… ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति – अयं खो सा, उदायि, आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति.

‘‘न [किं नु (स्या. कं. क.)] खो सा, भन्ते, आकारवती पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय, सच्छिकतो हिस्स, भन्ते, एत्तावता एकन्तसुखो लोको होती’’ति. ‘‘न ख्वास्स, उदायि, एत्तावता एकन्तसुखो लोको सच्छिकतो होति; आकारवतीत्वेव सा पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’ति.

एवं वुत्ते, सकुलुदायिस्स परिब्बाजकस्स परिसा उन्नादिनी उच्चासद्दमहासद्दा अहोसि – ‘‘एत्थ मयं अनस्साम साचरियका, एत्थ मयं अनस्साम [पनस्साम (सी.)] साचरियका! न मयं इतो भिय्यो उत्तरितरं पजानामा’’ति.

अथ खो सकुलुदायी परिब्बाजको ते परिब्बाजके अप्पसद्दे कत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कित्तावता पनास्स, भन्ते, एकन्तसुखो लोको सच्छिकतो होती’’ति? ‘‘इधुदायि, भिक्खु सुखस्स च पहाना…पे… चतुत्थं झानं… उपसम्पज्ज विहरति. या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना ताहि देवताहि सद्धिं सन्तिट्ठति सल्लपति साकच्छं समापज्जति. एत्तावता ख्वास्स, उदायि, एकन्तसुखो लोको सच्छिकतो होती’’ति.

२७६. ‘‘एतस्स नून, भन्ते, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति? ‘‘न खो, उदायि, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति. अत्थि खो, उदायि , अञ्ञेव धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति.

‘‘कतमे पन ते, भन्ते, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति? ‘‘इधुदायि, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा…पे… सो इमे पञ्च नीवरणे पहाय चेतसो उपक्किलेसे पञ्ञाय दुब्बलीकरणे विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, उदायि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति’’.

‘‘पुन चपरं, उदायि, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा…पे… दुतियं झानं… ततियं झानं… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति. अयम्पि खो, उदायि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति.

‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति. अयम्पि खो, उदायि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति.

‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते…पे… यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति. अयम्पि खो, उदायि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति.

‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेति . सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति…पे… ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति… ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति… ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति… ‘अयं आसवनिरोधो’ति… ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति. तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति. अयम्पि खो, उदायि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति. इमे खो, उदायि, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति.

२७७. एवं वुत्ते, सकुलुदायी परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते , अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति.

एवं वुत्ते, सकुलुदायिस्स परिब्बाजकस्स परिसा सकुलुदायिं परिब्बाजकं एतदवोचुं – ‘‘मा भवं, उदायि, समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चरि; मा भवं, उदायि, आचरियो हुत्वा अन्तेवासीवासं वसि. सेय्यथापि नाम उदकमणिको [मणिको (सी. पी. क.)] हुत्वा उदञ्चनिको [उद्देकनिको (सी. स्या. कं. पी.)] अस्स, एवं सम्पदमिदं [एवं सम्पदमेतं (सी. पी.)] भोतो उदायिस्स भविस्सति. मा भवं, उदायि, समणे गोतमे ब्रह्मचरियं चरि; मा भवं, उदायि, आचरियो हुत्वा अन्तेवासीवासं वसी’’ति. इति हिदं सकुलुदायिस्स परिब्बाजकस्स परिसा सकुलुदायिं परिब्बाजकं अन्तरायमकासि भगवति ब्रह्मचरियेति.

चूळसकुलुदायिसुत्तं निट्ठितं नवमं.