साधक की प्रवृत्ति के अनुसार, धर्म का अभ्यास-पथ (“पटिपदा”) भी बदलता है।
कुछ साधक स्वभाव से शांत और संवेदनशील होते हैं — जिनमें क्रोध, आवेग, या भ्रम जैसी प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से नियंत्रित रहती हैं। ऐसे अनेक साधक सहज ही साँस पर ध्यान केंद्रित कर लेते हैं, और उसी मार्ग से धीरे-धीरे गहन समाधि में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। जब उनका चित्त समाधि में स्थिर होता है, तो उनके भीतर के विकार भी क्रमशः क्षीण होने लगते हैं। यह क्षय स्वाभाविक होता है — जैसे कोई वस्तु धुलती चली जाए। ऐसे साधक सहज ही मुक्तिपथ की ओर बढ़ते हैं।
परन्तु, दूसरी ओर, कुछ साधक स्वभाव से उग्र होते हैं — जिनमें क्रोध, आवेग और भ्रम तीव्रता से विद्यमान रहते हैं। उनका चित्त चंचल होता है, और वे अपने दोषों पर सहज नियंत्रण नहीं रख पाते। ऐसे साधकों के लिए केवल साँस पर ध्यान केंद्रित करना ही पर्याप्त नहीं होता। यदि वे किसी तरह समाधि प्राप्त कर भी लें, तो भी भीतर के विकार पूरी तरह नहीं मिटते — वे कहीं न कहीं छिपे रहते हैं।
ऐसे साधकों के लिए अधिक उपयुक्त मार्ग है — “दुक्खा पटिपदा”, अर्थात कठिन और तपस्वी अभ्यास-पथ। यह मार्ग, यद्यपि कष्टकर प्रतीत होता है, परंतु उन्हीं विकारों की जड़ पर चोट करता है। भगवान ने अपने सुपुत्र, आयुष्मान राहुल को भी इसी कठोर, किन्तु प्रगतिकारी मार्ग पर प्रवृत्त किया था।
इस सूत्र में, भगवान ऐसे ही कुछ उग्र साधकों के संदर्भ में, चार ध्यान-स्थितियों और अरूप-आयामों को केवल “सुख और शांति से रहना” कहकर उनका महत्व कम करते हैं। वे बताते हैं कि केवल सुख या शांति पर्याप्त नहीं — बल्कि धर्म सल्लेख वाला होना चाहिए। अर्थात, जो चित्त के भीतरी विकारों को घिस-घिसकर मिटा दें।
भगवान साधकों को ऐसी ही तपस्या अपनाने के लिए प्रेरित करते हैं, जिससे एक प्रबल और आत्मनिर्भर व्यक्तिमत्व की रचना हो — एक ऐसा व्यक्तित्व, जो दूसरों की ओर देखकर धर्म पालन न करे, बल्कि स्वयं अपने लिए “अत्त दीप भव” का साक्षात रूप बन जाए।
भले ही संसार के सभी लोग अकुशल में लिप्त हों, फिर भी ऐसा साधक अकेले ही, पूरे निष्ठा से कुशल का अर्जन करता रहे — भगवान इसी को ‘सल्लेख’ वाली तपश्चर्या कहते हैं।
इस प्रकार की तपश्चर्या में कोई भी दोष, कोई भी विकार, अनुशय रूप में भी छिपकर नहीं रह सकता। भगवान इस ‘घिस-घिसकर मिटाने वाली’ तपस्या में क्या-क्या सम्मिलित करते हैं, आइए, एक-एक कर जानें।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय आयुष्मान महाचुन्द शाम होने पर एकांतवास से बाहर आए और भगवान के पास गए। भगवान के पास जाकर अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान महाचुन्द ने भगवान से कहा —
“भंते, विभिन्न प्रकार की दृष्टियाँ (=मान्यताएँ) इस दुनिया में उत्पन्न होती हैं — आत्मवाद से जुड़ी हुई, या लोकवाद से जुड़ी हुई। तब भंते, (धर्माभ्यास की) शुरुवात पर ध्यान देने वाला कोई भिक्षु कैसे उन दृष्टियों को त्या, कैसे उन दृष्टियों को छोड़ दे?”
