ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान मिथिला के मघदेव आम्रवन में विहार कर रहे थे। वहाँ भगवान ने किसी विशेष जगह पर जाकर स्मित प्रकट किया।
तब आयुष्मान आनन्द को लगा, “किस कारण से, किस परिस्थिति में भगवान ने स्मित प्रकट किया? चूँकि तथागत अकारण स्मित प्रकट नहीं करते।”
तब आयुष्मान आनन्द ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, भगवान को हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए भगवान से कहा —
“भंते, किस कारण से, किस परिस्थिति में भगवान ने स्मित प्रकट किया? चूँकि तथागत अकारण स्मित प्रकट नहीं करते।”
“बहुत पहले की बात है, आनन्द। इसी मिथिला में राजा होते थे, मघदेव नामक, जो धार्मिक, धर्मराज, धर्म में स्थित महाराज थे। वे ब्राह्मण और (वैश्य) गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करते थे। वे अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करते थे।
तब, आनन्द, राजा मघदेव ने बहुत वर्ष, बहुत सैकड़ों वर्ष, बहुत हजारों वर्ष बीतने पर, अपने नाई को आमंत्रित किया, ‘भले नाई, जब भी मेरे सिर पर कभी पका बाल देखो, तो मुझे जरूर बताना।’
‘ठीक है, महाराज।’ उस नाई ने राजा मघदेव को उत्तर दिया। तब बहुत वर्ष, बहुत सैकड़ों वर्ष, बहुत हजारों वर्ष बीतने पर, नाई ने राजा मघदेव के सिर पर पका बाल देखा। देखकर उसने राजा मघदेव से कहा, ‘देवताओं के देवदूत प्रकट हुए। सिर पर पके बाल दिख रहे हैं।’
‘ठीक है, भले नाई। तब उसे चिमटे से अच्छे से उखाड़ो, और मेरी हथेली पर रखो।’
‘ठीक है, महाराज।’ उस नाई ने राजा मघदेव को उत्तर देकर उसे चिमटे से अच्छे से उखाड़ा, और राजा मघदेव की हथेली पर रख दिया। तब, आनन्द, राजा मघदेव ने नाई को गाँव इनाम में दिया, और अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को आमंत्रित कर कहा, ‘प्रिय राजकुमार, मेरे लिए देवदूत प्रकट हुए। सिर पर पके बाल दिखायी दे रहे हैं। मैंने अपनी मानवीय कामुकता का भोग कर लिया। अब समय है दिव्य कामुकता की खोज करने का।
आओ, प्रिय राजकुमार, तुम देश पर राज करो। मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होऊँगा।’ 1
और, प्रिय राजकुमार, जब कभी तुम्हारे भी सिर पर पके बाल दिखायी दे, तब नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होना। मेरे बनाए इस कल्याणकारी व्रत का अनुसरण करना। मेरा अंतिम पुरुष मत बनना।"
और तब, आनन्द, राजा मघदेव ने नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए।
तब उन्होंने सद्भावपूर्ण (“मेत्ता”) चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
(उसी तरह) करुण चित्त को… प्रसन्न चित्त को… तटस्थ चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
आनन्द, राजा मघदेव ने चौरासी हजार वर्ष बच्चों के खेल खेले [=बचपना]। चौरासी हजार वर्ष उपराज [=राज प्रतिनिधित्व] किया। चौरासी हजार वर्ष राजशासन किया। और चौरासी हजार वर्ष इसी मघदेव आम्रवन में घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर ब्रह्मचर्य का पालन किया। और चार ब्रह्मविहार को विकसित कर, मरणोपरांत काया छूटने पर ब्रह्मलोक गए।
तब, आनन्द, राजा मघदेव के पुत्र ने बहुत वर्ष, बहुत सैकड़ों वर्ष, बहुत हजारों वर्ष बीतने पर, अपने नाई को आमंत्रित किया, ‘भले नाई, जब भी मेरे सिर पर कभी पका बाल देखो, तो मुझे जरूर बताना’…
और तब, आनन्द, राजा मघदेव के पुत्र ने नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुआ…
और राजा मघदेव के पुत्र ने चौरासी हजार वर्ष इसी मघदेव आम्रवन में घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर ब्रह्मचर्य का पालन किया। और चार ब्रह्मविहार को विकसित कर, मरणोपरांत काया छूटने पर ब्रह्मलोक गया।
और इसी तरह, आनन्द, मघदेव के पुत्र के पुत्रों की चौरासी हजार पीढ़ियों ने नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए…
और मघदेव के पुत्र के पुत्रों की चौरासी हजार पीढ़ियों ने इसी मघदेव आम्रवन में घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर ब्रह्मचर्य का पालन किया। और चार ब्रह्मविहार को विकसित कर, मरणोपरांत काया छूटने पर सब ब्रह्मलोक गए।
उनमें निमि राजा अंतिम हुए, जो धार्मिक, धर्मराज, धर्म में स्थित महाराज थे। वे भी ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करते थे। वे अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करते थे।
बहुत पहले की बात है, आनन्द, तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में एकत्र होकर बैठे थे। तब उनमें यह चर्चा हुई, ‘विदेहा के लोग भाग्यशाली हैं, श्रीमान! विदेहा के लोग सौभाग्यशाली हैं, जो उनमें निमि राजा धार्मिक, धर्मराज, धर्म में स्थित महाराज हैं। वे ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करते हैं। वे अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करते हैं।’
तब, आनन्द, देवराज इन्द्र ने तैतीस देवताओं को संबोधित किया, ‘महाशयों, क्या आपकी निमि राजा को देखने की इच्छा हैं?’
