प्रमाद
भगवान ने कहा:
“भिक्षुओं! तीन तरह का नशा «माद» होता है। कौन से तीन? यौवन का नशा, आरोग्य का नशा, और जीवन का नशा।
यौवन [जवानी] के नशे में मदहोश होकर, कोई धर्म न सुना आम व्यक्ति काया से दुराचार करता है, वाणी से दुराचार करता है, एवं मन से दुराचार करता है। वह काया, वाणी एवं मन से दुराचार कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है।
आरोग्य [चंगाई] के नशे में मदहोश होकर, कोई धर्म न सुना आम व्यक्ति काया से दुराचार करता है, वाणी से दुराचार करता है, एवं मन से दुराचार करता है। वह काया, वाणी एवं मन से दुराचार कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है।
जीवन के नशे में मदहोश होकर, कोई धर्म न सुना आम व्यक्ति काया से दुराचार करता है, वाणी से दुराचार करता है, एवं मन से दुराचार करता है। वह काया, वाणी एवं मन से दुराचार कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है।”
«अंगुत्तरनिकाय ३:३९ : सुखुमालसुत्त»
कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा: “भन्ते! अभी मैं एकांत में था, तो मेरे चित्त में विचारों की शृंखला उठी, ‘इस दुनिया में अल्प ही लोग हैं, जो भोगसंपत्ति प्राप्त करने पर मदहोश नहीं होते, प्रमादी [=लापरवाह] नहीं होते, कामुकता के लिए लोभी नहीं होते, दूसरों से दुर्व्यवहार नहीं करते। बल्कि बहुत लोग हैं, जो भोगसंपत्ति प्राप्त करने पर मदहोश हो जाते हैं, प्रमादी हो जाते हैं, कामुकता के लिए लोभी हो जाते हैं, और दूसरों से दुर्व्यवहार करने लगते हैं।” «संयुत्तनिकाय ३:२४ : अप्पकसुत्त»
साल गांव के ब्राह्मण गृहस्थ तब भगवान के पास गए। कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक-ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक-ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए। उन ब्राह्मण गृहस्थों ने एक-ओर बैठकर भगवान से कहा: “हे गोतम! क्या कारण एवं परिस्थिति से कुछ सत्व मरणोपरांत काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजते हैं?” “अधर्मचर्या विषमचर्या 1 के कारण, गृहस्थों, कुछ सत्व मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं।” “हम गुरु गोतम द्वारा बताई संक्षिप्त बात का अर्थ नहीं समझते हैं, जिसका उन्होंने विश्लेषण नहीं किया। अच्छा होगा जो गुरु गोतम हमें धर्म सिखाएँ, जिससे हम उनकी संक्षिप्त बात का विस्तृत अर्थ समझ सके।” “तब गृहस्थों, ध्यान देकर गौर से सुनों। मैं बताता हूँ।” “जैसे आप कहें, गुरुजी!” “गृहस्थों, काया से तीन तरह की, वाणी से चार तरह की, तथा मन से तीन तरह की अधर्मचर्या विषमचर्या होती हैं। काया से तीन तरह की अधर्मचर्या विषमचर्या कैसे होती हैं? • ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या करता है — निर्दयी, रक्त से सने हाथ वाला, हत्या एवं हिंसा में जुटा, जीवों के प्रति निष्ठुर। • कोई व्यक्ति चुराता है — गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु को चोरी चुपके उठाता, ले लेता है। • कोई व्यक्ति व्यभिचारी होता है। वह उनसे संबन्ध बनाता है — जो माता से संरक्षित हो, पिता से संरक्षित हो, भाई से संरक्षित हो, बहन से संरक्षित हो, रिश्तेदार से संरक्षित हो, गोत्र से संरक्षित हो, धर्म से संरक्षित हो, जिसका पति [या पत्नी] हो, जिससे संबन्ध दण्डनिय हो, अथवा जिसे अन्य पुरुष ने फूल से नवाजा [=सगाई या प्रेमसंबन्ध] हो। ऐसे तीन तरह से काया द्वारा अधर्मचर्या विषमचर्या होती हैं। वाणी से चार तरह की अधर्मचर्या विषमचर्या कैसे होती हैं? • ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति झूठ बोलता है। जब उसे नगरबैठक, गुटबैठक, रिश्तेदारों की सभा, अथवा किसी संघ या न्यायालय में बुलाकर गवाही देने कहा जाए, “आईये! बताएँ श्रीमान! आप क्या जानते है?” तब यदि वह न जानता हो तो कहता है, “मैं जानता हूँ।” यदि जानता हो तो कहता है, “मैं नहीं जानता हूँ।” यदि उसने न देखा हो तो कहता है, “मैंने ऐसा देखा है।” यदि उसने देखा हो तो कहता है, “मैंने ऐसा नहीं देखा।” इस तरह वह आत्महित में, परहित में, अथवा ईनाम की चाह में झूठ बोलता है। • कोई व्यक्ति फूट डालनेवाली बातें करता है। यहाँ सुनकर वहाँ बताता है, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ बताता है, ताकि यहाँ दरार पड़े। वह साथ रहते लोगों को बांटता, टूटे रिश्तों में झगड़ा कराता, गुटबंदी चाहता, गुटबंदी में रत होता, गुटबंदी का मजा लेता, ऐसे बोल बोलता है कि गुटबंदी हो। • कोई व्यक्ति कटु वचन बोलता है। वह ऐसी बातें बोलता है, जो कठोर हो, तीखी हो, दूसरे को कड़वी लगे, कटु लगे, क्रोध जगे, समाधि [मनोस्थिरता, एकाग्रता] भंग हो। • कोई व्यक्ति बकवास करता है। वह बेसमय, बिना तथ्यों के, निरर्थक, न धर्म अनुकूल, न विनय अनुकूल, बिना मूल्य की बातें बोलता है। ऐसे चार तरह से वाणी द्वारा अधर्मचर्या विषमचर्या होती हैं। मन से तीन तरह की अधर्मचर्या विषमचर्या कैसे होती हैं? • ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति लालची होता है। वह पराई संपत्ति की लालसा रखता है, ‘काश, वह पराई चीज़ मेरी हो जाए!’ • कोई व्यक्ति दुर्भावनापूर्ण चित्त का होता है। वह मन में दुष्ट संकल्प पालता है, ‘यह सत्व मर जाए, कट जाए, कुचला जाए! इसका विनाश हो! अस्तित्व उजड़ जाए!’ • कोई व्यक्ति मिथ्यादृष्टि धारण करता है। वह विपरीत दृष्टिकोण से देखता है — ‘न दान [का फ़ल] है, न चढ़ावा है, न आहुती है। न सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम है। न लोक है, न [मरणोपरांत] परलोक। न मां है, न पिता [का विशेष ऋण]। न स्वयं से उत्पन्न «ओपपातिक» सत्व हैं, और न ही ऐसे श्रमण या ब्राह्मण, जो सम्यक-साधना कर सही प्रगति करते हुए अभिज्ञता का साक्षात्कार करने पर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ ऐसे तीन तरह से मन द्वारा अधर्मचर्या विषमचर्या होती हैं। तथा गृहस्थों, ऐसी अधर्मचर्या विषमचर्या के कारण कुछ सत्व मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं।” «मज्झिमनिकाय ४१ : सालेय्यकसुत्त»
तोदेय्यपुत्र कुमार सुभ तब भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर उसने भगवान से कहा: “हे गोतम! क्या कारण एवं परिस्थिति से मनुष्यावस्था में आकर मानवों में हीनता या उत्कृष्टता प्रकट होती हैं? मानवों में अल्पायुता दिखती है या दीर्घायुता दिखती है, बहुरोगीता दिखती है या अल्परोगीता दिखती है, कुरूपता दिखती है या सौंदर्यता दिखती है, प्रभावहीनता दिखती है या प्रभावशीलता दिखती है, दरिद्रता दिखती है या ऐश्वर्यता दिखती है, नीचकुलीनता दिखती है या उच्चकुलीनता दिखती है, दुष्प्रज्ञता दिखती है या महाप्रज्ञता दिखती है? क्या कारण एवं परिस्थिति से मनुष्यावस्था में आकर मानवों में हीनता या उत्कृष्टता प्रकट होती हैं?” “कुमार! सत्व स्वयं कर्म के कर्ता, कर्म के वारिस, कर्म से पैदा, कर्म से बंधे, कर्म के शरणागत हैं। वे जो भी कर्म करते हैं, कल्याणकारी अथवा पापपूर्ण, उसी के उत्तराधिकारी होते हैं।” “मैं गुरु गोतम द्वारा बताई संक्षिप्त बात का अर्थ नहीं समझता हूँ, जिसका उन्होंने विश्लेषण नहीं किया। अच्छा होगा जो गुरु गोतम मुझे धर्म सिखाएँ, जिससे मैं उनकी संक्षिप्त बात का विस्तृत अर्थ समझ पाऊँ।” “तब कुमार, ध्यान देकर गौर से सुनों। मैं बताता हूँ।” “जैसे आप कहें, गुरुजी!” “ऐसा होता है कुमार! कोई स्त्री या पुरुष जीवहत्या करते हैं — निर्दयी, रक्त से सने हाथ वाले, हत्या एवं हिंसा में जुटे, जीवों के प्रति निष्ठुर। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, अल्पायु होते हैं। यही अल्पायुता की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष जीवों को प्रताड़ित करते हैं — हाथ से, पत्थर से, डंडे से या शस्त्र से। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, बहुरोगी होते हैं। यही बहुरोगीता की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष क्रोधी, बड़े व्याकुल होते हैं — छोटी-सी बात पर भी क्रोधित होते, कुपित होते, विद्रोह करते, विरोध करते हैं, तथा गुस्सा, द्वेष एवं खीज प्रकट करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, कुरूप होते हैं। यही कुरूपता की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष ईर्ष्यालु होते हैं — पराए को मिलता लाभ सत्कार, आदर सम्मान, वंदन पूजन से जलते हैं, कुढ़ते हैं, ईर्ष्या करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, प्रभावहीन होते हैं। यही प्रभावहीनता [अल्पसक्षमता] की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष दाता नहीं होते हैं — श्रमण एवं ब्राह्मणों को भोजन पान, वस्त्र वाहन, माला गन्ध लेप, बिस्तर निवास दीपक आदि दान नहीं देते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, दरिद्र होते हैं। यही दरिद्रता की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष अहंकारी होते हैं — वंदनीय लोगों को वंदन नहीं करते, खड़े होने योग्य के लिए खड़े नहीं होते, आसन देने योग्य को आसन नहीं देते, रास्ता छोड़ने योग्य के लिए रास्ता नहीं छोड़ते हैं। तथा सत्कारयोग्य आदरणीय सम्माननीय या पूजनीय लोगों का सत्कार आदर सम्मान या पूजा नहीं करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, नीचकुलीन होते हैं। यही नीचकुलीनता की ओर बढ़ता रास्ता है। • और कोई स्त्री या पुरुष जाकर श्रमण या ब्राह्मण को पूछते नहीं हैं — ‘भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोष होता है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन अहित एवं दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित एवं सुख की ओर ले जाएँगे?’ वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, दुष्प्रज्ञ [दुर्बुद्धि प्राप्त] होते हैं। यही दुष्प्रज्ञता की ओर बढ़ता रास्ता है। इस तरह कुमार, अल्पायुता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को अल्पायु बनाता है। बहुरोगीता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को बहुरोगी बनाता है। कुरूपता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को कुरूप बनाता है। प्रभावहीनता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को प्रभावहीन बनाता है। दरिद्रता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को दरिद्र बनाता है। नीचकुलीनता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को नीचकुलीन बनाता है। दुष्प्रज्ञता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को दुष्प्रज्ञ बनाता है। सत्व स्वयं कर्म के कर्ता, कर्म के वारिस, कर्म से पैदा, कर्म से बंधे, कर्म के शरणागत हैं। और कर्म से ही मानवों में हीनता या उत्कृष्टता 2 का भेद होता है।” «मज्झिमनिकाय १३५ : चूळकम्मविभङ्गसुत्त»
«धम्मपद दण्डवग्गो १३७-१४०» «संयुत्तनिकाय ११:२४ : अच्चयसुत्त»
अकुशल विपाक • जीवहत्या में लिप्त होना, [स्वभाव] विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। जीवहत्या के तमाम [घोर] परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब अल्पायुता मिलती है। • चोरी में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। चोरी के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब धनसंपत्ति की हानि होती है। • व्यभिचार में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। व्यभिचार के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब प्रतिद्वंदिता एवं शत्रुता मिलती है। • झूठ बोलने में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। झूठ बोलने के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब मिथ्या आरोपण होता है। • फूट डालने वाले वचन में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। फूट डालने वाले वचन के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब मित्रता टूटती है। • कठोर वचन में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। कटु वचन के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब अनचाहे वचन सुनना पड़ता है। • निरर्थक वचन में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। निरर्थक वचन के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब अस्वीकार्य वचन सुनना पड़ता है। • शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते में लिप्त होना, विकसित करना, बार-बार करना — नर्क ले जाता है, पशुयोनी दिलाता है, या भूखा प्रेत बनाता है। नशेपते के तमाम परिणामों में सबसे हल्का परिणाम मनुष्यावस्था में मिले, तब उन्माद [विक्षिप्तता] होता है। «अंगुत्तरनिकाय ८:४० : दुच्चरितविपाकसुत्त»
“भिक्षुओं! मूर्ख के तीन लक्षण होते हैं, चिन्ह होते हैं, गुण होते हैं। कौन से तीन? मूर्ख बुरा विचारी होता है, बुरा बोलता है, और बुरा कृत्य करता है। यदि मूर्ख ऐसा न होता, तो विद्वान उसे कैसे जान पातें कि “यह मूर्ख असत्पुरुष [बेईमान] है”? चूंकि मूर्ख बुरा विचारी होता है, बुरा बोलता है, और बुरा कृत्य करता है, इसलिए विद्वान उसे जान पाते हैं कि “यह मूर्ख असत्पुरुष है!” मूर्ख इसी जीवन में तीन तरह से ‘दुःख एवं पीड़ा’ का अनुभव करता है। जब लोग सभा में बैठकर, रास्ते के किनारे बैठकर, या चौराहे पर बैठकर [दुराचार से] जुड़ी प्रासंगिक बात पर चर्चा करने लगे — तब जो मूर्ख जीवहत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलता एवं शराब मद्य आदि मदहोश करनेवाला नशापता करता हो, वह सोचता है, “लोग जिस प्रासंगिक बात पर चर्चा कर रहे हैं, वह [हरकतें] मुझमें भी पायी जाती हैं! और मैं उनमें लिप्त होते भी देखा जाता हूँ!” मूर्ख इसी जीवन में इस पहले दुःख-पीड़ा का अनुभव करता है। फिर, मूर्ख, किसी चोर या अपराधी के पकड़े जाने पर दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ झेलते हुए देखता है — जैसे चाबुक़ से पिटते हुए, कोड़े लगते हुए, मुग्दर, बेंत या डंडों से पिटते हुए, हाथ कटते, पैर कटते, हाथ-पैर दोनों कटते हुए, कान कटते, नाक कटते, कान-नाक दोनों कटते हुए, या खोपड़ी निकालकर गर्म लोहा डलते हुए, सिर की चमड़ी उतार खोपड़ी को कंकड़ों से रगड़ते हुए, चिमटे से मुँह खुलवा भीतर अँगारें या दीपक जलते हुए, शरीर पर तेलबत्ती लपेट आग लगते हुए, हाथ पर तेलबत्ती लपेट आग लगते हुए, गले से कलाई तक की चमड़ी खींचकर उतरते हुए, गले से कुल्हे तक की चमड़ी भी खींचकर उतरते हुए, कोहनियों और घुटनों में खूँटा ठोककर ज़मीन पर लेटते हुए, दोनों-ओर से नुक़िले काँटे घुसेड़ चमड़ी, माँस और नसें नचोटते हुए, सारे शरीर की चमड़ी को सिक्के-सिक्के भर छिलते हुए, शरीर को पीट-पीटकर कंघी फेरते हुए, एक-करवट लिटाकर कानों में खूँटा गड़ते हुए, बिना चमड़ी को हानि पहुँचाये भीतर हड्डी पीसते हुए, उबलता तेल डलते हुए, कुत्तों द्वारा नोच-नोचकर भोजन बनते हुए, खूँटी घुसाकर सुली पर लटकते हुए, तथा तलवार से सिर कटते हुए। — तब वह सोचता है, “चोर या अपराधी जिन पापकर्मों के चलते पकड़ा गया और उसे शासनकर्ता [पुलिस या लोगों] ने तरह-तरह से यातनाएँ दी, वह [हरकतें] मुझमें भी पायी जाती हैं! और मैं उनमें लिप्त होते भी देखा जाता हूँ!” मूर्ख इसी जीवन में इस दूसरे दुःख-पीड़ा का अनुभव करता है। फिर, जब मूर्ख [अकेला] कुर्सी पर बैठा हो, पलंग पर बैठा हो, या जमीन पर बैठा हो, तब उसके पूर्व पापकर्म — काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार — उसपर घिर आते हैं, बिछ जाते हैं, उसे ढक देते हैं। जैसे संध्या होते जमीन पर महापर्वत चोटी की छाया घिर आती है, बिछ जाती है, उसे ढक देती है। उसी तरह जब मूर्ख कुर्सी, पलंग या जमीन पर बैठा हो, तब उसके पूर्व पापकर्म — काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार — उसपर घिर आते हैं, बिछ जाते हैं, उसे ढक देते हैं। तब मूर्ख को लगता है, “अरे! मैने न कल्याणकर्म किए, न कुशलकर्म किए, न ही भयभीत को आसरा दिया। बल्कि मैने पाप किए, क्रूरता की, गलतियां की! जो लोग कल्याण नहीं करते, कुशल नहीं करते, भयभीत को आसरा नहीं देते; बल्कि पाप, क्रूरता एवं गलतियां करते हैं — जो गति उनकी होती हैं, वही गति मेरी भी होगी!” तब ऐसा लगने पर उसे अफ़सोस होता है, वह ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। मूर्ख इसी जीवन में इस तीसरे दुःख-पीड़ा का अनुभव करता है। तब मूर्ख काया से दुराचार करते हुए, वाणी से दुराचार करते हुए, एवं मन से दुराचार करते हुए मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है। यदि कोई उचित तरह से बोल पड़े, “बिलकुल अनिच्छित! बिलकुल अप्रिय! बिलकुल अनचाहा!”, तब ऐसा कहना नर्क के बारे में उचित होगा। यहाँ तक कि भिक्षुओं, नर्क के दुःख की उपमा देना भी सरल नहीं है।” तब एक भिक्षु ने कहा, “किंतु, भन्ते! क्या तब भी कोई उपमा दी जा सकती है?” “दी जा सकती है, भिक्षु! कल्पना करो कि कोई चोर पकड़ा जाए और राजा के आगे पेश किया जाए। [सैनिक कहें:] “महाराज! यह अपराधी चोर है। आपको जो उचित लगे, सो दंड दें।” राजा कहता है, “सैनिकों, इसे ले जाओ और सुबह में सौ-भाले भोंको!” तब उसे सुबह में सौ-भाले भोंक दिया जाता है। तब राजा दोपहर में पूछता है, “सैनिकों, क्या हाल है उसका?” “अब भी जीवित है, महाराज!” “जाओ, उसे दोपहर में [पुनः] सौ-भाले भोंको!” तब उसे दोपहर में सौ-भाले भोंक दिया जाता है। तब राजा संध्या में पूछता है, “सैनिकों, क्या हाल है उसका?” “अब भी जीवित है, महाराज!” “जाओ, उसे संध्या में [पुनः] सौ-भाले भोंको!” तब उसे संध्या में सौ-भाले भोंक दिया जाता है। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या उसे तीन सौ भाले भोंक दिए जाने के कारण दुःख-पीड़ा होगी?” “भन्ते! मात्र एक-भाला भोंका जाए, तब भी भयंकर दुःख-पीड़ा होगी। तो तीन सौ-भालों का कहना ही क्या!” तब भगवान ने एक पत्थर उठाया और भिक्षुओं से कहा, “तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या बड़ा है — मेरे हाथ का यह पत्थर अथवा पर्वतराज हिमालय?” “भन्ते! भगवान ने जो पत्थर उठाया, वह पर्वतराज हिमालय के आगे गिना भी नहीं जाएगा! वह एक अंश भी नहीं है! दोनों में कोई तुलना ही नहीं है!” “उसी तरह, भिक्षुओं! पुरुष को तीन-सौ भाले भोंके जाने पर जो दुःख-पीड़ा होगी, वह नर्क के दुःख के आगे गिने भी नहीं जाएँगे! वे एक अंश भी नहीं हैं! दोनों में कोई तुलना ही नहीं हैं! भिक्षुओं, मैं तुम्हें नर्क के बारे में तरह-तरह से बता सकता हूँ। किंतु तब भी नर्क के दुःख का पूर्ण वर्णन करना सरल नहीं है। जैसे दो घर हो, द्वारों के साथ। कोई अच्छी आँखों वाला पुरुष दोनों के मध्य खड़ा होकर लोगों को एक घर से दूसरे में प्रवेश करते हुए, निकलते हुए एवं घूमते-भटकते हुए देखे। उसी तरह मैं अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से सत्वों को गुजरते-उपजते हुए देखता हूँ, और मुझे पता चलता है कि वे कर्मानुसार ही कैसे हीन या उच्च, सुंदर या कुरूप, भाग्यशाली या अभाग़े हैं: ‘अरे, कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की एवं सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर देवताओं के साथ स्वर्ग में उपजे… अथवा मानवलोक में जन्म लिए। और कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की एवं मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर प्रेतलोक में उत्पन्न हुए… अथवा पशुयोनी में उत्पन्न हुए… अथवा यातनालोक नर्क में उपजे।’ तब उन्हें नर्कपाल बाहें पकड़ कर यमराज के आगे तरह-तरह से उपस्थित करते हैं, “देव! यह पुरुष न मां का सम्मानकर्ता है, न पिता का! न श्रमण [साधु संन्यासी] का सम्मानकर्ता है, न ब्राह्मण का! न ही कुलपरिवार के ज्येष्ठ [उम्र में बड़े] लोगों का ही सम्मानकर्ता है! देव, इसे दण्ड का आदेश दें!” तब यमराज उस पुरुष से प्रथम देवदूत के बारे में पूछताछ करता है, “अरे भले पुरुष! क्या तुमने प्रथम देवदूत को मानवों में प्रकट होते नहीं देखा?” “नहीं देखा, देव!” “अरे भले पुरुष! क्या तुमने मानवों में किसी नवजात शिशु को स्वयं के मलमूत्र में पड़े, सोते नहीं देखा?” “देखा, देव!” “तब, भले पुरुष! क्या तुम्हें होश जागकर, प्रौढ़ता आकर ऐसा नहीं लगा, “मैं भी जन्म-धर्म से घिरा हूँ! जन्म-धर्म नहीं लांघा हूँ! अच्छा होगा जो अब मैं काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म में लग जाऊँ!” “ऐसा नहीं लगा, देव! मैं मदहोश था, देव!” “अरे भले पुरुष! तुमने मदहोश रहकर काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म नहीं किए। और तुम जितना मदहोश रहे, उतना ज़रूर निपटा जाएगा! क्योंकि तुम्हारे वे पापकर्म — न तुम्हारी मां से हुए, न पिता से, न भाई से हुए, न बहन से, न मित्र-सहचारियों से हुए, न तुम्हारे परिवारजन-रिश्तेदारों से, और न ही [आरक्षक] देवताओं से हुए! तुम्हारे वे पापकर्म स्वयं तुमसे हुए, और अब तुम ही उसका परिणाम भोगोगे!” प्रथम देवदूत के बारे में पूछताछ करने, स्पष्टीकरण मांगने एवं फटकारने पश्चात, यमराज उस पुरुष से द्वितीय देवदूत के बारे में पूछताछ करता है, “अच्छा भले पुरुष! क्या तुमने द्वितीय देवदूत को मानवों में प्रकट होते नहीं देखा?” “नहीं देखा, देव!” “अरे भले पुरुष! क्या तुमने मानवों में किसी अस्सी, नब्बे या सौ वर्ष के बूढ़े या बूढ़ी को नहीं देखा, जिसका ऊपरी शरीर टेढ़ा-मेढ़ा, झुका हुआ हो, लट्ठ के सहारे चलता या खड़ा हो, लकवा मारे, दर्द पीड़ा में त्रस्त हो चुके, दांत टूट चुके, केश भूरे पड़ चुके, अर्ध गंजा या पूर्ण गंजा हो चुके, काया पूर्णतः झुर्रीदार एवं धब्बेदार हो चुकी हो?” “देखा, देव!” “तब, भले पुरुष! क्या तुम्हें होश जागकर, प्रौढ़ता आकर ऐसा नहीं लगा, “मैं भी जीर्ण-धर्म से घिरा हूँ! जीर्ण-धर्म नहीं लांघा हूँ! अच्छा होगा जो अब मैं काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म में लग जाऊँ!” “ऐसा नहीं लगा, देव! मैं मदहोश था, देव!” “अरे भले पुरुष! तुमने मदहोश रहकर काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म नहीं किए। और तुम जितना मदहोश रहे, उतना ज़रूर निपटा जाएगा! क्योंकि तुम्हारे वे पापकर्म — न तुम्हारी मां से हुए, न पिता से, न भाई से हुए, न बहन से, न मित्र-सहचारियों से हुए, न तुम्हारे परिवारजन-रिश्तेदारों से, और न ही देवताओं से हुए! तुम्हारे वे पापकर्म स्वयं तुमसे हुए, और अब तुम ही उसका परिणाम भोगोगे!” द्वितीय देवदूत के बारे में पूछताछ करने, स्पष्टीकरण मांगने एवं फटकारने पश्चात, यमराज उस पुरुष से तृतीय देवदूत के बारे में पूछताछ करता है, “अच्छा भले पुरुष! क्या तुमने तृतीय देवदूत को मानवों में प्रकट होते नहीं देखा?” “नहीं देखा, देव!” “अरे भले पुरुष! क्या तुमने मानवों में किसी बीमार, गंभीर रोग से ग्रस्त, दर्द पीड़ा में कराहते, स्वयं के मलमूत्र में सने, दूसरों द्वारा उठाए, लिटाए जाते को नहीं देखा?” “देखा, देव!” “तब, भले पुरुष! क्या तुम्हें होश जागकर, प्रौढ़ता आकर ऐसा नहीं लगा, “मैं भी रोग-धर्म से घिरा हूँ! रोग-धर्म नहीं लांघा हूँ! अच्छा होगा जो अब मैं काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म में लग जाऊँ!” “ऐसा नहीं लगा, देव! मैं मदहोश था, देव!” “अरे भले पुरुष! तुमने मदहोश रहकर काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म नहीं किए। और तुम जितना मदहोश रहे, उतना ज़रूर निपटा जाएगा! क्योंकि तुम्हारे वे पापकर्म — न तुम्हारी मां से हुए, न पिता से, न भाई से हुए, न बहन से, न मित्र-सहचारियों से हुए, न तुम्हारे परिवारजन-रिश्तेदारों से, और न ही देवताओं से हुए! तुम्हारे वे पापकर्म स्वयं तुमसे हुए, और अब तुम ही उसका परिणाम भोगोगे!” तृतीय देवदूत के बारे में पूछताछ करने, स्पष्टीकरण मांगने एवं फटकारने पश्चात, यमराज उस पुरुष से चतुर्थ देवदूत के बारे में पूछताछ करता है, “अच्छा भले पुरुष! क्या तुमने चतुर्थ देवदूत को मानवों में प्रकट होते नहीं देखा?” “नहीं देखा, देव!” “अरे भले पुरुष! क्या तुमने मानवों में किसी चोर या अपराधी के पकड़े जाने पर दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ झेलते हुए नहीं देखा — जैसे चाबुक़ से पिटते हुए, कोड़े लगते हुए, मुग्दर, बेंत या डंडों से पिटते हुए… [तरह-तरह से उत्पीड़न] नहीं देखा?” “देखा, देव!” “तब, भले पुरुष! क्या तुम्हें होश जागकर, प्रौढ़ता आकर ऐसा नहीं लगा, “जो पापकर्म करता है, इसी जीवन में तरह-तरह से यातनाएँ झेलता है, तब मरणोपरांत परलोक में क्या होता होगा? अच्छा होगा जो अब मैं काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म में लग जाऊँ!” “ऐसा नहीं लगा, देव! मैं मदहोश था, देव!” “अरे भले पुरुष! तुमने मदहोश रहकर काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म नहीं किए। और तुम जितना मदहोश रहे, उतना ज़रूर निपटा जाएगा! क्योंकि तुम्हारे वे पापकर्म — न तुम्हारी मां से हुए, न पिता से, न भाई से हुए, न बहन से, न मित्र-सहचारियों से हुए, न तुम्हारे परिवारजन-रिश्तेदारों से, और न ही देवताओं से हुए! तुम्हारे वे पापकर्म स्वयं तुमसे हुए, और अब तुम ही उसका परिणाम भोगोगे!” चतुर्थ देवदूत के बारे में पूछताछ करने, स्पष्टीकरण मांगने एवं फटकारने पश्चात, यमराज उस पुरुष से पंचम देवदूत के बारे में पूछताछ करता है, “अच्छा भले पुरुष! क्या तुमने पंचम देवदूत को मानवों में प्रकट होते नहीं देखा?” “नहीं देखा, देव!” “अरे भले पुरुष! क्या तुमने मानवों में कोई लाश नहीं देखी — एक दिन पुरानी, दो दिन पुरानी, या तीन दिन पुरानी — फूल चुकी, नीली पड़ चुकी, पीब रिसती हुई?” “देखी, देव!” “तब, भले पुरुष! क्या तुम्हें होश जागकर, प्रौढ़ता आकर ऐसा नहीं लगा, “मैं भी मरण-धर्म से घिरा हूँ! मरण-धर्म नहीं लांघा हूँ! अच्छा होगा जो अब मैं काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म में लग जाऊँ!” “ऐसा नहीं लगा, देव! मैं मदहोश था, देव!” “अरे भले पुरुष! तुमने मदहोश रहकर काया, वाणी एवं मन से कल्याणकर्म नहीं किए। और तुम जितना मदहोश रहे, उतना ज़रूर निपटा जाएगा! क्योंकि तुम्हारे वे पापकर्म — न तुम्हारी मां से हुए, न पिता से, न भाई से हुए, न बहन से, न मित्र-सहचारियों से हुए, न तुम्हारे परिवारजन-रिश्तेदारों से, और न ही देवताओं से हुए! तुम्हारे वे पापकर्म स्वयं तुमसे हुए, और अब तुम ही उसका परिणाम भोगोगे!” पंचम देवदूत के बारे में पूछताछ करने, स्पष्टीकरण मांगने एवं फटकारने पश्चात, यमराज मौन हो जाता है। तब नर्कपाल उसे ले जाकर पञ्चविध बन्धन नामक यातना देते हैं — एक तप्त-लाल कील उसके एक हाथ में ठोंकते हैं, दूसरी तप्त-लाल कील उसके दूसरे हाथ में ठोंकते हैं, तीसरी तप्त-लाल कील उसके एक पैर में ठोंकते हैं, चौथी तप्त-लाल कील उसके दूसरे पैर में ठोंकते हैं, और पाँचवी तप्त-लाल कील उसके सीने में ठोंकते हैं। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब नर्कपाल उसे लिटाकर आरी से काटते हैं। तब उसका सिर नीचे, पैर ऊपर पकड़कर कुल्हाड़ी से काटते हैं। तब उसे रथ से बांधकर, ‘जलती दहकती धधकती’ भूमि पर घसीट ले जाते हैं एवं वापस ले आते हैं। तब उसे ‘जलते दहकते धधकते’ विशालकाय पर्वत पर चढ़ने लगाते हैं एवं उतरने लगाते हैं। तब उसका सिर नीचे, पैर ऊपर पकड़कर, ‘जलते दहकते धधकते’ तप्त-लाल तांबे की कढ़ाई में डुबोते हैं। वह बुलबुले, झाग छोड़ते हुए उबलता है। तब उसे बुलबुले, झाग छोड़ते, उबालते हुए सीधा डुबोते हैं, फिर उल्टा डुबोते हैं, फिर आड़ा-तिरछा डुबोते हैं। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब नर्कपाल उसे उठाकर, महानर्क में फेंक देते हैं। और, महानर्क, भिक्षुओं — भीतर पूर्वी-दीवार से उठती लौ पश्चिमी-दीवार पर टकराती है। पश्चिमी-दीवार से उठती लौ पूर्वी-दीवार पर टकराती है। उत्तरी-दीवार से उठती लौ दक्षिणी-दीवार पर टकराती है। दक्षिणी-दीवार से उठती लौ उत्तरी-दीवार पर टकराती है। भूमि से उठती लौ छत पर टकराती है। छत से उठती लौ भूमि पर टकराती है। वहाँ उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब दीर्घकाल बीतने पर एक समय आता है, जब महानर्क का पूर्वी-द्वार खुलता है। तुरंत वह तेज दौड़ पड़ता है। और जब वह तुरंत तेज दौड़ता है, तब उसकी छवि [ऊपरी त्वचा] जलती है, चर्म [भीतरी त्वचा] जलता है, मांस जलता है, नसें जलती हैं, हड्डियां भी जलते हुए धुआं देने लगती हैं। वह पकड़े जाने पर पूर्ववत हो जाता है, अथवा पहुँचने पर द्वार लग जाता है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब दीर्घकाल बीतने पर एक समय आता है, जब महानर्क का पश्चिमी-द्वार खुलता है। तुरंत वह तेज दौड़ पड़ता है… उत्तरी-द्वार खुलता है। तुरंत वह तेज दौड़ पड़ता है… दक्षिणी-द्वार खुलता है। तुरंत वह तेज दौड़ पड़ता है। और जब वह तुरंत तेज दौड़ता है, तब उसकी छवि जलती है, चर्म जलता है, मांस जलता है, नसें जलती हैं, हड्डियां भी जलते हुए धुआं देने लगती हैं। वह पकड़े जाने पर पूर्ववत हो जाता है, अथवा पहुँचने पर द्वार लग जाता है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब दीर्घकाल बीतने पर एक समय आता है, जब महानर्क का पूर्वी-द्वार [पुनः] खुलता है। तुरंत वह तेज दौड़ पड़ता है। और जब वह तुरंत तेज दौड़ता है, तब उसकी छवि जलती है, चर्म जलता है, मांस जलता है, नसें जलती हैं, हड्डियां भी जलते हुए धुआं देने लगती हैं। वह पकड़े जाने पर पूर्ववत हो जाता है, अथवा द्वार से बाहर निकलता है। किंतु महानर्क के समानांतर, बगल में विशाल गूहनर्क [विष्ठा] है। वह उसमें गिरता है। और उस गूहनर्क में अनेक सुईमुख वाले जीव उसकी छवि में छेद करते हैं। छवि बिंधकर चर्म में छेद करते हैं। चर्म बिंधकर मांस में छेद कर करते हैं। मांस बिंधकर नसों में छेद करते हैं। नसें बिंधकर हड्डियों में छेद करते हैं। और हड्डियां बिंधकर अस्थिमज्ज चूसने लगते हैं। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। गूहनर्क के समानांतर, बगल में विशाल तप्त कोयलानर्क है। वह उसमें गिरता है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तप्त कोयलानर्क के समानांतर, बगल में विशाल सिंबलिवन है — एक योजन [१ योजन ≈ १६ किलोमीटर] ऊँचा, सोलह-ऊंगली लंबे कांटों से बिछा हुआ, ‘जलता दहकता धधकता’। वह उसमें प्रवेश करता है। तब उसे ऊपर चढ़ाते हैं एवं उतारते हैं। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। सिंबलिवन के समानांतर, बगल में विशाल तलवार-पत्तीवन है। वह उसमें प्रवेश करता है। वहाँ पवन से हिलती पत्तियां उसके हाथ काटती हैं, पैर काटती हैं, हाथ-पैर दोनों काटती हैं, कान काटती हैं, नाक काटती हैं, कान-नाक दोनों काटती हैं। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तलवार-पत्तीवन के समानांतर, बगल में विशाल खाराजल नदी है। वह उसमें गिरता है। वह उसे नीचे बहा ले जाती है, ऊपर बहा ले जाती है, नीचे-ऊपर दोनों ओर बहा ले जाती है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब नर्कपाल हुक डालकर उसे बाहर निकालते हैं, और जमीन पर रखते हुए पूछते हैं, “अरे, भले पुरुष! क्या इच्छा है तुम्हारी?” “मैं भूखा हूँ, मान्यवर!” वह उत्तर देता है। तब नर्कपाल ‘जलते दहकते धधकते’ तप्त-लाल चिमटे से उसका मूंह खोलते हैं, और भीतर एक ‘जलता दहकता धधकता’ तांबे का गोला डालते हैं — जो उसके होठ जलाता है, मूंह जलाता है, गला जलाता है, पेट जलाता है, और उसकी आँतें-अँतड़ियाँ लेकर पिछवाड़े से बाहर निकलता है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब नर्कपाल उसे पूछते हैं, “अरे भले पुरुष! अब क्या इच्छा है तुम्हारी?” “मैं प्यासा हूँ, मान्यवर!” वह उत्तर देता है। तब नर्कपाल ‘जलते दहकते धधकते’ तप्त-लाल चिमटे से उसका मूंह खोलते हैं, और भीतर ‘जलता दहकता धधकता’ पिघला तांबा उड़ेलते हैं — जो उसके होठ जलाता है, मूंह जलाता है, गला जलाता है, पेट जलाता है, और उसकी आँतें-अँतड़ियाँ लेकर पिछवाड़े से बाहर निकलता है। तब उसे तीव्र, तेज एवं कटु दुःख-पीड़ा महसूस होती है। तब भी वह मरता नहीं है, जब तक उसके पापकर्म खत्म नहीं हो जाते। तब नर्कपाल उसे उठाकर, पुनः महानर्क में फेंक देते हैं। भिक्षुओं, मैं तुम्हें नर्क के बारे में तरह-तरह से बता सकता हूँ। किंतु तब भी नर्क के दुःख का पूर्ण वर्णन करना सरल नहीं है। 3 भिक्षुओं! पशुओं में तृणभक्षी प्राणी होते हैं, जो ताज़ी या सूखी घास चाटकर, दातों से खाते हैं — जैसे हाथी, अश्व, गाय, गधे, बकरियां, मृग इत्यादि। जो मूर्ख पूर्व पेटू [भुक्कड़] था और पापकर्म किया था, वह मरणोपरांत काया छूटने पर तृणभक्षी पशुयोनि में उत्पन्न होता है। पशुओं में गूहभक्षी प्राणी होते हैं, जो दूर से विष्ठा सूँघकर दौड़ पड़ते हैं, “यहाँ खाएँगे! यहाँ खाएँगे!” — जैसे मुर्गे, सूअर, कुत्ते, सियार इत्यादि। जो मूर्ख पूर्व पेटू था और पापकर्म किया था, वह मरणोपरांत गूहभक्षी पशुयोनि में उत्पन्न होता है। पशुओं में ऐसे प्राणी होते हैं, जो अंधकार में पैदा होते, अंधकार में जीते, और अंधकार में ही मरते हैं — जैसे कीट, कृमि, केंचुए इत्यादि। जो मूर्ख पूर्व पेटू था और पापकर्म किया था, वह मरणोपरांत अंधकार में ही पैदा होने, जीने और मरने वाले पशुयोनि में उत्पन्न होता है। पशुओं में ऐसे प्राणी होते हैं, जो जल में पैदा होते, जल में जीते, और जल में ही मरते हैं — जैसे मछलियां, कछुएँ, मगरमच्छ इत्यादि। जो मूर्ख पूर्व पेटू था और पापकर्म किया था, वह मरणोपरांत जल में ही पैदा होने, जीने और मरने वाले पशुयोनि में उत्पन्न होता है। पशुओं में ऐसे प्राणी होते हैं, जो गंदगी में पैदा होते, गंदगी में जीते, और गंदगी में ही मरते हैं — जैसे सड़ती मछली में, सड़ती लाश में, सड़ते भोजन में, पाखाने में, या गडर नाली में इत्यादि। जो मूर्ख पूर्व पेटू था और पापकर्म किया था, वह मरणोपरांत गंदगी में ही पैदा होने, जीने और मरने वाले पशुयोनि में उत्पन्न होता है। भिक्षुओं, मैं तुम्हें पशुयोनी के बारे में तरह-तरह से बता सकता हूँ। किंतु तब भी पशुयोनी के दुःख का पूर्ण वर्णन करना सरल नहीं है। कल्पना करों कि कोई पुरुष महासमुद्र में एक जुआ [बैल का योगबन्ध] फेंके, जिसमे एक छेद हो। तब पूर्वी-पवन उसे पश्चिम में बहाएँ, पश्चिमी-पवन उसे पूर्व में बहाएँ, उत्तरी-पवन उसे दक्षिण में बहाएँ, तथा दक्षिणी-पवन उसे उत्तर में बहाएँ। तब कल्पना करों कि उस महासमुद्र में एक अंधा कछुआ रहता हो, जो प्रत्येक सौ वर्ष बीतने पर केवल एक-बार सतह पर आता हो। तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या वह महासमुद्र में तैरता, सौ वर्षों में एक-बार ऊपर आने वाला अंधा कछुआ, कभी उस जुए में गर्दन डाल पाएगा?” “भन्ते, दीर्घकाल बीतने पर कदाचित एक अवसर ऐसा आ सकता है।” “भिक्षुओं! मैं कहता हूँ कि शीघ्र ही वह अंधा कछुआ उस जुए में गर्दन डाल देगा, बजाए कि नर्क गए मूर्ख को पुनः मनुष्यता प्राप्त हो। ऐसा क्यों? क्योंकि वहाँ न धर्मचर्या, न समचर्या, न कुशलक्रिया, न ही पुण्यक्रिया होती है। वहाँ आपसी भक्षण होता है, भिक्षुओं, दुर्बल का भक्षण होता है। जब दीर्घकाल बीतने पर कदाचित एक समय आए भी कि मूर्ख को पुनः मनुष्यता प्राप्त हो — तब वह नीचकुलीन परिवार में जन्म लेता है, जैसे चण्डालकुल [बहिष्कृत], निषादकुल [शिकारी], वेनकुल [बांस-काम करने वाले], रथकारकुल [बढई], वा पुक्कुसकुल [मैला उठाने वाले] जैसे अत्यंत दरिद्र, अल्प अन्नपान एवं भोजन वाले, कठिनाई से गुज़ारा होने वाले, कठिनाई से खाद्य एवं वस्त्र प्राप्त होने वाले कुलपरिवार। साथ ही वह कुरूप होता है, भद्दा दिखता है, विकृत होता है, रोगी होता है, अंधा होता है, लूला होता है, लंगड़ा होता है, लक़वाग्रस्त होता है। तथा उसे न अन्न मिलता है न पान, न वस्त्र मिलता है न गाड़ी, न माला न गन्ध न लेप मिलते हैं, न पलंग न आवास मिलते हैं, न ही दीपक। वह [उस कठिन जीवन में] काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार करता है। और मरणोपरांत पुनः पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है। जैसे भिक्षुओं! कोई जुआरी हो जो प्रथम-दांव में ही अपनी पत्नी, बच्चे, घर, जमीन, संपत्ति सब-कुछ गँवा दे और स्वयं गुलाम बनकर रह जाए। तब भी ऐसा दुर्भाग्यपूर्ण दांव — जिसमे कोई अपनी पत्नी, संतान, घर, जमीन, संपत्ति सब-कुछ गँवा दे और स्वयं गुलाम बनकर रह जाए — अल्पमात्र ही होगा! किंतु कोई मूर्ख उससे भी अधिक अनर्थकारी, महादुर्भाग्यपूर्ण दांव खेलता है, जब वह काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार करता है, और मरणोपरांत पतन होकर यातनालोक नर्क में उपजता है। यह मूर्खता की पराकाष्ठा है। एक बार, भिक्षुओं! यमराज को विचार आया, “जो लोक में पाप, अकुशल कर्म करते हैं, उन्हें ऐसे तरह-तरह से यातनाएँ दी जाती हैं। अरे! काश, मैं मनुष्यता प्राप्त करूँ! और लोक में तथागत अर्हंत सम्यकसम्बुद्ध उत्पन्न हो! और मुझे उस भगवान का साक्षात्कार हो! और भगवान मुझे धर्म सिखाएँ! और मैं धर्म समझ पाऊँ!” यह भिक्षुओं, मैं किसी श्रमण या ब्राह्मण से सुनकर नहीं कह रहा हूँ। बल्कि जो मैने स्वयं देखा, स्वयं पता किया, स्वयं समझा, वह तुम्हें बता रहा हूँ!” ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा: «मज्झिमनिकाय १२९ + १३० : बालपण्डितसुत्त + देवदूतसुत्त»
«धम्मपद पापवग्गो ११९» «धम्मपद पापवग्गो १२१» «धम्मपद यमकवग्गो १५» «धम्मपद यमकवग्गो १७»
केसि अश्वदमन-सारथी तब भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। भगवान ने कहा, “केसि, तुम दमनयोग्य घोड़ों के प्रसिद्ध सारथी हो। तुम कैसे घोड़ों को प्रशिक्षित करते हो?” “भन्ते! मैं दमनयोग्य घोड़ों को मृदुता से, कठोरता से, मृदुता एवं कठोरता दोनों से प्रशिक्षित करता हूँ।” “किंतु यदि वे न मृदूता से, न कठोरता से, न मृदुता एवं कठोरता दोनों से ही प्रशिक्षित हो, तब उनके साथ क्या करते हो?” “भन्ते! यदि वे न मृदूता से, न कठोरता से, न मृदुता एवं कठोरता दोनों से ही प्रशिक्षित हो, तब मैं उन्हें मार देता हूँ। ऐसा क्यों? [सोचते हुए:] ‘कही मेरा आचार्य-कुल कलंकित न हो!’ और भन्ते! भगवान लोक में सर्वोपरि पुरुषदमन-सारथी हैं! वे कैसे दमनयोग्य पुरुषों को प्रशिक्षित करते हैं?” “केसि! मैं भी दमनयोग्य पुरुषों को मृदुता से, कठोरता से, मृदुता एवं कठोरता दोनों से प्रशिक्षित करता हूँ। मृदुता से सिखाता हूँ — ‘काया से सदाचार ऐसा होता हैं। काया सदाचार का सुखद फ़ल ऐसा होता हैं। वाणी से सदाचार ऐसा होता हैं। वाणी सदाचार का सुखद फ़ल ऐसा होता हैं। मन से सदाचार ऐसा होता हैं। मन सदाचार का सुखद फ़ल ऐसा होता हैं। देवता ऐसे होते हैं। मनुष्य ऐसे होते हैं।’ कठोरता से सिखाता हूँ — ‘काया से दुराचार ऐसा होता हैं। काया दुराचार का दुखद परिणाम ऐसा होता हैं। वाणी से दुराचार ऐसा होता हैं। वाणी दुराचार का दुखद परिणाम ऐसा होता हैं। मन से दुराचार ऐसा होता हैं। मन दुराचार का दुखद परिणाम ऐसा होता हैं। नर्क ऐसे होते हैं। पशुयोनि ऐसी होती हैं। प्रेतलोक ऐसे होते हैं।’ मृदुता एवं कठोरता, दोनों से सिखाता हूँ — ‘काया वाणी एवं मन से सदाचार… सुखद फ़ल… देवता मनुष्य ऐसे होते हैं। तथा काया वाणी एवं मन से दुराचार… दुखद परिणाम… नर्क पशुयोनि प्रेतलोक ऐसे होते हैं।’” “किंतु भन्ते! यदि वे न मृदूता से, न कठोरता से, न मृदुता एवं कठोरता दोनों से ही प्रशिक्षित हो, तब भगवान उनके साथ क्या करते हैं?” “केसि! यदि वे न मृदूता से, न कठोरता से, न मृदुता एवं कठोरता दोनों से ही प्रशिक्षित हो, तब मैं उन्हें मार देता हूँ!” “किंतु, भन्ते! भगवान के लिए तो जीवहत्या योग्य नहीं है! तब भी कैसे भगवान कह रहे हैं, ‘मैं उन्हें मार देता हूँ’?” “सच है केसि! तथागत के लिए जीवहत्या योग्य नहीं है। किंतु जब दमनयोग्य पुरुष न मृदूता से, न कठोरता से, न मृदुता एवं कठोरता दोनों से ही प्रशिक्षित हो, तब तथागत उसे बात करने अथवा अनुशासन के लायक नहीं समझते हैं। तब उसके जानकार सहब्रह्मचारी भी उसे बात करने अथवा अनुशासन के लायक नहीं समझते हैं। इसका अर्थ है — उसका धर्मविनय में संपूर्ण विनाश!” “हाँ, सच है भन्ते! कैसे उसका धर्मविनय में संपूर्ण विनाश न होगा, जब तथागत उसे बात करने अथवा अनुशासन के लायक न समझें, तथा जानकार सहब्रह्मचारी भी उसे बात करने अथवा अनुशासन के लायक न समझें?” «अंगुत्तरनिकाय ४:१११ : केसिसुत्त»
[भन्ते सारिपुत्र ब्राह्मण धनञ्जानि उपासक के बारे में सुनते हैं कि आजकल वह प्रमादी होकर जीवनयापन करने लगा है। राजा के सहारे, वह ब्राह्मणों एवं वैश्य गृहस्थों को लूटता है, तो ब्राह्मणों एवं वैश्य गृहस्थों के सहारे, राजा को लूटता है। उसकी पत्नी — श्रद्धावान उपासिका, जो श्रद्धावान कुलपरिवार से आई थी, मर गई। तो उसने पुनर्विवाह कर ऐसी स्त्री ले आया — जो न श्रद्धावान उपासिका थी, न ही श्रद्धावान कुलपरिवार से थी। तब ऐसा सुनकर भन्ते सारिपुत्र करुणचित्त से उसके प्रदेश में जाकर, उसे मिलने बुलाते हैं।] तब ब्राह्मण धनञ्जानि सारिपुत्र भन्ते के पास गया और मैत्रीपूर्ण हालचाल लेकर एक-ओर बैठ गया। तब सारिपुत्र भन्ते से उससे कहा, “धनञ्जानि, आजकल अप्रमादी तो रहते हो?” “हमें कहा से अप्रमाद मिलेगा, गुरुजी? जब माता-पिता को पालना हैं, पत्नी एवं संतानों को पालना हैं, दास-नौकरों को पालना हैं, मित्र-सहचारियों के प्रति जिम्मेदारी हैं, रिश्तेदार-संबन्धियों के प्रति जिम्मेदारी हैं, अतिथियों के प्रति जिम्मेदारी हैं, मृतपूर्वजों के प्रति जिम्मेदारी हैं, देवताओं के प्रति जिम्मेदारी हैं, राजा के प्रति जिम्मेदारी हैं, और इस काया को भी राहत और पोषण देना हैं।” “क्या लगता है तुम्हें, धनञ्जानि? ऐसा हो कि कोई पुरुष अपनी माता-पिता के लिए अधर्मचर्या विषमचर्या करे। तब अधर्मचर्या विषमचर्या के कारण मरणोपरांत नर्कपाल आकर उसे नर्क खींच ले जाएँ। तब उसके कहने पर कि “अरे नर्कपालों! मैने जो अधर्मचर्या विषमचर्या की, अपने माता-पिता के लिए की! इसलिए नर्कपालों, मुझे नर्क में मत डालों!” — क्या उसे कुछ छूट मिलेगी? या उसके माता-पिता के कहने पर कि “अरे नर्कपालों! हमारे पुत्र ने जो अधर्मचर्या विषमचर्या की, हमारे लिए की! इसलिए, नर्कपालों! उसे नर्क में मत डालों!”— क्या उसे कुछ छूट मिलेगी?” “नहीं, गुरुजी! नर्कपाल उनके चीखते रहने के बावजूद उसे नर्क में डाल देंगे।” “और क्या लगता है तुम्हें, धनञ्जानि? ऐसा हो कि कोई पुरुष अपनी पत्नी एवं संतान के लिए… दास-नौकरों के लिए… मित्र-सहचारियों के लिए… रिश्तेदार-संबन्धियों के लिए… अतिथियों के लिए… मृतपूर्वजों के लिए… देवताओं के लिए… राजा के लिए… इस काया को राहत और पोषण देने के लिए अधर्मचर्या विषमचर्या करे। तब अधर्मचर्या विषमचर्या के कारण मरणोपरांत नर्कपाल आकर उसे नर्क खींच ले जाएँ। तब उसके कहने पर कि “अरे नर्कपालों! मैने जो अधर्मचर्या विषमचर्या की, अपने पत्नी एवं संतान के लिए की… दास-नौकरों के लिए की… मित्र-सहचारियों के लिए की… रिश्तेदार-संबन्धियों के लिए की… अतिथियों के लिए की… मृतपूर्वजों के लिए की… देवताओं के लिए की… राजा के लिए की… इस काया को राहत और पोषण देने के लिए के लिए की! इसलिए नर्कपालों! मुझे नर्क में मत डालों!” — क्या उसे कुछ छूट मिलेगी? या उसके पत्नी एवं संतान… दास-नौकरों… मित्र-सहचारियों… रिश्तेदार-संबन्धियों… अतिथियों… मृतपूर्वजों… देवताओं… राजा के कहने पर कि “अरे नर्कपालों! इसने जो अधर्मचर्या विषमचर्या की, हमारे लिए की! इसलिए, नर्कपालों! उसे नर्क में मत डालों!”— क्या उसे कुछ छूट मिलेगी?” “नहीं, गुरुजी! नर्कपाल उनके चीखते रहने के बावजूद उसे नर्क में डाल देंगे।” “तब क्या लगता है, धनञ्जानि? क्या श्रेष्ठ है? कोई पुरुष अपने माता-पिता के लिए अधर्मचर्या विषमचर्या करे, अथवा धर्मचर्या समचर्या करे?” “कोई अपने माता-पिता के लिए अधर्मचर्या विषमचर्या करे — यह कदापि श्रेष्ठ नहीं है, सारिपुत्र गुरुजी। बल्कि कोई अपने माता-पिता के लिए धर्मचर्या समचर्या करे — यही श्रेष्ठ है! अधर्मचर्या विषमचर्या की तुलना में धर्मचर्या समचर्या श्रेष्ठ है।” “धनञ्जानि, पुरुष अपने माता-पिता का पालन किसी अर्थपूर्ण और धर्मपूर्ण कार्य द्वारा कर सकता है — पाप से दूर रहकर, पुण्यमार्ग पर चलकर पुण्यकार्यों को करते हुए! और क्या लगता है तुम्हें, धनञ्जानि? क्या श्रेष्ठ है? कोई पुरुष अपने पत्नी एवं संतान के लिए… दास-नौकरों के लिए… मित्र-सहचारियों के लिए… रिश्तेदार-संबन्धियों के लिए… अतिथियों के लिए… मृतपूर्वजों के लिए… देवताओं के लिए… राजा के लिए… इस काया को राहत और पोषण देने के लिए अधर्मचर्या विषमचर्या करे, अथवा उनके लिए धर्मचर्या समचर्या करे?” “कोई अपने पत्नी एवं संतान के लिए… दास-नौकरों के लिए… मित्र-सहचारियों के लिए… रिश्तेदार-संबन्धियों के लिए… अतिथियों के लिए… मृतपूर्वजों के लिए… देवताओं के लिए… राजा के लिए… इस काया को राहत और पोषण देने के लिए कोई अधर्मचर्या विषमचर्या करे, यह कदापि श्रेष्ठ नहीं है, सारिपुत्र गुरुजी। बल्कि कोई उनके लिए धर्मचर्या समचर्या करे — यही श्रेष्ठ है! अधर्मचर्या विषमचर्या की तुलना में धर्मचर्या समचर्या श्रेष्ठ है।” “पुरुष अपने पत्नी एवं संतान… दास-नौकरों का पालन किसी अर्थपूर्ण और धर्मपूर्ण कार्य द्वारा कर सकता है… मित्र-सहचारियों… रिश्तेदार-संबन्धियों… अतिथियों… मृतपूर्वजों… देवताओं… राजा के प्रति जिम्मेदारी किसी अर्थपूर्ण और धर्मपूर्ण कार्य द्वारा पूर्ण कर सकता है… या इस काया को राहत और पोषण दे सकता है — पाप से दूर रहकर, पुण्यमार्ग पर चलकर पुण्यकार्यों को करते हुए!” तब ब्राह्मण धनञ्जानि सारिपुत्र भन्ते की बात पर अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने अनुमोदन किया और आसन से उठकर चला गया। 4 «मज्झिमनिकाय ९७ : धनञ्जानिसुत्त»
कौशल-नरेश प्रसेनजीत दिन के मध्यस्थ भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। भगवान ने कहा: “महाराज! भला दिन के मध्यस्थ कहाँ से आ रहे है?” “भन्ते! मैं अभी ऐसे क्षत्रिय राजयोद्धाओं के रोजमर्रा के मामलों में फंसा हुआ था, जो सत्ता के नशे में धुत रहते हो, कामुकता के लोभ में डूबे रहते हो, अपने प्रदेश में स्थिर नियंत्रण प्राप्त कर चुके हो, और इस पृथ्वी के बड़े क्षेत्र पर विजय प्राप्त कर राजशासन चलाते हो।” “कल्पना करें, महाराज। एक सच्चा विश्वसनीय पुरुष पूर्व-दिशा से आकर कहे, ‘महाराज, मैं पूर्व-दिशा से आया हूँ। वहाँ मैंने एक महापर्वत देखा, बादलों तक ऊँचा, जो इस दिशा में सभी सत्वों को रौंदते हुए आ रहा है। देखिए, आपको क्या करना है।’ तब एक सच्चा विश्वसनीय पुरुष पश्चिम-दिशा से… एक उत्तर-दिशा से… एक दक्षिण-दिशा से आकर कहे, ‘महाराज, मैं दक्षिण-दिशा से आया हूँ। वहाँ मैंने एक महापर्वत देखा, बादलों तक ऊँचा, जो इस दिशा में सभी सत्वों को रौंदते हुए आ रहा है। देखिए, आपको क्या करना है।’ महाराज, यदि इस तरह महाविपत्ति आए, मानव-जीवन की महातबाही हो, जब मानव-जीवन पाना दुर्लभ है, तब आपको क्या करना चाहिए?” “भन्ते! जब इस तरह महाविपत्ति आए, मानव-जीवन की महातबाही हो, जब मानव-जीवन पाना दुर्लभ है, तब कोई क्या कर सकता है, बजाय धर्मचर्या के, समचर्या के, कुशलक्रिया के, पुण्यक्रिया के?” “महाराज, मैं आपको सूचित करता हूँ, घोषणा करता हूँ कि ‘बुढ़ापा और मृत्यु’ आपकी ओर रौंदते हुए बढ़ रहे हैं। तब आपको क्या करना चाहिए?” “भन्ते! जब बुढ़ापा और मृत्यु मेरी ओर रौंदते हुए बढ़ रहे हैं, तब मैं क्या कर सकता हूँ, बजाय धर्मचर्या के, समचर्या के, कुशलक्रिया के, पुण्यक्रिया के?” «संयुत्तनिकाय ३:२५ : पब्बतूपमसुत्त»
विषम — जैसे कोई स्थान या रास्ता सम नहीं होकर, दुर्गम और ऊबड़-खाबड़ होता है तो वहाँ रहने या गुजरने वाले को कष्ट होता है। जैसे कोई संगीत सम नहीं बजकर, बेसुर और बेताल बजता है तो श्रोता को कष्ट होता है। जैसे कोई गाड़ी सम नहीं चलकर, इधर-उधर टकराते, धक्के खाते और हिचकोले खाते चलती है तो सवार को कष्ट होता है। उसी तरह जब कोई समचर्या, समबर्ताव और समआचरण नहीं करता है, बल्कि विषम करता है तो लोगों को कष्ट होता है। ↩︎ यहाँ केवल हीनता के कारण एवं परिस्थिति पढ़ें। उत्कृष्टता के लिए तीसरा अध्याय ‘पुण्य’ देखें। ↩︎ पिछले कई वर्षों से दुनिया भर के आधुनिक अस्पतालों में एक अनोखी घटना सामने आई है। जब मरीज़ के दम तोड़ने पर डॉक्टरों द्वारा ‘शॉक थेरपी’ देकर उन्हें पुनर्जीवित करने का प्रयास किया जाता है, तो ऐसे लाखों पुनर्जीवित मामलों में जब अनेक लोगों ने होश संभाला है, तो उन्होंने स्वर्ग, नर्क और प्रेतलोक का एक-जैसा वर्णन दर्ज़ कराया है। इन अनुभवों को डॉक्टर “NDE” कहते हैं, जिसका अर्थ है “निकट-मृत्यु अनुभव”। NDE का वैज्ञानिक अध्ययन पिछले कई दशकों से जारी है। इस विषय पर हजारों शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं और सैकड़ों पुस्तकें लिखी गई हैं। इन अध्ययनों से पता चला है कि NDE एक वास्तविक घटना है, जो किसी विशेष धर्म या धारणा से जुड़ी नहीं है। NDE का अनुभव करने वाले लोगों में प्रतिष्ठित वैज्ञानिक, न्यूरोसर्जन, डॉक्टर, इंजीनियर और हजारों नास्तिक लोग भी शामिल हैं। ↩︎ तब कुछ दिनों पश्चात ब्राह्मण धनञ्जानि मृत्युशय्या पर पड़ा। उसके साथ क्या हुआ, अंतिम अध्याय ‘मरण’ में पढ़ें। ↩︎
दसन्नमञ्ञतरं ठानं, खिप्पमेव निगच्छति।
दस में किसी स्थान पर, जाकर गिर पड़े —
गरुकं वापि आबाधं, चित्तक्खेपञ्च पापुणे।
राजतो वा उपसग्गं, अब्भक्खानञ्च दारुणं।
परिक्खयञ्च ञातीनं, भोगानञ्च पभङगुरं।।
अथ वास्स अगारानि, अग्गि डहति पावको।
कायस्स भेदा दुप्पञ्ञो, निरयं सोपपज्जति।
रोग गंभीर लग जाए, या उसका चित्त बहक जाए।
राजदंड तकलीफ़ हो, या भयंकर फटकार मिले उसे,
सगेसंबन्धी का विनाश हो, या भोगसंपत्ति लुट जाए।
जो घर आवास हो उसके, अग्नि कर दे खाक उन्हें।
काया छूटने पर वह दुष्प्रज्ञ, नर्क में प्रकट हो जाए।”
अगरहियं मा गरहित्थ, मा च भासित्थ पेसुणं;
अथ पापजनं कोधो, पब्बतोवाभिमद्दती
निष्पाप को ना कोसें, न विभाजित करती बात कहें।
क्रोध कुचल देता दुर्जन को, जैसे ऊपर गिरता पर्वत हो।”
घिरा ऊँची लोह-दीवार से, लोह-छत से ढका हुआ।
तप्त-लाल लोह-भूमि, जलती धधकती हुई,
रहती है सदैव खड़ी, सौ योजन फैली हुई।
दीर्घकाल वो शोक करे, आकर हीनकाया में।
किंतु भला सत्पुरुष यहाँ, चेताया देवदूतों से,
न रहे मदहोश वो, आर्यधर्म के प्रति कभी।
भय देखे वो आसक्ति में, जन्म-मरण संभावना में,
अनासक्त विमुक्त हो, जन्म-मरण के अन्त से।
सुरक्षा पाकर सुखी हो, इसी जीवन में निर्वृत्त हो,
शत्रुता खतरे लांघ सभी, सारे दुःख से बच निकले।”
यदा च पच्चति पापं, अथ पापो पापानि पस्सति।
जब तक उसके पाप न पकते।
किंतु पाप जब पक जाते,
तब पापी दुर्भाग्य देखता।
उदबिन्दुनिपातेन, उदकुम्भोपि पूरति
बालो पूरति पापस्स, थोकं थोकम्पि आचिनं।
[सोचते हुए] ‘मुझ तक न आएगा’।
बूंद-बूंद से घड़ा भरता,
थोड़ा-थोड़ा संचय कर,
मूर्ख पाप से भर जाता।
सो सोचति सो विहञ्ञति, दिस्वा कम्मकिलिट्ठमत्तनो।
पापकर्ता दोनों में पछताता है।
अपनी कर्मदुषितता देखकर पछताता, पीड़ित होता है।
“पापं मे कत”न्ति तप्पति, भिय्यो तप्पति दुग्गतिं गतो।
पापकर्ता दोनों में तड़पता है।
‘पाप किया मैंने!’ कहते तड़पता।
दुर्गति जाकर और खूब तड़पता है।
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