“हाँ, चुन्द, विभिन्न प्रकार की दृष्टियाँ इस दुनिया में उत्पन्न होती हैं — आत्मवाद से जुड़ी हुई, या लोकवाद से जुड़ी हुई। कोई दृष्टि जहाँ उत्पन्न होती है, जहाँ (अनुशय में) स्थापित होती है, और जहाँ संचालित होती है, उसे वहीं सम्यक रूप से यथास्वरूप देखते हुए, “यह मेरी नहीं, यह मैं नहीं, यह मेरी आत्मा नहीं”, उन दृष्टियों को त्याग दें, उन दृष्टियों को छोड़ दें।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या (“सल्लेख” =घिस-घिसकर मिटाने वाली तपस्या) करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे ‘अभी यही सुख विहार’ (=अभी यहीं वर्तमान में सुखपूर्वक रहना) कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे भी ‘अभी यही सुख विहार’ कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे भी ‘अभी यही सुख विहार’ कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे भी ‘अभी यही सुख विहार’ कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु रूप-नजरिया पूर्णतः लाँघ कर, विरोधी-नजरिए ओझल होने पर, विभिन्न-नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनंत है’ [देखते हुए] अनंत आकाश-आयाम में रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे ‘शान्त विहार’ (=शान्तिपूर्वक रहना) कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु अनंत आकाश-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘चैतन्य अनंत है’ [देखते हुए] अनंत चैतन्य-आयाम में रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे ‘शान्त विहार’ कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु अनंत चैतन्य-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] सूने-आयाम में रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे ‘शान्त विहार’ कहते हैं।
संभव है, चुन्द, कि कोई भिक्षु सुने-आयाम को पूर्णतः लाँघ कर, न-संज्ञा-न-असंज्ञा [=न बोधगम्य, न अबोधगम्य] आयाम में प्रवेश पाकर रहता है; उसे लगता है, “मैं तपश्चर्या करते हुए विहार करता हूँ।”
किन्तु, चुन्द, आर्य विनय में इसे तपश्चर्या नहीं कहते हैं। इसे ‘शान्त विहार’ कहते हैं।
चुन्द, (घिस-घिसकर मिटाने की) तपश्चर्या तुम्हें इस तरह करनी चाहिए —
“दूसरे हिंसक बनें, किन्तु हम अहिंसक ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे जीवहत्यारे बनें, किन्तु हम जीवहत्या से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे चोर बनें, किन्तु हम चुराने से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे अब्रह्मचारी बनें, किन्तु हम ब्रह्मचारी ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे झूठे बनें, किन्तु हम झूठ से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे फूट डालने वाली बातें करें, किन्तु हम फूट डालने वाली बातों से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे कटु बातें करें, किन्तु हम कटु बातों से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे निरर्थक बकवास करें, किन्तु निरर्थक बकवास से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे फूट डालने वाली बातें करें, किन्तु हम फूट डालने वाली बातों से विरत ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे लालची बनें, किन्तु हम लालच-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे दुर्भावनापूर्ण बनें, किन्तु हम दुर्भावना-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-दृष्टि रखें, किन्तु हम सम्यक दृष्टि ही रखेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-संकल्प रखें, किन्तु हम सम्यक संकल्प ही रखेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-वाणी बोलें, किन्तु हम सम्यक वाणी ही बोलेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-कार्य करें, किन्तु हम सम्यक कार्य ही करेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-जीविका करें, किन्तु हम सम्यक जीविका ही करेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-प्रयास करें, किन्तु हम सम्यक प्रयास ही करेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-स्मृति रखें, किन्तु हम सम्यक स्मृति ही रखेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-समाधि करें, किन्तु हम सम्यक समाधि ही करेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-ज्ञानी बनें, किन्तु हम सम्यक ज्ञानी बनेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे मिथ्या-विमुक्ति पाएँ, किन्तु हम सम्यक विमुक्ति ही पाएँगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे सुस्ती और तंद्रा से रहें, किन्तु हम बिना सुस्ती और तंद्रा के ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे बेचैन रहें, किन्तु हम बिना बेचैनी के ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे उलझन में रहें, किन्तु हम बिना उलझन के ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे क्रोधी रहें, किन्तु हम बिना क्रोध के ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे बदले की भावना रखें, किन्तु हम बिना बदले की भावना से ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे तिरस्कारी रहें, किन्तु हम तिरस्कार-विहीन ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे अकड़ू रहें, किन्तु हम अकड़ू नहीं (विनम्र) रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे ईर्ष्यालु रहें, किन्तु हम ईर्ष्या-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे कंजूस रहें, किन्तु हम कंजूसी-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे ठग रहें, किन्तु हम ठगी-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे धोखेबाज रहें, किन्तु हम धोखेबाज़ी-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे अहंभाव से रहें, किन्तु हम अहंभाव-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे घमंडी रहें, किन्तु हम घमंड-रहित ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे दुर्वचो (=अवज्ञाकारी, जिसे कुछ कहना कठिन हो) रहें, किन्तु हम सुवचो (=आज्ञाकारी, जिसे कहना सरल हो) ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे पाप-मित्र रखें, किन्तु हम कल्याण-मित्र रखेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे प्रमादी (=लापरवाह) रहें, किन्तु हम अप्रमादी ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे श्रद्धाहीन रहें, किन्तु हम श्रद्धा रखेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे लज्जाहीन रहें, किन्तु हम लज्जापूर्ण रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे बेफिक्र (=बिंदास) रहें, किन्तु हम पापभीरु ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे (धर्म) अशिक्षित रहें, किन्तु हम बहुत शिक्षित रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे आलसी रहें, किन्तु हम ऊर्जा जागृत कर के ही रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे भुलक्कड़ रहें, किन्तु हम स्मृति उपस्थित कर रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे दुष्प्रज्ञ रहें, किन्तु हम प्रज्ञा संपन्न रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
“दूसरे अपने ही मान्यताओं को पकड़ने वाले, दुराग्रही, न छोड़ने वाले रहें, किन्तु हम अपनी मान्यताओं को नहीं पकड़ें, दुराग्रही नहीं हों, जल्द छोड़ने वाले रहेंगे”, इस तरह तपश्चर्या करनी चाहिए।
चुन्द, मैं कहता हूँ, कुशल स्वभाव के लिए चित्त उत्पन्न होना (=मन का झुकना, इच्छा होना) भी बहुत मददगार होता है। तब काया और वाणी से उसके अनुरूप चलने का कहना ही क्या!
इसलिए, चुन्द, तुम्हें ऐसा चित्त उत्पन्न करना चाहिए —
— तुम्हें, चुन्द, ऐसा चित्त उत्पन्न करना चाहिए।
कल्पना करो, चुन्द, कोई विषम मार्ग हो, जिसे दूसरा सम-मार्ग परिक्रमण (=बाइपास) करता हो। जैसे किसी विषम घाट का परिक्रमण सम-घाट करता हो।
उसी तरह, चुन्द —
चुन्द, जितने भी अकुशल स्वभाव हैं, वे सब नीचे की ओर ले जाते हैं। जबकि जितने भी कुशल स्वभाव हैं, वे सब ऊपर की ओर ले जाते हैं।
उसी तरह, चुन्द —
चुन्द, यदि तुम दलदल में धँसते जा रहे हो, तब तुम्हारे लिए किसी और को दलदल से बाहर निकालना असंभव है। किन्तु यदि तुम दलदल में धँस न रहे हो, तब तुम्हारे लिए किसी और को दलदल से बाहर निकालना संभव है।
उसी तरह, चुन्द, यदि तुम स्वयं बेकाबू हो, अनुशासित न हो, अपरिनिर्वृत हो, तब तुम्हारे लिए किसी दूसरे को काबू में करना, अनुशासित करना, परिनिर्वृत करना असंभव है। किन्तु यदि तुम स्वयं काबू में हो, अनुशासित हो, परिनिर्वृत हो, तब तुम्हारे लिए किसी दूसरे को काबू में करना, अनुशासित करना, परिनिर्वृत करना संभव है।
उसी तरह, चुन्द —
इस तरह, चुन्द, मैंने तुम्हें तपश्चर्या पर उपदेश दिया, चित्त उत्पन्न करने पर उपदेश दिया, परिक्रमण करने पर उपदेश दिया, ऊपर जाने पर उपदेश दिया, परिनिर्वृत करने पर उपदेश दिया। जो शास्ता को करना चाहिए — अपने शिष्यों का कल्याण चाहते हुए, उन पर अनुकंपा करते हुए — वह मैंने तुम्हारे लिए कर दिया। देखों, भिक्षुओं, वहाँ पेड़ों के तल हैं, वहाँ ख़ाली जगहें (शून्यागार) हैं। ध्यान करों, भिक्षुओं, लापरवाह मत बनो। फ़िर पश्चाताप मत करना। यह हमारा तुम्हें संदेश है।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान महाचुन्द ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
८१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। अथ खो आयस्मा महाचुन्दो सायन्हसमयं पटिसल्लाना वुट्ठितो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा महाचुन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘या इमा, भन्ते, अनेकविहिता दिट्ठियो लोके उप्पज्जन्ति – अत्तवादपटिसंयुत्ता वा लोकवादपटिसंयुत्ता वा – आदिमेव नु खो, भन्ते, भिक्खुनो मनसिकरोतो एवमेतासं दिट्ठीनं पहानं होति, एवमेतासं दिट्ठीनं पटिनिस्सग्गो होती’’ति?
८२. ‘‘या इमा, चुन्द, अनेकविहिता दिट्ठियो लोके उप्पज्जन्ति – अत्तवादपटिसंयुत्ता वा लोकवादपटिसंयुत्ता वा – यत्थ चेता दिट्ठियो उप्पज्जन्ति यत्थ च अनुसेन्ति यत्थ च समुदाचरन्ति तं ‘नेतं मम, नेसोहमस्मि, न मे सो अत्ता’ति – एवमेतं यथाभूतं सम्मप्पञ्ञा पस्सतो एवमेतासं दिट्ठीनं पहानं होति, एवमेतासं दिट्ठीनं पटिनिस्सग्गो होति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। दिट्ठधम्मसुखविहारा एते अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। दिट्ठधम्मसुखविहारा एते अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरेय्य, सतो च सम्पजानो सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेय्य, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। दिट्ठधम्मसुखविहारा एते अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। दिट्ठधम्मसुखविहारा एते अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा, पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा, नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा, ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। सन्ता एते विहारा अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। सन्ता एते विहारा अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति। न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। सन्ता एते विहारा अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
‘‘ठानं खो पनेतं, चुन्द, विज्जति यं इधेकच्चो भिक्खु सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘सल्लेखेन विहरामी’ति । न खो पनेते, चुन्द, अरियस्स विनये सल्लेखा वुच्चन्ति। सन्ता एते विहारा अरियस्स विनये वुच्चन्ति।
