अट्ठकथा के अनुसार, वेखनस “विखानस के वंशज” था और वह सकलुदायी का आचार्य गुरु था, जो अपनी शिक्षा की रक्षा करने आया था, जिसे भगवान ने पिछले सूत्र में “खोखली, तुच्छ और फालतू” साबित किया था।
वेखनस एक वैदिक श्लोककार थे, जो बाद में अरण्यवासी तपस्वियों के रूप में प्रसिद्ध हुए और आधुनिक वैखानस वैष्णवी परंपरा में विकसित हुए। यह सूत्र संभवतः वेखनस तपस्वियों की परंपरा का सबसे पुराना संदर्भ है, जो वैदिक काव्यकारों और बाद की परंपरा के बीच एक कड़ी बनाता है। भगवान उसे उसके गोत्र नाम “कच्चान” से पुकारते हैं।
ऋग्वेद में दो वैखानस श्लोक हैं, जिनमें सोम को “अत्यधिक उज्जवल” (ऋग्वेद ९.६६.२६) और “चमकता हुआ प्रकाश” (९.६६.२४) कहा गया है, जिनकी “चमकती बूंदें” और “किरणों से व्याप्त” विशेषताएँ हैं। वे इस सूत्र में आए “परम वर्ण” या परम आभा के समान अर्थ में उल्लेख होती हैं। ये श्लोक “सौ वैखानसों” द्वारा रचित माने जाते हैं, जो उस समय वैखानस परंपरा के अस्तित्व को दर्शाते हैं। संभवतः वेखनस वंश ने इन श्लोकों से अपना दर्शन विकसित किया, जिसमें सोम का मूल संदर्भ समय के साथ भुला दिया गया।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। तब वेखनस घुमक्कड़ भगवान के पास गया, और जाकर भगवान से हालचाल पूछा। मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर वह एक ओर खड़ा हुआ। एक ओर खड़े होकर वेखनस घुमक्कड़ ने भगवान की उपस्थिती में उदान बोल पड़ा —
“यह परमवर्ण है! यह परम वर्ण है!”
“किन्तु, कच्चान, ऐसा क्यों कहते हो कि ‘यह परमवर्ण है! यह परम वर्ण है’? क्या है वह परम वर्ण?”
“श्रीमान गोतम, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।”
“किन्तु, कच्चान, किस परम वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर है, न ही उत्कृष्ट?”
“श्रीमान गोतम, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।”
“दीर्घकाल तक, कच्चान, तुम इसे खींचते रह सकते हो, (कहते हुए,) ‘श्रीमान गोतम, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट — वह परम वर्ण है।’ किन्तु उस वर्ण को बता नहीं रहे हो।
जैसे, कच्चान, कोई पुरुष कहता है, ‘जो इस देश की परमसुंदरी है, वो मुझे चाहिए, मैं उसी को चाहता हूँ। तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी क्षत्रियी है, या ब्राह्मणी है, या वैश्यी है, या शूद्री है?’
ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।
तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि उस परमसुंदरी का यह नाम है, यह गोत्र है?’
ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।
तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी लंबी है, या नाटी है, या मध्यम है?’
ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।
तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी काली है, या साँवली है, या स्वर्णिम त्वचा वाली?’
ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।
तब लोग उससे कहते हैं, ‘कौन है, मेरे भाई, इस देश की परमसुंदरी, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो? क्या तुम जानते हो कि वह परमसुंदरी अमुक गाँव की है, या अमुक नगर की है, या अमुक शहर की?’
ऐसा पूछने पर वह ‘नहीं’ कहता है।
तब लोग उससे कहते हैं, ‘मेरे भाई, जो तुम्हें चाहिए, जिसे तुम चाहते हो, क्या उसे जानते भी हो, कभी देखा भी है?’
