नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय पाँच

शील



भगवान ने कहा:

पाँच तरह के दान — महादान है, आदिम है, सनातन है, पारंपरिक है, पुरातन है, मिलावट-रहित है, प्रारंभ से मिलावट-रहित है, संदेह-रहित है, संदेह-रहित ही रहेंगे, विद्वान श्रमणों एवं ब्राह्मणों द्वारा निर्दोष कहे जाते हैं। कौन से पाँच?

कोई आर्यश्रावक हिंसा त्यागकर, जीवहत्या से विरत रहता है। ऐसा कर वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, एवं पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, एवं पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर स्वयं ख़तरे, शत्रुता एवं पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।

कोई आर्यश्रावक न सौंपी चीज़ें त्यागकर, चोरी से विरत रहता है…

कोई आर्यश्रावक कामुक-मिथ्याचार त्यागकर, व्यभिचार से विरत रहता है…

कोई आर्यश्रावक झूठ बोलना त्यागकर, असत्यवचन से विरत रहता है…

कोई आर्यश्रावक शराब मद्य आदि त्यागकर, मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है। ऐसा कर वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, एवं पीड़ा से मुक्ति प्रदान करता है। वह असंख्य सत्वों को ख़तरे से मुक्ति, शत्रुता से मुक्ति, एवं पीड़ा से मुक्ति प्रदान कर स्वयं ख़तरे, शत्रुता एवं पीड़ा से असीम मुक्ति में भागीदार बनता है।

यह पाँच तरह के दान — महादान है, आदिम है, सनातन है, पारंपरिक है, पुरातन है, मिलावटरहित है, प्रारंभ से मिलावटरहित है, संदेहरहित है, संदेहरहित ही रहेंगे, विद्वान श्रमणों एवं ब्राह्मणों द्वारा निर्दोष कहे जाते हैं।”

«अंगुत्तरनिकाय ८:३९ : अभिसन्दसुत्त»


“अकुशल क्या है?

जीवहत्या अकुशल है। चुराना अकुशल है। व्यभिचार अकुशल है।

झूठ बोलना अकुशल है। फूट डालनेवाली बातें करना अकुशल है। कटु बोलना अकुशल है। निरर्थक बोलना अकुशल है।

लालच अकुशल है। दुर्भावना अकुशल है। मिथ्यादृष्टि अकुशल है।


कुशल क्या है?

जीवहत्या से विरत रहना कुशल है। चुराने से विरत रहना कुशल है। व्यभिचार से विरत रहना कुशल है।

झूठ बोलने से विरत रहना कुशल है। फूट डालनेवाली बातें करने से विरत रहना कुशल है। कटु बोलने से विरत रहना कुशल है। निरर्थक बोलने से विरत रहना कुशल है।

लालच से विरत रहना कुशल है। दुर्भावना से विरत रहना कुशल है। सम्यकदृष्टि कुशल है।”

«मज्झिमनिकाय ९ : सम्मादिट्ठिसुत्त»


“न प्राण हरें, न घात करें, न घात पराए से स्वीकार करें,
स्थिर, कमज़ोर – सभी जीवों के प्रति, दण्ड नीचे फेंक दें।
‘न सौंपी’ वस्तु कहीं कोई, श्रावक जानकर छोड़ दें,
न करवाएँ, न स्वीकार करें – सभी चोरियां त्याग करें।
अब्रह्मचर्य छोड़ दें ज्ञानी, जैसे हो धधकते अँगारे।
ब्रह्मचर्य यदि असंभव हो, तब परस्त्रीगमन ना करें।
सभा हो या परिषद, या एक हो, झूठ न बोल रे,
न बुलवाएँ, न स्वीकार करें – सभी असत्य त्याग दें।
मद्यपान न सेवन करें, ये धर्म जो गृहस्थ मंज़ूर करे,
न पिलाएँ, न स्वीकार करें, जान अन्त हो उन्माद में।
पाप करे मूर्ख धुत नशे में, मदहोश जनों से करवाए,
इस अपुण्यद्वार से दूर रहें, उन्माद-भ्रम मूर्खों को ललचाए।”

«सुत्तनिपात २:१४ : धम्मिकसुत्त»


कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा:

“अभी, भन्ते! मैं एकांतवास में अकेला था, तब मेरे चित्त में विचारों की श्रृंखला उठी — ‘कौन स्वयं को रक्षित करता है, और कौन स्वयं को अरक्षित?’

तब मुझे लगा, ‘जो काया से दुराचार, वाणी से दुराचार, एवं मन से दुराचार करते हैं — वे स्वयं को अरक्षित रखते हैं। भले ही उनकी रक्षा के लिए हाथीसेना की टुकड़ी, अश्वरोहीसेना की टुकड़ी, रथसेना की टुकड़ी, पैदलसेना की टुकड़ी तैनात की गई हो, तब भी वे असुरक्षित ही हैं। क्योंकि वह बाहरी सुरक्षा है, भीतरी नहीं। इसलिए वे असुरक्षित ही हैं।

किंतु जो काया से सदाचार, वाणी से सदाचार, एवं मन से सदाचार करते हैं — वे स्वयं को रक्षित रखते हैं। भले ही उनकी रक्षा के लिए न हाथीसेना की टुकड़ी, न अश्वरोहीसेना की टुकड़ी, न रथसेना की टुकड़ी, न पैदलसेना की टुकड़ी तैनात की गई हो, तब भी वे सुरक्षित ही हैं। क्योंकि वह भीतरी सुरक्षा है, बाहरी नहीं। इसलिए वे वाकई सुरक्षित हैं।’”

[भगवान:]

“ऐसा ही है, महाराज! ऐसा ही है! ‘जो काया से दुराचार, वाणी से दुराचार, एवं मन से दुराचार करते हैं — वे स्वयं को अरक्षित रखते हैं। भले ही उनकी रक्षा के लिए हाथीसेना की टुकड़ी, अश्वरोहीसेना की टुकड़ी, रथसेना की टुकड़ी, पैदलसेना की टुकड़ी तैनात की गई हो, तब भी वे असुरक्षित ही हैं। क्योंकि वह बाहरी सुरक्षा है, भीतरी नहीं। इसलिए वे असुरक्षित ही हैं।

किंतु जो काया से सदाचार, वाणी से सदाचार, एवं मन से सदाचार करते हैं — वे स्वयं को रक्षित रखते हैं। भले ही उनकी रक्षा के लिए न हाथीसेना की टुकड़ी, न अश्वरोहीसेना की टुकड़ी, न रथसेना की टुकड़ी, न पैदलसेना की टुकड़ी तैनात की गई हो, तब भी वे सुरक्षित ही हैं। क्योंकि वह भीतरी सुरक्षा है, बाहरी नहीं। इसलिए वे वाकई सुरक्षित हैं।’”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“कायेन संवरो साधु,
साधु वाचाय संवरो।
मनसा संवरो साधु,
साधु सब्बत्थ संवरो।
सब्बत्थ संवुतो लज्जी,
रक्खितोति पवुच्चती”

काया से संवर है भला,
भला है वाणी से संवर।
मन से संवर है भला,
भला है सर्वत्र संवर।
जो सर्वत्र संवृत शर्मिला,
‘रक्षित’ है कहलाता।

«संयुत्तनिकाय ३:५ : अत्तरक्खितसुत्त»


उदकञ्हि नयन्ति नेत्तिका,
उसुकारा नमयन्ति तेजनं।
दारुं नमयन्ति तच्छका,
अत्तानं दमयन्ति सुब्बता।।

जलप्रवाह निकाले सिंचक,
बाणकार तीर को धार दे।
काष्ठ को आकार दे बढ़ई,
संवृत स्वयं को वश में करे।

«धम्मपद दण्डवग्गो १४५»

उट्ठानेनप्पमादेन,
संयमेन दमेन च।
दीपं कयिराथ मेधावी,
यं ओघो नाभिकीरति।।

प्रयास से, अप्रमाद से,
संयम से, आत्मवश से,
द्वीप गढ़ते मेधावी,
न डूब सके जो बाढ़ से।

«धम्मपद अप्पमादवग्गो २५»


कौशल-नरेश प्रसेनजित ने एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा:

“अभी भन्ते! मैं दरबार में न्याय करने बैठा था तो देखा महासंपन्न क्षत्रिय, महासंपन्न ब्राह्मण, महासंपन्न वैश्य गृहस्थ — महाधनी, महाभोग महासंपत्तिशाली, विराट स्वर्ण एवं मुद्राकोष के धारक, विशाल सामग्रीभंडार, उत्पादभंडार के स्वामी — मात्र कामुकता के कारण, कामुकता के स्त्रोत एवं परिणामस्वरूप, जिसकी वजह केवल कामुकता ही है कि जानबुझकर झूठ बोलते हैं। तब मुझे विचार आया: ‘बहुत फैसलें कर लिया मैं! चलो, कोई अन्य भला मानुष न्याय के लिए जाना जाएँ!’”