८३. ‘‘इध खो पन वो, चुन्द, सल्लेखो करणीयो। ‘परे विहिंसका भविस्सन्ति, मयमेत्थ अविहिंसका भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे पाणातिपाती भविस्सन्ति, मयमेत्थ पाणातिपाता पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अदिन्नादायी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अदिन्नादाना पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अब्रह्मचारी भविस्सन्ति, मयमेत्थ ब्रह्मचारी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मुसावादी भविस्सन्ति, मयमेत्थ मुसावादा पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे पिसुणवाचा पिसुणा वाचा (सी॰ पी॰) भविस्सन्ति, मयमेत्थ पिसुणाय वाचाय पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे फरुसवाचा फरुसा वाचा (सी॰ पी॰) भविस्सन्ति, मयमेत्थ फरुसाय वाचाय पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे सम्फप्पलापी भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्फप्पलापा पटिविरता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अभिज्झालू भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनभिज्झालू भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे ब्यापन्नचित्ता भविस्सन्ति, मयमेत्थ अब्यापन्नचित्ता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छादिट्ठी भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मादिट्ठी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छासङ्कप्पा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मासङ्कप्पा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छावाचा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मावाचा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छाकम्मन्ता भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्माकम्मन्ता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छाआजीवा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्माआजीवा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छावायामा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मावायामा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छासती भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मासती भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छासमाधि भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्मासमाधी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छाञाणी भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्माञाणी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मिच्छाविमुत्ती भविस्सन्ति, मयमेत्थ सम्माविमुत्ती भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो।
‘‘‘परे थीनमिद्धपरियुट्ठिता भविस्सन्ति, मयमेत्थ विगतथीनमिद्धा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो । ‘परे उद्धता भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनुद्धता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे विचिकिच्छी वेचिकिच्छी (सी॰ पी॰ क॰) भविस्सन्ति, मयमेत्थ तिण्णविचिकिच्छा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे कोधना भविस्सन्ति, मयमेत्थ अक्कोधना भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे उपनाही भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनुपनाही भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मक्खी भविस्सन्ति , मयमेत्थ अमक्खी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे पळासी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अपळासी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे इस्सुकी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनिस्सुकी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मच्छरी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अमच्छरी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे सठा भविस्सन्ति, मयमेत्थ असठा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मायावी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अमायावी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे थद्धा भविस्सन्ति, मयमेत्थ अत्थद्धा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अतिमानी भविस्सन्ति, मयमेत्थ अनतिमानी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे दुब्बचा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सुवचा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे पापमित्ता भविस्सन्ति, मयमेत्थ कल्याणमित्ता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे पमत्ता भविस्सन्ति, मयमेत्थ अप्पमत्ता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अस्सद्धा भविस्सन्ति, मयमेत्थ सद्धा भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अहिरिका भविस्सन्ति, मयमेत्थ हिरिमना भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अनोत्तापी अनोत्तप्पी (क॰) भविस्सन्ति, मयमेत्थ ओत्तापी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे अप्पस्सुता भविस्सन्ति, मयमेत्थ बहुस्सुता भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे कुसीता भविस्सन्ति, मयमेत्थ आरद्धवीरिया भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे मुट्ठस्सती भविस्सन्ति, मयमेत्थ उपट्ठितस्सती भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे दुप्पञ्ञा भविस्सन्ति, मयमेत्थ पञ्ञासम्पन्ना भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो। ‘परे सन्दिट्ठिपरामासी आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सन्ति, मयमेत्थ असन्दिट्ठिपरामासी अनाधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सामा’ति सल्लेखो करणीयो।
८४. ‘‘चित्तुप्पादम्पि खो अहं, चुन्द, कुसलेसु धम्मेसु बहुकारं बहूपकारं (क॰) वदामि, को पन वादो कायेन वाचाय अनुविधीयनासु! तस्मातिह, चुन्द, ‘परे विहिंसका भविस्सन्ति, मयमेत्थ अविहिंसका भविस्सामा’ति चित्तं उप्पादेतब्बं। ‘परे पाणातिपाती भविस्सन्ति, मयमेत्थ पाणातिपाता पटिविरता भविस्सामा’ति चित्तं उप्पादेतब्बं…‘परे सन्दिट्ठिपरामासी आधानग्गाही दुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सन्ति, मयमेत्थ असन्दिट्ठिपरामासी अनाधानग्गाही सुप्पटिनिस्सग्गी भविस्सामा’ति चित्तं उप्पादेतब्बं।
८५. ‘‘सेय्यथापि, चुन्द, विसमो मग्गो अस्स, तस्स मग्गो तस्सास्स (सी॰ स्या॰ पी॰) अञ्ञो समो मग्गो परिक्कमनाय; सेय्यथा वा पन, चुन्द, विसमं तित्थं अस्स, तस्स अञ्ञं समं तित्थं परिक्कमनाय; एवमेव खो, चुन्द, विहिंसकस्स पुरिसपुग्गलस्स अविहिंसा होति परिक्कमनाय, पाणातिपातिस्स पुरिसपुग्गलस्स पाणातिपाता वेरमणी होति परिक्कमनाय, अदिन्नादायिस्स पुरिसपुग्गलस्स अदिन्नादाना वेरमणी होति परिक्कमनाय, अब्रह्मचारिस्स पुरिसपुग्गलस्स अब्रह्मचरिया वेरमणी होति परिक्कमनाय , मुसावादिस्स पुरिसपुग्गलस्स मुसावादा वेरमणी होति परिक्कमनाय, पिसुणवाचस्स पुरिसपुग्गलस्स पिसुणाय वाचाय वेरमणी होति परिक्कमनाय, फरुसवाचस्स पुरिसपुग्गलस्स फरुसाय वाचाय वेरमणी होति परिक्कमनाय, सम्फप्पलापिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्फप्पलापा वेरमणी होति परिक्कमनाय, अभिज्झालुस्स पुरिसपुग्गलस्स अनभिज्झा होति परिक्कमनाय, ब्यापन्नचित्तस्स पुरिसपुग्गलस्स अब्यापादो होति परिक्कमनाय, मिच्छादिट्ठिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मादिट्ठि होति परिक्कमनाय, मिच्छासङ्कप्पस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासङ्कप्पो होति परिक्कमनाय, मिच्छावाचस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मावाचा होति