पुराने संस्कृत और चीनी दोनों ही संस्करणों में यह सूत्र आयुष्मान सारिपुत्त और महाकोट्ठित के बीच संवाद स्वरूप होता है। लगता है, पालि संस्करण में यह संदर्भ समय के साथ खो गया होगा।
सारिपुत्त भंते की उपदेश शैली सुव्यवस्थित, विचारपूर्ण और शांत होती थी। वे किसी विषय की शुरुआत एक मूलभूत प्रश्न से करते थे। इसके बाद वे उस प्रश्न का एक सरल, व्यावहारिक और सहज उत्तर प्रस्तुत करते थे। फिर, क्रमशः उस उत्तर के व्यापक और गहन निहितार्थों को विस्तारपूर्वक स्पष्ट करते थे। उनकी यह पद्धति न केवल बौद्धिक रूप से संतुलित थी, बल्कि श्रोताओं को गहराई से विषय को समझने और आत्मसात करने में भी सहायक होती थी।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। वहाँ आयुष्मान सारिपुत्त ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “मित्र भिक्षुओं।”
“मित्र”, भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा —
“मित्रों, ‘सम्यक दृष्टि… सम्यक दृष्टि’ कहते हैं। कैसे कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?"
“मित्र, हम आयुष्मान सारिपुत्त के पास इस कहे का अर्थ सुनने के लिए दूर-दूर से आते हैं। अच्छा होगा, जो आयुष्मान सारिपुत्त स्वयं इस कहे का अर्थ स्पष्ट करें। आयुष्मान सारिपुत्त से सुनकर भिक्षु वैसा धारण करेंगे।”
“ठीक है, मित्रों, तब ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।”
“हाँ, मित्र”, भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त को उत्तर दिया। आयुष्मान सारिपुत्त ने कहा —
“ऐसा होता है, मित्रों, कि जब कोई आर्यश्रावक अकुशल को समझता है, अकुशल के मूल (=जड़) को समझता है, कुशल को समझता है, कुशल के मूल को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
और अकुशल क्या है, अकुशल का मूल क्या है, कुशल क्या है, कुशल का मूल क्या है?
— इन्हें, मित्रों, अकुशल कहा जाता है।
अकुशल का मूल क्या है?
— इन्हें, मित्रों, अकुशल का मूल कहा जाता है।
कुशल क्या है?
— इन्हें, मित्रों, कुशल कहा जाता है।
कुशल का मूल क्या है?
— इन्हें, मित्रों, कुशल का मूल कहा जाता है।
इस तरह, मित्रों, जब कोई आर्यश्रावक अकुशल को समझता है, अकुशल के मूल को समझता है, कुशल को समझता है, कुशल के मूल को समझता है — तब वह राग अनुशय (=दिलचस्पी की सुप्त प्रवृत्ति) को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय (=घृणा की सुप्त प्रवृत्ति) को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।” 1
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?” 2
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक आहार 3 को समझता है, आहार की उत्पत्ति को समझता है, आहार के निरोध को समझता है, आहार के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, आहार क्या है? आहार की उत्पत्ति क्या है? आहार का निरोध क्या है? आहार का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
चार आहार होते हैं — अस्तित्व पाए सत्वों को पालने के लिए, अथवा जन्म ढूँढते सत्वों को आधार देने के लिए। कौन-से चार?
तृष्णा की उत्पत्ति के साथ आहार की उत्पत्ति होती है। तृष्णा के निरोध से आहार का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही आहार का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक आहार को समझता है, आहार की उत्पत्ति को समझता है, आहार के निरोध को समझता है, आहार के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक दुःख को समझता है, दुःख की उत्पत्ति को समझता है, दुःख के निरोध को समझता है, दुःख के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, दुःख क्या है? दुःख की उत्पत्ति क्या है? दुःख का निरोध क्या है? दुःख का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
जन्म दुःख (=तनावपूर्ण, कष्टपूर्ण या व्यथापूर्ण) है, बुढ़ापा दुःख है, मौत दुःख है। शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा दुःख हैं। अप्रिय से जुड़ाव दुःख है, प्रिय से अलगाव दुःख है। इच्छापूर्ति न होना दुःख है। संक्षिप्त में, पाँच उपादानस्कंध (=आसक्ति संग्रह) दुःख हैं।
— इसे, मित्रों, दुःख कहते हैं।
और, मित्रों, दुःख की उत्पत्ति क्या है?
यह तृष्णा है, जो पुनः पुनः बनाती है, मज़ा और दिलचस्पी के साथ आती है, यहाँ-वहाँ लुत्फ़ उठाती है। अर्थात —
— इसे, मित्रों, दुःख की उत्पत्ति कहते हैं।
और, मित्रों, दुःख की निरोध क्या है?
उस तृष्णा का अशेष विराग होना, निरोध होना, त्याग दिया जाना, संन्यास लिया जाना, मुक्ति होना, आश्रय छूट जाना।
— इसे, मित्रों, दुःख का निरोध कहते हैं।
और, मित्रों, दुःख का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
— इसे, मित्रों, दुःख का निरोधकर्ता मार्ग कहते हैं।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक दुःख को समझता है, दुःख की उत्पत्ति को समझता है, दुःख के निरोध को समझता है, दुःख के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक बुढ़ापा और मौत को समझता है, बुढ़ापा और मौत की उत्पत्ति को समझता है, बुढ़ापा और मौत के निरोध को समझता है, बुढ़ापा और मौत के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, बुढ़ापा और मौत क्या है? बुढ़ापा और मौत की उत्पत्ति क्या है? बुढ़ापा और मौत का निरोध क्या है? बुढ़ापा और मौत का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह में बूढ़ा होना, जीर्ण होना, [दाँत] टूटना, [केश] सफ़ेद होना, [त्वचा पर] झुर्रियां पड़ना, प्राण-ऊर्जा [“आयु”] में कमी आना, इंद्रियाँ कमज़ोर होना — इसे, मित्रों, बुढ़ापा कहते हैं।
और, मौत क्या है? भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह से च्युति होना, गुज़र जाना, अलगाव होना, अंतर्धान होना, मृत्यु होना, निधन होना, समयावधि समाप्त [“कालकिरिया”] होना, संग्रह का बिखरना, शरीर त्यागना, जीवित-इंद्रिय रुक जाना — इसे, मित्रों, मौत कहते हैं।
— यह होता है, मित्रों, बुढ़ापा। और यह होती है मौत। और इन्हें ही बुढ़ापा और मौत कहते हैं।
जन्म की उत्पत्ति के साथ बुढ़ापा और मौत की उत्पत्ति होती है। जन्म के निरोध से बुढ़ापा और मौत का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही बुढ़ापा और मौत का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक बुढ़ापा और मौत को समझता है, बुढ़ापा और मौत की उत्पत्ति को समझता है, बुढ़ापा और मौत के निरोध को समझता है, बुढ़ापा और मौत के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक जन्म को समझता है, जन्म की उत्पत्ति को समझता है, जन्म के निरोध को समझता है, जन्म के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, जन्म क्या है? जन्म की उत्पत्ति क्या है? जन्म का निरोध क्या है? जन्म का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
भिन्न-भिन्न सत्वों का भिन्न-भिन्न समूह में जन्म होना, जन्म लेना, उत्पत्ति होना, उद्भव होना, [पाँच आधार] संग्रह का प्रादुर्भाव होना, [छह] आयामों का प्राप्त होना —
— इसे, मित्रों, जन्म कहते हैं।
भव (=अस्तित्व बनाना या बनाए रखने की प्रक्रिया) की उत्पत्ति के साथ जन्म की उत्पत्ति होती है। भव के निरोध से जन्म का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही जन्म का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक जन्म को समझता है, जन्म की उत्पत्ति को समझता है, जन्म के निरोध को समझता है, जन्म के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक भव को समझता है, भव की उत्पत्ति को समझता है, भव के निरोध को समझता है, भव के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, भव क्या है? भव की उत्पत्ति क्या है? भव का निरोध क्या है? भव का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, तीन भव होते हैं —
आसक्ति (“उपादान”) की उत्पत्ति के साथ भव की उत्पत्ति होती है। आसक्ति के निरोध से भव का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही भव का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक भव को समझता है, भव की उत्पत्ति को समझता है, भव के निरोध को समझता है, भव के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक आसक्ति को समझता है, आसक्ति की उत्पत्ति को समझता है, आसक्ति के निरोध को समझता है, आसक्ति के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, आसक्ति क्या है? आसक्ति की उत्पत्ति क्या है? आसक्ति का निरोध क्या है? आसक्ति का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, चार तरह की आसक्ति होती हैं —
तृष्णा की उत्पत्ति के साथ आसक्ति की उत्पत्ति होती है। तृष्णा के निरोध से आसक्ति का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही आसक्ति का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक आसक्ति को समझता है, आसक्ति की उत्पत्ति को समझता है, आसक्ति के निरोध को समझता है, आसक्ति के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक तृष्णा को समझता है, तृष्णा की उत्पत्ति को समझता है, तृष्णा के निरोध को समझता है, तृष्णा के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, तृष्णा क्या है? तृष्णा की उत्पत्ति क्या है? तृष्णा का निरोध क्या है? तृष्णा का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, छह प्रकार की तृष्णाएँ होती हैं —
संवेदना की उत्पत्ति के साथ तृष्णा की उत्पत्ति होती है। संवेदना के निरोध से तृष्णा का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही तृष्णा का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक तृष्णा को समझता है, तृष्णा की उत्पत्ति को समझता है, तृष्णा के निरोध को समझता है, तृष्णा के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक संवेदना को समझता है, संवेदना की उत्पत्ति को समझता है, संवेदना के निरोध को समझता है, संवेदना के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, संवेदना क्या है? संवेदना की उत्पत्ति क्या है? संवेदना का निरोध क्या है? संवेदना का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, छह प्रकार की संवेदनाएँ होती हैं —
(इंद्रिय) संपर्क की उत्पत्ति के साथ संवेदना की उत्पत्ति होती है। संपर्क के निरोध से संवेदना का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही संवेदना का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक संवेदना को समझता है, संवेदना की उत्पत्ति को समझता है, संवेदना के निरोध को समझता है, संवेदना के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक संपर्क को समझता है, संपर्क की उत्पत्ति को समझता है, संपर्क के निरोध को समझता है, संपर्क के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, संपर्क क्या है? संपर्क की उत्पत्ति क्या है? संपर्क का निरोध क्या है? संपर्क का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, छह प्रकार के संपर्क होते हैं —
छह आयाम की उत्पत्ति के साथ संपर्क की उत्पत्ति होती है। छह आयाम के निरोध से संपर्क का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही संपर्क का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक संपर्क को समझता है, संपर्क की उत्पत्ति को समझता है, संपर्क के निरोध को समझता है, संपर्क के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक छह आयाम को समझता है, छह आयाम की उत्पत्ति को समझता है, छह आयाम के निरोध को समझता है, छह आयाम के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, छह आयाम क्या है? छह आयाम की उत्पत्ति क्या है? छह आयाम का निरोध क्या है? छह आयाम का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, छह प्रकार की छह आयामएँ होती हैं —
नाम और रूप की उत्पत्ति के साथ छह आयाम की उत्पत्ति होती है। नाम और रूप के निरोध से छह आयाम का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही छह आयाम का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक छह आयाम को समझता है, छह आयाम की उत्पत्ति को समझता है, छह आयाम के निरोध को समझता है, छह आयाम के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक नाम और रूप को समझता है, नाम और रूप की उत्पत्ति को समझता है, नाम और रूप के निरोध को समझता है, नाम और रूप के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, नाम और रूप क्या है? नाम और रूप की उत्पत्ति क्या है? नाम और रूप का निरोध क्या है? नाम और रूप का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
— यह होता है, मित्रों, नाम।
— यह होता है, मित्रों, रूप। और, इन्हें ही (कुल मिलाकर) कहते हैं, नाम और रूप।
चैतन्य की उत्पत्ति के साथ नाम और रूप की उत्पत्ति होती है। चैतन्य के निरोध से नाम और रूप का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही नाम और रूप का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक नाम और रूप को समझता है, नाम और रूप की उत्पत्ति को समझता है, नाम और रूप के निरोध को समझता है, नाम और रूप के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक चैतन्य (“विञ्ञाण”) को समझता है, चैतन्य की उत्पत्ति को समझता है, चैतन्य के निरोध को समझता है, चैतन्य के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, चैतन्य क्या है? चैतन्य की उत्पत्ति क्या है? चैतन्य का निरोध क्या है? चैतन्य का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, छह प्रकार के चैतन्य होते हैं —
रचना की उत्पत्ति के साथ चैतन्य की उत्पत्ति होती है। रचना के निरोध से चैतन्य का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही चैतन्य का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक चैतन्य को समझता है, चैतन्य की उत्पत्ति को समझता है, चैतन्य के निरोध को समझता है, चैतन्य के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक रचना (“सङ्खार”) को समझता है, रचना की उत्पत्ति को समझता है, रचना के निरोध को समझता है, रचना के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, रचना क्या है? रचना की उत्पत्ति क्या है? रचना का निरोध क्या है? रचना का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, तीन रचनाएँ होती हैं —
अविद्या की उत्पत्ति के साथ रचना की उत्पत्ति होती है। अविद्या के निरोध से रचना का निरोध होता है। और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही रचना का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक रचना को समझता है, रचना की उत्पत्ति को समझता है, रचना के निरोध को समझता है, रचना के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक अविद्या को समझता है, अविद्या की उत्पत्ति को समझता है, अविद्या के निरोध को समझता है, अविद्या के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, अविद्या क्या है? अविद्या की उत्पत्ति क्या है? अविद्या का निरोध क्या है? अविद्या का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
— इसे कहते हैं, मित्रों, अविद्या।
आस्रव की उत्पत्ति के साथ अविद्या की उत्पत्ति होती है। आस्रव के निरोध से अविद्या का निरोध होता है। 7 और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही अविद्या का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक अविद्या को समझता है, अविद्या की उत्पत्ति को समझता है, अविद्या के निरोध को समझता है, अविद्या के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
“बहुत अच्छा, मित्र!” कहते हुए हर्षित हुए भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त के कहे का अभिनंदन किया, और फिर आयुष्मान सारिपुत्त से अगला प्रश्न पूछा —
“किन्तु, मित्र, क्या किसी अन्य प्रकार से भी कोई आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता है, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो?”
“हो सकता है, मित्रों। जब कोई आर्यश्रावक आस्रव को समझता है, आस्रव की उत्पत्ति को समझता है, आस्रव के निरोध को समझता है, आस्रव के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।
किन्तु, मित्रों, आस्रव क्या है? आस्रव की उत्पत्ति क्या है? आस्रव का निरोध क्या है? आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग क्या है?
मित्रों, तीन आस्रव होते हैं —
— इसे कहते हैं, मित्रों, आस्रव।
अविद्या की उत्पत्ति के साथ आस्रव की उत्पत्ति होती है। अविद्या के निरोध से आस्रव का निरोध होता है। 9 और यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग ही आस्रव का निरोधकर्ता मार्ग है। अर्थात, सही दृष्टि, सही संकल्प, सही वचन, सही कार्य, सही जीविका, सही प्रयास, सही स्मृति, और सही समाधि।
इस तरह, जब कोई आर्यश्रावक आस्रव को समझता है, आस्रव की उत्पत्ति को समझता है, आस्रव के निरोध को समझता है, आस्रव के निरोधकर्ता मार्ग को समझता है — तब वह राग अनुशय को पूरी तरह त्यागता है, प्रतिरोधी अनुशय को दूर करता है, ‘मैं हूँ’ अहंभाव के दृष्टि अनुशय को उखाड़ फेंकता है, अविद्या का त्याग, विद्या को उत्पन्न करता है, और यहीं इसी जीवन में दुःखों का अंत करता है — ऐसा आर्यश्रावक सम्यक दृष्टिवान होता हो, जिसकी दृष्टि सीधी हो, जिसकी धर्म में आस्था सत्यापित हो, जिसका सद्धर्म में आगमन हुआ हो।”
आयुष्मान सारिपुत्त ने ऐसा कहा। हर्षित होकर भिक्षुओं ने आयुष्मान सारिपुत्त की बात का अभिनंदन किया।
यह बात, जो पूरे सूत्र में बार-बार दोहराया गयी है, “अरहत्व” को दर्शाती है। इसमें यह समस्या है कि यह ऐसा प्रतीत कराता है कि सम्यक दृष्टि (=श्रोतापन्न अवस्था) तभी प्राप्त होती है जब सभी आस्रवों का पूर्ण रूप से परित्याग (=अरहत्व) हो चुका हो। अट्ठकथा में इस समस्या पर निष्फल चर्चा की गई है, लेकिन वास्तव में यह संभवतः पाली संस्करण में किसी पाठगत विकृति का परिणाम है। इसका संकेत इस बात से मिलता है कि इसके समांनातर सूत्र — मध्यमागम (२९) और संयुक्तागम (३४४) — में यह अनुच्छेद अनुपस्थित है। यह उदाहरण दर्शाता है कि कैसे पाली मूल में आई विकृतियों को यदि समांनातर सूत्रों के व्यापक परिप्रेक्ष्य में न देखा जाए, तो अनावश्यक और निरर्थक चर्चाओं को जन्म दे सकती हैं। ↩︎
सारिपुत्त भंते गंभीर प्रश्न का संक्षिप्त और सरल उत्तर देकर श्रोताओं के लिए आगे स्पष्टीकरण माँगने की संभावना खुली छोड़ देते थे। यह शैली न केवल श्रोताओं की सहभागिता सुनिश्चित करती थी, बल्कि धर्म को छोटे-छोटे, सहज रूप से ग्राह्य अंशों में प्रस्तुत करती थी। इस तरह वे जिज्ञासा को प्रोत्साहित करते थे और संवाद को एकतरफा न होकर परस्पर सहभागिता वाला बना देते थे, जो गहन शिक्षा का एक प्रभावशाली तरीका है। ↩︎
यहाँ सारिपुत्त भंते चार आर्यसत्यों के ढाँचे को परंपरागत “दु:ख” के स्थान पर “आहार” की दृष्टि से ढालते हैं। यहाँ “आहार” का तात्पर्य केवल आधार या पोषण देने से नहीं, बल्कि उससे चिपकाव और आसक्ति से भी है। इस तरह ‘आहार’ शब्द द्विविध अर्थों में प्रयुक्त होता है।
धार्मिक शब्दावली में “आहार” का प्रयोग संभवतः भगवान बुद्ध के द्वारा प्रस्तुत एक नवीनता है। यह वैदिक ऋषियों के प्रिय “अन्न” की अवधारणा का स्थान लेता है, और उसे एक गहरा आध्यात्मिक अर्थ प्रदान करता है। इस दृष्टिकोण से, बुद्ध की शिक्षा केवल भाषा में नहीं, बल्कि सोच की दिशा में भी एक क्रांतिकारी परिवर्तन को दर्शाती है। ↩︎
उपादान के बारे में अधिक जानने के लिए हमारी शब्दावली पढ़ें। ↩︎
“आस्रव की उत्पत्ति के साथ अविद्या का उत्पन्न होना” यह एक अनोखी शिक्षा है, जिसका किसी अन्य सूत्र में उल्लेख नहीं मिलता। हालाँकि अंगुत्तरनिकाय १०:६२ में अविद्या का “आहार” पाँच नीवरणों को बताया गया है। हालाँकि अविद्या भी एक प्रकार का आस्रव ही होती है। लेकिन, यह स्पष्ट है कि कारण-कार्य सिद्धान्त हमेशा क्रमबद्ध रूप से काम नहीं करता। उनमें कई प्रकार के आपसी-निर्भरताएँ होती है। ↩︎
“आसवसमुदया अविज्जासमुदयो” और “अविज्जासमुदया आसवसमुदयो” । अर्थात, आस्रव के साथ अविद्या उपजती है, और अविद्या के साथ आस्रव उपजते हैं। इस तरह, दोनों एक दूसरे का आधार लेकर उपजते हैं। इस तरह दोनों आपस में परस्पर आश्रित एक चक्र में बंधे हुए हैं — एक दूसरे को उत्पन्न और पोषित करते हैं। अविद्या से आस्रव बढ़ते हैं, और आस्रव के कारण अविद्या और गहराती जाती है। इस प्रकार यह एक अंतहीन दुष्चक्र बन जाता है, जहाँ अविद्या, आस्रव का आधार लेकर, स्वयं को ही पुनः पुनः उत्पन्न करती रहती है।
इसी प्रकार की परस्पर निर्भरता को दीर्घनिकाय १५ में चैतन्य और नाम-रूप की पारस्परिक निर्भरता के रूप में भी दर्शाया गया है। वहाँ यह बताया गया है कि कैसे चैतन्य और नाम-रूप एक-दूसरे के बिना टिक नहीं सकते — दोनों ही एक-दूसरे को आधार प्रदान करते हैं, और उनका चक्र निरंतर गतिशील रहता है।
इसमें एक और गहरी बात प्रकट होती है कि — अविद्या की कोई आदि या प्रारंभिक बिंदु ज्ञात नहीं किया जा सकता। क्योंकि अविद्या और संसार (=संसरण, संसार-चक्र) का यह क्रम अनादि है — इसकी कोई स्पष्ट “शुरुआत” नहीं है जिसे पहचाना जा सके। यही कारण है कि बुद्ध ने कहा कि संसार की आदि को जान पाना असंभव है, क्योंकि यह चक्र निरंतर चलता आ रहा है — कारण और परिणाम की परस्पर निर्भरता में उलझा हुआ।
इसलिए मुक्ति का मार्ग भी इसी चक्र को तोड़ने में है — जहाँ अविद्या को विद्या से, और आस्रव को निर्मूलन से समाप्त किया जाता है। ↩︎
८९. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तत्र खो आयस्मा सारिपुत्तो भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘आवुसो भिक्खवे’’ति। ‘‘आवुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –
‘‘‘सम्मादिट्ठि सम्मादिट्ठी (सी॰ स्या॰) सम्मादिट्ठी’ति, आवुसो, वुच्चति। कित्तावता नु खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति?
‘‘दूरतोपि खो मयं, आवुसो, आगच्छेय्याम आयस्मतो सारिपुत्तस्स सन्तिके एतस्स भासितस्स अत्थमञ्ञातुं। साधु वतायस्मन्तंयेव सारिपुत्तं पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो। आयस्मतो सारिपुत्तस्स सुत्वा भिक्खू धारेस्सन्ती’’ति। ‘‘तेन हि, आवुसो, सुणाथ, साधुकं मनसि करोथ, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवमावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स पच्चस्सोसुं। आयस्मा सारिपुत्तो एतदवोच –
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको अकुसलञ्च पजानाति, अकुसलमूलञ्च पजानाति, कुसलञ्च पजानाति, कुसलमूलञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, अकुसलं, कतमं अकुसलमूलं, कतमं कुसलं, कतमं कुसलमूलं? पाणातिपातो खो, आवुसो, अकुसलं, अदिन्नादानं अकुसलं, कामेसुमिच्छाचारो अकुसलं, मुसावादो अकुसलं, पिसुणा वाचा पिसुणवाचा (क॰) अकुसलं, फरुसा वाचा फरुसवाचा (क॰) अकुसलं, सम्फप्पलापो अकुसलं, अभिज्झा अकुसलं, ब्यापादो अकुसलं, मिच्छादिट्ठि अकुसलं – इदं वुच्चतावुसो अकुसलं। कतमञ्चावुसो, अकुसलमूलं? लोभो अकुसलमूलं, दोसो अकुसलमूलं, मोहो अकुसलमूलं – इदं वुच्चतावुसो, अकुसलमूलं।
‘‘कतमञ्चावुसो , कुसलं? पाणातिपाता वेरमणी कुसलं, अदिन्नादाना वेरमणी कुसलं, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणी कुसलं, मुसावादा वेरमणी कुसलं, पिसुणाय वाचाय वेरमणी कुसलं, फरुसाय वाचाय वेरमणी कुसलं, सम्फप्पलापा वेरमणी कुसलं, अनभिज्झा कुसलं, अब्यापादो कुसलं, सम्मादिट्ठि कुसलं – इदं वुच्चतावुसो, कुसलं। कतमञ्चावुसो, कुसलमूलं? अलोभो कुसलमूलं, अदोसो कुसलमूलं, अमोहो कुसलमूलं – इदं वुच्चतावुसो, कुसलमूलं।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं अकुसलं पजानाति, एवं अकुसलमूलं पजानाति, एवं कुसलं पजानाति, एवं कुसलमूलं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेवधम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९०. ‘‘साधावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरि उत्तरिं (सी॰ स्या॰ पी॰) पञ्हं अपुच्छुं अपुच्छिंसु (स्या॰) – ‘‘सिया पनावुसो, अञ्ञोपि परियायो यथा अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति?
‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको आहारञ्च पजानाति, आहारसमुदयञ्च पजानाति, आहारनिरोधञ्च पजानाति, आहारनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमो पनावुसो, आहारो, कतमो आहारसमुदयो, कतमो आहारनिरोधो, कतमा आहारनिरोधगामिनी पटिपदा? चत्तारोमे, आवुसो, आहारा भूतानं वा सत्तानं ठितिया, सम्भवेसीनं वा अनुग्गहाय। कतमे चत्तारो? कबळीकारो आहारो ओळारिको वा सुखुमो वा, फस्सो दुतियो, मनोसञ्चेतना ततिया, विञ्ञाणं चतुत्थं। तण्हासमुदया आहारसमुदयो, तण्हानिरोधा आहारनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो आहारनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो , सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि’।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं आहारं पजानाति, एवं आहारसमुदयं पजानाति, एवं आहारनिरोधं पजानाति, एवं आहारनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेवधम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९१. ‘‘साधावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरि पञ्हं अपुच्छुं – ‘‘सिया पनावुसो, अञ्ञोपि परियायो यथा अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति?
‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको दुक्खञ्च पजानाति, दुक्खसमुदयञ्च पजानाति, दुक्खनिरोधञ्च पजानाति, दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, दुक्खं, कतमो दुक्खसमुदयो, कतमो दुक्खनिरोधो, कतमा दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा? जातिपि दुक्खा, जरापि दुक्खा, मरणम्पि दुक्खं, सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासापि दुक्खा, अप्पियेहि सम्पयोगोपि दुक्खो, पियेहि विप्पयोगोपि दुक्खो, यम्पिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं, संखित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा पञ्चुपादानक्खन्धापि (क॰) दुक्खा – इदं वुच्चतावुसो, दुक्खं। कतमो चावुसो, दुक्खसमुदयो? यायं तण्हा पोनोब्भविका नन्दीरागसहगता पोनोभविका (सी॰ पी॰) तत्रतत्राभिनन्दिनी नन्दिरागसहगता (सी॰ पी॰), सेय्यथिदं, कामतण्हा भवतण्हा विभवतण्हा – अयं वुच्चतावुसो, दुक्खसमुदयो। कतमो चावुसो, दुक्खनिरोधो? यो तस्सायेव तण्हाय असेसविरागनिरोधो चागो पटिनिस्सग्गो मुत्ति अनालयो – अयं वुच्चतावुसो, दुक्खनिरोधो। कतमा चावुसो, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो, सेय्यथिदं, सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि – अयं वुच्चतावुसो, दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं दुक्खं पजानाति, एवं दुक्खसमुदयं पजानाति, एवं दुक्खनिरोधं पजानाति, एवं दुक्खनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेवधम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९२. ‘‘साधावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरि पञ्हं अपुच्छुं – ‘‘सिया पनावुसो, अञ्ञोपि परियायो यथा अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति?
‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको जरामरणञ्च पजानाति, जरामरणसमुदयञ्च पजानाति, जरामरणनिरोधञ्च पजानाति, जरामरणनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, जरामरणं, कतमो जरामरणसमुदयो, कतमो जरामरणनिरोधो, कतमा जरामरणनिरोधगामिनी पटिपदा? या तेसं तेसं सत्तानं तम्हि तम्हि सत्तनिकाये जरा जीरणता खण्डिच्चं पालिच्चं वलित्तचता आयुनो संहानि इन्द्रियानं परिपाको – अयं वुच्चतावुसो, जरा। कतमञ्चावुसो, मरणं? या यं (पी॰ क॰), सतिपट्ठानसुत्तेपि तेसं तेसं सत्तानं तम्हा तम्हा सत्तनिकाया चुति चवनता भेदो अन्तरधानं मच्चु मरणं कालंकिरिया खन्धानं भेदो, कळेवरस्स निक्खेपो, जीवितिन्द्रियस्सुपच्छेदो – इदं वुच्चतावुसो, मरणं। इति अयञ्च जरा इदञ्च मरणं – इदं वुच्चतावुसो, जरामरणं। जातिसमुदया जरामरणसमुदयो, जातिनिरोधा जरामरणनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो जरामरणनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं जरामरणं पजानाति, एवं जरामरणसमुदं पजानाति, एवं जरामरणनिरोधं पजानाति, एवं जरामरणनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९३. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको जातिञ्च पजानाति, जातिसमुदयञ्च पजानाति, जातिनिरोधञ्च पजानाति, जातिनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमा पनावुसो, जाति, कतमो जातिसमुदयो, कतमो जातिनिरोधो, कतमा जातिनिरोधगामिनी पटिपदा? या तेसं तेसं सत्तानं तम्हि तम्हि सत्तनिकाये जाति सञ्जाति ओक्कन्ति अभिनिब्बत्ति खन्धानं पातुभावो, आयतनानं पटिलाभो – अयं वुच्चतावुसो, जाति। भवसमुदया जातिसमुदयो, भवनिरोधा जातिनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो जातिनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं जातिं पजानाति, एवं जातिसमुदयं पजानाति, एवं जातिनिरोधं पजानाति, एवं जातिनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९४. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको भवञ्च पजानाति, भवसमुदयञ्च पजानाति, भवनिरोधञ्च पजानाति, भवनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमो पनावुसो, भवो, कतमो भवसमुदयो, कतमो भवनिरोधो, कतमा भवनिरोधगामिनी पटिपदा? तयोमे, आवुसो, भवा – कामभवो, रूपभवो, अरूपभवो। उपादानसमुदया भवसमुदयो, उपादाननिरोधा भवनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो भवनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं भवं पजानाति, एवं भवसमुदयं पजानाति, एवं भवनिरोधं पजानाति, एवं भवनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति। एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९५. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको उपादानञ्च पजानाति, उपादानसमुदयञ्च पजानाति, उपादाननिरोधञ्च पजानाति, उपादाननिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, उपादानं, कतमो उपादानसमुदयो, कतमो उपादाननिरोधो, कतमा उपादाननिरोधगामिनी पटिपदा? चत्तारिमानि, आवुसो, उपादानानि – कामुपादानं, दिट्ठुपादानं, सीलब्बतुपादानं, अत्तवादुपादानं। तण्हासमुदया उपादानसमुदयो, तण्हानिरोधा उपादाननिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो उपादाननिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं उपादानं पजानाति, एवं उपादानसमुदयं पजानाति, एवं उपादाननिरोधं पजानाति, एवं उपादाननिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९६. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको तण्हञ्च पजानाति, तण्हासमुदयञ्च पजानाति, तण्हानिरोधञ्च पजानाति, तण्हानिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमा पनावुसो, तण्हा, कतमो तण्हासमुदयो, कतमो तण्हानिरोधो, कतमा तण्हानिरोधगामिनी पटिपदा? छयिमे, आवुसो, तण्हाकाया – रूपतण्हा, सद्दतण्हा, गन्धतण्हा, रसतण्हा, फोट्ठब्बतण्हा, धम्मतण्हा। वेदनासमुदया तण्हासमुदयो, वेदनानिरोधा तण्हानिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो तण्हानिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं तण्हं पजानाति, एवं तण्हासमुदयं पजानाति, एवं तण्हानिरोधं पजानाति, एवं तण्हानिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९७. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको वेदनञ्च पजानाति, वेदनासमुदयञ्च पजानाति, वेदनानिरोधञ्च पजानाति, वेदनानिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमा पनावुसो, वेदना, कतमो वेदनासमुदयो, कतमो वेदनानिरोधो, कतमा वेदनानिरोधगामिनी पटिपदा? छयिमे, आवुसो, वेदनाकाया – चक्खुसम्फस्सजा वेदना, सोतसम्फस्सजा वेदना, घानसम्फस्सजा वेदना, जिव्हासम्फस्सजा वेदना, कायसम्फस्सजा वेदना, मनोसम्फस्सजा वेदना। फस्ससमुदया वेदनासमुदयो, फस्सनिरोधा वेदनानिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो वेदनानिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं वेदनं पजानाति, एवं वेदनासमुदयं पजानाति, एवं वेदनानिरोधं पजानाति, एवं वेदनानिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९८. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको फस्सञ्च पजानाति, फस्ससमुदयञ्च पजानाति, फस्सनिरोधञ्च पजानाति, फस्सनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमो पनावुसो, फस्सो, कतमो फस्ससमुदयो, कतमो फस्सनिरोधो, कतमा फस्सनिरोधगामिनी पटिपदा? छयिमे, आवुसो, फस्सकाया – चक्खुसम्फस्सो, सोतसम्फस्सो , घानसम्फस्सो, जिव्हासम्फस्सो, कायसम्फस्सो, मनोसम्फस्सो। सळायतनसमुदया फस्ससमुदयो, सळायतननिरोधा फस्सनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो फस्सनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं फस्सं पजानाति, एवं फस्ससमुदयं पजानाति, एवं फस्सनिरोधं पजानाति, एवं फस्सनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
९९. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको सळायतनञ्च पजानाति, सळायतनसमुदयञ्च पजानाति, सळायतननिरोधञ्च पजानाति, सळायतननिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, सळायतनं, कतमो सळायतनसमुदयो, कतमो सळायतननिरोधो, कतमा सळायतननिरोधगामिनी पटिपदा ? छयिमानि, आवुसो, आयतनानि – चक्खायतनं, सोतायतनं, घानायतनं, जिव्हायतनं, कायायतनं, मनायतनं। नामरूपसमुदया सळायतनसमुदयो, नामरूपनिरोधा सळायतननिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सळायतननिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं सळायतनं पजानाति, एवं सळायतनसमुदयं पजानाति, एवं सळायतननिरोधं पजानाति , एवं सळायतननिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
१००. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको नामरूपञ्च पजानाति, नामरूपसमुदयञ्च पजानाति, नामरूपनिरोधञ्च पजानाति, नामरूपनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, नामरूपं, कतमो नामरूपसमुदयो, कतमो नामरूपनिरोधो, कतमा नामरूपनिरोधगामिनी पटिपदा? वेदना, सञ्ञा, चेतना, फस्सो, मनसिकारो – इदं वुच्चतावुसो, नामं; चत्तारि च महाभूतानि, चतुन्नञ्च महाभूतानं उपादायरूपं – इदं वुच्चतावुसो, रूपं। इति इदञ्च नामं इदञ्च रूपं – इदं वुच्चतावुसो, नामरूपं। विञ्ञाणसमुदया नामरूपसमुदयो, विञ्ञाणनिरोधा नामरूपनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो नामरूपनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं नामरूपं पजानाति, एवं नामरूपसमुदयं पजानाति, एवं नामरूपनिरोधं पजानाति, एवं नामरूपनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
१०१. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको विञ्ञाणञ्च पजानाति, विञ्ञाणसमुदयञ्च पजानाति, विञ्ञाणनिरोधञ्च पजानाति, विञ्ञाणनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमं पनावुसो, विञ्ञाणं, कतमो विञ्ञाणसमुदयो, कतमो विञ्ञाणनिरोधो, कतमा विञ्ञाणनिरोधगामिनी पटिपदा? छयिमे, आवुसो, विञ्ञाणकाया – चक्खुविञ्ञाणं, सोतविञ्ञाणं, घानविञ्ञाणं, जिव्हाविञ्ञाणं, कायविञ्ञाणं, मनोविञ्ञाणं। सङ्खारसमुदया विञ्ञाणसमुदयो, सङ्खारनिरोधा विञ्ञाणनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो विञ्ञाणनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं विञ्ञाणं पजानाति, एवं विञ्ञाणसमुदयं पजानाति, एवं विञ्ञाणनिरोधं पजानाति, एवं विञ्ञाणनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति , सो सब्बसो रागानुसयं पहाय…पे॰… दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
१०२. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको सङ्खारे च पजानाति, सङ्खारसमुदयञ्च पजानाति, सङ्खारनिरोधञ्च पजानाति, सङ्खारनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमे पनावुसो, सङ्खारा, कतमो सङ्खारसमुदयो, कतमो सङ्खारनिरोधो, कतमा सङ्खारनिरोधगामिनी पटिपदा? तयोमे, आवुसो, सङ्खारा – कायसङ्खारो, वचीसङ्खारो, चित्तसङ्खारो। अविज्जासमुदया सङ्खारसमुदयो, अविज्जानिरोधा सङ्खारनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो सङ्खारनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं सङ्खारे पजानाति, एवं सङ्खारसमुदयं पजानाति, एवं सङ्खारनिरोधं पजानाति, एवं सङ्खारनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेव धम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
१०३. ‘‘साधावुसो’’ति खो…पे॰… अपुच्छुं – सिया पनावुसो…पे॰… ‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको अविज्जञ्च पजानाति, अविज्जासमुदयञ्च पजानाति, अविज्जानिरोधञ्च पजानाति, अविज्जानिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमा पनावुसो, अविज्जा, कतमो अविज्जासमुदयो, कतमो अविज्जानिरोधो, कतमा अविज्जानिरोधगामिनी पटिपदा? यं खो, आवुसो, दुक्खे अञ्ञाणं, दुक्खसमुदये अञ्ञाणं, दुक्खनिरोधे अञ्ञाणं, दुक्खनिरोधगामिनिया पटिपदाय अञ्ञाणं – अयं वुच्चतावुसो, अविज्जा। आसवसमुदया अविज्जासमुदयो, आसवनिरोधा अविज्जानिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो अविज्जानिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं अविज्जं पजानाति, एवं अविज्जासमुदयं पजानाति, एवं अविज्जानिरोधं पजानाति, एवं अविज्जानिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेव धम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
१०४. ‘‘साधावुसो’’ति खो ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा आयस्मन्तं सारिपुत्तं उत्तरि पञ्हं अपुच्छुं – ‘‘सिया पनावुसो, अञ्ञोपि परियायो यथा अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति?
‘‘सिया, आवुसो। यतो खो, आवुसो, अरियसावको आसवञ्च पजानाति, आसवसमुदयञ्च पजानाति, आसवनिरोधञ्च पजानाति, आसवनिरोधगामिनिं पटिपदञ्च पजानाति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति, उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्मं। कतमो पनावुसो, आसवो, कतमो आसवसमुदयो, कतमो आसवनिरोधो, कतमा आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति? तयोमे, आवुसो, आसवा – कामासवो, भवासवो, अविज्जासवो। अविज्जासमुदया आसवसमुदयो, अविज्जानिरोधा आसवनिरोधो, अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो आसवनिरोधगामिनी पटिपदा, सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि…पे॰… सम्मासमाधि।
‘‘यतो खो, आवुसो, अरियसावको एवं आसवं पजानाति, एवं आसवसमुदयं पजानाति, एवं आसवनिरोधं पजानाति, एवं आसवनिरोधगामिनिं पटिपदं पजानाति, सो सब्बसो रागानुसयं पहाय, पटिघानुसयं पटिविनोदेत्वा, ‘अस्मी’ति दिट्ठिमानानुसयं समूहनित्वा, अविज्जं पहाय विज्जं उप्पादेत्वा, दिट्ठेव धम्मे दुक्खस्सन्तकरो होति – एत्तावतापि खो, आवुसो, अरियसावको सम्मादिट्ठि होति , उजुगतास्स दिट्ठि, धम्मे अवेच्चप्पसादेन समन्नागतो, आगतो इमं सद्धम्म’’न्ति।
इदमवोचायस्मा सारिपुत्तो। अत्तमना ते भिक्खू आयस्मतो सारिपुत्तस्स भासितं अभिनन्दुन्ति।
सम्मादिट्ठिसुत्तं निट्ठितं नवमं।
⚠️ यह विचार पूज्य थानिस्सरो भंते के हैं, जो इस सूत्र की गहरी विवेचना करते हैं। इसे अँग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया गया है। मूल पढ़ने के लिए इसे पढ़ें।
सम्यक-दिट्ठि की सामान्य व्याख्या प्रायः चार आर्य सत्यों के संदर्भ में की जाती है। परंतु इस देशना में सारिपुत्त भंते इसे अनेक दिशाओं में विस्तारित करते हैं। वे अपने उपदेश की आरंभिक चर्चा दो मूलभूत सिद्धांतों पर केंद्रित करते हैं — कुशल व अकुशल कर्मों का द्वन्द्व, और आहार की संकल्पना।
कुशल तथा अकुशल क्रियाओं का विश्लेषण कारण-कार्य के सामान्य सिद्धांत की ओर इंगित करता है — अर्थात् कर्म फलदायक होते हैं, और सुख-दुःख के अनुभवों का आधार यही कर्म हैं।
अकुशल कर्म दुःख का हेतु हैं; कुशल कर्म सुख का। यदि इन कर्मों के मूल कारण की खोज की जाए, तो वह अंततः चित्त में जाकर टिकती है, क्योंकि किसी भी कर्म की कुशलता या अकुशलता उस समय प्रेरित करने वाली मानसिक स्थिति पर निर्भर करती है। इस प्रकार, यह विषय चार आर्य सत्यों के कुछ आधारभूत सिद्धांतों को संक्षेप में प्रस्तुत करता है — कारणता, उसके सम्यक और विसम्यक प्रयोग, तथा चित्त की भूमिका।
‘मूल’ की उपमा का प्रयोग और भी गहरे संकेत देता है। जैसे वृक्ष की जड़ें मिट्टी से पोषण खींचती हैं, वैसे ही कुशल और अकुशल चित्त-धाराएँ भी किसी आहार पर आश्रित होती हैं। इसी कारण, अगला विषय ‘आहार’ आता है — जो कायिक तथा मानसिक, दोनों प्रकार का होता है।
और जब आहार की बात होती है, तो उसमें नीतिपूर्ण प्रयोग की संभावना स्वतः निहित होती है: यदि कोई अकुशल मानसिक अवस्था पोषित हो रही है, तो उसे आहार से वंचित करके क्षीण किया जा सकता है; यदि वह कुशल है, तो उसे पोषण देकर प्रबल किया जा सकता है। जैसे सूत्रों में कहा गया है, मानसिक पोषण की विश्लेषणा से यह भी स्पष्ट होता है कि मानसिक श्रृंखला में मूलभूत घटनाएँ कौन सी हैं — संस्पर्श, मनसा संकल्पना, तथा चित्त।
सारिपुत्त भंते कुशलता और आहार को जोड़ते हुए आहार के विषय को चार भागों में प्रस्तुत करते हैं: आहार, उसका उत्पत्ति-कारण, उसका निरोध, और निरोध की ओर ले जाने वाला मार्ग। यही चार आर्य सत्य की मूल संरचना है। इस प्रकार, वे दिखाते हैं कि कैसे चार आर्य सत्य की उत्पत्ति इन दो विषयों — कुशल/अकुशल और आहार से होती है।
गौर करने योग्य बात यह है कि इन दोनों विषयों को बुद्ध ने प्रायः नवयुवकों को धर्म में प्रविष्ट कराने हेतु उपयोग किया। अपने पुत्र राहुल को दिए गए उपदेश (मज्झिमनिकाय ६१) में कुशल-अकुशल कर्मों की चर्चा होती है, और खुद्दकपाठ में प्रवेशशील भिक्षुओं के लिए प्रथम प्रश्न आहार के विषय में है। इसका यह अभिप्राय है कि कारणता की इन संकल्पनाओं को प्रारंभ से ही समझाया जाना चाहिए।
इसी परंपरा को सारिपुत्त भंते इस सुत्त में वयस्कों के लिए भी अपनाते हैं। और संभवतः वे यह भी प्रदर्शित कर रहे हैं कि किस प्रकार एक साधारण कारण-कार्य की घोषणा — “ये धम्मा हेतुप्पसन्भवा…” — से उन्हें अमृत का प्रथम आभास हुआ होगा।
सुत्त का उत्तरार्ध प्रतित्यसमुत्पाद की विपरीत क्रम से की गई व्याख्या पर केंद्रित है। इसमें दो विशेष बातें उभर कर आती हैं। प्रथम, सारिपुत्त भंते यह दर्शाते हैं कि प्रतित्यसमुत्पाद की किसी भी दो संलग्न अंगों की परस्पर संबद्धता को समझना ही पर्याप्त है। उसी से अविद्या से प्रेरित चित्त-वृत्तियों का परित्याग और दुःख का क्षय संभव है। सम्पूर्ण चक्र की पूर्ण समझ आवश्यक नहीं, क्योंकि प्रत्येक द्वय में सम्पूर्ण तंत्र की छवि निहित है। संयुक्तनिकाय के एक अन्य सुत्त में भी यही बात भिन्न प्रकार से कही गई है, जहाँ प्रत्येक अंग को सीधे दुःख के साथ जोड़कर देखा गया है। इन दोनों दृष्टिकोणों की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि बुद्ध की दृष्टि में द्वैतों को समझना बोधि प्राप्त करने का एक अत्यावश्यक साधन है।
द्वितीय, इस सुत्त में सारिपुत्त भंते प्रतित्यसमुत्पाद को अविद्या से भी परे ले जाकर उसके हेतु की खोज करते हैं, जो कि ‘आसव’ हैं। और ये आसव स्वयं भी अविद्या पर आधारित होते हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि अविद्या, अविद्या को उत्पन्न करती है — एक चक्रवात की भाँति। किन्तु सारिपुत्त भंते यह भी दिखाते हैं कि यह चक्र अनंत नहीं है। चूंकि अविद्या का स्वरूप केवल चार आर्य सत्यों के संदर्भ में ज्ञान की अनुपस्थिति है, अतः जब इन सत्यों के अनुसार ज्ञान उत्पन्न होता है, तो इस समस्त चक्र का अंत संभव है।
इस प्रकार, यह सुत्त बुद्ध की बोधि की परंपरागत व्याख्या में एक रिक्त स्थान को भरता है। वह व्याख्या कहती है: ‘‘यह है दुःख… यह है दुःख का कारण… यह है दुःख का निरोध… यह है मार्ग… ये हैं आसव… ये हैं उनके कारण… निरोध… और मार्ग।’’
किन्तु आसव से संबंधित ये चार ज्ञान उस परंपरागत व्याख्या में विस्तारित नहीं किए गए हैं, न ही यह बताया गया है कि उनका संबंध दुःख के चार सत्यों से कैसे है। सारिपुत्त भंते इस सुत्त में इस प्रथम बिंदु को स्पष्ट करते हैं, और पूरे उपदेश की रूपरेखा के माध्यम से दूसरे बिंदु को भी।
इसके अतिरिक्त, सारिपुत्त भंते सम्यक-दिट्ठि पर अन्य सुत्तों में भी गहन विश्लेषण करते हैं। मज्झिमनिकाय १४१ में वे चार आर्य सत्यों की शब्दशः व्याख्या करते हैं। मज्झिमनिकाय २८ में वे पहले आर्य सत्य, विशेषकर रूप-उपादान-स्कन्ध की व्याख्या करते हुए यह दिखाते हैं कि एकमात्र इस स्कन्ध की सम्यक समझ ही पंच स्कन्धों, चार आर्य सत्यों तथा प्रतित्यसमुत्पाद—सभी की सम्यक समझ की कुंजी है।
इस प्रकार, सारिपुत्त भंते सम्यक-दिट्ठि को केवल सैद्धान्तिक मत न बनाकर, एक जीवंत मार्गदर्शन के रूप में प्रस्तुत करते हैं—जो धर्मानुशीलन, चित्त-प्रशिक्षण, तथा अंतिम निर्वाण की दिशा में चलता है।