“ऐसा ही होता है, महाराज! ऐसा ही होता है! महासंपन्न क्षत्रिय, महासंपन्न ब्राह्मण, महासंपन्न वैश्य गृहस्थ… कामुकता के कारण जानबुझकर झूठ बोलते हैं। जो उन्हें भविष्य में दीर्घकालीन अहित एवं दुःख की ओर ले जाएगा।”

ऐसा भगवान ने कहा। ऐसा कहकर सुगत ने, शास्ता ने आगे कहा:

“लालची कामसुख में मगन हो,
कामुकता में बेहोश हो।
आगे बढ़े, न बोध हो,
जैसे जाल में बढ़ती मछली हो।
फ़ल पक जाए जब पाप का,
पश्चात बहुत ही कड़वा हो।”

«संयुत्तनिकाय ३:७ : अड्डकरणसुत्त»


“एकधम्मं अतीतस्स,
मुसावादिस्स जन्तुनो।
वितिण्णपरलोकस्स,
नत्थि पापं अकारिय।।”

एक धर्म में अतिक्रमण
— झूठ बोले व्यक्ति जो।
लांघ चिंता परलोक की,
कोई पाप नहीं जो करे न वो।

«इतिवुत्तक २५ : मुसावादसुत्त»


पाँच तरह से बर्बादी होती है —

सगेसंबन्धी की बर्बादी।

संपत्ति की बर्बादी।

रोग से बर्बादी

शील बर्बादी

दृष्टि बर्बादी।

इनमें से सगेसंबन्धी, संपत्ति एवं रोग से बर्बादी के कारण सत्व मरणोपरांत यातनालोक नर्क में नहीं उपजते हैं। किंतु शील एवं दृष्टि की बर्बादी के कारण सत्व यातनालोक नर्क में उपजते हैं।

पाँच तरह से संपन्नता होती हैं।

सगेसंबन्धी से संपन्न

संपत्ति संपन्न

आरोग्य संपन्न

शील संपन्न

दृष्टि संपन्न।

इनमें से सगेसंबन्धी, संपत्ति एवं आरोग्य संपन्नता के कारण सत्व मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में नहीं उपजते हैं। किंतु शील एवं दृष्टि संपन्नता के कारण सत्व सद्गति होकर स्वर्ग में उपजते हैं।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:१३० : ब्यसनसुत्त»


“शीलवान, शीलसम्पन्न होने के पाँच ईनाम हैं —

ऐसा होता है कि कोई शीलवान, शीलसम्पन्न व्यक्ति अपने कार्य में अप्रमत्त [लापरवाह न] होने के कारण बड़ी मात्रा में धनसंपत्ति एकत्र करता है…

उसकी सुयश कीर्ति फैलती है…

वह क्षत्रियसभा, ब्राह्मणसभा, वैश्यसभा या श्रमणसभा में जाते हुए शर्मिंदा नहीं, बल्कि आत्मविश्वास के साथ जाता है।

उसकी मृत्यु उन्माद-रहित होती है।

मरणोपरांत सद्गति होकर, वह स्वर्ग में उपजता है।”

«दीघनिकाय १६ : महापरिनिब्बाणसुत्त»


“तीन तरह से सुखकामना करने वाले धैर्यवान को अपने शील की रक्षा करनी चाहिए। कौन से तीन?

‘मुझे प्रशंसा मिले!’ [सोचते हुए]…

‘मुझे भोगसंपदा मिले!’ [सोचते हुए]…

‘मुझे मरणोपरांत स्वर्ग मिले!’ [सोचते हुए] धैर्यवान को अपने शील की रक्षा करनी चाहिए।

शीलरक्षा करें मेधावी, तीन सुख की कामना में
— प्रशंसा, लाभ संपत्ति, पश्चात खुशियां स्वर्ग में।
भले पाप न स्वयं करे, किंतु पापी के साथ जो,
उस पर भी पापशंका हो, हो जाती है बदनामी।
जैसा मित्र आप बनाते, साथ जिसका करते हो,
वैसे आप बनते जाए, संगत आप की जैसी हो।
जैसा साथ रहे सहवासी, छूनेवाला छूता जो,
जैसे तीर हो विषबुझा, बनाए विषैला तरकश वो।
धैर्यवान विष से भय खाएँ, न मित्र बनाए पापी को।
कुशघास में जो पुरुष, लपेट दे सड़ी मछली को,
बदबू फैलाती है कुश, वैसे साथ ले जो मूर्ख को।
किंतु पत्ती में पुरुष, लपेट दे चंदनचूर्ण जो,
सुगन्ध फैलाती है पत्ती, वैसे साथ ले जो ज्ञानी को।
जान लें इसलिए जैसा, लपेटने का नतीजा हो,
असन्त के न साथ रहें, सन्त का साथ ज्ञानी करे।
असन्त ले जाता नर्क, सद्गति में सन्त साथ रहे।”

«इतिवुत्तक ७६ : सुखपत्थनासुत्त»


कोई आत्महित में कैसे चलता है, किंतु परहित में नहीं?

ऐसा होता है कि कोई स्वयं जीवहत्या से विरत रहता है, किंतु अन्य को जीवहत्या से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। वह स्वयं चोरी से विरत रहता है, किंतु अन्य को चोरी से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। वह स्वयं व्यभिचार से विरत रहता है, किंतु अन्य को व्यभिचार से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। वह स्वयं झूठ बोलने से विरत रहता है, किंतु अन्य को झूठ बोलने से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। वह स्वयं शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है, किंतु अन्य को शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित नहीं करता। इस तरह कोई आत्महित में चलता है, किंतु परहित में नहीं।


और कोई आत्महित में नहीं, बल्कि परहित में कैसे चलता है?

ऐसा होता है कि कोई स्वयं जीवहत्या से विरत नहीं रहता, किंतु अन्य को जीवहत्या से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। वह स्वयं चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने… नशेपते से विरत नहीं रहता, किंतु अन्य को चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने… नशेपते से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस तरह कोई आत्महित में नहीं, किंतु परहित में चलता है।


और कोई न आत्महित में, न ही परहित में कैसे चलता है?

ऐसा होता है कि कोई न स्वयं जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने… नशेपते से विरत रहता है, न ही अन्य को जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने… नशेपते से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस तरह कोई न आत्महित में चलता है, न ही परहित में।


और कोई आत्महित में, और साथ ही, परहित में कैसे चलता है?

ऐसा होता है कि कोई स्वयं जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने…नशेपते से विरत रहता है, और अन्य को भी जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने… नशेपते से विरत रहने के लिए प्रोत्साहित करता है। इस तरह कोई आत्महित में, और साथ ही, परहित में भी चलता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ४:९९ : सिक्खापदसुत्त»


मिथ्याधारणाओं का खंडन

“मुखिया! कोई ऐसे श्रमण ब्राह्मण हैं, जिनकी धारणा होती हैं, दृष्टि होती हैं कि ‘जो जीवहत्या करते हैं… चोरी करते हैं… व्यभिचार करते हैं… झूठ बोलते हैं — सभी इसी जीवन में दुःख एवं पीड़ा का अनुभव करते हैं।’

किंतु ऐसा भी होता है कि कोई पुरूष देखा जाता है — माला अलंकार पहने, सुस्नान कर श्रृंगार किए, केशदाढ़ी काट, स्त्रीकामसुख का लुत्फ़ उठाते, जैसे राजा हो। उसे देखकर लोग पुछते हैं, “ओ जनाब! इस पुरुष ने ऐसा क्या कर दिया, जो माला अलंकार पहने… लुत्फ़ उठा रहा है, जैसे राजा हो?” तब जवाब मिलता है, “ओ जनाब! इस पुरुष ने राजशत्रु पर हमला कर उसकी जान ले ली… या राजशत्रु पर हमला कर ख़ज़ाना लूट लाया… या राजशत्रु की पत्नियों को मोह लिया… या अपने मिथ्यावचन से राजा को हंसाया — तब राजा ने प्रसन्न होकर उसे ईनाम दिया है। इसलिए माला अलंकार पहने… लुत्फ़ उठा रहा है, जैसे राजा हो।”