ऐसा पूछने पर वह ‘हाँ’ कहता है।
तब, तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? यदि ऐसा हो तो उस पुरुष का बोलना दर्शाया नहीं जा सकता?’”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, यदि ऐसा हो तो उस पुरुष का बोलना दर्शाया नहीं जा सकता।”
“उसी तरह, कच्चान, जब तुम कहते हो, ‘श्रीमान गोतम, जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर हो, न ही उत्कृष्ट, वह परम वर्ण है’ — किन्तु वह वर्ण बता नहीं रहे हो।”
“श्रीमान गोतम, जैसे कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। उसे श्वेत ऊनी कंबल पर रखा जाता है, तो वह चमकता है, तपता है, और चकाचौंध करता है। उस तरह के वर्ण (=आभा) की आत्मा होती है, जो मरणोपरांत आरोग्यपूर्ण बनती है।” 1
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसका वर्ण (=आभा) अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होता है — कोई ऊँची जाति का शुभ मणि… जिसे श्वेत ऊनी कंबल पर रखने पर वह चमकता, तपता, चकाचौंध करता है? अथवा रात के घोर अंधकार में चमकता हुआ कोई जुगनू?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, रात के घोर अंधकार में चमकते हुए किसी जुगनू का वर्ण दोनों के वर्ण में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होता है।”
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में चमकते हुए कोई जुगनू? अथवा रात के घोर अंधकार में जलता हुआ कोई दीया?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, रात के घोर अंधकार में जलते हुए किसी दीये की आभा दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में जलता हुआ कोई दीया? अथवा रात के घोर अंधकार में जलते हुए अग्नि का बड़ा ढ़ेर?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, रात के घोर अंधकार में जलते हुए किसी अग्नि का बड़ा ढ़ेर दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के घोर अंधकार में जलते हुए अग्नि का बड़ा ढ़ेर? अथवा रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में चमकता हुआ तारक देवता (=शुक्र तारा)?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में तारक देवता दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — रात के पश्चात भोर होने पर बादलरहित आकाश में तारक देवता? अथवा पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चमकता हुआ चाँद?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चाँद दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”
“तुम्हें क्या लगता है, कच्चान? इनमें से किसकी आभा अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है — पुर्णिमा उपोसथ की मध्यरात्रि के समय बादलरहित आकाश में चाँद? अथवा वर्षाकाल के अंतिम महीने, शरदऋतु के समय, दिन के मध्य में बादलरहित आकाश में चमकता हुआ सूर्य?”
“निश्चित ही, श्रीमान गोतम, वर्षाकाल के अंतिम महीने, शरदऋतु के समय, दिन के मध्य में बादलरहित आकाश में सूर्य दोनों की आभाओं में अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ठ होती है।”
“इसके आगे भी, कच्चान, मैं बहुत से ऐसे देवताओं को प्रज्ञापूर्वक जानता हूँ, जिनके सामने चाँद-सूरज की आभा पता तक नहीं चलती। किन्तु तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि — ‘जिस वर्ण से कोई भी अन्य वर्ण न बेहतर है, न ही उत्कृष्ट।’ किन्तु तुम, कच्चान, जो आभा किसी जुगनू की आभा से भी बदतर है, हीन है, उसे तुम परम वर्ण कहते हो। और, उस वर्ण को भी बता नहीं पाते।
कच्चान, पाँच कामगुण होते हैं। कौन से पाँच?
ये पाँच, कच्चान, कामगुण हैं। इन पाँच कामगुणों के आधार पर, कच्चान, जो भी सुख और खुशी उत्पन्न होती है, उसे ‘कामसुख’ कहते हैं। इस तरह, कामुकता से कामसुख, और कामसुख से काम-अग्रसुख होता है, जिसे ऊँचा कहा जाता है।”
जब ऐसा कहा गया, तब वेखनस घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, श्रीमान गोतम! अद्भुत है, श्रीमान गोतम! कितना अच्छा बोला श्रीमान गोतम ने, ‘कामुकता से कामसुख, और कामसुख से काम-अग्रसुख होता है, जिसे ऊँचा कहा जाता है।’ ‘श्रीमान गोतम, कामुकता से कामसुख होता है, और कामसुख से काम-अग्रसुख ही होता है, जिसे ऊँचा कहा जाता है।’”
“तुम, कच्चान, जिसकी परायी मान्यता, पराए संप्रदाय, परायी रुचि, परायी शरण, और पराया आचार्य है — तुम्हारे लिए इसे जानना कठिन है, कामुकता, कामसुख, या काम-अग्रसुख। ऐसे भिक्षु हैं, कच्चान, जो — अरहंत हैं, क्षिणास्रव, जिन्होंने ब्रह्मचर्य परिपूर्ण किया, कर्तव्य समाप्त किया, बोझ को नीचे रखा, परम-ध्येय प्राप्त किया, भव-बंधन को पूर्णतः तोड़ दिया, सम्यक-ज्ञान से विमुक्त हुए — वे जानते हैं कामुकता, कामसुख, या काम-अग्रसुख।”
जब ऐसा कहा गया, तब वेखनस घुमक्कड़ ने कुपित होकर, क्षुब्ध होकर भगवान को गाली-गलौच की, भगवान को कोसा, भगवान को अपशब्द कहा और आगे कहा, “श्रमण गोतम का बहुत बुरा होगा! ऐसा ही उन श्रमण-ब्राह्मणों के साथ होता हैं, जो पूर्वान्त न जानते हुए, अपरान्त न जानते हुए भी दावा करते हैं — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ किन्तु उनका कहना हास्यास्पद लगता है, खोखला लगता है, तुच्छ लगता है, फालतू लगता है।”
“कच्चान, जो श्रमण-ब्राह्मण पूर्वान्त न जानते हुए, अपरान्त न जानते हुए भी दावा करते हैं — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं’ उनका धर्मानुसार खण्डन किया जा सकता है।
किन्तु, कच्चान पूर्वान्त को रहने दो, और अपरान्त को रहने दो। ऐसा समझदार पुरुष आए, जो शठ (=ठग) न हो, मायावी (=धोखाबाज़) न हो, बल्कि सीधे प्रवृत्ति का हो। मैं उसे अनुशासित करूँ, धर्म बताऊँ। जैसा निर्देशित हो, वैसी साधना करने पर, जल्द ही उन्हें स्वयं ज्ञात होगा, स्वयं देखेंगे — ‘तो इस तरह बंधन से सम्यक विमोक्ष होता है, इस अविद्या के बंधन से!’
जैसे, कच्चान, किसी उतान लेटने वाले नासमझ नवजात बच्चे को गले से सूत-बंधन के बंधन से बांध दिया गया हो। बड़ा होने पर उनकी इंद्रिय परिपक्व होती है, और वे उस बंधन से मुक्त होते हैं, जानते हुए, ‘तो मैं छूट गया’, और अब कोई बंधन नहीं होता।
उसी तरह, कच्चान, ऐसा समझदार पुरुष आए, जो शठ न हो, मायावी न हो, बल्कि सीधे प्रवृत्ति का हो। मैं उसे अनुशासित करूँ, धर्म बताऊँ। जैसा निर्देशित हो, वैसी साधना करने पर, जल्द ही उन्हें स्वयं ज्ञात होगा, स्वयं देखेंगे — ‘तो इस तरह बंधन से सम्यक विमोक्ष होता है, इस अविद्या के बंधन से!’”
“जब ऐसा कहा गया, तब वेखनस घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह श्रीमान गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं श्रीमान गोतम की शरण जाता हूँ! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! श्रीमान गोतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
कई लोग जो अपने दिव्यचक्षु से आत्मा की सूक्ष्म और मनोहर आभा का दर्शन करते हैं, उसे दिव्यता का परम सौंदर्य मानते हैं। मैं खुद ऐसे लोगों को जानता हूँ, जिन्होंने ऐसा कहा। तब मुझे इसी सूत्र की याद आती है, जिसमें भगवान पूछते हैं कि आत्मा की आभा इतनी सुंदर क्यों लगती है, जब वह जुगनू के प्रकाश से भी तुच्छ है! और, उसका अनुभव करने का क्या लाभ, जब वह परम सुख या मुक्ति की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ाता। सच्चा प्रकाश वह है, जो दुःखों के अंधकार को मिटाता है, न कि अस्तित्व की सौंदर्य को निहारते हुए बस मुसकाते रहना। ↩︎
२७८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो वेखनसो [वेखनस्सो (सी. पी.)] परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो वेखनसो परिब्बाजको भगवतो सन्तिके उदानं उदानेसि – ‘‘अयं परमो वण्णो, अयं परमो वण्णो’’ति.
‘‘किं पन त्वं, कच्चान, एवं वदेसि – ‘अयं परमो वण्णो, अयं परमो वण्णो’ति? कतमो, कच्चान, सो परमो वण्णो’’ति?
‘‘यस्मा, भो गोतम, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’’ति.
‘‘कतमो पन सो, कच्चान, वण्णो यस्मा वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थी’’ति?
‘‘यस्मा, भो गोतम, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’’ति.
‘‘दीघापि खो ते एसा, कच्चान, फरेय्य – ‘यस्मा, भो गोतम, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’ति वदेसि, तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसि. सेय्यथापि, कच्चान, पुरिसो एवं वदेय्य – ‘अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी, तं इच्छामि तं कामेमी’ति. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं – खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वा सुद्दी वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं ‘एवंनामा एवंगोत्ताति वाति…पे… दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति… अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य. तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी’’’ति? इति पुट्ठो ‘आमा’ति वदेय्य.
‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो गोतम, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति. ‘‘एवमेव खो त्वं, कच्चान, ‘यस्मा, भो गोतम, वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो वा पणीततरो वा नत्थि सो परमो वण्णो’ति वदेसि; तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसी’’ति. ‘‘सेय्यथापि, भो गोतम, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो पण्डुकम्बले निक्खित्तो भासते च तपते च विरोचति च, एवं वण्णो अत्ता होति अरोगो परं मरणा’’ति.
२७९. ‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, यो वा मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो पण्डुकम्बले निक्खित्तो भासते च तपते च विरोचति च, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको, अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय किमि खज्जोपनको, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो, इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो, अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय तेलप्पदीपो, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो, इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो, अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति.
‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, यो वा रत्तन्धकारतिमिसाय महाअग्गिक्खन्धो, या वा रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका, इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका, अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, या वा रत्तिया पच्चूससमयं विद्धे विगतवलाहके देवे ओसधितारका, यो वा तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अड्ढरत्तसमयं चन्दो, इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अड्ढरत्तसमयं चन्दो, अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, कच्चान, यो वा तदहुपोसथे पन्नरसे विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो अड्ढरत्तसमयं चन्दो, यो वा वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो मज्झन्हिकसमयं सूरियो, इमेसं उभिन्नं वण्णानं कतमो वण्णो अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति? ‘‘य्वायं, भो गोतम, वस्सानं पच्छिमे मासे सरदसमये विद्धे विगतवलाहके देवे अभिदो मज्झन्हिकसमयं सूरियो – अयं इमेसं उभिन्नं वण्णानं अभिक्कन्ततरो च पणीततरो चा’’ति. ‘‘अतो खो ते, कच्चान, बहू हि बहुतरा देवा ये इमेसं चन्दिमसूरियानं आभा नानुभोन्ति, त्याहं पजानामि. अथ च पनाहं न वदामि – ‘यस्मा वण्णा अञ्ञो वण्णो उत्तरितरो च पणीततरो च नत्थी’ति. अथ च पन त्वं, कच्चान, ‘य्वायं वण्णो किमिना खज्जोपनकेन निहीनतरो च पतिकिट्ठतरो च सो परमो वण्णो’ति वदेसि; तञ्च वण्णं न पञ्ञपेसि’’.
२८०. ‘‘पञ्च खो इमे, कच्चान, कामगुणा. कतमे पञ्च? चक्खुविञ्ञेय्या रूपा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया, सोतविञ्ञेय्या सद्दा…पे… घानविञ्ञेय्या गन्धा… जिव्हाविञ्ञेय्या रसा… कायविञ्ञेय्या फोट्ठब्बा इट्ठा कन्ता मनापा पियरूपा कामूपसंहिता रजनीया – इमे खो, कच्चान, पञ्च कामगुणा. यं खो, कच्चान, इमे पञ्च कामगुणे पटिच्च उप्पज्जति सुखं सोमनस्सं इदं वुच्चति कामसुखं. इति कामेहि कामसुखं, कामसुखा कामग्गसुखं तत्थ अग्गमक्खायती’’ति.
एवं वुत्ते, वेखनसो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भो गोतम, अब्भुतं, भो गोतम! याव सुभासितं चिदं भोता गोतमेन – ‘कामेहि कामसुखं, कामसुखा कामग्गसुखं तत्थ अग्गमक्खायती’ति. (‘कामेहि, भो गोतम, कामसुखं, कामसुखा कामग्गसुखं, तत्थ अग्गमक्खायती’ति) [( ) सी. स्या. कं. पी. पोत्थकेसु नत्थि] – ‘‘दुज्जानं खो एतं, कच्चान, तया अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रयोगेन अञ्ञत्राचरियकेन – कामा [कामं (सी. स्या. कं. पी.)] वा कामसुखं वा कामग्गसुखं वा. ये खो ते, कच्चान, भिक्खू अरहन्तो खीणासवा वुसितवन्तो कतकरणीया ओहितभारा अनुप्पत्तसदत्था परिक्खीणभवसंयोजना सम्मदञ्ञा विमुत्ता ते खो एतं जानेय्युं – कामा वा कामसुखं वा कामग्गसुखं वा’’ति.
२८१. एवं वुत्ते, वेखनसो परिब्बाजको कुपितो अनत्तमनो भगवन्तंयेव खुंसेन्तो भगवन्तंयेव वम्भेन्तो भगवन्तंयेव वदमानो ‘‘समणो [समणो च (सी. पी.)] गोतमो पापितो भविस्सती’’ति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एवमेव पनिधेकच्चे [पनिधेके (सी. पी.), पनिमेके (उपरिसुभसुत्ते)] समणब्राह्मणा अजानन्ता पुब्बन्तं, अपस्सन्ता अपरन्तं अथ च पन ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्तायाति – पजानामा’ति – पटिजानन्ति [इत्थत्तायाति पटिजानन्ति (पी.)]. तेसमिदं भासितं हस्सकंयेव सम्पज्जति, नामकंयेव सम्पज्जति, रित्तकंयेव सम्पज्जति, तुच्छकंयेव सम्पज्जती’’ति. ‘‘ये खो ते, कच्चान, समणब्राह्मणा अजानन्ता पुब्बन्तं , अपस्सन्ता अपरन्तं, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्तायाति – पजानामा’ति – पटिजानन्ति; तेसं सोयेव [तेसं तेसायं (सी.), तेसंयेव सो (?)] सहधम्मिको निग्गहो होति. अपि च, कच्चान, तिट्ठतु पुब्बन्तो, तिट्ठतु अपरन्तो. एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो [यथानुसिट्ठं पटिपज्जमानो (?)] नचिरस्सेव सामञ्ञेव ञस्सति सामं दक्खिति – एवं किर सम्मा [एवं किरायस्मा (स्या. क.)] बन्धना विप्पमोक्खो होति, यदिदं अविज्जा बन्धना. सेय्यथापि, कच्चान, दहरो कुमारो मन्दो उत्तानसेय्यको कण्ठपञ्चमेहि बन्धनेहि बद्धो अस्स सुत्तबन्धनेहि; तस्स वुद्धिमन्वाय इन्द्रियानं परिपाकमन्वाय तानि बन्धनानि मुच्चेय्युं; सो मोक्खोम्हीति खो जानेय्य नो च बन्धनं . एवमेव खो, कच्चान, एतु विञ्ञू पुरिसो असठो अमायावी उजुजातिको, अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि; यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमानो नचिरस्सेव सामञ्ञे ञस्सति , सामं दक्खिति – ‘एवं किर सम्मा बन्धना विप्पमोक्खो होति, यदिदं अविज्जा बन्धना’’’ति.
एवं वुत्ते, वेखनसो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम…पे… उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
वेखनससुत्तं निट्ठितं दसमं.
परिब्बाजकवग्गो निट्ठितो ततियो.