नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 मथुरा में धर्म

सूत्र परिचय

मथुरा उत्तर प्रदेश का एक प्राचीन और ऐतिहासिक नगर है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि के रूप में जाना जाता है। यमुना के तट पर बसा यह शहर धार्मिक और सांस्कृतिक दृष्टि से अतिसम्मानित है। इसकी गलियों में मंदिरों की अनंत श्रृंखला, उत्सवों की रौनक और ब्रज संस्कृति की मीठी छाप स्पष्ट दिखती है। ब्रजवासियों की बोली, पहनावा और परंपराएँ उनकी सरलता व भक्ति-भाव को जीवित रखती हैं।

परंतु बौद्ध सूत्रों में एक भिन्न तस्वीर मिलती है — मथुरा श्रमणों के लिए अनुकूल नहीं माना गया। भगवान बुद्ध ने जीवनभर किसी नगर पर टिप्पणी नहीं की, सिवाय मथुरा के। अंगुत्तरनिकाय ५.२२० में वे कहते हैं कि मथुरा की भूमि विषम और धूल-भरी है, वहाँ के कुत्ते उग्र, अदृश्य शक्तियाँ रुद्र, और श्रमणों को भिक्षा पाना कठिन पड़ता है।

ऐसे नगर में आयुष्मान महाकच्चान का जन्म हुआ—जिन्हें ‘महाकच्छाण’ या ‘महाकात्यायन’ भी कहा जाता है। अट्ठकथा के अनुसार वे अवंती के मुख्य राजपुरोहित के पुत्र थे। यही कारण है कि अवंती से उनका गहरा संबंध रहा, ब्राह्मणवाद पर उनकी पैनी दृष्टि विकसित हुई, और वे शास्त्रों के विश्लेषण में अत्यंत निपुण बने। वे अक्सर ब्राह्मणों की स्वघोषित श्रेष्ठता को तर्कपूर्वक उजागर करते थे। मथुरा के राजा के साथ इस विषय पर उनका संवाद इस सुत्त में दर्ज है। इसी प्रकार संयुक्तनिकाय ३५.१३२ और अंगुत्तरनिकाय २.३८ में भी ब्राह्मणवाद पर उनकी तीखी और सूक्ष्म चर्चाएँ मिलती हैं।

और अंततः, ऐसे चंड शहर में भी महाकच्चान भंते ने बौद्ध धर्म की मजबूत आधारशिला रखी। आगे चलकर अवंती से ही उत्पन्न परंपरा को महान भिक्षु महिन्द—सम्राट अशोक के पुत्र—ने श्रीलंका पहुँचाकर विस्तृत रूप दिया।

✦ ॥ नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स ॥ ✦

Hindi

ऐसा मैंने सुना — एक समय आयुष्मान महाकच्चान मथुरा (“मधुरा”) के गुन्दवन में विहार कर रहे थे। तब मथुरा के राजा अवन्तिपुत्त ने सुना, ‘‘यह सच हैं कि श्रीमान कच्चान मथुरा के गुन्दवन में विहार कर रहे हैं। और उन श्रमण कच्चान के बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वे पंडित हैं, अनुभवी हैं, मेधावी हैं, बहुत धर्म सुने हैं, सटीक उत्तर देते हैं, अत्यंत प्रतिभाशाली हैं, और परिपक्व अरहंत हैं।’ और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता हैं।”

तब मथुरा के राजा अवन्तिपुत्त ने अच्छे अच्छे रथ तैयार कराएँ और सबसे अच्छे रथ पर सवार होकर, अच्छे-अच्छे रथों को साथ लेकर, पूर्ण राजसी अंदाज में, आयुष्मान महाकच्चान का दर्शन लेने के लिए मथुरा से निकल पड़ा। जहाँ तक रथ जाने की भूमि थी, वहाँ तक रथ से गया, और फिर रथ से उतर कर पैदल आयुष्मान महाकच्चान के पास गया। जाकर उसने आयुष्मान महाकच्चान को अभिवादन किया और एक ओर बैठ गया।

एक ओर बैठ कर, मथुरा के राजा अवन्तिपुत्त ने आयुष्मान महाकच्चान से कहा, “कच्चान जी, ब्राह्मण कहते हैं कि ‘ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण के हैं, बाकी हीन वर्ण के। ब्राह्मण ही शुक्ल (=उजला) वर्ण के हैं, बाकी कृष्ण (=काले) वर्ण के। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण ही ब्रह्मा के (असली) पुत्र, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं।’ इस पर कच्चान जी का क्या कहना हैं?”

“महाराज, ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी (=खोखले शब्दाडंबर) हैं कि ‘ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण के हैं, बाकी हीन वर्ण के। ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण के हैं, बाकी कृष्ण वर्ण के। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण ही ब्रह्मा के पुत्र, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं।’

जानने का पहला तरीका

और, महाराज, ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी है,’ यह समझने का एक तरीका है। क्या लगता है, महाराज? यदि कोई क्षत्रिय धन-धान्य और स्वर्ण-चाँदी की संपत्ति में समृद्ध हो जाए, क्या तब दूसरे क्षत्रिय… या ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र (उसकी सेवा में लगकर) उसके पहले उठना, उसके बाद सोना, उसकी आज्ञा सुनना, उसके पसंद का आचरण करना, उससे प्रिय बोलना इत्यादि नहीं करेंगे?”

“अवश्य, कच्चान जी। यदि कोई क्षत्रिय धन-धान्य और स्वर्ण-चाँदी की संपत्ति में समृद्ध हो जाए, तब दूसरे क्षत्रिय… या ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र (उसकी सेवा में लगकर) उसके पहले उठना, उसके बाद सोना, उसकी आज्ञा सुनना, उसके पसंद का आचरण करना, उससे प्रिय बोलना इत्यादि अवश्य करेंगे।”

“और, क्या लगता है, महाराज? यदि कोई ब्राह्मण धन-धान्य और स्वर्ण-चाँदी की संपत्ति में समृद्ध हो जाए… या कोई वैश्य धन-धान्य और स्वर्ण-चाँदी की संपत्ति में समृद्ध हो जाए… या कोई शूद्र भी धन-धान्य और स्वर्ण-चाँदी की संपत्ति में समृद्ध हो जाए, क्या तब दूसरे ब्राह्मण… या क्षत्रिय… या वैश्य… या शूद्र (उसकी सेवा में लगकर) उसके पहले उठना, उसके बाद सोना, उसकी आज्ञा सुनना, उसके पसंद का आचरण करना, उससे प्रिय बोलना इत्यादि नहीं करेंगे?”

“अवश्य, कच्चान जी… अवश्य करेंगे।”

“यदि ऐसा हो, महाराज, तब क्या चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही नहीं हुए? या आपको क्या लगता है?”

“यदि ऐसा हो, कच्चान जी, तब अवश्य चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही हैं। तब मुझे उनमें कोई फर्क नजर नहीं आता।”

जानने का दूसरा तरीका

“और, महाराज, ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी है,’ यह समझने का एक और तरीका है। क्या लगता है, महाराज? यदि कोई क्षत्रिय जीवहत्या, चोरी या व्यभिचार करता हो; झूठ, फूट डालने वाली, कटु, या व्यर्थ बातें करता हो; लालची, दुर्भावनापूर्ण, या मिथ्यादृष्टि का हो — क्या वह मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजेगा या नहीं? या आपको क्या लगता है?”

“हाँ, कच्चान जी। यदि कोई क्षत्रिय जीवहत्या, चोरी… — तो वह मरणोपरांत… नर्क में उपजेगा। ऐसा मुझे भी लगता है। और मैंने ऐसा अरहंतों से सुना भी है।”

“साधु, साधु, महाराज! बहुत अच्छा, महाराज, जो आपको भी ऐसा लगता है। बहुत अच्छा, जो आपने ऐसा अरहंतों से भी सुना है। और आगे, महाराज, क्या लगता है? यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र भी जीवहत्या, चोरी या व्यभिचार करता हो; झूठ, फूट डालने वाली, कटु, या व्यर्थ बातें करता हो; लालची, दुर्भावनापूर्ण, या मिथ्यादृष्टि का हो — क्या वह भी मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजेगा या नहीं? या आपको क्या लगता है?”"

“हाँ, कच्चान जी। यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र भी जीवहत्या, चोरी… — तो वह भी मरणोपरांत… नर्क में उपजेगा। ऐसा मुझे भी लगता है। और मैंने ऐसा अरहंतों से सुना भी है।”

“साधु, साधु, महाराज! बहुत अच्छा, महाराज, जो आपको भी ऐसा लगता है। बहुत अच्छा, जो आपने ऐसा अरहंतों से भी सुना है। और, महाराज, यदि ऐसा हो, तब क्या चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही नहीं हुए? या आपको क्या लगता है?”

“यदि ऐसा हो, कच्चान जी, तब अवश्य चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही हैं। तब मुझे उनमें कोई फर्क नजर नहीं आता।”

जानने का तीसरा तरीका

“और, महाराज, ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी है,’ यह समझने का एक और तरीका है। क्या लगता है, महाराज? यदि कोई क्षत्रिय जीवहत्या, चोरी और व्यभिचार से विरत रहता हो; झूठ, फूट डालने वाली, कटु और व्यर्थ बातों से विरत रहता हो; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण हो, बल्कि सम्यकदृष्टि वाला हो — क्या वह मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजेगा या नहीं? या आपको क्या लगता है?”

“हाँ, कच्चान जी। यदि कोई क्षत्रिय जीवहत्या से विरत… — तो वह मरणोपरांत… स्वर्ग में उपजेगा। ऐसा मुझे भी लगता है। और मैंने ऐसा अरहंतों से सुना भी है।”

“साधु, साधु, महाराज! बहुत अच्छा, महाराज, जो आपको भी ऐसा लगता है। बहुत अच्छा, जो आपने ऐसा अरहंतों से भी सुना है। और आगे, महाराज, क्या लगता है? यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र भी जीवहत्या, चोरी और व्यभिचार से विरत रहता हो; झूठ, फूट डालने वाली, कटु और व्यर्थ बातों से विरत रहता हो; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण हो, बल्कि सम्यकदृष्टि वाला हो — क्या वह भी मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग में उपजेगा या नहीं? या आपको क्या लगता है?”

“हाँ, कच्चान जी। यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र भी जीवहत्या से विरत… — तो वह मरणोपरांत… स्वर्ग में उपजेगा। ऐसा मुझे भी लगता है। और मैंने ऐसा अरहंतों से सुना भी है।”

“साधु, साधु, महाराज! बहुत अच्छा, महाराज, जो आपको भी ऐसा लगता है। बहुत अच्छा, जो आपने ऐसा अरहंतों से भी सुना है। और, महाराज, यदि ऐसा हो, तब क्या चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही नहीं हुए? या आपको क्या लगता है?”

“यदि ऐसा हो, कच्चान जी, तब अवश्य चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही हैं। तब मुझे उनमें कोई फर्क नजर नहीं आता।”

जानने का चौथा तरीका

“और, महाराज, ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी है,’ यह समझने का एक और तरीका है। क्या लगता है, महाराज? यदि कोई क्षत्रिय सेंधमारी (=घर-फोड़ी) करता हो, डाका डालता हो, निर्जन घर से चुराता हो, मार्ग पर घात लगाता हो, परायी स्त्री के पीछे पड़ता हो। तब आपके पुरुष उसे पकड़ कर आपके सामने लाए, ‘महाराज, यह अपराधी चोर है। जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा इसे दण्ड दें।’ तब आप उसके साथ क्या करेंगे?”

“कच्चान जी, मैं उसे मृत्युदण्ड दूँगा, या कारावास दूँगा, या तड़ीपार करूँगा, या जैसा अपराध हो, वैसा दण्ड दूँगा। ऐसा क्यों? क्योंकि, कच्चान जी, उसने अपनी पूर्व की ‘क्षत्रिय’ प्रतिष्ठा को मिटा दिया, और अब केवल अपराधियों में गिना जाएगा।”

और, आगे क्या लगता है, महाराज? यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र सेंधमारी करता हो, डाका डालता हो, निर्जन घर से चुराता हो, मार्ग पर घात लगाता हो, परायी स्त्री के पीछे पड़ता हो। तब आपके पुरुष उसे पकड़ कर आपके सामने लाए, ‘महाराज, यह अपराधी चोर है। जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा इसे दण्ड दें।’ तब आप उसके साथ क्या करेंगे?"

“कच्चान जी, मैं उसे भी मृत्युदण्ड दूँगा, या कारावास दूँगा, या तड़ीपार करूँगा, या जैसा अपराध हो, वैसा दण्ड दूँगा। ऐसा क्यों? क्योंकि, कच्चान जी, उसने भी अपनी पूर्व की ‘ब्राह्मण/वैश्य/शूद्र’ प्रतिष्ठा को मिटा दिया, और अब केवल अपराधियों में गिना जाएगा।”

और, महाराज, यदि ऐसा हो, तब क्या चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही नहीं हुए? या आपको क्या लगता है?"

“यदि ऐसा हो, कच्चान जी, तब अवश्य चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही हैं। तब मुझे उनमें कोई फर्क नजर नहीं आता।”

जानने का पाँचवा तरीका

“और, महाराज, ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी है,’ यह समझने का एक और तरीका है। क्या लगता है, महाराज? यदि कोई क्षत्रिय सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है, और जीवहत्या से विरत रहता है, चुराने से विरत रहता है, झूठ बोलने से विरत रहता है, रात्रिभोज से विरत हो दिन में एक ही बार भोजन करता है, ब्रह्मचर्य पालन करता है, शीलवान और कल्याणकारी स्वभाव का बनता है। तब आप उसके साथ क्या करेंगे?”

“अभिवादन करूँगा, कच्चान जी। उसके लिए उठूँगा, आसन दूँगा, घर पर निमंत्रित करूँगा, और चीवर, भिक्षा, निवास, और रोगावश्यक औषधि-भैषज्य के लिए आमंत्रित करूँगा, और उसकी धर्मानुसार रक्षा और बचाव करने की व्यवस्था करूँगा। ऐसा क्यों? क्योंकि, कच्चान जी, उसने अपनी पूर्व की ‘क्षत्रिय’ प्रतिष्ठा को मिटा दिया, और अब केवल श्रमणों में गिना जाएगा।”

और, आगे क्या लगता है, महाराज? यदि कोई ब्राह्मण… या वैश्य… या शूद्र सिर-दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्जित होता है, और जीवहत्या से विरत रहता है, चुराने से विरत रहता है, झूठ बोलने से विरत रहता है, रात्रिभोज से विरत हो दिन में एक ही बार भोजन करता है, ब्रह्मचर्य पालन करता है, शीलवान और कल्याणकारी स्वभाव का बनता है। तब आप उसके साथ क्या करेंगे?"

“अभिवादन ही करूँगा, कच्चान जी। उसके लिए भी उठूँगा, आसन दूँगा, घर पर निमंत्रित करूँगा, और चीवर, भिक्षा, निवास, और रोगावश्यक औषधि-भैषज्य के लिए आमंत्रित करूँगा, और उसकी धर्मानुसार रक्षा और बचाव करने की व्यवस्था करूँगा। ऐसा क्यों? क्योंकि, कच्चान जी, उसने अपनी पूर्व की ‘ब्राह्मण/वैश्य/शूद्र’ प्रतिष्ठा को मिटा दिया, और अब केवल श्रमणों में गिना जाएगा।”

“और, महाराज, यदि ऐसा हो, तब क्या चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही नहीं हुए? या आपको क्या लगता है?”

“यदि ऐसा हो, कच्चान जी, तब अवश्य चारों वर्ण बिलकुल एक जैसे ही हैं। तब मुझे उनमें कोई फर्क नजर नहीं आता।”

“ये सब समझने के तरीके हैं, महाराज, कि ‘ये इस दुनिया की बस एक लफ्फाजी हैं कि ‘ब्राह्मण ही श्रेष्ठ वर्ण के हैं, बाकी हीन वर्ण के। ब्राह्मण ही शुक्ल वर्ण के हैं, बाकी कृष्ण वर्ण के। ब्राह्मण ही शुद्ध हैं, अ-ब्राह्मण नहीं। ब्राह्मण ही ब्रह्मा के पुत्र, उसके मुख से जन्मे, ब्रह्मा से जन्में, ब्रह्मा से निर्मित, ब्रह्मा के वारिस हैं।’”

जब ऐसा कहा गया, तब मथुरा के राजा अवन्तिपुत्त ने आयुष्मान महाकच्चान से कहा, “अतिउत्तम, कच्चान जी! अतिउत्तम, कच्चान जी! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह कच्चान जी ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं कच्चान जी की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! कच्चान जी मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

“महाराज, मेरी शरण मत जाईये। बल्कि उस भगवान की शरण जाईये, जिसकी शरण मैं स्वयं गया हूँ।”

“किन्तु, कच्चान जी, वे भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध इस समय कहाँ विहार कर रहे हैं?”

“महाराज, वे भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध परिनिर्वृत हो चुके हैं।”

“कच्चान जी, यदि मैं सुनता कि भगवान दस योजन (१ योजन = १२-१६ किमी) दूर हैं, तो मैं उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेने के लिए दस योजन दूर जाता। यदि मैं सुनता कि भगवान बीस योजन दूर हैं… तीस योजन दूर हैं… चालीस योजन दूर हैं… पचास योजन दूर हैं… सौ योजन दूर हैं, तो मैं उन भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध का दर्शन लेने के लिए सौ योजन दूर भी जाता।

किन्तु, कच्चान जी, चूँकि वे भगवान अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध परिनिर्वृत हो चुके हैं, इसलिए मैं परिनिर्वृत भगवान की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! कच्चान जी मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

सुत्र समाप्त।

Pali

३१७. एवं मे सुतं – एकं समयं आयस्मा महाकच्चानो मधुरायं विहरति गुन्दावने. अस्सोसि खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो – ‘‘समणो खलु, भो, कच्चानो मधुरायं [मथुरायं (टीका)] विहरति गुन्दावने. तं खो पन भवन्तं कच्चानं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘पण्डितो वियत्तो मेधावी बहुस्सुतो चित्तकथी कल्याणपटिभानो वुद्धो चेव अरहा च’. साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति. अथ खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो भद्रानि भद्रानि यानानि योजापेत्वा भद्रं यानं अभिरुहित्वा भद्रेहि भद्रेहि यानेहि मधुराय निय्यासि महच्चराजानुभावेन आयस्मन्तं महाकच्चानं दस्सनाय. यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येनायस्मा महाकच्चानो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मता महाकच्चानेन सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो आयस्मन्तं महाकच्चानं एतदवोच – ‘‘ब्राह्मणा, भो कच्चान, एवमाहंसु – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’ति. इध भवं कच्चानो किमक्खायी’’ति? ‘‘घोसोयेव खो एसो, महाराज, लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’ति. तदमिनापेतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसोयेवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो…पे… ब्रह्मदायादा’’’ति.

३१८. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, खत्तियस्स चेपि इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा खत्तियोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… ब्राह्मणोपिस्सास्स… वेस्सोपिस्सास्स… सुद्दोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति? ‘‘खत्तियस्स चेपि, भो कच्चान, इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा खत्तियोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… ब्राह्मणोपिस्सास्स… वेस्सोपिस्सास्स… सुद्दोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, ब्राह्मणस्स चेपि इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा ब्राह्मणोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… वेस्सोपिस्सास्स… सुद्दोपिस्सास्स … खत्तियोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति? ‘‘ब्राह्मणस्स चेपि, भो कच्चान, इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा ब्राह्मणोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… वेस्सोपिस्सास्स… सुद्दोपिस्सास्स … खत्तियोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, वेस्सस्स चेपि इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा वेस्सोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… सुद्दोपिस्सास्स… खत्तियोपिस्सास्स… ब्राह्मणोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति? ‘‘वेस्सस्स चेपि, भो कच्चान, इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा वेस्सोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… सुद्दोपिस्सास्स… खत्तियोपिस्सास्स… ब्राह्मणोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, सुद्दस्स चेपि इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा सुद्दोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी… खत्तियोपिस्सास्स… ब्राह्मणोपिस्सास्स… वेस्सोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति? ‘‘सुद्दस्स चेपि, भो कच्चान, इज्झेय्य धनेन वा धञ्ञेन वा रजतेन वा जातरूपेन वा सुद्दोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादीति… खत्तियोपिस्सास्स… ब्राह्मणोपिस्सास्स… वेस्सोपिस्सास्स पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किंकारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति. नेसं [नासं (सी.), नाहं (स्या. कं.)] एत्थ किञ्चि नानाकरणं समनुपस्सामी’’ति. ‘‘इमिनापि खो एतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो…पे… ब्रह्मदायादा’’’ति.

३१९. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स खत्तियो पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिट्ठि [मिच्छादिट्ठी (सब्बत्थ)] कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘खत्तियोपि हि, भो कच्चान, पाणातिपाती अदिन्नादायी कामेसुमिच्छाचारी मुसावादी पिसुणवाचो फरुसवाचो सम्फप्पलापी अभिज्झालु ब्यापन्नचित्तो मिच्छादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य. एवं मे एत्थ होति, एवञ्च पन मे एतं अरहतं सुत’’न्ति.

‘‘साधु साधु, महाराज! साधु खो ते एतं, महाराज, एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं. तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स ब्राह्मणो…पे… इधस्स वेस्सो…पे… इधस्स सुद्दो पाणातिपाती अदिन्नादायी…पे… मिच्छादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘सुद्दोपि हि, भो कच्चान, पाणातिपाती अदिन्नादायी…पे… मिच्छादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य. एवं मे एत्थ होति, एवञ्च पन मे एतं अरहतं सुत’’न्ति.

‘‘साधु साधु, महाराज! साधु खो ते एतं, महाराज, एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं. तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति. नेसं एत्थ किञ्चि नानाकरणं समनुपस्सामी’’ति. ‘‘इमिनापि खो एतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो…पे… ब्रह्मदायादा’’’ति.

३२०. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स खत्तियो पाणातिपाता पटिविरतो, अदिन्नादाना पटिविरतो, कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो, मुसावादा पटिविरतो, पिसुणाय वाचाय पटिविरतो, फरुसाय वाचाय पटिविरतो, सम्फप्पलापा पटिविरतो, अनभिज्झालु अब्यापन्नचित्तो सम्मादिट्ठि [सम्मादिट्ठी (स्या. कं. पी. क.)] कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्य नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘खत्तियोपि हि, भो कच्चान, पाणातिपाता पटिविरतो, अदिन्नादाना पटिविरतो, कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतो, मुसावादा पटिविरतो, पिसुणाय वाचाय पटिविरतो, फरुसाय वाचाय पटिविरतो, सम्फप्पलापा पटिविरतो, अनभिज्झालु अब्यापन्नचित्तो सम्मादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्य. एवं मे एत्थ होति, एवञ्च पन मे एतं अरहतं सुत’’न्ति.

‘‘साधु साधु, महाराज! साधु खो ते एतं, महाराज, एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं. तं किं मञ्ञसि, महाराज, इधस्स ब्राह्मणो, इधस्स वेस्सो, इधस्स सुद्दो पाणातिपाता पटिविरतो अदिन्नादाना पटिविरतो…पे… सम्मादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्य नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘सुद्दोपि हि, भो कच्चान, पाणातिपाता पटिविरतो, अदिन्नादाना पटिविरतो…पे… सम्मादिट्ठि कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जेय्य. एवं मे एत्थ होति, एवञ्च पन मे एतं अरहतं सुत’’न्ति.

‘‘साधु साधु, महाराज! साधु खो ते एतं, महाराज, एवं होति, साधु च पन ते एतं अरहतं सुतं. तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति. नेसं एत्थ किञ्चि नानाकरणं समनुपस्सामी’’ति . ‘‘इमिनापि खो एतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो…पे… ब्रह्मदायादा’’’ति.

३२१. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध खत्तियो सन्धिं वा छिन्देय्य, निल्लोपं वा हरेय्य, एकागारिकं वा करेय्य, परिपन्थे वा तिट्ठेय्य, परदारं वा गच्छेय्य, तञ्चे ते पुरिसा गहेत्वा दस्सेय्युं – ‘अयं ते, देव, चोरो आगुचारी. इमस्स यं इच्छसि तं दण्डं पणेही’ति. किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘घातेय्याम वा, भो कच्चान, जापेय्याम वा पब्बाजेय्याम वा यथापच्चयं वा करेय्याम. तं किस्स हेतु? या हिस्स , भो कच्चान, पुब्बे ‘खत्तियो’ति समञ्ञा सास्स अन्तरहिता; चोरोत्वेव सङ्ख्यं [सङ्खं (सी. स्या. कं. पी.)] गच्छती’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध ब्राह्मणो, इध वेस्सो, इध सुद्दो सन्धिं वा छिन्देय्य, निल्लोपं वा हरेय्य, एकागारिकं वा करेय्य, परिपन्थे वा तिट्ठेय्य, परदारं वा गच्छेय्य, तञ्चे ते पुरिसा गहेत्वा दस्सेय्युं – ‘अयं ते, देव, चोरो आगुचारी. इमस्स यं इच्छसि तं दण्डं पणेही’ति. किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘घातेय्याम वा, भो कच्चान, जापेय्याम वा पब्बाजेय्याम वा यथापच्चयं वा करेय्याम. तं किस्स हेतु? या हिस्स, भो कच्चान, पुब्बे ‘सुद्दो’ति समञ्ञा सास्स अन्तरहिता; चोरोत्वेव सङ्ख्यं गच्छती’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति. नेसं एत्थ किञ्चि नानाकरणं समनुपस्सामी’’ति. ‘‘इमिनापि खो एतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो…पे… ब्रह्मदायादा’’’ति.

३२२. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध खत्तियो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो अस्स विरतो पाणातिपाता, विरतो अदिन्नादाना, विरतो मुसावादा, रत्तूपरतो, एकभत्तिको, ब्रह्मचारी, सीलवा, कल्याणधम्मो? किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘अभिवादेय्याम वा [पि (दी. नि. १.१८४, १८७ सामञ्ञफले)], भो कच्चान, पच्चुट्ठेय्याम वा आसनेन वा निमन्तेय्याम अभिनिमन्तेय्याम वा नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि धम्मिकं वा अस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्याम. तं किस्स हेतु? या हिस्स, भो कच्चान, पुब्बे ‘खत्तियो’ति समञ्ञा सास्स अन्तरहिता; समणोत्वेव सङ्ख्यं गच्छती’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध ब्राह्मणो, इध वेस्सो, इध सुद्दो केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो अस्स विरतो पाणातिपाता, विरतो अदिन्नादाना विरतो मुसावादा, रत्तूपरतो, एकभत्तिको, ब्रह्मचारी, सीलवा, कल्याणधम्मो? किन्ति नं करेय्यासी’’ति? ‘‘अभिवादेय्याम वा, भो कच्चान, पच्चुट्ठेय्याम वा आसनेन वा निमन्तेय्याम अभिनिमन्तेय्याम वा नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि धम्मिकं वा अस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्याम. तं किस्स हेतु? या हिस्स, भो कच्चान, पुब्बे ‘सुद्दो’ति समञ्ञा सास्स अन्तरहिता; समणोत्वेव सङ्ख्यं गच्छती’’ति.

‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति नो वा? कथं वा ते एत्थ होती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भो कच्चान, एवं सन्ते, इमे चत्तारो वण्णा समसमा होन्ति. नेसं एत्थ किञ्चि नानाकरणं समनुपस्सामी’’ति. ‘‘इमिनापि खो एतं, महाराज, परियायेन वेदितब्बं यथा घोसो येवेसो लोकस्मिं – ‘ब्राह्मणोव सेट्ठो वण्णो, हीनो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणोव सुक्को वण्णो, कण्हो अञ्ञो वण्णो; ब्राह्मणाव सुज्झन्ति, नो अब्राह्मणा; ब्राह्मणाव ब्रह्मुनो पुत्ता ओरसा मुखतो जाता ब्रह्मजा ब्रह्मनिम्मिता ब्रह्मदायादा’’’ति.

३२३. एवं वुत्ते, राजा माधुरो अवन्तिपुत्तो आयस्मन्तं महाकच्चानं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो कच्चान, अभिक्कन्तं, भो कच्चान! सेय्यथापि, भो कच्चान, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भोता कच्चानेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो. एसाहं भवन्तं कच्चानं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च . उपासकं मं भवं कच्चानो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति. ‘‘मा खो मं त्वं, महाराज, सरणं अगमासि. तमेव त्वं [तमेतं त्वं (स्या. कं.), तमेतं (क.)] भगवन्तं सरणं गच्छ यमहं सरणं गतो’’ति. ‘‘कहं पन, भो कच्चान, एतरहि सो भगवा विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो’’ति? ‘‘परिनिब्बुतो खो, महाराज, एतरहि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो’’ति. ‘‘सचेपि मयं, भो कच्चान, सुणेय्याम तं भगवन्तं दससु योजनेसु, दसपि मयं योजनानि गच्छेय्याम तं भगवन्तं दस्सनाय अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं. सचेपि मयं, भो कच्चान, सुणेय्याम तं भगवन्तं वीसतिया योजनेसु, तिंसाय योजनेसु, चत्तारीसाय योजनेसु, पञ्ञासाय योजनेसु, पञ्ञासम्पि मयं योजनानि गच्छेय्याम तं भगवन्तं दस्सनाय अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं. योजनसते चेपि मयं भो कच्चान, सुणेय्याम तं भगवन्तं, योजनसतम्पि मयं गच्छेय्याम तं भगवन्तं दस्सनाय अरहन्तं सम्मासम्बुद्धं. यतो च, भो कच्चान, परिनिब्बुतो सो भगवा, परिनिब्बुतम्पि मयं भगवन्तं सरणं गच्छाम धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भवं कच्चानो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.

मधुरसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं.