नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय चार

दान



भगवान ने गाथाएं कही:

“कंजूस देवलोक नहीं जाते।
जो दान की प्रशंसा न करे, मूर्ख होते हैं।
दान का अनुमोदन विद्वान करते।
और इस लोक के पश्चात सुख पाते हैं।”

«धम्मपद १७७ : लोकवग्गो »



“कंजूस को जो भय सताता,
जो उसे दान देने से रोकता,
वही भय उसपर टूट पड़ता,
जब वह दान नहीं करता।”

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«संयुत्तनिकाय १:३२ : मच्छरिसुत्त»

“कंजूसी को जीतें दान से।”

«धम्मपद कोधवग्गो २२३»


देर रात में कोई देवता अत्याधिक कांति से संपूर्ण जेतवन विहार रौशन करते हुए भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर खड़ा हुआ। और भगवान के समक्ष गाथाओं का उच्चार किया:

“जब घर में आग लगे, जो बर्तन बचाया जाए,
वही उपयोगी बचे, न जो पीछे जलते रह जाए।
जब दुनिया में आग लगे, बुढ़ापे से, मृत्यु से,
दान देकर उसे बचाएं, दान दिया सुरक्षित बचता।
दिया सुखद-फ़ल लाता, न दिया कभी न लाता,
चोर या राजा ले जाता, अग्नि भुनती या खो जाता।
अंततः सर्वसंपत्ति सह, आप काया हैं छोड़ते,
विद्वान यह जानते हुए, भोग करें व दान करें।
भोग कर व दान कर, जितना भी साध पाए,
स्वर्गावस्था तक अनिंदित रह, आप तब जा पाए।”

«संयुत्तनिकाय १:४१ : आदित्तसुत्त»


“दान-संविभाग के जो फ़ल मुझे पता चले, यदि दूसरों को भी पता चल जाए, तो बिना दिए, बिना बांटे न कभी कोई भोग करेगा, न कंजूसी से मन मलिन होने देगा! भले ही किसी मूंह का आख़िरी निवाला हो, किंतु यदि कोई दानयोग्य मौजूद हो तो वह बिना दिए, बिना बांटे खा नहीं पाएगा।

किंतु [अफ़सोस!] दूसरों को दान-संविभाग के वे फ़ल नहीं पता हैं, जो मुझे पता हैं। इसलिए वे बिना दिए, बिना बांटे भोग करते हैं और कंजूसी से मन मलिन होने देते हैं।”

«इतिवुत्तक २६ : दानसुत्त»


एक देवता भगवान के समक्ष बोल पड़ा:

“श्रीमान! दान है भला!
हो भले ही अल्प मात्र,
दान तब भी, है भला!
श्रद्धापूर्ण दान, है भला!

निष्ठा से कमाए का दान, है भला!
जब कोई दान करे, निष्ठा से कमाए का,
जो भी कमाया हो, ऊर्जा से मेहनत से,
वह पार करे, यम की वैतरणी नदी,
दिव्य अवस्थाओं तक पहुँच जाएँ।

विवेकपूर्ण दान, है भला!
इस जीवलोक में दक्षिणायोग्य
— जहाँ दान कर मिले महाफ़ल,
जैसे कोई बीज बोता, उपजाऊ भूमि में।
ऐसा सुगत-प्रशंसित ‘विवेकपूर्ण दान’, है भला!”

«संयुत्तनिकाय १:३३ : साधुसुत्त»


“दान के पाँच पुरस्कार हैं:

• अनेक लोगों का प्रिय एवं पसंदीदा होता है।

• भले लोगों द्वारा प्रशंसित होता है।

• उसकी सुयश कीर्ति फैलती है।

• गृहस्थी-धर्म से भटकता नहीं है।

• मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३५ : दानानिसंससुत्त»


दायक भोजन देते हुए प्राप्तकर्ता को पाँच वस्तुएँ देता है। कौन से पाँच?

वह आयु देता है, वर्ण देता है, राहत देता है, बल देता है, और स्फूर्ति देता है।

वह आयु देकर दिव्य अथवा मानवीय दीर्घायुता में भागीदार बनता है। वर्ण देकर दिव्य अथवा मानवीय सौंदर्यता में भागीदार बनता है। राहत देकर दिव्य अथवा मानवीय राहत एवं सुख में भागीदार बनता है। बल देकर दिव्य अथवा मानवीय शक्ति में भागीदार बनता है। स्फूर्ति देकर दिव्य अथवा मानवीय चपलता में भागीदार बनता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३७ : भोजनसुत्त»


राजकुमारी सुमन, पाँच सौ रथों पर सवार पाँच सौ राजकुमारीयों के काफ़िले के साथ, वहाँ गई जहाँ भगवान रुके थे, और पहुँच कर अभिवादन कर सभी एक-ओर बैठ गई। उसने एक-ओर बैठकर भगवान से कहा:

“भन्ते! मान लिजिये भगवान के दो शिष्य हो — श्रद्धा में एक जैसे, शील में एक जैसे, और प्रज्ञा में एक जैसे! उनमें मात्र एक भोजनदाता था, दूसरा नहीं। तब मरणोपरांत दोनों सद्गति होकर स्वर्ग में उत्पन्न हो। क्या देवता बनने पर दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”

“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह देवता बनने पर दूसरे को पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — दिव्य दीर्घायुता, दिव्य सौंदर्यता, दिव्य राहत एवं सुख, दिव्य प्रतिष्ठा, और दिव्य शक्ति …”

“और, भन्ते! यदि वे दोनों वहाँ से च्युत होकर पुनः इस लोक में उत्पन्न हो। क्या पुनः मनुष्य बनने पर दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”

“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह पुनः मनुष्य बनने पर दूसरे को पुनः पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — मानवीय दीर्घायुता, मानवीय सौंदर्यता, मानवीय राहत एवं सुख, मानवीय प्रतिष्ठा, और मानवीय शक्ति …”

“और भन्ते! यदि वे प्रवज्या [संन्यास] ग्रहण कर घर से बेघर होकर भिक्षु बन जाए। तब क्या प्रवज्यित होने पर दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”

“हाँ, सुमन! जो भोजनदाता था, वह प्रवज्या ग्रहण करने पर दूसरे को पुनः पाँच क्षेत्रों में पीछे छोड़ देगा — अक्सर उसे नए चीवर को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे भोजन ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे नए निवास को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर उसे रोगावश्यक औषधि-भेषज्य को ग्रहण करने की विनंती की जाएगी, विरल ही होगा कि उसे न पूछा जाए। अक्सर ब्रह्मचारी साथी उससे सुखद कार्य से… सुखद वाणी से… सुखद विचार से बर्ताव करेंगे… उसे सुखद उपहार भेंट करेंगे, विरल ही होगा कि उससे असुखद कार्य, वाणी एवं विचार से बर्ताव हो, या सुखद उपहार भेंट न हो।”

“और, भन्ते! यदि वे दोनों अर्हंतपद प्राप्त करें। तब क्या अर्हंतपद प्राप्त करने में दोनों में कोई अंतर, कोई भेद होगा?”

“तब सुमन! उस मामले में कहता हूँ कि दोनों की विमुक्ति में न कोई अंतर होगा, न कोई भेद।”

“आश्चर्य है, भन्ते! अद्भुत है! भोजन देने का, पुण्य करने का यही कारण पर्याप्त है कि देवता बनने पर लाभदायक हो, मनुष्य बनने पर लाभदायक हो, या संन्यास ग्रहण करने पर भी लाभदायक हो!”

