प्राथमिक अंतर्ज्ञान
भगवान ने कहा:
“ऐसा होता है कि दुःख से हारा, चित्त से बेकाबू, एक व्यक्ति — अफ़सोस करता है, ढ़ीला पड़ता है, विलाप करता है, छाती पीटता है, बावला हो जाता है। किंतु दुःख से हारा, चित्त से बेकाबू, दूसरा व्यक्ति — बाहर ख़ोज करने निकल पड़ता है। [सोचते हुए] ‘कौन इस दुःख को ख़त्म करने के एक-दो उपाय जानता है?’
मैं कहता हूँ, दुःख के फ़लस्वरूप बावलापन आता है अथवा ख़ोज होती है।”
«अंगुत्तरनिकाय ६:६३ : निब्बेधिकसुत्त»
“अंतर्ज्ञान प्राप्त करने का यह रास्ता है — कोई स्त्री या पुरुष जाकर श्रमण या ब्राह्मण से पूछते हैं, ‘भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोष होता है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन अहित एवं दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित एवं सुख की ओर ले जाएँगे?’” «मज्झिमनिकाय १३५ : चूळकम्मविभङगसुत्त»
कौशल-नरेश प्रसेनजीत अपने महल से उतर भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। बैठते हुए उसने भगवान से कहा: “अभी भन्ते! मैं महारानी मल्लिका के साथ ऊपर महल में था। मैने उससे पूछा, ‘मल्लिका! क्या तुम्हें तुमसे अधिक कोई प्रिय है?’ तो उसने उत्तर दिया: ‘नहीं, महाराज! मुझे मुझसे अधिक कोई प्रिय नहीं! और महाराज, आपका क्या कहना है? क्या आपको आपसे अधिक कोई प्रिय है?’ ‘नहीं, मल्लिका। मुझे भी मुझसे अधिक कोई प्रिय नहीं!’” तब उसका अर्थ जानते हुए भगवान ने सहज उद्गार किया: «उदान ५:१ : पियतरसुत्त»
“कोई आर्यश्रावक इस तरह चिंतन करता है — • “मुझे जीवन से प्रेम है, मौत से नहीं। मुझे सुख से प्रेम है, दर्द से नफ़रत। यदि मेरी कोई हत्या करे तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा। और यदि मैं किसी पराए की हत्या करूँ, जिसे जीवन से प्रेम हो, मौत से नहीं; जिसे सुख से प्रेम हो, दर्द से नफ़रत, तो उसके लिए भी न प्रिय होगा, न मनचाहा। जो मेरे लिए अप्रिय अनचाहा है, वही पराए के लिए भी अप्रिय अनचाहा है। जो मेरे लिए अप्रिय अनचाहा हो, वही मैं पराए पर कैसे थोप सकता हूँ?” — इस तरह चिंतन कर वह जीवहत्या से विरत रहता है। दूसरे को भी जीवहत्या से विरत रखता है। तथा जीवहत्या से विरत रहने की प्रशंसा करता है। इस तरह उसका काया-आचरण «तिकोटिपरिसुद्ध» तीन तरह से परिशुद्घ होता है। आगे, वह इस तरह चिंतन करता है — • “यदि कोई मुझसे वह चुरा ले, जो मैने उसे दिया न हो, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा…” • “यदि कोई मेरी पत्नी [या पुत्री] के साथ व्यभिचार करे, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा…” • “यदि कोई झूठ बोलकर मेरा अहित करे, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा…” • “यदि कोई फूट डालनेवाली बातें कर मुझे मित्रों [या रिश्तेदारों] से विभाजित करे, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा…” • “यदि कोई कटु बोलकर मुझे संबोधित करे, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा…” • “यदि कोई निरर्थक बोलकर मुझे संबोधित करे, तो मेरे लिए न प्रिय होगा, न मनचाहा। और यदि मैं निरर्थक बोलकर किसी पराए को संबोधित करूँ, तो उसके लिए भी न प्रिय होगा, न मनचाहा। जो मेरे लिए अप्रिय अनचाहा है, वही पराए के लिए भी अप्रिय अनचाहा है। जो मेरे लिए अप्रिय अनचाहा हो, वही मैं पराए पर कैसे थोप सकता हूँ?” — इस तरह चिंतन कर वह निरर्थक बोलने से विरत रहता है। दूसरे को निरर्थक बोलने से विरत रखता है। तथा निरर्थक बोलने से विरत रहने की प्रशंसा करता है। इस तरह उसका वाणी-आचरण तीन तरह से परिशुद्ध होता है।” «संयुत्तनिकाय ५५:७ : वेळुद्वारेय्यसुत्त»
«धम्मपद दण्डवग्गो १२९-१३४»
केशपुत्र के कालाम 1 तब भगवान के पास गए। कुछ लोग भगवान को अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग भगवान को नम्रतापूर्ण हालचाल पूछ कर एक-ओर बैठ गए। कुछ लोग हाथ जोड़, अंजलिबद्ध वंदन कर एक-ओर बैठ गए। कोई अपना नाम-गोत्र बता कर एक-ओर बैठ गए। तथा कोई चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए। उन्होंने एक-ओर बैठकर भगवान से कहा: “भन्ते! कुछ श्रमण एवं ब्राह्मण [हमारे गांव] केशपुत्र आते हैं। तब वे अपनी धारणा «वाद» का खुलासा कर गुणगान करते हैं। किंतु अन्य किसी की धारणा हो, तो वे विरोध करते हैं, अपशब्द कहते हैं, घृणा दिखाते हैं, निंदा करते हैं। और तब अन्य श्रमण एवं ब्राह्मण केशपुत्र आते हैं। वे अपनी धारणा का खुलासा कर गुणगान करते हैं। किंतु वे भी अन्य किसी की धारणा हो, तो विरोध करते हैं, अपशब्द कहते हैं, घृणा दिखाते हैं, निंदा करते हैं। वे हमें बिलकुल उलझन एवं संदेह में डाल देते हैं। तो भन्ते, इनमें कौन पूज्य श्रमण एवं ब्राह्मण सत्य बोलते हैं, और कौन झूठ बोलते हैं?” “ज़रूर उलझन होगी, कालामों! ज़रूर संदेह होगा! संदेह का कारण हो, तभी उलझन होती है। जब ऐसा हो कालामों, तब — «मा अनुस्सवेन» न सुनी-सुनाई बात मानो, «मा परम्पराय» न [चली आ रही] परंपरागत बात मानो, «मा इतिकिराय» न अटकलेबाजी मानो, «मा पिटकसम्पदानेन» न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, «मा तक्कहेतु» न तर्कसंगत कारण मानो, «मा नयहेतु» न अनुमानित कारण मानो, «मा आकारपरिवितक्केन» न समतुल्य परिस्थिति में लागू होने वाली बात मानो, «मा दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया» न अपनी धारणा से मेल खाने वाली बात मानो, «मा भब्बरूपताय» न संभावित बात मानो, «मा समणो नो गरूति» न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए। क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर लोभ उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?” “अहित के लिए, भन्ते!” “और कोई लालची लोभ के वशीभूत, लोभचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?” “हाँ, भन्ते!” “और कालामों! जब किसी व्यक्ति के भीतर द्वेष उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?” “अहित के लिए, भन्ते!” “और कोई दुष्ट द्वेष के वशीभूत, द्वेषचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?” “हाँ, भन्ते!” “और कालामों! जब किसी व्यक्ति के भीतर भ्रम उपजता हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगा अथवा अहित के लिए?” “अहित के लिए, भन्ते!” “और कोई मूढ़ भ्रम के वशीभूत, भ्रमित चित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या करे, चोरी करे, पराई औरत के पीछे जाए, झूठ बोले, और यह दुसरों से भी करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन अहित और दुःख के लिए होगा?” “हाँ, भन्ते!” “क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल हैं अथवा अकुशल?” “अकुशल, भन्ते!” “दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?” “दोषपूर्ण, भन्ते!” “ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?” “निंदित, भन्ते!” “उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?” “उसे मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, भन्ते! दुःख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।” “इसलिए कहता हूँ, कालामों। न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए। और कालामों! जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए। क्या लगता है, कालामों? जब किसी व्यक्ति के भीतर निर्लोभता उपजती हो… निर्द्वेषता उपजती हो… निर्भ्रमता उपजती हो, तो वह उसके हित के लिए उत्पन्न होगी अथवा अहित के लिए?” “हित के लिए, भन्ते!” “और कोई निर्लोभी न लोभ के वशीभूत, न लोभचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्द्वेषी न द्वेष के वशीभूत, न द्वेषचित्त से बेकाबू होकर… [अथवा] कोई निर्भ्रमी न भ्रम के वशीभूत, न भ्रमचित्त से बेकाबू होकर — जीवहत्या न करे, चोरी न करे, पराई औरत के पीछे न जाए, झूठ न बोले, और न ही दुसरों से करवाए, तो क्या वह उसके दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा?” “हाँ, भन्ते!” “और क्या लगता है, कालामों? यह स्वभाव कुशल है अथवा अकुशल?” “कुशल, भन्ते!” “दोषपूर्ण है अथवा निर्दोष?” “निर्दोष, भन्ते!” “ज्ञानियों द्वारा निंदित है अथवा प्रशंसित?” “प्रशंसित, भन्ते!” “उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है अथवा नहीं? या क्या लगता है?” “उसे मानने से, उस पर चलने से हित होता है, भन्ते! सुख आता है। ऐसा ही हमें लगता है।” “इसलिए कहता हूँ, कालामों। न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो। बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव कुशल है। यह स्वभाव निर्दोष है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा प्रशंसित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से हित होता है, सुख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव धारण कर उसी में रहना चाहिए। अब, जो आर्यश्रावक होता है, कालामों! इस तरह लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, मूढ़ता छोड़, सचेत एवं स्मरणशील होकर सद्भाव चित्त… करुण चित्त… प्रसन्न चित्त… तटस्थ चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। इस तरह आर्यश्रावक निर्बैर चित्त से, दुर्भावहीन चित्त से, अदुषित चित्त से, विशुद्ध चित्त से इसी जीवन में चार आश्वासन अर्जित करता है — • ‘यदि [मरणोपरांत] वाकई परलोक है तथा सुकृत्य एवं दुष्कृत्य का फ़ल-परिणाम है, तब मैं इस [कुशल] आधार पर मरणोपरांत सद्गति पाकर स्वर्ग में उत्पन्न होऊँगा!’ — यह प्रथम आश्वासन वह अर्जित करता है। • ‘यदि परलोक नहीं होता तथा सुकृत्य एवं दुष्कृत्य का फ़ल-परिणाम भी नहीं होता है, तब मैं इसी जीवन में निर्बैर रहकर, दुर्भावहीन रहकर, कष्टमुक्त रहकर स्वयं की सुखपूर्वक देखभाल करूँगा!’ — यह द्वितीय आश्वासन वह अर्जित करता है। • ‘यदि बुरा करने से वाकई पाप होता है, तब मैंने किसी के प्रति बुरा इरादा नहीं रखा है। जब पाप न किया हो, तो मुझे दुःख कहाँ से छुएगा?’ — यह तृतीय आश्वासन वह अर्जित करता है। • ‘यदि बुरा करने से पाप नहीं होता है, तब मैं स्वयं को [धार्मिक अथवा सामाजिक] दोनों ही ओर से परिशुद्ध मान सकता हूँ!’ — यह चतुर्थ आश्वासन वह अर्जित करता है।” «अंगुत्तरनिकाय ३:६६ : केसमुत्तिसुत्त»
[भगवान पुत्र राहुल को प्राथमिक अंतर्ज्ञान विकसित करने की देशना देते हुए कहते हैं:] “क्या लगता है तुम्हें, राहुल? दर्पण क्यों [किसलिए] होता है?” “भन्ते! आत्म-निरीक्षण के लिये।” “उसी तरह, राहुल! आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर काया से कर्म करना चाहिये। आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर वाणी से कर्म करना चाहिये। आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर मन से कर्म करना चाहिये। • जब काया से कार्य करना हो, तो करने पूर्व [भविष्यकाल के लिए] आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं करना चाहता हूँ, कहीं मुझे पीड़ा [आत्मपीड़ा] तो नहीं होगी? या पराए को पीड़ा [परपीड़ा] तो नहीं होगी? या [दोनों को] आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वह कार्य अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह काया-कर्म अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा!’ तब राहुल! ऐसा कर्म तुम्हारे लिए सर्वथा अयोग्य है। ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद होगा!’ तब ऐसा कार्य करना चाहिए। • काया से कार्य करते हुए [वर्तमानकाल के लिए] आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं कर रहा हूँ, कहीं मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है!’ तब उसे तुरंत रोककर त्याग देना चाहिए। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब ऐसा कार्य जारी रखना चाहिए। • काया से कार्य करने पश्चात [भूतकाल के लिए] आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘मैंने जो किया, कहीं मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ!’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘वह अकुशल था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ!’ तब ऐसे कृत्य को गुरु समक्ष, या जानकर सब्रह्मचारी [या बुद्धिमान धर्ममित्र] के समक्ष कह देना चाहिये, खोल देना चाहिये। यूं कहकर, खोलकर भविष्य में संयम बरतना चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल था, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हुआ!’ तब प्रसन्न होना चाहिए, ख़ुश होना चाहिए। और दिन-रात ऐसे कुशल धर्मों में अभ्यासरत रहना चाहिए। • जब वाणी से कुछ कहना हो, तो कहने पूर्व आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं कहना चाहता हूँ, कहीं मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वचन अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह वाणी-कर्म अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा!’ तब राहुल! ऐसे वचन तुम्हारे लिए सर्वथा अयोग्य है। ऐसा कोई वचन नहीं कहना चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद होगा!’ तब ऐसे वचन कहना चाहिए। • वाणी से कहते हुए आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं कह रहा हूँ, कही मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है!’ तब उसे तुरंत रोककर त्याग देना चाहिए। किंतु यदि पता चले — ‘यह कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब ऐसे कहना जारी रखना चाहिए। • वाणी से कहने पश्चात आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘मैंने जो यह कह दिया, कही मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह अकुशल था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ!’ तब ऐसे वचन को गुरु समक्ष, या बुद्धिमान धर्ममित्र के समक्ष कह देना चाहिये, खोल देना चाहिये। यूं कहकर, खोलकर भविष्य में संयम बरतना चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल था, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हुआ!’ तब प्रसन्न होना चाहिए, ख़ुश होना चाहिए। और दिन-रात ऐसे कुशल धर्मों में अभ्यासरत रहना चाहिए। • जब मन से कुछ सोचना हो, तो सोचने पूर्व आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं सोचना चाहता हूँ, कही मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं होगी? क्या वह अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह मनो-कर्म अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद होगा!’ तब राहुल! ऐसा सोचना तुम्हारे लिए सर्वथा अयोग्य है। ऐसा कुछ सोचना नहीं चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद होगा!’ तब ऐसा सोचना चाहिए। • मन से कुछ सोचते हुए आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘जो मैं सोच रहा हूँ, कही मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हो रही है? क्या वह अकुशल तो नहीं, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है?’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह अकुशल है, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हो रहा है!’ तब राहुल! उसे तुरंत रोककर त्याग देना चाहिए। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल है, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हो रहा है!’ तब ऐसा कुछ सोचना चाहिए। • मन से कुछ सोचने पश्चात आत्म-निरीक्षण करना चाहिये — ‘मैंने जो सोचा, कही मुझे.. या पराए को.. या आपसी पीड़ा तो नहीं हुई? क्या वह अकुशल तो नहीं था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ!’ पुनर्निरीक्षण कर यदि पता चले — ‘यह अकुशल था, जो परिणामतः दुःख, फ़लस्वरूप दुखद हुआ!’ तब राहुल! ऐसे सोचने से मन खिन्न होना चाहिये, लज्जित होना चाहिये, घृणित होना चाहिये। ऐसे मन खिन्न हो, लज्जित हो, घृणित हो भविष्य में संयम बरतना चाहिये। किंतु यदि पता चले — ‘कुशल था, जो परिणामतः सुख, फ़लस्वरूप सुखद हुआ!’ तब प्रसन्न होना चाहिए, ख़ुश होना चाहिए। और दिन-रात ऐसे कुशल धर्मों में अभ्यासरत रहना चाहिए। राहुल! जो श्रमण एवं ब्राह्मणों ने अतीतकाल में अपने काया, वाणी एवं मनो कर्म परिशुद्ध किए, सभी ने इसी तरह आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर किए। जो श्रमण एवं ब्राह्मण भविष्यकाल में अपने काया, वाणी एवं मनो कर्म परिशुद्ध करेंगे, सभी इसी तरह आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर करेंगे। तथा जो श्रमण एवं ब्राह्मण वर्तमानकाल में अपने काया, वाणी एवं मनो कर्म परिशुद्ध कर रहे हैं, सभी इसी तरह आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर रहे हैं। इसलिये राहुल, तुम्हें सीखना चाहिये — ‘मैं भी इसी तरह आत्म-निरीक्षण कर, पुनर्निरीक्षण कर अपने काया, वाणी एवं मनो कर्म परिशुद्ध करूँगा।’” «मज्झिमनिकाय ६१ : अम्बलट्ठिकराहुलोवादसुत्त»
“यदि अनचाहा कार्य हो, किंतु करने से अर्थ साध्य [=लाभ] होता हो — तब उसी से पता चलता है कि कर्ता मूर्ख है अथवा बुद्धिमान। उसमें निश्चयबद्धता, दृढ़ता एवं पराक्रमी पुरुषार्थ है अथवा नहीं। क्योंकि इस तरह मूर्ख कभी चिंतन नहीं करते हैं कि ‘भले ही अनचाहा कार्य है, किंतु उसे करने से अर्थ साध्य होता है।’ इसलिए मूर्ख ऐसा अनचाहा कार्य नहीं करते हैं और उनका अनर्थ होता है। किंतु इस तरह बुद्धिमान चिंतन करता है कि ‘भले ही अनचाहा कार्य है, किंतु उसे करने से अर्थ साध्य होता है।’ तब बुद्धिमान ही ऐसा अनचाहा कार्य करता है और अपना लक्ष्य साध लेता है। और यदि मनचाहा कार्य हो, किंतु करने से अनर्थ होता हो — तब उसी से पता चलता है कि कर्ता मूर्ख है अथवा बुद्धिमान। उसमें निश्चयबद्धता, दृढ़ता एवं पराक्रमी पुरुषार्थ है अथवा नहीं। क्योंकि इस तरह मूर्ख कभी चिंतन नहीं करते हैं कि ‘भले ही मनचाहा कार्य है, किंतु उसे करने से अनर्थ होता है।’ इसलिए मूर्ख ऐसा मनचाहा कार्य करते हैं और उनका अनर्थ होता है। किंतु इस तरह बुद्धिमान चिंतन करता है कि ‘भले ही मनचाहा कार्य है, किंतु उसे करने से अनर्थ होता है।’ तब बुद्धिमान ऐसा मनचाहा कार्य नहीं करता है और अपना लक्ष्य साध लेता है।” «अंगुत्तरनिकाय ४:११५ : ठानसुत्त»
«धम्मपद पकिण्णकवग्गो २९०» «धम्मपद अत्तवग्गो १६०» «धम्मपद भिक्षुवग्गो ३८०» «धम्मपद अत्तवग्गो १६५» «धम्मपद भिक्षुवग्गो ३७९» «धम्मपद कोधवग्गो २२५» «धम्मपद पकिण्णकवग्गो २९६-२९९» «उदान ८:५ : चुन्दसुत्त»
कालाम सुत्त एक महत्वपूर्ण सूत्र है जो आधुनिक दुनिया में बहुत लोकप्रिय है। दुर्भाग्य से, इसका अनुवाद अक्सर गलत तरीके से किया जाता है। कुछ लोग पुरानी परंपराओं को तोड़ने के लिए तथागत की वाणी को तोड़-मरोड़कर अपने तरीके से प्रस्तुत करते हैं। यह एक गंभीर पाप है क्योंकि यह सद्धर्म का आपत्तिजनक मिथ्याकरण है। कुछ गलत अनुवादों में लिखा होता है कि “कोई भी बात तभी मानें, जब आपकी तर्कबुद्धि को सही लगे।” जबकि तथागत तर्कबुद्धि को भी त्यागने कहते हैं। वे कहते हैं कि हमें अपने भीतर के धर्मस्वभाव ‘लोभ द्वेष मोह’ पर ध्यान देना चाहिए, और उन्हें कुशल अथवा अकुशल इत्यादि में वर्गीकृत कर, अकुशल का त्याग करना चाहिए। तथा हमें पञ्चशील का पालन करना चाहिए। तथागत ने कई सूत्रों में कहा है कि हमें लोक–परलोक का दांव सुरक्षा के साथ खेलना चाहिए। हमें जोखिम नहीं उठाना चाहिए। तर्क को सही मानकर “बिन्दास” होना मूर्खता है। ↩︎
कोई न मिलें प्रिय अधिक स्वयं से।
पराए भी प्रिय होते स्वयं को,
न परहिंसा करें यदि प्रेम स्वयं से।”
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।
स्वयं पर उपमा लगाकर, न हत्या करें, न घात करें।
अत्तानं उपमं कत्वा, न हनेय्य न घातये।
स्वयं पर उपमा लगाकर, न हत्या करें, न घात करें।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो न लभते सुखं।
वह स्वयं जब सुख चाहे, न सुख मिले पश्चात उसे।
अत्तनो सुखमेसानो, पेच्च सो लभते सुखं।
वह स्वयं जब सुख चाहे, सुख मिले पश्चात उसे।
दुक्खा हि सारम्भकथा, पटिदण्डा फुसेय्यु तं।
दुःख है विवादित बातें, पलटकर दण्ड आ पड़े।
एस पत्तोसि निब्बानं, सारम्भो ते न विज्जति।
प्राप्त करे निर्वाण जो, उसमें विवाद न पता चले।
शरीर से कर्म
वाणी से कर्म
मन से कर्म
पस्से चे विपुलं सुखं।
चजे मत्तासुखं धीरो,
सम्पस्सं विपुलं सुखं।
दिखे यदि विपुल सुख।
त्याग दे थोड़ा सुख, विद्वान,
देखते हुए विपुल सुख।
को हि नाथो परो सिया।
अत्तना हि सुदन्तेन,
नाथं लभति दुल्लभं।
भला कौन पराया मालिक होगा?
स्वयं ही सुअभ्यस्त हो,
तो मालिक प्राप्त हो दुर्लभ।
अत्ता हि अत्तनो गति।
तस्मा संयममत्तानं,
अस्सं भद्रंव वाणिजो।
स्वयं ही रचते अपनी दिशा।
रखे काबू स्वयं पर,
जैसे व्यापारी उत्तम अश्व पर।
अत्तना संकिलिस्सति।
अत्तना अकतं पापं,
अत्तनाव विसुज्झति।
सुद्धी असुद्धि पच्चत्तं,
नाञ्ञो अञ्ञं विसोधये।
दूषित होए स्वयं ही।
पाप स्वयं अकृत रखे,
पवित्र होए स्वयं ही।
न कोई अन्य को पवित्र करे,
शुद्ध-अशुद्ध होए स्वयं ही।
स्वयं का निरीक्षण करें।
ऐसा स्वरक्षित स्मृतिमान,
तब सुख से विहार करें।
निच्चं कायेन संवुता।
ते यन्ति अच्चुतं ठानं,
यत्थ गन्त्वा न सोचरे।
काया में सदैव संयत रहे।
जहाँ जाकर न शोक हो,
ऐसा अच्युत स्थान पाए।
येसं दिवा च रत्तो च, निच्चं बुद्धगता..
धम्मगता.. सङघगता.. कायगता सति।
दिन अथवा रात हो, सदैव बुद्ध में..
धम्म में.. संघ में.. काया में स्मरणशील रहते हैं।
संयमतो वेरं न चीयति
कुसलो च जहाति पापकं,
रागदोसमोहक्खया सनिब्बुतो।
संयमी के बैर न संचित हो।
पाप पीछे छोड़कर, ऐसा कुशल
राग-द्वेष-भ्रम ख़त्म कर निर्वृत हो।
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