‘हाँ, महाशय! हमारी निमि राजा को देखने की इच्छा है।’
उस समय, आनन्द, निमि राजा पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथ-कक्ष में बैठा था। तब, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, देवराज इन्द्र तैतीस देवलोक से विलुप्त हुआ और निमि राजा के समक्ष प्रकट हुआ। और, आनन्द, देवराज इन्द्र ने निमि राजा से कहा —
‘आप भाग्यशाली है, महाराज! आप सौभाग्यशाली है, जो तैतीस देवतागण सुधम्म सभा में आपकी किर्ति करते हुए बैठे हैं, (कहते हुए,) “विदेहा के लोग भाग्यशाली हैं, श्रीमान! विदेहा के लोग सौभाग्यशाली हैं, जो उनमें निमि राजा धार्मिक, धर्मराज, धर्म में स्थित महाराज हैं। वे ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करते हैं। वे अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करते हैं।”
महाराज, तैतीस देवतागण आपका दर्शन करना चाहते हैं। इसलिए, महाराज, मैं हजार अच्छे नस्ल के (अश्वों) से जुता रथ भेजूँगा। उस दिव्य यान पर चढ़िएगा, महाराज, बिना कपकपी (=डर) के।’
तब निमि राजा ने, आनन्द, मौन स्वीकृति दी।
तब निमि राजा की स्वीकृति जानकर, आनन्द, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, देवराज इन्द्र निमि राजा के सामने से विलुप्त हुआ और तैतीस देवलोक में प्रकट हुआ। और अपने रथ-सारथी मातलि को संबोधित किया, ‘भले मातलि, हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ को लेकर निमि राजा के पास जाओ, और कहो — महाराज, देवराज इन्द्र ने इस हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ को भेजा है। इस दिव्य यान पर चढ़िए, महाराज, बिना कपकपी के।’
‘ठीक है, स्वामी।’ रथ-सारथी मातलि ने देवराज इन्द्र को उत्तर देकर हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ को लेकर निमि राजा के पास गया, और कहा, ‘महाराज, देवराज इन्द्र ने इस हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ को भेजा है। इस दिव्य यान पर चढ़िए, महाराज, बिना कपकपी के। किन्तु, महाराज, आपको किस रास्ते से ले जाऊँ? जिस रास्ते से पापकारी कर्मों के पापी फलों को भोगा जाता है, अथवा जिस रास्ते से कल्याणकारी कर्मों के कल्याणकारी फलों को भोगा जाता है?’
‘मुझे दोनों ही रास्तों से ले जाओ, मातलि।’ 2
तब, आनन्द, रथ-सारथी मातलि ने निमि राजा को सुधम्म सभा तक पहुँचा दिया। देवराज इन्द्र ने निमि राजा को दूर से आते हुए देखा। देखकर निमि राजा से कहा —
‘आइये, महाराज! स्वागत है, महाराज! महाराज, तैतीस देवतागण आपका दर्शन करना चाहते हैं, जो इस समय सुधम्म सभा में आपकी किर्ति करते हुए बैठे हैं, (कहते हुए,) “विदेहा के लोग भाग्यशाली हैं, श्रीमान! विदेहा के लोग सौभाग्यशाली हैं, जो उनमें निमि राजा धार्मिक, धर्मराज, धर्म में स्थित महाराज हैं। वे ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करते हैं। वे अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करते हैं।” महाराज, तैतीस देवतागण आपका दर्शन करना चाहते हैं। देवताओं की दिव्य शक्तियों का आनन्द लें, महाराज।’
‘बहुत हुआ, महाशय! मुझे अभी मिथिला भेज दे। मैं उसी तरह ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार करूँगा। और अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण करूँगा।’ 3
तब, आनन्द, देवराज इन्द्र ने रथ-सारथी मातलि को संबोधित किया, ‘भले मातलि, हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ से निमि राजा को अभी मिथिला ले जाओ।’
‘ठीक है, स्वामी।’ रथ-सारथी मातलि ने देवराज इन्द्र को उत्तर देकर हजार अच्छे नस्ल से जुते रथ से निमि राजा को तत्काल मिथिला छोड़ आया। जहाँ, आनन्द, निमि राजा ने ब्राह्मण और गृहस्थों, देश और नगरों की जनता के साथ धर्मानुसार व्यवहार किया। और अमावस्या, पुर्णिमा और अष्टमियों पर उपोसथ धारण किया।
तब, आनन्द, राजा निमि ने बहुत वर्ष, बहुत सैकड़ों वर्ष, बहुत हजारों वर्ष बीतने पर, अपने नाई को आमंत्रित किया, ‘भले नाई, जब भी मेरे सिर पर कभी पका बाल देखो, तो मुझे जरूर बताना।’
‘ठीक है, महाराज।’ उस नाई ने राजा निमि को उत्तर दिया। तब बहुत वर्ष, बहुत सैकड़ों वर्ष, बहुत हजारों वर्ष बीतने पर, नाई ने राजा निमि के सिर पर पका बाल देखा। देखकर उसने राजा निमि से कहा, ‘देवताओं के देवदूत प्रकट हुए। सिर पर पके बाल दिख रहे हैं।’
‘ठीक है, भले नाई। तब उसे चिमटे से अच्छे से उखाड़ो, और मेरी हथेली पर रखो।’
‘ठीक है, महाराज।’ उस नाई ने राजा निमि को उत्तर देकर उसे चिमटे से अच्छे से उखाड़ा, और राजा निमि की हथेली पर रख दिया। तब, आनन्द, राजा निमि ने नाई को गाँव इनाम में दिया, और अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को आमंत्रित कर कहा, ‘प्रिय राजकुमार, मेरे लिए देवदूत प्रकट हुए। सिर पर पके बाल दिखायी दे रहे हैं। मैंने अपनी मानवीय कामुकता का भोग कर लिया। अब समय है दिव्य कामुकता की खोज करने का।
आओ, प्रिय राजकुमार, तुम देश पर राज करो। मैं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होऊँगा।’
और, प्रिय राजकुमार, जब कभी तुम्हारे भी सिर पर पके बाल दिखायी दे, तब नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होना। मेरे इस कल्याणकारी व्रत का अनुसरण करना। मेरा अंतिम पुरुष मत बनना।"
और तब, आनन्द, राजा निमि ने नाई को गाँव इनाम में देकर, अपने ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार को राज्य के नियम ठीक से समझाकर, स्वयं सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित हुए।
तब उन्होंने सद्भावपूर्ण चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम सद्भावपूर्ण चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
(उसी तरह) करुण चित्त को… प्रसन्न चित्त को… तटस्थ चित्त को एक दिशा में फैलाकर व्याप्त किया। उसी तरह दूसरी दिशा में… तीसरी दिशा में… चौथी दिशा में। उसी तरह, उन्होंने ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… सभी ओर संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर, निर्द्वेष, विस्तृत, विराट और असीम करुण… प्रसन्न… तटस्थ चित्त को फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त किया।
आनन्द, राजा निमि ने चौरासी हजार वर्ष बच्चों के खेल खेले। चौरासी हजार वर्ष उपराज किया। चौरासी हजार वर्ष राजशासन किया। और चौरासी हजार वर्ष इसी निमि आम्रवन में घर से बेघर होकर प्रवज्जित होकर ब्रह्मचर्य का पालन किया। और चार ब्रह्मविहार को विकसित कर, मरणोपरांत काया छूटने पर ब्रह्मलोक गए।
अब, आनन्द, निमि राजा का कळारजनक नामक पुत्र था। वह घर से बेघर होकर प्रवज्जित नहीं हुआ। उसने वह कल्याणकारी व्रत तोड़ दी। वह अंतिम पुरुष बना।
हो सकता है, आनन्द, कि तुम्हें लगे, ‘अवश्य उस समय राजा मघदेव कोई और होगा, जिसने वह कल्याणकारी व्रत बनाया था।’ किन्तु, आनन्द, तुम्हें ऐसे नहीं देखना चाहिए। मैं ही उस समय राजा मघदेव था। मैंने ही वह कल्याणकारी व्रत शुरू की थी। मैंने ही वह कल्याणकारी व्रत बनाया था। पश्चात जनता ने उसका अनुसरण किया।
किन्तु, आनन्द, वह कल्याणकारी व्रत न मोहभंग कराता, न विराग कराता, न निरोध कराता, न रोकथाम कराता, न प्रत्यक्ष-ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण दिलाता था। बल्कि केवल ब्रह्मलोक की प्राप्ति कराता। 4
किन्तु, आनन्द, इस समय मेरा कल्याणकारी व्रत नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है। कौन-सा कल्याणकारी व्रत, आनन्द, नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है?
यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग! अर्थात, सम्यक-दृष्टि, सम्यक-संकल्प, सम्यक-वचन, सम्यक-कार्य, सम्यक-जीविका, सम्यक-प्रयास, सम्यक-स्मृति, और सम्यक-समाधि। यह कल्याणकारी व्रत, आनन्द, नितांत मोहभंग कराता है, विराग कराता है, निरोध कराता है, रोकथाम कराता है, प्रत्यक्ष-ज्ञान, संबोधि, और निर्वाण दिलाता है।
और, आनन्द, मैं तुम्हें कहता हूँ — ‘मेरे बनाए इस कल्याणकारी व्रत का अनुसरण करना। तुम में से कोई मेरा अंतिम पुरुष मत बनना।’
जब दो पुरुष ऐसे ही कोई कल्याणकारी व्रत का अनुसरण कर रहे हो, तब जो भी उसे तोड़ता है, वही उनमें अंतिम पुरुष बनता है। इसलिए, आनन्द, मैं तुम्हें कहता हूँ — ‘मेरे बनाए इस कल्याणकारी व्रत का अनुसरण करना। तुम में से कोई मेरा अंतिम पुरुष मत बनना।’”
भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर आयुष्मान आनन्द ने भगवान की बात का अभिनंदन किया।
प्राचीन भारत में एक अच्छे शासक का यह धर्म था कि बुढ़ापे का पहला संकेत मिलते ही सत्ता से निवृत्त होना, सत्ता को पुनः किसी युवा को सौपकर खुद संन्यास लेना। आजकल… बुढ़ापा, संन्यास और सत्ता का रिश्ता कुछ बदला-बदला सा दिखता है! ↩︎
निमि राजा के ऐसा कहने के बावजूद, यहाँ निचले लोकों की यात्रा का कोई उल्लेख नहीं किया गया। शायद यह कुछ साहित्य खोने की ओर इशारा करता है। हालांकि, इसका विवरण जातक अट्ठकथा ५४१ में बताया गया है। जबकि राजा मघदेव की कथा जातक अट्ठकथा ९ में बतायी गयी है।
दूसरी बात, इंटरनेट पर आज भी कई ऐसे साक्षात्कार मौजूद हैं, जिनमें खासकर ईसाई लोग यह बताते हैं कि उन्होंने कुछ दिनों का धार्मिक उपवास (उपोसथ नहीं) किया, और उस दौरान किसी देवता या देवदूत ने आकर उनसे यह सवाल पूछा: “मैं आपको किस रास्ते से ले जाऊँ? नर्क से होकर, या स्वर्ग से होकर?” कई लोग दोनों रास्ते चुनते हैं, और फिर वह देवता या देवदूत उन्हें नर्क और स्वर्ग दोनों की सैर कराता है। इसके बाद वे अपने शरीर में लौट आते हैं और उनका जीवन बदल जाता है। वे आम जनता को चेतावनी देने के लिए “नर्क की गवाही” या “स्वर्ग की गवाही” देते हैं। यूट्यूब पर सर्च करें, ऐसे कई वीडियो मिल जाएंगे। ↩︎
आते ही निमि राजा ने यह बात कहनी शुरू की, शायद यह इस बात का संकेत है कि वे नर्क के रास्ते से होकर आए थे, जहां उन्होंने भयंकर पीड़ा और दुखद परिणाम देखे। इससे वे विचलित हो गए थे और स्वर्ग में पहुँचते ही उन्हें कर्मों की महत्ता का गहरा अहसास हुआ। इस अनुभव ने उनमें तीव्र संवेग जागृत किया। परिणामस्वरूप, वे तैतीस देवताओं के दर्शन में अब कोई दिलचस्पी नहीं रखते थे, बल्कि वे और भी गहरी श्रद्धा और संकल्प के साथ धर्मानुसार आचरण करने और उपोसथ पालन करने की दिशा में पूरी तन्मयता से अग्रसर हो गए। ↩︎
गौर करें कि यहाँ भगवान ने पारमि की संकल्पना को ध्वस्त किया है। पारमि सिद्धांत के अनुसार, बोधिसत्व ने अपने पूर्वजन्मों में जो भी अभ्यास किया, वह संबोधि की ओर बढ़ाता था। हालांकि, यहाँ भगवान यह स्पष्ट करते हैं कि उनके पूर्वजन्मों के अभ्यासों ने संबोधि की प्राप्ति में कोई योगदान नहीं किया। बल्कि, केवल ब्रह्मलोक की प्राप्ति करायी। आगे पढ़ने पर पता चलता है कि यह केवल आर्य अष्टांगिक मार्ग ही है, जो वास्तव में संबोधि की ओर ले जाता है। ठीक इसी बात को भगवान ने दीघनिकाय १९ के अंत में भी दोहराया। ↩︎
३०८. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मिथिलायं विहरति मघदेवअम्बवने [मखादेवअम्बवने (सी. पी.), मग्घदेवअम्बवने (क.)]. अथ खो भगवा अञ्ञतरस्मिं पदेसे सितं पात्वाकासि. अथ खो आयस्मतो आनन्दस्स एतदहोसि – ‘‘को नु खो हेतु, को पच्चयो भगवतो सितस्स पातुकम्माय? न अकारणेन तथागता सितं पातुकरोन्ती’’ति. अथ खो आयस्मा आनन्दो एकंसं चीवरं कत्वा येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो भगवतो सितस्स पातुकम्माय? न अकारणेन तथागता सितं पातुकरोन्ती’’ति. ‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, इमिस्सायेव मिथिलायं राजा अहोसि मघदेवो नाम धम्मिको धम्मराजा धम्मे ठितो महाराजा; धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्स. अथ खो, आनन्द, राजा मघदेवो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन कप्पकं आमन्तेसि – ‘यदा मे, सम्म कप्पक, पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ मे आरोचेय्यासी’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको रञ्ञो मघदेवस्स पच्चस्सोसि. अद्दसा खो, आनन्द, कप्पको बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन रञ्ञो मघदेवस्स सिरस्मिं पलितानि जातानि. दिस्वान राजानं मघदेवं एतदवोच – ‘पातुभूता खो देवस्स देवदूता, दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानी’ति. ‘तेन हि, सम्म कप्पक, तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा मम अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेही’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको रञ्ञो मघदेवस्स पटिस्सुत्वा तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा रञ्ञो मघदेवस्स अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेसि.
३०९. ‘‘अथ खो, आनन्द, राजा मघदेवो कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘पातुभूता खो मे, तात कुमार, देवदूता; दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानि; भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा; समयो दिब्बे कामे परियेसितुं. एहि त्वं, तात कुमार, इमं रज्जं पटिपज्ज. अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि. तेन हि, तात कुमार, यदा त्वम्पि पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यासि. येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसि. यस्मिं खो, तात कुमार, पुरिसयुगे वत्तमाने एवरूपस्स कल्याणस्स वत्तस्स समुच्छेदो होति सो तेसं अन्तिमपुरिसो होति. तं ताहं, तात कुमार, एवं वदामि – येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसी’ति. अथ खो, आनन्द, राजा मघदेवो कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि. सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन [अब्यापज्झेन (सी. स्या. कं. पी.), अब्यापज्जेन (क.)] फरित्वा विहासि. करुणासहगतेन चेतसा… मुदितासहगतेन चेतसा… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहासि.
‘‘राजा खो पनानन्द, मघदेवो चतुरासीतिवस्ससहस्सानि कुमारकीळितं कीळि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि रज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो ब्रह्मचरियमचरि. सो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकूपगो अहोसि.
३१०. ‘‘अथ खो रञ्ञो, आनन्द, मघदेवस्स पुत्तो बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन कप्पकं आमन्तेसि – ‘यदा मे, सम्म कप्पक, पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ खो आरोचेय्यासी’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तस्स पच्चस्सोसि. अद्दसा खो, आनन्द, कप्पको बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तस्स सिरस्मिं पलितानि जातानि. दिस्वान रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तं एतदवोच – ‘पातुभूता खो देवस्स देवदूता; दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानी’ति. ‘तेन हि, सम्म कप्पक, तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा मम अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेही’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तस्स पटिस्सुत्वा तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तस्स अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेसि.
‘‘अथ खो, आनन्द, रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तो कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘पातुभूता खो, मे, तात कुमार, देवदूता; दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानि; भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा; समयो दिब्बे कामे परियेसितुं. एहि त्वं, तात कुमार, इमं रज्जं पटिपज्ज. अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि. तेन हि, तात कुमार, यदा त्वम्पि पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यासि. येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसि. यस्मिं खो, तात कुमार, पुरिसयुगे वत्तमाने एवरूपस्स कल्याणस्स वत्तस्स समुच्छेदो होति सो तेसं अन्तिमपुरिसो होति. तं ताहं, तात कुमार, एवं वदामि – येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसी’ति. अथ खो, आनन्द, रञ्ञो मघदेवस्स पुत्तो कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि. सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहासि. करुणासहगतेन चेतसा… मुदितासहगतेन चेतसा… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहासि. रञ्ञो खो पनानन्द, मघदेवस्स पुत्तो चतुरासीतिवस्ससहस्सानि कुमारकीळितं कीळि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि रज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो ब्रह्मचरियमचरि. सो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकूपगो अहोसि.
३११. ‘‘रञ्ञो खो पनानन्द, मघदेवस्स पुत्तपपुत्तका तस्स परम्परा चतुरासीतिराजसहस्सानि [चतुरासीतिखत्तियसहस्सानि (सी. पी.), चतुरासीतिसहस्सानि (स्या. कं.)] इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिंसु. ते मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरिंसु, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिंसु. करुणासहगतेन चेतसा… मुदितासहगतेन चेतसा… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहरिंसु, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहरिंसु. चतुरासीतिवस्ससहस्सानि कुमारकीळितं कीळिंसु, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसुं, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि रज्जं कारेसुं, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने अगारस्मा अनगारियं पब्बजिता ब्रह्मचरियमचरिंसु. ते चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकूपगा अहेसुं. निमि तेसं राजा [राजानं (सी. पी.)] पच्छिमको अहोसि धम्मिको धम्मराजा धम्मे ठितो महाराजा; धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्स.
३१२. ‘‘भूतपुब्बं, आनन्द, देवानं तावतिंसानं सुधम्मायं सभायं सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयमन्तराकथा उदपादि – ‘लाभा वत, भो, विदेहानं, सुलद्धं वत, भो, विदेहानं, येसं निमि राजा धम्मिको धम्मराजा धम्मे ठितो महाराजा; धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्सा’ति. अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो देवे तावतिंसे आमन्तेसि – ‘इच्छेय्याथ नो तुम्हे, मारिसा, निमिं राजानं दट्ठु’न्ति? ‘इच्छाम मयं, मारिस, निमिं राजानं दट्ठु’न्ति. तेन खो पन, आनन्द, समयेन निमि राजा तदहुपोसथे पन्नरसे सीसंन्हातो [ससीसं नहातो (सी.), सीसन्हातो (स्या. कं.)] उपोसथिको उपरिपासादवरगतो निसिन्नो होति. अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – देवेसु तावतिंसेसु अन्तरहितो निमिस्स रञ्ञो पमुखे पातुरहोसि. अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो निमिं राजानं एतदवोच – ‘लाभा ते, महाराज, सुलद्धं ते, महाराज. देवा, महाराज, तावतिंसा सुधम्मायं सभायं कित्तयमानरूपा सन्निसिन्ना – ‘‘लाभा वत, भो, विदेहानं, सुलद्धं वत, भो, विदेहानं, येसं निमि राजा धम्मिको धम्मराजा धम्मे ठितो महाराजा; धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्सा’’ति. देवा ते, महाराज, तावतिंसा दस्सनकामा. तस्स ते अहं, महाराज, सहस्सयुत्तं आजञ्ञरथं पहिणिस्सामि; अभिरुहेय्यासि, महाराज, दिब्बं यानं अविकम्पमानो’ति. अधिवासेसि खो, आनन्द, निमि राजा तुण्हीभावेन.
३१३. ‘‘अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो निमिस्स रञ्ञो अधिवासनं विदित्वा – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – निमिस्स रञ्ञो पमुखे अन्तरहितो देवेसु तावतिंसेसु पातुरहोसि. अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो मातलिं सङ्गाहकं आमन्तेसि – ‘एहि त्वं, सम्म मातलि, सहस्सयुत्तं आजञ्ञरथं योजेत्वा निमिं राजानं उपसङ्कमित्वा एवं वदेहि – अयं ते, महाराज, सहस्सयुत्तो आजञ्ञरथो सक्केन देवानमिन्देन पेसितो; अभिरुहेय्यासि, महाराज, दिब्बं यानं अविकम्पमानो’ति. ‘एवं, भद्दन्तवा’ति खो, आनन्द, मातलि सङ्गाहको सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा सहस्सयुत्तं आजञ्ञरथं योजेत्वा निमिं राजानं उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘अयं ते, महाराज, सहस्सयुत्तो आजञ्ञरथो सक्केन देवानमिन्देन पेसितो; अभिरुह, महाराज, दिब्बं यानं अविकम्पमानो. अपि च, महाराज, कतमेन तं नेमि, येन वा पापकम्मा पापकानं कम्मानं विपाकं पटिसंवेदेन्ति, येन वा कल्याणकम्मा कल्याणकम्मानं विपाकं पटिसंवेदेन्ती’ति? ‘उभयेनेव मं, मातलि, नेही’ति. सम्पवेसेसि [सम्पापेसि (सी. पी.)] खो, आनन्द, मातलि, सङ्गाहको निमिं राजानं सुधम्मं सभं. अद्दसा खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो निमिं राजानं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान निमिं राजानं एतदवोच – ‘एहि खो, महाराज. स्वागतं, महाराज. देवा ते दस्सनकामा, महाराज, तावतिंसा सुधम्मायं सभायं कित्तयमानरूपा सन्निसिन्ना – ‘‘लाभा वत, भो, विदेहानं, सुलद्धं वत, भो, विदेहानं, येसं निमि राजा धम्मिको धम्मराजा धम्मे ठितो महाराजा; धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्सा’’ति. देवा ते, महाराज, तावतिंसा दस्सनकामा . अभिरम, महाराज, देवेसु देवानुभावेना’ति. ‘अलं, मारिस, तत्थेव मं मिथिलं पटिनेतु. तथाहं धम्मं चरिस्सामि ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च; उपोसथञ्च उपवसामि चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्सा’ति.
३१४. ‘‘अथ खो, आनन्द, सक्को देवानमिन्दो मातलिं सङ्गाहकं आमन्तेसि – ‘एहि त्वं, सम्म मातलि, सहस्सयुत्तं आजञ्ञरथं योजेत्वा निमिं राजानं तत्थेव मिथिलं पटिनेही’ति. ‘एवं, भद्दन्तवा’ति खो, आनन्द, मातलि सङ्गाहको सक्कस्स देवानमिन्दस्स पटिस्सुत्वा सहस्सयुत्तं आजञ्ञरथं योजेत्वा निमिं राजानं तत्थेव मिथिलं पटिनेसि. तत्र सुदं, आनन्द, निमि राजा धम्मं चरति ब्राह्मणगहपतिकेसु नेगमेसु चेव जानपदेसु च, उपोसथञ्च उपवसति चातुद्दसिं पञ्चदसिं अट्ठमिञ्च पक्खस्साति. अथ खो, आनन्द, निमि राजा बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन कप्पकं आमन्तेसि – ‘यदा मे, सम्म कप्पक, पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ मे आरोचेय्यासी’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको निमिस्स रञ्ञो पच्चस्सोसि. अद्दसा खो, आनन्द, कप्पको बहूनं वस्सानं बहूनं वस्ससतानं बहूनं वस्ससहस्सानं अच्चयेन निमिस्स रञ्ञो सिरस्मिं पलितानि जातानि. दिस्वान निमिं राजानं एतदवोच – ‘पातुभूता खो देवस्स देवदूता; दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानी’ति. ‘तेन हि, सम्म कप्पक, तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा मम अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेही’ति. ‘एवं, देवा’ति खो, आनन्द, कप्पको निमिस्स रञ्ञो पटिस्सुत्वा तानि पलितानि साधुकं सण्डासेन उद्धरित्वा निमिस्स रञ्ञो अञ्जलिस्मिं पतिट्ठापेसि. अथ खो, आनन्द, निमि राजा कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं आमन्तापेत्वा एतदवोच – ‘पातुभूता खो मे, तात कुमार, देवदूता; दिस्सन्ति सिरस्मिं पलितानि जातानि; भुत्ता खो पन मे मानुसका कामा; समयो दिब्बे कामे परियेसितुं. एहि त्वं, तात कुमार, इमं रज्जं पटिपज्ज. अहं पन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिस्सामि. तेन हि, तात कुमार, यदा त्वम्पि पस्सेय्यासि सिरस्मिं पलितानि जातानि, अथ कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्यासि. येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसि. यस्मिं खो, तात कुमार, पुरिसयुगे वत्तमाने एवरूपस्स कल्याणस्स वत्तस्स समुच्छेदो होति सो तेसं अन्तिमपुरिसो होति. तं ताहं, तात कुमार, एवं वदामि – ‘येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्यासि, मा खो मे त्वं अन्तिमपुरिसो अहोसी’ति.
३१५. ‘‘अथ खो, आनन्द, निमि राजा कप्पकस्स गामवरं दत्वा जेट्ठपुत्तं कुमारं साधुकं रज्जे समनुसासित्वा इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजि. सो मेत्तासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं , तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं मेत्तासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहासि. करुणासहगतेन चेतसा… मुदितासहगतेन चेतसा… उपेक्खासहगतेन चेतसा एकं दिसं फरित्वा विहासि, तथा दुतियं, तथा ततियं, तथा चतुत्थं; इति उद्धमधो तिरियं सब्बधि सब्बत्तताय सब्बावन्तं लोकं उपेक्खासहगतेन चेतसा विपुलेन महग्गतेन अप्पमाणेन अवेरेन अब्याबज्झेन फरित्वा विहासि. निमि खो, पनानन्द, राजा चतुरासीतिवस्ससहस्सानि कुमारकीळितं कीळि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि ओपरज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि रज्जं कारेसि, चतुरासीतिवस्ससहस्सानि इमस्मिंयेव मघदेवअम्बवने अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो ब्रह्मचरियमचरि. सो चत्तारो ब्रह्मविहारे भावेत्वा कायस्स भेदा परं मरणा ब्रह्मलोकूपगो अहोसि. निमिस्स खो पनाननन्द , रञ्ञो कळारजनको नाम पुत्तो अहोसि. न सो अगारस्मा अनगारियं पब्बजि. सो तं कल्याणं वत्तं समुच्छिन्दि. सो तेसं अन्तिमपुरिसो अहोसि.
३१६. ‘‘सिया खो पन ते, आनन्द, एवमस्स – ‘अञ्ञो नून तेन समयेन राजा मघदेवो अहोसि, येन तं कल्याणं वत्तं निहित’न्ति [यो तं कल्याणं वत्तं निहिनीति (सी.)]. न खो पनेतं, आनन्द, एवं दट्ठब्बं. अहं तेन समयेन राजा मघदेवो अहोसिं. (अहं तं कल्याणं वत्तं निहिनिं,) [( ) नत्थि (क.)] मया तं कल्याणं वत्तं निहितं; पच्छिमा जनता अनुप्पवत्तेसि. तं खो पनानन्द, कल्याणं वत्तं न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव ब्रह्मलोकूपपत्तिया. इदं खो पनानन्द, एतरहि मया कल्याणं वत्तं निहितं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति. कतमञ्चानन्द, एतरहि मया कल्याणं वत्तं निहितं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि, सम्मासङ्कप्पो, सम्मावाचा, सम्माकम्मन्तो, सम्माआजीवो, सम्मावायामो , सम्मासति, सम्मासमाधि. इदं खो, आनन्द, एतरहि मया कल्याणं वत्तं निहितं एकन्तनिब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति. तं वो अहं, आनन्द, एवं वदामि – ‘येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्याथ, मा खो मे तुम्हे अन्तिमपुरिसा अहुवत्थ’. यस्मिं खो, आनन्द, पुरिसयुगे वत्तमाने एवरूपस्स कल्याणस्स वत्तस्स समुच्छेदो होति सो तेसं अन्तिमपुरिसो होति. तं वो अहं, आनन्द, एवं वदामि – ‘येन मे इदं कल्याणं वत्तं निहितं अनुप्पवत्तेय्याथ, मा खो मे तुम्हे अन्तिमपुरिसा अहुवत्था’’’ति.
इदमवोच भगवा. अत्तमनो आयस्मा आनन्दो भगवतो भासितं अभिनन्दीति.
मघदेवसुत्तं निट्ठितं ततियं.