और ऐसा भी होता है कि कोई पुरुष देखा जाता है — हाथ पीछे कड़ी रस्सी से बांधे हुए, सिर मुंडवाकर नगाड़े की तेज आवाज़ पर गली-गली, चौराहे-चौराहे प्रयाण करवाते हुए दक्षिणद्वार से निकालकर, उसका सिर कलम कर दिया जाता है। उसे देखकर लोग पुछते हैं, “ओ जनाब! इस पुरुष ने ऐसा क्या कर दिया, जो हाथ पीछे कड़ी रस्सी से बांधे… उसका सिर कलम कर दिया?” तब जवाब मिलता है, “ओ जनाब! इस राजशत्रू पुरुष ने किसी स्त्री या पुरुष की जान ले ली… या गांव या जंगल से चुराकर चोरी को अंजाम दिया… या अच्छे कुलपरिवार की बहु-बेटियों को मोह लिया… या झूठ बोलकर किसी कुलपति या कुलपुत्र का अनर्थ कर दिया। इसलिए शासक ने उसे धरकर ऐसा दण्ड थोप दिया है।” तो मुखिया, तुम्हें क्या लगता है? क्या तुमने ऐसी घटनाएँ देखी है अथवा सुनी है?”

“मैने ऐसा देखा है, भन्ते! ऐसा सुना भी है। और ऐसा आगे भी सुनने मिलेगा।”

“तब, मुखिया! जो ऐसे श्रमण ब्राह्मण हैं, जिनकी धारणा होती है, दृष्टि होती हैं कि ‘जो जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलते हैं — सभी इसी जीवन में दुःख एवं पीड़ा का अनुभव करते हैं।’ — वे सत्य कहते हैं अथवा असत्य?”

“असत्य, भन्ते! 1

«संयुत्तनिकाय ४२:१३ : पाटलियसुत्त»


मुखिया असिबन्धकपुत्र, निगण्ठ [जैन] शिष्य भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। भगवान ने कहा:

“मुखिया! निगण्ठ नाटपुत्र [महावीर जैन] अपने शिष्यों को कैसे धर्म सिखाते है?”

“भन्ते! निगण्ठ नाटपुत्र अपने शिष्यों को ऐसे धर्म सिखाते है: ‘जो भी जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलते हैं — सभी यातनालोक जाते हैं, नर्क जाते हैं। जो जैसे बार-बार करे, वैसी ही नियति [तक़दीर] होती है।’ निगण्ठ नाटपुत्र अपने शिष्यों को ऐसे धर्म सिखाते है।”

“‘जो जैसे बार-बार करे, वैसे ही नियति होती है’ — यदि यह सत्य है तो निगण्ठ नाटपुत्र के शब्दोनुसार कोई भी यातनालोक न जाएँ, नर्क न जाएँ। तुम्हें क्या लगता है, मुखिया? कोई जीवहत्या करता हो, उसका दिन-रात समय व्यतीत करना देखे तो क्या करने में अधिक समय बीतता होगा — जीवहत्या करने में अथवा न करने में?”

“जीवहत्या करने में कम समय बीतता होगा, भन्ते! जीवहत्या न करने में निश्चित ही अधिक समय बीतता होगा।”

“तब ‘जो जैसे बार-बार करे, वैसे ही नियति होती है’ — यदि सत्य है तो निगण्ठ नाटपुत्र के शब्दोनुसार कोई भी यातनालोक न जाएँ, नर्क न जाएँ। तुम्हें क्या लगता है, मुखिया? कोई चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलता हो, उसका दिन-रात समय व्यतीत करना देखे तो क्या करने में अधिक समय बीतता होगा — चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने में अथवा न बोलने में?”

“चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलने में कम समय बीतता होगा, भन्ते! न बोलने में निश्चित ही अधिक समय बीतता होगा।”

“तब ‘जो जैसे बार-बार करे, वैसे ही नियति होती है’ — यदि सत्य है तो निगण्ठ नाटपुत्र के शब्दोनुसार कोई भी यातनालोक न जाएँ, नर्क न जाएँ।

ऐसा होता है मुखिया कि किसी गुरु की ऐसी धारणा एवं दृष्टि होती है — ‘जो भी जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलते हैं — सभी यातनालोक जाते हैं, नर्क जाते हैं।’ तब जो शिष्य उस गुरु पर आस्था रखता हो, उसे लगता है — ‘हमारे गुरु कहते हैं कि जो भी जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलते हैं — सभी यातनालोक जाते हैं, नर्क जाते हैं।’मैंने भी जीवहत्या की है… चोरी की है… व्यभिचार किया है… झूठ बोला है। तब मैं भी यातनालोक के लिए नियत हूँ, नर्क के लिए नियत हूँ।’ वह इस दृष्टि को पकड़ लेता है। यदि वह उस धारणा को न त्यागे, उस चित्तावस्था को न त्यागे, उस दृष्टि का परित्याग न करे तो जैसे कोई जबरन खींच ले जाता है, वैसे ही उसे नर्क में ले जाकर रख दिया जाएगा।

ऐसा होता है, मुखिया! इस लोक में तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध उत्पन्न होते हैं। वे जीवहत्या की… चोरी की… व्यभिचार की… झूठ बोलने की अनेक तरह से निंदा करते हैं, आलोचना करते हैं, [कहते हुए] ‘जीवहत्या से… चोरी से… व्यभिचार से… झूठ बोलने से विरत रहें!’ तब जो शिष्य तथागत पर आस्था रखता हो, उसे लगता है — ‘हमारे शास्ता जीवहत्या की… चोरी की… व्यभिचार की… झूठ बोलने की अनेक तरह से निंदा करते हैं, आलोचना करते हैं, [कहते हुए] ‘जीवहत्या से… चोरी से… व्यभिचार से… झूठ बोलने से विरत रहें!’मैंने भी छोटी-बड़ी मात्रा में जीवहत्या की है… चोरी की है… व्यभिचार किया है… झूठ बोला है। वह सही नहीं था, अच्छा नहीं था! किंतु यदि मैं उस कारणवश ग्लानि [पश्चाताप] से भर जाऊँ, तब भी मेरा पापकृत्य मिटेगा नहीं’ — वह ऐसा चिंतन कर उसी समय उसी जगह जीवहत्या… चोरी… व्यभिचार… झूठ बोलना त्याग देता है, तथा भविष्य में संयम बरतता है। इस तरह पापकृत्य का परित्याग होता है, पापकृत्य लांघा जाता है। 2

«संयुत्तनिकाय ४२:८ : सङखधमसुत्त»


मुखिया असिबन्धकपुत्र भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। उसने बैठते हुए कहा:

“भन्ते, पश्चिमवर्ती इलाके में ब्राह्मण रहते हैं — कमंडलधारी, शैवालमाला पहने, जलशुद्धि एवं अग्निपूजा करने वाले। वे मृत व्यक्ति को उठाकर, निर्देश देकर स्वर्ग तक भेज देते हैं। तब ‘भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ तो निश्चित ऐसी व्यवस्था कर सकते होंगे कि ‘संपूर्ण दुनिया’ मरणोपरांत स्वर्ग में उत्पन्न हो?”

“अच्छा, मुखिया! मैं तुम्हें प्रतिप्रश्न करता हूँ। जैसे उचित लगे, उत्तर दो। ऐसा कोई हो जो जीवहत्या, चोरी एवं व्यभिचार करें; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु एवं निरर्थक बातें करें; लालची, दुर्भावनापूर्ण हो एवं मिथ्यादृष्टि धारण करें [=दस अकुशल]। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा होकर उसकी परिक्रमा करें, हाथ जोड़कर प्रार्थना-प्रशंसा करते हुए — “यह मरणोपरांत स्वर्ग में उपजे!” तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पापी इस तरह भीड़ द्वारा हाथ जोड़कर प्रार्थना-प्रशंसा करने पर स्वर्ग उपजेगा?”

“नहीं, भन्ते!”

“कल्पना करो कि कोई पुरुष एक बड़ी चट्टान को गहरे तालाब में डाल दे। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा होकर उसकी परिक्रमा करें, हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हुए — “हे चट्टान, उठो! हे चट्टान, तरंगते हुए ऊपर आओ! हे चट्टान, तैरते हुए किनारे लगो!” तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह चट्टान भीड़ द्वारा प्रार्थना-प्रशंसा करने पर उठेगी, तरंगते हुए ऊपर आएगी और तैरते हुए किनारे लगेगी?”

“नहीं, भन्ते!”