परिक्कमनाय, मिच्छाकम्मन्तस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माकम्मन्तो होति परिक्कमनाय, मिच्छाआजीवस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माआजीवो होति परिक्कमनाय, मिच्छावायामस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मावायामो होति परिक्कमनाय, मिच्छासतिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासति होति परिक्कमनाय, मिच्छासमाधिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासमाधि होति परिक्कमनाय, मिच्छाञाणिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माञाणं होति परिक्कमनाय, मिच्छाविमुत्तिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माविमुत्ति होति परिक्कमनाय।
‘‘थीनमिद्धपरियुट्ठितस्स पुरिसपुग्गलस्स विगतथिनमिद्धता होति परिक्कमनाय, उद्धतस्स पुरिसपुग्गलस्स अनुद्धच्चं होति परिक्कमनाय, विचिकिच्छिस्स पुरिसपुग्गलस्स तिण्णविचिकिच्छता होति परिक्कमनाय, कोधनस्स पुरिसपुग्गलस्स अक्कोधो होति परिक्कमनाय, उपनाहिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनुपनाहो होति परिक्कमनाय, मक्खिस्स पुरिसपुग्गलस्स अमक्खो होति परिक्कमनाय, पळासिस्स पुरिसपुग्गलस्स अपळासो होति परिक्कमनाय , इस्सुकिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनिस्सुकिता होति परिक्कमनाय, मच्छरिस्स पुरिसपुग्गलस्स अमच्छरियं होति परिक्कमनाय, सठस्स पुरिसपुग्गलस्स असाठेय्यं होति परिक्कमनाय, मायाविस्स पुरिसपुग्गलस्स अमाया अमायाविता (क॰) होति परिक्कमनाय, थद्धस्स पुरिसपुग्गलस्स अत्थद्धियं होति परिक्कमनाय, अतिमानिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनतिमानो होति परिक्कमनाय, दुब्बचस्स पुरिसपुग्गलस्स सोवचस्सता होति परिक्कमनाय, पापमित्तस्स पुरिसपुग्गलस्स कल्याणमित्तता होति परिक्कमनाय, पमत्तस्स पुरिसपुग्गलस्स अप्पमादो होति परिक्कमनाय, अस्सद्धस्स पुरिसपुग्गलस्स सद्धा होति परिक्कमनाय, अहिरिकस्स पुरिसपुग्गलस्स हिरी होति परिक्कमनाय, अनोत्तापिस्स पुरिसपुग्गलस्स ओत्तप्पं होति परिक्कमनाय, अप्पस्सुतस्स पुरिसपुग्गलस्स बाहुसच्चं होति परिक्कमनाय, कुसीतस्स पुरिसपुग्गलस्स वीरियारम्भो होति परिक्कमनाय, मुट्ठस्सतिस्स पुरिसपुग्गलस्स उपट्ठितस्सतिता होति परिक्कमनाय, दुप्पञ्ञस्स पुरिसपुग्गलस्स पञ्ञासम्पदा होति परिक्कमनाय , सन्दिट्ठिपरामासि-आधानग्गाहि-दुप्पटिनिस्सग्गिस्स पुरिसपुग्गलस्स असन्दिट्ठिपरामासिअनाधानग्गाहि-सुप्पटिनिस्सग्गिता होति परिक्कमनाय।
८६. ‘‘सेय्यथापि, चुन्द, ये केचि अकुसला धम्मा सब्बे ते अधोभागङ्गमनीया अधोभावङ्गमनीया (सी॰ स्या॰ पी॰), ये केचि कुसला धम्मा सब्बे ते उपरिभागङ्गमनीया उपरिभावङ्गमनीया (सी॰ स्या॰ पी॰), एवमेव खो, चुन्द, विहिंसकस्स पुरिसपुग्गलस्स अविहिंसा होति उपरिभागाय उपरिभावाय (सी॰ स्या॰ क॰), पाणातिपातिस्स पुरिसपुग्गलस्स पाणातिपाता वेरमणी होति उपरिभागाय…पे॰… सन्दिट्ठिपरामासि-आधानग्गाहि-दुप्पटिनिस्सग्गिस्स पुरिसपुग्गलस्स असन्दिट्ठिपरामासि-अनाधानग्गाहि-सुप्पटिनिस्सग्गिता होति उपरिभागाय।
८७. ‘‘सो वत, चुन्द, अत्तना पलिपपलिपन्नो परं पलिपपलिपन्नं उद्धरिस्सतीति नेतं ठानं विज्जति। सो वत, चुन्द, अत्तना अपलिपपलिपन्नो परं पलिपपलिपन्नं उद्धरिस्सतीति ठानमेतं विज्जति। सो वत, चुन्द, अत्तना अदन्तो अविनीतो अपरिनिब्बुतो परं दमेस्सति विनेस्सति परिनिब्बापेस्सतीति नेतं ठानं विज्जति। सो वत , चुन्द, अत्तना दन्तो विनीतो परिनिब्बुतो परं दमेस्सति विनेस्सति परिनिब्बापेस्सतीति ठानमेतं विज्जति। एवमेव खो, चुन्द, विहिंसकस्स पुरिसपुग्गलस्स अविहिंसा होति परिनिब्बानाय, पाणातिपातिस्स पुरिसपुग्गलस्स पाणातिपाता वेरमणी होति परिनिब्बानाय। अदिन्नादायिस्स पुरिसपुग्गलस्स अदिन्नादाना वेरमणी होति परिनिब्बानाय। अब्रह्मचारिस्स पुरिसपुग्गलस्स अब्रह्मचरिया वेरमणी होति परिनिब्बानाय। मुसावादिस्स पुरिसपुग्गलस्स मुसावादा वेरमणी होति परिनिब्बानाय। पिसुणवाचस्स पुरिसपुग्गलस्स पिसुणाय वाचाय वेरमणी होति परिनिब्बानाय। फरुसवाचस्स पुरिसपुग्गलस्स फरुसाय वाचाय वेरमणी होति परिनिब्बानाय। सम्फप्पलापिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्फप्पलापा वेरमणी होति परिनिब्बानाय। अभिज्झालुस्स पुरिसपुग्गलस्स अनभिज्झा होति परिनिब्बानाय। ब्यापन्नचित्तस्स पुरिसपुग्गलस्स अब्यापादो होति परिनिब्बानाय। मिच्छादिट्ठिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मादिट्ठि होति परिनिब्बानाय। मिच्छासङ्कप्पस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासङ्कप्पो होति परिनिब्बानाय। मिच्छावाचस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मावाचा होति परिनिब्बानाय। मिच्छाकम्मन्तस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माकम्मन्तो होति परिनिब्बानाय। मिच्छाआजीवस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माआजीवो होति परिनिब्बानाय। मिच्छावायामस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मावायामो होति परिनिब्बानाय। मिच्छासतिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासति होति परिनिब्बानाय। मिच्छासमाधिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्मासमाधि होति परिनिब्बानाय। मिच्छाञाणिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माञाणं होति परिनिब्बानाय। मिच्छाविमुत्तिस्स पुरिसपुग्गलस्स सम्माविमुत्ति होति परिनिब्बानाय।
‘‘थीनमिद्धपरियुट्ठितस्स पुरिसपुग्गलस्स विगतथिनमिद्धता होति परिनिब्बानाय। उद्धतस्स पुरिसपुग्गलस्स अनुद्धच्चं होति परिनिब्बानाय। विचिकिच्छिस्स पुरिसपुग्गलस्स तिण्णविचिकिच्छता होति परिनिब्बानाय। कोधनस्स पुरिसपुग्गलस्स अक्कोधो होति परिनिब्बानाय। उपनाहिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनुपनाहो होति परिनिब्बानाय। मक्खिस्स पुरिसपुग्गलस्स अमक्खो होति परिनिब्बानाय। पळासिस्स पुरिसपुग्गलस्स अपळासो होति परिनिब्बानाय। इस्सुकिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनिस्सुकिता होति परिनिब्बानाय। मच्छरिस्स पुरिसपुग्गलस्स अमच्छरियं होति परिनिब्बानाय। सठस्स पुरिसपुग्गलस्स असाठेय्यं होति परिनिब्बानाय। मायाविस्स पुरिसपुग्गलस्स अमाया होति परिनिब्बानाय। थद्धस्स पुरिसपुग्गलस्स अत्थद्धियं होति परिनिब्बानाय। अतिमानिस्स पुरिसपुग्गलस्स अनतिमानो होति परिनिब्बानाय। दुब्बचस्स पुरिसपुग्गलस्स सोवचस्सता होति परिनिब्बानाय। पापमित्तस्स पुरिसपुग्गलस्स कल्याणमित्तता होति परिनिब्बानाय। पमत्तस्स पुरिसपुग्गलस्स अप्पमादो होति परिनिब्बानाय। अस्सद्धस्स पुरिसपुग्गलस्स सद्धा होति परिनिब्बानाय। अहिरिकस्स पुरिसपुग्गलस्स हिरी होति परिनिब्बानाय। अनोत्तापिस्स पुरिसपुग्गलस्स ओत्तप्पं होति परिनिब्बानाय। अप्पस्सुतस्स पुरिसपुग्गलस्स बाहुसच्चं होति परिनिब्बानाय। कुसीतस्स पुरिसपुग्गलस्स वीरियारम्भो होति परिनिब्बानाय। मुट्ठस्सतिस्स पुरिसपुग्गलस्स उपट्ठितस्सतिता होति परिनिब्बानाय। दुप्पञ्ञस्स पुरिसपुग्गलस्स पञ्ञासम्पदा होति परिनिब्बानाय। सन्दिट्ठिपरामासि-आधानग्गाहि-दुप्पटिनिस्सग्गिस्स पुरिसपुग्गलस्स असन्दिट्ठिपरामासि-अनाधानग्गाहि-सुप्पटिनिस्सग्गिता होति परिनिब्बानाय।
८८. ‘‘इति खो, चुन्द, देसितो मया सल्लेखपरियायो, देसितो चित्तुप्पादपरियायो, देसितो परिक्कमनपरियायो, देसितो उपरिभागपरियायो, देसितो परिनिब्बानपरियायो। यं खो, चुन्द, सत्थारा करणीयं सावकानं हितेसिना अनुकम्पकेन अनुकम्पं उपादाय, कतं वो तं मया। ‘एतानि, चुन्द, रुक्खमूलानि, एतानि सुञ्ञागारानि, झायथ, चुन्द, मा पमादत्थ, मा पच्छाविप्पटिसारिनो अहुवत्थ’ – अयं खो अम्हाकं अनुसासनी’’ति।
इदमवोच भगवा। अत्तमनो आयस्मा महाचुन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।
चतुत्तालीसपदा वुत्ता, सन्धयो पञ्च देसिता।
सल्लेखो नाम सुत्तन्तो, गम्भीरो सागरूपमोति॥
सल्लेखसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं।