बोधि राजकुमार के पिता कौशांबी के महाराज उदेन थे, और उनकी माता वासुलदत्ता देवी—जिनका उल्लेख इस सूत्र के अंत में भी मिलता है—अवन्ति के राजा पज्जोत की पुत्री थीं। उदेन और वासुलदत्ता का संबंध भारतीय परंपरा की महान प्रेम-कथाओं में गिना जाता है।
अट्ठकथा के अनुसार, पज्जोत उदेन से हाथी-वश करने की कला सीखना चाहता था, जिसमें उदेन महारथी थे; इसी इच्छा से आरम्भ घटनाओं की शृंखला ने दोनों घरानों को जोड़ा और बोधि राजकुमार का जन्म हुआ, जो आगे चलकर उसी विद्या में अपने पिता के समान ही प्रवीण बना, जिसकी उपमा से भगवान उसे उत्तर देते हैं।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान भग्गों के साथ मगरमच्छ टीले पर भेसकला मृगवन में विहार कर रहे थे। उस समय बोधि राजकुमार के लिए गुलाबी कमल (“कोकनद”) नामक महल बनाया गया था, जो अब तक किसी भी श्रमण, या ब्राह्मण, या मनुष्य, या जीव से उपभोगित नहीं हुआ था।
तब बोधि राजकुमार ने सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण को आमंत्रित किया, “भले सञ्जिकापुत्त, भगवान के पास जाओ, और जाकर भगवान के चरणों में अपने सिर से वंदन करना, और पूछना, ‘भंते, बोधि राजकुमार भगवान के चरणों में अपने सिर से वंदन करता है, और पूछता है कि क्या भगवान बिना रोग के, बिना पीड़ा के, हल्का महसूस करते हुए, शक्ति और राहत से विहार कर रहे हैं?’
और तब कहना, ‘भंते, भगवान कल भिक्षुसंघ के साथ बोधि राजकुमार के यहाँ भोजन स्वीकार करें।’”
“ठीक है, श्रीमान!” सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण ने बोधि राजकुमार को उत्तर दिया, और भगवान के पास गया, और जाकर भगवान के चरणों में अपने सिर से वंदन कर पूछा, “भंते, बोधि राजकुमार भगवान के चरणों में अपने सिर से वंदन करता है, और पूछता है कि क्या भगवान बिना रोग के, बिना पीड़ा के, हल्का महसूस करते हुए, शक्ति और राहत से विहार कर रहे हैं?”
और तब उसने कहा, “भंते, भगवान कल भिक्षुसंघ के साथ बोधि राजकुमार के यहाँ भोजन स्वीकार करें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब, सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण भगवान की स्वीकृति जानकर अपने आसन से उठकर बोधि राजकुमार के पास जाकर कहा, “श्रीमान, मैंने आपके वचन श्रीमान गोतम को कह दिए… और श्रमण गोतम ने कल का भोजन स्वीकार किया।”
तब बोधि राजकुमार ने रात बीतने पर अपने घर में उत्कृष्ट खाद्य और भोजन बनवाया, अपने ‘गुलाबी कमल’ महल की निचली सीढ़ी तक सफेद वस्त्र बिछवाया, और सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण को संबोधित किया, “भले सञ्जिकापुत्त, भगवान के पास जाओ, और जाकर समय की सूचना दो, ‘उचित समय है, भंते! भोजन तैयार है।’”
“ठीक है, श्रीमान!” सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण ने बोधि राजकुमार को उत्तर दिया, और भगवान के पास गया, और जाकर भगवान को समय की सूचना दी, “उचित समय है, भंते! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, (भिक्षुसंघ के साथ) बोधि राजकुमार के घर गए। उस समय बोधि राजकुमार द्वार के बाहर भगवान की प्रतिक्षा में खड़ा था। उसने भगवान को दूर से आते हुए देखा। देखकर वह स्वागत में आगे बढ़ा, भगवान को अभिवादन कर, उन्हें आगे कर, गुलाबी कमल महल की ओर ले गया।
भगवान निचली सीढ़ी के पास जाकर रुक गए।
तब बोधि राजकुमार ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान वस्त्र पर चढ़ें! सुगत वस्त्र पर चढ़ें। वह मेरे दीर्घकाल के लिए हितकारक और सुखदायी होगा!”
ऐसा कहे जाने पर भगवान मौन रहे।
तब, दूसरी बार… और तब, तीसरी बार बोधि राजकुमार ने भगवान से कहा, “भंते, भगवान वस्त्र पर चढ़ें! सुगत वस्त्र पर चढ़ें। वह मेरे दीर्घकाल के लिए हितकारक और सुखदायी होगा!” 1
तब भगवान ने आयुष्मान आनन्द की ओर देखा। तब आयुष्मान आनन्द ने बोधि राजकुमार से कहा, “इस वस्त्र को समेट ले, राजकुमार। भगवान सफेद वस्त्र पर पैर नहीं रखेंगे। चूँकि तथागत को भविष्य की पीढ़ियों के लिए अनुकंपा (चिंता) है।”
तब, बोधि राजकुमार से वस्त्र समेटाया और गुलाबी कमल महल के ऊपरी माले में आसन बिछवाया। तब भगवान ने गुलाबी कमल महल पर चढ़े और भिक्षुसंघ के साथ बिछे आसन पर बैठ गए।
तब बोधि राजकुमार ने बुद्ध के अगुवाई में भिक्षुसंघ को उत्तम खाद्य और भोजन को अपने हाथों से परोसते हुए संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, बोधि राजकुमार ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर बोधि राजकुमार ने भगवान से कहा, “भंते, मुझे ऐसा लगता है कि ‘सुख से सुख प्राप्त नहीं होता। दुःख से सुख प्राप्त होता है।’” 2
“मुझे भी ऐसा ही लगता था, राजकुमार, जब मैं संबोधि से पहले अभी सम्बुद्ध न बना केवल एक बोधिसत्व था कि ‘सुख से सुख प्राप्त नहीं होता। दुःख से सुख प्राप्त होता है।’
तब कुछ समय बीतने पर, राजकुमार, जब मैं युवा ही था — घने काले केश वाला, यौवन वरदान से युक्त, जीवन के प्रथम चरण में — तब मैंने अपने माता-पिता के इच्छा विरुद्ध, उन्हें आँसू भरे चेहरे से रोते-बिलखते छोड़ कर, सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित हुआ।
इस तरह प्रवज्ज्यित होकर — कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’
तब, राजकुमार, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त (ञाणवाद), और वरिष्ठों के सिद्धान्त (“थेरवाद”) को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।
किन्तु, राजकुमार, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’
तब, राजकुमार, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, उदक रामपुत्त ने ‘सूने आयाम’ की घोषणा की।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’
और, राजकुमार, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, राजकुमार, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र कालाम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र कालाम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’
‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’
इस तरह, राजकुमार, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।
किन्तु, राजकुमार, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘सूने आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, राजकुमार, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।
इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में — मैं उदक रामपुत्त के पास गया। और जाकर, उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, मुझे इस धर्म-विनय में ब्रह्मचर्य पालन करने की इच्छा है।’
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, उदक रामपुत्त ने कहा, ‘यहीं रहिए, आयुष्मान। यह ऐसा धर्म है कि कोई समझदार पुरुष जल्द ही अपने आचार्य के ज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष साक्षात्कार कर विहार कर सकता है।’
तब, राजकुमार, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का अध्ययन कर लिया। जहाँ तक होठों से पठन और रटकर दोहराने की बात थी, मैं और दूसरे भी ऐसे ज्ञान के सिद्धान्त, और वरिष्ठों के सिद्धान्त को ‘जानता हूँ, देखता हूँ’ का दावा करते थे।
किन्तु, राजकुमार, तब मुझे लगा, ‘यह उदक रामपुत्त इस धर्म के प्रति केवल श्रद्धा मात्र से ही प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा नहीं करता। अवश्य ही उदक रामपुत्त वाकई इस धर्म को जानते हुए और देखते हुए विहार करता है।’
तब, राजकुमार, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, तुम इस धर्म में कहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार कर घोषणा करते हो?’
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, उदक रामपुत्त ने ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम’ की घोषणा की।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘केवल उदक रामपुत्त में ही श्रद्धा नहीं, मुझमें भी श्रद्धा है। केवल उदक रामपुत्त में ही ऊर्जा नहीं, मुझमें भी ऊर्जा है। केवल उदक रामपुत्त में ही स्मृति नहीं, मुझमें भी स्मृति है। केवल उदक रामपुत्त में ही समाधि नहीं, मुझमें भी समाधि है। केवल उदक रामपुत्त में ही प्रज्ञा नहीं, मुझमें भी प्रज्ञा है। क्यों न मैं भी उस धर्म का साक्षात्कार करने का प्रयास करूँ, जिस धर्म को उदक रामपुत्त प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता है।’
और, राजकुमार, बहुत समय नहीं बीता, जल्द ही मैंने उस धर्म का प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने लगा। तब, राजकुमार, मैं उदक रामपुत्त के पास गया, और जाकर उदक रामपुत्त से कहा, ‘मित्र राम, क्या तुम इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो? मैं भी, मित्र राम, इस धर्म में यहाँ-यहाँ तक प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ।’
‘हम भाग्यशाली हैं, मित्र! हम सौभाग्यशाली हैं, मित्र! जो मैंने तुम जैसे आयुष्मान सब्रह्मचारी को देखा! जिस तरह मैं इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करता हूँ, उसी तरह तुम भी इस धर्म में प्रत्यक्ष ज्ञान से साक्षात्कार कर विहार करने की घोषणा करते हो। मैं इस धर्म को जिस तरह जानता हूँ, तुम भी उस धर्म को उसी तरह जानते हो। तुम इस धर्म को जिस तरह जानते हो, मैं भी उस धर्म को उसी तरह जानता हूँ। जैसा मैं हूँ, वैसे ही तुम हो। और जैसे तुम हो, वैसा ही मैं हूँ। आओ, मेरे मित्र, हम दोनों अब इस समुदाय को चलाएँ।’
इस तरह, राजकुमार, मेरे आचार्य उदक रामपुत्त ने मुझे, अपने शिष्य को, अपने स्वयं के स्तर पर रखा और अत्याधिक सम्मानित करते हुए पूजा।
किन्तु, राजकुमार, मुझे लगा, ‘यह धर्म न मोहभंग, न विराग, न निरोध, न प्रशांति, न प्रत्यक्ष ज्ञान, न संबोधि, और न ही निर्वाण की ओर ले जाता है। बल्कि वह केवल ‘न संज्ञा न ही असंज्ञा आयाम में पुनरुत्पत्ति’ की ओर ले जाता है।’ इस तरह, राजकुमार, उस धर्म को अनुपयुक्त पाकर, उस धर्म से मोहभंग होने पर, मैं चला गया।
इस तरह, कुशलता की खोज में, अनुत्तर शांति की अद्वितीय अवस्था की खोज में, मगध देश में अनुक्रम से भ्रमण करते हुए — मैं उरुवेला सैन्य नगर में पहुँचा। वहाँ मुझे रमणीय क्षेत्र देखा, जहाँ एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली (नेरञ्जरा) नदी बहती थी, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे थे।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘यहाँ, श्रीमान, अच्छा रमणीय क्षेत्र है, एक प्रेरणादायी जंगली इलाका, रमणीय और स्वच्छ किनारों वाली नदी बहती है, और भिक्षाटन के लिए सभी ओर गाँव बसे हैं। किसी कुलपुत्र के उद्यम करने के ध्येय से यह बिलकुल ठीक है।’
तब, राजकुमार, मैं बस वहीं बैठ गया — ‘यहीं उद्यम करने के लिए ठीक है।’
तब, राजकुमार, ये तीन उपमाएँ मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी। 3
(१) जैसे, राजकुमार, एक गीली रसदार लकड़ी जल में पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली 4 लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल में पड़ी उस गीली रसदार लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”
“नहीं, श्रीमान गौतम।"
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी गीली रसदार है, और ऊपर से जल में पड़ी है। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”
उसी तरह, राजकुमार, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर नहीं रहते हैं। उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग नहीं होता, अच्छे से शांत होकर नहीं रुकता। तब वे श्रमण-ब्राह्मण (संबोधि पाने के लिए) भले ही खूब प्रयास करते हुए दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करे, किंतु वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते।
— यह प्रथम उपमा, राजकुमार, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।
(२) कुछ समय के पश्चात, राजकुमार, मेरे आगे दूसरी उपमा प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।
जैसे, राजकुमार, एक गीली रसदार लकड़ी, जल से दूर, थल पर पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर थल पर पड़ी उस गीली रसदार लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”
“नहीं, श्रीमान गौतम।"
“क्यों नहीं?”
“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी गीली रसदार है, भले ही वह जल से दूर, थल पर पड़ी हो। अंततः वह पुरुष थकान और परेशानी का भागी होगा।”
उसी तरह, राजकुमार, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर रहते हैं। किन्तु उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग नहीं होता, अच्छे से शांत होकर नहीं रुकता। तब वे श्रमण-ब्राह्मण भले ही खूब प्रयास करते हुए दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करे, किंतु वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते।
— यह द्वितीय उपमा, राजकुमार, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।
(३) कुछ समय के पश्चात, राजकुमार, मेरे आगे तीसरी उपमा प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।
जैसे, राजकुमार, एक सूखी निरस लकड़ी, जल से दूर, थल पर पड़ी हो। तब एक पुरुष माचिस की तीली लेकर आए, ‘मैं इसे जला दूँगा, अग्नि प्रकट करूँगा।’ तुम्हें क्या लगता है, राजकुमार? क्या वह पुरुष माचिस की तीली से जल से दूर थल पर पड़ी उस सूखी निरस लकड़ी को जला देगा, अग्नि प्रकट करेगा?”
“हाँ, श्रीमान गौतम।"
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि, श्रीमान गौतम, वह लकड़ी सूखी और निरस है, और जल से दूर, थल पर भी पड़ी हो।”
उसी तरह, राजकुमार, कोई श्रमण-ब्राह्मण — काया और चित्त से — कामुकता से निर्लिप्त होकर रहते हैं। और साथ ही, उनके भीतर कामुकता के प्रति चाहत, स्नेह, मोहकता, प्यास और ताप का अच्छे से परित्याग भी होता है, अच्छे से शांत होकर रुकता भी है। तब वे श्रमण-ब्राह्मण भले ही खूब प्रयास करते हुए, कोई दर्द और तीव्र, कटु, और भेदक पीड़ाओं की अनुभूति न भी करे, तब भी वे ज्ञान-दर्शन और अनुत्तर सम्बोधि प्राप्त कर सकते हैं।
— यह तृतीय उपमा, राजकुमार, मेरे आगे प्रकट हुई, जो पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारी थी।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “क्यों न मैं दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल दूँ?”
तब, मैंने दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, इतना दबाया और कुचला कि मेरी बगल से पसीना बहने लगा।
जैसे कोई बलवान पुरुष किसी दुर्बल पुरुष को सिर से, गले से, या कंधे से खींच-पकड़ कर, दबा कर, कुचल देता है। उसी तरह, मैंने दाँत भींचकर, जीभ को तालु पर लगाकर, अपने मानस से चित्त को खींच-पकड़ कर, इतना दबाया और कुचला कि मेरी बगल से पसीना बहने लगा।
मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, राजकुमार, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, राजकुमार, उस तरह का उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “क्यों न मैं साँस रोक कर ध्यान लगाऊँ?’
तब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास (=साँस लेना-छोड़ना) रोक दिया। किन्तु, राजकुमार, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो कान से वायु निकलकर गर्जना सी होने लगी। जैसे, लोहार की धौंकनी से वायु निकलते हुए गर्जना होती है। उसी तरह, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो कान से वायु निकलकर गर्जना सी होने लगी।
मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, राजकुमार, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, राजकुमार, उस तरह उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “क्यों न मैं साँस रोक कर ही ध्यान लगाते रहूँ?’
तब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोके रखा। किन्तु, राजकुमार, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोके रखा, तो —
— उसी तरह, जब मैंने नाक और मुँह से आश्वास-प्रश्वास रोक दिया, तो मेरे शरीर में बहुत जलन होने लगी।
मेरी ऊर्जा जागृत और अथक थी, राजकुमार, मेरी स्मृति उपस्थित और स्पष्ट थी। किन्तु उस दर्दभरे उद्यम के कारण मेरी काया प्रताड़ित होते हुए उत्तेजित और अशांत हुई। तब भी, राजकुमार, उस तरह उत्पन्न हुई दुखद अनुभूति मेरे चित्त पर न हावी हुई, न ही बनी रही।
तब मुझे देखकर, राजकुमार, देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम मर गया!’ दूसरे देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम अभी मरा नहीं, किन्तु मर रहा है!’ तीसरे देवता कहने लगे, ‘श्रमण गौतम न मर गया, न ही मर रहा है, बल्कि श्रमण गौतम अरहंत हो गया! क्योंकि अरहंत इसी तरह जीते हैं!’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “क्यों न मैं आहार को पूरी तरह त्याग देने की साधना करूँ?’
किन्तु, राजकुमार, तब देवतागण मेरे पास आकर कहने लगे, ‘महाशय, आहार को पूरी तरह न त्यागे। यदि आप आहार को पूरी तरह त्याग देंगे, तो हम आपके रोमछिद्रों से दिव्य ओज (=पोषण) को भीतर डालेंगे और उसी पर आप जीवित रहेंगे।’ 5
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘यदि मैं पूरी तरह उपवास करने का दावा करूँ, जबकि ये देवता मेरे रोमछिद्रों से दिव्य ओज को भीतर डाल रहे हो, तब मेरी ओर से झूठ होगा!’
तब, राजकुमार, मैंने उन देवताओं को भेज दिया, कहते हुए, ‘रहने दीजिए!’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘क्यों न मैं थोड़ा-थोड़ा आहार लेते रहूँ — एक बार में एक मुट्ठी दाल, या एक मुट्ठी दाल का पानी, या एक मुट्ठी मूँग दाल, या एक मुट्ठी मटर दाल?’
तब, राजकुमार, मैं थोड़ा-थोड़ा आहार लेने लगा — एक बार में एक मुट्ठी दाल, या एक मुट्ठी दाल का पानी, या एक मुट्ठी मूँग दाल, या एक मुट्ठी मटर दाल? तब थोड़ा-थोड़ा ही आहार लेने से मेरी काया कुपोषित हो गयी।
तब मुझे देखकर, राजकुमार, मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम काला है!’ दूसरे मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम काला नहीं, गेहूँआं है!’ तीसरे मनुष्य कहने लगे, ‘श्रमण गौतम न काला है, न ही गेहूँआं, बल्कि श्रमण गौतम की छवि पीली है!’ इस स्तर तक, राजकुमार, मेरी परिशुद्ध त्वचा की चमक बर्बाद हो गयी थी, मात्र अल्प आहार लेने से।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘अतीत में जितने भी श्रमण-ब्राह्मणों ने खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति की हो, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। भविष्य में जितने भी श्रमण-ब्राह्मण खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति करेंगे, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। वर्तमान में जितने भी श्रमण-ब्राह्मण खूब प्रयास करते हुए, दर्द और तीव्र, कटु, भेदक पीड़ाओं की अनुभूति कर रहे हो, उसमें यह परम है, इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है। किन्तु, इतनी कड़ी दुष्करचर्या से भी मैंने कोई अलौकिक अवस्था, कोई विशेष आर्य ज्ञान-दर्शन प्राप्त नहीं किया। तब क्या बोधि का कोई अन्य मार्ग हो सकता है?’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘मुझे याद है कि जब मेरे शाक्य पिता काम कर रहे थे, और मैं जामुन के पेड़ की शीतल छाया में बैठा हुआ था, तब मैं कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर विहार किया था। क्या वह बोधि का मार्ग हो सकता है?’
तब उसी स्मृति के पीछे-पीछे, राजकुमार, चैतन्य हुआ — ‘यही बोधि का मार्ग है!’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘मैं क्यों उस सुख से डरता हूँ, जब उसका कामुकता से कोई लेनदेन नहीं है, अकुशल-स्वभाव से कोई लेनदेन नहीं है?’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘मैं उस सुख से नहीं डरूँगा, जब उसका कामुकता से कोई लेनदेन नहीं है, अकुशल-स्वभाव से कोई लेनदेन नहीं है।’
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘उस सुख को ऐसी कुपोषित काया से प्राप्त करना सरल नहीं है। क्यों न मैं कुछ ठोस आहार लूँ, कुछ दाल-भात?’
और तब, राजकुमार, मैंने कुछ ठोस आहार लिया, कुछ दाल-भात।
तब उस समय, राजकुमार, पाँच भिक्षु मेरी सेवा में थे, (सोचते हुए,) ‘श्रमण गौतम को धर्म प्राप्त हो जाए, तो वे हमें बताएँगे।’ जब मैंने कुछ ठोस आहार लिया, कुछ दाल-भात, तब वे निराश होकर चले गए, (सोचते हुए,) ‘श्रमण गौतम विलासी हो गए, तपस्या से भटक कर विलासी जीवन में लौट गए।’
और तब, राजकुमार, मैंने ठोस आहार लेकर बल ग्रहण करने पर, कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर विहार किया।
आगे सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।
आगे प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस किया। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।
और आगे, सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहा।
जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाया। तो मुझे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगे — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त (=ब्रह्मांडिय सिकुड़न), कई कल्पों का लोक-विवर्त (=ब्रह्मांडिय विस्तार), कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किए।
मुझे इस प्रथम-ज्ञान का साक्षात्कार रात के प्रथम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।
तब मैंने अपने समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाया। तब मुझे अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखा। और मुझे पता चला कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह, मैंने अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए देखा।
मुझे इस द्वितीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के मध्यम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।
जब मेरा चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो गया, तब मैंने उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाया। तब ‘यह दुःख है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख की उत्पत्ति है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख का निरोध है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह दुःख का निरोधकर्ता मार्ग है’, मुझे यथास्वरूप पता चला।
‘ये आस्रव हैं’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव की उत्पत्ति है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव का निरोध है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। ‘यह आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग है’, मुझे यथास्वरूप पता चला। इस तरह जानने से, इस तरह देखने से, मेरा चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हुआ, भव-आस्रव से विमुक्त हुआ, अविद्या-आस्रव से विमुक्त हुआ। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न हुआ, ‘विमुक्त हुआ!’ मुझे पता चला, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
मुझे इस तृतीय-ज्ञान का साक्षात्कार रात के अंतिम-पहर में हुआ। अविद्या नष्ट हुई, ज्ञान उत्पन्न हुआ! अँधेरा नष्ट हुआ, उजाला उत्पन्न हुआ! जैसे किसी अप्रमत्त, तत्पर और दृढ़निश्चयी के साथ होता है।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, ‘मैंने ऐसे धर्म को प्राप्त किया है, जो गहरा, दुर्दर्शी (=मुश्किल से दिखने वाला), दुर्ज्ञेय (=मुश्किल से पता चलने वाला), शांतिमय, सर्वोत्तम, तर्क-वितर्क से प्राप्त न होने वाला, निपुण और ज्ञानियों द्वारा अनुभव करने योग्य है। किन्तु, यह जनता आसक्तियों में रमती है, आसक्तियों में रत रहती है, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती है। और ऐसी जनता, जो आसक्तियों में रमती हो, आसक्तियों में रत रहती हो, और आसक्तियों में ही प्रसन्न होती हो, उनके लिए यह इद-पच्चयता (=कार्य-कारण भाव) और प्रतित्य-समुत्पाद अत्यंत दुर्दर्शी होगा। और उनके लिए यह भी बहुत दुर्दर्शी होगा — सभी रचनाओं का रुक जाना, सभी अर्जित वस्तुओं का त्याग, तृष्णा का अन्त, विराग, निरोध, निर्वाण! यदि मैं उन्हें ऐसा धर्म दूँ, जो उन्हें समझ में न आएँ, तो वह मेरे लिए थकाऊ और परेशानी से भरा होगा।’
तब, राजकुमार, मुझे पहले कभी न सुनी गयी, अनाश्चर्यकारक 6 गाथाएँ सूझ पड़ी —
जब इस तरह, राजकुमार, मैंने सोच-विचार किया तो मेरा चित्त अल्प उत्सुकता (=उदासीन और निष्क्रिय भाव) और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया। और तब, सहम्पति ब्रह्मा 7 ने भगवान के चित्त में चल रहे तर्क-वितर्क को जान लिया। उसे लगा, ‘नाश हो गया इस लोक का! विनाश हो गया इस लोक का! जो तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध का चित्त अल्प उत्सुकता और धर्म न सिखाने की ओर झुक गया।’
तब, राजकुमार, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी समेटी हुई बाह को पसार दे, या पसारी हुई बाह को समेट ले, उसी तरह, सहम्पति ब्रह्मा ब्रह्मलोक से विलुप्त हुआ और मेरे समक्ष प्रकट हुआ। उस सहम्पति ब्रह्मा ने बाहरी वस्त्र को एक कंधे पर कर, दाएँ घुटने को भूमि पर टिकाकर, हाथ जोड़कर मुझसे कहा —
“भंते, भगवान धर्म का उपदेश करें! सुगत धर्म का उपदेश करें! ऐसे सत्व हैं जिनकी आँखों में कम धूल है, किन्तु जो धर्म न सुनने से बर्बाद हैं, जो अवश्य धर्म को समझ जाएँगे!”
ब्रह्मा सहम्पति ने ऐसा कहा, और ऐसा कह कर उसने आगे कहा —
तब, राजकुमार, मैंने उस ब्रह्मा की याचना पर गौर किया। और, सत्वों के प्रति करुणा से, बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन किया। मैंने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
जैसे, राजकुमार, किसी पुष्करणी में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, जल के भीतर पनपते हैं, बिना जल से बाहर निकले। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, जल के भीतर बढ़ते हैं, और ऊपर तक आकर जल की सतह को छू पाते हैं। जबकि कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो जल के भीतर जन्म लेते हैं, और जल के भीतर बढ़ते हुए सतह से ऊपर आकर, जल से अछूत रहते हैं।
उसी तरह, राजकुमार, मैंने बुद्धचक्षु से ब्रह्मांड का अवलोकन करते हुए ऐसे सत्वों को देखा जिनकी आँखों में कम धूल थी, और जिनकी आँखों में अधिक धूल थी, जिनकी इंद्रियाँ तीक्ष्ण थी, और जिनकी इंद्रियाँ मन्द थी, भली वृत्ति के, और बुरी वृत्ति के, सरलता से सिखाएँ जाने वाले, और कठिनाई से सिखाएँ जाने वाले, परलोक में ख़तरा जानकर रहने वाले कुछ सत्व, और परलोक में कोई ख़तरा न जानकर रहने वाले कुछ सत्व।
ऐसा देखकर, राजकुमार, मैंने सहम्पति ब्रह्मा को गाथाओं में कहा —
जिन्हें कान हो, वे श्रद्धा प्रकट करें!
मानव को सद्गुणी उत्कृष्ट धर्म बताना।”
तब, राजकुमार, ब्रह्मा सहम्पति को लगा, “भगवान ने मेरी याचना को स्वीकार लिया है।” तब उसने मुझे अभिवादन कर, प्रदक्षिणा कर, वही अन्तर्धान हो गया।
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?”
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “यह आळार कालाम पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”
तब, राजकुमार, एक अदृश्य देवता ने मुझे सूचित किया, “भंते, आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” और मुझे भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “आळार कालाम की मौत हुए एक सप्ताह बीत चुका है।” मुझे लगा, “बड़ा नुकसान हुआ आळार कालाम का। यदि वह इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?” तब मुझे लगा, “यह उदक रामपुत्त पण्डित है, अनुभवी है, मेधावी है, और दीर्घकाल से आँखों में कम धूल वाला है। मैं पहले उसे धर्म का उपदेश करता हूँ। वही है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा।”
तब, राजकुमार, एक अदृश्य देवता ने मुझे फिर सूचित किया, “भंते, उदक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” और मुझे भी ज्ञान उत्पन्न हुआ, “उदक रामपुत्त की मौत कल रात हुई।” मुझे लगा, “बड़ा नुकसान हुआ उदक रामपुत्त का। यदि वह भी इस धर्म को सुनता, तो तुरंत समझ जाता।”
तब, राजकुमार, मुझे लगा, “अब मैं पहले किसे धर्म का उपदेश करूँ? कौन है, जो इस धर्म को तुरंत समझ लेगा?” तब मुझे लगा, “ये पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बहुत उपयोगी थे, जब मैं कठोर तप कर रहा था। मैं उन पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को पहले धर्म का उपदेश करूँगा।” तब मुझे लगा, “किन्तु इस समय पञ्चवर्गीय भिक्षुगण कहाँ रह रहे हैं?”
तब, राजकुमार, मैंने अपने मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन में रहते हुए देखा। तब, मैंने उरुवेला में इच्छानुसार जितना रुकना था, उतना रुका, 8 और वाराणसी के भ्रमण पर निकल पड़ा।
तब, राजकुमार, उपक आजीवक (=संन्यासी) ने मुझे गया से बोधि उत्पन्न होने वाले स्थान (=बोधगया के बोधिवृक्ष) के मार्ग में यात्रा करते देखा। उसने मुझे कहा, “तुम्हारे इंद्रिय प्रसन्न हैं, मित्र, और तुम्हारी त्वचा परिशुद्ध और तेजस्वी है। तुम किसे उद्देश्य कर प्रवज्जित हुए हो, मित्र? कौन हैं तुम्हारे शास्ता? तुम्हें किसके धर्म में रुचि है?”
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, मैंने उपक आजीवक को गाथाओं में कहा —
“तुम्हारे दावे से तो लगता है, मित्र, कि जैसे तुम कोई काबिल ‘अनन्त-विजेता’ 4 हो!”
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, उपक आजीवक ने “ऐसा ही होगा, मित्र!” कहते हुए अपना सिर हिलाया, और उल्टे रास्ते से चला गया।
तब, राजकुमार, मैंने अनुक्रम से वाराणसी में ऋषिपतन के मृगवन की ओर भ्रमण करते हुए पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गया। पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने मुझे दूर से आते हुए देखा। और, उन्हें देखते ही एक-दूसरे से सहमति बनायी —
“मित्रों, ये श्रमण गौतम आ रहा है — विलासी, तपस्या से भटका, विलासी जीवन में लौटा हुआ । हमें उसका न अभिवादन करना चाहिए, न उसके लिए खड़े होना चाहिए, न उसका पात्र और चीवर ही उठाना चाहिए। किन्तु, बैठने का आसन रख देना चाहिए। उसे बैठने की इच्छा हो तो बैठेगा।”
किन्तु, राजकुमार, जैसे-जैसे मैं पञ्चवर्गीय भिक्षुओं के पास गया, वैसे-वैसे पञ्चवर्गीय भिक्षुगण बनी आम-सहमति पर टिक नहीं पाएँ। एक ने आगे बढ़कर मेरा पात्र और चीवर ग्रहण किया, एक ने आसन लगाया, एक ने पैर धोने का जल रखा, एक ने पैर रखने का पीठ रखा, और एक ने पैर रगड़ने का पत्थर रखा।
तब, राजकुमार, मैं बिछे आसन पर बैठ गया और बैठकर अपने पैर धोएँ। हालाँकि, वे तब भी मुझे नाम से और ‘मित्र’ कहकर पुकार रहे थे। ऐसा कहे जाने पर मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत को नाम से और ‘मित्र’ कहकर ना पुकारें। तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, राजकुमार, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने मुझसे कहा, “मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
ऐसा कहे जाने पर, राजकुमार, मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, राजकुमार, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
तब, राजकुमार, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने दूसरी बार मुझसे कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
तब, राजकुमार, मैंने दूसरी बार पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, तथागत न विलासी, न तपस्या से भटके, और न ही विलासी जीवन में लौटे है। बल्कि तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। सुनों, राजकुमार, अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है…”
तब, राजकुमार, पञ्चवर्गीय भिक्षुओं ने तीसरी बार मुझसे कहा, “किन्तु, मित्र गौतम, जब तुम्हें इतनी दुष्कर तपस्या से कोई मनुष्योत्तर अवस्था, विशेष आर्य-ज्ञानदर्शन प्राप्त नहीं हुआ, तब विलासी होकर, तपस्या से भटक कर, विलासी जीवन में लौटने से, भला कैसे ये सब प्राप्त हो गया?”
तब, राजकुमार, मैंने पञ्चवर्गीय भिक्षुओं से कहा, “भिक्षुओं, क्या तुमने मुझे ऐसा कहते हुए पहले कभी सुना है?”
“नहीं, भंते!”
“तब सुनों, भिक्षुओं! तथागत ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ है। अमृत की ओर बढ़ती धारा मिल चुकी है। मैं तुम्हें अनुशासित करूँगा और धर्म का उपदेश करूँगा। बताएँ अनुसार चलोगे तो इसी जीवन में जल्द ही ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर स्थित हो जाओगे, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं।”
इस तरह, राजकुमार, मैं पञ्चवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में सफल हुआ ।
तब, राजकुमार, जब कभी मैं दो भिक्षुओं को निर्देशित करता, तब तीन भिक्षु भिक्षाटन करने के लिए जाते। और उन तीन भिक्षुओं को मिले भिक्षान्न पर हम सभी छह लोग यापन करते। और, जब कभी मैं तीन भिक्षुओं को निर्देशित करता, तब दो भिक्षु भिक्षाटन करने के लिए जाते। और उन दो भिक्षुओं को मिले भिक्षान्न पर हम सभी छह लोग यापन करते।
इस तरह, राजकुमार, मेरे द्वारा निर्देशित होने पर, अनुशासित होने पर, पञ्चवर्गीय भिक्षुगण ने जल्द ही, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, वे उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार किया।”
जब ऐसा कहा गया, तब बोधि राजकुमार ने भगवान से कहा, “भंते, जब किसी भिक्षु को तथागत जैसे मार्गदर्शक मिले, तो उसे कितना समय लगता है, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करने के लिए?”
“ठीक है, राजकुमार, मैं तुमसे ही प्रतिप्रश्न करता हूँ। जैसा तुम्हें लगे, वैसा उत्तर दो। क्या लगता है, राजकुमार? क्या तुम हाथी को वश करने की कला में कुशल हो?”
“हाँ, भंते। मैं हाथी को वश करने की कला में कुशल हूँ।”
“क्या लगता है, राजकुमार? यदि कोई पुरुष आकर कहता है, ‘बोधि राजकुमार हाथी को वश करने की कला में कुशल हैं। मैं भी उनकी इस कला को सीखूँगा।’ किन्तु, यदि वह —
तब क्या लगता है, राजकुमार? क्या वह पुरुष तुम्हारे पास हाथी को वश करने की कला सीखेगा?”
“पाँचों गुणों के बारे में क्या कहूँ, भंते? यदि इनमें से एक भी गुण से युक्त न हो, तो वह पुरुष मेरे पास हाथी को वश करने की कला नहीं सीख पाएगा।”
“और, क्या लगता है, राजकुमार? यदि कोई पुरुष आकर कहता है, ‘बोधि राजकुमार हाथी को वश करने की कला में कुशल हैं। मैं भी उनकी इस कला को सीखूँगा।’ और, यदि वह —
तब क्या लगता है, राजकुमार? क्या वह पुरुष तुम्हारे पास हाथी को वश करने की कला सीखेगा?”
“पाँचों गुणों के बारे में क्या कहूँ, भंते? यदि इनमें से एक भी गुण से युक्त हो, तो वह पुरुष मेरे पास हाथी को वश करने की कला सीख पाएगा।”
“उसी तरह, राजकुमार, परिश्रम (“पधान”) करने के पाँच अंग हैं। कौन से पाँच? किसी भिक्षु को —
— ये परिश्रम करने के पाँच अंग हैं, राजकुमार।
यदि कोई भिक्षु इन पाँच अंगों से युक्त हो, और उसे तथागत मार्गदर्शक (के रूप में) मिले, तब वह सात वर्ष में ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करेगा, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है।
सात वर्ष छोड़ो, राजकुमार। यदि कोई भिक्षु इन पाँच अंगों से युक्त हो, और उसे तथागत मार्गदर्शक मिले, तब वह छह वर्ष… पाँच वर्ष… चार वर्ष… तीन वर्ष… दो वर्ष… एक वर्ष में ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करेगा, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है।
एक वर्ष छोड़ो, राजकुमार। यदि कोई भिक्षु इन पाँच अंगों से युक्त हो, और उसे तथागत मार्गदर्शक मिले, तब वह सात महीने… छह महीने… पाँच महीने… चार महीने… तीन महीने… दो महीने… एक महीने… आधे महीने में ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करेगा, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है।
आधा महिना भी छोड़ो, राजकुमार। यदि कोई भिक्षु इन पाँच अंगों से युक्त हो, और उसे तथागत मार्गदर्शक मिले, तब वह सात दिन… छह दिन… पाँच दिन… चार दिन… तीन दिन… दो दिन… एक दिन में ब्रह्मचर्य की उस सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर, इसी जीवन में स्वयं जान कर, साक्षात्कार कर विहार करेगा, जिस ध्येय से कोई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्ज्यित होता है।
एक दिन भी छोड़ो, राजकुमार। यदि कोई भिक्षु इन पाँच अंगों से युक्त हो, और उसे तथागत मार्गदर्शक मिले, तब उसे सायंकाल में निर्देशित करने पर सुबह तक विशेषता प्राप्त होती है, और सुबह निर्देशित करने पर शाम तक विशेषता प्राप्त होती है।”
जब ऐसा कहा गया, तब बोधि राजकुमार भगवान से कह पड़ा, “अरे, क्या बुद्ध है! अरे, क्या धर्म है! अरे, कितनी स्पष्टता से बताया यह धर्म है! जिसमें किसी को सायंकाल में निर्देशित करने पर सुबह तक विशेषता प्राप्त हो! और सुबह निर्देशित करने पर शाम तक विशेषता प्राप्त हो!”
जब ऐसा कहा गया, तब सञ्जिकापुत्त युवा-ब्राह्मण ने बोधि राजकुमार से कहा, “भले ही श्रीमान बोधि को ऐसा कह पड़े — ‘अरे, क्या बुद्ध है! अरे, क्या धर्म है! अरे, कितनी स्पष्टता से बताया यह धर्म है!’ तब भी आप श्रीमान गोतम की शरण मत जाईये! धर्म की और भिक्षुसंघ की भी शरण मत जाईये!”
“ऐसा मत कहो, भले सञ्जिकापुत्त! ऐसा मत कहो! ऐसा मैंने अपनी माँ के मुख से सुना है और उसी को याद किया है। एक समय, भले सञ्जिकापुत्त, भगवान कौशांबी के घोषित विहार में रहते थे। तब मेरी गर्भवती माँ भगवान के पास गयी, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गयी। एक ओर बैठकर मेरी माँ ने भगवान से कहा, ‘भंते, मेरे गर्भ में जो भी राजकुमार या राजकुमारी हो, वह भगवान की शरण जाते है। धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान उन्हें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!’
और, एक समय, भले सञ्जिकापुत्त, भगवान इसी जगह भग्गों के साथ मगरमच्छ टीले पर भेसकला मृगवन में विहार कर रहे थे। तब मेरी दाई मुझे अपनी कमर पर रखे भगवान के पास गयी, और जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर खड़ी हुई। एक ओर खड़ी होकर मेरी दाई ने भगवान से कहा, ‘भंते, यह बोधि राजकुमार भगवान की शरण जाता है। धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान उसे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!’
और अब तीसरी बार, भले सञ्जिकापुत्त, मैं भगवान की शरण जाता हूँ। धर्म की और भिक्षुसंघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
अट्ठकथा के अनुसार, बोधि राजकुमार संतानहीन था। उसका विचार था कि यदि भगवान बुद्ध उसके बिछाए सफेद वस्त्र पर पाँव रखते हैं, तो यह संकेत होगा कि भविष्य में उसे संतान प्राप्त होगी, और यदि वे ऐसा न करें तो संतान नहीं होगी। धम्मपद १५७ की अट्ठकथा के अनुसार, भगवान स्वयं बोधि को सीधा बता देते हैं कि उसे संतान नहीं होगी। जबकि यहाँ इस सूत्र में, वस्त्र पर पाँव न रखकर भगवान बोधि राजकुमार को उसी का अप्रत्यक्ष उत्तर दे रहे थे।
परन्तु, पालि मूल विवरण में ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान केवल बोधि राजकुमार की अंधश्रद्धा (“मङ्ग्लिक”) को हतोत्साहित कर रहे थे। अब तक का यह संवाद विनयपिटक के चूळवग्ग १५: खुद्दकवत्थुक्खन्धक २१ में भी मिलता है। विनयपिटक का संस्करण आगे आने वाले उपदेश को लोप कर देता है, और इसके स्थान पर एक ऐसा अवसर प्रस्तुत करता है जहाँ बुद्ध वस्त्र पर पैर रखने को हल्की अपराध-श्रेणी “दुक्कट” में रखते हैं। ↩︎
यह निगण्ठ नाटपुत्त का, अर्थात, एक जैन दृष्टिकोण है, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय १४ में भी हुआ है। ↩︎
अनाश्चर्यकारक का यहाँ अर्थ है, जो किसी दिव्यशक्ति से प्राप्त न हो। विद्वानों का मानना है कि ऐसी गाथाएँ सूझ पड़ना, जो पहले सुनी न गयी हो, और जब उनका स्त्रोत या माध्यम दिव्य हो, तब उन्हें “आश्चर्यकारक गाथाएँ” कहते हैं। वैदिक परंपरा के अनुसार, ऐसी आश्चर्यकारक गाथाएँ, जिन्हें ‘श्रुति’ भी कहते हैं, वे ईश्वर या देवताओं के माध्यम से प्राप्त होती हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पैगंबरों को कोई दिव्यशक्ति आकर गाथाओं में धर्म बताती है। लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि उन्हें ये गाथाएँ, जो पहले सुनी न गयी थी, वे “अनाश्चर्यकारक” थी, जो उन्हें साधारण रूप से सूझ पड़ी। ↩︎
मैंने आज की माचिस की तीली का उदाहरण दिया है, लेकिन असल में जो उपमा दी गई है, वह प्राचीन अग्नि-संयोग—अरणि मंथन—की प्रक्रिया से है। यानी वह प्रयास जिसमें कोई व्यक्ति दो लकड़ियों को रगड़कर अग्नि उत्पन्न करने की कोशिश करता है। यह स्पष्ट है कि यदि लकड़ी गीली और रसदार हो, तो चाहे जितनी कोशिश की जाए, उससे आग नहीं जलाई जा सकती।
परंतु चूंकि आज के आधुनिक लोग शायद इस पारंपरिक प्रक्रिया को एक शब्द में नहीं समझ पाते, इसलिए मैंने उन्हें उनकी ‘आधुनिक भाषा’ में समझाने के लिए माचिस की तीली का उदाहरण दिया, और शायद जाने-अनजाने में उन्हें और भी अधिक आलसी बना दिया। ↩︎ ↩︎
देवताओं के इस हस्तक्षेप का स्पष्ट विवरण कहीं नहीं मिलता। लेकिन मैं व्यक्तिगत दृष्टिकोण से दो संभावित (लेकिन अनिश्चित) व्याख्याएँ प्रस्तुत करता हूँ।
अनाश्चर्यकारक का यहाँ अर्थ है, जो किसी दिव्यशक्ति से प्राप्त न हो। विद्वानों का मानना है कि ऐसी गाथाएँ सूझ पड़ना, जो पहले सुनी न गयी हो, और जब उनका स्त्रोत या माध्यम दिव्य हो, तब उन्हें “आश्चर्यकारक गाथाएँ” कहते हैं। वैदिक परंपरा के अनुसार, ऐसी आश्चर्यकारक गाथाएँ, जिन्हें ‘श्रुति’ भी कहते हैं, वे ईश्वर या देवताओं के माध्यम से प्राप्त होती हैं। ठीक उसी तरह, जैसे पैगंबरों को कोई दिव्यशक्ति आकर गाथाओं में धर्म बताती है। लेकिन यहाँ भगवान कहते हैं कि उन्हें ये गाथाएँ, जो पहले सुनी न गयी थी, वे “अनाश्चर्यकारक” थी, जो उन्हें साधारण रूप से सूझ पड़ी। ↩︎
सहम्पति ब्रह्मा को ‘ज्येष्ठ महाब्रह्मा’ भी कहा जाता है, जो प्रसिद्ध ‘बकब्रह्मा’ से ऊपर के ब्रह्मलोक में रहता है। सहम्पति पिछले जीवन में सहक नामक मनुष्य था, जो भगवान कश्यप बुद्ध के संघ में भिक्षु बना था। उसने भिक्षु जीवन में पाँच इंद्रियों (=श्रद्धा, शील, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा) को विकसित किया, जिसके फलस्वरूप आनागामि फ़ल प्राप्त कर ऊँचे ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। उसका बौद्ध धर्म में उपकार माना जाता है। उसी ने भगवान गौतम बुद्ध को धर्म सिखाने के लिए राजी किया, और मानवलोक का अनन्त कल्याण हुआ । यही नहीं, बल्कि वह महत्वपूर्ण क्षण में प्रकट होकर, भगवान गौतम बुद्ध को आश्वस्त भी करता, जैसे धर्म को गौरवान्वित करने के समय, या भिक्षुओं को चार स्मृतिप्रस्थान और पाँच इंद्रिय की साधना सिखाने से पूर्व। कहा जाता हैं कि उसे पश्चात ब्राह्मण साहित्य में ‘स्वयंभू ब्रह्मा’ के नाम पर शामिल किया गया। ↩︎
त्रिपिटक के अनुसार, भगवान उसके पश्चात तीन सप्ताह और रुके। इस तरह, भगवान ने उरुवेला में बुद्धत्व लाभ होने के पश्चात कुल सात सप्ताह बिताएँ। किन्तु, कुछ अन्य ग्रन्थों में मिथ्या लिखा है कि बोधिसत्व ने सात सप्ताह तक निरंतर ध्यानसाधना करने पर बुद्धत्व प्राप्त हुआ। ↩︎
३२४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा भग्गेसु विहरति सुसुमारगिरे भेसकळावने मिगदाये. तेन खो पन समयेन बोधिस्स राजकुमारस्स कोकनदो [कोकनुदो (स्या. कं. क.)] नाम पासादो अचिरकारितो होति अनज्झावुट्ठो समणेन वा ब्राह्मणेन वा केनचि वा मनुस्सभूतेन. अथ खो बोधि राजकुमारो सञ्जिकापुत्तं माणवं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, सम्म सञ्जिकापुत्त, येन भगवा तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा मम वचनेन भगवतो पादे सिरसा वन्द, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छ – ‘बोधि, भन्ते, राजकुमारो भगवतो पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छती’ति. एवञ्च वदेहि – ‘अधिवासेतु किर, भन्ते, भगवा बोधिस्स राजकुमारस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’’ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो सञ्जिकापुत्तो माणवो बोधिस्स राजकुमारस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि. सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो सञ्जिकापुत्तो माणवो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘बोधि खो [बोधि भो गोतम (सी. स्या. कं. पी.)] राजकुमारो भोतो गोतमस्स पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति. एवञ्च वदेति – ‘अधिवासेतु किर भवं गोतमो बोधिस्स राजकुमारस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’’ति. अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन. अथ खो सञ्जिकापुत्तो माणवो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना येन बोधि राजकुमारो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा बोधिं राजकुमारं एतदवोच – ‘‘अवोचुम्ह भोतो वचनेन तं भवन्तं गोतमं – ‘बोधि खो राजकुमारो भोतो गोतमस्स पादे सिरसा वन्दति, अप्पाबाधं अप्पातङ्कं लहुट्ठानं बलं फासुविहारं पुच्छति. एवञ्च वदेति – अधिवासेतु किर भवं गोतमो बोधिस्स राजकुमारस्स स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’ति. अधिवुट्ठञ्च पन समणेन गोतमेना’’ति.
३२५. अथ खो बोधि राजकुमारो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा, कोकनदञ्च पासादं ओदातेहि दुस्सेहि सन्थरापेत्वा याव पच्छिमसोपानकळेवरा [कळेबरा (सी.)], सञ्जिकापुत्तं माणवं आमन्तेसि – ‘‘एहि त्वं, सम्म सञ्जिकापुत्त, येन भगवा तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा भगवतो कालं आरोचेहि – ‘कालो, भन्ते, निट्ठितं भत्त’’’न्ति. ‘‘एवं, भो’’ति खो सञ्जिकापुत्तो माणवो बोधिस्स राजकुमारस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवतो कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, भो गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय येन बोधिस्स राजकुमारस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि. तेन खो पन समयेन बोधि राजकुमारो बहिद्वारकोट्ठके ठितो होति भगवन्तं आगमयमानो. अद्दसा खो बोधि राजकुमारो भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान पच्चुग्गन्त्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा पुरक्खत्वा येन कोकनदो पासादो तेनुपसङ्कमि. अथ खो भगवा पच्छिमं सोपानकळेवरं निस्साय अट्ठासि. अथ खो बोधि राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिरुहतु [अभिरूहतु (स्या. कं. पी.) अक्कमतु (चूळव. २६८)], भन्ते, भगवा दुस्सानि, अभिरुहतु सुगतो दुस्सानि; यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति. एवं वुत्ते, भगवा तुण्ही अहोसि. दुतियम्पि खो…पे… ततियम्पि खो बोधि राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिरुहतु, भन्ते, भगवा. दुस्सानि, अभिरुहतु सुगतो दुस्सानि; यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति.
३२६. अथ खो भगवा आयस्मन्तं आनन्दं अपलोकेसि. अथ खो आयस्मा आनन्दो बोधिं राजकुमारं एतदवोच – ‘‘संहरतु, राजकुमार, दुस्सानि; न भगवा चेलपटिकं [चेलपत्तिकं (सी. पी.)] अक्कमिस्सति. पच्छिमं जनतं तथागतो अनुकम्पती’’ति [अपलोकेतीति (सब्बत्थ)]. अथ खो बोधि राजकुमारो दुस्सानि संहरापेत्वा उपरिकोकनदपासादे [उपरिकोकनदे पासादे (सी. पी. विनयेच), उपरिकोकनदे (स्या. कं.)] आसनानि पञ्ञपेसि. अथ खो भगवा कोकनदं पासादं अभिरुहित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि सद्धिं भिक्खुसङ्घेन. अथ खो बोधि राजकुमारो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि. अथ खो बोधि राजकुमारो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्नो खो बोधि राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘मय्हं खो, भन्ते, एवं होति – ‘न खो सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खेन खो सुखं अधिगन्तब्ब’’’न्ति.
३२७. ‘‘मय्हम्पि खो, राजकुमार, पुब्बेव सम्बोधा अनभिसम्बुद्धस्स बोधिसत्तस्सेव सतो एतदहोसि – ‘न खो सुखेन सुखं अधिगन्तब्बं, दुक्खेन खो सुखं अधिगन्तब्ब’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, अपरेन समयेन दहरोव समानो सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजिं. सो एवं पब्बजितो समानो किंकुसलगवेसी [किंकुसलंगवेसी (क.)] अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो कालाम, इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, राजकुमार, आळारो कालामो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा, तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, राजकुमार, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, राजकुमार, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि, थेरवादञ्च जानामि पस्सामीति च पटिजानामि, अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो आळारो कालामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति; अद्धा आळारो कालामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहरती’ति.
‘‘अथ ख्वाहं, राजकुमार, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो कालाम, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति [उपसम्पज्ज पवेदेसीति (सी. स्या. कं. पी.)]? एवं वुत्ते, राजकुमार, आळारो कालामो आकिञ्चञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो आळारस्सेव कालामस्स अत्थि वीरियं…पे… सति… समाधि… पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा. यंनूनाहं यं धम्मं आळारो कालामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं. अथ ख्वाहं, राजकुमार, येन आळारो कालामो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा आळारं कालामं एतदवोचं – ‘एत्तावता नो, आवुसो कालाम, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति? ‘एत्तावता खो अहं, आवुसो, इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमी’ति. ‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति. ‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम . इति याहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि, तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि. यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि, तमहं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेमि. इति याहं धम्मं जानामि तं त्वं धम्मं जानासि; यं त्वं धम्मं जानासि तमहं धम्मं जानामि. इति यादिसो अहं, तादिसो तुवं; यादिसो तुवं तादिसो अहं. एहि दानि, आवुसो, उभोव सन्ता इमं गणं परिहरामा’ति. इति खो, राजकुमार, आळारो कालामो आचरियो मे समानो (अत्तनो) [( ) नत्थि (सी. स्या. कं. पी.)] अन्तेवासिं मं समानं अत्तना [अत्तनो (सी. पी.)] समसमं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव आकिञ्चञ्ञायतनूपपत्तिया’ति . सो खो अहं, राजकुमार, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.
३२८. ‘‘सो खो अहं, राजकुमार, किंकुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो येन उदको [उद्दको (सी. स्या. कं. पी.)] रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘इच्छामहं, आवुसो [आवुसो राम (सी. स्या. कं. क.) पस्स म. नि. १.२७८ पासरासिसुत्ते], इमस्मिं धम्मविनये ब्रह्मचरियं चरितु’न्ति. एवं वुत्ते, राजकुमार, उदको रामपुत्तो मं एतदवोच – ‘विहरतायस्मा, तादिसो अयं धम्मो यत्थ विञ्ञू पुरिसो नचिरस्सेव सकं आचरियकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’ति. सो खो अहं, राजकुमार, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं परियापुणिं. सो खो अहं, राजकुमार, तावतकेनेव ओट्ठपहतमत्तेन लपितलापनमत्तेन ञाणवादञ्च वदामि, थेरवादञ्च जानामि पस्सामीति च पटिजानामि, अहञ्चेव अञ्ञे च. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो रामो इमं धम्मं केवलं सद्धामत्तकेन सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसि; अद्धा रामो इमं धम्मं जानं पस्सं विहासी’ति. अथ ख्वाहं, राजकुमार, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘कित्तावता नो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेसी’ति? एवं वुत्ते, राजकुमार, उदको रामपुत्तो नेवसञ्ञानासञ्ञायतनं पवेदेसि. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो रामस्सेव अहोसि सद्धा, मय्हंपत्थि सद्धा; न खो रामस्सेव अहोसि वीरियं…पे… सति… समाधि… पञ्ञा, मय्हंपत्थि पञ्ञा. यंनूनाहं यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामीति पवेदेति तस्स धम्मस्स सच्छिकिरियाय पदहेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, नचिरस्सेव खिप्पमेव तं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासिं.
‘‘अथ ख्वाहं, राजकुमार, येन उदको रामपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा उदकं रामपुत्तं एतदवोचं – ‘एत्तावता नो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति? ‘एत्तावता खो, आवुसो, रामो इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसी’ति. ‘अहम्पि खो, आवुसो, एत्तावता इमं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरामी’ति. ‘लाभा नो, आवुसो, सुलद्धं नो, आवुसो, ये मयं आयस्मन्तं तादिसं सब्रह्मचारिं पस्साम. इति यं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि तं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि. यं त्वं धम्मं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरसि तं धम्मं रामो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज पवेदेसि. इति यं धम्मं रामो अभिञ्ञासि तं त्वं धम्मं जानासि; यं त्वं धम्मं जानासि तं धम्मं रामो अभिञ्ञासि. इति यादिसो रामो अहोसि तादिसो तुवं, यादिसो तुवं तादिसो रामो अहोसि. एहि दानि, आवुसो, तुवं इमं गणं परिहरा’ति. इति खो, राजकुमार, उदको रामपुत्तो सब्रह्मचारी मे समानो आचरियट्ठाने मं ठपेसि, उळाराय च मं पूजाय पूजेसि. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘नायं धम्मो निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, यावदेव नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपपत्तिया’ति. सो खो अहं, राजकुमार, तं धम्मं अनलङ्करित्वा तस्मा धम्मा निब्बिज्ज अपक्कमिं.
३२९. ‘‘सो खो अहं, राजकुमार, किंकुसलगवेसी अनुत्तरं सन्तिवरपदं परियेसमानो, मगधेसु अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो, येन उरुवेला सेनानिगमो तदवसरिं. तत्थद्दसं रमणीयं भूमिभागं, पासादिकञ्च वनसण्डं, नदीञ्च सन्दन्तिं सेतकं सुपतित्थं, रमणीयं समन्ता च गोचरगामं. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘रमणीयो वत, भो, भूमिभागो, पासादिको च वनसण्डो, नदिञ्च सन्दन्तिं सेतका सुपतित्था , रमणीया समन्ता [सामन्ता (?) पुरिमपिट्ठेपि] च गोचरगामो. अलं वतिदं कुलपुत्तस्स पधानत्थिकस्स पधानाया’ति. सो खो अहं, राजकुमार, तत्थेव निसीदिं – ‘अलमिदं पधानाया’ति. अपिस्सु मं, राजकुमार, तिस्सो उपमा पटिभंसु अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.
‘‘सेय्यथापि, राजकुमार, अल्लं कट्ठं सस्नेहं उदके निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, अपि नु सो पुरिसो अमुं अल्लं कट्ठं सस्नेहं उदके निक्खित्तं उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो [अभिमत्थन्तो (स्या. कं. क.)] अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भन्ते. तं किस्स हेतु? अदुञ्हि, भन्ते, अल्लं कट्ठं सस्नेहं तञ्च पन उदके निक्खित्तं, यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, राजकुमार, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि अवूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो सो च अज्झत्तं न सुप्पहीनो होति, न सुप्पटिप्पस्सद्धो. ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, राजकुमार, पठमा उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.
३३०. ‘‘अपरापि खो मं, राजकुमार, दुतिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. सेय्यथापि, राजकुमार, अल्लं कट्ठं सस्नेहं आरका उदका थले निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, अपि नु सो पुरिसो अमुं अल्लं कट्ठं सस्नेहं आरका उदका थले निक्खित्तं उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य , तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भन्ते. तं किस्स हेतु? अदुञ्हि, भन्ते, अल्लं कट्ठं सस्नेहं किञ्चापि आरका उदका थले निक्खित्तं, यावदेव च पन सो पुरिसो किलमथस्स विघातस्स भागी अस्सा’’ति. ‘‘एवमेव खो, राजकुमार, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि वूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो सो च अज्झत्तं न सुप्पहीनो होति, न सुप्पटिप्पस्सद्धो. ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, अभब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, राजकुमार, दुतिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.
३३१. ‘‘अपरापि खो मं, राजकुमार, ततिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. सेय्यथापि, राजकुमार, सुक्खं कट्ठं कोळापं आरका उदका थले निक्खित्तं. अथ पुरिसो आगच्छेय्य उत्तरारणिं आदाय – ‘अग्गिं अभिनिब्बत्तेस्सामि, तेजो पातुकरिस्सामी’ति. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, अपि नु सो पुरिसो अमुं सुक्खं कट्ठं कोळापं आरका उदका थले निक्खित्तं उत्तरारणिं आदाय अभिमन्थेन्तो अग्गिं अभिनिब्बत्तेय्य, तेजो पातुकरेय्या’’ति? ‘‘एवं, भन्ते’’. तं किस्स हेतु? अदुञ्हि, भन्ते, सुक्खं कट्ठं कोळापं, तञ्च पन आरका उदका थले निक्खित्त’’न्ति. ‘‘एवमेव खो, राजकुमार, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा कायेन चेव चित्तेन च कामेहि वूपकट्ठा विहरन्ति, यो च नेसं कामेसु कामच्छन्दो कामस्नेहो काममुच्छा कामपिपासा कामपरिळाहो सो च अज्झत्तं सुप्पहीनो होति सुप्पटिप्पस्सद्धो. ओपक्कमिका चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, भब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. नो चेपि ते भोन्तो समणब्राह्मणा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, भब्बाव ते ञाणाय दस्सनाय अनुत्तराय सम्बोधाय. अयं खो मं, राजकुमार, ततिया उपमा पटिभासि अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा. इमा खो मं, राजकुमार, तिस्सो उपमा पटिभंसु अनच्छरिया पुब्बे अस्सुतपुब्बा.
३३२. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं दन्तेभिदन्तमाधाय [पस्स म. नि. १.२२० वितक्कसण्ठानसुत्ते], जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हेय्यं अभिनिप्पीळेय्यं अभिसन्तापेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, दन्तेभिदन्तमाधाय, जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हामि अभिनिप्पीळेमि अभिसन्तापेमि. तस्स मय्हं, राजकुमार, दन्तेभिदन्तमाधाय, जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो कच्छेहि सेदा मुच्चन्ति. सेय्यथापि, राजकुमार, बलवा पुरिसो दुब्बलतरं पुरिसं सीसे वा गहेत्वा खन्धे वा गहेत्वा अभिनिग्गण्हेय्य अभिनिप्पीळेय्य अभिसन्तापेय्य; एवमेव खो मे, राजकुमार, दन्तेभिदन्तमाधाय, जिव्हाय तालुं आहच्च, चेतसा चित्तं अभिनिग्गण्हतो अभिनिप्पीळयतो अभिसन्तापयतो कच्छेहि सेदा मुच्चन्ति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
३३३. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु कण्णसोतेहि वातानं निक्खमन्तानं अधिमत्तो सद्दो होति. सेय्यथापि नाम कम्मारगग्गरिया धममानाय अधिमत्तो सद्दो होति, एवमेव खो मे, राजकुमार, मुखतो च नासतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु कण्णसोतेहि वातानं निक्खमन्तानं अधिमत्तो सद्दो होति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता मुद्धनि ऊहनन्ति [ऊहन्ति (सी.), ओहनन्ति (स्या. कं.), उहनन्ति (क.)]. सेय्यथापि, राजकुमार, बलवा पुरिसो तिण्हेन सिखरेन मुद्धनि अभिमत्थेय्य [मुद्धानं अभिमन्थेय्य (सी. पी.), मुद्धानं अभिमत्थेय्य (स्या. कं.)], एवमेव खो मे, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता मुद्धनि ऊहनन्ति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता सीसे सीसवेदना होन्ति. सेय्यथापि, राजकुमार, बलवा पुरिसो दळ्हेन वरत्तक्खण्डेन [वरत्तकबन्धनेन (सी.)] सीसे सीसवेठं ददेय्य; एवमेव खो मे, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता सीसे सीसवेदना होन्ति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता वाता कुच्छिं परिकन्तन्ति. सेय्यथापि, राजकुमार, दक्खो गोघातको वा गोघातकन्तेवासी वा तिण्हेन गोविकन्तनेन कुच्छिं परिकन्तेय्य, एवमेव खो मे, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्ता , वाता कुच्छिं परिकन्तन्ति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं अप्पाणकंयेव झानं झायेय्य’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासे उपरुन्धिं. तस्स मय्हं, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्तो कायस्मिं डाहो होति. सेय्यथापि, राजकुमार, द्वे बलवन्तो पुरिसा दुब्बलतरं पुरिसं नानाबाहासु गहेत्वा अङ्गारकासुया सन्तापेय्युं सम्परितापेय्युं, एवमेव खो मे, राजकुमार, मुखतो च नासतो च कण्णतो च अस्सासपस्सासेसु उपरुद्धेसु अधिमत्तो कायस्मिं डाहो होति. आरद्धं खो पन मे, राजकुमार, वीरियं होति असल्लीनं, उपट्ठिता सति असम्मुट्ठा, सारद्धो च पन मे कायो होति अप्पटिप्पस्सद्धो, तेनेव दुक्खप्पधानेन पधानाभितुन्नस्स सतो.
‘‘अपिस्सु मं, राजकुमार, देवता दिस्वा एवमाहंसु – ‘कालङ्कतो समणो गोतमो’ति. एकच्चा देवता एवमाहंसु – ‘न कालङ्कतो समणो गोतमो, अपि च कालङ्करोती’ति. एकच्चा देवता एवमाहंसु – ‘न कालङ्कतो समणो गोतमो, नापि कालङ्करोति . अरहं समणो गोतमो. विहारोत्वेव सो [विहारोत्वेवेसो (सी.)] अरहतो एवरूपो होती’ति [विहारोत्वेवेसो अरहतो’’ति (?)].
३३४. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जेय्य’न्ति. अथ खो मं, राजकुमार, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘मा खो त्वं, मारिस, सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जि. सचे खो त्वं, मारिस, सब्बसो आहारुपच्छेदाय पटिपज्जिस्ससि, तस्स ते मयं दिब्बं ओजं लोमकूपेहि अज्झोहारेस्साम [अज्झोहरिस्साम (स्या. कं. पी. क.)], ताय त्वं यापेस्ससी’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘अहञ्चेव खो पन सब्बसो अजज्जितं [अजद्धुकं (सी. पी.), जद्धुकं (स्या. कं.)] पटिजानेय्यं. इमा च मे देवता दिब्बं ओजं लोमकूपेहि अज्झोहारेय्युं [अज्झोहरेय्युं (स्या. कं. पी. क.)], ताय चाहं यापेय्यं, तं ममस्स मुसा’ति. सो खो अहं, राजकुमार, ता देवता पच्चाचिक्खामि. ‘हल’न्ति वदामि.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘यंनूनाहं थोकं थोकं आहारं आहारेय्यं पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं यदि वा कुलत्थयूसं यदि वा कळाययूसं यदि वा हरेणुकयूस’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, थोकं थोकं आहारं आहारेसिं पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं यदि वा कुलत्थयूसं यदि वा कळाययूसं यदि वा हरेणुकयूसं. तस्स मय्हं, राजकुमार, थोकं थोकं आहारं आहारयतो पसतं पसतं, यदि वा मुग्गयूसं यदि वा कुलत्थयूसं यदि वा कळाययूसं यदि वा हरेणुकयूसं, अधिमत्तकसिमानं पत्तो कायो होति. सेय्यथापि नाम आसीतिकपब्बानि वा काळपब्बानि वा, एवमेवस्सु मे अङ्गपच्चङ्गानि भवन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम ओट्ठपदं, एवमेवस्सु मे आनिसदं होति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम वट्टनावळी, एवमेवस्सु मे पिट्ठिकण्टको उण्णतावनतो होति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम जरसालाय गोपानसियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति, एवमेवस्सु मे फासुळियो ओलुग्गविलुग्गा भवन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम गम्भीरे उदपाने उदकतारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति, एवमेवस्सु मे अक्खिकूपेसु अक्खितारका गम्भीरगता ओक्खायिका दिस्सन्ति तायेवप्पाहारताय. सेय्यथापि नाम तित्तकालाबु आमकच्छिन्नो वातातपेन संफुटितो [सम्फुसितो (स्या. कं.), संपुटीतो (क.) संफुटितोति एत्थ सङ्कुचितोति अत्थो] होति सम्मिलातो, एवमेवस्सु मे सीसच्छवि संफुटिता होति सम्मिलाता तायेवप्पाहारताय. सो खो अहं, राजकुमार, ‘उदरच्छविं परिमसिस्सामी’ति पिट्ठिकण्टकंयेव परिग्गण्हामि, ‘पिट्ठिकण्टकं परिमसिस्सामी’ति उदरच्छविंयेव परिग्गण्हामि. यावस्सु मे, राजकुमार, उदरच्छवि पिट्ठिकण्टकं अल्लीना होति तायेवप्पाहारताय. सो खो अहं, राजकुमार, ‘वच्चं वा मुत्तं वा करिस्सामी’ति तत्थेव अवकुज्जो पपतामि तायेवप्पाहारताय. सो खो अहं, राजकुमार, इममेव कायं अस्सासेन्तो पाणिना गत्तानि अनुमज्जामि. तस्स मय्हं, राजकुमार, पाणिना गत्तानि अनुमज्जतो पूतिमूलानि लोमानि कायस्मा पपतन्ति तायेवप्पाहारताय. अपिस्सु मं, राजकुमार, मनुस्सा दिस्वा एवमाहंसु – ‘काळो समणो गोतमो’ति, एकच्चे मनुस्सा एवमाहंसु – ‘न काळो समणो गोतमो, सामो समणो गोतमो’ति. एकच्चे मनुस्सा एवमाहंसु – ‘न काळो समणो गोतमो, नपि सामो, मङ्गुरच्छवि समणो गोतमो’ति. यावस्सु मे, राजकुमार, ताव परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो उपहतो होति तायेवप्पाहारताय.
३३५. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘ये खो केचि अतीतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा [तिप्पा (सी. पी.)] खरा कटुका वेदना वेदयिंसु, एतावपरमं नयितो भिय्यो. येपि हि केचि अनागतमद्धानं समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयिस्सन्ति, एतावपरमं नयितो भिय्यो. येपि हि केचि एतरहि समणा वा ब्राह्मणा वा ओपक्कमिका दुक्खा तिब्बा खरा कटुका वेदना वेदयन्ति, एतावपरमं नयितो भिय्यो. न खो पनाहं इमाय कटुकाय दुक्करकारिकाय अधिगच्छामि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं; सिया नु खो अञ्ञो मग्गो बोधाया’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘अभिजानामि खो पनाहं पितु सक्कस्स कम्मन्ते सीताय जम्बुच्छायाय निसिन्नो विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरिता; सिया नु खो एसो मग्गो बोधाया’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, सतानुसारि विञ्ञाणं अहोसि – ‘एसेव मग्गो बोधाया’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘किं नु खो अहं तस्स सुखस्स भायामि यं तं सुखं अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेही’ति? तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो अहं तस्स सुखस्स भायामि यं तं सुखं अञ्ञत्रेव कामेहि अञ्ञत्र अकुसलेहि धम्मेही’ति.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘न खो तं सुकरं सुखं अधिगन्तुं एवं अधिमत्तकसिमानं पत्तकायेन. यंनूनाहं ओळारिकं आहारं आहारेय्यं ओदनकुम्मास’न्ति. सो खो अहं, राजकुमार, ओळारिकं आहारं आहारेसिं ओदनकुम्मासं. तेन खो पन मं, राजकुमार, समयेन पञ्चवग्गिया भिक्खू पच्चुपट्ठिता होन्ति – ‘यं खो समणो गोतमो धम्मं अधिगमिस्सति तं नो आरोचेस्सती’ति. यतो खो अहं, राजकुमार, ओळारिकं आहारं आहारेसिं ओदनकुम्मासं, अथ मे ते पञ्चवग्गिया भिक्खू निब्बिज्ज पक्कमिंसु – ‘बाहुल्लिको [बाहुलिको (सी. पी.) सारत्थटीकाय संघभेदसिक्खापदवण्णनाय समेति] समणो गोतमो पधानविब्भन्तो, आवत्तो बाहुल्लाया’ति.
३३६. ‘‘सो खो अहं, राजकुमार, ओळारिकं आहारं आहारेत्वा बलं गहेत्वा विविच्चेव कामेहि…पे… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. वितक्कविचारानं वूपसमा… दुतियं झानं… ततियं झानं… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहासिं. सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो…पे… इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि. अयं खो मे, राजकुमार, रत्तिया पठमे यामे पठमा विज्जा अधिगता, अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो – यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सामि चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते यथाकम्मूपगे सत्ते पजानामि …पे… अयं खो मे, राजकुमार, रत्तिया मज्झिमे यामे दुतिया विज्जा अधिगता, अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो – यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो.
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनिन्नामेसिं. सो ‘इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं…पे… ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं; ‘इमे आसवा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं…पे… ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं अब्भञ्ञासिं. तस्स मे एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चित्थ, भवासवापि चित्तं विमुच्चित्थ, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चित्थ. विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं अहोसि. ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति अब्भञ्ञासिं. अयं खो मे, राजकुमार, रत्तिया पच्छिमे यामे ततिया विज्जा अधिगता, अविज्जा विहता, विज्जा उप्पन्ना; तमो विहतो, आलोको उप्पन्नो – यथा तं अप्पमत्तस्स आतापिनो पहितत्तस्स विहरतो.
३३७. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘अधिगतो खो म्यायं धम्मो गम्भीरो दुद्दसो दुरनुबोधो सन्तो पणीतो अतक्कावचरो निपुणो पण्डितवेदनीयो. आलयरामा खो पनायं पजा आलयरता आलयसम्मुदिता. आलयरामाय खो पन पजाय आलयरताय आलयसम्मुदिताय दुद्दसं इदं ठानं यदिदं – इदप्पच्चयतापटिच्चसमुप्पादो. इदम्पि खो ठानं दुद्दसं – यदिदं सब्बसङ्खारसमथो सब्बूपधिपटिनिस्सग्गो तण्हाक्खयो विरागो निरोधो निब्बानं . अहञ्चेव खो पन धम्मं देसेय्यं, परे च मे न आजानेय्युं, सो ममस्स किलमथो, सा ममस्स विहेसा’ति. अपिस्सु मं, राजकुमार, इमा अनच्छरिया गाथायो पटिभंसु पुब्बे अस्सुतपुब्बा –
‘किच्छेन मे अधिगतं, हलं दानि पकासितुं;
रागदोसपरेतेहि, नायं धम्मो सुसम्बुधो.
‘पटिसोतगामिं निपुणं, गम्भीरं दुद्दसं अणुं;
रागरत्ता न दक्खन्ति, तमोखन्धेन आवुटा’ [आवटा (सी.), आवुता (स्या. कं.)] ति.
‘‘इतिह मे, राजकुमार, पटिसञ्चिक्खतो अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति नो धम्मदेसनाय.
३३८. ‘‘अथ खो, राजकुमार, ब्रह्मुनो सहम्पतिस्स मम चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय एतदहोसि – ‘नस्सति वत, भो, लोको; विनस्सति वत, भो, लोको. यत्र हि नाम तथागतस्स अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स अप्पोस्सुक्कताय चित्तं नमति [नमिस्सति (?)] नो धम्मदेसनाया’ति. अथ खो, राजकुमार, ब्रह्मा सहम्पति – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य, एवमेव – ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि. अथ खो, राजकुमार, ब्रह्मा सहम्पति एकंसं उत्तरासङ्गं करित्वा येनाहं तेनञ्जलिं पणामेत्वा मं एतदवोच – ‘देसेतु, भन्ते, भगवा धम्मं, देसेतु सुगतो धम्मं. सन्ति सत्ता अप्परजक्खजातिका अस्सवनताय धम्मस्स परिहायन्ति; भविस्सन्ति धम्मस्स अञ्ञातारो’ति . इदमवोच, राजकुमार, ब्रह्मा सहम्पति; इदं वत्वा अथापरं एतदवोच –
‘पातुरहोसि मगधेसु पुब्बे,
धम्मो असुद्धो समलेहि चिन्तितो;
अपापुरेतं [अवापुरेतं (सी.)] अमतस्स द्वारं,
सुणन्तु धम्मं विमलेनानुबुद्धं.
‘सेले यथा पब्बतमुद्धनिट्ठितो,
यथापि पस्से जनतं समन्ततो;
तथूपमं धम्ममयं सुमेध,
पासादमारुय्ह समन्तचक्खु.
‘सोकावतिण्णं [सोकावकिण्णं (स्या.)] जनतमपेतसोको,
अवेक्खस्सु जातिजराभिभूतं;
उट्ठेहि वीर, विजितसङ्गाम,
सत्थवाह अणण [अनण (सी. स्या. कं. पी. क.)], विचर लोके;
देसस्सु [देसेतु (स्या. कं. क.)] भगवा धम्मं,
अञ्ञातारो भविस्सन्ती’ति.
३३९. ‘‘अथ ख्वाहं, राजकुमार, ब्रह्मुनो च अज्झेसनं विदित्वा सत्तेसु च कारुञ्ञतं पटिच्च बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेसिं. अद्दसं खो अहं, राजकुमार, बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने [दस्साविनो (स्या. कं. क.)] विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते. सेय्यथापि नाम उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि समोदकं ठितानि, अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदका अच्चुग्गम्म ठितानि [तिट्ठन्ति (सी. स्या. कं. पी.)] अनुपलित्तानि उदकेन, एवमेव खो अहं, राजकुमार, बुद्धचक्खुना लोकं वोलोकेन्तो अद्दसं सत्ते अप्परजक्खे महारजक्खे तिक्खिन्द्रिये मुदिन्द्रिये स्वाकारे द्वाकारे सुविञ्ञापये दुविञ्ञापये, अप्पेकच्चे परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते, अप्पेकच्चे न परलोकवज्जभयदस्साविने विहरन्ते. अथ ख्वाहं, राजकुमार, ब्रह्मानं सहम्पतिं गाथाय पच्चभासिं –
‘अपारुता तेसं अमतस्स द्वारा,
ये सोतवन्तो पमुञ्चन्तु सद्धं;
विहिंससञ्ञी पगुणं न भासिं,
धम्मं पणीतं मनुजेसु ब्रह्मे’ति.
३४०. ‘‘अथ खो, राजकुमार, ब्रह्मा सहम्पति ‘कतावकासो खोम्हि भगवता धम्मदेसनाया’ति मं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा तत्थेवन्तरधायि.
‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘अयं खो आळारो कालामो पण्डितो वियत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको. यंनूनाहं आळारस्स कालामस्स पठमं धम्मं देसेय्यं; सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति. अथ खो मं, राजकुमार, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘सत्ताहकालङ्कतो, भन्ते, आळारो कालामो’ति. ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘सत्ताहकालङ्कतो आळारो कालामो’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘महाजानियो खो आळारो कालामो. सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य, खिप्पमेव आजानेय्या’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘अयं खो उदको रामपुत्तो पण्डितो वियत्तो मेधावी दीघरत्तं अप्परजक्खजातिको. यंनूनाहं उदकस्स रामपुत्तस्स पठमं धम्मं देसेय्यं; सो इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति. अथ खो मं, राजकुमार, देवता उपसङ्कमित्वा एतदवोच – ‘अभिदोसकालङ्कतो, भन्ते, उदको रामपुत्तो’ति. ञाणञ्च पन मे दस्सनं उदपादि – ‘अभिदोसकालङ्कतो उदको रामपुत्तो’ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘महाजानियो खो उदको रामपुत्तो. सचे हि सो इमं धम्मं सुणेय्य, खिप्पमेव आजानेय्या’ति.
३४१. ‘‘तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘कस्स नु खो अहं पठमं धम्मं देसेय्यं? को इमं धम्मं खिप्पमेव आजानिस्सती’ति? तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘बहुकारा खो मे पञ्चवग्गिया भिक्खू ये मं पधानपहितत्तं उपट्ठहिंसु. यंनूनाहं पञ्चवग्गियानं भिक्खूनं पठमं धम्मं देसेय्य’न्ति. तस्स मय्हं, राजकुमार, एतदहोसि – ‘कहं नु खो एतरहि पञ्चवग्गिया भिक्खू विहरन्ती’ति. अद्दसं ख्वाहं, राजकुमार, दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन पञ्चवग्गिये भिक्खू बाराणसियं विहरन्ते इसिपतने मिगदाये. अथ ख्वाहं, राजकुमार, उरुवेलायं यथाभिरन्तं विहरित्वा येन बाराणसी तेन चारिकं पक्कमिं.
‘‘अद्दसा खो मं, राजकुमार, उपको आजीवको अन्तरा च गयं अन्तरा च बोधिं अद्धानमग्गप्पटिपन्नं . दिस्वान मं एतदवोच – ‘विप्पसन्नानि खो ते, आवुसो, इन्द्रियानि, परिसुद्धो छविवण्णो परियोदातो. कंसि त्वं, आवुसो, उद्दिस्स पब्बजितो? को वा ते सत्था? कस्स वा त्वं धम्मं रोचेसी’ति? एवं वुत्ते, अहं, राजकुमार, उपकं आजीवकं गाथाहि अज्झभासिं –
‘सब्बाभिभू सब्बविदूहमस्मि,
सब्बेसु धम्मेसु अनूपलित्तो;
सब्बञ्जहो तण्हाक्खये विमुत्तो,
सयं अभिञ्ञाय कमुद्दिसेय्यं.
‘न मे आचरियो अत्थि, सदिसो मे न विज्जति;
सदेवकस्मिं लोकस्मिं, नत्थि मे पटिपुग्गलो.
‘अहञ्हि अरहा लोके, अहं सत्था अनुत्तरो;
एकोम्हि सम्मासम्बुद्धो, सीतिभूतोस्मि निब्बुतो.
‘धम्मचक्कं पवत्तेतुं, गच्छामि कासिनं पुरं;
अन्धीभूतस्मिं [अन्धभूतस्मिं (सी. स्या. पी.)] लोकस्मिं, आहञ्छं [आहञ्ञिं (स्या. कं. क.)] अमतदुन्दुभि’न्ति.
‘यथा खो त्वं, आवुसो, पटिजानासि अरहसि अनन्तजिनो’ति.
‘मादिसा वे जिना होन्ति, ये पत्ता आसवक्खयं;
जिता मे पापका धम्मा, तस्माहमुपक [तस्माहं उपका (सी. स्या. कं. पी.)] जिनो’ति.
‘‘एवं वुत्ते, राजकुमार, उपको आजीवको ‘हुपेय्यपावुसो’ति [हुवेय्यपावुसो (सी. पी.), हुवेय्यावुसो (स्या. कं.)] वत्वा सीसं ओकम्पेत्वा उम्मग्गं गहेत्वा पक्कामि.
३४२. ‘‘अथ ख्वाहं, राजकुमार, अनुपुब्बेन चारिकं चरमानो येन बाराणसी इसिपतनं मिगदायो येन पञ्चवग्गिया भिक्खू तेनुपसङ्कमिं. अद्दसंसु खो मं, राजकुमार, पञ्चवग्गिया भिक्खू दूरतोव आगच्छन्तं. दिस्वान अञ्ञमञ्ञं सण्ठपेसुं – ‘अयं खो, आवुसो, समणो गोतमो आगच्छति बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय. सो नेव अभिवादेतब्बो, न पच्चुट्ठातब्बो, नास्स पत्तचीवरं पटिग्गहेतब्बं; अपि च खो आसनं ठपेतब्बं – सचे सो आकङ्खिस्सति निसीदिस्सती’ति. यथा यथा खो अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू उपसङ्कमिं [उपसङ्कमामि (सी. पी.)], तथा तथा पञ्चवग्गिया भिक्खू नासक्खिंसु सकाय कतिकाय सण्ठातुं. अप्पेकच्चे मं पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेसुं. अप्पेकच्चे आसनं पञ्ञपेसुं. अप्पेकच्चे पादोदकं उपट्ठपेसुं. अपि च खो मं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरन्ति. एवं वुत्ते, अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘मा, भिक्खवे, तथागतं नामेन च आवुसोवादेन च समुदाचरथ [समुदाचरित्थ (सी. स्या. कं. पी.)]; अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं. अमतमधिगतं. अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति. एवं वुत्ते, राजकुमार, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय [चरियाय (स्या. कं.)] ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं; किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति? एवं वुत्ते, अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘न, भिक्खवे, तथागतो बाहुल्लिको न पधानविब्भन्तो न आवत्तो बाहुल्लाय. अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं. अमतमधिगतं. अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति. दुतियम्पि खो, राजकुमार, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं; किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति? दुतियम्पि खो अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘न, भिक्खवे, तथागतो बाहुल्लिको न पधानविब्भन्तो न आवत्तो बाहुल्लाय. अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं. अमतमधिगतं. अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति . ततियम्पि खो, राजकुमार, पञ्चवग्गिया भिक्खू मं एतदवोचुं – ‘तायपि खो त्वं, आवुसो गोतम, इरियाय ताय पटिपदाय ताय दुक्करकारिकाय नाज्झगमा उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेसं; किं पन त्वं एतरहि बाहुल्लिको पधानविब्भन्तो आवत्तो बाहुल्लाय अधिगमिस्ससि उत्तरिमनुस्सधम्मा अलमरियञाणदस्सनविसेस’न्ति? एवं वुत्ते , अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू एतदवोचं – ‘अभिजानाथ मे नो तुम्हे, भिक्खवे, इतो पुब्बे एवरूपं पभावितमेत’न्ति [भासितमेतन्ति (सी. स्या. विनयेपि)]? ‘नो हेतं, भन्ते’. ‘अरहं, भिक्खवे, तथागतो सम्मासम्बुद्धो. ओदहथ, भिक्खवे, सोतं. अमतमधिगतं. अहमनुसासामि, अहं धम्मं देसेमि. यथानुसिट्ठं तथा पटिपज्जमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति.
‘‘असक्खिं खो अहं, राजकुमार, पञ्चवग्गिये भिक्खू सञ्ञापेतुं. द्वेपि सुदं, राजकुमार, भिक्खू ओवदामि. तयो भिक्खू पिण्डाय चरन्ति. यं तयो भिक्खू पिण्डाय चरित्वा आहरन्ति, तेन छब्बग्गिया [छब्बग्गा (सी. स्या. कं.), छब्बग्गो (पी.)] यापेम. तयोपि सुदं, राजकुमार, भिक्खू ओवदामि, द्वे भिक्खू पिण्डाय चरन्ति. यं द्वे भिक्खू पिण्डाय चरित्वा आहरन्ति तेन छब्बग्गिया यापेम.
३४३. ‘‘अथ खो, राजकुमार, पञ्चवग्गिया भिक्खू मया एवं ओवदियमाना एवं अनुसासियमाना नचिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिंसू’’ति. एवं वुत्ते, बोधि राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कीव चिरेन नु खो, भन्ते, भिक्खु तथागतं विनायकं [नायकं (?)] लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्या’’ति? ‘‘तेन हि, राजकुमार, तंयेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि. यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, कुसलो त्वं हत्थारूळ्हे [हत्थारूय्हे (सी. पी.)] अङ्कुसगय्हे [अङ्कुसगण्हे (स्या. कं.)] सिप्पे’’ति? ‘‘एवं, भन्ते, कुसलो अहं हत्थारूळ्हे अङ्कुसगय्हे सिप्पे’’ति . ‘‘तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, इध पुरिसो आगच्छेय्य – ‘बोधि राजकुमारो हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं जानाति; तस्साहं सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खिस्सामी’ति. सो चस्स अस्सद्धो; यावतकं सद्धेन पत्तब्बं तं न सम्पापुणेय्य. सो चस्स बह्वाबाधो; यावतकं अप्पाबाधेन पत्तब्बं तं न सम्पापुणेय्य. सो चस्स सठो मायावी; यावतकं असठेन अमायाविना पत्तब्बं तं न सम्पापुणेय्य. सो चस्स कुसीतो; यावतकं आरद्धवीरियेन पत्तब्बं तं न सम्पापुणेय्य. सो चस्स दुप्पञ्ञो; यावतकं पञ्ञवता पत्तब्बं तं न सम्पापुणेय्य. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, अपि नु सो पुरिसो तव सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खेय्या’’ति? ‘‘एकमेकेनापि, भन्ते, अङ्गेन समन्नागतो सो पुरिसो न मम सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खेय्य, को पन वादो पञ्चहङ्गेही’’ति!
३४४. ‘‘तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, इध पुरिसो आगच्छेय्य – ‘बोधि राजकुमारो हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं जानाति; तस्साहं सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खिस्सामी’ति. सो चस्स सद्धो; यावतकं सद्धेन पत्तब्बं तं सम्पापुणेय्य. सो चस्स अप्पाबाधो; यावतकं अप्पाबाधेन पत्तब्बं तं सम्पापुणेय्य. सो चस्स असठो अमायावी; यावतकं असठेन अमायाविना पत्तब्बं तं सम्पापुणेय्य. सो चस्स आरद्धवीरियो; यावतकं आरद्धवीरियेन पत्तब्बं तं सम्पापुणेय्य. सो चस्स पञ्ञवा; यावतकं पञ्ञवता पत्तब्बं तं सम्पापुणेय्य. तं किं मञ्ञसि, राजकुमार, अपि नु सो पुरिसो तव सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खेय्या’’ति? ‘‘एकमेकेनापि, भन्ते, अङ्गेन समन्नागतो सो पुरिसो मम सन्तिके हत्थारूळ्हं अङ्कुसगय्हं सिप्पं सिक्खेय्य, को पन वादो पञ्चहङ्गेही’’ति! ‘‘एवमेव खो, राजकुमार, पञ्चिमानि पधानियङ्गानि. कतमानि पञ्च? इध, राजकुमार, भिक्खु सद्धो होति; सद्दहति तथागतस्स बोधिं – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति; अप्पाबाधो होति अप्पातङ्को समवेपाकिनिया गहणिया समन्नागतो नातिसीताय नाच्चुण्हाय मज्झिमाय पधानक्खमाय; असठो होति अमायावी यथाभूतं अत्तानं आविकत्ता सत्थरि वा विञ्ञूसु वा सब्रह्मचारीसु ; आरद्धवीरियो विहरति अकुसलानं धम्मानं पहानाय कुसलानं धम्मानं उपसम्पदाय, थामवा दळ्हपरक्कमो अनिक्खित्तधुरो कुसलेसु धम्मेसु; पञ्ञवा होति उदयत्थगामिनिया पञ्ञाय समन्नागतो अरियाय निब्बेधिकाय सम्मादुक्खक्खयगामिनिया. इमानि खो, राजकुमार, पञ्च पधानियङ्गानि.
३४५. ‘‘इमेहि , राजकुमार, पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य सत्त वस्सानि. तिट्ठन्तु, राजकुमार, सत्त वस्सानि. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य छब्बस्सानि… पञ्च वस्सानि… चत्तारि वस्सानि… तीणि वस्सानि… द्वे वस्सानि… एकं वस्सं. तिट्ठतु, राजकुमार, एकं वस्सं. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य सत्त मासानि. तिट्ठन्तु, राजकुमार, सत्त मासानि. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य छ मासानि… पञ्च मासानि… चत्तारि मासानि… तीणि मासानि… द्वे मासानि… एकं मासं… अड्ढमासं. तिट्ठतु, राजकुमार, अड्ढमासो. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य सत्त रत्तिन्दिवानि. तिट्ठन्तु, राजकुमार, सत्त रत्तिन्दिवानि. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरेय्य छ रत्तिन्दिवानि… पञ्च रत्तिन्दिवानि… चत्तारि रत्तिन्दिवानि… तीणि रत्तिन्दिवानि… द्वे रत्तिन्दिवानि… एकं रत्तिन्दिवं. तिट्ठतु, राजकुमार, एको रत्तिन्दिवो. इमेहि पञ्चहि पधानियङ्गेहि समन्नागतो भिक्खु तथागतं विनायकं लभमानो सायमनुसिट्ठो पातो विसेसं अधिगमिस्सति, पातमनुसिट्ठो सायं विसेसं अधिगमिस्सती’’ति. एवं वुत्ते, बोधि राजकुमारो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहो बुद्धो, अहो धम्मो, अहो धम्मस्स स्वाक्खातता! यत्र हि नाम सायमनुसिट्ठो पातो विसेसं अधिगमिस्सति, पातमनुसिट्ठो सायं विसेसं अधिगमिस्सती’’ति!
३४६. एवं वुत्ते, सञ्जिकापुत्तो माणवो बोधिं राजकुमारं एतदवोच – ‘‘एवमेव पनायं भवं बोधि – ‘अहो बुद्धो, अहो धम्मो, अहो धम्मस्स स्वाक्खातता’ति च वदेति [वदेसि (सी.), पवेदेति (स्या. कं.)]; अथ च पन न तं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छति धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्चा’’ति. ‘‘मा हेवं, सम्म सञ्जिकापुत्त, अवच; मा हेवं, सम्म सञ्जिकापुत्त, अवच. सम्मुखा मेतं, सम्म सञ्जिकापुत्त, अय्याय सुतं, सम्मुखा पटिग्गहितं’’. ‘‘एकमिदं, सम्म सञ्जिकापुत्त, समयं भगवा कोसम्बियं विहरति घोसितारामे. अथ खो मे अय्या कुच्छिमती येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि. एकमन्तं निसिन्ना खो मे अय्या भगवन्तं एतदवोच – ‘यो मे अयं, भन्ते, कुच्छिगतो कुमारको वा कुमारिका वा सो भगवन्तं सरणं गच्छति धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं तं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’न्ति. एकमिदं, सम्म सञ्जिकापुत्त, समयं भगवा इधेव भग्गेसु विहरति सुसुमारगिरे भेसकळावने मिगदाये. अथ खो मं धाति अङ्केन हरित्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि. एकमन्तं ठिता खो मं धाति भगवन्तं एतदवोच – ‘अयं , भन्ते, बोधि राजकुमारो भगवन्तं सरणं गच्छति धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं तं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’न्ति. एसाहं, सम्म सञ्जिकापुत्त, ततियकम्पि भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च. उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति.
बोधिराजकुमारसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं.