नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय तीन

पुण्य



साल गांव के ब्राह्मण गृहस्थों ने एक-ओर बैठकर भगवान से कहा:

“हे गोतम! क्या कारण एवं परिस्थिति से कुछ सत्व मरणोपरांत काया छूटने पर सद्गति होकर स्वर्ग उपजते हैं?”

धर्मचर्या समचर्या के कारण, गृहस्थों, कुछ सत्व मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग उपजते हैं। काया से तीन तरह की, वाणी से चार तरह की, तथा मन से तीन तरह की धर्मचर्या समचर्या होती हैं।


काया से तीन तरह की धर्मचर्या समचर्या कैसे होती हैं?

• ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी।

• कोई व्यक्ति ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहता है। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाता, नहीं लेता है। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी चुपके नहीं।

• वह कामुक मिथ्याचार त्यागकर व्यभिचार से विरत रहता है। वह उनसे संबन्ध नहीं बनाता है — जो माता से संरक्षित हो, पिता से संरक्षित हो, भाई से संरक्षित हो, बहन से संरक्षित हो, रिश्तेदार से संरक्षित हो, गोत्र से संरक्षित हो, धर्म से संरक्षित हो, जिसका पति [या पत्नी] हो, जिससे संबन्ध दण्डनिय हो, अथवा जिसे अन्य पुरुष ने फूल से नवाजा [=सगाई या प्रेमसंबन्ध] हो। ऐसे तीन तरह से काया द्वारा धर्मचर्या समचर्या होती हैं।


वाणी से चार तरह की धर्मचर्या समचर्या कैसे होती हैं?

• ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। जब उसे नगरबैठक, गुटबैठक, रिश्तेदारों की सभा, अथवा किसी संघ या न्यायालय में बुलाकर गवाही देने कहा जाए, “आईये! बताएँ श्रीमान! आप क्या जानते है?” तब यदि न जानता हो तो कहता है “मैं नहीं जानता!” यदि जानता हो तो कहता है “मैं जानता हूँ!” यदि उसने न देखा हो तो कहता है “मैंने नहीं देखा!” यदि देखा हो तो कहता है “मैंने ऐसा देखा!” इस तरह वह आत्महित में, परहित में, अथवा ईनाम की चाह में झूठ नहीं बोलता है।

• कोई व्यक्ति विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाली बातों से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता, साथ रहते लोगों को जोड़ता, एकता चाहता, भाईचारे में रत रहता, मेलमिलाप में प्रसन्न होता। ऐसे बोल बोलता है कि सामंजस्यता बढ़े।

• कोई व्यक्ति तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल एवं स्वीकार्य लगे।

• कोई व्यक्ति बकवास त्यागकर निरर्थक वचन से विरत रहता है। वह समय पर, तथ्यों के साथ, अर्थपूर्ण [हितकारक], धर्मानुकूल, विनयानुकूल बोलता है। बहुमूल्य लगे ऐसे सटीक वचन बोलता है — तर्क के साथ, नपेतुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। ऐसे चार तरह से वाणी द्वारा धर्मचर्या समचर्या होती हैं।


मन से तीन तरह की धर्मचर्या समचर्या कैसे होती हैं?

• ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति लालची नहीं होता है। वह पराई संपत्ति की लालसा नहीं रखता है, ‘काश, वह पराई चीज़ मेरी हो जाए!’

• कोई व्यक्ति सद्भाव चित्त का होता है। वह मन में भला संकल्प पालता है, ‘यह सत्व बैरमुक्त हो! पीड़ामुक्त हो! कष्टमुक्त हो! सुखपूर्वक अपना ख्याल रखें!’

• कोई व्यक्ति सम्यकदृष्टि धारण करता है। वह सीधे दृष्टिकोण से देखता है — ‘दान होता है, चढ़ावा होता है, आहुती होती है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम होता है। लोक होता है, परलोक होता है। मां होती है, पिता होते है। स्वयं से उत्पन्न सत्व होते हैं। और ऐसे श्रमण एवं ब्राह्मण होते हैं, जो सम्यक साधना कर सही प्रगति करते हुए अभिज्ञता का साक्षात्कार करने पर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं।’ ऐसे तीन तरह से मन द्वारा धर्मचर्या समचर्या होती हैं। तथा गृहस्थों, ऐसी धर्मचर्या समचर्या के कारण कुछ सत्व मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग उपजते हैं।


गृहस्थों, यदि ऐसा धर्मचारी समचारी आकांक्षा करे, ‘काश! मैं मरणोपरांत काया छूटने पर महासंपत्तिशाली [क्षत्रिय] राजपरिवार में… या महासंपत्तिशाली ब्राह्मणों में… या महासंपत्तिशाली [वैश्य] गृहस्थों में जन्म लूँ,’ तो संभव है, मरणोपरांत वह उन्हीं के साथ जन्म लेगा। ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी समचारी है।

गृहस्थों, यदि ऐसा धर्मचारी समचारी आकांक्षा करे, ‘काश! मैं मरणोपरांत चार महाराज 1 देवताओं में… तैतीस देवताओं में… याम देवताओं में… तुषित देवताओं में… निर्माणरति देवताओं में… परनिर्मित वशवर्ती देवताओं में जन्म लूँ,’ तो संभव है, मरणोपरांत वह उन्हीं के साथ जन्म लेगा। ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी समचारी है।

यदि गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी समचारी आकांक्षा करे, ‘काश! मैं मरणोपरांत ब्रह्म-काया वाले देवताओं में… आभावान [प्रकाशमान] देवताओं में… सीमित आभावान देवताओं में… असीम आभावान देवताओं में… आभस्वर [प्रस्फुटित होती आभा] देवताओं में… सीमित दीप्तिमान देवताओं में… असीम दीप्तिमान देवताओं में… दीप्तिमान कृष्ण देवताओं में… वेहप्फ़ल [आकाशफ़ल] देवताओं में… अविह [पतन न होने वाले] देवताओं में… अतप्प [निश्चिंत] देवताओं में… सुदर्शन देवताओं में… सुदर्शी देवताओं में… अकनिष्ठ [अद्वितीय] देवताओं में [चार झान से प्राप्त ब्रह्मलोक] जन्म लूँ!’ तो संभव है, मरणोपरांत वह उन्हीं में जन्म लेगा। ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी समचारी है।

गृहस्थों, यदि ऐसा धर्मचारी समचारी आकांक्षा करे, ‘काश! मैं मरणोपरांत अनन्त आकाश आयाम में पहुँचे देवताओं में… अनन्त चैतन्यता आयाम में पहुँचे देवताओं में… शून्य [कुछ नहीं] आयाम में पहुँचे देवताओं में… न नज़रिया न अ-नज़रिया आयाम में पहुँचे देवताओं में [=अरूप आयाम ब्रह्मलोक] जन्म लूँ,’ तो संभव है, मरणोपरांत वह उन्हीं के साथ जन्म लेगा। ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी समचारी है।

यदि गृहस्थों, ऐसा धर्मचारी समचारी आकांक्षा करे, ‘काश! मैं इसी जीवन में आस्रव [बहाव] समाप्त कर, स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर, आस्रवमुक्त चेतोविमुक्ति अंतर्ज्ञानविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहूँ,’ तो संभव है, वह इसी जीवन में आस्रव समाप्त कर, स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर, आस्रवमुक्त चेतोविमुक्ति अंतर्ज्ञानविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहेगा। [=अर्हंत अवस्था] ऐसा क्यों? क्योंकि वह धर्मचारी समचारी है।”

जब ऐसा कहा गया, तब साल गांव के ब्राह्मण गृहस्थ कह पड़े, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म एवं संघ की! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

«मज्झिमनिकाय ४१ : सालेय्यकसुत्त»


भगवान ने तोदेय्यपुत्र कुमार सुभ को आगे कहा:

कुमार! ऐसा होता है कि कोई स्त्री या पुरुष जीवहत्या से विरत रहते हैं — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुके, शर्मिले एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी! वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, दीर्घायु होते हैं। यही दीर्घायुता की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष जीवों को प्रताड़ित नहीं करते हैं — न हाथ से, न पत्थर से, न डंडे से, न ही शस्त्र से। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, अल्परोगी होते हैं। यही अल्परोगीता की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष क्रोधी, न ही व्याकुल होते हैं — बड़ी बात पर भी न क्रोधित होते, न कुपित होते, न विद्रोह करते, न ही विरोध करते हैं। न गुस्सा, न द्वेष, न ही खीज प्रकट करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, सुंदर होते हैं। यही सौंदर्यता की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष ईर्ष्यालु नहीं होते हैं — पराए को मिलता लाभ सत्कार, आदर सम्मान, वंदन पूजन से न जलते हैं, न कुढ़ते हैं, न ही ईर्ष्या करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, प्रभावशाली होते हैं। यही प्रभावशीलता [बहुसक्षमता] की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष दाता होते हैं — श्रमण एवं ब्राह्मणों को भोजन पान, वस्त्र वाहन, माला गन्ध लेप, बिस्तर निवास दीपक आदि दान देते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, ऐश्वर्यशाली होते हैं। यही ऐश्वर्यता की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष अहंकारी नहीं होते हैं — बल्कि वंदनीय लोगों को वंदन करते, खड़े होने योग्य के लिए खड़े होते, आसन देने योग्य को आसन देते, रास्ता छोड़ने योग्य के लिए रास्ता छोड़ते हैं। तथा सत्कारयोग्य आदरणीय सम्माननीय या पूजनीय लोगों का सत्कार आदर सम्मान या पूजा करते हैं। वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, उच्चकुलीन होते हैं। यही उच्चकुलीनता की ओर बढ़ता रास्ता है।

और कोई स्त्री या पुरुष जाकर श्रमण या ब्राह्मण को पूछते हैं — ‘भन्ते! क्या कुशल होता है? क्या अकुशल होता है? क्या दोषपूर्ण होता है? क्या निर्दोष होता है? क्या [स्वभाव] विकसित करना चाहिए? क्या विकसित नहीं करना चाहिए? किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन अहित एवं दुःख की ओर ले जाएँगे? और किस तरह के कर्म मुझे दीर्घकालीन हित एवं सुख की ओर ले जाएँगे?’ वे ऐसा कर्म कर, उपक्रम कर मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं। मनुष्यता में लौटने पर जहाँ कही जन्म हो, महाप्रज्ञावान [बड़ी सद्बुद्धि प्राप्त] होते हैं। यही महाप्रज्ञता की ओर बढ़ता रास्ता है।

इस तरह कुमार, दीर्घायुता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को दीर्घायु बनाता है। अल्परोगीता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को अल्परोगी बनाता है। सौंदर्यता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को सुंदर बनाता है। प्रभावशीलता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को प्रभावशाली बनाता है। ऐश्वर्यता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को ऐश्वर्यशाली बनाता है। उच्चकुलीनता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को उच्चकुलीन बनाता है। महाप्रज्ञता की ओर बढ़ता रास्ता मानवों को महाप्रज्ञावान बनाता है।

और इस तरह सत्व स्वयं कर्म के कर्ता, कर्म के वारिस, कर्म से पैदा, कर्म से बंधे, कर्म के शरणागत हैं। और कर्म से ही सत्वों में हीनता या उत्कृष्टता का भेद होता है।”

यह सुनकर तोदेय्यपुत्र कुमार सुभ कह पड़ा, “अतिउत्तम, हे गोतम! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह गुरु गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की! गुरु गोतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

«मज्झिमनिकाय १३५ : चूळकम्मविभङ्गसुत्त»


“भिक्षुओं! बुद्धिमान के तीन लक्षण होते हैं, चिन्ह होते हैं, गुण होते हैं। कौन से तीन? बुद्धिमान भला विचारी होता है, भला बोलता है, और भला कृत्य करता है।

यदि बुद्धिमान ऐसा न होता, तो विद्वान उसे कैसे जान पाते कि “यह बुद्धिमान सत्पुरुष है”? चूंकि बुद्धिमान भला विचारी होता है, भला बोलता है, और भला कृत्य करता है, इसलिए विद्वान उसे जान पाते हैं कि “यह बुद्धिमान सत्पुरुष है!”

बुद्धिमान इसी जीवन में तीन तरह से ‘राहत एवं संतुष्टि’ का अनुभव करता है। जब लोग सभा में बैठकर, रास्ते के किनारे बैठकर, या चौराहे पर बैठकर [दुराचार से] जुड़ी प्रासंगिक बात पर चर्चा करने लगे — तब जो बुद्धिमान जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत, व्यभिचार से विरत, झूठ बोलने से विरत और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता हो, वह सोचता है, “लोग जिस प्रासंगिक बात पर चर्चा कर रहे हैं, वह [हरकतें] मुझमें नहीं पायी जाती हैं! और मैं उनमें लिप्त होते नहीं देखा जाता हूँ!” बुद्धिमान इसी जीवन में इस पहले राहत-संतुष्टि का अनुभव करता है।

फिर, बुद्धिमान, किसी चोर या अपराधी के पकड़े जाने पर दंडस्वरूप तरह-तरह से यातनाएँ झेलते हुए देखता है — जैसे चाबुक़ से पिटते हुए, कोड़े लगते हुए, मुग्दर, बेंत या डंडों से पिटते हुए, हाथ कटते, पैर कटते… [इत्यादि तरह-तरह के उत्पीड़न] — तब वह सोचता है, “चोर या अपराधी जिन पापकर्मों के चलते पकड़ा गया और उसे शासनकर्ता [पुलिस या लोगों] ने तरह-तरह से यातनाएँ दी, वह [हरकतें] मुझमें नहीं पायी जाती हैं! और मैं उनमें लिप्त होते नहीं देखा जाता हूँ!” बुद्धिमान इसी जीवन में इस दूसरे राहत-संतुष्टि का अनुभव करता है।

फिर, जब बुद्धिमान [अकेला] कुर्सी पर बैठा हो, पलंग पर बैठा हो, या जमीन पर बैठा हो, तब पूर्व कल्याणकर्म — काया से सदाचार, वाणी से सदाचार एवं मन से सदाचार — उसपर घिर आते हैं, बिछ जाते हैं, उसे ढक देते हैं। जैसे संध्या होते जमीन पर महापर्वत चोटी की छाया घिर आती है, बिछ जाती है, उसे ढक देती है। उसी तरह जब बुद्धिमान कुर्सी, पलंग या जमीन पर बैठा हो, तब पूर्व कल्याणकर्म — काया से सदाचार, वाणी से सदाचार एवं मन से सदाचार — उसपर घिर आते हैं, बिछ जाते हैं, उसे ढक देते हैं। तब बुद्धिमान को लगता है, “मैने पाप नहीं किए, क्रूरता नहीं की, गलतियां नहीं की। बल्कि मैने कल्याणकर्म किए है, कुशल कर्म किए है, भयभीत को आसरा दिया है। जो लोग पाप, क्रूरता एवं गलतियां नहीं करते, बल्कि कल्याण करते हैं, कुशल करते हैं, भयभीत को आसरा देते हैं — जो गति उनकी होती हैं, वही गति मेरी भी होगी!” तब ऐसा लगने पर उसे अफ़सोस नहीं होता, वह ढ़ीला नहीं पड़ता, विलाप नहीं करता, छाती नहीं पीटता, बावला नहीं हो जाता। बुद्धिमान इसी जीवन में इस तीसरे राहत-संतुष्टि का अनुभव करता है।


तब वह बुद्धिमान काया से सदाचार करते हुए, वाणी से सदाचार करते हुए, एवं मन से सदाचार करते हुए मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है। अब यदि कोई उचित तरह से बोल पड़े, “अत्यंत इच्छित! अत्यंत प्रिय! अत्यंत मनचाहा!”, तब ऐसा कहना स्वर्ग के बारे में उचित होगा। यहाँ तक कि भिक्षुओं, स्वर्ग के सुख की उपमा भी देना सरल नहीं है।”

तब एक भिक्षु ने कहा, “किंतु, भन्ते! क्या तब भी कोई उपमा दी जा सकती है?”

“दी जा सकती है, भिक्षु! कल्पना करो कि कोई चक्रवर्ती सम्राट हो, सात रत्नों एवं चार शक्तियों से संपन्न, और वह सुख एवं खुशी अनुभव करता हो।

सात रत्न क्या होते हैं, भिक्षुओं? जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाए। और वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ! उसे देखकर क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुए नरेश को लगता है, “अब मैने यह सुना है कि जब कोई क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, पूर्णिमा उपोसथ के दिन सिर धोकर महल के ऊपरी उपोसथकक्ष में जाए, और यदि वहाँ दिव्य चक्ररत्न प्रादुर्भुत हो — हजार तीली के साथ, नेमी के साथ, नाभी के साथ, अपने सम्पूर्ण आकार की परिपूर्णता के साथ — तब वह राजा ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बनता है। क्या तब मैं चक्रवर्ती सम्राट बनूंगा?”

तब वह क्षत्रिय राजा, राजतिलक हुआ नरेश, अपने आसन से उठ कर बाए हाथ में जलपात्र ले, दाएँ हाथ से उस चक्ररत्न पर जल छिड़कते हुए कहता है, “प्रवर्तन करो, श्री चक्ररत्न! सर्वविजयी हो, श्री चक्ररत्न!”

तब वह चक्ररत्न प्रवर्तित होते [घूमते] पूर्व-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है। वह चक्ररत्न जिस प्रदेश में थम जाएँ, वहाँ चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ आवास लेता है। तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजा आकर चक्रवर्ती सम्राट को कहते हैं, “आईयें, महाराज! स्वागत है, महाराज! आज्ञा करें, महाराज! आदेश दें, महाराज!”

चक्रवर्ती सम्राट कहता है, “जीवहत्या ना करें! चोरी ना करें! व्यभिचार ना करें! झूठ ना बोलें! मद्य ना पिएँ! [इसके अलावा] जो खाते हैं, खाएँ!” तब पूर्व-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं।

इस तरह चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पूर्वी महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते दक्षिण-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब दक्षिण-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए दक्षिण महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते पश्चिम-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब पश्चिम-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं। तब चक्ररत्न आगे बढ़ते हुए पश्चिम महासमुद्र में डुबकी लगाकर पुनः उबरता है, और प्रवर्तित होते उत्तर-दिशा में आगे बढ़ने लगता है। और चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उसका पीछा करता है।… तब उत्तर-दिशा के विरोधी राजा चक्रवर्ती सम्राट के आगे समर्पण करते हैं।

इस तरह चक्ररत्न पृथ्वी पर महासमुद्रों तक सर्वविजयी होकर राजधानी लौटता है, और चक्रवर्ती सम्राट के राजमहल अंतःपुर द्वार के ऊपर अक्ष लगाकर थम जाता है, जैसे अंतःपुर द्वार की शोभा बढ़ा रहा हो। ऐसा होता है चक्ररत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए हाथीरत्न प्रादुर्भुत होता है — संपूर्ण सफ़ेद, सात तरह से प्रतिस्थापित, ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘उपोसथ’ नामक हाथीराज! उसे देखते ही चक्रवर्ती सम्राट के चित्त में विश्वास प्रकट होता है, “बहुत शुभ होगी इस हाथी की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब हाथीरत्न काबू में आ जाता है, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी हाथी दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो। और चक्रवर्ती सम्राट हाथीरत्न को परखने के लिए उस पर सुबह में सवार हो जाता है, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार [नाश्ते] के समय तक राजधानी लौट आता है। ऐसा होता है हाथीरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए अश्वरत्न प्रादुर्भुत होता है — संपूर्ण सफ़ेद, चमकता काला सिर, मूंजघास जैसे अयाल [गर्दन के बाल], ऋद्धिमानी, आकाश से भ्रमण करने वाला, ‘वलाहक’ [=गर्जनमेघ] नामक अश्वराज! उसे देखते ही चक्रवर्ती सम्राट के चित्त में विश्वास प्रकट होता है, “बहुत शुभ होगी इस घोड़े की सवारी, जो यह काबू में आए!” तब अश्वरत्न काबू में आ जाता है, जैसे कोई उत्कृष्ट जाति का राजसी घोड़ा दीर्घकाल तक भलीभांति काबू में रहा हो। और चक्रवर्ती सम्राट अश्वरत्न को परखने के लिए उस पर सुबह में सवार हो जाता है, और संपूर्ण पृथ्वी का महासमुद्र तक भ्रमण कर प्रातः आहार [नाश्ते] के समय तक राजधानी में लौट आता है। ऐसा होता है अश्वरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए मणिरत्न प्रादुर्भुत होता है — वैदुर्य मणि, शुभ जाति का, अष्टपहलु, सुपरिष्कृत! उस मणिरत्न की आभा एक योजन [लगभग १६ किलोमीटर] तक फैलती है। और चक्रवर्ती सम्राट मणिरत्न को परखने के लिए उसे राजध्वज के शीर्ष पर नियुक्त कर, रात के घोर अंधकार में अपनी चार अंगोवाली सेना की व्यूहरचना में आगे बढ़ता है। तब उसकी आभा को दिन समझते हुए आसपास के सभी गांवों की जनता दिवसकार्य शुरू कर देते हैं। ऐसा होता है मणिरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए स्त्रीरत्न प्रादुर्भुत होता है — अत्यंत रुपमती, सुहावनी, सजीली, परमवर्ण एवं परमसौंदर्य से संपन्न! न बहुत लंबी, न बहुत नाटी, न बहुत पतली, न बहुत मोटी, न बहुत साँवली, न बहुत गोरी! मानव-सौंदर्यता लांघ चुकी, किंतु दिव्य-सौंदर्यता न प्राप्त की! उस स्त्रीरत्न का काया स्पर्श ऐसा लगता है, जैसे रूई या रेशम का गुच्छा हो! उस स्त्रीरत्न के अंग शीतकाल में उष्ण रहते हैं एवं उष्णकाल में शीतल! उस स्त्रीरत्न की काया से चंदन-सी गन्ध आती है, तथा मुख से कमलपुष्प-सी गन्ध। वह स्त्रीरत्न चक्रवर्ती सम्राट के पूर्व उठती, पश्चात सोती, सेवा के लिए लालायित रहती, मनचाहा आचरण करती, तथा प्रिय बातें करती है। वह स्त्रीरत्न मन से भी चक्रवर्ती सम्राट के प्रति निष्ठा [वफ़ा] का उल्लंघन नहीं करती, तो काया से कैसे करेगी? ऐसा होता है स्त्रीरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए गृहस्थरत्न प्रादुर्भुत होता है — जिसे पूर्वकर्म के फ़लस्वरूप दिव्यचक्षु प्राप्त होता है, जिससे वह छिपे हुए खज़ाने, मालकियत अथवा बिना मालकियत वाले, देख पाता है। वह गृहस्थरत्न चक्रवर्ती सम्राट के पास जाकर कहता है, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं आपके धनदौलत की देखभाल करूँगा!” और चक्रवर्ती सम्राट गृहस्थरत्न को परखने के लिए उसे नांव में साथ लेकर गंगा नदी की सैर पर निकलता है, और बीच नदी में कहता है, “गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर चाहिए!”

“महाराज! तब नांव को एक किनारे लगने दें!”

“दरअसल गृहस्थ, मुझे स्वर्णचांदी का ढेर ‘अभी इसी जगह’ चाहिए!”

तब गृहस्थरत्न अपने दोनों हाथों को जल में डुबोता है, स्वर्णचांदी से भरी हाँडी निकालता है, और चक्रवर्ती सम्राट को कहता है, “महाराज, इतना पर्याप्त है? क्या इतना करना पर्याप्त है? क्या इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है?”

“इतना पर्याप्त है, गृहस्थ! इतना करना पर्याप्त है! इतनी अर्पित मात्रा पर्याप्त है!” ऐसा होता है गृहस्थरत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है।

फिर, चक्रवर्ती सम्राट के लिए सलाहकाररत्न प्रादुर्भुत होता है — विद्वान, ज्ञानी, मेधावी, सक्षम! जो चक्रवर्ती सम्राट को आगे बढ़ने-योग्य अवसर में आगे बढ़ाता, छोड़ने-योग्य अवसर में छुड़वाता, स्थापित-योग्य अवसर में स्थापित कराता! वह सलाहकाररत्न चक्रवर्ती सम्राट के पास जाकर कहता है, “महाराज, आप निश्चिंत रहें! मैं निर्देशित करूँगा!” ऐसा होता है सलाहकाररत्न, जो चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रादुर्भूत होता है। चक्रवर्ती सम्राट ऐसे सप्तरत्नों से संपन्न होता है।

चार शक्तियां क्या होती हैं, भिक्षुओं? चक्रवर्ती सम्राट अत्यंत रूपवान, आकर्षक, सजीला, परमवर्ण से संपन्न होता है, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की प्रथम शक्ति होती है।

चक्रवर्ती सम्राट दीर्घायु होता है, दीर्घकाल तक बने रहता है, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की द्वितीय शक्ति होती है।

चक्रवर्ती सम्राट निरोगी बने रहता है, रोगमुक्त और पाचनक्रिया सम बने रहती है, न बहुत शीतल, न बहुत उष्ण, अन्य किसी भी मनुष्य से परे! यह चक्रवर्ती सम्राट की तृतीय शक्ति होती है।

चक्रवर्ती सम्राट ब्राह्मणों एवं [वैश्य] गृहस्थों का प्रिय एवं पसंदीदा होता है। जैसे संतान के लिए पिता प्रिय एवं पसंदीदा होता है, उसी तरह चक्रवर्ती सम्राट ब्राह्मणों एवं गृहस्थों के लिए प्रिय एवं पसंदीदा होता है। ब्राह्मण एवं गृहस्थ भी चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रिय एवं पसंदीदा होते हैं। जैसे पिता के लिए संतान प्रिय एवं पसंदीदा होते हैं, उसी तरह ब्राह्मण एवं गृहस्थ भी चक्रवर्ती सम्राट के लिए प्रिय एवं पसंदीदा होते हैं। जब चक्रवर्ती सम्राट अपनी चार अंगोवाली सेना के साथ उद्यानभूमि से गुज़रता है, तब ब्राह्मण एवं गृहस्थ पास जाकर कहते हैं, “महाराज, मंद गति से गुज़रे! ताकि हम आपको देर तक देख सकें!” तब चक्रवर्ती सम्राट अपने रथसारथी को आदेश देता है, “सारथी, मंद गति से चलो! ताकि हमें ब्राह्मण एवं गृहस्थ देर तक देख सकें!” यह चक्रवर्ती सम्राट की चतुर्थ शक्ति होती है।


तो क्या लगता हैं, भिक्षुओं? क्या चक्रवर्ती सम्राट सप्तरत्नों एवं चार शक्तियों से संपन्न होकर सुख एवं खुशी का अनुभव करेगा?”

“भन्ते, चक्रवर्ती सम्राट किसी एक रत्न से भी अत्यंत सुख एवं खुशी का अनुभव करेगा! सप्तरत्नों एवं चार शक्तियों से संपन्न होने की बात ही क्या!”

तब भगवान ने एक पत्थर उठाया और भिक्षुओं से कहा, “तो क्या लगता है, भिक्षुओं? क्या बड़ा है? मेरे हाथ का यह पत्थर अथवा पर्वतराज हिमालय?”

“भन्ते! भगवान ने जो पत्थर उठाया, वह पर्वतराज हिमालय के आगे गिना भी नहीं जाएगा! वह एक अंश भी नहीं है! दोनों में कोई तुलना ही नहीं है!”

“उसी तरह, भिक्षुओं! जो चक्रवर्ती सम्राट सप्तरत्नों एवं चार शक्तियों से संपन्न होकर सुख एवं खुशी का अनुभव करेगा, वह स्वर्गिक सुख के आगे गिने भी न जाएंगे! वह एक अंश भी नहीं है! दोनों में कोई तुलना ही नहीं है!

और जब दीर्घकाल बीतने पर कदाचित एक समय आए कि उस बुद्धिमान को पुनः मनुष्यता प्राप्त हो — तब वह उच्चकुलीन परिवार में जन्म लेता है, जैसे महासंपत्तिशाली क्षत्रियकुल में, या महासंपत्तिशाली ब्राह्मणकुल में, या महासंपत्तिशाली [वैश्य] गृहस्थकुल में! तथा वह महाधनी, महाभोगशाली होता है! अनेकानेक संपदाओं का स्वामी! विशाल मुद्राकोष का धारक! अनेकानेक वस्तुसामग्री का मालिक! अनेकानेक उत्पाद-भंडारों का स्वामी! साथ ही वह रूपवान, आकर्षक, सजीला, परमवर्ण से संपन्न होता है। तथा उसे अन्नपान मिलता है, वस्त्र एवं गाड़ी मिलती है, माला, गन्ध एवं लेप मिलते हैं, शयन, आवास एवं दीपक मिलते हैं। और वह [उस राहतभरे जीवन में] काया से सदाचार, वाणी से सदाचार एवं मन से सदाचार करता है, और मरणोपरांत पुनः सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है।

जैसे भिक्षुओं! कोई जुआरी हो, जो प्रथम दांव में ही महाभोगसंपत्ति का भंडार जीत जाए। तब भी ऐसा सौभाग्यशाली दांव, जिसमे कोई महाभोगसंपत्ति का भंडार जीत जाए — अल्पमात्र ही होगा! किंतु कोई बुद्धिमान उससे भी अधिक लाभदायक, महासौभाग्यशाली दांव खेलता है, जब वह काया से सदाचार, वाणी से सदाचार एवं मन से सदाचार करता है और मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है। यह बुद्धिमत्ता की पराकाष्ठा है!”

«मज्झिमनिकाय १२९ : बालपण्डितसुत्त»


इध मोदति पेच्च मोदति,
कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति।
सो मोदति सो पमोदति,
दिस्वा कम्मविसुद्धिमत्तनो।।

यहाँ [इस लोक में] प्रसन्न होता,
पश्चात [परलोक में] प्रसन्न होता।
पुण्यकर्ता दोनों में प्रसन्न होता है।
अपनी कर्मविशुद्धि देखकर
प्रसन्न, प्रफुल्लित होता है।

इध नन्दति पेच्च नन्दति,
कतपुञ्ञो उभयत्थ नन्दति।
“पुञ्ञं मे कत”न्ति नन्दति,
भिय्यो नन्दति सुग्गतिं गतो।।

यहाँ हर्षित होता, पश्चात हर्षित होता।
पुण्यकर्ता दोनों में हर्षित होता है।
‘पुण्य किया मैंने!’ कहते हर्षित होता।
सद्गति होकर और खूब हर्षित होता है।

«धम्मपद यमकवग्गो १६, १८»

भद्रोपि पस्सति पापं,
याव भद्रं न पच्चति।
यदा च पच्चति भद्रं,
अथ भद्रो भद्रानि पस्सति।।

भला [व्यक्ति] भी दुर्भाग्य देखता,
जब तक उसकी भलाई न पकती।
किंतु जब भलाई पक जाती,
तब भला सौभाग्य देखता।

मावमञ्ञेथ पुञ्ञस्स, न मन्तं आगमिस्सति।
उदबिन्दुनिपातेन, उदकुम्भोपि पूरति।
धीरो पूरति पुञ्ञस्स, थोकं थोकम्पि आचिनं।।

पुण्य को छोटा न समझो,
[सोचते हुए] ‘मुझ तक न आएगा’।
बूंद-बूंद से घड़ा भरता,
थोड़ा-थोड़ा संचय कर,
धैर्यवान पुण्य से भरता।

«धम्मपद पापवग्गो १२०, १२२»


“कोई शीलवान प्रवज्यित [संन्यासी] जब किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब लोग पाँच तरह से बहुत पुण्य उत्पन्न करते हैं। कौन से पाँच?

जब शीलवान प्रवज्यित किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब उसे देख लोगों का चित्त आस्था से भरता है। उस अवसर पर वह कुलपरिवार स्वर्ग जाने के पथ पर अग्रसर होता है।

जब शीलवान प्रवज्यित किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब लोग उसका स्वागत करते हैं, अभिवादन करते हैं, [बैठने के लिए] आसन देते हैं। उस अवसर पर वह कुलपरिवार उच्चकुलीन जन्म लेने के पथ पर अग्रसर होता है।

जब शीलवान प्रवज्यित किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब लोग उसके लिए कंजूसी का मल हटाते हैं। उस अवसर पर वह कुलपरिवार महाप्रभावशाली होने के पथ पर अग्रसर होता है।

जब शीलवान प्रवज्यित किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब लोग उसके साथ यथाशक्ति यथाबल बांटते [संविभाग करते] हैं। उस अवसर पर वह कुलपरिवार महासंपत्तिशाली होने के पथ पर अग्रसर होता है।

जब शीलवान प्रवज्यित किसी कुलपरिवार के निकट जाता है, तब लोग उससे पूछते हैं, प्रश्न करते हैं, धर्म सुनते हैं। उस अवसर पर वह कुलपरिवार महाअंतर्ज्ञान पाने के पथ पर अग्रसर होता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:१९९ : कुलसुत्त»


श्रद्धावान कुलपुत्र को पाँच पुरस्कार मिलते हैं। कौन से पाँच?

जब इस लोक के सच्चे सन्त एवं सत्पुरुषों को उपकार करना हो, तो वे सर्वप्रथम श्रद्धावान कुलपुत्र पर उपकार करते हैं, श्रद्धाहीन पर नहीं। उन्हें जब मुलाकात देनी हो, तो वे सर्वप्रथम श्रद्धावान कुलपुत्र को मुलाकात देते हैं, श्रद्धाहीन को नहीं। उन्हें जब कुछ ग्रहण करना हो, तो वे सर्वप्रथम श्रद्धावान कुलपुत्र से ग्रहण करते हैं, श्रद्धाहीन से नहीं। उन्हें जब धर्म सिखाना हो, तो वे सर्वप्रथम श्रद्धावान कुलपुत्र को धर्म सिखाते हैं, श्रद्धाहीन को नहीं। और श्रद्धावान कुलपुत्र मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है।

जैसे महावृक्ष हो कोई, फ़ल-पत्ते लगी शाखा,
तना-मूल फ़लसंपन्न, पक्षी आश्रय ले वहाँ।
ऐसे मनोरम आयाम में, चिड़ियां सेवन करे,
थका-मांदा छाया पाए, भूखा फ़लभोज करे।
ऐसा श्रद्धावान पुरुष, शीलसंपन्न व्यक्ति जो,
विनम्र हो, न अकड़, सौम्य, मधुर, मृदु हो।
ऐसे नर से मिलाप करे, इस लोक के पुण्यक्षेत्र
— वीतरागी, वीतद्वेषी, वीतमोही, अनास्रव।
उसे वे धर्म बताते, समस्त दुःख मिटाता जो,
जब उसे धर्म समझे, परिनिर्वृत अनास्रव हो।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३८ : सद्धासुत्त»


“पुण्य से भयभीत ना हो, भिक्षुओ! पुण्य को दूसरे शब्दों में ‘सुखमय, पसंदीदा, आनंदमय, प्रिय, मनचाहा’ कहते हैं। मैं प्रत्यक्ष जानता हूँ कि दीर्घकाल तक पुण्य करने पर, मैंने दीर्घकाल तक ‘सुखमय, पसंदीदा, आनंदमय, प्रिय, मनचाहा’ कर्मफ़ल अनुभव किया है।

सात वर्षों तक, मैने सद्भाव-चित्त विकसित किया। और तब सात कल्पों के ब्रह्मांडीय सिकुड़न एवं फैलाव के दौरान, मैं इस [मनुष्य] लोक में नहीं आया। जब भी ब्रह्मांड सिकुड़ता था, मैं आभाश्वर ब्रह्मलोक जाता। जब भी ब्रह्मांड फैलता था, मैं रिक्त ब्रह्मविमान में प्रकट होता, जहाँ मैं महाब्रह्मा, विजेता, अजेय, सर्वदर्शी, वशवर्ती बनता।

छत्तीस बार, मैं देवराज इंद्र बना। कई सैकड़ों बार, मैं चक्रवर्ती सम्राट बना — धर्मराज, चारों दिशाओं का विजेता, देहातों तक स्थिर शासन, तथा सप्तरत्नों से संपन्न सम्राट! और प्रदेश राजा कितनी बार बना, कहना ही नहीं!

तब मैंने सोचा, ‘मेरे कौन से कर्म का यह प्रतिफ़ल है, परिणाम है जो मुझे ऐसी महाशक्ति, ऐसा महाबल प्राप्त हुआ है?’ तब मुझे पता चला कि ‘यह मेरे तीन कर्मों का प्रतिफ़ल है, परिणाम है जो मुझे ऐसी महाशक्ति, ऐसा महाबल प्राप्त हुआ है — दान, स्वयं पर काबू, एवं इंद्रिय संयम।’”

«इतिवुत्तक २२ : मेत्तसुत्त»


कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा:

“भन्ते! अभी मैं एकांत में था, तो मेरे चित्त में विचारों की श्रृंखला उठी, ‘कौन स्वयं को प्रिय है, कौन स्वयं को प्रिय नहीं?’ तब मुझे लगा, ‘वे स्वयं को प्रिय नहीं, जो काया से दुराचार, वाणी से दुराचार, एवं मन से दुराचार करते हैं। भले ही वे कहते हो कि ‘हम स्वयं को प्रिय है’, तब भी वे स्वयं को प्रिय नहीं। ऐसा क्यों? क्योंकि, वे स्वयं ही स्वयं के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसा कोई शत्रु अपने शत्रु के साथ करे। इस तरह वे स्वयं को प्रिय नहीं होते।

किंतु वाकई ‘वे स्वयं को प्रिय हैं, जो काया से सदाचार, वाणी से सदाचार, एवं मन से सदाचार करते हैं। भले ही वे कहते हो कि ‘हम स्वयं को प्रिय नहीं!’ तब भी वे स्वयं को प्रिय ही हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि, वे स्वयं ही स्वयं के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसा कोई प्रिय अपने प्रिय के साथ करे। इस तरह वे स्वयं को प्रिय होते हैं।”

[भगवान:]

“ऐसा ही है, महाराज! ऐसा ही है! ‘वे स्वयं को प्रिय नहीं, जो काया से दुराचार, वाणी से दुराचार, एवं मन से दुराचार करते हैं। भले ही वे कहते हो कि ‘हम स्वयं को प्रिय है’, तब भी वे स्वयं को प्रिय नहीं। क्योंकि, वे स्वयं ही स्वयं के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसा कोई शत्रु अपने शत्रु के साथ करे।

किंतु वाकई ‘वे स्वयं को प्रिय हैं, जो काया से सदाचार, वाणी से सदाचार, एवं मन से सदाचार करते हैं। भले ही वे कहते हो कि ‘हम स्वयं को प्रिय नहीं!’ तब भी वे स्वयं को प्रिय ही हैं। क्योंकि, वे स्वयं ही स्वयं के साथ ऐसा बर्ताव करते हैं, जैसा कोई प्रिय अपने प्रिय के साथ करे।”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“जो स्वयं का प्रिय हो, न जुड़ बैठे तब पाप से,
चूंकि सुख सुलभ न हो, दुष्कृत्य कर्ता के लिए।
अन्तकर्ता दबोचे तुरंत, मनुष्यलोक जो छूटे,
वाकई तुम्हारा क्या है, जाते हुए क्या ले जाए?
क्या चलता है पीछे, जैसे छाया कभी साथ न छोड़े?
पुण्य एवं पाप दोनों, जो मर्त्य [=नश्वर] करते यहाँ,
वाकई तुम्हारा वही है, जाते हुए जो ले जाए।
वही चलता है पीछे, जैसे छाया कभी साथ न छोड़े।
इसलिए कल्याण करें, अगले जीवन में पूँजी बने।
परलोक में जीवों के लिए, पुण्य ही आधार बने।”

«संयुत्तनिकाय ३:४ : पियसुत्त»


पुण्यक्रिया के तीन आधार होते हैं। कौन से तीन? दानक्रिया, शीलक्रिया और भावनाक्रिया।

पुण्य में प्रशिक्षित होएँ,
दीर्घकाल जो सुख लाए।
दान करें, समचर्या [शील] करें,
सद्भाव-चित्त [भावना] विकसित करें।
सुख लाते ये तीन धर्म, जो व्यक्ति बढ़ाता है,
अमिश्रित-सुख के लोक में, वह विद्वान उपजता है।”

«इतिवुत्तक ६० : पुञ्ञकिरियवत्थुसुत्त»


कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा:

“भन्ते! क्या कोई एक धर्म [स्वभाव] है, जो लोक एवं परलोक दोनों में अर्थ [लाभ] सुरक्षित रखें?”

“एक धर्म है महाराज, जो लोक एवं परलोक दोनों में अर्थ सुरक्षित रखता है।”

“वह एक धर्म क्या है, भन्ते?”

अप्रमाद, महाराज! जैसे पैर वाले तमाम प्राणियों के पदचिन्ह हाथी के पदचिन्ह में सिमट सकते हैं, और आकारानुसार हाथी का पदचिन्ह तमाम पदचिन्हों में अग्र माना जाता है। उसी तरह, महाराज, अप्रमाद एक धर्म है जो लोक एवं परलोक दोनों में अर्थ सुरक्षित रखता है।”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“दीर्घायुता आरोग्य सौंदर्यता, स्वर्ग उच्चकुलीनता
— जिन्हें इनकी चाह हो, एक के बाद एक भोग की,
पण्डित प्रशंसा करते हैं, तब पुण्य में अप्रमाद की।
अप्रमत्त होकर ज्ञानी, अर्थ दोनों साध ले
अभी इसी जीवन में, तथा परलोक में।
धैर्यवान दीर्घ-अर्थ समझे, वे पण्डित कहलाते।”

«संयुत्तनिकाय ३:१७ : अप्पमादसुत्त »


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  1. कहा जाता है कि पृथ्वी की चारों दिशाओं में गन्धर्व, यक्ष, कुम्भण्ड और नाग नामक चार तरह के देवतागण रहते हैं। इनमें से कुछ अराजक सत्व मानवों को कष्ट भी देते हैं। पालि त्रिपिटक के अनुसार, इन चार देवतागणों के चार महाराज हैं। ये महाराज तैतीस देवताओं के महाराज देवेंद्र सक्क (अर्थात् सक्षम — इंद्र का व्यक्तिगत नाम) के आदेशानुसार अपना राजपाट चलाते हैं।

    • पूर्व दिशा में गंधर्वों का महाराज धृतराष्ट्र (धतरट्ठ) है।

    • दक्षिण दिशा में कुम्भण्डों का महाराज विरुल्हक (विरुळ्ह) है।

    • पश्चिम दिशा में नागों का महाराज विरुपाक्ष (विरुपाक्ख) है।

    • उत्तर दिशा में यक्षों का महाराज कुबेर या वैष्णव (वेस्सवण्ण) है।

    इन चार महाराजाओं ने आकर भगवान बुद्ध को अपने अराजक सत्वों से रक्षा हेतु ‘आटानाटिय रक्षामंत्र’ दिया था। यह मंत्र दीघनिकाय आटानाटियसुत्त में वर्णित है। ↩︎