नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय छह

व्रत



भगवान ने कहा:

“ब्राह्मण! बहुत समय पूर्व, राजा कौरव्य के राज्य में ‘सुप्रतिष्ठित’ नामक एक राजसी वटवृक्ष था। उसकी पाँच शाखाएँ शीतल छाया देती, हर्षित करती थी। उस सुप्रतिष्ठित की छत्रछाया बारह योजन, तथा जड़ें पाँच योजन तक फैली थी। उस सुप्रतिष्ठित के फ़ल चावल पकाने के बड़े बर्तन के आकार के, तथा शुद्ध शहद जैसे मीठे थे। उस सुप्रतिष्ठित का एक हिस्सा राजा एवं अंतःपुर उपयोग करते, तो दूसरा राजसेना। तीसरा हिस्सा गांव नगर की प्रजा करती, तो चौथा श्रमण एवं ब्राह्मण। तथा पाँचवा हिस्सा पशुपक्षी उपयोग करते थे। कोई उस सुप्रतिष्ठित के फ़लों की रक्षा न करता, किंतु कोई दूसरे का हिस्सा भी न लेता था।

तब किसी दिन एक पुरुष ने आकर सुप्रतिष्ठित के खूब सारे फ़ल तोड़कर जी भर के खाए, और एक शाखा तोड़कर ले गया। तब उस सुप्रतिष्ठित में निवास करते देवता को लगा, “कमाल है श्रीमान! अद्भुत है! कितना पापी मनुष्य था! आकर सुप्रतिष्ठित के खूब सारे फ़ल तोड़कर जी भर के खा लिए, और एक शाखा तोड़कर ले गया! ठीक है! अब मैं देखता हूँ कि राजसी वटवृक्ष को भविष्य में कैसे फ़ल आते हैं!”

और तब भविष्य में उस राजसी वटवृक्ष ने फ़ल देना बन्द कर दिया।

तब राजा कौरव्य ने देवराज इंद्र के पास जाकर कहा, “सुनिएँ, मान्यवर! जान लीजिए कि राजसी वटवृक्ष सुप्रतिष्ठित अब फ़ल नहीं दे रहा है।”

तब देवराज इंद्र ने अपने ऋद्धिबल की रचना से एक प्रचण्ड आंधी लायी, और राजसी वटवृक्ष सुप्रतिष्ठित को तोड़मरोड़ कर उखाड़ फेंका। तब उस सुप्रतिष्ठित में निवास करता देवता उदास एवं दुःखी हो, आंसू भरे चेहरे से रोते हुए एक-ओर खड़ा हुआ। तब देवराज इंद्र ने उसके पास जाकर कहा, “क्यों देवता, उदास एवं दुःखी हो, आंसू भरे चेहरे से रोते हुए एक-ओर खड़े हो?”

“क्योंकि मान्यवर, एक प्रचण्ड आंधी आयी और मेरे निवास को तोड़मरोड़ कर उखाड़ फेंकी।”

“किंतु देवता, क्या तुम तब वृक्षधर्म [वृक्ष के व्रतकर्तव्य] निभा रहे थे?”

“कैसे मान्यवर, कोई वृक्ष वृक्षधर्म निभाता है?”

“जब जिसे जड़ चाहिए, जड़ ले जाएँ। जब जिसे छाल चाहिए, छाल ले जाएँ। जब जिसे पत्तियां चाहिए, पत्तियां ले जाएँ। जब जिसे पुष्प चाहिए, पुष्प ले जाएँ। और जब जिसे फ़ल चाहिए, फ़ल ले जाएँ। किंतु उस कारण देवता न नाराज़ हो, न असंतुष्ट। इस तरह कोई वृक्ष वृक्षधर्म निभाता है।”

“तब मान्यवर, मैं वृक्षधर्म नहीं निभा रहा था।”

“यदि देवता, तुम वृक्षधर्म निभाओ तो तुम्हारा निवास पूर्ववत हो सकता है।”

“ज़रूर, मान्यवर! मैं वृक्षधर्म निभाऊँगा। मेरा निवास पूर्ववत हो जाएँ।”

तब देवराज इंद्र ने अपने ऋद्धिबल की रचना से एक और प्रचण्ड आंधी लायी, और राजसी वटवृक्ष सुप्रतिष्ठित को उठाकर खड़ा किया; जड़ें छाल से ढक गई।

उसी तरह, ब्राह्मण, अब मैं तुमसे पूछता हूँ — क्या तुम अपना व्रत निभा रहे थे?”

«अंगुत्तरनिकाय ६:५४ : धम्मिकसुत्त»


वत्तं अपरिपूरेन्तो, न सीलं परिपूरति।
यं वत्तं परिपूरेन्तो, सीलम्पि परिपूरति।

“व्रत जो अधूरा रखें, न शील उसके पूर्ण हो।
व्रत जो परिपूर्ण करें, शील भी उसके पूर्ण हो।”

«विनयपिटक चूळवग्ग ८: वत्तक्खन्धकं»


गृहस्थपुत्र श्रृंगालक प्रातः उठ, राजगृह से निकल कर भीगे वस्त्र, भीगे केश, दिशाओं को हाथ जोड़कर नमन कर रहा था। तब सुबह भगवान भिक्षाटन के लिए चीवर ओढ़े, पात्र धरे, राजगृह में प्रवेश कर रहे थे। उन्होंने गृहस्थपुत्र श्रृंगालक को भीगे वस्त्र, भीगे केश, दिशाओं को हाथ जोड़कर नमन करते देखा। भगवान ने कहा:

“गृहस्थपुत्र, दिशाओं को इस तरह नमन क्यों कर रहे हो?”

“भन्ते! मेरे पिता ने मुझसे मरते हुए कहा था, ‘प्रिय! दिशाओं को नमन करना!’ इसलिए पिता के शब्दों का आदर रखते हुए, सत्कार करते हुए, मानते हुए, पूजते हुए — मैं प्रातः उठ राजगृह से निकल कर भीगे वस्त्र, भीगे केश, हाथ जोड़कर पूर्व-दिशा, दक्षिण-दिशा, पश्चिम-दिशा, उत्तर-दिशा, निचली-दिशा एवं ऊपरी-दिशाओं को नमन कर रहा हूँ।”

“किंतु गृहस्थपुत्र, आर्यविनय में छह दिशाओं को इस तरह नमन नहीं करते है।”

“तब भन्ते, आर्यविनय में छह दिशाओं को कैसे नमन करते है? अच्छा होगा भन्ते, जो भगवान मुझे धर्मदेशना दें! मुझे कृपा कर बताएँ।”

“तब, गृहस्थपुत्र! ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”

“हाँ, भन्ते!”

“गृहस्थपुत्र, आर्यश्रावक चार ‘दूषित कर्म’ त्यागते हैं, चार ‘आधार पर पापकर्म’ नहीं करते हैं, तथा छह तरह से ‘भोगसंपत्ति बर्बादी में शामिल’ नहीं होते हैं। जब वे इस तरह कुल चौदह पापकृत्यों को पीछे छोड़ दें — तब छह दिशाएँ सुआच्छादित होती हैं, लोक-परलोक दोनों के विजयपथ पर चला जाता है, तथा वे लोक-परलोक में यशस्वी होते हैं। और वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में भी उपजते हैं।


वे कौन से चार दूषित कर्म त्यागते हैं?

जीवहत्या, चोरी, व्यभिचार एवं झूठ बोलना — ये चार दूषित कर्म त्यागते हैं।


वे कौन से चार आधार पर पापकर्म नहीं करते हैं?

चाहत «छन्द» के मारे पाप करना, द्वेष के मारे पाप करना, भ्रम के मारे पाप करना, भय के मारे पाप करना — ये चार आधार पर पापकर्म नहीं करते हैं।

धर्मस्वभाव जो लांघे — चाहत, द्वेष, भय एवं भ्रम
बर्बाद होती यशकीर्ति, जैसे कृष्णपक्ष में घटता चंद्रम।
धर्मस्वभाव न जो लांघे — चाहत, द्वेष, भय एवं भ्रम
बढ़ती जाती यशकीर्ति, जैसे शुक्लपक्ष में बढ़ता चंद्रम।


वे कौन से छह तरह से भोगसंपत्ति बर्बादी में शामिल नहीं होते हैं?

  • शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते का लुत्फ़ उठाना,

  • बेसमय [रात-बेरात] रास्ते-गलियारें घूमने का लुत्फ़ उठाना,

  • मेला-समारोह घूमने [या पार्टी] का लुत्फ़ उठाना,

  • जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों का लुत्फ़ उठाना,

  • पापमित्रों का लुत्फ़ उठाना,

  • आलस्य का लुत्फ़ उठाना।

• शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — अभी धनसंपत्ति की बर्बादी। कलह [झगड़ा फसाद] में बढ़ोतरी। रोग संभावना में बढ़ोतरी। बदनामी। अशोभनीय [अभद्र अश्लील] प्रकट होना। अंतर्ज्ञान दुर्बल होना।

• बेसमय रास्ते-गलियारें घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — न स्वयं सुरक्षित न संरक्षित होता है। न संतान, न पत्नी सुरक्षित न संरक्षित होते हैं। न संपत्ति सुरक्षित न संरक्षित होती है। उस पर पाप शंका होती है। झूठी ख़बर [अफ़वाह] जुड़ जाती है। अनेक कष्टों से सामना होता है।

मेला-समारोह घूमने का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — [सदैव ढूंढते रहता है] “नृत्य कहाँ हो रहा है? गीत कहाँ हो रहा है? वाद्यसंगीत कहाँ बज रहा है? भाषण कहाँ हो रहा है? तालियां कहाँ बज रही हैं? ढ़ोल कहाँ बज रहा है?”

जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — विजेता होकर [किसी को] शत्रु बनाता है। पराजित होकर वित्तहानि के मारे विलाप करता है। अभी संपत्ति बर्बाद करता है। सभाओं में उसकी बातों पर भरोसा नहीं किया जाता हैं। मित्र-सहजन घृणा करने लगते हैं। विवाह के लिए माँग नहीं होती है, [कहते हैं] “जुआरी पुरुष, पत्नी पालने में असमर्थ होता है!”

पापमित्रों का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — उसके मित्र-सहकर्मी कोई जुआरी होता है। कोई भुक्कड़ होता है। कोई पियक्कड़ होता है। कोई धोखेबाज होता है। कोई ठग होता है। कोई गुंडा होता है।

आलस्य का लुत्फ़ उठाने के छह नुक़सान होते हैं — “बड़ी ठंडी है!” [सोचते हुए] कार्य नहीं करता है। “बड़ी गर्मी है!” कार्य नहीं करता है। “अभी देर है!” कार्य नहीं करता है। “देर हो गई!” कार्य नहीं करता है। “अभी भूखा हूँ!” कार्य नहीं करता है। “बहुत खा लिया!” कार्य नहीं करता है।

कुछ होते हैं मद्यमित्र, कुछ आगे मित्रता जतलातें।
ज़रूरत में किंतु साथ जो, माने सच्चा मित्र वो।
देर से सोना, व्यभिचार, करना झगड़े और अनर्थ,
पापी मित्र और कंजूसी’ — छह नाश करते पुरुष को।

पापमित्र संग पापसखा, पाप में समय बिताए,
इस लोक एवं परलोक में, वो पुरुष धंसते जाए।
‘जुआ वेश्या नृत्यगीत, दिन सोता, रात भटकता जो,
पापी मित्र और कंजूसी’ — छह नाश करते पुरुष को।

मद्य पीता, पासे खेलता, परस्त्री गमन भी करता,
हीन नीच सेवन करता, कृष्णपक्ष चंद्र जैसे मिटता।
शराबी दिवालिया निर्धन, पीकर प्यासा ही रहता
ऋण में डूबे जैसे पत्थर, शीघ्र ही कुलहीन होता।

सोकर दिन बिताता हो, रात में उठा रहता,
नित्य नशा, कामासक्त, न घर संभाल सकता।
“बड़ी ठंडी! बड़ी गर्मी! देर हो गई!” तरुण कहता,
यूँ सभी कार्य टालता, लाभ दूर खिसक जाता।

किंतु ठंडी, गर्मी को, घासफूस न समझता जो,
कार्य करता वह पुरुष, सुख न कम उसका हो।


गृहस्थपुत्र, चार [व्यक्तियों] को मित्रवेष में अमित्र [मित्र नहीं] जानना चाहिए

— बटोरू, बातूनी, चाटुकार एवं उड़ाऊ को मित्रवेष में मित्र नहीं जानना चाहिए।

• बटोरु को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र जानना चाहिए —

सभी वस्तुएँ ले जाता,
अल्प देकर अधिक चाहता,
भय के मारे कार्य करता,
स्वार्थ से संगत करता।

• बातूनी को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र जानना चाहिए — अतीत में [किया] उपकार बताता है। भविष्य में [करेगा] उपकार बताता है। निरर्थक उपकार करता है। अभी ज़रूरत में दुर्भाग्य [असमर्थता] बताता है।

• चाटुकार को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र जानना चाहिए — पापकृत्य में सहमत हो। कल्याण-कृत्य में भी सहमत हो। सम्मुख प्रशंसा करता हो। पीछे निंदा करता हो।

• उड़ाऊ को चार तरह से मित्रवेष में अमित्र जानना चाहिए — शराब मद्य आदि मदहोश करनेवाला नशापता करने में सहायक हो। बेसमय रास्ते-गलियारें घूमने में सहायक हो। मेला-समारोह घूमने में सहायक हो। जुआ आदि मदहोश करने वाले खेलों में सहायक हो।

जो मिले, बटोर लेता, बात निरर्थक करता,
प्रशंसा नकली करता, उड़ाने में मित्र होता।
दरअसल चारों न मित्र वे, विद्वान जानें उन्हें,
स्वयं उनसे दूर रहें, पथ भयानक मानें उन्हें।


गृहस्थपुत्र! चार को सच्चे हृदय का मित्र जानना चाहिए।

— उपकारी मित्र, सुख-दुःख में समान रहने वाला मित्र, हितकारी मित्र, एवं दयालु मित्र को सच्चे हृदय का जानना चाहिए।

उपकारी को चार तरह से सच्चे हृदय का मित्र जानना चाहिए — आप बेपरवाह [या मदहोश] हो तो आपकी देखभाल करे। आपकी संपत्ति की देखभाल करे। आप भयभीत हो तो आपकी शरण [रक्षक] बने। आपको ज़रूरत हो तो दुगनी मदद करे।

सुख-दुःख में समान रहने वाले को चार तरह से सच्चे हृदय का मित्र जानना चाहिए — अपनी गोपनीय बातें बताए। आपकी गोपनीय बातें गुप्त रखे। आपदा में साथ न छोड़े। आपको बचाने के लिए स्वयं को लुटाए।

• हितकारी को चार तरह से सच्चे हृदय का मित्र जानना चाहिए — पाप से रोकता है। कल्याण में समर्थन करता है। अनसुनी बातें बताता है। स्वर्ग का मार्ग दिखाता है।

• दयालु को चार तरह से सच्चे हृदय का मित्र जानना चाहिए — आपके दुर्भाग्य में आनंदित नहीं होता है। आपके सौभाग्य में आनंदित होता है। आपके खिलाफ़ बुरा बोलने वाले को रोकता है। आपके प्रति अच्छा बोलने वाले की प्रशंसा करता है।

जो मित्र उपकार करे, जो सुख दुःख में हो सखा,
जो मित्र हितकारी हो, और जो हो दयालु सखा
— सच्चे मित्र यही चारो, विद्वान उन्हें समझे,
उन्हे सँजोकर रखें जैसे, मां छाती-लिपटे संतान को।
विद्वान शीलसंपन्न, जैसे अग्नि जल पर दमकती हो,
संपत्ति जुटाते बढ़ती जाए, जैसे मधु जुटाती मक्खी हो।
यूं संपत्ति इकट्ठा हो, जैसे वर्मिक ऊँचा बढ़ती हो।
ऐसी संपत्ति प्राप्त कर, घर परिवार के हित लगे।
मित्रों से गांठ बांध, चार हिस्से विभाजित करें।
एक हिस्से का भोग करें, दो हिस्से कार्य में लगे,
चौथा हिस्सा बचाएँ राशि, भविष्य आपदा के लिए।


गृहस्थपुत्र, आर्यविनय में छह दिशाओं को नमन कैसे करते है?

आर्यविनय में छह दिशाएँ इस तरह जानी जाती हैं — पूर्व-दिशा माता-पिता के लिए जानी जाती है। दक्षिण-दिशा गुरुजनों के लिए जानी जाती है। पश्चिम-दिशा पत्नी एवं संतान के लिए जानी जाती है। उत्तर-दिशा मित्र-सहचारियों के लिए जानी जाती है। निचली-दिशा दास, नौकर एवं श्रमिकों के लिए जानी जाती है। तथा ऊपरी-दिशा श्रमण-ब्राह्मणों के लिए जानी जाती है।

पुत्र पूर्व-दिशासूचक माता-पिता की सेवा पाँच तरह से करता है — [सोचते हुए] “मैं पला, अब उनका भरण-पोषण करूँगा!” “उनके प्रति कर्तव्य पूर्ण करूँगा!” “कुलवंश चलाऊँगा!” “विरासत की देखभाल करूँगा!” “मरणोपरांत प्रेत के नाम दानदक्षिणा करूँगा!”

और माता-पिता संतान पर पाँच तरह से उपकार करते हैं — उसे पाप से रोकते हैं। कल्याण में समर्थन करते हैं। [कमाने का] हुनर सिखाते हैं। उपयुक्त पत्नी ढूंढ देते हैं। तथा समय आने पर अपनी विरासत सौंपते हैं। इस तरह पूर्व-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

शिष्य दक्षिण-दिशासूचक गुरुजनों की सेवा पाँच तरह से करता है — [उनके सम्मानार्थ] खड़ा होता है। प्रतीक्षा करता है। ध्यान रखता है। सेवा करता है। हुनर सीखकर पारंगत होता है।

और गुरुजन शिष्य पर पाँच तरह से उपकार करते हैं — उसे भलीभांति पढ़ाते हैं। अभ्यास कराते हैं। समझानेवाली शिक्षाओं को समझाते हैं। सभी कलाओं में भलीभांति स्थापित करते हैं। मित्र-सहचारियाें को सिफ़ारिश करते हैं। तथा सभी-दिशाओं में सुरक्षा प्रदान करते हैं। इस तरह दक्षिण-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

पति पश्चिम-दिशासूचक पत्नी की सेवा पाँच तरह से** करता है — उसे सम्मान देता है। अपमानित नहीं करता है। निष्ठाहीन [बेवफ़ा] नहीं होता। उस पर ऐश्वर्य [प्रभुत्व स्वामित्व] छोड़ता है। गहने-अलंकार प्रदान करता है।

और पश्चिम-दिशासूचक पत्नी पति पर पाँच तरह से उपकार करती है — [कर्तव्य] कार्यों को सही अंजाम देती है। परिजनों को साथ लेकर चलती है। निष्ठाहीन नहीं होती। भंडार सामग्री की देखभाल करती है। सभी कार्यों में अनालसी हो [बिना आलस किए] निपुण बनती है। इस तरह पश्चिम-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

कुलपुत्र उत्तर-दिशासूचक मित्र-सहचारियों की सेवा पाँच तरह से करता है — दान उपहार से। प्रिय वचनों से। हितकारक देखभाल करने से। समान बर्ताव से। निष्ठा ईमानदारी [बिना छलकपट] से।

और मित्र-सहचारी कुलपुत्र पर पाँच तरह से उपकार करते हैं — बेपरवाह [या मदहोश] हो तो देखभाल करते हैं। बेपरवाह हो तो संपत्ति की देखभाल करते हैं। भयभीत हो तो शरण [रक्षक] बनते हैं। आपदा में छोड़ नहीं देते। संतानों पर कृपादृष्टि रखते हैं। इस तरह उत्तर-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

स्वामी निचली-दिशासूचक दास-नौकरों पर उपकार पाँच तरह से करता है — सामर्थ्य देखकर कार्य देता है। भोजन एवं वेतन देता है। रोग में देखभाल करता है। ख़ास व्यंजन बांटता है। समय पर छुट्टी देता है।

और दास-नौकर स्वामी की पाँच तरह से सेवा करते हैं — पहले उठते हैं। पश्चात सोते हैं। चुराते नहीं हैं। भलीभांति कार्य करते हैं। यशकीर्ति फैलाते हैं। इस तरह निचली-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

कुलपुत्र ऊपरी-दिशासूचक श्रमण-ब्राह्मणों की सेवा पाँच तरह से करता है — उनके प्रति सद्भावपूर्ण कायाकर्म करता है। उनके प्रति सद्भावपूर्ण वाणीकर्म करता है। उनके प्रति सद्भावपूर्ण मनोकर्म करता है। उनके लिए घर खुला करता है। उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

और श्रमण-ब्राह्मण कुलपुत्र पर छह तरह से उपकार करते हैं — उसे पाप से रोकते हैं। कल्याण में समर्थन करते हैं। मन से कल्याणकारी उपकार करते [कृपादृष्टि रखते] हैं। अनसुना [धर्म] सुनाते हैं। सुने [धर्म] को स्पष्ट करते हैं। स्वर्गमार्ग दिखाते हैं। इस तरह ऊपरी-दिशा सुआच्छादित होती है, शान्त होकर भयमुक्त होती है।

माता-पिता पूरब-दिशा, गुरुजन दक्षिण-दिशा,
पुत्र-पत्नी पश्चिम-दिशा, मित्र-सहचारी उत्तर-दिशा,
निचली-दिशा दास-नौकर, श्रमण-ब्राह्मण हो ऊपर,
— यह दिशाएँ नमन करें, सच्चा गृहस्थ कुलपूत्र।

‘विद्वान हो शीलसंपन्न, मृदु हो एवं प्रतिभावान।
जो विनम्र, न अकडू रहे’ — उसे सफ़लता खूब मिले।
‘ऊर्जावान, निरालसी, आपदा में अकम्पित रहे,
निष्कपट वृत्ति, मेधावी’ — उसे सफ़लता खूब मिले।

‘साथ रहें, मित्र बनाएँ, स्वागत करें, न कंजूसी,
नेता अगुआ मार्गदर्शक’ — उसे सफ़लता खूब मिले।
उपहार दें, प्रिय बोलें, जीवन में हितकारी रहें,
और जहाँ उपयुक्त हो, समानता का बर्ताव करें।
साथ जोड़े लोगों को, जैसे घूमते रथपहिये की नाभि हो।

जब ऐसा व्रत न पालन हो, तो मां को अपने संतान से,
और पिता को संतान से, न सम्मान न आदरभाव मिले।
किंतु ऐसा व्रत पालन हो, तो विद्वान ख्याल रखें!
इसी से वह महान बने, और प्रशंसा सभी करें।”

ऐसा कहा गया। तब गृहस्थपुत्र श्रृंगालक कह पड़ा, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि अच्छी आँखोंवाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म एवं संघ की! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”

«दीघनिकाय ३१ : सिङ्गालसुत्त»


“भिक्षुओं, जब देवराज इंद्र पूर्वजन्म में मनुष्य था, तब उसने जीवनपर्यन्त सात व्रतों का पालन किया। और सात व्रतों का पालन करने के कारण ही वह तैतीस देवताओं का राजा इंद्र बना। कौन से सात व्रत?

• जब तक जीवित रहूँ, माता-पिता का भरण-पोषण करूँ।

• जब तक जीवित रहूँ, कुल परिवार में ज्येष्ठ लोगों का सम्मान करूँ।

• जब तक जीवित रहूँ, मृदु वाणी बोलूं।

• जब तक जीवित रहूँ, फूट डालने वाले वचन न बोलूं।

• जब तक जीवित रहूँ, कंजूसी के मल से छूटा रहूँ — साफ़ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत।

• जब तक जीवित रहूँ, केवल सच बोलूं।

• जब तक जीवित रहूँ, क्रोधित न होऊँ। क्रोध जाग जाए तो उसे तुरंत हटाऊँ।

वह मनुष्यावस्था में इन्ही सात व्रतों का पालन करने के कारण तैतीस देवताओं का राजा इंद्र बना।”

«संयुत्तनिकाय ११:१२ : सक्कनामसुत्त»


“भिक्षुओं! मैं कहता हूँ कि दो लोगों का ऋण चुकाना सरल नहीं है। कौन से दो? तुम्हारे माता और पिता!

भले ही तुम्हें मां को एक कन्धे पर बिठाकर और पिता को दुसरे कन्धे पर बिठाकर सौ वर्षों तक ढोना पड़े, तथा उनकी हर तरह से सेवा करनी पड़े — जैसे लेप लगाना, हाथपैर दबाना, मालिश करना, नहलाना इत्यादि। और वे वहीं [तुम्हारे कन्धों पर] मल-मूत्र त्यागें — तब भी तुम उनका ऋण नहीं चुका पाओगे। भले ही तुम अपने माता-पिता को इस महापृथ्वी पर सप्तरत्नों के साथ संपूर्ण प्रभुत्व प्रदान करो 1 — तब भी उनका ऋण नहीं चुका पाओगे।

ऐसा क्यों? क्योंकि माता और पिता, संतान की अपार सेवा करते हैं। उनकी देखभाल करते, भरण-पोषण करते, दुनिया का दर्शन कराते हैं।

किंतु यदि कोई अपने अश्रद्धावान माता-पिता में श्रद्धा जगाए, उन्हें श्रद्धासंपदा में स्थिर करे, प्रतिष्ठित करे;

या अपने दुष्शील माता-पिता में शील जगाए, उन्हें शीलसंपदा में स्थिर करे, प्रतिष्ठित करे;

या अपने कंजूस माता-पिता में त्याग [दानशीलता] जगाए, उन्हें त्यागसंपदा में स्थिर करे, प्रतिष्ठित करे;

या अपने दुष्प्रज्ञ माता-पिता में अंतर्ज्ञान जगाए, उन्हें अंतर्ज्ञानसंपदा में स्थिर करे, प्रतिष्ठित करे,

— तब उनका ऋण चुक सकता है।”

«अंगुत्तरनिकाय २:३२ : कतञ्ञूसुत्त»


ब्रह्म के साथ संवास वह कुलपरिवार करता है, जहाँ संतान माता-पिता की पूजा करते हों। प्रारंभिक देवता के साथ संवास वह कुलपरिवार करता है, जहाँ संतान माता-पिता की पूजा करते हों। प्रथम गुरु के साथ संवास वह कुलपरिवार करता है, जहाँ संतान माता-पिता की पूजा करते हों। उपहार देने योग्य के साथ संवास वह कुलपरिवार करता है, जहाँ संतान माता-पिता की पूजा करते हों।

भिक्षुओं! माता-पिता ‘ब्रह्म’ कहलाते हैं, ‘प्रारंभिक देवता’ कहलाते हैं, ‘प्रथम गुरु’ कहलाते हैं, ‘उपहार देने योग्य’ कहलाते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि माता-पिता अपने संतान की अपार सेवा करते हैं। उनकी देखभाल करते, भरण-पोषण करते, दुनिया का दर्शन कराते हैं।

माता और पिता कृपालु, संतान के प्रति बने रहते,
‘ब्रह्म’, ‘प्रथम गुरु’, ‘उपहारयोग्य’ संतान द्वारा कहलाते।
जो उन्हें नमन करें, जो विद्वान उनका सत्कार करें —
अन्नपान, वस्त्र-शयन से, मालिश-स्नान, पैर धोने से।
माता और पिता की यूं, जो पण्डित सेवा करें,
यहाँ प्रशंसित होता, पश्चात स्वर्ग में आनंदित।”

«इतिवुत्तक १०६ : सब्रह्मकसुत्त»


गृहस्थ उग्गह ने तब एक-ओर बैठते हुए भगवान से कहा,

“मान्यवर! मेरी कुमारियाँ [पुत्रीयां] ब्याह कर पतियों के घर-परिवार जाएगी। भगवान कृपा कर उन्हें निर्देश दें, शिक्षित करें, जो उनके दीर्घकालीन हित एवं सुख के लिए हों।”

भगवान ने उन कुमारियों से कहा, “तब, कुमारियों! आपको ऐसा सीखना चाहिए — ‘माता-पिता हमारा हित देखते हुए, हम पर अनुकंपा और करुणा करते हुए हमें पति के सुपुर्द कर रहे हैं। तो हम पति के पूर्व उठेंगे, पश्चात सोएँगे, कर्तव्यशील बने रहेंगे, मनोरूप आचरण करेंगे, प्रिय वाणी बोलेंगे।’

फ़िर कुमारियों! आपको ऐसा सीखना चाहिए — ‘हमारे पति के आदरपात्र माता-पिता, श्रमण-ब्राह्मण का हम भी आदर करेंगे, सत्कार करेंगे, उन्हें मानेंगे, पूजेंगे। वे अतिथिरूप आएँ तो उन्हें ऊँचें आसन में बिठाएँगे, जलपान कराएँगे।’

फ़िर कुमारियों! आपको ऐसा सीखना चाहिए — ‘हमारे पति के लिए हम सिलाई, बुनाई इत्यादि गृहस्थ कार्यों में बिना आलस किए निपुण बनेंगे। हम प्रत्येक कार्यों को सही अंजाम देने की बुद्धिमानी सीखते रहेंगे।’

फ़िर कुमारियों! आपको ऐसा सीखना चाहिए — ‘पति के दास, नौकर एवं कर्मचारी ने क्या कार्य पूर्ण किया हैं एवं क्या अपूर्ण रखा हैं — हम यह जानेंगे। कौन रोगी है, कौन कार्य के लिए उपयुक्त, कौन अनुपयुक्त हैं — हम यह जानेंगे। हम प्रत्येक के लिए उचित मात्रा में खाद्य एवं भोजन बांटेंगे।’

फ़िर कुमारियों! आपको ऐसा सीखना चाहिए — ‘चाहे मुद्रा, अनाज, स्वर्ण या चांदी हो — हम पति की आमदनी की सुरक्षा करेंगे, बचत करेंगे। न अधिक खर्च करेंगे, न चुराएँगे, न बर्बाद करेंगे, न खो देंगे।’ इस तरह कुमारियों, आपको सीखना चाहिए।

जब स्त्री में यह पाँच सद्गुण हो, तो वह मरणोपरांत ‘मनोनुकूल काया वाले’ देवताओं के साथ स्वर्ग में उपजती है।

‘जो सदैव देखभाल करे, सदैव कर्मठ, तत्पर रहे,
सभी चाहत पूर्ण करे’ — ऐसे पति को न कम आँके।
ऐसे पति पर अच्छी स्त्री, न कभी ईर्ष्या से रोष करे,
पति के आदरपात्र सभी को पूजती है पण्डिता।
कर्मठ हो निरालसी, सभी को साथ ले चलती,
पति के मनोरूप चलती, संपत्ति की रक्षा करती।
पति की पसंद के अनुरूप, जो नारी वर्तन करती,
मनोनुकूल नामक देवताओं में वो जाकर उपजती।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:३३ : उग्गहसुत्त»


एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिंडक के जेतवन विहार में रह रहे थे। तब देर रात, कोई देवता अत्याधिक कांति से संपूर्ण जेतवन रौशन करते हुए भगवान के पास गया, और पहुँचकर अभिवादन कर एक-ओर खड़ा हुआ। खड़े होकर भगवान के समक्ष गाथाओं का उच्चार किया:

“बहुत से देव एवं मानव,
अपने मंगल का चिंतन करते हैं,
भलाई की आकांक्षा रखते हैं।
कृपा कर ‘उत्तम मंगल’ बताएँ?”

[भगवान:]

“मूर्खों से असंगति, विद्वानों से संगति,
पूजनीयों की पूजा — उत्तम मंगल हैं!

सभ्य प्रदेश में निवास, पूर्व पुण्यों का होना,
स्वयं का सही संचालन — उत्तम मंगल है!

विस्तृत ज्ञान, कार्यकौशलता, अनुशासन में सुशिक्षित होना,
वाणी में सुभाषिता — उत्तम मंगल हैं!

माता-पिता को सहारा, पत्नी-संतान का पोषण
कार्यों को न अधूरा छोड़ना — उत्तम मंगल हैं!

दान एवं धर्मचर्या, रिश्तेदारों को सहारा,
निर्दोष कार्य करना — उत्तम मंगल हैं!

पाप टाल, विरत रहना, मद्यपान में संयम,
धर्म की परवाह होना — उत्तम मंगल हैं!

आदर एवं विनम्रता, संतुष्टि एवं कृतज्ञता,
समय-समय पर धर्म सुनना — उत्तम मंगल हैं!

क्षमाशीलता, आज्ञाकारिता, श्रमणों का दर्शन,
समय-समय पर धर्मचर्चा — उत्तम मंगल हैं!

तप एवं ब्रह्मचर्य, आर्यसत्यों का दर्शन,
निर्वाण का साक्षात्कार — उत्तम मंगल हैं!

लोकधर्म छूने पर चित्त न कंपित होना,
बिना शोक, निर्मल, सुरक्षित होना — उत्तम मंगल हैं!

इस तरह कार्य कर, सर्वत्र अपराजित रह,
सर्वत्र भलाई में जो जाएँ — वह उत्तम मंगल होता हैं!”

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«खुद्दकनिकाय ५ : मङ्गलसुत्त»


देवराज इंद्र ने वैजयन्त महल से उतरकर [रथ पर सवार होने पूर्व] हाथ जोड़कर सभी दिशाओं को नमन किया। यह देखकर सारथी मातलि ने गाथाओं में कहा,

“तीन वेदों के ज्ञाता [ब्राह्मण] नमन आप को करें।
पृथ्वी के सभी क्षत्रिय नमन आप को करें।
चार महाराज देवतागण नमन आप को करें।
[३३ में] तीस प्रभावी देवतागण नमन आप को करें।
किंतु, देवेंद्र, उस यक्ष का क्या नाम है,
जिन्हें, महामहिम, आप भी नमन करें?”

[देवराज इंद्र:]
“तीन वेदों के ज्ञाता मुझे नमन करें,
पृथ्वी के तमाम क्षत्रिय मुझे नमन करें।
चार महाराज देवतागण मुझे नमन करें।
तीस प्रभावी देवतागण मुझे नमन करें।
और मैं शीलसंपन्नों को,
चिरकाल से समाहितो को,
सम्यक तरह से प्रवज्यितो को,
ब्रह्मचारियों को वंदन करूँ।
और शीलवान उपासकों को
पुण्य करने वाले गृहस्थों को
धर्मपूर्वक घर चलाने वालों को,
मातलि, मैं नमन करूँ।”

[मातलि:]
“लोक में वे श्रेष्ठ दिखें
जिन्हें, देवेंद्र, आप नमन करे,
मैं भी उन्हें नमन कर लूं।
जिन्हें, वासव, आप नमन करे।”

इस तरह दिशाओं को नमन करने पश्चात, देवराज इंद्र रथ पर सवार हुआ।

«संयुत्तनिकाय ११:१८ : गहट्ठवन्दनासुत्त»


कोई भिक्षु दस्त से पीड़ित, मलमूत्र में सना हुआ पड़ा था। तब भगवान अपने सेवक आनन्द भन्ते के साथ भिक्षुसंघ आवास का निरीक्षण दौरा करते हुए उस भिक्षु के निवास गए, और पहुँचकर उन्होंने उस दस्त से पीड़ित भिक्षु को मलमूत्र में सने हुए पड़ा देखा। उसे देखकर भगवान उसके पास गए और कहा:

“क्या रोग है तुम्हें, भिक्षु?”

“भगवान! मुझे दस्त है।”

“क्या तुम्हारी सेवा में कोई है?”

“नहीं, भगवान!”

“तब भिक्षु तुम्हारी सेवा क्यों नहीं करते हैं?”

“भन्ते! मैं भिक्षुओं के लिए कुछ नहीं करता हूँ। इसलिए भिक्षु मेरी सेवा नहीं करते हैं।”

तब भगवान ने आनन्द भन्ते से कहा, “जाओ आनन्द, थोड़ा जल ले आओ। हम इस भिक्षु को नहलाएँगे।”

“जैसे आप कहें, भगवान!” आनन्द भन्ते ने उत्तर दिया, और जल ले आए। तब भगवान ने उस भिक्षु पर जल छिड़का, तथा आनन्द भन्ते ने उसे नहलाया। तब भगवान ने उसे सिर से पकड़, तथा आनन्द भन्ते ने उसे पैर से पकड़, उसे उठाकर बिस्तर पर लिटा दिया।

तब भगवान ने भिक्षुओं को उस कारण से, उस घटना से एकत्रित किया और पूछताछ करने के पश्चात कहा, “भिक्षुओं, न तुम्हारी मां है, न पिता, जो तुम्हारी देखभाल कर सके। यदि तुम एक-दूसरे की देखभाल न करो, तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा? जिसे मेरी सेवा करनी हो, वह रोगी की सेवा करें!


तब आगे भगवान ने भिक्षुसंघ के लिए रोगी सेवा से संबन्धित नए व्रत नियम का गठन किया। तत्पश्चात उन्होंने कहा,

“पाँच सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति, रोगी की सेवा के लिए उपयुक्त होता है —

दवाई मिलाने में निपुण हो।

रोगी के इलाज के लिए उचित-अनुचित जानता हो। अनुचित ले जाए और उचित ले आए।

सद्भाव चित्त से प्रेरित हो, आमिष लाभ से नहीं।

मल, मूत्र, थूक या वमन [उल्टी] साफ़ करने में घिन न करे।

रोगी को उचित अवसर पर धर्मकथा से निर्देशित करने में, आग्रह करने में, उत्साहित करने में, तथा प्रेरित करने में निपुण हो।

इन पाँच सद्गुणों से संपन्न व्यक्ति, रोगी की सेवा के लिए उपयुक्त होता है।”

«विनयपिटक महावग्ग ८:२६ : गिलानवत्थुकथा »


अत्थम्हि जातम्हि सुखा सहाया,
तुट्ठी सुखा या इतरीतरेन।
पुञ्ञं सुखं जीवितसङखयम्हि,
सब्बस्स दुक्खस्स सुखं पहानं।।

ज़रूरत पड़ने पर सहायक: सुखद!
जो हो उसमे संतुष्टि: सुखद!
जीवन के आख़िर पुण्य: सुखद!
समस्त दुःखों का त्याग: सुखद!!

सुखा मत्तेय्यता लोके, अथो पेत्तेय्यता सुखा।
सुखा सामञ्ञता लोके, अथो ब्रह्मञ्ञता सुखा।।

इस दुनिया में माता सेवा: सुखद!
और पिता सेवा भी: सुखद!
इस दुनिया में श्रमण सेवा: सुखद!
और ब्राह्मण सेवा भी: सुखद!!

सुखं याव जरा सीलं, सुखा सद्धा पतिट्ठिता।
सुखो पञ्ञाय पटिलाभो, पापानं अकरणं सुखं।।

बुढ़ापे में शील: सुखद!
श्रद्धा में प्रतिष्ठित होना: सुखद!
अंतर्ज्ञान का प्रतिलाभ: सुखद!
पापों को न करना: सुखद!!

«धम्मपद नागवग्गो ३३१-३३३»


उपोसथ व्रत

एक समय भगवान श्रावस्ती में मिगारमाता महल «पुब्बाराम» पूर्व विहार में रह रहे थे। तब वह उपोसथ-दिवस होने पर मिगारमाता विशाखा दिन के मध्यस्थ भगवान के पास गई, और पहुँचकर अभिवादन कर एक-ओर बैठ गई। भगवान ने कहा:

“विशाखा! भला दिन के मध्यस्थ कैसे आना हुआ?”

“भन्ते, आज मैंने उपोसथ ग्रहण किया है।”

“तीन उपोसथ होते हैं, विशाखा। कौन से तीन? गोपालक उपोसथ, निगण्ठ उपोसथ तथा आर्य उपोसथ।

गोपालक उपोसथ क्या होता है? जैसे देर सायंकाल कोई गोपालक [चरवाहा] मालिकों को गाय सौपते हुए सोचता है, “आज गायों को अमुक-अमुक जगह घुमाया, अमुक-अमुक जगह जल पिलाया। कल उन्हें अमुक-अमुक जगह घुमाऊँगा, अमुक-अमुक जगह जल पिलाऊँगा।” इसी तरह होता है कि कोई उपोसथ धारक सोचता है, “आज मैने यह खाद्य खाया, वह भोजन किया। कल मैं वह खाद्य खाऊँगा, वह भोजन करूँगा।” पूरा दिन ऐसे ही लालसाभरे चित्त के साथ बीत जाता है। यह होता है विशाखा, गोपालक उपोसथ! जब कोई गोपालक उपोसथ ग्रहण करे, तो न महाफ़ल मिलता है, न महापुरस्कार। न उसकी महामहिमा है, न महातेज।


निगण्ठ उपोसथ क्या होता है? कुछ श्रमण, निगण्ठ [जैन] कहलाते हैं। वे श्रावकों को ग्रहण कराते हैं, “आईए श्रीमान! सौ योजन तक पूर्व-दिशा में… सौ योजन तक दक्षिण-दिशा में… सौ योजन तक पश्चिम-दिशा में… सौ योजन तक उत्तर-दिशा में रहने वाले जीवों के प्रति दण्ड नीचे रख दो!” इस तरह वे श्रावकों को कुछ जीवों के प्रति दया एवं अनुकंपा धारण कराते हैं, किंतु सभी के प्रति नहीं!

उपोसथ दिवस पर वे श्रावकों को ग्रहण कराते हैं, “आईए श्रीमान! अपने सभी वस्त्र निकाल कर कहिए, “मैं कुछ नहीं हूँ, किसी का कोई नहीं हूँ! और मेरा कुछ नहीं है, किसी का कुछ भी मेरा नहीं है!” किंतु ऐसा कहने पर भी उसके माता-पिता जानते हैं, “यह हमारा पुत्र है!” वह स्वयं जानता है, “यह मेरे माता-पिता हैं!” उसकी पत्नी-संताने जानते हैं, “यह मेरा पति है। मेरे पिता है!” वह स्वयं जानता है, “यह मेरी पत्नी है। मेरी संतान हैं!” उसके नौकर-दास जानते हैं, “यह हमारे मालिक है!” वह स्वयं जानता है, “यह मेरे नौकर हैं, दास हैं!”

इस तरह जिस [पवित्र] दिन उससे सत्य धारण कराना चाहिए था, उस समय उससे असत्य धारण कराते हैं। इसे मैं «मुसावाद» झूठ बोलना कहता हूँ! रात बीतने पर वह स्वयं ही अपनी वस्तुएँ, बिना किसी के थमाए, ले लेता है। इसे मैं «अदिन्नादान» चुराना कहता हूँ! यह होता है विशाखा, निगण्ठ उपोसथ! जब कोई निगण्ठ उपोसथ ग्रहण करे, तो न महाफ़ल मिलता है, न महापुरस्कार। न उसकी महामहिमा है, न महातेज।


और आर्य उपोसथ क्या होता है? योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करना। कोई योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त कैसे साफ़ करता है?

ऐसा होता है कि आर्यश्रावक तथागत का अनुस्मरण करता है — ‘वाकई भगवान अर्हंत [=काबिल] सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ तथागत का अनुस्मरण कर चित्त शान्त [आश्वस्त] होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।

जैसे योग्य उपक्रम कर सिर धोया जाता है। लेप लगाकर, मिट्टी लगाकर [आजकल शाम्पू], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर सिर धोया जाता है। उसी तरह [तथागत का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है। तब कहते है विशाखा, “इस आर्यश्रावक ने ब्रह्म-उपोसथ ग्रहण किया है! वह ब्रह्म के साथ संवास कर रहा है! ब्रह्मकृपा से उसका चित्त शान्त है, प्रसन्नता उपजी है, तथा उसके चित्त में जो मलीनता हो, छूट रही है!” इस तरह विशाखा, योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करते है।


ऐसा होता है कि आर्यश्रावक धर्म का अनुस्मरण करता है, “भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य!” धर्म का अनुस्मरण कर चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।

जैसे योग्य उपक्रम कर शरीर धोया जाता है। स्वस्ति लगाकर, चूर्ण लगाकर [आजकल साबुन], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर शरीर धोया जाता है। उसी तरह [धर्म का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है। तब कहते है विशाखा, “इस आर्यश्रावक ने धर्म-उपोसथ ग्रहण किया है! वह धर्म के साथ संवास कर रहा है! धर्मकृपा से उसका चित्त शान्त है, प्रसन्नता उपजी है, तथा उसके चित्त में जो मलीनता हो, छूट रही है!” इस तरह विशाखा, योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करते है।


ऐसा होता है कि आर्यश्रावक संघ का अनुस्मरण करता है, “भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!” संघ का अनुस्मरण कर चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।

जैसे योग्य उपक्रम कर वस्त्र धोया जाता है। ऊष्मा देकर, क्षार लगाकर, गोबर लगाकर [आजकल डिटर्जेंट], जल लगाकर एवं थोड़ी मेहनत कर वस्त्र धोया जाता है। उसी तरह [संघ का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है। तब कहते है विशाखा, “इस आर्यश्रावक ने संघ-उपोसथ ग्रहण किया है! वह संघ के साथ संवास कर रहा है! संघकृपा से उसका चित्त शान्त है, प्रसन्नता उपजी है, तथा उसके चित्त में जो मलीनता हो, छूट रही है!” इस तरह विशाखा, योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करते है।


ऐसा होता है कि आर्यश्रावक अपने शील का अनुस्मरण करता है, “जो अखंडित हो, अछिद्रित हो, बेदाग हो, बेधब्बा हो, निष्कलंक हो, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो और समाधि की ओर बढ़ाते हो।” अपने शील का अनुस्मरण कर चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।

जैसे योग्य उपक्रम कर दर्पण धोया जाता है। तेल लगाकर, राख लगाकर [आजकल कॉलिन], बाल का गुच्छा रगड़कर, थोड़ी मेहनत कर दर्पण धोया जाता है। उसी तरह [अपने शील का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है। तब कहते है विशाखा, “इस आर्यश्रावक ने शील-उपोसथ ग्रहण किया है! वह शील के साथ संवास कर रहा है! शीलकृपा से उसका चित्त शान्त है, प्रसन्नता उपजी है, तथा उसके चित्त में जो मलीनता हो, छूट रही है!” इस तरह विशाखा, योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करते है।


ऐसा होता है कि आर्यश्रावक देवताओं का अनुस्मरण करता है, “चार महाराज देवता होते हैं! तैतीस देवता होते हैं! याम देवता होते हैं! तुषित देवता होते हैं! निर्माणरती देवता होते हैं! परिनिर्मित वशवर्ती देवता होते हैं! ब्रह्मकायिक देवता होते हैं! उनसे परे भी देवता होते हैं! वे जिस श्रद्धा से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं श्रद्धा मुझ में भी है! वे जिस शील से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं शील मुझ में भी है! वे जो [सद्धर्म] सुनने से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं श्रुत मुझ में भी है! वे जिस त्याग [दानशीलता] से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं त्याग मुझ में भी है! वे जिस अंतर्ज्ञान से संपन्न हो, यहाँ से च्युत होने पर वहाँ उत्पन्न हुए थे, वहीं अंतर्ज्ञान मुझ में भी है!” देवताओं का अनुस्मरण कर चित्त शान्त होता है, प्रसन्नता उपजती है, तथा चित्त से मलीनता छूट जाती है।

जैसे योग्य उपक्रम कर चांदी को धोया जाता है। भट्टी तपाकर, नमक लगाकर, गेरू लगाकर, फूंकनी लेकर, थोड़ी मेहनत कर चांदी को धोया जाता है। उसी तरह [देवताओं का अनुस्मरण कर] दूषित चित्त साफ़ किया जाता है। तब कहते है विशाखा, “इस आर्यश्रावक ने देव-उपोसथ ग्रहण किया है! वह देवताओं के साथ संवास कर रहा है! देवकृपा से उसका चित्त शान्त है, प्रसन्नता उपजी है, तथा उसके चित्त में जो मलीनता हो, छूट रही है!” इस तरह विशाखा, योग्य उपक्रम कर दूषित चित्त साफ़ करते है।


और आगे विशाखा, आर्यश्रावक चिन्तन करता है, “अर्हन्त जीवित रहते तक हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहते हैं — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुके, शर्मिले एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी! आज मैं भी दिन एवं रात तक हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहूँगा — डंडा एवं शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला एवं दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहते हैं। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाते, नहीं लेते हैं। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाते, स्वीकारते हैं। पावन जीवन जीते हैं, चोरी चुपके नहीं! आज मैं भी आज दिन एवं रात तक ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहूँगा। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु चोरी की इच्छा से नहीं उठाऊँगा, नहीं लूंगा! बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाऊँगा एवं स्वीकारूँगा! पावन जीवन जिऊँगा, चोरी चुपके नहीं! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक ब्रह्मचर्य धारण कर अब्रह्मचर्य से पृथक, विरत रहते हैं — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! आज मैं भी दिन एवं रात तक ब्रह्मचर्य धारण कर अब्रह्मचर्य से पृथक, विरत रहूँगा — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहते हैं! वह सत्यवादी, सत्य के पक्षधर, दृढ़ एवं भरोसेमंद होते हैं! दुनिया को ठगते नहीं हैं! आज मैं भी दिन एवं रात तक झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहूँगा! मैं सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ एवं भरोसेमंद बनूंगा! दुनिया को ठगुंगा नहीं! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक शराब मद्य आदि मदहोश करनेवाला नशापता त्यागकर नशेपते से विरत रहते हैं। आज मैं भी दिन एवं रात तक शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक दिन में एक ही बार भोजन करते हैं — रात्रिभोज एवं विकालभोज [मध्यान्ह के पश्चात] से विरत! आज मैं भी दिन एवं रात तक दिन में एक ही बार भोजन करूँगा — रात्रिभोज एवं विकालभोज से विरत! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक नृत्य गीत वाद्यसंगीत एवं नाट्य मनोरंजन, तथा माला गंध लेप, सुडौलता लाने वाले एवं अन्य सौंदर्य प्रसाधन से विरत रहते हैं। आज मैं भी दिन एवं रात तक नृत्य गीत वाद्यसंगीत एवं नाट्य मनोरंजन, तथा माला गंध लेप, सुडौलता लाने वाले एवं अन्य सौंदर्य प्रसाधन से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

अर्हन्त जीवित रहते तक ऊँचे एवं बड़े आसन अथवा पलंग के उपयोग से विरत रहते हैं। आज मैं भी दिन एवं रात तक ऊँचे एवं बड़े आसन अथवा पलंग के उपयोग से विरत रहूँगा! मैं इस गुण से अर्हन्तों का अनुकरण कर उपोसथ पूर्ण करूँगा!

यह होता है विशाखा, आर्य उपोसथ। जब कोई आर्य उपोसथ ग्रहण करे तो महाफ़ल, महापुरस्कार मिलता है। उसकी महामहिमा, महातेज होता है। कैसे?


जैसे किसी व्यक्ति को सप्तरत्नों के साथ [जम्बूद्वीप के] सोलहों महाराज्यों — अङ्ग, मगध, कासी, कोसल, वज्जी, मल्ल, चेती, वङ्ग, कुरू, पञ्चाल, मच्छ, सूरसेन, अस्सक, अवन्ती, गन्धार एवं कम्बोज — पर संपूर्ण ऐश्वर्य एवं आधिपत्य के साथ राज करने दिया जाए! तब भी वह अष्टांगिक आर्य उपोसथ के सोलहवें हिस्से के बराबर न होगा! ऐसा क्यों? क्योंकि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

मनुष्य के ५० वर्ष, विशाखा, चार-महाराज देवताओं का मात्र एक दिन-रात [२४ घंटे] के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे ५०० दिव्यवर्ष [=९० लाख मानववर्ष] चार-महाराज देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ ‘अष्टांगिक आर्य उपोसथ’ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत चार-महाराज देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

और विशाखा, मनुष्य के १०० वर्ष तैतीस देवताओं के मात्र एक दिन-रात के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे १,००० दिव्यवर्ष [=३ करोड़ ६० लाख मानववर्ष] तैतीस देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ अष्टांगिक आर्य उपोसथ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत तैतीस देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

और विशाखा, मनुष्य के २०० वर्ष, याम देवताओं के मात्र एक दिन-रात के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे २,००० दिव्यवर्ष [=१४ करोड़ ४० लाख मानववर्ष] याम देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ अष्टांगिक आर्य उपोसथ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत याम देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

और विशाखा, मनुष्य के ४०० वर्ष, तुषित देवताओं के मात्र एक दिन-रात के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे ४,००० दिव्यवर्ष [=५७ करोड़ ६० लाख मानववर्ष] तुषित देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ अष्टांगिक आर्य उपोसथ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत तुषित देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

और विशाखा, मनुष्य के ८०० वर्ष, निर्माणरति देवताओं के मात्र एक दिन-रात के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे ८,००० दिव्यवर्ष [=२ अरब ३० करोड़ ४० लाख मानववर्ष] निर्माणरति देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ अष्टांगिक आर्य उपोसथ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत निर्माणरति देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

और विशाखा, मनुष्य के १६०० वर्ष, परनिर्मित वशवर्ती देवताओं के मात्र एक दिन-रात के बराबर है। ऐसे तीस दिन-रातों का एक माह होता है, बारह माह का एक वर्ष। ऐसे १६,००० दिव्यवर्ष [=९ अरब २१ करोड़ ६० लाख मानववर्ष] परनिर्मित वशवर्ती देवताओं की आयु होती है। अब विशाखा, संभव है कि कोई स्त्री या पुरुष यहाँ अष्टांगिक आर्य उपोसथ ग्रहण करता हो, तो मरणोपरांत परनिर्मित वशवर्ती देवताओं में जन्म ले। इसलिए कहते है कि मानवों पर राज दिव्यसुख के आगे तुच्छ है!

न प्राण हरें, न चुराएँ,
न झूठ बोलें, न मद्य पिएँ,
अब्रह्मचर्य, मैथुन से विरत रहें,
न रात्रिभोज, विकालभोज करें।
न माला धारण करें, न गन्ध लगाएँ,
सन्थत बिछाकर जमीन पर सोएँ।

ऐसा अष्टांगिक उपोसथ,
दुःख अन्तगुण बुद्ध ने प्रकाशित किए।
चंद्र एवं सूर्य, दोनों सुदर्शन,
जहाँ जातें, कान्ति फैलाते।
अंतरिक्ष से गुजरते, अंधकार मिटातें।
नभ उज्ज्वल करतें, दिशाएँ जगमगातें।
उसी बीच धन हैं पता चलतें —
मोती, मणि, वैदूर्य [हरा रत्न], भद्रक [भाग्यशाली रत्न],
श्रृंग [प्लेटिनम], स्वर्ण एवं ऐसे खज़ाने,
‘हटक’ नामक परिशुद्ध चांदी —
अष्टांगिक उपोसथ की तुलना में
वे सोलहवा हिस्सा भी न बनें।

जैसे चंद्रप्रभा के आगे, तारें फीके लगते हो।
ऐसे शीलवान, नर अथवा नारी हो
जो अष्टांगिक उपोसथ ग्रहण किए हो,
वे सुखवर्धक पुण्य करते हैं।
अनिंदित रह, स्वर्ग भी जाते हैं।”

«अंगुत्तरनिकाय ३:७१ : मूलूपोसथसुत्त»


एक समय भगवान [अपने कुलजात] शाक्यों के साथ कपिलवस्तु में वटवृक्ष विहार में रह रहे थे। तब उपोसथ-दिवस होने पर बहुत से शाक्य उपासक भगवान के पास गए, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। एक-ओर बैठे शाक्यों से भगवान ने कहा:

“शाक्यों, क्या आप अष्टांगिक उपोसथ ग्रहण करते हैं?”

“कभी करते हैं, भन्ते! तो कभी नहीं करते हैं।”

“आपका लाभ नहीं है, शाक्यों! शोक के खतरे में पड़े इस जीवन में, मौत के खतरे में पड़े इस जीवन में, कभी आप अष्टांगिक उपोसथ ग्रहण करते हैं, तो कभी नहीं करते हैं।

क्या लगता हैं, शाक्यों? यदि कोई पुरुष किसी व्यवसाय से, बिना अकुशल दिनों का सामना किए, अर्ध ‘कहापण’ [समकालीन स्वर्णमुद्रा] कमाता हो। क्या उसे दक्ष, कर्मठ पुरुष पुकारना योग्य होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“यदि कोई पुरुष किसी व्यवसाय से, बिना अकुशल दिनों का सामना किए, एक कहापण… दो… तीन… चार… पाँच… दस… बीस… तीस… चालीस… पचास… सौ कहापण कमाता हो। क्या उसे दक्ष, कर्मठ पुरुष पुकारना योग्य होगा?”

“हाँ, भन्ते!”

“तब क्या लगता हैं, शाक्यों? एक दिन में कोई एक सौ कहापण कमाकर, एक हजार कहापण कमाकर, उसकी बचत करते हुए सौ वर्षों तक जीएँ। तो क्या उस पुरुष की [अंततः] महाभोगसंपत्ति हो जाएगी?”

“हाँ, भन्ते!”

“तब क्या लगता हैं, शाक्यों? क्या वह पुरुष उस भोगसंपत्ति के कारण पूर्ण दिन या रात तक, या अर्ध दिन या अर्ध रात तक अमिश्रित सुख की अनुभूति करेगा?”

“नहीं, भन्ते! क्योंकि कामसुख अनित्य होते हैं, खोखले होते हैं, झूठे होते हैं, छलावा होते हैं।”

“अब शाक्यों! ऐसा होता है कि कोई मेरा श्रावक फिक्रमंद, सचेत एवं दृढ़निश्चयी होकर दस वर्ष बिताएँ, मेरी शिक्षा पर चले। तो वह सौ वर्षों तक, सौ शताब्दियों तक, सौ सहस्त्राब्दियों तक अमिश्रित सुख की अनुभूति करेगा। तथा वह अनागामी, सकृदागामी, या कम से कम श्रोतापन्न बनेगा।

शाक्यों, दस वर्ष छोड़ों! कोई मेरा श्रावक फिक्रमंद, सचेत एवं दृढ़निश्चयी होकर नौ… आठ… सात… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक वर्ष बिताएँ… एक वर्ष भी छोड़ों! दस माह… नौ… आठ… सात… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक… अर्धमाह बिताएँ… अर्धमाह भी छोड़ों! दस दिन-रात… नौ… आठ… सात… छह… पाँच… चार… तीन… दो… एक दिन-रात बिताएँ, मेरी शिक्षा पर चले। तो वह सौ वर्षों तक, सौ शताब्दियों तक, सौ सहस्त्राब्दियों तक अमिश्रित सुख की अनुभूति करेगा। तथा वह अनागामी, सकृदागामी, या कम से कम श्रोतापन्न बनेगा।

आपका लाभ नहीं है, शाक्यों! शोक के खतरे में पड़े इस जीवन में, मौत के खतरे में पड़े इस जीवन में, कभी आप अष्टांगिक उपोसथ ग्रहण करते हैं, तो कभी नहीं करते हैं।”

“तब, भन्ते! हम आज से [नियमित] अष्टांगिक उपोसथ ग्रहण करेंगे!”

«अंगुत्तरनिकाय ३:७१ : सक्कसुत्त»


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  1. अर्थात्, भले ही कोई अपने माता-पिता को उपहार स्वरूप ‘चक्रवर्ती सम्राट’ बना दे। ↩︎

  2. लोकधर्म आठ होते हैं — लाभ-हानि, यश-अपयश, निंदा-प्रशंसा एवं सुख-दुःख। भगवान अनुसार, आठ लोकधर्म दुनिया के गोल-गोल घूमते हैं। तथा दुनिया भी इन्हीं आठ लोकधर्मों के गोल-गोल चक्कर काटती है। ↩︎