रट्ठपाल की कथा, जिसे आज “देश का रक्षक” कहा जा सकता है, प्राचीन बौद्ध धर्म की सबसे प्रसिद्ध, प्रेरक और प्रिय उपकथाओं में से एक है। यह एक प्रतिभाशाली नवयुवक के कड़े संकल्प की कहानी है — उस युवक की, जिसने अपने अश्रद्धालु माता-पिता से भिक्षु बनने की अनुमति पाने के लिए सात दिन तक अन्न-जल का त्याग किया और एक ही स्थान पर अडिग बैठा रहा। अपने इसी दृढ़ निश्चय के कारण उसे प्रव्रज्या प्राप्त हुई, और अरहंत-अवस्था भी। भगवान ने उनकी श्रद्धापूर्वक प्रवज्जा को सराहते हुए, उन्हें अग्र-उपाधि से सम्मानित भी किया (अंगुत्तर निकाय १.२१०)।
मुझे यह कहने में गहरी संतुष्टि होती है कि भिक्षुसंघ में आज भी ऐसे अनेक नवयुवक विद्यमान हैं — मेरे एक सब्रह्मचारी भी उनमें शामिल हैं — जिन्होंने रट्ठपाल भंते की भाँति असाधारण धैर्य और कड़े संकल्प का परिचय दिया है। कोई सम्पन्न परिवारों से आते हैं, कोई असाधारण प्रतिभा के धनी हैं, और कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों और उज्ज्वल भौतिक अवसरों को त्यागकर भिक्षु जीवन अपनाया। ऐसे उदाहरण, भौतिक सुख-सुविधाओं में डूबी हुई जनता के लिए, अक्सर एक मौन प्रेरणा बन जाते हैं — उन्हें सांसारिक मोह और कामुकता के दलदल से उबरने की दिशा दिखाते हैं।
किन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रट्ठपाल भंते के संकल्प की शक्ति से भी कहीं अधिक गहरा वह धर्मोपदेश है, जो उन्होंने अंततः राजा कोरव्य के साथ अपने संवाद में प्रकट किया। उसी संवाद में जीवन की अनित्यता, संसार के मोह और सच्चे त्याग का जो मार्मिक बोध मिलता है — वही इस कथा का वास्तविक सार है, जो आज भी विहारों में गूँजता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान विशाल भिक्षुसंघ के साथ में कुरु देश में भ्रमण करते हुए थुल्लकोट्ठिक नामक कुरु नगर में पहुँचे।
और थुल्लकोट्ठिक के ब्राह्मणों और (वैश्य) गृहस्थों ने सुना — “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्ज्यित हैं, वे विशाल भिक्षुसंघ के साथ कुरु देश में घूमते हुए थुल्लकोट्ठिक में पहुँचे हैं। उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध है—विद्या और आचरण से संपन्न, परम लक्ष्य पा चुके, दुनिया के ज्ञाता, दमनशील पुरुषों के अनुत्तर सारथी, देवों और मनुष्यों के गुरु, बुद्ध भगवान! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देव, मार, ब्रह्मा, श्रमण, ब्राह्मण, राजा और जनता से भरे इस लोक में — प्रकट करते हैं। वे ऐसा सार्थक और शब्दशः धर्म बताते हैं, जो आरंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी, अन्त में कल्याणकारी हो; और सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य’ प्रकाशित हो। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
तब थुल्लकोट्ठिक गांव के ब्राह्मण और गृहस्थ भगवान के पास गए। जाकर कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठे उन थुल्लकोट्ठिक गाँव के ब्राह्मण और गृहस्थों को भगवान ने अपनी धर्म-कथा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया।
उस समय रट्ठपाल नामक कुलपुत्र, जो थुल्लकोट्ठिक के सबसे ऊँचे कुल का पुत्र था, उस परिषद में बैठा हुआ था। उस रट्ठपाल कुलपुत्र को लगा, “जिस तरह मैं भगवान के धर्म को समझता हूँ, घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ?”
तब थुल्लकोट्ठिक गांव के ब्राह्मण और गृहस्थ, भगवान के द्वारा धर्म-चर्चा से निर्देशित होकर, उत्प्रेरित होकर, उत्साहित होकर, हर्षित होकर, भगवान की बात का अभिनंदन किया। और, आसन से उठकर भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए चले गए।
थुल्लकोट्ठिक गांव के ब्राह्मण और गृहस्थों को जाकर अधिक समय नहीं हुआ, तब रट्ठपाल कुलपुत्र भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर रट्ठपाल कुलपुत्र ने भगवान से कहा—
“भंते, जिस तरह मैं भगवान के धर्म को समझता हूँ, घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! भंते, मेरी इच्छा है कि मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ। मुझे भगवान के पास प्रवज्जा मिले और (भिक्षुत्व) उपसंपदा मिले। भगवान मुझे प्रवज्जित करें।”
“किन्तु, रट्ठपाल, क्या इसके लिए तुम्हारे माता-पिता की अनुमति हैं?”
“नहीं, भंते। इसके लिए मेरे माता-पिता की अनुमति नहीं हैं।”
“रट्ठपाल, तथागत माता-पिता की अनुमति के बिना उनके पुत्र को प्रवज्जित नहीं करते हैं।”
“ठीक है, भंते। मैं स्वयं ही ऐसा करूँगा कि मेरे माता-पिता मुझे घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दें।”
तब, रट्ठपाल कुलपुत्र अपने आसन से उठ भगवान को अभिवादन कर भगवान को प्रदक्षिणा करते हुए अपने माता-पिता के पास गया। और जाकर अपने माता-पिता से कहा, “अम्मा! तात! जिस तरह मैं भगवान के धर्म को समझता हूँ, घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! मेरी इच्छा है कि मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ। मुझे घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दो।”
जब ऐसा कहा गया, तब रट्ठपाल कुलपुत्र के माता-पिता ने रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “प्यारे रट्ठपाल, तुम हमारे प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
तब, दूसरी बार, रट्ठपाल कुलपुत्र ने… और तब, तीसरी बार, रट्ठपाल कुलपुत्र ने माता-पिता से कहा, “अम्मा! तात! जिस तरह मैं भगवान के धर्म को समझता हूँ, घर रहते हुए ऐसा परिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्य निभाना कठिन है, जो शुद्ध शंख जैसा उज्ज्वल हो! मेरी इच्छा है कि मैं सिरदाढ़ी मुंडवाकर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रव्रजित हो जाऊँ। मुझे घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दो।”
तब तीसरी बार, रट्ठपाल कुलपुत्र के माता-पिता ने रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “प्यारे रट्ठपाल, तुम हमारे प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
तब रट्ठपाल कुलपुत्र को लगा, “माता-पिता मुझे घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते”, वह वहीं नीचे जमीन पर बैठ गया, “यही पर मेरा मरण होगा या प्रवज्जा!”
और, तब रट्ठपाल कुलपुत्र ने—
तब रट्ठपाल कुलपुत्र के माता-पिता ने रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “प्यारे रट्ठपाल, तुम हमारे प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें? उठो, प्यारे रट्ठपाल, खाओ, पियो और मजा लो। खाते, पीते और मजा लेते, कामभोग में लिप्त होकर पुण्य करने में खुश रहो। हम तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते हैं। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
जब ऐसा कहा गया, तब रट्ठपाल कुलपुत्र चुप रहा।
तब, दूसरी बार… और तब, तीसरी बार रट्ठपाल कुलपुत्र के माता-पिता ने रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “प्यारे रट्ठपाल, तुम हमारे प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें? उठो, प्यारे रट्ठपाल, खाओ, पियो और मजा लो। खाते, पीते और मजा लेते, कामभोग में लिप्त होकर पुण्य करने में खुश रहो। हम तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते हैं। मरने पर भी तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
तीसरी बार भी रट्ठपाल कुलपुत्र चुप रहा।
तब रट्ठपाल कुलपुत्र के मित्र सहचारी रट्ठपाल कुलपुत्र के पास गए, और जाकर रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “भले रट्ठपाल, तुम तुम्हारे माता-पिता के प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुम्हारे माता-पिता की तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी वे तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें? उठो, प्यारे रट्ठपाल, खाओ, पियो और मजा लो। खाते, पीते और मजा लेते, कामभोग में लिप्त होकर पुण्य करने में खुश रहो। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते हैं। मरने पर भी तुम्हारे माता-पिता की तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी वे तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
जब ऐसा कहा गया, तब रट्ठपाल कुलपुत्र चुप रहा।
तब, दूसरी बार… और तब, तीसरी बार रट्ठपाल कुलपुत्र के मित्र सहचारियों ने रट्ठपाल कुलपुत्र से कहा, “भले रट्ठपाल, तुम तुम्हारे माता-पिता के प्रिय, मनपसंद, सुखों में पले-बढ़े, इकलौते पुत्र हो। तुम दुःखों के बारे में कुछ नहीं जानते हो। मरने पर भी तुम्हारे माता-पिता की तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी वे तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें? उठो, प्यारे रट्ठपाल, खाओ, पियो और मजा लो। खाते, पीते और मजा लेते, कामभोग में लिप्त होकर पुण्य करने में खुश रहो। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते हैं। मरने पर भी तुम्हारे माता-पिता की तुमसे चाहत कम नहीं होगी। तब भला जीते-जी वे तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति कैसे दें?”
तीसरी बार भी रट्ठपाल कुलपुत्र चुप रहा।
तब रट्ठपाल कुलपुत्र के मित्र सहचारी रट्ठपाल कुलपुत्र के माता-पिता के पास गए, और जाकर कहा, ““अम्मा! तात! रट्ठपाल वहीं नीचे जमीन पर बैठा है, (कहते हुए) ‘यही पर मेरा मरण होगा या प्रवज्जा!’ यदि तुम रट्ठपाल को घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति नहीं देते हो, तो वाकई वही उसका मरण होगा। किन्तु, यदि तुम रट्ठपाल को घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दे देते हो, तो प्रवज्जित होने पर उसे देख तो पाओगे।
और, यदि रट्ठपाल को प्रवज्जा नहीं भाति है, तब वह और कहाँ जाएगा? यही वापस आएगा। आप रट्ठपाल को घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दें।”
“ठीक है तब, प्रियों, हम रट्ठपाल को घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति देते हैं। किन्तु, प्रवज्जित होने पर माता-पिता (से मिलने) का संकल्प करना होगा।”
तब रट्ठपाल कुलपुत्र के मित्र सहचारी रट्ठपाल कुलपुत्र के पास गए, और जाकर कहा, “उठो, भले रट्ठपाल! तुम्हारे माता-पिता ने तुम्हें घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने की अनुमति दे दी हैं। किन्तु, प्रवज्जित होने पर माता-पिता (से मिलने) का संकल्प करना होगा।”
तब, रट्ठपाल कुलपुत्र वहाँ से उठा, और शक्ति ग्रहण करने पर भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर रट्ठपाल कुलपुत्र ने भगवान से कहा—
“अनुमति हैं, भंते, माता-पिता की, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होने के लिए। भगवान मुझे प्रवज्जित करें।”
तब, रट्ठपाल कुलपुत्र को भगवान के प्रवज्जा मिली, और उपसंपदा मिली। तब अधिक दिन नहीं बीते, रट्ठपाल कुलपुत्र को उपसंपादित कर आधा महिना हुआ था, जब भगवान थुल्लकोट्ठिक में जितना रुकना चाहते थे, उतना रुके, और फिर (रट्ठपाल को लेकर) श्रावस्ती के भ्रमण पर निकल पड़े। क्रमशः भ्रमण करते हुए अंततः श्रावस्ती पहुँच गए। वहाँ भगवान ने श्रावस्ती के अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार किया।
तब, आयुष्मान रट्ठपाल अकेले एकांतवास लेकर अप्रमत्त, तत्पर और समर्पित होकर विहार करने लगे। तब उन्होंने जल्द ही 1 इसी जीवन में स्वयं जानकर, साक्षात्कार कर, ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंजिल पर पहुँचकर स्थित हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रव्रजित होते हैं। उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’
इस तरह, आयुष्मान रट्ठपाल (अनेक) अर्हन्तों में एक हुए।
तब, आयुष्मान रट्ठपाल भगवान के पास गए, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर आयुष्मान रट्ठपाल ने भगवान से कहा, “भंते, मेरी माता-पिता से मिलने की इच्छा है, यदि भगवान अनुमति दें।”
तब भगवान ने अपने मानस फैलाकर आयुष्मान रट्ठपाल का चित्त जान लिया। और जब भगवान को पता चला, “यह असंभव है कि रट्ठपाल कुलपुत्र अब शिक्षा को त्याग कर हीन जीवन में लौटेगा”, तब भगवान ने आयुष्मान रट्ठपाल से कहा, “ठीक है तब, रट्ठपाल, जिसका उचित समय समझो!”
तब आयुष्मान रट्ठपाल अपने आसन से उठकर, भगवान को अभिवादन कर, प्रदक्षिणा करते हुए, अपने निवास को ठीक कर, पात्र और चीवर लेकर थुल्लकोट्ठिक के भ्रमण पर निकल गए। क्रमशः भ्रमण करते हुए, वे थुल्लकोट्ठिक पहुँचे। वहाँ थुल्लकोट्ठिक में आयुष्मान रट्ठपाल ने राजा कोरब्य (=कौरव्य) के मृगक्षेत्र में विहार किया।
सुबह होने पर, आयुष्मान रट्ठपाल ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर भिक्षाटन के लिए थुल्लकोट्ठिक में प्रवेश किया। थुल्लकोट्ठिक में ‘सपदान’ (=भिक्षा मार्ग में आए प्रत्येक दाता से भिक्षा लेना, किसी का घर नहीं छोड़ना) भिक्षाटन करते हुए वे स्वयं के पिता के घर गए।
उस समय आयुष्मान रट्ठपाल के पिता मध्य द्वारशाला में बाल संवार रहे थे। उन्होंने आयुष्मान रट्ठपाल को दूर से आते हुए देखा, और देखकर कहा, “इन्हीं गंजे और तुच्छ श्रमणों ने हमारे प्रिय और पसंदीदा इकलौते पुत्र को प्रवज्जित करा दिया!” और आयुष्मान रट्ठपाल को अपने पिता के घर से न कोई दान मिला, न ही नम्रतापूर्ण इंकार; बल्कि केवल गाली-गलोच मिली।
उस समय आयुष्मान रट्ठपाल की पारिवारिक दासी पिछले दिन की बासी दाल फेंकना चाह रही थी। तब आयुष्मान रट्ठपाल ने उस पारिवारिक दासी से कहा, “यदि फेंकना ही हो, तो उसे मेरे पात्र में डाल दो, बहन।”
तब आयुष्मान रट्ठपाल की पारिवारिक दासी ने, पात्र में दाल डालते हुए, आयुष्मान रट्ठपाल के हाथ, पैर और स्वर को पहचान लिया। और जाकर उसने रट्ठपाल की माता से कहा, “जान लो, मालकिन! मालकिन के पुत्र रट्ठपाल आ पहुँचे हैं।”
“यदि सच कहती हो, छोकरी, तो मैं तुम्हें (गुलामी से) आजाद करूँगी!”
तब, आयुष्मान रट्ठपाल की माता ने जाकर आयुष्मान रट्ठपाल के पिता से कहा, “पता करो तो, गृहस्थ! क्या रट्ठपाल कुलपुत्र आ पहुँचे है?”
उस समय आयुष्मान रट्ठपाल किसी दीवार के नीचे बैठकर पुराने दिन की बासी दाल का परिभोग कर रहे थे। तब आयुष्मान रट्ठपाल के पिता आयुष्मान रट्ठपाल के पास गए, और जाकर आयुष्मान रट्ठपाल से कहा, “यह क्या, प्यारे रट्ठपाल! बासी दाल का परिभोग कर रहे हो? क्या तुम्हें स्वयं के घर नहीं जाना?”
“हम घर से बेघर हुए प्रवज्जितों का कौन सा घर होता है, गृहस्थ? हम तो बेघर है! मैं आपके घर आया था, गृहस्थ। किन्तु वहाँ मुझे न कोई दान मिला, न ही नम्रतापूर्ण इंकार; बल्कि केवल गाली-गलोच मिली।”
“आओ, प्यारे रट्ठपाल, घर चलते हैं।”
“पर्याप्त हुआ, गृहस्थ। मैं आज का भोजन कर चुका।”
“ठीक है तब, प्यारे रट्ठपाल, कृपा कर कल का भोजन स्वीकार करो।”
तब आयुष्मान रट्ठपाल ने मौन रहकर स्वीकृति दी।
तब, आयुष्मान रट्ठपाल के पिता ने आयुष्मान रट्ठपाल की स्वीकृति जानकर अपने घर गया, और जाकर हिरण्य (=सोने के सिक्के) और सुवर्ण (=सोने की ईंटें) का बड़ा ढ़ेर खड़ा कर, उसे चादरों से ढक दिया। और आयुष्मान रट्ठपाल की पूर्व-पत्नियों को आमंत्रित किया, “बहुओं, तुम स्वयं को वस्त्रों और आभूषणों से इस प्रकार अलंकृत करो, जिस प्रकार रट्ठपाल को पहले प्रिय और पसंद होता था।”
और तब आयुष्मान रट्ठपाल के पिता ने रात बीतने पर अपने घर में उत्कृष्ट खाद्य और भोजन बनवाया, और आयुष्मान रट्ठपाल को समय की सूचना दी, “उचित समय है, प्यारे रट्ठपाल! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर आयुष्मान रट्ठपाल ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, अपने पिता के घर गए। जाकर बिछे आसन पर बैठ गए। तब आयुष्मान रट्ठपाल के पिता ने हिरण्य और सुवर्ण के ढ़ेर पर से चादर खींचकर खोल दिया, और आयुष्मान रट्ठपाल से कहा, “प्यारे रट्ठपाल, ये तुम्हारी मातृक संपत्ति है। दूसरी तुम्हारी पितृक संपत्ति। और तीसरी पितामहों (=पूर्वजों) की। तुम इस संपत्ति को भोगते हुए पुण्य कर सकते हो। लौट जाओ, प्यारे रट्ठपाल, गृहस्थी जीवन में! इस संपत्ति को भोगते हुए पुण्य करो।”
“यदि मेरी बात सुनते, तो इस हिरण्य और सुवर्ण के ढ़ेर को लादकर गंगा नदी के बीच धारा में प्रवाहित कर देते। ऐसा क्यों? क्योंकि इसके कारण, गृहस्थ, तुम्हें केवल शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा ही उपजेगी।”
तब, आयुष्मान रट्ठपाल की पूर्व पत्नियों ने आकर, प्रत्येक ने आयुष्मान रट्ठपाल के पैर पकड़ कर कहा, “वे कैसी हैं, स्वामी, जिन अप्सराओं के लिए तुम ब्रह्मचर्य पालन करते हो?”
“मैं अप्सराओं के लिए ब्रह्मचर्य पालन नहीं करता हूँ, बहन!”
“हमें ‘बहन’ कहकर पुकारते हैं स्वामी रट्ठपाल!” कहते हुए वे वहीं मूर्छित हुई।
तब आयुष्मान रट्ठपाल ने अपने पिता से कहा, “यदि भोजन देना हो, तो दो, गृहस्थ! मुझे परेशान मत करो।”
“खाओ, प्यारे रट्ठपाल, भोजन तैयार है।”
तब आयुष्मान रट्ठपाल के पिता ने आयुष्मान रट्ठपाल को उत्तम खाद्य और भोजन को अपने हाथों से परोसते हुए संतृप्त किया, संतुष्ट किया। और जब आयुष्मान रट्ठपाल ने भोजन किया, हाथ और पात्र धो लिया, तब खड़े रहकर ये गाथाएँ बोली—
आयुष्मान रट्ठपाल ने खड़े रहकर ये गाथाएँ 2 बोली, और राजा कोरब्य के मृगक्षेत्र में लौट गए, और दिन बिताने के लिए जाकर किसी वृक्ष के तले बैठ गए।
तब राजा कोरब्य ने अपने मृगक्षेत्र रक्षक को संबोधित किया, “भले रक्षक, मृगक्षेत्र की उद्यानभूमि को साफ करो। हम सुभूमि के दर्शन के लिए जाएँगे।”
“हाँ, महाराज।” मृगक्षेत्र रक्षक ने राजा कोरब्य को उत्तर दिया, जिसे मृगक्षेत्र साफ करते समय आयुष्मान रट्ठपाल किसी वृक्ष के तले बैठकर दिन बिताते हुए दिखे। उन्हें देखकर वह राजा कोरब्य के पास गया, और कहा, “मृगक्षेत्र साफ है, महाराज। और रट्ठपाल नामक कुलपुत्र, जो थुल्लकोट्ठिक के सबसे ऊँचे कुल का पुत्र था, जिनके बारे में आप अक्सर ऊँची प्रशंसा करते हैं, वे किसी वृक्ष के तले बैठकर दिन बिता रहे हैं।”
“ठीक है, भले रक्षक, आज के लिए उद्यानभूमि पर्याप्त है। अब मैं श्रीमान रट्ठपाल का सत्संग करूँगा।”
तब राजा कोरब्य ने आज्ञा दी, “जितना भी खाद्य और भोजन तैयार हुआ है, पूरा विसर्जित कर दो।” और तब, अच्छे अच्छे रथ तैयार कराएँ और सबसे अच्छे रथ पर सवार होकर, अच्छे-अच्छे रथों को साथ लेकर, पूर्ण राजसी अंदाज में, आयुष्मान रट्ठपाल का दर्शन लेने के लिए थुल्लकोट्ठिक से निकल पड़ा। जहाँ तक रथ जाने की भूमि थी, वहाँ तक रथ से गया, और फिर रथ से उतर कर पैदल आयुष्मान रट्ठपाल के पास गया। जाकर उसने आयुष्मान रट्ठपाल को अभिवादन किया और एक ओर खड़ा हुआ।
एक ओर खड़े होकर, राजा कोरब्य ने आयुष्मान रट्ठपाल से कहा, “श्रीमान रट्ठपाल, इस हाथी के गलीचे पर बैठिए।”
“पर्याप्त है, महाराज। आप ही बैठिए। मैं अपने आसन पर बैठा हूँ।”
तब आसन बिछा कर राजा कोरब्य बैठ गया। एक ओर बैठकर राजा कोरब्य ने आयुष्मान रट्ठपाल से कहा —
“श्रीमान रट्ठपाल, चार प्रकार की बदहाली होती है, जिनसे बदहाल होकर कोई सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। कौन से चार?
(१) रट्ठपाल जी, ये बुढ़ापे की बदहाली क्या है?
जब, रट्ठपाल जी, कोई जीर्ण होता है, वृद्ध होता है, बूढ़ा होता है, पकी उम्र का, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त — तब वह सोचता है, ‘मैं तो जीर्ण हो चुका हूँ, वृद्ध, बूढ़ा, पकी उम्र का, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त हूँ। अब मेरे लिए (यौवन) भोग को प्राप्त करना, या प्राप्त हो चुके भोग को बढ़ाना, इतना सरल नहीं रहा। क्यों न मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हो जाऊँ?’
तब वह बुढ़ापे से बदहाल होकर सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। इसे कहते हैं, रट्ठपाल जी, बुढ़ापे की बदहाली।
किन्तु, रट्ठपाल जी तो अभी जवान हैं, युवा हैं, काले केश वाले, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त! रट्ठपाल जी को बुढ़ापे की बदहाली तो नहीं हुई। तब क्या ज्ञात कर, क्या देख कर, या क्या सुन कर रट्ठपाल जी घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं?
(२) आगे, रट्ठपाल जी, ये रोग की बदहाली क्या है?
जब, रट्ठपाल जी, कोई बीमार पड़ता है, पीड़ित होता है, गंभीर रोग से ग्रस्त — तब वह सोचता है, ‘मैं तो बीमार हूँ, पीड़ित हूँ गंभीर रोग से ग्रस्त हूँ। अब मेरे लिए (आरोग्य) भोग को प्राप्त करना, या प्राप्त हो चुके भोग को बढ़ाना, इतना सरल नहीं रहा। क्यों न मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हो जाऊँ?’
तब वह रोग से बदहाल होकर सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। इसे कहते हैं, रट्ठपाल जी, रोग की बदहाली।
किन्तु, रट्ठपाल जी तो अभी निरोगी रहते हैं, रोगमुक्त रहते हैं, और पाचनक्रिया सम रहती थी, न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण! रट्ठपाल जी को रोग की बदहाली तो नहीं हुई। तब क्या ज्ञात कर, क्या देख कर, या क्या सुन कर रट्ठपाल जी घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं?
(३) आगे, रट्ठपाल जी, ये भोगसंपत्ति की बदहाली क्या है?
रट्ठपाल जी, कोई अमीर होता है, महाधनी और महासंपत्तिशाली होता है। किन्तु उसकी संपत्ति धीमे-धीमे व्यय हो जाती है — तब वह सोचता है, ‘मैं तो अमीर था, महाधनी और महासंपत्तिशाली! किन्तु मेरी संपत्ति धीमे-धीमे व्यय हो गयी। अब मेरे लिए भोगसंपत्ति को प्राप्त करना, या प्राप्त हो चुकी भोगसंपत्ति को बढ़ाना, इतना सरल नहीं रहा। क्यों न मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हो जाऊँ?’
तब वह भोगसंपत्ति से बदहाल होकर सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। इसे कहते हैं, रट्ठपाल जी, भोगसंपत्ति की बदहाली।
किन्तु, रट्ठपाल जी तो अभी निरोगी रहते हैं, रोगमुक्त रहते हैं, और पाचनक्रिया सम रहती थी, न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण! रट्ठपाल जी को भोगसंपत्ति की बदहाली तो नहीं हुई। तब क्या ज्ञात कर, क्या देख कर, या क्या सुन कर रट्ठपाल जी घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं?
(४) आगे, रट्ठपाल जी, ये परिवार की बदहाली क्या है?
रट्ठपाल जी, किसी के बहुत से मित्र-सहचारी, परिवार-रिश्तेदार होते हैं। किन्तु, वे रिश्तेदार धीमे-धीमे खत्म हो जाते हैं — तब वह सोचता है, ‘मेरे बहुत से मित्र-सहचारी, परिवार-रिश्तेदार थे। किन्तु, वे रिश्तेदार धीमे-धीमे खत्म हो गए। अब मेरे लिए (परिवार) भोग को प्राप्त करना, या प्राप्त हो चुके भोग को बढ़ाना, इतना सरल नहीं रहा। क्यों न मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हो जाऊँ?’
तब वह परिवार की बदहाली से सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। इसे कहते हैं, रट्ठपाल जी, परिवार की बदहाली।
किन्तु, रट्ठपाल जी के तो अभी थुल्लकोट्ठिक में ही बहुत से मित्र-सहचारी, परिवार-रिश्तेदार रहते हैं। रट्ठपाल जी के परिवार की बदहाली तो नहीं हुई। तब क्या ज्ञात कर, क्या देख कर, या क्या सुन कर रट्ठपाल जी घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं?
इस तरह, रट्ठपाल जी, चार प्रकार की बदहाली होती है, जिनसे बदहाल होकर कोई सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है। किन्तु, रट्ठपाल जी के कोई बदहाली नहीं हुई। तब क्या ज्ञात कर, क्या देख कर, या क्या सुन कर रट्ठपाल जी घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए हैं?”
“महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — धर्म के चार उद्देश्य बताते हैं, जिन्हें ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ। कौन से चार?
‘यह लोक बह जाता है!
बचता नहीं!’
इस पहले धर्म उद्देश्य को, महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ने बताया हैं, जिसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।
‘यह लोक आश्रय नहीं देता!
बिना मालिक का है!’
इस दूसरे धर्म उद्देश्य को, महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ने बताया हैं, जिसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।
‘इस लोक में अपना कुछ नहीं!
सब छोड़कर जाना पड़ता है!’
इस तीसरे धर्म उद्देश्य को, महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ने बताया हैं, जिसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।
‘यह लोक पर्याप्त नहीं है!
अतृप्त रखता है!
तृष्णा का नौकर है!’
इस चौथे धर्म उद्देश्य को, महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ने बताया हैं, जिसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।
इन चार धर्म उद्देश्यों को, महाराज, भगवान — जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ने बताया हैं, जिसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।” 3
(१) “रट्ठपाल जी ने कहा — ‘यह लोक बह जाता है! बचता नहीं!’ इस कथन के अर्थ को कैसे देखना चाहिए, रट्ठपाल जी?”
“महाराज, आपको क्या लगता है? जब आप बीस-पच्चीस वर्ष के थे, तब क्या आप आत्मनिर्भर होकर युद्ध में उतरते थे — जैसे हाथियों की सवारी में निपुण, घोड़ों की सवारी में निपुण, या रथ दौड़ाने में निपुण, धनुष चलाने में निपुण, तलवार चलाने में निपुण, जाँघों से बलवान, और बाहों से बलवान?”
“हाँ, रट्ठपाल जी! जब मैं बीस-पच्चीस वर्ष का था, तब मैं आत्मनिर्भर होकर युद्ध में उतरता था — हाथियों की सवारी में निपुण, घोड़ों की सवारी में निपुण, या रथ दौड़ाने में निपुण, धनुष चलाने में निपुण, तलवार चलाने में निपुण, जाँघों से बलवान, और बाहों से बलवान! कई बार तो लगता था, रट्ठपाल जी, मानो मुझमें कोई ऋद्धि हो। मेरे जैसा बाहुबली कोई नहीं दिखता था।”
“और, महाराज, अब आपको क्या लगता है? क्या अब भी आप आत्मनिर्भर होकर युद्ध में उतरते हैं — जाँघों से बलवान, और बाहों से बलवान?”
“नहीं, रट्ठपाल जी! अब मैं जीर्ण हो चुका हूँ — वृद्ध, बूढ़ा, पकी उम्र का, जीवन के अंतिम चरण को प्राप्त, अस्सी वर्ष की उम्र हो चुकी है। कई बार तो लगता है, रट्ठपाल जी, कि मैं यहाँ पैर रखूँ, किन्तु मेरा पैर कहीं और पड़ता है।”
“इसीलिए, महाराज, भगवान, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ने कहा — ‘यह लोक बह जाता है! बचता नहीं!’ उसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।”
“आश्चर्य है, रट्ठपाल जी! अद्भुत है, रट्ठपाल जी! कितना सुभाषित कहा भगवान ने, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ‘यह लोक बह जाता है! बचता नहीं!’ वाकई, यह लोक बह जाता है, रट्ठपाल जी, बचता नहीं!
(२) रट्ठपाल जी, इस राज-परिवार में हाथियों की सेना, घोड़ों की सेना, रथों की सेना, और पैदल सेना पायी जाती हैं, जो हमें किसी भी आपदा से बचाने के लिए तैयार होती है। तब भी रट्ठपाल जी ने कहा — ‘यह लोक आश्रय नहीं देता! बिना मालिक का है!’ इस कथन के अर्थ को कैसे देखना चाहिए?”
“महाराज, आपको क्या लगता है? क्या आपको कोई पुराना रोग लगा पड़ा है?”
“हाँ, रट्ठपाल जी! मुझे पुराना वातरोग लगा पड़ा है। कई बार मेरे मित्र-सहचारी, परिवार-रिश्तेदार घेर कर खड़े हो जाते हैं, (सोचते हुए,) ‘अबकी बार राजा कोरब्य चल बसेंगे! अबकी बार राजा कोरब्य चल बसेंगे!’”
“तब, महाराज, क्या लगता है? क्या मित्र-सहचारियों, परिवार-रिशतेदारों को ऐसा कहने से कुछ हासिल होता है, ‘आओ मेरे मित्र-सहचारियों, मेरे परिवार-रिशतेदारों! जो मेरी पूरी पीड़ा है, उसका संविभाग करो (=आपस में समान बाँटो), ताकि मैं कम पीड़ा का अनुभव करूँ!’ अथवा उस पीड़ा को आपको अकेले ही अनुभव करना होता है?”
“नहीं, रट्ठपाल जी! मेरे मित्र-सहचारियों, परिवार-रिशतेदारों को ऐसा कहने से कुछ हासिल नहीं होता, ‘आओ मेरे मित्र-सहचारियों, मेरे परिवार-रिशतेदारों! जो मेरी पूरी पीड़ा है, उसका संविभाग करो, ताकि मैं कम पीड़ा का अनुभव करूँ!’ बल्कि मुझे ही उस पीड़ा को अकेले अनुभव करना होता है।”
“इसीलिए, महाराज, भगवान, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ने कहा — ‘यह लोक आश्रय नहीं देता! बिना मालिक का है!’ उसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।”
“आश्चर्य है, रट्ठपाल जी! अद्भुत है, रट्ठपाल जी! कितना सुभाषित कहा भगवान ने, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ‘यह लोक आश्रय नहीं देता! बिना मालिक का है!’ वाकई, यह लोक आश्रय नहीं देता है, रट्ठपाल जी, बिना मालिक का है!
(३) रट्ठपाल जी, इस राज-परिवार में भरपूर हिरण्य (=सोने के सिक्के) और सुवर्ण (=सोने की ईंटें) हैं, जिसे भूमि के भीतर और भूमि के बाहर जमा रखा गया है। तब भी रट्ठपाल जी ने कहा — ‘इस लोक में अपना कुछ नहीं! सब छोड़कर जाना पड़ता है!’ इस कथन के अर्थ को कैसे देखना चाहिए?”
“महाराज, आपको क्या लगता है? जिस तरह आज, आप कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, पूरी तरह डूब कर, उनका सेवन करते हैं, क्या उसी तरह परलोक में भी सुनिश्चित है कि ‘मैं इसी कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, पूरी तरह डूब कर, उनका सेवन करते रहूँगा’? अथवा इस भोगसंपत्ति को दूसरे लोग भोगेंगे, जबकि आप अपने कर्मों के अनुसार जाएँगे?”
“नहीं, रट्ठपाल जी! जिस तरह आज मैं कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, पूरी तरह डूब कर, उनका सेवन करता हूँ, उसी तरह परलोक में सुनिश्चित नहीं है कि ‘मैं इसी कामभोग में लिप्त होकर, समर्पित होकर, पूरी तरह डूब कर, उनका सेवन करते रहूँगा!’ बल्कि इस भोगसंपत्ति को दूसरे लोग भोगेंगे, जबकि मैं अपने कर्मों के अनुसार जाऊँगा।”
“इसीलिए, महाराज, भगवान, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ने कहा — ‘इस लोक में अपना कुछ नहीं! सब छोड़कर जाना पड़ता है!’ उसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।”
“आश्चर्य है, रट्ठपाल जी! अद्भुत है, रट्ठपाल जी! कितना सुभाषित कहा भगवान ने, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ‘इस लोक में अपना कुछ नहीं! सब छोड़कर जाना पड़ता है!’ वाकई, इस लोक में अपना कुछ नहीं, रट्ठपाल जी! सब छोड़कर जाना पड़ता है!
(४) रट्ठपाल जी ने कहा — ‘यह लोक पर्याप्त नहीं है! अतृप्त रखता है! तृष्णा का नौकर है!’ इस कथन के अर्थ को कैसे देखना चाहिए?”
“महाराज, आपको क्या लगता है? क्या आप इस समृद्धशाली कुरु देश पर राज करते हैं?”
“हाँ, रट्ठपाल जी! मैं इस समृद्धशाली कुरु देश पर राज करता हूँ।”
“महाराज, क्या लगता है? यदि कोई विश्वसनीय और भरोसेमंद पुरुष पूर्व दिशा से आता है। वह आपके पास आकर कहता है — ‘महाराज, क्या आप जानते हैं कि मैं पूर्व दिशा से आ रहा हूँ? वहाँ एक शक्तिशाली, समृद्ध और घनी आबादी वाला बड़ा देश है। वहाँ बहुत हाथियों की सेना, घोड़ों की सेना, रथों की सेना, और पैदल सेना है। वहाँ बहुत धन-धान्य है। वहाँ बहुत हिरण्य और सुवर्ण है, जिसे आकार (आभूषण इत्यादि) दिया गया है, और जिसे आकार नहीं दिया गया। वहाँ उठाने के लिए बहुत स्त्रियाँ हैं। आप अपने वर्तमान बल से ही उस पर विजय पा सकते हैं। उसे जीत लें, महाराज!’ — तब, महाराज, आप क्या करेंगे?”
“रट्ठपाल जी! मैं उस देश पर विजय पाकर राज करूँगा।”
“और, महाराज, क्या लगता है? यदि कोई विश्वसनीय और भरोसेमंद पुरुष पश्चिम दिशा से आता है… कोई विश्वसनीय और भरोसेमंद पुरुष उत्तर दिशा से आता है… कोई विश्वसनीय और भरोसेमंद पुरुष दक्षिण दिशा से आता है… कोई विश्वसनीय और भरोसेमंद पुरुष समुद्र के पार से आता है। वह आपके पास आकर कहता है — ‘महाराज, क्या आप जानते हैं कि मैं समुद्र के पार से आ रहा हूँ? वहाँ एक शक्तिशाली, समृद्ध और घनी आबादी वाला बड़ा देश है। वहाँ बहुत हाथियों की सेना, घोड़ों की सेना, रथों की सेना, और पैदल सेना है। वहाँ बहुत धन-धान्य है। वहाँ बहुत हिरण्य और सुवर्ण है, जिसे आकार दिया गया है, और जिसे आकार नहीं दिया गया। वहाँ उठाने के लिए बहुत स्त्रियाँ हैं। आप अपने वर्तमान बल से ही उस पर विजय पा सकते हैं। उसे जीत लें, महाराज!’ — तब, महाराज, आप क्या करेंगे?”
“रट्ठपाल जी! मैं उस देश पर भी विजय पाकर राज करूँगा।”
“इसीलिए, महाराज, भगवान, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं, ने कहा — ‘यह लोक पर्याप्त नहीं है! अतृप्त रखता है! तृष्णा का नौकर है!’ उसे ज्ञात कर, देख कर, सुन कर मैं घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ।”
“आश्चर्य है, रट्ठपाल जी! अद्भुत है, रट्ठपाल जी! कितना सुभाषित कहा भगवान ने, जो जानते हैं, जो देखते हैं, जो अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध हैं — ‘यह लोक पर्याप्त नहीं है! अतृप्त रखता है! तृष्णा का नौकर है!’ वाकई यह लोक पर्याप्त नहीं है, रट्ठपाल जी! यह अतृप्त रखता है! तृष्णा का नौकर है!”
आयुष्मान रट्ठपाल ने ऐसा कहा। ऐसा कहने पर उन्होंने आगे कहा —
हालाँकि यहाँ ‘नचिरस्सेवा’, अर्थात ‘जल्द ही’ शब्द का प्रयोग किया गया है, फिर भी अट्ठकथा में इसे बारह वर्षों की अवधि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह स्पष्ट नहीं है कि अट्ठकथा का यह विवरण कितना विश्वसनीय है। कई विद्वान इस पर संदेह व्यक्त करते हैं कि ‘जल्द ही’ के संदर्भ में बारह वर्ष की इतनी लंबी अवधि को कैसे जोड़ा जा सकता है।
व्यक्तिगत रूप से, मुझे लगता है कि बारह वर्षों की अवधि पर विश्वास करना कठिन है। क्योंकि भगवान थुल्लकोट्ठिक गाँव से आयुष्मान रट्ठपाल को लेकर श्रावस्ती आए थे, जहाँ ‘जल्द ही’ अरहंत अवस्था प्राप्त करने के बाद आयुष्मान रट्ठपाल फिर श्रावस्ती से वापस थुल्लकोट्ठिक गए। यह पूरा घटनाक्रम एक प्रवाह में घटित हुआ प्रतीत होता है, और इसमें बारह वर्षों का समय एक बड़ा प्रश्नचिह्न पैदा करता है। ↩︎
यही गाथाएँ आयुष्मान रट्ठपाल की थेरगाथा १६.४ में भी दर्ज हैं। ↩︎
धर्म के ये चार सारपूर्ण उद्देश्य अन्य किसी भी सूत्र में उल्लेखित नहीं हुए हैं। शायद, ये उद्देश्य आयुष्मान रट्ठपाल ने पहली बार अपने गाँव थुल्लकोट्ठिक में ही सुने होंगे। ↩︎
२९३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कुरूसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं येन थुल्लकोट्ठिकं [थूलकोट्ठिकं (सी. स्या. कं. पी.)] नाम कुरूनं निगमो तदवसरि. अस्सोसुं खो थुल्लकोट्ठिका [थूलकोट्ठितका (सी. स्या. कं. पी.)] ब्राह्मणगहपतिका – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कुरूसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं थुल्लकोट्ठिकं अनुप्पत्तो. तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति. सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति. सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति. साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति. अथ खो थुल्लकोट्ठिका ब्राह्मणगहपतिका येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवतो सन्तिके नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु. एकमन्तं निसिन्ने खो थुल्लकोट्ठिके ब्राह्मणगहपतिके भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि.
२९४. तेन खो पन समयेन रट्ठपालो नाम कुलपुत्तो तस्मिंयेव थुल्लकोट्ठिके अग्गकुलस्स [अग्गकुलिकस्स (सी. स्या. कं. पी.)] पुत्तो तिस्सं परिसायं निसिन्नो होति. अथ खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स एतदहोसि – ‘‘यथा यथा ख्वाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि [यथा यथा खो भगवा धम्मं देसेति (सी.)], नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’’न्ति. अथ खो थुल्लकोट्ठिका ब्राह्मणगहपतिका भगवता धम्मिया कथाय सन्दस्सिता समादपिता समुत्तेजिता सम्पहंसिता भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कमिंसु. अथ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो अचिरपक्कन्तेसु थुल्लकोट्ठिकेसु ब्राह्मणगहपतिकेसु येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो रट्ठपालो कुलपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘यथा यथाहं, भन्ते, भगवता धम्मं देसितं आजानामि, नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. इच्छामहं, भन्ते, केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं. लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पदं. पब्बाजेतु मं भगवा’’ति [एत्थ ‘‘लभेय्याहं…पे… उपसम्पदं’’ति वाक्यद्वयं सब्बेसुपि मूलपोत्थकेसु दिस्सति, पाराजिकपाळियं पन सुदिन्नभाणवारे एतं नत्थि. ‘‘पब्बाजेतु मं भगवा’’ति इदं पन वाक्यं मरम्मपोत्थके येव दिस्सति, पाराजिकपाळियञ्च तदेव अत्थि]. ‘‘अनुञ्ञातोसि पन त्वं, रट्ठपाल, मातापितूहि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? ‘‘न खोहं, भन्ते, अनुञ्ञातो मातापितूहि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति. ‘‘न खो, रट्ठपाल, तथागता अननुञ्ञातं मातापितूहि पुत्तं पब्बाजेन्ती’’ति. ‘‘स्वाहं, भन्ते, तथा करिस्सामि यथा मं मातापितरो अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति.
२९५. अथ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा येन मातापितरो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मातापितरो एतदवोच – ‘‘अम्मताता, यथा यथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि, नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. इच्छामहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं. अनुजानाथ मं अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति. एवं वुत्ते, रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि, तात रट्ठपाल, अम्हाकं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो [सुखपरिहतो (स्या. कं. क.) (एहि त्वं तात रट्ठपाल भुञ्ज च पिव च परिचारे हि च, भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु, न तं मयं अनुजानाम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय,) सब्बत्थ दिस्सति, सुदिन्नकण्डे पन नत्थि, अट्ठकथासुपि न दस्सितं]. न त्वं, तात रट्ठपाल , कस्सचि दुक्खस्स जानासि. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम. किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? दुतियम्पि खो रट्ठपालो कुलपुत्तो…पे… ततियम्पि खो रट्ठपालो कुलपुत्तो मातापितरो एतदवोच – ‘‘अम्मताता, यथा यथाहं भगवता धम्मं देसितं आजानामि, नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं. इच्छामहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितुं. अनुजानाथ मं अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति. ततियम्पि खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि, तात रट्ठपाल, अम्हाकं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो. न त्वं, तात रट्ठपाल, कस्सचि दुक्खस्स जानासि. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम. किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति?
२९६. अथ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो – ‘‘न मं मातापितरो अनुजानन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति तत्थेव अनन्तरहिताय भूमिया निपज्जि – ‘‘इधेव मे मरणं भविस्सति पब्बज्जा वा’’ति. अथ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो एकम्पि भत्तं न भुञ्जि, द्वेपि भत्तानि न भुञ्जि, तीणिपि भत्तानि न भुञ्जि, चत्तारिपि भत्तानि न भुञ्जि, पञ्चपि भत्तानि न भुञ्जि, छपि भत्तानि न भुञ्जि, सत्तपि भत्तानि न भुञ्जि. अथ खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि, तात रट्ठपाल, अम्हाकं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो. न त्वं, तात रट्ठपाल, कस्सचि, दुक्खस्स जानासि [‘‘मरणेनपि ते…पे… पब्बज्जाया’’ति वाक्यद्वयं सी. स्या. कं. पी. पोत्थकेसु दुतियट्ठाने येव दिस्सति, पाराजिकपाळियं पन पठमट्ठाने येव दिस्सति. तस्मा इध दुतियट्ठाने पुनागतं अधिकं विय दिस्सति]. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम. किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. उट्ठेहि, तात रट्ठपाल, भुञ्ज च पिव च परिचारेहि च; भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु. न तं मयं अनुजानाम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय [‘‘मरणेनपि ते…पे… पब्बजाया’’ति वाक्यद्वयं सी. स्या. कं. पी. पोत्थकेसु दुतियट्ठाने येव दिस्सति, पाराजिकपाळियं पन पठमट्ठाने येव दिस्सति. तस्मा इध दुतियट्ठाने पुनागतं अधिकं विय दिस्सति]. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम. किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? एवं वुत्ते, रट्ठपालो कुलपुत्तो तुण्ही अहोसि. दुतियम्पि खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं…पे… दुतियम्पि खो रट्ठपालो कुलपुत्तो तुण्ही अहोसि. ततियम्पि खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि, तात रट्ठपाल, अम्हाकं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो. न त्वं, तात रट्ठपाल, कस्सचि दुक्खस्स जानासि. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम, किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. उट्ठेहि, तात रट्ठपाल, भुञ्ज च पिव च परिचारेहि च; भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु. न तं मयं अनुजानाम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. मरणेनपि ते मयं अकामका विना भविस्साम . किं पन मयं तं जीवन्तं अनुजानिस्साम अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? ततियम्पि खो रट्ठपालो कुलपुत्तो तुण्ही अहोसि.
२९७. अथ खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स सहायका येन रट्ठपालो कुलपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि [त्वं खो (सी. पी.)], सम्म रट्ठपाल, मातापितूनं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो. न त्वं, सम्म रट्ठपाल, कस्सचि दुक्खस्स जानासि. मरणेनपि ते मातापितरो अकामका विना भविस्सन्ति. किं पन ते तं जीवन्तं अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. उट्ठेहि, सम्म रट्ठपाल, भुञ्ज च पिव च परिचारेहि च; भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु. न तं मातापितरो अनुजानिस्सन्ति [अनुजानन्ति (सी. स्या. कं. पी.)] अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. मरणेनपि ते मातापितरो अकामका विना भविस्सन्ति. किं पन ते तं जीवन्तं अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? एवं वुत्ते, रट्ठपालो कुलपुत्तो तुण्ही अहोसि. दुतियम्पि खो… ततियम्पि खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स सहायका रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘त्वं खोसि, सम्म रट्ठपाल, मातापितूनं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिभतो, न त्वं, सम्म रट्ठपाल, कस्सचि दुक्खस्स जानासि, मरणेनपि ते मातापितरो अकामका विना भविस्सन्ति. किं पन ते तं जीवन्तं अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय? उट्ठेहि, सम्म रट्ठपाल, भुञ्ज च पिव च परिचारेहि च, भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु. न तं मातापितरो अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, मरणेनपि ते मातापितरो अकामका विना भविस्सन्ति. किं पन ते तं जीवन्तं अनुजानिस्सन्ति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति? ततियम्पि खो रट्ठपालो कुलपुत्तो तुण्ही अहोसि.
२९८. अथ खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स सहायका येन रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स मातापितरो एतदवोचुं – ‘‘अम्मताता, एसो रट्ठपालो कुलपुत्तो तत्थेव अनन्तरहिताय भूमिया निपन्नो – ‘इधेव मे मरणं भविस्सति पब्बज्जा वा’ति. सचे तुम्हे रट्ठपालं कुलपुत्तं नानुजानिस्सथ अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, तत्थेव [तत्थेवस्स (सी.)] मरणं आगमिस्सति. सचे पन तुम्हे रट्ठपालं कुलपुत्तं अनुजानिस्सथ अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, पब्बजितम्पि नं दक्खिस्सथ. सचे रट्ठपालो कुलपुत्तो नाभिरमिस्सति अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय, का तस्स [का चस्स (सी.)] अञ्ञा गति भविस्सति? इधेव पच्चागमिस्सति. अनुजानाथ रट्ठपालं कुलपुत्तं अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाया’’ति. ‘‘अनुजानाम, ताता, रट्ठपालं कुलपुत्तं अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. पब्बजितेन च पन [पन ते (स्या. कं. क.)] मातापितरो उद्दस्सेतब्बा’’ति. अथ खो रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स सहायका येन रट्ठपालो कुलपुत्तो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा रट्ठपालं कुलपुत्तं एतदवोचुं – ‘‘उट्ठेहि, सम्म रट्ठपाल [‘‘त्वं खोसि सम्म रट्ठपाल मातापितूनं एकपुत्तको पियो मनापो सुखेधितो सुखपरिहतो, न त्वं सम्म रट्ठपाल कस्सचि दुक्खस्स जानासि, उट्ठेहि सम्म रट्ठपाल भुञ्ज च पिव च परिचारेहि च, भुञ्जन्तो पिवन्तो परिचारेन्तो कामे परिभुञ्जन्तो पुञ्ञानि करोन्तो अभिरमस्सु, (सी. पी. क.)], अनुञ्ञातोसि मातापितूहि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. पब्बजितेन च पन ते मातापितरो उद्दस्सेतब्बा’’ति.
२९९. अथ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो उट्ठहित्वा बलं गाहेत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो रट्ठपालो कुलपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अनुञ्ञातो अहं, भन्ते, मातापितूहि अगारस्मा अनगारियं पब्बज्जाय. पब्बाजेतु मं भगवा’’ति. अलत्थ खो रट्ठपालो कुलपुत्तो भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं. अथ खो भगवा अचिरूपसम्पन्ने आयस्मन्ते रट्ठपाले अड्ढमासूपसम्पन्ने थुल्लकोट्ठिके यथाभिरन्तं विहरित्वा येन सावत्थि तेन चारिकं पक्कामि. अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन सावत्थि तदवसरि. तत्र सुदं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासि. अञ्ञतरो खो पनायस्मा रट्ठपालो अरहतं अहोसि.
अथ खो आयस्मा रट्ठपालो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो आयस्मा रट्ठपालो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इच्छामहं, भन्ते, मातापितरो उद्दस्सेतुं, सचे मं भगवा अनुजानाती’’ति. अथ खो भगवा आयस्मतो रट्ठपालस्स चेतसा चेतो परिच्च [चेतोपरिवितक्कं (सी. पी.)] मनसाकासि. यथा [यदा (सी. पी.)] भगवा अञ्ञासि – ‘‘अभब्बो खो रट्ठपालो कुलपुत्तो सिक्खं पच्चक्खाय हीनायावत्तितु’’न्ति, अथ खो भगवा आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोच – ‘‘यस्सदानि त्वं, रट्ठपाल, कालं मञ्ञसी’’ति. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा सेनासनं संसामेत्वा पत्तचीवरमादाय येन थुल्लकोट्ठिकं तेन चारिकं पक्कामि. अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन थुल्लकोट्ठिको तदवसरि. तत्र सुदं आयस्मा रट्ठपालो थुल्लकोट्ठिके विहरति रञ्ञो कोरब्यस्स मिगचीरे. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय थुल्लकोट्ठिकं पिण्डाय पाविसि. थुल्लकोट्ठिके सपदानं पिण्डाय चरमानो येन सकपितु निवेसनं तेनुपसङ्कमि. तेन खो पन समयेन आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता मज्झिमाय द्वारथुल्लकोट्ठिकय उल्लिखापेति. अद्दसा खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता आयस्मन्तं रट्ठपालं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान एतदवोच – ‘‘इमेहि मुण्डकेहि समणकेहि अम्हाकं एकपुत्तको पियो मनापो पब्बाजितो’’ति . अथ खो आयस्मा रट्ठपालो सकपितु निवेसने नेव दानं अलत्थ न पच्चक्खानं; अञ्ञदत्थु अक्कोसमेव अलत्थ. तेन खो पन समयेन आयस्मतो रट्ठपालस्स ञातिदासी आभिदोसिकं कुम्मासं छड्डेतुकामा होति. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो तं ञातिदासिं एतदवोच – ‘‘सचेतं, भगिनि, छड्डनीयधम्मं, इध मे पत्ते आकिरा’’ति. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स ञातिदासी तं आभिदोसिकं कुम्मासं आयस्मतो रट्ठपालस्स पत्ते आकिरन्ती हत्थानञ्च पादानञ्च सरस्स च निमित्तं अग्गहेसि.
३००. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स ञातिदासी येनायस्मतो रट्ठपालस्स माता तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मतो रट्ठपालस्स मातरं एतदवोच – ‘‘यग्घेय्ये, जानेय्यासि – ‘अय्यपुत्तो रट्ठपालो अनुप्पत्तो’’’ति. ‘‘सचे, जे, सच्चं भणसि, अदासिं तं करोमी’’ति [सच्चं वदसि, अदासी भवसीति (सी. पी.), सच्चं वदसि, अदासी भविस्ससि (क.)]. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स माता येनायस्मतो रट्ठपालस्स पिता तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मतो रट्ठपालस्स पितरं एतदवोच – ‘‘यग्घे, गहपति, जानेय्यासि – ‘रट्ठपालो किर कुलपुत्तो अनुप्पत्तो’’’ति? तेन खो पन समयेन आयस्मा रट्ठपालो तं आभिदोसिकं कुम्मासं अञ्ञतरं कुट्टमूलं [कुड्डं (सी. स्या. कं. पी.)] निस्साय परिभुञ्जति. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता येनायस्मा रट्ठपालो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोच – ‘‘अत्थि नाम, तात रट्ठपाल, आभिदोसिकं कुम्मासं परिभुञ्जिस्ससि? ननु, तात रट्ठपाल, सकं गेहं गन्तब्ब’’न्ति? ‘‘कुतो नो, गहपति, अम्हाकं गेहं अगारस्मा अनगारियं पब्बजितानं? अनगारा मयं, गहपति. अगमम्ह खो ते, गहपति, गेहं, तत्थ नेव दानं अलत्थम्ह न पच्चक्खानं; अञ्ञदत्थु अक्कोसमेव अलत्थम्हा’’ति. ‘‘एहि, तात रट्ठपाल, घरं गमिस्सामा’’ति. ‘‘अलं, गहपति, कतं मे अज्ज भत्तकिच्चं’’. ‘‘तेन हि, तात रट्ठपाल, अधिवासेहि स्वातनाय भत्त’’न्ति. अधिवासेसि खो आयस्मा रट्ठपालो तुण्हीभावेन. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता आयस्मतो रट्ठपालस्स अधिवासनं विदित्वा येन सकं निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा महन्तं हिरञ्ञसुवण्णस्स पुञ्जं कारापेत्वा किलञ्जेहि पटिच्छादेत्वा आयस्मतो रट्ठपालस्स पुराणदुतियिका आमन्तेसि – ‘‘एथ तुम्हे, वधुयो, येन अलङ्कारेन अलङ्कता पुब्बे रट्ठपालस्स कुलपुत्तस्स पिया होथ मनापा तेन अलङ्कारेन अलङ्करोथा’’ति.
३०१. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा आयस्मतो रट्ठपालस्स कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, तात रट्ठपाल, निट्ठितं भत्त’’न्ति. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन सकपितु निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता तं हिरञ्ञसुवण्णस्स पुञ्जं विवरापेत्वा आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोच – ‘‘इदं ते, तात रट्ठपाल, मातु मत्तिकं धनं, अञ्ञं पेत्तिकं, अञ्ञं पितामहं. सक्का, तात रट्ठपाल, भोगे च भुञ्जितुं पुञ्ञानि च कातुं. एहि त्वं, तात रट्ठपाल [रट्ठपाल सिक्खं पच्चक्खाय (सब्बत्थ)], हीनायावत्तित्वा भोगे च भुञ्जस्सु पुञ्ञानि च करोही’’ति. ‘‘सचे मे त्वं, गहपति, वचनं करेय्यासि, इमं हिरञ्ञसुवण्णस्स पुञ्जं सकटे आरोपेत्वा निब्बाहापेत्वा मज्झेगङ्गाय नदिया सोते ओपिलापेय्यासि. तं किस्स हेतु? ये उप्पज्जिस्सन्ति हि ते, गहपति, ततोनिदानं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा’’ति. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पुराणदुतियिका पच्चेकं पादेसु गहेत्वा आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोचुं – ‘‘कीदिसा नाम ता, अय्यपुत्त, अच्छरायो यासं त्वं हेतु ब्रह्मचरियं चरसी’’ति? ‘‘न खो मयं, भगिनी, अच्छरानं हेतु ब्रह्मचरियं चरामा’’ति. ‘‘भगिनिवादेन नो अय्यपुत्तो रट्ठपालो समुदाचरती’’ति ता तत्थेव मुच्छिता पपतिंसु. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो पितरं एतदवोच – ‘‘सचे, गहपति, भोजनं दातब्बं, देथ; मा नो विहेठेथा’’ति. ‘‘भुञ्ज, तात रट्ठपाल, निट्ठितं भत्त’’न्ति. अथ खो आयस्मतो रट्ठपालस्स पिता आयस्मन्तं रट्ठपालं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि.
३०२. अथ खो आयस्मा रट्ठपालो भुत्तावी ओनीतपत्तपाणी ठितकोव इमा गाथा अभासि –
‘‘पस्स चित्तीकतं बिम्बं, अरुकायं समुस्सितं;
आतुरं बहुसङ्कप्पं, यस्स नत्थि धुवं ठिति.
‘‘पस्स चित्तीकतं रूपं, मणिना कुण्डलेन च;
अट्ठि तचेन ओनद्धं, सह वत्थेभि सोभति.
‘‘अलत्तककता पादा, मुखं चुण्णकमक्खितं;
अलं बालस्स मोहाय, नो च पारगवेसिनो.
‘‘अट्ठापदकता केसा, नेत्ता अञ्जनमक्खिता;
अलं बालस्स मोहाय, नो च पारगवेसिनो.
‘‘अञ्जनीव नवा [अञ्जनीवण्णवा (क.)] चित्ता, पूतिकायो अलङ्कतो;
अलं बालस्स मोहाय, नो च पारगवेसिनो.
‘‘ओदहि मिगवो पासं, नासदा वाकरं मिगो;
भुत्वा निवापं गच्छाम [गच्छामि (स्या. क.)], कन्दन्ते मिगबन्धके’’ति.
अथ खो आयस्मा रट्ठपालो ठितकोव इमा गाथा भासित्वा येन रञ्ञो कोरब्यस्स मिगचीरं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसीदि.
३०३. अथ खो राजा कोरब्यो मिगवं आमन्तेसि – ‘‘सोधेहि, सम्म मिगव, मिगचीरं उय्यानभूमिं; गच्छाम सुभूमिं दस्सनाया’’ति. ‘‘एवं, देवा’’ति खो मिगवो रञ्ञो कोरब्यस्स पटिस्सुत्वा मिगचीरं सोधेन्तो अद्दस आयस्मन्तं रट्ठपालं अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसिन्नं. दिस्वान येन राजा कोरब्यो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा राजानं कोरब्यं एतदवोच – ‘‘सुद्धं खो ते, देव, मिगचीरं. अत्थि चेत्थ रट्ठपालो नाम कुलपुत्तो इमस्मिंयेव थुल्लकोट्ठिके अग्गकुलस्स पुत्तो यस्स त्वं अभिण्हं कित्तयमानो अहोसि, सो अञ्ञतरस्मिं रुक्खमूले दिवाविहारं निसिन्नो’’ति. ‘‘तेन हि, सम्म मिगव, अलं दानज्ज उय्यानभूमिया. तमेव दानि मयं भवन्तं रट्ठपालं पयिरुपासिस्सामा’’ति. अथ खो राजा कोरब्यो ‘‘यं तत्थ खादनीयं भोजनीयं पटियत्तं तं सब्बं विस्सज्जेथा’’ति वत्वा भद्रानि भद्रानि यानानि योजापेत्वा भद्रं यानं अभिरुहित्वा भद्रेहि भद्रेहि यानेहि थुल्लकोट्ठिकम्हा निय्यासि महच्चराजानुभावेन [महच्चा राजानुभावेन (सी.)] आयस्मन्तं रट्ठपालं दस्सनाय. यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव उस्सटाय उस्सटाय परिसाय येनायस्मा रट्ठपालो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता रट्ठपालेन सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठितो खो राजा कोरब्यो आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोच – ‘‘इध भवं रट्ठपाल हत्थत्थरे [कट्ठत्थरे (स्या. कं.)] निसीदतू’’ति. ‘‘अलं, महाराज, निसीद त्वं; निसिन्नो अहं सके आसने’’ति. निसीदि राजा कोरब्यो पञ्ञत्ते आसने. निसज्ज खो राजा कोरब्यो आयस्मन्तं रट्ठपालं एतदवोच –
३०४. ‘‘चत्तारिमानि, भो रट्ठपाल, पारिजुञ्ञानि येहि पारिजुञ्ञेहि समन्नागता इधेकच्चे केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति. कतमानि चत्तारि? जरापारिजुञ्ञं, ब्याधिपारिजुञ्ञं, भोगपारिजुञ्ञं, ञातिपारिजुञ्ञं. कतमञ्च, भो रट्ठपाल, जरापारिजुञ्ञं? इध, भो रट्ठपाल , एकच्चो जिण्णो होति वुड्ढो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अहं खोम्हि एतरहि जिण्णो वुड्ढो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो. न खो पन मया सुकरं अनधिगतं वा भोगं अधिगन्तुं अधिगतं वा भोगं फातिं कातुं [फातिकत्तुं (सी.)]. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो तेन जरापारिजुञ्ञेन समन्नागतो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति. इदं वुच्चति, भो रट्ठपाल, जरापारिजुञ्ञं. भवं खो पन रट्ठपालो एतरहि दहरो युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा. तं भोतो रट्ठपालस्स जरापारिजुञ्ञं नत्थि. किं भवं रट्ठपालो ञत्वा वा दिस्वा वा सुत्वा वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो?
‘‘कतमञ्च, भो रट्ठपाल, ब्याधिपारिजुञ्ञं? इध, भो रट्ठपाल, एकच्चो आबाधिको होति दुक्खितो बाळ्हगिलानो. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अहं खोम्हि एतरहि आबाधिको दुक्खितो बाळ्हगिलानो. न खो पन मया सुकरं अनधिगतं वा भोगं अधिगन्तुं अधिगतं वा भोगं फातिं कातुं . यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो तेन ब्याधिपारिजुञ्ञेन समन्नागतो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति. इदं वुच्चति, भो रट्ठपाल, ब्याधिपारिजुञ्ञं. भवं खो पन रट्ठपालो एतरहि अप्पाबाधो अप्पातङ्को समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय. तं भोतो रट्ठपालस्स ब्याधिपारिजुञ्ञं नत्थि. किं भवं रट्ठपालो ञत्वा वा दिस्वा वा सुत्वा वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो?
‘‘कतमञ्च , भो रट्ठपाल, भोगपारिजुञ्ञं? इध, भो रट्ठपाल, एकच्चो अड्ढो होति महद्धनो महाभोगो. तस्स ते भोगा अनुपुब्बेन परिक्खयं गच्छन्ति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘अहं खो पुब्बे अड्ढो अहोसिं महद्धनो महाभोगो. तस्स मे ते भोगा अनुपुब्बेन परिक्खयं गता. न खो पन मया सुकरं अनधिगतं वा भोगं अधिगन्तुं अधिगतं वा भोगं फातिं कातुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो तेन भोगपारिजुञ्ञेन समन्नागतो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति. इदं वुच्चति, भो रट्ठपाल, भोगपारिजुञ्ञं. भवं खो पन रट्ठपालो इमस्मिंयेव थुल्लकोट्ठिके अग्गकुलस्स पुत्तो. तं भोतो रट्ठपालस्स भोगपारिजुञ्ञं नत्थि. किं भवं रट्ठपालो ञत्वा वा दिस्वा वा सुत्वा वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो?
‘‘कतमञ्च , भो रट्ठपाल, ञातिपारिजुञ्ञं? इध, भो रट्ठपाल, एकच्चस्स बहू होन्ति मित्तामच्चा ञातिसालोहिता. तस्स ते ञातका अनुपुब्बेन परिक्खयं गच्छन्ति. सो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘ममं खो पुब्बे बहू अहेसुं मित्तामच्चा ञातिसालोहिता. तस्स मे ते अनुपुब्बेन परिक्खयं गता. न खो पन मया सुकरं अनधिगतं वा भोगं अधिगन्तुं अधिगतं वा भोगं फातिं कातुं. यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति. सो तेन ञातिपारिजुञ्ञेन समन्नागतो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति. इदं वुच्चति, भो रट्ठपाल, ञातिपारिजुञ्ञं. भोतो खो पन रट्ठपालस्स इमस्मिंयेव थुल्लकोट्ठिके बहू मित्तामच्चा ञातिसालोहिता. तं भोतो रट्ठपालस्स ञातिपारिजुञ्ञं नत्थि. किं भवं रट्ठपालो ञत्वा वा दिस्वा वा सुत्वा वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो?
‘‘इमानि खो, भो रट्ठपाल, चत्तारि पारिजुञ्ञानि, येहि पारिजुञ्ञेहि समन्नागता इधेकच्चे केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति. तानि भोतो रट्ठपालस्स नत्थि. किं भवं रट्ठपालो ञत्वा वा दिस्वा वा सुत्वा वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति?
३०५. ‘‘अत्थि खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मुद्देसा उद्दिट्ठा, ये अहं [यमहं (स्या. कं. क.)] ञत्वा च दिस्वा च सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो. कतमे चत्तारो? ‘उपनिय्यति लोको अद्धुवो’ति खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन पठमो धम्मुद्देसो उद्दिट्ठो, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो. ‘अताणो लोको अनभिस्सरो’ति खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन दुतियो धम्मुद्देसो उद्दिट्ठो, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो. ‘अस्सको लोको, सब्बं पहाय गमनीय’न्ति खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन ततियो धम्मुद्देसो उद्दिट्ठो, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो. ‘ऊनो लोको अतित्तो तण्हादासो’ति खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चतुत्थो धम्मुद्देसो उद्दिट्ठो, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो. इमे खो, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन चत्तारो धम्मुद्देसा उद्दिट्ठा, ये अहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति.
३०६. ‘‘‘उपनिय्यति लोको अद्धुवो’ति – भवं रट्ठपालो आह. इमस्स , भो रट्ठपाल, भासितस्स कथं अत्थो दट्ठब्बो’’ति? ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, त्वं वीसतिवस्सुद्देसिकोपि पण्णवीसतिवस्सुद्देसिकोपि हत्थिस्मिम्पि कतावी अस्सस्मिम्पि कतावी रथस्मिम्पि कतावी धनुस्मिम्पि कतावी थरुस्मिम्पि कतावी ऊरुबली बाहुबली अलमत्तो सङ्गामावचरो’’ति? ‘‘अहोसिं अहं, भो रट्ठपाल, वीसतिवस्सुद्देसिकोपि पण्णवीसतिवस्सुद्देसिकोपि हत्थिस्मिम्पि कतावी अस्सस्मिम्पि कतावी रथस्मिम्पि कतावी धनुस्मिम्पि कतावी थरुस्मिम्पि कतावी ऊरुबली बाहुबली अलमत्तो सङ्गामावचरो. अप्पेकदाहं, भो रट्ठपाल, इद्धिमाव मञ्ञे न [इद्धिमा मञ्ञे न (स्या. कं.), इद्धिमा च मञ्ञे (सी.), न विय मञ्ञे (क.)] अत्तनो बलेन समसमं समनुपस्सामी’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, एवमेव त्वं एतरहि ऊरुबली बाहुबली अलमत्तो सङ्गामावचरो’’ति? ‘‘नो हिदं, भो रट्ठपाल. एतरहि जिण्णो वुड्ढो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो आसीतिको मे वयो वत्तति. अप्पेकदाहं, भो रट्ठपाल, ‘इध पादं करिस्सामी’ति अञ्ञेनेव पादं करोमी’’ति. ‘‘इदं खो तं, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सन्धाय भासितं – ‘उपनिय्यति लोको अद्धुवो’ति, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति. ‘‘अच्छरियं, भो रट्ठपाल, अब्भुतं, भो रट्ठपाल! याव सुभासितं चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन – ‘उपनिय्यति लोको अद्धुवो’ति. उपनिय्यति हि , भो रट्ठपाल, लोको अद्धुवो.
‘‘संविज्जन्ते खो, भो रट्ठपाल, इमस्मिं राजकुले हत्थिकायापि अस्सकायापि रथकायापि पत्तिकायापि, अम्हाकं आपदासु परियोधाय वत्तिस्सन्ति. ‘अताणो लोको अनभिस्सरो’ति – भवं रट्ठपालो आह. इमस्स पन, भो रट्ठपाल, भासितस्स कथं अत्थो दट्ठब्बो’’ति? ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, अत्थि ते कोचि अनुसायिको आबाधो’’ति? ‘‘अत्थि मे, भो रट्ठपाल, अनुसायिको आबाधो. अप्पेकदा मं, भो रट्ठपाल, मित्तामच्चा ञातिसालोहिता परिवारेत्वा ठिता होन्ति – ‘इदानि राजा कोरब्यो कालं करिस्सति, इदानि राजा कोरब्यो कालं करिस्सती’’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, लभसि त्वं ते मित्तामच्चे ञातिसालोहिते – ‘आयन्तु मे भोन्तो मित्तामच्चा ञातिसालोहिता, सब्बेव सन्ता इमं वेदनं संविभजथ, यथाहं लहुकतरिकं वेदनं वेदियेय्य’न्ति – उदाहु त्वंयेव तं वेदनं वेदियसी’’ति? ‘‘नाहं, भो रट्ठपाल, लभामि ते मित्तामच्चे ञातिसालोहिते – ‘आयन्तु मे भोन्तो मित्तामच्चा ञातिसालोहिता, सब्बेव सन्ता इमं वेदनं संविभजथ, यथाहं लहुकतरिकं वेदनं वेदियेय्य’न्ति. अथ खो अहमेव तं वेदनं वेदियामी’’ति. ‘‘इदं खो तं, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सन्धाय भासितं – ‘अताणो लोको अनभिस्सरो’ति, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति. ‘‘अच्छरियं, भो रट्ठपाल, अब्भुतं, भो रट्ठपाल! याव सुभासितं चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन – ‘अताणो लोको अनभिस्सरो’ति. अताणो हि, भो रट्ठपाल, लोको अनभिस्सरो.
‘‘संविज्जति खो, भो रट्ठपाल, इमस्मिं राजकुले पहूतं हिरञ्ञसुवण्णं भूमिगतञ्च वेहासगतञ्च. ‘अस्सको लोको, सब्बं पहाय गमनीय’न्ति – भवं रट्ठपालो आह. इमस्स पन, भो रट्ठपाल, भासितस्स कथं अत्थो दट्ठब्बो’’ति? ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, यथा त्वं एतरहि पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेसि, लच्छसि त्वं परत्थापि – ‘एवमेवाहं इमेहेव पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेमी’ति, उदाहु अञ्ञे इमं भोगं पटिपज्जिस्सन्ति, त्वं पन यथाकम्मं गमिस्ससी’’ति? ‘‘यथाहं, भो रट्ठपाल, एतरहि पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेमि, नाहं लच्छामि परत्थापि – ‘एवमेव इमेहेव पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेमी’ति. अथ खो अञ्ञे इमं भोगं पटिपज्जिस्सन्ति; अहं पन यथाकम्मं गमिस्सामी’’ति. ‘‘इदं खो तं, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सन्धाय भासितं – ‘अस्सको लोको, सब्बं पहाय गमनीय’न्ति, यमहं ञत्वा च दिस्वा च सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति. ‘‘अच्छरियं, भो रट्ठपाल, अब्भुतं, भो रट्ठपाल! याव सुभासितं चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन – ‘अस्सको लोको , सब्बं पहाय गमनीय’न्ति . अस्सको हि, भो रट्ठपाल, लोको सब्बं पहाय गमनीयं.
‘‘‘ऊनो लोको अतित्तो तण्हादासो’ति – भवं रट्ठपालो आह. इमस्स, भो रट्ठपाल, भासितस्स कथं अत्थो दट्ठब्बो’’ति? ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, फीतं कुरुं अज्झावससी’’ति? ‘‘एवं, भो रट्ठपाल, फीतं कुरुं अज्झावसामी’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध पुरिसो आगच्छेय्य पुरत्थिमाय दिसाय सद्धायिको पच्चयिको. सो तं उपसङ्कमित्वा एवं वदेय्य – ‘यग्घे, महाराज, जानेय्यासि, अहं आगच्छामि पुरत्थिमाय दिसाय? तत्थद्दसं महन्तं जनपदं इद्धञ्चेव फीतञ्च बहुजनं आकिण्णमनुस्सं. बहू तत्थ हत्थिकाया अस्सकाया रथकाया पत्तिकाया; बहु तत्थ धनधञ्ञं [दन्ताजिनं (सी. स्या. कं. पी.)]; बहु तत्थ हिरञ्ञसुवण्णं अकतञ्चेव कतञ्च; बहु तत्थ इत्थिपरिग्गहो. सक्का च तावतकेनेव बलमत्तेन [बलत्थेन (सी. स्या. कं. पी.), बहलत्थेन (क.)] अभिविजिनितुं. अभिविजिन, महाराजा’ति, किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘तम्पि मयं, भो रट्ठपाल, अभिविजिय अज्झावसेय्यामा’’ति. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध पुरिसो आगच्छेय्य पच्छिमाय दिसाय… उत्तराय दिसाय… दक्खिणाय दिसाय… परसमुद्दतो सद्धायिको पच्चयिको. सो तं उपसङ्कमित्वा एवं वदेय्य – ‘यग्घे, महाराज, जानेय्यासि, अहं आगच्छामि परसमुद्दतो? तत्थद्दसं महन्तं जनपदं इद्धञ्चेव फीतञ्च बहुजनं आकिण्णमनुस्सं. बहू तत्थ हत्थिकाया अस्सकाया रथकाया पत्तिकाया; बहु तत्थ धनधञ्ञं; बहु तत्थ हिरञ्ञसुवण्णं अकतञ्चेव कतञ्च; बहु तत्थ इत्थिपरिग्गहो. सक्का च तावतकेनेव बलमत्तेन अभिविजिनितुं. अभिविजिन, महाराजा’ति, किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘तम्पि मयं, भो रट्ठपाल, अभिविजिय अज्झावसेय्यामा’’ति. ‘‘इदं खो तं, महाराज, तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सन्धाय भासितं – ‘ऊनो लोको अतित्तो तण्हादासो’ति, यमहं ञत्वा च दिस्वा सुत्वा च अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो’’ति. ‘‘अच्छरियं, भो रट्ठपाल, अब्भुतं, भो रट्ठपाल! याव सुभासितं चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन – ‘ऊनो लोको अतित्तो तण्हादासो’ति. ऊनो हि, भो रट्ठपाल, लोको अतित्तो तण्हादासो’’ति.
इदमवोच आयस्मा रट्ठपालो. इदं वत्वा अथापरं एतदवोच –
३०७. ‘‘पस्सामि लोके सधने मनुस्से,
लद्धान वित्तं न ददन्ति मोहा;
लुद्धा धनं [लद्धा धनं (क.)] सन्निचयं करोन्ति,
भिय्योव कामे अभिपत्थयन्ति.
‘‘राजा पसय्हा पथविं विजित्वा,
ससागरन्तं महिमावसन्तो [महिया वसन्तो (सी. क.)];
ओरं समुद्दस्स अतित्तरूपो,
पारं समुद्दस्सपि पत्थयेथ.
‘‘राजा च अञ्ञे च बहू मनुस्सा,
अवीततण्हा [अतित्ततण्हा (क.)] मरणं उपेन्ति;
ऊनाव हुत्वान जहन्ति देहं,
कामेहि लोकम्हि न हत्थि तित्ति.
‘‘कन्दन्ति नं ञाती पकिरिय केसे,
अहोवता नो अमराति चाहु;
वत्थेन नं पारुतं नीहरित्वा,
चितं समादाय [समाधाय (सी.)] ततोडहन्ति.
‘‘सो डय्हति सूलेहि तुज्जमानो,
एकेन वत्थेन पहाय भोगे;
न मीयमानस्स भवन्ति ताणा,
ञातीध मित्ता अथ वा सहाया.
‘‘दायादका तस्स धनं हरन्ति,
सत्तो पन गच्छति येन कम्मं;
न मीयमानं धनमन्वेति किञ्चि,
पुत्ता च दारा च धनञ्च रट्ठं.
‘‘न दीघमायुं लभते धनेन, न चापि वित्तेन जरं विहन्ति;
अप्पं हिदं जीवितमाहु धीरा, असस्सतं विप्परिणामधम्मं.
‘‘अड्ढा दलिद्दा च फुसन्ति फस्सं,
बालो च धीरो च तथेव फुट्ठो;
बालो च बाल्या वधितोव सेति,
धीरो च [धीरोव (क.)] न वेधति फस्सफुट्ठो.
‘‘तस्मा हि पञ्ञाव धनेन सेय्यो,
याय वोसानमिधाधिगच्छति;
अब्योसितत्ता [असोसितत्ता (सी. पी.)] हि भवाभवेसु,
पापानि कम्मानि करोन्ति मोहा.
‘‘उपेति गब्भञ्च परञ्च लोकं,
संसारमापज्ज परम्पराय;
तस्सप्पपञ्ञो अभिसद्दहन्तो,
उपेति गब्भञ्च परञ्च लोकं.
‘‘चोरो यथा सन्धिमुखे गहितो,
सकम्मुना हञ्ञति पापधम्मो;
एवं पजा पेच्च परम्हि लोके,
सकम्मुना हञ्ञति पापधम्मो.
‘‘कामाहि चित्रा मधुरा मनोरमा,
विरूपरूपेन मथेन्ति चित्तं;
आदीनवं कामगुणेसु दिस्वा,
तस्मा अहं पब्बजितोम्हि राज.
‘‘दुमप्फलानेव पतन्ति माणवा,
दहरा च वुड्ढा च सरीरभेदा;
एतम्पि दिस्वा [एवम्पि दिस्वा (सी.), एतं विदित्वा (स्या. कं.)] पब्बजितोम्हि राज,
अपण्णकं सामञ्ञमेव सेय्यो’’ति.
रट्ठपालसुत्तं निट्ठितं दुतियं.