“ऐसा ही है, सुमन! ऐसा ही है! भोजन देने का, पुण्य करने का यही कारण पर्याप्त है कि देवता बनने पर लाभदायक होता है, मनुष्य बनने पर लाभदायक होता है, या संन्यास ग्रहण करने पर भी लाभदायक होता है!”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“जैसे विमल चंद्रमा, आकाश से गुजरते हुए
ब्रह्मांड के समस्त तारों को, फीका कर दे कांति से।
वैसे ही श्रद्धावान व्यक्ति, शील से सम्पन्न हुए
ब्रह्मांड के समस्त कंजूसों को, फीका कर दे त्याग से।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३१ : सुमनसुत्त»


भन्ते सारिपुत्र चम्पा के उपासकों के साथ भगवान के पास गये और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। उन्होंने बैठकर भगवान से कहा:

“भन्ते! क्या ऐसा हो सकता है, जहाँ एक व्यक्ति दान देता है तो परिणामस्वरूप, उसे न महाफ़ल मिलता है, न महापुरस्कार? जबकि दूसरा व्यक्ति वही दान देता है तो उसे महाफ़ल और महापुरस्कार मिलता है?”

“हाँ, सारिपुत्र! ऐसा हो सकता है।”

“भन्ते, क्या कारण एवं परिस्थिति में ऐसा होता है?”

• “सारिपुत्र, ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति [फ़ल के प्रति] तरसते हुए दान देता है, आसक्त चित्त से दान देता है, स्वार्थ में संचित करने के लिये दान देता है, [सोचते हुए] ‘मरणोपरांत इसका भोग करूँगा!’ इस तरह वह श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान करता है। तुम्हें क्या लगता है, सारिपुत्र? क्या कोई व्यक्ति इस तरह से दान कर सकता है?”

“हाँ, भन्ते।”

“जब कोई इस तरह तरसते हुए दान दे, आसक्त चित्त से दान दे, स्वार्थ में संचित करने के लिये दान दे, ‘मरणोपरांत इसका भोग करूँगा!’ — तब वह मरणोपरांत चार-महाराज देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि [=दिव्यशक्ति], यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस [मानव] लोक में लौटता है।


• ऐसा भी होता है कि कोई व्यक्ति न तरसते हुए दान देता है, न आसक्त चित्त से, न ही स्वार्थ में संचित करने के लिये। बल्कि [सोचता है] ‘दान देना अच्छा है! 2 ’ इस तरह वह श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय आदि दान करता है। तुम्हें क्या लगता है, सारिपुत्र? क्या कोई इस तरह दान कर सकता है?”

“हाँ, भन्ते!”

“जब कोई इस तरह दान दे, [सोचते हुए] ‘दान देना अच्छा है!’ — तब वह मरणोपरांत तैतीस देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस लोक में लौटता है।


• या कोई दान देते हुए [सोचता है] ‘यह दान मेरे पिता, दादा, परदादाओं द्वारा दिया जाता रहा है। यह कर्म किया जाता रहा है। इस पुरातन कुलपरंपरा को तोड़ देना 3 , मेरे लिए उचित न होगा।’ — तब वह मरणोपरांत याम [=संयम] देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस लोक में लौटता है।


• या कोई व्यक्ति दान देते हुए [सोचता है] ‘मैं सुसंपन्न हूँ। किंतु ये सुसंपन्न नहीं। सुसंपन्न रहते हुए असंपन्न को न देना 4 , मेरे लिये उचित न होगा।’ — तब वह मरणोपरांत, तुषित [=संतुष्ट] देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस लोक में लौटता है।


• या कोई व्यक्ति दान देते हुए [सोचता है] ‘अतीतकाल में महायज्ञ, दान-संविभाग 5 करने वाले अनेक ऋषिमुनि थे, जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप एवं भगू। मैं भी उसी तरह दान-संविभाग करूँगा!’ — तब वह मरणोपरांत, निर्माणरति [=निर्माणकार्य में लीन] देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस लोक में लौटता है।


• या कोई व्यक्ति दान देते हुए [सोचता है] ‘जब दान देता हूँ, तब मेरा चित्त प्रसन्न होता है! अंतर्मन में खुशी उठती है!’ 6 — तब वह मरणोपरांत, परनिर्मित वशवर्ती [=दूसरों द्वारा निर्मित पर पूर्ण वश] देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर पुनः इस लोक में लौटता है।

• या कोई व्यक्ति दान देते हुए [सोचता है] ‘दान तो चित्त का अलंकार [गहना] है, पोषक आधार है!’ 7 — तब वह मरणोपरांत, ब्रह्मकाया वाले देवलोक में उत्पन्न होता है। तथा कर्म, ऋद्धि, यश, प्रभुसत्ता के क्षय होने पर वह अनागामी हो जाता है, पुनः इस लोक में लौटता नहीं।

इन कारण और परिस्थितियों में, सारिपुत्र, एक व्यक्ति दान देता है तो परिणामस्वरूप, उसे न महाफ़ल मिलता है, न महापुरस्कार। जबकि दूसरा व्यक्ति वही दान देता है तो उसे महाफ़ल और महापुरस्कार मिलता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ७:५२ : दानमहप्फ़लसुत्त»


“सत्पुरुष पाँच तरह से दान देता है। कौन से पाँच?

• श्रद्धापूर्वक दान देता है।

• ध्यान रखते हुए दान देता है।

• समय पर दान देता है।

• सहानुभूति चित्त से दान देता है।

• न स्वयं पर, न पराए पर विपरीत प्रभाव डालते हुए दान देता है।

• श्रद्धापूर्वक दान देने से दायक को जहाँ भी फल प्राप्त होता है, वह महाधनवान, महासंपत्तिशाली और अनेक संपदाओं से संपन्न होता है। साथ ही, वह अत्यंत रूपवान, आकर्षक, स्नेहप्रेरक और कमलवर्ण वाला होता है।

• ध्यान रखते हुए दान देने से दायक को जहाँ भी फल प्राप्त होता है, वह महाधनवान, महासंपत्तिशाली और अनेक संपदाओं से संपन्न होता है। साथ ही, उसकी संतान, पत्नी, दास-दासियां, नौकर और श्रमिक उसका ध्यान रखते हैं, उसकी बातें सुनते हैं और उसे हृदय से सेवा करते हैं।

• समय पर दान देने से दायक को जहाँ भी फल प्राप्त होता है, वह महाधनवान, महासंपत्तिशाली और अनेक संपदाओं से संपन्न होता है। साथ ही, उसका लाभ/लक्ष्य समय पर पूर्ण होता है।

• सहानुभूति चित्त से दान देने से दायक को जहाँ भी फल प्राप्त होता है, वह महाधनवान, महासंपत्तिशाली और अनेक संपदाओं से संपन्न होता है। साथ ही, उसका चित्त पञ्चकामसुख का लुत्फ़ उठा पाता है।

• न स्वयं पर, न दूसरे पर विपरीत परिणाम डालते हुए 8 दान देने से दायक को जहाँ भी फल प्राप्त होता है, वह महाधनवान, महासंपत्तिशाली और अनेक संपदाओं से संपन्न होता है। साथ ही, उसकी संपत्ति कही से भी बर्बादी नहीं होती, चाहे अग्नि, जल, चोर, राजा, या नफ़रती वारिस से।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:१४८ : सप्पुरिसदानसुत्त»


भन्ते सारिपुत्र भगवान के पास गये और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। उन्होंने बैठकर भगवान से कहा:

“भन्ते! क्या कारण और परिस्थिति होती है कि जब कुछ लोग एक व्यवसाय करते हैं तो पूर्णतः विफल हो जाते हैं? वही व्यवसाय अन्य लोग करते हैं तो उन्हें अपेक्षानुसार सफ़लता नहीं मिलती? जबकि वही व्यवसाय भिन्न लोग करते हैं तो उन्हें अपेक्षानुसार सफ़लता मिलती हैं? और वही व्यवसाय कुछ अन्य लोग करते हैं तो अपेक्षा से अधिक सफ़ल हो जाते है?”

“ऐसा होता है, सारिपुत्त, कोई व्यक्ति श्रमण-ब्राह्मण के पास जाकर प्रस्ताव «पवारणा» देता है, “गुरुजी! किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो मुझे बताएं।” किंतु वह प्रस्ताव के अनुसार वस्तु का दान नहीं करता। तब वह मरणोपरांत वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है, और जो भी व्यवसाय करता है, पूर्णतः विफल हो जाता है।

और ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति श्रमण-ब्राह्मण के पास जाकर प्रस्ताव देता है, “गुरुजी! किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो मुझे बताएं।” किंतु वह प्रस्ताव के बजाय भिन्न वस्तु का दान करता है। तब वह मरणोपरांत वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है, और जो भी व्यवसाय करता है, उसे अपेक्षानुसार सफ़लता नहीं मिलती।

और ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति श्रमण-ब्राह्मण के पास जाकर प्रस्ताव देता है, “गुरुजी! किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो मुझे बताएं।” और वह प्रस्ताव के अनुसार ही अपेक्षित वस्तु का दान करता है। तब वह मरणोपरांत वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है, और जो भी व्यवसाय करता है, उसे अपेक्षानुसार सफ़लता मिलती है।

और ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति श्रमण-ब्राह्मण के पास जाकर प्रस्ताव देता है, “गुरुजी! किसी वस्तु की आवश्यकता हो तो मुझे बताएं।” और वह दिए प्रस्ताव से बेहतर वस्तु का दान करता है। तब वह मरणोपरांत वहाँ से च्युत होकर यहाँ उत्पन्न होता है, और जो भी व्यवसाय करता है, अपेक्षा से अधिक सफ़ल होता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ४:७९ : वणिज्जसुत्तं»


राजकुमार पायासि ने तब ब्राह्मण, श्रमण, ग़रीब, घुमक्कड़, कंगाल तथा भिखारियों के लिए दान का आयोजन किया। उस दान में वह टूटे चावल की खिचड़ी, अचार के साथ देता था; तथा गठीलें किनारे वाले रूखे वस्त्र देता था। दान आयोजन का अधीक्षक ‘उत्तर’ नामक ब्राह्मण तरुण था, जो दान देते हुए उद्देश्य कहता था, “इस दान से मेरा एवं राजकुमार पायासि का साथ इसी लोक तक रहे, परे नहीं।”

जब राजकुमार पायासि को ऐसा सुनने मिला, तब उसे बुलाकर पूछा, “प्रिय कुमार! क्या यह सत्य है कि तुम दान देते हुए उद्देश्य कहते हो, “इस दान से मेरा एवं राजकुमार पायासि का साथ इसी लोक तक रहे, परे नहीं।”

“हाँ, श्रीमान!”

“किंतु इस तरह तुम क्यों कहते हो…? क्या हम पुण्यलाभ की आकांक्षा कर दानफ़ल की आशा न रखें?”

“किंतु, श्रीमान! उस दान में टूटे चावल की खिचड़ी, अचार के साथ दी जाती है। इस तरह का भोजन खाना तो दूर, आप पैर से न छुएँ। उस दान में गठिलें किनारे वाले रूखे वस्त्र दिए जाते हैं। इस तरह का वस्त्र पहनना तो दूर, आप पैर से न छुएँ। आप हमारे लिए प्रिय एवं पसंदीदा है। कैसे हम प्रिय एवं पसंदीदा को अनचाहे से जोड़ दें?”

“तब, प्रिय कुमार! जैसा भोजन मैं करता हूँ, वैसा भोजन बांटने का इंतज़ाम करो। जैसे वस्त्र मैं पहनता हूँ, वैसे वस्त्र बांटने का इंतज़ाम करो।”

“हाँ, श्रीमान!” कह कर ब्राह्मण तरुण उत्तर ने ऐसा भोजन दान देने का इंतज़ाम किया, जैसे भोजन राजकुमार पायासि करता था। और ऐसे वस्त्र दान देने का इंतज़ाम किया, जैसे वस्त्र राजकुमार पायासि पहनता था। तब राजकुमार पायासि बिना ध्यान रखते हुए दान देने से, बिना स्वयं के हाथों से दान देने से, बिना सहानुभूति चित्त से दान देने से, मानो फेंक रहे हो, वैसे दान देने से मरणोपरांत चार-महाराजा देवलोक के रिक्त ‘शिरीष महल’ में उत्पन्न हुआ। जबकि ब्राह्मण तरुण उत्तर ध्यान रखते हुए दान देने से, स्वयं के हाथों से दान देने से, सहानुभूति चित्त से दान देने से मरणोपरांत तैतीस देवलोक के [ऊँचे] स्वर्ग में उत्पन्न हुआ! 9

«दीघनिकाय २३ : पायासिसुत्त»


समय पर दान पाँच तरह से होते हैं —

• आगन्तुक [आने वाले] को दान देना।

• गमिक [जाने वाले] को दान देना।

• रोगी को दान देना।

• दुर्भिक्ष [दुष्काल] में दान देना।

• खेत, फ़लोद्यान में पके प्रथम फ़लों को शीलवान के आगे उपस्थित करना।

समय पर देते प्रज्ञावान, उदार, जो कंजूसी से छूटे।
आर्य पर प्रसन्न होकर, ऐसे जो हो चुके सीधे।
दान देकर समय पर, दक्षिणा भी विपुल बने,
उसमे जो अनुमोदन करे, या जो सहायक बने,
दक्षिणा न व्यय होती, पुण्यभागीदार वह बने।
तो असंकोच चित्त से, वहाँ दें जहाँ महाफ़ल आए।
जीवों को परलोक में, पुण्य ही प्रतिष्ठित करे।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३६ : कालदानसुत्त»


“भिक्षुओं, ब्राह्मण और गृहस्थ लोग आपकी बहुत सहायता करते हैं, जो आपके चीवर, भिक्षान्न, निवास, तथा रोगी के लिए औषधि–भैषज्य आदि आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। और भिक्षुओं, आप ब्राह्मण और गृहस्थों की बहुत सहायता करते हैं, जो उन्हें ऐसा धर्म सिखाते हैं, जो शुरुवात में कल्याणकारी है, मध्य में कल्याणकारी है, तथा अन्त में कल्याणकारी है। आप ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’, अर्थ एवं विवरण के साथ, व्याख्या कर के बताते हैं। इस तरह ब्रह्मचर्य जीवन परस्पर–निर्भर रहकर जीया जाता है — आस्रवनुमा बाढ़ को लांघने के लिए, दुःखों का सम्यक अन्त करने के लिए।

गृहस्थ एवं संन्यासी, रहकर परस्पर निर्भर,
दोनों पाते सद्धर्म, बन्धन से राहत सर्वोत्तर।
गृहस्थ देते हैं चीवर, और शयनासन आधार,
उन्हें संन्यासी ओढ़तें, दिक्कत से दूर रहकर।
गृहप्रेमी गृहस्थ कोई, ले जो सुगत का आधार,
आस्था रखे जो अर्हंत पर, आर्यप्रज्ञ ध्यानी पर।
यहाँ धर्मचर्या करे, जो सद्गति मार्ग पर चलकर,
देवलोक में आनंदित, कामसुख में हर्षित हो।”

«इतिवुत्तक ७८: बहुकारसुत्तं»


भगवान ने अपने मनुष्योत्तर दिव्यचक्षु से उपासिका नन्दमाता वेळुकण्डकी को देखा, जिसने भन्ते सारिपुत्र एवं महामोगल्लान के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को छह अंगों से परिपूर्ण दान देने का आयोजन किया था। ऐसा देखकर भगवान ने भिक्षुओं से कहा:

“भिक्षुओं! उपासिका नन्दमाता वेळुकण्डकी ने भन्ते सारिपुत्र एवं महामोगल्लान के नेतृत्व में भिक्षुसंघ को छह अंगों से परिपूर्ण दान देने का आयोजन किया है। भिक्षुओं, छह अंगों से परिपूर्ण दान क्या होता है?

ऐसा है कि दायक के तीन अंग होते हैं, एवं प्राप्तकर्ता के तीन अंग।

कभी दायक — दान देने पूर्व हर्षित होता है; दान देते हुए आश्वस्त होता है; तथा दान देने के पश्चात संतुष्ट होता है। यही दायक के तीन अंग हैं।

कभी प्राप्तकर्ता — वीतरागी होता है या राग [दिलचस्पी] हटाने का अभ्यास करता है; वीतद्वेषी होता है या द्वेष [नफ़रत] हटाने का अभ्यास करता है; वीतमोही होता है या मोह [भ्रम] हटाने का अभ्यास करता है। यही प्राप्तकर्ता के तीन अंग हैं।

छह अंगों से परिपूर्ण दान का पुण्य मापना सरल नहीं है कि — ‘यह दान इतना अपार पुण्य, अपार कुशल, सुख आहार, स्वर्गिक आनंद, जो फ़लतः इतना मनचाहा, सुखद, मोहक और लाभदायक होगा।’ बल्कि इस दान को समझे कि पुण्य का यह महाढ़ेर — अथाह, असीम है!

जैसे महासमुद्र का जल मापना सरल नहीं है कि — ‘यह जल मात्र इतनी बाल्टियां हैं, या इतनी सैकड़ों बाल्टियां हैं, या इतनी हज़ार बाल्टियां हैं, या इतनी लाख बाल्टियां हैं।’ बल्कि ऐसे समझा जाता है कि यह महासमुद्र का महाजलसंग्रह अथाह, असीम है! उसी तरह इन छह अंगों से संपन्न दान का पुण्य मापना सरल नहीं है कि — ‘यह दान इतना अपार पुण्य…’ बल्कि यह दान को ऐसे समझे कि यह पुण्य का महाढ़ेर अथाह, असीम है!

पूर्व ही हर्षित होता, देते हुए आश्वस्त,
देकर संतुष्ट होता — यही यज्ञ संपन्नता।
वीतराग हो, वीतद्वेष, वीतमोह वह अनास्रव,
यज्ञक्षेत्र संपन्न हो — ब्रह्मचारी संयमी से।
स्वयं को नहला कर, दे स्वयं अपने हाथों से।
यज्ञ महाफ़लदायी हो, यूँ आत्म एवं पराए से।
ऐसा श्रद्धावान मुक्तचित्त, जो मेधावी यज्ञ करे,
तब पण्डित उत्पन्न हो, अमिश्रित सुखलोक में।”

«अंगुत्तरनिकाय ६:३७ : छळङगदानसुत्त»


कौशल-नरेश प्रसेनजीत दिन के मध्यस्थ भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। भगवान ने कहा:

“महाराज! भला दिन के मध्यस्थ कहाँ से आ रहे है?”

“अभी, भन्ते! श्रावस्ती में एक गृहस्थ श्रेष्ठी [धन्नासेठ साहूकार] की मृत्यु हुई। उसकी लावारिस धनसंपत्ति — चांदी ही एक करोड़! स्वर्ण का क्या कहूँ? — सब राजमहल भिजवाकर आ रहा हूँ। भले ही वह श्रेष्ठी था, भन्ते! किंतु उसके भोजन का भोग ऐसा था — टूटे चावल की खिचड़ी, अचार के साथ खाता था! और उसके वस्त्र का भोग ऐसा था — तीन लंबाई का भांगवस्त्र पहनता था! और उसकी सवारी का भोग ऐसा था — पत्तियों का तिरपाल लगी छोटी जर्जर बैलगाड़ी से यात्रा करता था!”

“ऐसा ही होता है, महाराज! ऐसा ही होता है! उस गृहस्थ श्रेष्ठी ने अतीत जन्म में एक बार ‘तगरसिखी’ नामक प्रत्येकबुद्ध 10 को भिक्षा दिलवाई थी। ‘श्रमण को भिक्षा दो!’ कहते हुए आसन से उठकर चला गया, किंतु भिक्षा दिलवाने के पश्चात उसे पश्चाताप हुआ, ‘अरे! अच्छा होता जो भिक्षा दास या नौकर ही खा लेता!’ और उसने उसी जन्म में अपनी संपत्ति के लिए भाई के इकलौते वारिस को भी मरवा दिया था।

तब तगरसिखी प्रत्येकबुद्ध को भिक्षा दिलवाने के फ़लस्वरूप, वह मरणोपरांत सात बार सद्गति होकर स्वर्ग में उपजा। तथा उसी कर्म के शेष रहे फ़लस्वरूप, वह इसी श्रावस्ती में सात बार गृहस्थ श्रेष्ठी बना। किंतु जो उसे भिक्षा देने पश्चात पश्चाताप हुआ, ‘अरे! अच्छा होता जो भिक्षा दास या नौकर ही खा लेता!’ — उसके फ़लस्वरूप उसका चित्त न कभी भोजन का लुत्फ़ उठा पाया, न कभी वस्त्रों का लुत्फ़ उठा पाया, न कभी सवारी का लुत्फ़ उठा पाया, न ही कभी पञ्चकामसुख 11 का लुत्फ़ उठा पाया।

संपत्ति के लिए भाई के इकलौते वारिस को मरवाने के फ़लस्वरूप, वह कई वर्षों तक, कई सैकड़ों वर्षों तक, कई हजारों वर्षों तक, कई लाखों वर्षों तक नर्क में उबलता रहा। तथा उसी कर्म के शेष रहे फ़लस्वरूप, वह अब सातवीं बार अपनी लावारिस हो चुकी धनसंपत्ति को राजकोष के लिए छोड़ गया।

और महाराज, पुराने पुण्य व्यय हो जाने से और नए पुण्यों को संचित न करने से, अब वह गृहस्थ श्रेष्ठी महारौरव नर्क में उबल रहा है।”

“तो, भन्ते! वह गृहस्थ श्रेष्ठी महारौरव नर्क में उत्पन्न हुआ है?”

“हाँ, महाराज! वह गृहस्थ श्रेष्ठी महारौरव नर्क में उत्पन्न हुआ है।

जब कोई असत्पुरुष महाधनसंपत्ति प्राप्त करे — तब वह न स्वयं को सुख संतुष्टि दे पाता है, न माता-पिता को सुख संतुष्टि दे पाता है, न पत्नी बच्चों को सुख संतुष्टि दे पाता है, न दास-नौकर एवं सहायकों को सुख संतुष्टि दे पाता है, न ही मित्र-सहचारियों को सुख संतुष्टि दे पाता है। वह न श्रमण-ब्राह्मणों के लिए यज्ञ [दानदक्षिणा] का आयोजन करता है, जो सर्वोच्च ध्येय उद्देश्य से, स्वर्गिक सुख परिणामी हो, तथा ऊँचे स्वर्ग ले जाए।

और जब उसकी धनसंपत्ति का उचित उपयोग न हो — तब उसे अंततः राजा निपटाते है, या चोर निपटाते है, या अग्नि जला देती है, या जल बहा देती है, या नफ़रती वारिस निपटाता है। इस तरह उसकी धनसंपत्ति उचित उपयोग न होने से बर्बाद हो जाती है, किसी अच्छे काम नहीं आती।

जैसे महाराज, अमनुष्यों से घिरे किसी भूतिया जगह पर एक तालाब हो — शुद्ध जल, शीतल जल, ताज़ा स्वच्छ जल से भरा, अच्छे किनारों से घिरा, अत्यंत रमणीय! किंतु जिसे लोग न निकाल पाए, न पी पाए, न नहा पाए, न किसी उपयोग ला पाए। इस तरह उचित उपयोग न होने से वह जल बर्बाद हो जाता है, किसी अच्छे काम नहीं आता। उसी तरह, जब कोई असत्पुरुष महाधनसंपत्ति प्राप्त करे… तब उसकी धनसंपत्ति बर्बाद हो जाती है, किसी अच्छे काम नहीं आती।

किंतु महाराज, जब कोई सत्पुरुष महाधनसंपत्ति प्राप्त करे — तब वह स्वयं को सुख संतुष्टि देता है, माता-पिता को सुख संतुष्टि देता है, पत्नी बच्चों को सुख संतुष्टि देता है, दास-नौकर एवं सहायकों को सुख संतुष्टि देता है, मित्र-सहचारियों को सुख संतुष्टि देता है। तथा वह श्रमण-ब्राह्मणों के लिए दानदक्षिणा का आयोजन करता है, जो सर्वोच्च ध्येय उद्देश्य से, स्वर्गिक सुख परिणामी हो, तथा ऊँचे स्वर्ग ले जाए!

और जब उसकी धनसंपत्ति का इस तरह उचित उपयोग हो — तब उसे न राजा निपटाते है, न ही चोर निपटाते है, न अग्नि जलाती है, न जल बहाती है, न ही नफ़रती वारिस निपटाता है। इस तरह उसकी धनसंपत्ति उचित उपयोग होने से बर्बाद नहीं होती, बल्कि किसी अच्छे काम आती है।

जैसे महाराज, शहर या गांव के करीब एक तालाब हो — शुद्ध जल, शीतल जल, ताज़ा स्वच्छ जल से भरा, अच्छे किनारों से घिरा, अत्यंत रमणीय! जिसे लोग निकाल पाएँ, पी पाएँ, नहा पाएँ, अपने उपयोग ला पाएँ। इस तरह जल उचित उपयोग होने से बर्बाद नहीं होता, बल्कि किसी अच्छे काम आता है। उसी तरह, जब कोई सत्पुरुष महाधनसंपत्ति प्राप्त करे… तब उसकी धनसंपत्ति बर्बाद नहीं होती, बल्कि किसी अच्छे काम आती है।

भूतिया जगह तालाब हो शीतल
बिना जल निकाले जो सूख जाए।
ऐसा धन हो नालायक पुरुष का
जो न स्वयं भोग करे, न दान करे।
किंतु धैर्यवान विद्वान हो — उसे जो भोग मिले
वह स्वयं भोग करे, दायित्व भी निभाए।
और वह मर्दाना — रिश्तेदारों को भी खिलाएँ,
तब अनिंदित रह स्वर्गिक स्थानों में भी जाए।”

«संयुत्तनिकाय ३:१९ + ३:२० : पुत्तकसुत्त»


“पूँजी जमाकर रखे पुरुष, भीतर गहरे जलस्तर तक
[सोचते हुए:] ‘ज़रूरत आए या ज़िम्मेदारी, देगी मदद भविष्य में!
जो धर ले राजा, या चोर करे पीड़ित,
कर्ज़, दुर्भिक्ष या आपदा, आएगा काम रिहाई में!’
— इसी अर्थ से छिपाई जाती, जमापूँजी इस लोक में।

किंतु रखे जितना सुरक्षित, भीतर गहरे जलस्तर तक
न आए मदद हमेशा, ज़रूरत आन पड़ने पर।
स्थान बदलती है पूँजी, या भरमा जाती है स्मृति।
अपना बना लेते नाग, या यक्ष चुरा लेते है।
अप्रिय दायाद हो अगर, ले उसे भाग जाता है।
या पुण्य ख़त्म हो जाने पर, स्वयं विनाश हो जाती है।

किंतु दान एवं शील की, संयम, स्वयं पर काबू की
पूँजी जमाकर रखे कोई, स्त्री अथवा पुरुष हो।
—चैत्य में या संघ में, किसी व्यक्ति या अतिथि में,
माता में या पिता में, या ज्येष्ठ भाई-बहन में—
वह पूँजी वाकई सुरक्षित! उसे न कोई छीन पाए।

लोक छोड़कर जाएँ जहाँ, साथ पीछे आ जाए।
पूँजी वह असाधारण है, चोर भी न चुरा पाए।
इसलिए पुण्य करें विद्वान, पीछे चलती वो पूँजी।
चाहत देव-मनुष्यों की सभी, पूर्ण करती वो पूँजी।”

«खुद्दकनिकाय ८ : निधिकण्डसुत्त»


ब्राह्मण जाणुस्सोणि भगवान के पास गया और नम्रतापूर्ण हालचाल लेकर एक-ओर बैठ गया। उसने बैठकर भगवान से कहा:

“हे गोतम! आप जानते हैं कि हम ब्राह्मण दान देते हैं, श्राद्ध करते हैं, [कहते हुए] ‘यह दान हमारे मृतपूर्वजों को प्राप्त हों! हमारे मृतपूर्वज इस दान का सेवन करें!’ किंतु, हे गोतम! क्या हमारे मृतपूर्वजों को इस तरह का दान प्राप्त होता है? क्या हमारे मृतपूर्वज इस तरह के दान का सेवन करते हैं?”

“स्थान पर प्राप्त होता है, ब्राह्मण, अस्थान पर नहीं।”

“क्या स्थान है, हे गोतम, और क्या अस्थान?”

“ऐसा होता है, ब्राह्मण, कि कोई व्यक्ति जीवहत्या, चोरी, या व्यभिचार करता है; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु या निरर्थक बातें करता है; लालची, दुर्भावनापूर्ण विचार या मिथ्यादृष्टि धारण [=दस अकुशल] करता है। वह मरणोपरांत नर्क… अथवा पशुयोनी में उत्पन्न होता है। वहाँ नारकीय सत्वों… अथवा पशुओं का जो आहार हो, उसी पर वह यापन करता है, उसी पर जीवित रहता है। इसलिए वे अस्थान हैं, ब्राह्मण! यहाँ से किया दान वहाँ रहते हुए प्राप्त नहीं होता है।

ऐसा भी होता है, ब्राह्मण कि कोई व्यक्ति जीवहत्या, चोरी, या व्यभिचार से विरत रहता है; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु या निरर्थक बातों से विरत रहता है; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण विचार, बल्कि सम्यकदृष्टि धारण [=दस कुशल] करता है। वह मरणोपरांत यहाँ मानवीय लोक… अथवा स्वर्ग में देवताओं के साथ उत्पन्न होता है। यहाँ मानवों… अथवा देवताओं का जो आहार हो, उसी पर वह यापन करता है, उसी पर जीवित रहता है। इसलिए वे भी अस्थान हैं, ब्राह्मण! यहाँ से किया दान वहाँ रहते हुए भी प्राप्त नहीं होता है।

किंतु ऐसा होता है, ब्राह्मण, कि कोई व्यक्ति जीवहत्या आदि [=दस अकुशल] करता है। वह मरणोपरांत भूखे प्रेतलोक में उत्पन्न होता है। अब उसे उद्देश्य कर उसके रिश्तेदार एवं मित्र दान देते हैं, वह उसी पर वहाँ यापन करता है, उसी पर जीवित रहता है। इसलिए वही स्थान हैं, ब्राह्मण! वही रहते दान प्राप्त होता है।”

“किंतु, हे गोतम! यदि उद्देश्य किया मृतपूर्वज स्थान [=प्रेतलोक] पर उत्पन्न न हुआ हो, तब उस दान का सेवन कौन करता है?”

“जो अन्य मृतपूर्वज वहाँ उत्पन्न हुए हो, वे उसका सेवन करते हैं।”

“यदि अन्य मृतपूर्वज भी स्थान पर उत्पन्न न हुए हो, तब उस दान का सेवन कौन करता है?”

“असंभव है, ब्राह्मण! ऐसा नहीं हो सकता कि दीर्घकाल में कोई भी अन्य मृतपूर्वज वहाँ न उत्पन्न हुआ हो। हालांकि ऐसा हो तब भी दाता निष्फ़ल नहीं जाता।”

“क्या गुरु गोतम अस्थान के लिए कोई तैयारी बताते है?”

“हाँ, ब्राह्मण! निश्चित ही मैं अस्थान के लिए तैयारी बताता हूँ। ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति जीवहत्या आदि [=दस अकुशल] करता है, और श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय, वस्त्र, वाहन, माला, गन्ध, लेप, पलंग, निवास, दीपक आदि दान करता है। तब वह मरणोपरांत हाथी… अश्व… गाय… भैंस… पालतू पशुपक्षी समूह में जन्म लेता है। उसे वहाँ भोजन, पेय, माला और नाना अलंकारों से आभुषित किया जाता है। चूंकि वह जीवहत्या आदि [दस अकुशल] करता था, इसलिए पशुयोनि में उत्पन्न होता है। और वह श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय आदि दान करता था, इसलिए भोजन, पेय, माला और नाना अलंकारों से आभुषित किया जाता है।

और ऐसा होता है कि एक व्यक्ति जीवहत्या आदि से विरत [दस कुशल] रहता है, और श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय आदि दान भी करता है। मरणोपरांत वह मानवों… या देवताओं में उत्पन्न होता है। वहाँ उसे मानवीय… या दिव्य पञ्चकामसुख प्राप्त होता है। चूंकि वह [दस कुशल] करता था, इसलिए मानवों… या देवताओं में उत्पन्न होता है। और वह श्रमण-ब्राह्मणों को भोजन, पेय आदि दान करता था, इसलिए उसे मानवीय… या दिव्य पञ्चकामसुख प्राप्त होता है।”

“आश्चर्य है, हे गोतम! अद्भुत है! दान करने का, श्राद्ध करने का यही कारण पर्याप्त है कि ‘दाता कभी निष्फ़ल नहीं जाता।’”

“ऐसा ही है, ब्राह्मण! ऐसा ही है! दाता कभी निष्फ़ल नहीं जाता।”

“अतिउत्तम, ही गोतम! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह गुरु गोतम ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की! गुरु गोतम मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

«अंगुत्तरनिकाय १०:१७७ : जाणुस्सोणिसुत्त»


पाँच स्वभाव त्यागे बिना, कोई भी प्रथम झान.. द्वितीय झान.. तृतीय झान.. चतुर्थ झान में प्रवेश पाकर नहीं रह सकता। तथा श्रोतापत्तिफ़ल… सकृदागामीफ़ल… अनागामीफ़ल… अर्हंतफ़ल का साक्षात्कार करने में असक्षम होता है। कौन से पाँच?

• आवास के प्रति कंजूसी,

• कुलपरिवार [दायक] के प्रति कंजूसी,

• प्राप्त वस्तुओं के प्रति कंजूसी,

• प्रतिष्ठा के प्रति कंजूसी, तथा

• धर्म के प्रति कंजूसी।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:२५६ + २५७ : पठमझानसुत्त »


मुखिया असिबन्धकपुत्र ने भगवान से कहा:

“भन्ते! क्या भगवान कुलपरिवारों के प्रति अनुकंपा, सुरक्षा और हमदर्दी की अनेक तरह से प्रशंसा नहीं करते हैं?”

“हाँ, मुखिया! तथागत कुलपरिवारों के प्रति अनुकंपा, सुरक्षा और हमदर्दी की अनेक तरह से प्रशंसा करते हैं।”

“तब भन्ते! नालंदा में पड़े दुर्भिक्ष के बीच, अभाव के समय, जब फ़सलें मुरझाकर सफ़ेद पड़कर पुआल में बदल रही हैं, भगवान महाभिक्षुसंघ के साथ कैसे विचरण कर रहे हैं? भगवान कुलपरिवारों को तबाह कर रहे हैं। भगवान कुलपरिवारों का अन्त कर रहे हैं। भगवान कुलपरिवारों को बर्बाद कर रहे हैं।”

“मुखिया! मैं बीते ९१ कल्पों का स्मरण कर एक भी कुलपरिवार नहीं जानता हूँ, जिसकी तबाही भोजनदान देने से हुई हो। उसी के ठीक विपरीत, आज जो भी कुलपरिवार महाधनी, महाभोगशाली, महासंपत्तिशाली हैं, अनेकानेक संपदाओं के स्वामी, विशाल मुद्राकोष धारक, अनेकानेक सामग्रीयों के मालिक, अनेकानेक उत्पाद भंडारों के स्वामी हैं — वे सभी मात्र ‘दान, सत्य एवं संयम’ के ही फ़लस्वरूप हैं।”

«संयुत्तनिकाय ४२:९ : कुलसुत्त»


कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा:

“भन्ते! दान कहाँ देना चाहिए?”

“जहाँ आस्था हो, महाराज!”

“किंतु, भन्ते! कहाँ देने से महाफ़ल होता है?”

“अब, महाराज! “दान कहाँ देना चाहिए?”— यह एक प्रश्न है। जबकि “कहाँ देने से महाफ़ल होता है?”— यह प्रश्न सर्वथा भिन्न है। तब मैं कहता हूँ कि दुष्शील के बजाय शीलवान को देने से महाफ़ल होता है।

इस प्रसंग में, महाराज, मैं प्रतिप्रश्न पूछता हूँ। आपको जैसा उचित लगे, उत्तर दे। क्या लगता है, महाराज? कभी ऐसा हो कि सिर पर युद्ध हो, संग्राम अटल हो। तब कोई क्षत्रिय युवक आए — न प्रशिक्षित, न अभ्यस्त, न अनुशासित, न कवायद किया हो। बल्कि डरपोक, आतंकित, कायर, तुरंत भाग खड़ा होने वाला हो! क्या आप उसे लेंगे? क्या आपको ऐसे पुरुष का कोई उपयोग होगा?”

“नहीं, भन्ते! मैं उसे नहीं लूंगा। मुझे ऐसे पुरुष का कोई उपयोग न होगा।”

“…या कोई ब्राह्मण युवक आए… वैश्य युवक आए… शुद्र युवक आए — न प्रशिक्षित, न अभ्यस्त, न अनुशासित, न कवायद किए हो। बल्कि डरपोक, आतंकित, कायर, तुरंत भाग खड़ा होने वाले हो। क्या आप उन्हें लेंगे? क्या आपको ऐसे पुरुषों का कोई उपयोग होगा?”

“नहीं, भन्ते! मैं उन्हें नहीं लूंगा। मुझे ऐसे पुरुषों का कोई उपयोग न होगा।”

“…किंतु यदि कोई क्षत्रिय… ब्राह्मण… वैश्य… अथवा शुद्र युवक आए — सुप्रशिक्षित, सुअभ्यस्त, सुअनुशासित, कवायद किया, निडर, न आतंकित, साहसी, तुरंत न भाग खड़ा होने वाला। क्या आप उन्हें लेंगे? क्या आपको ऐसे पुरुषों का कोई उपयोग होगा?”

“हाँ, भन्ते! उन्हें मैं लूंगा। ऐसे पुरुषों का मुझे उपयोग होगा।”

“उसी तरह, महाराज! कोई किसी भी कुल [वर्ण] से घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो** — किंतु पाँच अंगों का त्यागी, एवं पाँच अंगों से संपन्न हो — उसे जो दिया जाएँ, महाफ़ल होता हैं।

• कामेच्छा… दुर्भावना… सुस्ती एवं तंद्रा… बेचैनी एवं पश्चाताप… अनिश्चितता — इन पाँच अंगों [नीवरण] का त्यागी हो।

• अशैक्ष्यों [अर्हंतों] के शील… समाधि… अंतर्ज्ञान… विमुक्ति… विमुक्ति ज्ञानदर्शन संग्रह — इन पाँच अंगों से संपन्न हो।

ऐसे पंचाङ्ग त्यागी एवं पंचाङ्ग संपन्न को जो दिया जाएँ, महाफ़ल होता हैं।”

भगवान ने ऐसा कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“जिसमें बल हो, ऊर्जा हो, युवक तीरंदाज़ हो,
उसे ले युद्धार्थी राजा, न जाति देख किसी कायर को।
ऐसे ही क्षमा हो, धैर्य हो, आर्यधर्म प्रतिष्ठित हो,
भले हीन जाति का हो, पूजिएँ उस मेधावी को।
उस ज्ञानी को न्योता दें, आश्रम बनाएँ रमणीय,
सूखे वन में बनाएँ जलाशय, विकट जगह पथ चक्रमण।
दें प्रसन्न चित्त से, अन्न पान दें, खाद्य दें,
वस्त्र दें, आवास दें, उन्हें जो हो चुके सीधे।
जैसे गरजते मेघ हो, ओढ़े सौ-कोण बिजलीमाला,
बरसाती उपजाऊ थल पर, भर देती पठार नाला।
वैसे ही श्रद्धावान श्रुतवान, जमाएँ भोज भंडार को,
अन्नपान से तुष्ट करें, उस यात्री पण्डित को।
प्रमुदित होता बांट कर, ‘दो! उन्हें दो!’ कहता है,
वही है उसकी गर्जना, जैसे देव वर्षा कराते हैं।
ऐसी विपुल पुण्यधारा लौट, दायक पर बरसती है।”

«संयुत्तनिकाय ३:२४ : इस्सत्तसुत्त»


घुमक्कड़ वच्छगोत्र भगवान के पास गया और नम्रतापूर्ण हालचाल लेकर एक-ओर बैठ गया। उसने बैठकर भगवान से कहा:

“हे गोतम! मैंने सुना है — ‘श्रमण गोतम कहते हैं, “मुझे ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए को नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए शिष्यों को नहीं। मुझे ही दक्षिणा देने से महाफ़ल प्राप्त होता है, पराए को देने से नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा देने से महाफ़ल प्राप्त होता है, पराए शिष्यों को देने से नहीं।”’ — जो ऐसा कहते हो, क्या वे वाकई गुरु गोतम के ही शब्द उल्लेख करते हैं? कही वे तथ्यहीन शब्दों से तथागत का मिथ्यावर्णन तो नहीं करते? क्या वे धर्मानुरूप ही कहते हैं, ताकि सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की कोई बात न हो? चूंकि हमें गुरु गोतम का मिथ्यावर्णन नहीं करना है।”

“वच्छ! जो ऐसा कहते हो — ‘श्रमण गोतम कहते हैं, “मुझे ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए को नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा दी जानी चाहिए, पराए शिष्यों को नहीं। मुझे ही दक्षिणा देने से महाफ़ल प्राप्त होता है, पराए को देने से नहीं। मेरे शिष्यों को ही दक्षिणा देने से महाफ़ल प्राप्त होता है, पराए शिष्यों को देने से नहीं।”’ — वे वाकई मेरे शब्द उल्लेख नहीं करते हैं। वे तथ्यहीन एवं असत्य शब्दों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं।

वच्छ! जो किसी को दक्षिणा देने से रोकें, वह तीन बाधाएँ, तीन अवरोध उत्पन्न करता है। कौन से तीन?

• दायक के पुण्य में बाधा उत्पन्न करता है।

• प्राप्तकर्ता के लाभ में बाधा उत्पन्न करता है।

• उनसे पूर्व वह स्वयं को क्षतिग्रस्त करता है।

वच्छ! मैं कहता हूँ कि भले ही कोई पात्र या थाली के धोवन को गांव के कुंड या तालाब में फेंकते हुए सोचे, ‘यहाँ रहते जीव इसका सेवन करें’ — जब केवल इतना भी करना पुण्यस्त्रोत है, तो मानवों को देने की बात ही क्या! हालांकि मैं यह ज़रूर कहता हूँ कि शीलवान को दिया महाफ़ल होता है, दुष्शील को उतना नहीं।”

«अंगुत्तरनिकाय ३:५८ : वच्छगोत्तसुत्त»


“तीन अग्र आस्थाएँ होती हैं। कौन से तीन?

• जितने सत्व हैं — बेपैर, दोपैर, चारपैर या बहुपैर; रूप या अरूप; संज्ञी, असंज्ञी या नसंज्ञी-नअसंज्ञी — सभी में ‘तथागत अर्हंत सम्यकसम्बुद्ध’ अग्र हैं! जिसकी बुद्ध में आस्था हो, उसकी अग्र में आस्था है। जिसकी अग्र में आस्था हो, उसे अग्रफ़ल मिलता है।

• जितने रचित या अरचित धर्म हैं — सभी में अग्र ‘विराग’ है, जो नशा उतारे, प्यास बुझाए, आसक्ति उखाड़े, चक्र तोड़े, तृष्णा मिटाए, विराग निरोध निर्वाण का साक्षात्कार कराए। जिसकी विराग में आस्था हो, उसकी अग्र में आस्था है। जिसकी अग्र में आस्था हो, उसे अग्रफ़ल मिलता है।

• जितने संघ अथवा गुट हैं — सभी में अग्र ‘तथागत का श्रावकसंघ’ है, चार जोड़ी में, आठ व्यक्तित्व में। जिसकी संघ में आस्था हो, उसकी अग्र में आस्था है। जिसकी अग्र में आस्था हो, उसे अग्रफ़ल मिलता है।

जो अग्र में प्रसन्न हो, अग्रधर्म बोध करते हैं।
प्रसन्न अग्र बुद्ध में — दक्षिणेय अनुत्तर!
प्रसन्न अग्र धर्म में — प्रशान्त सुखद विराग!
प्रसन्न अग्र संघ में — पुण्यक्षेत्र अनुत्तर!

वे अग्र [वस्तुओं] का दान कर, अग्र पुण्य बढ़ाते हैं,
अग्र — आयु सौंदर्य यश कीर्ति सुख एवं बल!
अग्रदाता मेधावी, अग्र धर्म में समाहित हुए,
देव बने या मानव, अग्रता पाकर खुशी मनाते हैं।”

«इतिवुत्तक ९० : अग्गप्पसादसुत्त»


दान दो तरह से होता है — आमिषदान [=सांसारिक वस्तुगत] एवं धर्मदान। दोनों में अग्र है — धर्मदान!

संविभाग [बांटना] दो तरह से होता है — आमिष-संविभाग एवं धर्म-संविभाग। दोनों में अग्र है — धर्म-संविभाग!

सहायता दो तरह से होती है — आमिष-सहायता एवं धर्म-सहायता। दोनों में अग्र है — धर्म-सहायता!”

«इतिवुत्तक ९८ : दानसुत्त»


“आनंद! दूसरे को धर्मदेशना देना सरल नहीं है। दूसरे को धर्मदेशना तभी देना चाहिए, जब भीतर पाँच गुण मौजूद हो। कौन से पाँच?

• ‘«अनुपुब्बिकथं» अनुक्रमपूर्ण 12 धर्म बताऊँगा।’

• ‘अनुक्रम का [प्रासंगिक] वर्णन करूँगा।’

• ‘करुणचित्त से बताऊँगा।’

• ‘आमिषलाभ के लक्ष्य से नहीं बताऊँगा।’

• ‘न स्वयं पर, न पराए पर आघात पहुँचाते हुए बताऊँगा।’”

«अंगुत्तरनिकाय ५:१५९ : उदायीसुत्त»


[एक देवता:]

“क्या देने वाला बल देता है?
क्या देने वाला सौंदर्य?
क्या देने वाला सुख देता है?
क्या देने वाला चक्षु?
और क्या देने वाला सब देता है?
पूछता हूँ, बताएँ मुझे।”

[भगवान:]

“अन्न देने वाला बल देता है।
वस्त्र देने वाला सौंदर्य।
गाड़ी [सवारी] देने वाला सुख देता है।
दीपक देने वाला चक्षु।
और जो देता आवास है,
वह देता है ‘सब कुछ’!
अमृत मात्र वह देता है,
जो देता है ‘धर्म’!”

«संयुत्तनिकाय १:४२ : किंददसुत्त»


📋 सूची | अध्याय पाँच »


  1. कंजूस व्यक्ति को लगता है कि दान देने से वह स्वयं गरीब हो जाएगा, या उसका दिया अच्छे उपयोग में नहीं आएगा, या उसका दिया बर्बाद हो जाएगा, या भविष्य में जरूरत पड़ने पर उसके लिए नहीं बचेगा। लेकिन, वास्तव में, दान नहीं देने से वह स्वयं गरीब होने लगता है, उसका न दिया अच्छे उपयोग में नहीं आता, या बर्बाद हो जाता है, और भविष्य में जरूरत पड़ने पर उसके लिए नहीं बचता है। अर्थात्, जो खतरे देखकर वह दान करने से हिचकिचाता है, वही खतरे उसपर टूट पड़ने लगते हैं। उसके ठीक विपरीत, दान देने से उसकी संपत्ति बढ़ती जाती है, उसका दिया अच्छे उपयोग में आता है, बर्बाद नहीं होता है। और दान देने से उसे भविष्य में मदद मिलती है। ↩︎

  2. निचले स्तर के सत्वों का चित्त लोभी और स्वार्थी होता है। जब कोई लोभ और स्वार्थ से ध्यान हटाकर, किसी काम का नैतिक मूल्य सही ढंग से निर्धारित करता है, तो वह “तैतीस देवताओं” की श्रेणी में आता है। अर्थात्, अब उसके लिए स्वार्थ उतना महत्वपूर्ण नहीं रहता है, जितना कि निस्वार्थ भलाई करना। ↩︎

  3. कई लोगों में विद्रोह-भाव अधिक होता है। वे मन चाहे तो भलाई करेंगे, नहीं तो नहीं। लेकिन अब वे अपनी मर्ज़ी से नहीं चलते, बल्कि संयम से रहते हैं। भीतर के असंतोष को शान्त करना चित्त को एक नई ऊँचाई प्रदान करता है। इसलिए वे संयम से रहने वाले “याम देवताओं” की श्रेणी में आते हैं। ↩︎

  4. अर्थात्, अब उसे विषमता (आर्थिक या सामाजिक) बुरी लगती है। तथा वह समता के प्रति दायित्व का बोध करता है। पराए को अभाव में देख, उसे मदद करने से दायित्व पूरा होने की तुष्टि मिलती है, इसलिए वह “तुषित देवताओं” की श्रेणी में आता है। ↩︎

  5. यज्ञ का प्राचीन अर्थ “दान-संविभाग कार्यक्रम” था। यानी, कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का अधिकांश हिस्सा देवताओं और जनता को दान कर देता था। ऐसा केवल धार्मिक राजा या दयालु गृहस्थ ही कर सकते थे। ऐसा असीम रूप से बांटने वाला चित्त “निर्माणरति देवताओं” की श्रेणी में आता है, जिन्हें सृष्टि का निर्माण करने जैसी दिव्य शक्तियां प्राप्त होती हैं। ↩︎

  6. अर्थात्, जो व्यक्ति स्वानुभूति से जानता है कि उसके चित्त एवं मन पर दान का क्या प्रभाव पड़ता है, वह अंतर्ज्ञानी दानी कहलाता है। उसे फलस्वरूप निर्मित सृष्टि एवं दूसरों के मानस को नियंत्रित करने वाली शक्तियां प्राप्त होती हैं। ↩︎

  7. अर्थात्, जो व्यक्ति स्वानुभूति और अंतर्ज्ञान से जानता है कि दान देना दरअसल आध्यात्मिक उन्नति कराता है, जो सर्वोपरि है। तब उसे दान के भौतिक प्रतिफल, जैसे दुनिया की मोहक वस्तुएँ (आमिष), भोग-संपदा या सत्ता का आकर्षण नहीं रह जाता है। ऐसे हीन आधारों (उपादान) को छोड़ देने पर वह पुनः कामलोक नहीं लौटता, बल्कि ब्रह्मलोक जाकर वही परिनिर्वाण को प्राप्त होता है। ↩︎

  8. अर्थात्, यदि कोई (चोर, डकैत या भ्रष्टाचारी) पराए को लूटकर उसका दान करे, तो उस दान का फ़ल मिलने के पश्चात बर्बाद हो जाएगा। ↩︎

  9. अर्थात्, चंदा देने वाले नीचे रह जाते हैं, जबकि चंदा जमाकर स्वयं अपने हाथ से देने वाले ऊपर। ↩︎

  10. प्रत्येकबुद्ध अर्थात् अकेले बुद्ध — जो बिना किसी गुरु मार्गदर्शन के चार आर्यसत्य स्वयं खोज लेते हैं, और साक्षात्कार कर विमुक्त होते हैं। किंतु जो “धर्मचक्र प्रवर्तित नहीं करते हैं”, अर्थात् संघ की स्थापना नहीं करते। वे अल्पमात्र शिष्यों के साथ अथवा अकेला ही विचरण करते हुए अंततः परिनिर्वृत्त होते हैं। वे इस लोक के लिए महापुण्यक्षेत्र होते हैं। ↩︎

  11. पञ्चकामसुख अर्थात्, आँख पर टकराता रूप — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना रहे, कामुकता से जुड़ा हो। कान पर टकराती आवाज़… नाक पर टकराती गन्ध… जीभ पर टकराता स्वाद… शरीर पर टकराता संस्पर्श — जो मनचाहा हो, सुखद लगे, मोहक हो, प्रिय लगे, लुभावना रहे, कामुकता से जुड़ा हो। ↩︎

  12. अनुक्रमपूर्ण अर्थात् प्रथम दान की बातें.. शील की बातें.. स्वर्ग की बातें.. कामुकता के दुष्परिणाम, पतन एवं दूषितता बताकर, तब ‘संन्यास के लाभ’ प्रकाशित करना। तब देखा जाने पर कि श्रोता का चित्त — तैयार, मृदु, बिना व्यवधान का, उल्लासित एवं आश्वस्त हुआ हो — तब बुद्धविशेष धर्मदेशना उजागर करना — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग [=चार आर्यसत्य]। ↩︎