घटिकार कुम्हार की यह जीवंत कथा प्रारंभिक सूत्रों में आए जातकों में से सबसे अधिक प्रेरणादायी कथाओं में से एक है। इस जातक की लोकप्रियता कई समानांतर सूत्रों से प्रमाणित होती है, जिनमें से एक संयुक्तनिकाय १.५० में मिलती है, जहाँ स्वयं घटिकार, जो अब शुद्धवास ब्रह्मलोक में एक ब्रह्म बन चुके हैं, अपने पुराने मित्र, ज्योतिपाल (=भगवान गोतम बुद्ध), से मिलने आते हैं।
घटिकार के अनेक गुण बौद्ध उपासकों के लिए एक आदर्श स्थापित करते हैं, और भिक्षुओं के दिल को भी गहरा छूती है। बौद्ध साहित्य में शायद ही कहीं और ऐसा उदाहरण मिले, जहाँ भगवान किसी ब्रह्मचारी गृहस्थ को इतना गहरा स्नेह देते हों कि उसकी व्यक्तिगत वस्तुएँ बिना पूछे ही ले ली जाएँ। इस भावनात्मक घनिष्ठता को पढ़ते समय, यह कथा बार-बार आँखों को नम करती है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान कोसल देश में विशाल भिक्षुसंघ के साथ भ्रमण कर रहे थे। तब भगवान ने मार्ग से उतर कर, किसी विशेष जगह पर स्मित (=मुस्कान) प्रकट की।
तब आयुष्मान आनन्द को लगा, “किस कारण से, किस परिस्थिति में भगवान ने स्मित प्रकट किया? चूँकि तथागत अकारण स्मित प्रकट नहीं करते।” 1
तब आयुष्मान आनन्द ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, भगवान को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए भगवान से कहा —
“भंते, किस कारण से, किस परिस्थिति में भगवान ने स्मित प्रकट किया? चूँकि तथागत अकारण स्मित प्रकट नहीं करते।”
“बहुत पहले की बात है, आनन्द। इस जगह पर वेगळिङ्ग (=वेभलिङ्ग) नामक बाजार नगर होता था, शक्तिशाली, समृद्ध, घनी आबादी वाला, लोगों से भरा हुआ। उस वेगळिङ्ग पर निर्भर रहकर कश्यप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध विहार करते थे। बल्कि, आनन्द, ठीक इसी जगह पर कश्यप भगवान का विहार था। और, ठीक इसी जगह पर कश्यप भगवान बैठकर भिक्षुसंघ को निर्देश देते थे।”
तब आयुष्मान आनन्द ने अपनी संघाटि को चौपेती बिछाकर भगवान से कहा, “तब, भंते, भगवान यहाँ बैठें। ताकि यह भूमि दो अरहंत सम्यक-सम्बुद्धों से उपयोगित हो जाएँ।”
भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। बैठकर भगवान ने आयुष्मान आनन्द को संबोधित किया —
“बहुत पहले की बात है, आनन्द। इस जगह पर वेगळिङ्ग नामक बाजार निगम होता था, शक्तिशाली, समृद्ध, घनी आबादी वाला, लोगों से भरा हुआ। उस वेगळिङ्ग पर निर्भर रहकर कश्यप भगवान 2 विहार करते थे। बल्कि, आनन्द, ठीक इसी जगह पर कश्यप भगवान का विहार था। और, ठीक इसी जगह पर कश्यप भगवान बैठकर भिक्षुसंघ को निर्देश देते थे।
वेगळिङ्ग बाजार निगम में, आनन्द, घटिकार नामक कुम्हार, कश्यप भगवान का समर्थक था, अग्र-समर्थक था। घटिकार कुम्हार का, आनन्द, जोतिपाल नामक युवा-ब्राह्मण मित्र था, प्रिय मित्र था।
एक बार, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को संबोधित किया, ‘आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
जब ऐसा कहा गया, आनन्द, तब जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार से कहा, ‘रहने दो, प्रिय घटिकार! क्या होगा उस गंजे को, उस तुच्छ श्रमण को देखकर?’
तब दूसरी बार, आनन्द… और तब तीसरी बार, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को संबोधित किया, ‘आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
जब ऐसा कहा गया, आनन्द, तब जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार से पुनः कहा, ‘रहने दो, प्रिय घटिकार! क्या होगा उस गंजे को, उस तुच्छ श्रमण को देखकर?’
‘ठीक है, प्रिय जोतिपाल, चलो नहाने की वस्तुएँ ले जाकर नदी में नहाते हैं।’
‘ठीक है, प्रिय!’ कहते हुए, आनन्द, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार को उत्तर दिया। और, तब दोनों ने नहाने की वस्तुएँ ले जाकर नदी में नहाया।
तब (नहाने पर), आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को संबोधित किया, ‘प्रिय जोतिपाल, यहाँ से कश्यप भगवान का विहार दूर नहीं है। आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
जब ऐसा कहा गया, आनन्द, तब जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार से कहा, ‘रहने दो, प्रिय घटिकार! क्या होगा उस गंजे को, उस तुच्छ श्रमण को देखकर?’
तब दूसरी बार, आनन्द… और तब तीसरी बार, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को संबोधित किया, ‘प्रिय जोतिपाल, यहाँ से कश्यप भगवान का विहार दूर नहीं है। आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
जब ऐसा कहा गया, आनन्द, तब जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार से पुनः कहा, ‘रहने दो, प्रिय घटिकार! क्या होगा उस गंजे को, उस तुच्छ श्रमण को देखकर?’
तब, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को उसके पतलून की लपेट से पकड़कर कहा, ‘प्रिय जोतिपाल, यहाँ से कश्यप भगवान का विहार दूर नहीं है। आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
तब, आनन्द, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने उसकी पतलून की लपेट को छुड़ाकर घटिकार कुम्हार से कहा, ‘रहने दो, प्रिय घटिकार! क्या होगा उस गंजे को, उस तुच्छ श्रमण को देखकर?’
तब, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को उसके अभी नहलाए केश को पकड़कर कहा, ‘प्रिय जोतिपाल, यहाँ से कश्यप भगवान का विहार दूर नहीं है। आओ, प्रिय जोतिपाल, कश्यप भगवान का दर्शन लेने जाए। भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेना बहुत अच्छा समझा जाता है।’
तब, आनन्द, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को लगा, ‘आश्चर्य है, श्रीमान! अद्भुत है कि ये घटिकार कुम्हार निचली जाति का होकर भी मेरे अभी नहलाए केश को पकड़ने का दुस्साहस कर रहा है। निश्चित ही यह छोटी बात नहीं होगी।’ और उसने घटिकार कुम्हार से कहा, ‘यहाँ तक निचोड़ोगे, प्रिय घटिकार?’
‘हाँ! यहाँ तक निचोड़ूँगा, प्रिय जोतिपाल! क्योंकि, मैं कश्यप भगवान के दर्शन को इतना अच्छा समझता हूँ।’
‘ठीक है, प्रिय घटिकार, छोड़ो मुझे। जाएँगे।’
तब, आनन्द, घटिकार कुम्हार और जोतिपाल युवा-ब्राह्मण, दोनों कश्यप भगवान के पास गए। जाकर घटिकार कुम्हार ने कश्यप भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने कश्यप भगवान का हालचाल पूछा, और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठकर, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने कश्यप भगवान को कहा, ‘भंते, ये जोतिपाल युवा-ब्राह्मण मेरा मित्र है, प्रिय मित्र है। कृपा कर भगवान इसे धर्म बताएँ।’
तब, आनन्द, कश्यप भगवान ने घटिकार कुम्हार और जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को अपने धर्म-कथन से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, प्रोत्साहित किया, हर्षित किया।
तब कश्यप भगवान के धर्म-कथन से निर्देशित, उत्प्रेरित, प्रोत्साहित, हर्षित होकर, घटिकार कुम्हार और जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने कश्यप भगवान की बात का अभिनंदन किया, और अपने आसन से उठकर कश्यप भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए चले गए।
तब, (लौटते हुए) आनन्द, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण ने घटिकार कुम्हार से कहा, ‘प्रिय घटिकार, तुमने तो धर्म सुन लिया है। तब तुम घर से बेघर होकर प्रवज्जित क्यों नहीं हो जाते?’
‘क्या तुम नहीं जानते, प्रिय जोतिपाल, कि मेरे अंधे और बूढ़े माता-पिता को पालना है?’
‘ठीक है तब, प्रिय घटिकार, मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित होऊँगा!’
तब, आनन्द, घटिकार कुम्हार और जोतिपाल युवा-ब्राह्मण, दोनों फिर से कश्यप भगवान के पास गए। जाकर कश्यप भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर, आनन्द, घटिकार कुम्हार ने कश्यप भगवान से कहा, ‘भंते, ये जोतिपाल युवा-ब्राह्मण मेरा मित्र है, प्रिय मित्र है। कृपा कर भगवान इसे प्रवज्जित करें।’
और, आनन्द, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को कश्यप भगवान के पास प्रवज्जा मिली, और उपसंपदा मिली। तब, आनन्द, अधिक दिन नहीं बीते, जब कश्यप भगवान, जोतिपाल युवा-ब्राह्मण को उपसंपादित कर, जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर वाराणसी के भ्रमण पर निकल पड़े। क्रमशः भ्रमण करते हुए अंततः वाराणसी पहुँच गए। वहाँ, आनन्द, कश्यप भगवान ने वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में विहार किया। 3
और, आनन्द, तब काशी के राजा किकी ने सुना, ‘कश्यप भगवान वाराणसी में आए हैं, और वे वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में विहार कर रहे हैं।’
तब, आनन्द, काशी के राजा किकी ने अच्छे अच्छे रथ तैयार कराएँ और सबसे अच्छे रथ पर सवार होकर, अच्छे-अच्छे रथों को साथ लेकर, पूर्ण राजसी अंदाज में, वाराणसी की ओर कश्यप भगवान का दर्शन लेने के लिए निकल पड़ा। जहाँ तक रथ जाने की भूमि थी, वहाँ तक रथ से गया, और फिर रथ से उतर कर पैदल कश्यप भगवान के पास गया। जाकर उसने कश्यप भगवान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठे काशी के राजा किकी को कश्यप भगवान ने अपने धर्म-कथन से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया। तब कश्यप भगवान के धर्म-कथन से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, काशी के राजा किकी ने कश्यप भगवान से कहा, “भंते, कृपा कर भगवान कल का भोजन भिक्षुसंघ के साथ मेरे द्वारा स्वीकार करें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब काशी के राजा किकी ने भगवान की स्वीकृति जान कर अपने आसन से उठे, और भगवान को अभिवादन कर प्रदक्षिणा कर चले गए।
रात बीतने पर काशी के राजा किकी ने अपने महल में उत्तम खाद्य और भोजन बनावाया — मृदु बासमती चावल, जिसके काले दाने निकाले गए हो, और अनेक स्वादिष्ट सूप और विभिन्न ब्यंजन। और फिर कश्यप भगवान को समय सूचित किया, “उचित समय है, भंते! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर कश्यप भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ काशी के राजा किकी के निवास-स्थान गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब काशी के राजा किकी ने बुद्ध प्रमुख भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। कश्यप भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, काशी के राजा किकी ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।
एक ओर बैठकर काशी के राजा किकी ने कश्यप भगवान से कहा, ‘कृपा कर, भंते, भगवान वाराणसी में वर्षावास करें। संघ की सेवा भी इसी अंदाज में होगी।’
‘बस, पर्याप्त हुआ, महाराज! मै (पहले ही) वर्षावास स्वीकार चुका हूँ।’
तब दूसरी बार, आनन्द… और तब तीसरी बार भी, आनन्द, काशी के राजा किकी ने कश्यप भगवान से कहा, ‘कृपा कर, भंते, भगवान वाराणसी में वर्षावास करें। संघ की सेवा भी इसी अंदाज में होगी।’
‘बस, पर्याप्त हुआ, महाराज! मै (पहले ही) वर्षावास स्वीकार चुका हूँ।’
तब आनन्द, काशी के राजा किकी को लगा, ‘कश्यप भगवान वाराणसी में वर्षावास की याचना नहीं स्वीकार रहें!’ और वह नाराज हुआ, व्याकुल हुआ। और तब उसने कश्यप भगवान से कहा, ‘भंते, क्या कोई आपका समर्थक मुझसे बेहतर है?’
‘महाराज, वेगळिङ्ग नामक बाजार निगम है। वहाँ घटिकार नामक कुम्हार है, वह मेरा समर्थक है, अग्र-समर्थक है। महाराज, तुम्हें लगा, ‘कश्यप भगवान वाराणसी में वर्षावास की याचना नहीं स्वीकार रहें!’ और तुम नाराज हो गए, व्याकुल हो गए। किन्तु, घटिकार कुम्हार के साथ वैसा नहीं होता, न कभी होगा।
महाराज, घटिकार कुम्हार बुद्ध को शरण गया है, धर्म को शरण गया है, संघ को शरण गया है। घटिकार कुम्हार जीवहत्या से विरत है, चुराने से विरत है, कामुक व्यभिचार से विरत है, झूठ बोलने से विरत है, शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत है।
महाराज, घटिकार कुम्हार बुद्ध पर सत्यापित आस्था 4 से युक्त है, धर्म पर सत्यापित आस्था से युक्त है, संघ पर सत्यापित आस्था से युक्त है, और वह आर्य-पसंदीदा शील से संपन्न है।
महाराज, घटिकार कुम्हार दुःख (की वास्तविकता) को लेकर शंकामुक्त है, दुःख के उत्पत्ति को लेकर शंकामुक्त है, दुःख के निरोध को लेकर शंकामुक्त है, दुःख के निरोधकर्ता मार्ग को लेकर शंकामुक्त है।
महाराज, घटिकार कुम्हार दिन में केवल एक बार भोजन करता है, ब्रह्मचारी है, शीलवान है, (दूसरे के प्रति) कल्याण-प्रवृत्ति का है। महाराज, घटिकार कुम्हार ने मणि और स्वर्ण को छोड़ दिया है, और स्वर्ण और रुपया लेना त्याग दिया है। 5
महाराज, घटिकार कुम्हार ने फावड़े को (हमेशा के लिए) नीचे रख दिया है, और वह हाथ से भी पृथ्वी नहीं खोदता है। 6 बल्कि, वह नदी के तट पर उखड़ी हुई मिट्टी, या चूहे के द्वारा खोदी गयी मिट्टी को लेता है, और गठरी बांधकर लाता है, और बर्तन बनाता है, और कहता है, “जिसे जो इच्छा हो, वो उठाकर ले जाए; और इच्छा करे तो चावल की बोरी, मूंग की बोरी, या चने की बोरी छोड़ जाए।” इस तरह, महाराज, घटिकार कुम्हार अपने अंधे और बूढ़े माता-पिता का पालन करता है।
महाराज, घटिकार कुम्हार निचले पाँच संयोजन तोड़ कर स्वप्रकट होगा, और वहीं (शुद्धवास ब्रह्मलोक में) परिनिर्वाण प्राप्त करेगा, अब इस लोक में नहीं लौटगा (अर्थात, अनागामी अवस्था।)
एक समय की बात है, महाराज, जब मैं वेगळिङ्ग नामक बाजार निगम में विहार कर रहा था। तब सुबह होने पर, मैंने चीवर ओढ़, पात्र लेकर घटिकार कुम्हार के माता-पिता के पास गया। जाकर घटिकार कुम्हार के माता-पिता से कहा, “ये भग्गव (=घटिकार का गोत्र नाम) कहाँ चला गया?”
“आपका सेवक तो (मिट्टी खोजने) निकल गया, भंते! आप हांडी से चावल और बर्तन से सूप लेकर भोजन करें।” तब, महाराज, मैंने हांडी से चावल और बर्तन से सूप लेकर भोजन किया, और आसन से उठकर चला गया। 7
तब, महाराज, घटिकार कुम्हार घर आकर माता-पिता के पास गया, और जाकर माता-पिता से कहा, “किसने हांडी से चावल लेकर और बर्तन से सूप लेकर भोजन किया है, और चला गया?”
“पुत्र, कश्यप भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध ने हांडी से चावल लेकर और बर्तन से सूप लेकर भोजन किया, और आसन से उठकर चले गए।”
तब, महाराज, घटिकार कुम्हार को लगा, “मैं कितना भाग्यशाली हूँ, कितना सौभाग्यशाली हूँ, जो कश्यप भगवान मुझ पर इतना विश्वास करते हैं।” और, महाराज, घटिकार कुम्हार को आधे महीने तक प्रीति और सुख की अनुभूति होते रही, और उसके माता-पिता को एक सप्ताह तक।
एक समय की बात है, महाराज, जब मैं वेगळिङ्ग नामक बाजार निगम में विहार कर रहा था। उस समय मेरी कुटी चू (=रिस) रही थी। तब, महाराज, मैंने भिक्षुओं को संबोधित किया, “जाओ, भिक्षुओं, घटिकार कुम्हार के घर से घास लाओ।”
जब ऐसा कहा गया, महाराज, तब भिक्षुओं ने मुझे कहा, “भंते, घटिकार कुम्हार के घर घास नहीं है, किन्तु उसकी कार्यशाला घास से ढकी हुई है।”
“जाओ, भिक्षुओं, घटिकार कुम्हार की कार्यशाला से घास निकालो।”
तब, महाराज, भिक्षुओं ने जाकर घटिकार कुम्हार की कार्यशाला से घास निकाल कर ले आए। किन्तु तब, महाराज, घटिकार कुम्हार के माता-पिता ने भिक्षुओं से कहा, “कौन कार्यशाला से घास निकाल रहा है?”
“भिक्षु हैं, बहन। कश्यप भगवान की कुटी चू रही है।”
“ले जाओ, भंते! ले जाओ, प्रियजनों!”
तब, महाराज, घटिकार कुम्हार घर लौटने पर माता-पिता के पास गया, और जाकर कहा, “किसने कार्यशाला से घास निकाली?”
“भिक्षुओं ने, पुत्र! कश्यप भगवान की कुटी चू रही थी।”
तब, महाराज, घटिकार कुम्हार को लगा, “मैं कितना भाग्यशाली हूँ, कितना सौभाग्यशाली हूँ, जो कश्यप भगवान मुझ पर इतना विश्वास करते हैं।” और, महाराज, घटिकार कुम्हार को आधे महीने तक प्रीति और सुख की अनुभूति होते रही, और उसके माता-पिता को एक सप्ताह तक। तब, महाराज, कार्यशाला पूरे तीन महीने तक आकाश बादलों से ढका रहा, किन्तु देवताओं ने उस पर वर्षा नहीं करायी।
ऐसा है, महाराज, घटिकार कुम्हार!’
‘घटिकार कुम्हार भाग्यशाली है, भंते! घटिकार कुम्हार सौभाग्यशाली है, भंते, जो भगवान उस पर इतना विश्वास करते हैं।’
और तब, आनन्द, काशी के राजा किकी ने घटिकार कुम्हार के लिए पाँच सौ बैलगाड़ियाँ भर कर चावल, सुगंधित बासमती चावल और लोकप्रिय सूप भेजा। तब, आनन्द, राजपुरुष घटिकार कुम्हार के पास गया और कहा, ‘आदरणीय श्रीमान, काशी के राजा किकी ने आपके लिए पाँच सौ बैलगाड़ियाँ भर कर चावल, सुगंधित बासमती चावल और लोकप्रिय सूप भेजा है। कृपा कर इसे ग्रहण करें।’
‘राजा के बहुत कर्तव्य होते हैं, बहुत जिम्मेदारियाँ होती हैं। मेरे पास पर्याप्त है। ये राजा का ही हो।’
हो सकता है, आनन्द, कि तुम्हें लगे, ‘अवश्य उस समय जोतिपाल युवा-ब्राह्मण कोई और होगा।’ किन्तु, आनन्द, तुम्हें ऐसे नहीं देखना चाहिए। मैं ही उस समय जोतिपाल युवा-ब्राह्मण था।”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
जब भी भगवान ने मुस्कान दी, उस पल में अतीत की कोई प्रेरणादायी कथा सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। प्रारंभिक सूत्रों में, इस विशेष क्षण का उल्लेख केवल दो अन्य सूत्रों में मिलता है, इसके अतिरिक्त कहीं और नहीं। पहला है मज्झिमनिकाय ८३, जिसमें मिथिला के प्रसिद्ध महाराज मघदेव की कथा है, जो घर-बार छोड़कर प्रवज्जित होते हैं और ब्रह्मविहार की साधना में लीन हो जाते हैं। दूसरा है अंगुत्तरनिकाय ५.१८०, जहाँ इसी सूत्र के समान, कश्यप भगवान के समय के एक शीलवान उपासक की प्रेरणादायी कथा सुनने को मिलती है। दोनों ही जातक की कथाएँ कोसल देश में घटित हुई थीं, जो कश्यप भगवान से संबंधित हैं। ↩︎
“कश्यप” शब्द का शाब्दिक अर्थ है — कछुआ। यह एक प्राचीन ब्राह्मणी गोत्र का नाम भी है, जिसका उद्गम उन सप्तऋषियों में से एक अत्यंत वरिष्ठ ऋषि से हुआ माना जाता है, जिनका उल्लेख अनेक वैदिक मंत्रों में मिलता है। कछुआ दीर्घायु और विवेकी प्राणी माना गया है — संभवतः इसी प्रतीकात्मक अर्थ के कारण ही आधुनिक कहानियों और फिल्मों में भी, जैसे कुंग फू पांडा में, सबसे वरिष्ठ और बुद्धिमान गुरु के रूप में एक वृद्ध कछुए का रूप दिखाया गया है। संयोगवश, धम्मदीप॰com के अनुवादक, लेखक और रचनाकार का नाम भी “कश्यप” ही है — मानो परंपरा और अर्थ दोनों ने एक साथ रूप ले लिया हो। ↩︎
वाराणसी, जो दुनिया के सबसे प्राचीन और निरंतर बसते हुए शहरों में से एक है, कभी काशी देश की राजधानी था, लेकिन बौद्धकाल से पहले यह कोशल राज्य के अधीन आ गया। इसके बावजूद, वाराणसी का धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व कभी भी कम नहीं हुआ। यह शहर, जिसकी जड़ें लगभग १२०० ई.पू. तक फैली हुई हैं, लगभग ८०० ई.पू. के आसपास एक प्रमुख राजधानी के रूप में स्थापित हुआ। बौद्ध कथाओं में वाराणसी को हमेशा एक प्रमुख और ऐतिहासिक नगर के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जहाँ की कथाएँ आज भी जीवित हैं।
वाराणसी के पास स्थित सारनाथ, जिसे पहले ऋषिपतन मृगवन (इसिपतन मिगदाय) कहा जाता था, वही पवित्र स्थान है, जहाँ भगवान बुद्ध ने अपना पहला उपदेश, “धम्मचक्कपवत्तन सुत्त”, दिया था। यह स्थल बौद्ध धर्म का एक प्रमुख तीर्थ स्थल है, और यहाँ से बुद्ध ने इस संसार को दुख और दुःखमुक्ति के मार्ग की शिक्षा दी। ↩︎
“अवेच्चप्पसाद” या ‘सत्यापित आस्था’ का अर्थ है, जिसकी आस्था अब केवल मान्यता या विश्वास पर नहीं टिकी है, बल्कि सबूत के आधार पर सत्यापित हो चुकी है। इसे अक्सर श्रोतापति फल के साथ जोड़ा जाता है। ↩︎
स्वर्ण और रुपया त्यागना, यह प्रवज्जितों के दस शीलों में आता है। भिक्षुओं के विनय के अनुसार, भिक्षु हो या श्रामणेर, उसके लिए रुपया या स्वर्ण स्वीकारना पूरी तरह से निषिद्ध है। यहाँ घटिकार कुम्हार, जिसे अपनी रोजी-रोटी चलाकर अंधे और बूढ़े माँ-बाप को पालना है, उसका दस शील पालन करना अत्यंत प्रेरणादायी है। उसके द्वारा इस दसवे शील को आत्मसात करना इस बात का प्रतीक है कि परिशुद्ध शील रखना सांसारिक कर्तव्यों और कष्टों के बावजूद संभव है। ↩︎
दीघनिकाय २७ के अनुसार, ब्राह्मण तपस्वी भी पृथ्वी को नहीं खोदते थे, क्योंकि पृथ्वी को जीव या सत्व माना जाता है। भिक्षुओं के विनय में भी पाचित्तिय १० के तहत पृथ्वी को खोदना निषिद्ध है, क्योंकि ऐसा करने से उस सत्व को जख्म होती है और हम पाप के भागी बनते हैं। यह शील हमें पृथ्वी के प्रति संवेदनशीलता, सम्मान और उसकी रक्षा की आवश्यकता को समझाता है।
यहाँ घटिकार, एक कुम्हार होते हुए भी, अपनी जीविका के लिए मिट्टी नहीं खोदता। वह मेहनत से उसे प्राप्त करता है, और यह दिखाता है कि जहाँ चाह है, वहाँ राह भी मिल जाती है। उसका यह आदर्श, बिना किसी व्यवधान के परिशुद्ध जीविका जीने का, सभी उपासकों के लिए प्रेरणादायी है। ↩︎
कश्यप भगवान का भिक्षाटन के समय अपने हाथ से स्वयं भोजन लेना इतनी दुर्लभ घटना है कि संपूर्ण बौद्ध साहित्य में ऐसा कहीं नहीं मिलता। यह अपने आप में एक अनूठी घटना है, जो यह दर्शाती है कि घटिकार कुम्हार का धर्म में कितना विशेष दर्जा था, मानो वह एक मित्र भिक्षु के समान हो। हालांकि, यह तकनीकी रूप से भिक्षुओं के पाचित्तिय ४० का उल्लंघन प्रतीत होता है, जो यह औपचारिकता अनिवार्य करता है कि भिक्षुओं को भिक्षा किसी के हाथों से प्राप्त हो, न कि केवल शब्दों से।
फिर भी, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि सभी बुद्धों का एक ही पातिमोक्ख नहीं होता। अलग-अलग भिक्षुसंघ अपने-अपने विनय का पालन करते थे, और इस सूत्र के समानान्तर व्याख्याएँ (जैसे माध्यमआगम ६३ की अर्थकथा) इसे इस तरह समझाती हैं कि कश्यप बुद्ध उत्तरकुरु की रहस्यमय परंपराओं का पालन कर रहे थे, जहाँ किसी के पास कोई संपत्ति नहीं होती थी (दीघनिकाय ३२)। ↩︎
२८२. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं. अथ खो भगवा मग्गा ओक्कम्म अञ्ञतरस्मिं पदेसे सितं पात्वाकासि. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘को नु खो हेतु, को पच्चयो भगवतो सितस्स पातुकम्माय? न अकारणेन [न अकारणे (सी.)] तथागता सितं पातुकरोन्ती’’ति. अथ खो आयस्मा आनन्दो एकंसं चीवरं [उत्तरासङ्ग (स्या. कं.)] कत्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो भगवतो सितस्स पातुकम्माय? न अकारणेन तथागता सितं पातुकरोन्ती’’ति. ‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, इमस्मिं पदेसे वेगळिङ्गं [वेहलिङ्गं (सी.), वेभलिगं (स्या. कं.), वेभलिङ्गं (पी.)] नाम गामनिगमो अहोसि इद्धो चेव फीतो च बहुजनो आकिण्णमनुस्सो. वेगळिङ्गं खो, आनन्द, गामनिगमं कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो उपनिस्साय विहासि. इध सुदं, आनन्द, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स आरामो अहोसि. इध सुदं, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो निसिन्नको भिक्खुसङ्घं ओवदती’’ति. अथ खो आयस्मा आनन्दो चतुग्गुणं सङ्घाटिं पञ्ञपेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तेन हि, भन्ते, भगवा निसीदतु एत्थ. अयं भूमिपदेसो द्वीहि अरहन्तेहि सम्मासम्बुद्धेहि परिभुत्तो भविस्सती’’ति. निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने. निसज्ज खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं आमन्तेसि –
‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, इमस्मिं पदेसे वेगळिङ्गं नाम गामनिगमो अहोसि इद्धो चेव फीतो च बहुजनो आकिण्णमनुस्सो. वेगळिङ्गं खो, आनन्द, गामनिगमं कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो उपनिस्साय विहासि. इध सुदं, आनन्द, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स आरामो अहोसि. इध सुदं, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो निसिन्नको भिक्खुसङ्घं ओवदति.
२८३. ‘‘वेगळिङ्गे खो, आनन्द, गामनिगमे घटिकारो [घटीकारो (सी. पी.)] नाम कुम्भकारो कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स उपट्ठाको अहोसि अग्गुपट्ठाको. घटिकारस्स खो, आनन्द, कुम्भकारस्स जोतिपालो नाम माणवो सहायो अहोसि पियसहायो. अथ खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं आमन्तेसि – ‘आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम. साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. एवं वुत्ते, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘अलं, सम्म घटिकार. किं पन तेन मुण्डकेन समणकेन दिट्ठेना’ति? दुतियम्पि खो, आनन्द…पे… ततियम्पि खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं एतदवोच – ‘आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम. साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. ततियम्पि खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘अलं, सम्म घटिकार. किं पन तेन मुण्डकेन समणकेन दिट्ठेना’ति? ‘तेन हि, सम्म जोतिपाल, सोत्तिसिनानिं [सोत्तिं सिनानिं (सी. पी.), सोत्तिसिनानं (स्या. कं. क.)] आदाय [आहर (क.)] नदिं गमिस्साम सिनायितु’न्ति. ‘एवं सम्मा’ति खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारस्स कुम्भकारस्स पच्चस्सोसि. अथ खो, आनन्द, घटिकारो च कुम्भकारो जोतिपालो च माणवो सोत्तिसिनानिं आदाय नदिं अगमंसु सिनायितुं’.
२८४. ‘‘अथ खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं आमन्तेसि – ‘अयं, सम्म जोतिपाल, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अविदूरे आरामो. आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम. साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. एवं वुत्ते, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘अलं, सम्म घटिकार. किं पन तेन मुण्डकेन समणकेन दिट्ठेना’ति? दुतियम्पि खो, आनन्द…पे… ततियम्पि खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं एतदवोच – ‘अयं, सम्म जोतिपाल, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अविदूरे आरामो. आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम. साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. ततियम्पि खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘अलं, सम्म घटिकार. किं पन तेन मुण्डकेन समणकेन दिट्ठेना’ति? अथ खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं ओवट्टिकायं परामसित्वा एतदवोच – ‘अयं, सम्म जोतिपाल, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अविदूरे आरामो. आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम. साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. अथ खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो ओवट्टिकं विनिवट्टेत्वा [विनिवेठेत्वा (सी. स्या. कं. पी.)] घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘अलं, सम्म घटिकार. किं पन तेन मुण्डकेन समणकेन दिट्ठेना’ति? अथ खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो जोतिपालं माणवं सीसंन्हातं [ससीसं नहातं (सी.), सीसन्हातं (स्या. कं.)] केसेसु परामसित्वा एतदवोच – ‘अयं, सम्म जोतिपाल, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अविदूरे आरामो. आयाम, सम्म जोतिपाल, कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय उपसङ्कमिस्साम . साधुसम्मतञ्हि मे तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. अथ खो, आनन्द, जोतिपालस्स माणवस्स एतदहोसि – ‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो! यत्र हि नामायं घटिकारो कुम्भकारो इत्तरजच्चो समानो अम्हाकं सीसंन्हातानं केसेसु परामसितब्बं मञ्ञिस्सति; न वतिदं किर ओरकं मञ्ञे भविस्सती’ति; घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘यावतादोहिपि [यावेतदोहिपि (सी. स्या. कं. पी.)], सम्म घटिकारा’ति? ‘यावतादोहिपि, सम्म जोतिपाल. तथा हि पन मे साधुसम्मतं तस्स भगवतो दस्सनं अरहतो सम्मासम्बुद्धस्सा’ति. ‘तेन हि, सम्म घटिकार, मुञ्च; गमिस्सामा’ति.
२८५. ‘‘अथ खो, आनन्द, घटिकारो च कुम्भकारो जोतिपालो च माणवो येन कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा घटिकारो कुम्भकारो कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. जोतिपालो पन माणवो कस्सपेन भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अयं मे, भन्ते, जोतिपालो माणवो सहायो पियसहायो. इमस्स भगवा धम्मं देसेतू’ति. अथ खो, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो घटिकारञ्च कुम्भकारं जोतिपालञ्च माणवं धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि. अथ खो, आनन्द, घटिकारो च कुम्भकारो जोतिपालो च माणवो कस्सपेन भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु.
२८६. ‘‘अथ खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो घटिकारं कुम्भकारं एतदवोच – ‘इमं नु त्वं, सम्म घटिकार, धम्मं सुणन्तो अथ च पन अगारस्मा अनगारियं न पब्बजिस्ससी’ति? ‘ननु मं, सम्म जोतिपाल, जानासि, अन्धे जिण्णे मातापितरो पोसेमी’ति? ‘तेन हि, सम्म घटिकार, अहं अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामी’ति. अथ खो, आनन्द, घटिकारो च कुम्भकारो जोतिपालो च माणवो येन कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमिंसु ; उपसङ्कमित्वा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्नो खो, आनन्द, घटिकारो कुम्भकारो कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अयं मे, भन्ते, जोतिपालो माणवो सहायो पियसहायो. इमं भगवा पब्बाजेतू’ति. अलत्थ खो, आनन्द, जोतिपालो माणवो कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं.
२८७. ‘‘अथ खो, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अचिरूपसम्पन्ने जोतिपाले माणवे अड्ढमासुपसम्पन्ने वेगळिङ्गे यथाभिरन्तं विहरित्वा येन बाराणसी तेन चारिकं पक्कामि. अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन बाराणसी तदवसरि. तत्र सुदं, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बाराणसियं विहरति इसिपतने मिगदाये . अस्सोसि खो, आनन्द, किकी कासिराजा – ‘कस्सपो किर भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो बाराणसिं अनुप्पत्तो बाराणसियं विहरति इसिपतने मिगदाये’ति. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा भद्रानि भद्रानि यानानि योजापेत्वा भद्रं [भद्रं भद्रं (क.)] यानं अभिरुहित्वा भद्रेहि भद्रेहि यानेहि बाराणसिया निय्यासि महच्चराजानुभावेन [महच्चा राजानुभावेन (सी.), महता राजानुभावेन (पी.)] कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं दस्सनाय. यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नं खो, आनन्द, किकिं कासिराजानं कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपेन भगवता अरहता सम्मासम्बुद्धेन धम्मिया कथाय सन्दस्सितो समादपितो समुत्तेजितो सम्पहंसितो कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’ति. अधिवासेसि खो, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो तुण्हीभावेन. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपस्स भगवतो सम्मासम्बुद्धस्स अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा पण्डुपुटकस्स [पण्डुमुटीकस्स (सी. पी.), पण्डुमुदिकस्स (स्या. कं.)] सालिनो विगतकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स कालं आरोचापेसि – ‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’न्ति.
२८८. ‘‘अथ खो, आनन्द, कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन किकिस्स कासिरञ्ञो निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि सद्धिं भिक्खुसङ्घेन. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा बाराणसियं वस्सावासं; एवरूपं सङ्घस्स उपट्ठानं भविस्सती’ति. ‘अलं, महाराज. अधिवुत्थो मे वस्सावासो’ति. दुतियम्पि खो, आनन्द… ततियम्पि खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अधिवासेतु मे, भन्ते, भगवा बाराणसियं वस्सावासं; एवरूपं सङ्घस्स उपट्ठानं भविस्सती’ति. ‘अलं, महाराज. अधिवुत्थो मे वस्सावासो’ति. अथ खो, आनन्द, किकिस्स कासिरञ्ञो ‘न मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अधिवासेति बाराणसियं वस्सावास’न्ति अहुदेव अञ्ञथत्तं , अहु दोमनस्सं. अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा कस्सपं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं एतदवोच – ‘अत्थि नु खो, भन्ते, अञ्ञो कोचि मया उपट्ठाकतरो’ति?
‘‘‘अत्थि, महाराज, वेगळिङ्गं नाम गामनिगमो. तत्थ घटिकारो नाम कुम्भकारो; सो मे उपट्ठाको अग्गुपट्ठाको. तुय्हं खो पन, महाराज, न मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अधिवासेति बाराणसियं वस्सावासन्ति अत्थेव [अत्थि (सी. पी.)] अञ्ञथत्तं, अत्थि दोमनस्सं. तयिदं घटिकारस्स कुम्भकारस्स [घटिकारे कुम्भकारे (सी. स्या. कं. पी.)] नत्थि च न च भविस्सति. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो बुद्धं सरणं गतो, धम्मं सरणं गतो, सङ्घं सरणं गतो. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो पाणातिपाता पटिविरतो, अदिन्नादाना पटिविरतो, कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो, मुसावादा पटिविरतो, सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना पटिविरतो. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो बुद्धे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, सङ्घे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, अरियकन्तेहि सीलेहि समन्नागतो. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो दुक्खे निक्कङ्खो, दुक्खसमुदये निक्कङ्खो, दुक्खनिरोधे निक्कङ्खो, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय निक्कङ्खो. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो एकभत्तिको ब्रह्मचारी सीलवा कल्याणधम्मो. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो निक्खित्तमणिसुवण्णो अपेतजातरूपरजतो . घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो पन्नमुसलो न सहत्था पथविं खणति [कुम्भकारो न मुसलेन न सहत्था पठविं खणति (स्या. कं. पी.), कुम्भकारो न मुसलेन सहत्था पथविञ्च खणति (क.)]. यं होति कूलपलुग्गं वा मूसिकुक्करो [मूसिकुक्कुरो (सी. स्या. कं. पी.)] वा तं काजेन आहरित्वा भाजनं करित्वा एवमाह – ‘‘एत्थ यो इच्छति तण्डुलपटिभस्तानि [तण्डुल पभिवत्तानि (सी. पी.)] वा मुग्गपटिभस्तानि वा कळायपटिभस्तानि वा निक्खिपित्वा यं इच्छति तं हरतू’’ति. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो अन्धे जिण्णे मातापितरो पोसेति. घटिकारो खो, महाराज, कुम्भकारो पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको तत्थ परिनिब्बायी अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका.
२८९. ‘‘‘एकमिदाहं , महाराज, समयं वेगळिङ्गे नाम गामनिगमे विहरामि. अथ ख्वाहं, महाराज, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन घटिकारस्स कुम्भकारस्स मातापितरो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा घटिकारस्स कुम्भकारस्स मातापितरो एतदवोचं – ‘‘हन्द, को नु खो अयं भग्गवो गतो’’ति? ‘‘निक्खन्तो खो ते, भन्ते, उपट्ठाको अन्तोकुम्भिया ओदनं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जा’’ति. अथ ख्वाहं, महाराज, कुम्भिया ओदनं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कमिं [पक्कामिं (स्या. कं. पी.)]. अथ खो, महाराज, घटिकारो कुम्भकारो येन मातापितरो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मातापितरो एतदवोच – ‘‘को कुम्भिया ओदनं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कन्तो’’ति? ‘‘कस्सपो, तात, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कुम्भिया ओदनं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कन्तो’’ति? अथ खो, महाराज, घटिकारस्स कुम्भकारस्स एतदहोसि – ‘‘लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, यस्स मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो एवं अभिविस्सत्थो’’ति. अथ खो, महाराज, घटिकारं कुम्भकारं अड्ढमासं पीतिसुखं न विजहति [न विजहि (सी. स्या. कं. पी.)], सत्ताहं मातापितूनं.
२९०. ‘‘‘एकमिदाहं, महाराज, समयं तत्थेव वेगळिङ्गे नाम गामनिगमे विहरामि. अथ ख्वाहं, महाराज, पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन घटिकारस्स कुम्भकारस्स मातापितरो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा घटिकारस्स कुम्भकारस्स मातापितरो एतदवोचं – ‘‘हन्द, को नु खो अयं भग्गवो गतो’’ति? ‘‘निक्खन्तो खो ते, भन्ते, उपट्ठाको अन्तो कळोपिया कुम्मासं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जा’’ति. अथ ख्वाहं, महाराज, कळोपिया कुम्मासं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कमिं. अथ खो, महाराज, घटिकारो कुम्भकारो येन मातापितरो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मातापितरो एतदवोच – ‘‘को कळोपिया कुम्मासं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कन्तो’’ति? ‘‘कस्सपो, तात, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो कळोपिया कुम्मासं गहेत्वा परियोगा सूपं गहेत्वा परिभुञ्जित्वा उट्ठायासना पक्कन्तो’’ति. अथ खो, महाराज, घटिकारस्स कुम्भकारस्स एतदहोसि – ‘‘लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, यस्स मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो एवं अभिविस्सत्थो’’ति. अथ खो, महाराज, घटिकारं कुम्भकारं अड्ढमासं पीतिसुखं न विजहति, सत्ताहं मातापितूनं.
२९१. ‘‘‘एकमिदाहं, महाराज, समयं तत्थेव वेगळिङ्गे नाम गामनिगमे विहरामि. तेन खो पन समयेन कुटि [गन्धकुटि (सी.)] ओवस्सति. अथ ख्वाहं, महाराज, भिक्खू आमन्तेसिं – ‘‘गच्छथ, भिक्खवे, घटिकारस्स कुम्भकारस्स निवेसने तिणं जानाथा’’ति. एवं वुत्ते, महाराज, ते भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘‘नत्थि खो, भन्ते, घटिकारस्स कुम्भकारस्स निवेसने तिणं, अत्थि च ख्वास्स आवेसने [आवेसनं (सी. स्या. कं. पी.)] तिणच्छदन’’ [नवच्छदनं (सी.)] न्ति. ‘‘गच्छथ, भिक्खवे, घटिकारस्स कुम्भकारस्स आवेसनं उत्तिणं करोथा’’ति. अथ खो ते, महाराज, भिक्खू घटिकारस्स कुम्भकारस्स आवेसनं उत्तिणमकंसु. अथ खो, महाराज, घटिकारस्स कुम्भकारस्स मातापितरो ते भिक्खू एतदवोचुं – ‘‘के आवेसनं उत्तिणं करोन्ती’’ति? ‘‘भिक्खू, भगिनि, कस्सपस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स कुटि ओवस्सती’’ति. ‘‘हरथ, भन्ते, हरथ, भद्रमुखा’’ति. अथ खो, महाराज, घटिकारो कुम्भकारो येन मातापितरो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मातापितरो एतदवोच – ‘‘के आवेसनं उत्तिणमकंसू’’ति? ‘‘भिक्खू, तात, कस्सपस्स किर भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स कुटि ओवस्सती’’ति. अथ खो, महाराज, घटिकारस्स कुम्भकारस्स एतदहोसि – ‘‘लाभा वत मे, सुलद्धं वत मे, यस्स मे कस्सपो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो एवं अभिविस्सत्थो’’ति. अथ खो, महाराज घटिकारं कुम्भकारं अड्ढमासं पीतिसुखं न विजहति, सत्ताहं मातापितूनं. अथ खो, महाराज, आवेसनं सब्बन्तं तेमासं आकासच्छदनं अट्ठासि, न देवोतिवस्सि [न चातिवस्सि (सी. स्या. कं. पी.)]. एवरूपो च, महाराज, घटिकारो कुम्भकारो’ति. ‘लाभा, भन्ते, घटिकारस्स कुम्भकारस्स, सुलद्धा, भन्ते, घटिकारस्स कुम्भकारस्स यस्स भगवा एवं अभिविस्सत्थो’’’ति.
२९२. ‘‘अथ खो, आनन्द, किकी कासिराजा घटिकारस्स कुम्भकारस्स पञ्चमत्तानि तण्डुलवाहसतानि पाहेसि पण्डुपुटकस्स सालिनो तदुपियञ्च सूपेय्यं. अथ खो ते, आनन्द, राजपुरिसा घटिकारं कुम्भकारं उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘इमानि खो, भन्ते, पञ्चमत्तानि तण्डुलवाहसतानि किकिना कासिराजेन पहितानि पण्डुपुटकस्स सालिनो तदुपियञ्च सूपेय्यं. तानि, भन्ते, पटिग्गण्हथा’ति [पतिग्गण्हातूति (सी. पी.), पटिग्गण्हातूति (स्या. कं.)]. ‘राजा खो बहुकिच्चो बहुकरणीयो. अलं मे! रञ्ञोव होतू’ति. सिया खो पन ते, आनन्द, एवमस्स – ‘अञ्ञो नून तेन समयेन जोतिपालो माणवो अहोसी’ति. न खो पनेतं, आनन्द, एवं दट्ठब्बं. अहं तेन समयेन जोतिपालो माणवो अहोसि’’न्ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
घटिकारसुत्तं निट्ठितं पठमं.