“उसी तरह मुखिया! जो जीवहत्या आदि [दस अकुशल] करें, तब भले ही भीड़ इकठ्ठा होकर.. प्रार्थना-प्रशंसा परिक्रमा करें.. तब भी वह पापी यातनालोक नर्क में ही उपजेगा!

किंतु ऐसा कोई हो जो जीवहत्या, चोरी एवं व्यभिचार से विरत रहे; झूठ, फूट डालनेवाली, कटु एवं निरर्थक बातों से विरत रहे; न लालची, न दुर्भावनापूर्ण, बल्कि सम्यकदृष्टि धारण करें [=दस कुशल]। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा होकर उसकी परिक्रमा करें, श्राप देते धिक्कारते हुए — “यह नर्क जाए!” तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह पुण्यशाली, भीड़ द्वारा श्राप देकर धिक्कारने पर नर्क जाएगा?”

“नहीं, भन्ते!”

“कल्पना करो कि कोई पुरुष घी-कुंभ या तेल-कुंभ को गहरे तालाब में डाल दे, जो भीतर जाकर टूट जाए। कुंभ के ठीकरें नीचे जाए, जबकि घी या तेल ऊपर उठे। तब लोगों की बड़ी भीड़ इकठ्ठा होकर उसकी परिक्रमा करें, श्राप देते धिक्कारते हुए — “हे घी तेल, डुब जाओ! हे घी तेल, नीचे चले जाओ! हे घी तेल, भीतर तल पर लगो!” तो तुम्हें क्या लगता है? क्या वह घी या तेल भीड़ द्वारा श्राप देकर धिक्कारने पर गहरे तालाब में डूब जाएगा, नीचे चले जाएगा, भीतर तल पर लगेगा?”

“नहीं, भन्ते!”

“उसी तरह मुखिया! जो जीवहत्या से विरत आदि [दस कुशल] करें, तब भले ही भीड़ इकठ्ठा होकर… श्राप देते धिक्कारने लगे… तब भी वह पुण्यशाली स्वर्ग ही उपजेगा!”

«संयुत्तनिकाय ४२:६ : असिबन्धकपुत्तसुत्त»


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  1. अर्थात्, ऐसा संभव है पापी अपने भौतिक जीवन में सुखी रहे, तथा उसे सत्ताधारी पुरस्कृत करे। उसके पाप का घड़ा इसी जीवन में फूटेगा, यह आवश्यक नहीं है। किंतु यह निश्चित है कि आगे चलकर भविष्य में जब भी फूटेगा — शोक, पछतावा, विलाप, दुःख, पीड़ा एवं निराशा ही फलश्रुत होगी। उसी तरह ऐसा भी संभव है कि पुण्यशाली भौतिक जीवन में दुःखी रहे। किंतु यह निश्चित है कि आगे चलकर उसके पुण्य का घड़ा जब भी फूटेगा — सुख, खुशी, शान्ति, राहत एवं संतुष्टि ही फलश्रुत होगी। इसलिए भगवान चेताते हैं कि भले ही सत्ताधारी पापी को पुरस्कृत करे, किंतु पश्चात उसे पापसुख की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। ↩︎

  2. आम जीवन में छोटे-बड़े पाप सभी से होते हैं। किंतु मूर्ख उसे पाप नहीं समझते हैं (=मिथ्यादृष्टि) और न बुराई ही त्यागते हैं (=नर्क)। जबकि बुद्धिमान उसमे पाप देखते हैं (=सम्यकदृष्टि) और बुराई त्याग देते हैं (=नर्क से छूटे!)। और जो पाप को पाप जानकर भी संयम ना बरते, वह सम्यकदृष्टिवान होकर भी नर्क से छूटा नहीं होता। उसे चाहिए कि वह भगवान द्वारा पुत्र राहुल को (द्वितीय अध्याय में) बताया तरीका अपनाएँ। अर्थात्, गलती पता चलने पर उसे किसी विश्वसनीय समझदार के आगे खोल देना, और त्यागने का संकल्प लेना। जो शर्मिंदगी के मारे न खोल पाए, जान लें कि वे दरअसल अपनी छवि की रक्षा नहीं कर रहे हैं, बल्कि भीतर पाप की, नर्क के टिकट की रक्षा कर रहे हैं। इसलिए जोख़िम न उठाएँ। हिम्मत जुटाएँ और खोल दें। ↩︎