नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय सात

भावना



भगवान ने कहा:

“भिक्षुओं, संपत्ति सात तरह की होती हैं। कौन सी सात? श्रद्धासंपत्ति, शीलसंपत्ति, लज्जासंपत्ति, फ़िक्रसंपत्ति, श्रुतसंपत्ति, त्यागसंपत्ति एवं अंतर्ज्ञानसंपत्ति।

• श्रद्धासंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि किसी आर्यश्रावक को बुद्ध पर अटूट आस्था होती है: ‘वाकई भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ यह श्रद्धासंपत्ति है।

• शीलसंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक जीवहत्या से विरत, चोरी से विरत, व्यभिचार से विरत, झूठ बोलने से विरत, शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहता है। यह शीलसंपत्ति है।

• लज्जासंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार करने में लज्जा महसूस करता है। वह पाप, अकुशल स्वभाव में लिप्त होने पर लज्जा महसूस करता है। यह लज्जासंपत्ति है।

• फ़िक्रसंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक काया से दुराचार, वाणी से दुराचार एवं मन से दुराचार करने में डर लगता है। वह पाप, अकुशल स्वभाव में लिप्त होने पर भयभीत होता है। यह फ़िक्रसंपत्ति है।

• श्रुतसंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक बार-बार धर्म सुनता है, सुना याद रखता है, सुना संचित करता है। जो शुरुवात में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी एवं अन्त में कल्याणकारी हो, ऐसा सर्वपरिपूर्ण परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ अर्थ एवं विवरण के साथ, वह बार-बार सुनता है, याद रखता है, चर्चा करता है, संचित करता है, मन से जाँच-पड़ताल करता है, और गहराई से समझकर सम्यकदृष्टि धारण करता है। यह श्रुतसंपत्ति है।

• त्यागसंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक घर रहते हुए दानी होता है — कंजूसी के मल से छूटा, साफ़ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत होता, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत रहता है। यह त्यागसंपत्ति है।

• अंतर्ज्ञानसंपत्ति क्या है? ऐसा होता है कि किसी आर्यश्रावक में अंतर्ज्ञान होता है — आर्य, भेदक, उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अन्तकर्ता! यह अंतर्ज्ञानसंपत्ति है। ऐसे संपत्ति, सात तरह की होती हैं।

श्रद्धा हो एवं शील हो, लज्जा एवं फ़िक्र हो,
श्रुत, त्याग, अंतर्ज्ञान भी — यह कुल सप्तसंपत्ति!
स्त्री अथवा पुरुष की, जिसकी भी संपत्ति हो,
उसे दरिद्र नहीं कहते, जीया नहीं मदहोश वो।
इसलिए श्रद्धा और शील, आस्था और धर्मदर्शन,
विकसित करता मेधावी, स्मरण करते बुद्धशासन।”

«अंगुत्तरनिकाय ७:६ : वित्थतधनसुत्त»


गृहस्थ अनाथपिंडक भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक और बैठ गया। भगवान ने कहा:

“गृहस्थ! क्या अब भी तुम्हारा परिवार दान-दक्षिणा करता है?”

“हाँ भन्ते! अब भी हमारा परिवार दानदक्षिणा करता है। किंतु अब वह निकृष्ट होता है — भूसी के साथ पकाया टूटा चावल, अचार के साथ। 1

“गृहस्थ! भले ही दान निकृष्ट हो अथवा उत्कृष्ट — किंतु कोई उसे न ध्यान रखते हुए दे, न आदरपूर्वक दे, न स्वयं के हाथों से दे, ऐसे दे जैसे फेंक रहा हो, जैसे कोई फ़ल नहीं मिलेगा — जब इस तरह किए दान का फ़ल मिलता है तो उसका चित्त — न उत्तम भोजन का लुत्फ़ उठा पाता है, न उत्तम वस्त्रों का लुत्फ़ उठा पाता है, न उत्तम सवारी का लुत्फ़ उठा पाता है, न ही उत्तम पञ्चकामसुख का लुत्फ़ उठा पाता है। उसके संतान, पत्नी, दास-दासियां, नौकर, श्रमिक आदि न उसका ध्यान रखते हैं, न कान देकर सुनते हैं, न ही हृदयपूर्वक सेवा करते हैं। क्यों? क्योंकि ध्यान न रखते हुए किए पुण्यों का यही «विपाक» परिणाम होता है।

और गृहस्थ! भले ही दान निकृष्ट हो अथवा उत्कृष्ट — किंतु कोई उसे ध्यान रखते हुए दे, आदरपूर्वक दे, स्वयं के हाथों से दे, ऐसे दे जैसे फेंक न रहे हों, जैसे कोई सुखद फ़ल मिलेगा — जब इस तरह किए दान का फ़ल मिलता है तो उसका चित्त — उत्तम भोजन का लुत्फ़ उठा पाता है, उत्तम वस्त्रों का लुत्फ़ उठा पाता है, उत्तम सवारी का लुत्फ़ उठा पाता है, उत्तम पञ्चकामसुख का लुत्फ़ उठा पाता है। उसकी संतान, पत्नी, दास-दासियां, नौकर, श्रमिक आदि उसका ध्यान रखते हैं, कान देकर सुनते हैं, हृदयपूर्वक सेवा करते हैं। क्यों? क्योंकि ध्यान रखते हुए किए पुण्यों का यही परिणाम होता है।

एक समय की बात है, गृहस्थ! वेलाम नामक एक ब्राह्मण था। उसके द्वारा दी गई महादान दक्षिणा [यज्ञ] का स्वरूप इस तरह था — उसने ८४,००० स्वर्णथालियां — चांदी से भरी हुई, ८४,००० चांदीथालियां — स्वर्ण से भरी हुई, ८४,००० तांबाथालियां — रत्नों से भरी हुई दान कर दी! उसने ८४,००० स्वर्ण-अलंकृत हाथी — स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित कर दान कर दिए! उसने ८४,००० रथ — सिंहखाल से बिछे, बाघखाल से बिछे, तेंदुआखाल से बिछे, भगवा कंबलों से बिछे, स्वर्ण पताका एवं स्वर्ण-रेशों के बुने जाल से आच्छादित कर दान कर दिए! उसने ८४,००० दुग्ध गाएँ — उत्तम जूटरस्सी से बंधी, तांबे की दुग्ध बाल्टियों के साथ दान कर दिए! उसने ८४,००० कुंवारिया — रत्न झुमकों से अलंकृत कर दान कर दिए! उसने ८४,००० आसन [सोफ़ा] — लंबे ऊन से आच्छादित, सफ़ेद ऊन से आच्छादित, कढ़ाईकार्य [एँब्रॉयडरी] से आच्छादित, कदली मृगखाल के गलिचों के साथ प्रत्येक पर छत्र एवं दोनों ओर लाल तकिए रखकर दान कर दिए! उसने ८४,००० लंबाई के वस्त्र — सर्वोत्तम लिनन के, सर्वोत्तम कपास के, सर्वोत्तम ऊन के, सर्वोत्तम रेशम के दान कर दिए! अन्न पान, भोज्य खाद्य, लेप एवं बिस्तरों का कहना ही क्या! वे तो ऐसे बहें, जैसे नदियां हो!

अब, गृहस्थ! यदि तुम्हें लगे कि ‘वह वेलाम ब्राह्मण कोई और था, जिसने ऐसा महादान दक्षिणा दिया!’ तो ऐसा न देखा जाए। मैं ही उस समय वेलाम ब्राह्मण था! मैने ही ऐसा महादान दक्षिणा दिया था। किंतु उस दक्षिणा में कोई भी दक्षिणायोग्य न था। किसी ने वह महादान परिशुद्ध नहीं किया।

यदि कोई मात्र एक दृष्टिसंपन्न [श्रोतापन्न] व्यक्ति को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया था!

यदि कोई मात्र एक सकृदागामी [एक बार लौटने वाले] व्यक्ति को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ दृष्टिसंपन्न व्यक्ति को भोज कराना!

यदि कोई मात्र एक अनागामी [न लौटने वाले] व्यक्ति को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ सकृदागामी व्यक्तियों को भोज कराना!

यदि कोई मात्र एक अर्हंत [विमुक्त] को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ अनागामी व्यक्तियों को भोज कराना!

यदि कोई मात्र एक प्रत्येकबुद्ध को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ अर्हंतों को भोज कराना!

यदि कोई ‘तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ प्रत्येकबुद्धों को भोज कराना!

यदि कोई ‘बुद्ध नेतृत्व में भिक्षुसंघ’ को भोज कराए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही ‘तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ को भोज कराना!

यदि कोई चार दिशाओं से आते संघ को उद्देश्य कर विहार बनवाए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही ‘बुद्ध नेतृत्व में भिक्षुसंघ’ को भोज कराना!

यदि कोई आस्था [आश्वस्त] चित्त से बुद्ध, धर्म एवं संघ की शरण जाए, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही चार दिशाओं से आते संघ को उद्देश्य कर विहार बनवाना!

यदि कोई आस्था चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापद ग्रहण करे — जीवहत्या से विरत रहना, चुराने से विरत रहना, कामुक व्यभिचार से विरत रहना, झूठ बोलने से विरत रहना, शराब, मद्य आदि मदहोश करने वाले नशेपते से विरत रहना — तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही आस्था चित्त से बुद्ध, धर्म एवं संघ की शरण जाना!

यदि कोई एक फूंक मारते क्षण के लिए भी सद्भावना चित्त विकसित करे, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही आस्था चित्त से शिक्षापद ग्रहण करना!

किंतु यदि कोई एक ऊंगली चटकाते क्षण के लिए भी अनित्य नज़रिया विकसित करे, तो वह उस महादान दक्षिणा से अधिक फ़लदायी होगा जो वेलाम ब्राह्मण ने दिया और साथ ही १०१ दृष्टिसंपन्न व्यक्तियों को भोज… और साथ ही १०१ सकृदागामी व्यक्तियों को भोज… और साथ ही १०१ अनागामी व्यक्तियों को भोज… और साथ ही १०१ अर्हंतों को भोज… और साथ ही १०१ प्रत्येकबुद्धों को भोज… और साथ ही तथागत अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध को भोज… और साथ ही बुद्ध नेतृत्व में भिक्षुसंघ को भोज… और साथ ही चार दिशाओं से आते संघ को उद्देश्य कर विहार… और साथ ही आस्था चित्त से बुद्ध, धर्म एवं संघ की शरण… और साथ ही आस्था चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापद ग्रहण… और साथ ही एक फूंक मारते क्षण के लिए सद्भावना चित्त विकसित करना!”

«अंगुत्तरनिकाय ९:२० : वेलामसुत्त»


“बहुत समय पूर्व, भिक्षुओं! किसी कलाबाज़ ने बांस खड़ा किया और अपनी सहायक ‘मेदकथालीका’ को आमंत्रित किया: “आओ, प्रिय मेदकथालीके! बांस पर चढ़कर मेरे कन्धों पर खड़ी हो जाओ।”

“जैसे आप कहें, गुरुजी!” कहते हुए मेदकथालीका बांस पर चढ़कर उसके कन्धों पर खड़ी हो गई।

तब कलाबाज़़ ने कहा: “प्रिय मेदकथालीके! अब तुम मेरी रक्षा करो। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। इस तरह हम एक-दूसरे की रक्षा करते हुए, एक-दूसरे को बचाते हुए कलाबाज़ी दिखाएँगे, ईनाम प्राप्त करेंगे और बांस से सुरक्षित उतर आएँगे।”

तब मेदकथालीका ने कहा: “किंतु ऐसे से नहीं होगा, गुरुजी। मैं स्वयं की रक्षा करती हूँ। आप स्वयं की रक्षा करें। इस तरह हम आत्मरक्षा करते हुए, आत्मबचाव करते हुए कलाबाज़ी दिखाएँगे, ईनाम प्राप्त करेंगे और बांस से सुरक्षित उतर आएँगे।”

अब भिक्षुओं! जो उस मामले में मेदकथालीका ने कहा था, वही उपाय श्रेष्ठ था।

स्मृतिप्रस्थान की साधना [=स्मरणशीलता स्थापित करना] भी इसी विचार से होनी चाहिए, ‘मैं आत्मरक्षा करूँगा।’ स्मृतिप्रस्थान की साधना इसी विचार से होनी चाहिए, ‘मैं पररक्षा करूँगा।’ आत्मरक्षा करते हुए दूसरों को बचाते हैं, और पररक्षा करते हुए स्वयं को बचाते हैं।

आत्मरक्षा करते हुए दूसरों को कैसे बचाते हैं? [धर्मस्वभाव के] पीछे पड़ने से, उसे विकसित करने से, बार-बार करने से आत्मरक्षा करते हुए दूसरों को बचाते हैं।

और पररक्षा करते हुए स्वयं को कैसे बचाते है? सहनशीलता से, अहिंसा से, सद्भाव चित्त से पररक्षा करते हुए स्वयं को बचाते हैं।”

«संयुत्तनिकाय ४७:१९ : सेदकसुत्त»


“यदि कोई कहे ‘जैसा कर्म करे, वैसा फ़ल भुगते!’तब ब्रह्मचर्यता निरर्थक हो जाए और दुःखों के सम्यक निरोध का कोई अवसर न मिले।

परंतु कोई कहे ‘ऐसा-ऐसा कर्म करे, तो वैसा-वैसा परिणाम महसूस हो!’तब ब्रह्मचर्यता सार्थक हो जाए और दुःखों के सम्यक निरोध का अवसर भी मिले।

ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है। और ऐसा भी होता है कि उसी तरह का पापकर्म, किसी अन्य व्यक्ति को इसी जीवन में मात्र क्षणभर के लिए महसूस होता है।

किस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है? ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति काया में अविकसित रहता है, शील में अविकसित रहता है, चित्त में अविकसित रहता है, तथा अंतर्ज्ञान में अविकसित रहता है — संकीर्ण सोच, संकुचित हृदय वाला व्यक्ति, जो पीड़ित रहता हो। इस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है।

और किस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे इसी जीवन में मात्र क्षणभर महसूस होता है? ऐसा होता है कि कोई व्यक्ति काया में विकसित रहता है, शील में विकसित रहता है, चित्त में विकसित रहता है, तथा अन्तर्ज्ञान में विकसित रहता है — खुले मन, उदार हृदय वाला व्यक्ति, जो ‘विस्तृत, विशाल, असीम मानस’ से रहता हो। इस तरह के व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे इसी जीवन में मात्र क्षणभर महसूस होता है।


कल्पना करो कि कोई नमक का ढेला जल से भरे प्याले में डाल दे। तुम्हें क्या लगता है? क्या उस कारण प्याले का जल अत्याधिक नमकीन, पीने के अयोग्य होगा?”

“हाँ, भन्ते। नमक के ढेले से प्याले का अल्पजल अत्याधिक नमकीन, पीने के अयोग्य होगा।”

“कल्पना करो कि कोई नमक का ढेला गंगा नदी के जल में डाल दे। तुम्हें क्या लगता है? क्या उस कारण गंगा जल अत्याधिक नमकीन, पीने के अयोग्य होगा?”

“नहीं, भन्ते। गंगा नदी में अथाह जल है। नमक के ढेले से गंगा जल अत्याधिक नमकीन, पीने के अयोग्य नहीं होगा।”

“उसी तरह ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है। और ऐसा भी होता है कि उसी तरह का पापकर्म, किसी अन्य व्यक्ति को इसी जीवन में मात्र क्षणभर के लिए महसूस होता है।


ऐसा होता है कि किसी पुरुष को सौ कार्षापर्ण के लिए… एक कार्षापण के लिए… या मात्र अर्ध कार्षापण [चुराने] के लिए भी कारावास में डाल दिया जाता है। और ऐसा भी होता है कि किसी अन्य पुरुष को अर्ध… एक… या सौ कार्षापर्ण के लिए भी कारावास में नहीं डाला जाता है।

किस तरह के पुरुष को सौ कार्षापर्ण के लिए… एक कार्षापण के लिए… या मात्र अर्ध कार्षापण के लिए भी कारावास में डाल दिया जाता है? ऐसा होता है कि कोई पुरुष निर्धन, ग़रीब एवं अल्पसंपन्न होता है। इस तरह के पुरुष को सौ… एक… या मात्र अर्ध कार्षापर्ण के लिए भी कारावास में डाल दिया जाता है।

और किस तरह के पुरुष को अर्ध कार्षापण के लिए… एक कार्षापण के लिए… या सौ कार्षापर्ण के लिए भी कारावास में नहीं डाला जाता है? ऐसा होता है कि कोई पुरुष महाधनी, महासंपत्तिशाली एवं महाभोगसंपदा का स्वामी होता है। इस तरह के पुरुष को अर्ध… एक… या सौ कार्षापर्ण के लिए भी कारावास में नहीं डाला जाता है।

उसी तरह ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है। और ऐसा भी होता है कि उसी तरह का पापकर्म, किसी अन्य व्यक्ति को इसी जीवन में मात्र क्षणभर के लिए महसूस होता है।


जैसे कोई बकरी चोर पकड़े जाने पर कसाई को छूट होती है कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे। जबकि कोई अन्य बकरी चोर के पकड़े जाने पर कसाई को छूट नहीं होती है कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे।

किस तरह का बकरी चोर पकड़े जाने पर कसाई को छूट होती है? ऐसा होता है कि कोई पुरुष निर्धन, ग़रीब, अल्पसंपन्न होता है। इस तरह का बकरी चोर के पकड़े जाने पर कसाई को छूट होती है कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे।

और किस तरह का बकरी चोर पकड़े जाने पर कसाई को छूट नहीं होती? ऐसा होता है कि कोई पुरुष महाधनी, महासंपत्तिशाली एवं महाभोगसंपदा का स्वामी, राजा अथवा राजमंत्री होता है। इस तरह का बकरी चोर पकड़े जाने पर कसाई को छूट नहीं होती कि वह उसे पीटे, बांधे, काटे या जैसा चाहे करे। अधिकतम वह यही कर सकता है कि हृदय के आगे हाथ जोड़कर याचना करें: “साहब, कृपा कर मेरी बकरी या उसकी कीमत ही दे दीजिए!”

उसी तरह ऐसा होता है कि किसी व्यक्ति का छोटा-सा पापकर्म उसे नर्क ले जाता है। और ऐसा भी होता है कि उसी तरह का पापकर्म, किसी अन्य व्यक्ति को इसी जीवन में मात्र क्षणभर के लिए महसूस होता है।

इस तरह जो व्यक्ति काया में अविकसित, शील में अविकसित, चित्त में अविकसित, तथा अंतर्ज्ञान में अविकसित रहता हो — संकीर्ण सोच, संकुचित हृदय वाला व्यक्ति, जो पीड़ित रहता हो, उसका छोटा-सा पापकर्म भी उसे नर्क ले जाता है।

और जो व्यक्ति काया में विकसित, शील में विकसित, चित्त में विकसित, अन्तर्ज्ञान में विकसित रहता हो — खुले मन, उदार हृदय वाला व्यक्ति, जो ‘विस्तृत, विशाल, असीम मानस’ से रहता हो, उसका छोटा-सा पापकर्म उसे इसी जीवन में मात्र क्षणभर महसूस होता है।

इसलिए, भिक्षुओं! यदि कोई कहे ‘जैसा कर्म करे, वैसा फ़ल भुगते!’तब ब्रह्मचर्यता निरर्थक हो जाए और दुःखों के सम्यक निरोध का कोई अवसर न मिले।

परंतु कोई कहे ‘ऐसा-ऐसा कर्म करे, तो वैसा-वैसा परिणाम महसूस हो!’तब ब्रह्मचर्यता सार्थक हो जाए और दुःखों के सम्यक निरोध का अवसर भी मिले।”

«अंगुत्तरनिकाय ३:१०१ : लोणकपल्लसुत्त»


“जो पुण्यक्रिया के तमाम आधार आपोआप [स्वर्ग में] उत्पन्न कराते हैं, वे ‘सद्भावना द्वारा चेतोविमुक्ति’ के सोलहवें हिस्से के बराबर नहीं हैं। ‘सद्भावना’ «मेत्ता» तमाम पुण्यों से आगे बढ़कर अधिक चमकती है, उजाला करती है, चकाचौंध करती है।

जैसे तमाम टिमटिमाते तारों की चमक चंद्रमा की चमक के सोलहवें हिस्से के बराबर नहीं है। चंद्रमा टिमटिमाते तारों को फीका कर अधिक चमकता है, उजाला करता है, चकाचौंध करता है।…

जैसे वर्षा के अंतिम माह शरदऋतु में, जब आकाश खुला एवं मेघविहीन हो, तब अंधकार में डूबे आकाश को पीछे छोड़, उगता सूरज अधिक चमकता है, उजाला करता है, चकाचौंध करता है।…

जैसे भोर होने पूर्व के घोर अंधेरे में ध्रुव तारा अधिक चमकता है, उजाला करता है, चकाचौंध करता है। उसी तरह, जो पुण्यक्रिया के तमाम आधार आपोआप उत्पन्न कराते हैं, वे ‘सद्भावना द्वारा चेतोविमुक्ति’ के सोलहवें हिस्से के बराबर नहीं हैं। सद्भावना तमाम पुण्यों से आगे बढ़कर अधिक चमकती है, उजाला करती है, चकाचौंध करती है।

स्मरणशील हो कोई, असीम सद्भाव विकसित करें,
आसक्ति छूटते देख कर, बंधन टूटते जाएँ।
कोई अदूषित चित्त से, एक भी प्राणी प्रति,
सद्भाव जो रखें यदि, वह खूब कुशल होते जाएँ।
किंतु जो आर्य हो, वो तमाम प्राणियों के प्रति,
दया मानस रख के, अपार पुण्य करते जाएँ।
जीतकर इस पृथ्वी को, सत्वों से हो भरी हुई,
राजश्री यज्ञबलि, जो पूर्व चढ़ाते चले गए:
—अश्वमेध पुरुषमेध, जलक्रिया वाजपेय महापरिणामी!
किंतु ये भी न बराबर हो, सोलहवें हिस्से के,
किसी सामान्य सद्भाव-चित्त सुविकसित के आगे।
जैसे चंद्रप्रभा लगती हो, तमाम तारों के आगे।
इसलिए न हत्या करें, न करवाएँ,
न जीतें, न किसी को जितवाएँ,
सद्भाव रखें तमाम जीवों के प्रति,
बैर न रखें किसी के प्रति।”

«इतिवुत्तक २७ : सद्भावनाभावनासुत्त»


“जो सद्भावना द्वारा चेतोविमुक्ति विकसित करे, साधना करे, बार-बार करे, आगे बढ़ाए, आधार दे, स्थिर करे, मजबूत करे, भलीभांति धारण करे — उसे ग्यारह लाभ मिलना अपेक्षित हैं। कौन से ग्यारह?

वह सुख से सोता है। सुख से जागता है। पाप स्वप्न नहीं देखता है। मनुष्यों का प्रिय होता है। अ-मनुष्यों का प्रिय होता है। देवता रक्षण करते हैं। उसे न अग्नि, न विष, न शस्त्र मार पातें हैं। तुरंत चित्त समाहित होता है। चेहरे का रंग खिलता है। बेहोशी में मौत न होती। और यदि परमार्थ न भेद पाए, तब भी ब्रह्मलोक जाता है।”

«अंगुत्तरनिकाय ११:१५ : सद्भावनासुत्त»


सद्भावना की साधना

किसी ध्येयकुशल, ‘सन्तपद’ पाने के अभिलाषी साधक को यह करना चाहिए —

“सक्षम, सीधा एवं स्पष्टवादी हो। आज्ञाधारक और सौम्य रहें।
अहंकारी न हो। संतुष्ट एवं सहज पालनयोग्य रहें।
कम ज़िम्मेदारियाँ, कम रख-रखाव रखें।
शान्तइंद्रियों के साथ निपुण एवं विनम्र रहें।
[दायक] कुलपरिवारों के प्रति लालची न रहें।
कदापि ऐसा कृत्य न करें, जिसे देख बुद्धिमान लोग निंदा करें।

[कामना करें:]
‘सभी सत्व राहतपूर्ण एवं सुरक्षित होकर सुखी होएँ!
जो भी प्राणियों का अस्तित्व हो
— दुर्बल या बलवान, लंबे विशाल मध्यम छोटे सूक्ष्म या स्थूल, दृश्य या अदृश्य, समीप या दूर, जन्में या जन्म-संभावित —
सभी सत्व सुखी होएँ!
न कोई किसी से धोखाधड़ी करें, न कही किसी की घृणा करें!
न क्रोधित होकर या चिढ़कर किसी के प्रति दुःखकामना करें!’

जैसे कोई माता इकलौते संतान की रक्षा करती है
— उसी तरह सभी सत्वों के प्रति ‘असीम मानस’ की साधना करें!
समस्त दुनिया के प्रति ‘सद्भावनापूर्ण असीम मानस’ की साधना करें!
— ऊपर, नीचे, सभी ओर
बिना बाधा, बिना बैर, बिना दुर्भावना के
खड़े, चलते, बैठते, लेटते
जब तक आलस्य न छूटे —

मात्र इसी नज़रिए पर अधिष्ठान बनाए रखने को
इसी जीवन में ‘ब्रह्मविहार’ करना कहते है।
ऐसा शीलवान — मिथ्यादृष्टि में न पड़ा, सम्यकदर्शन-संपन्न,
कामुकता हटाकर पुनः गर्भ में नहीं पड़ेगा।”

«खुद्दकपाठ ९ : मेत्तसुत्त»


बड़ी संख्या में भिक्षुगण भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। उन्होंने एक-ओर बैठकर कहा:

“भन्ते! अभी श्रावस्ती में एक भिक्षु की सर्पदंश पश्चात मृत्यु हो गई।”

“तब भिक्षुओं, निश्चित ही उसने चार सर्पराजकुलों के प्रति सद्भाव चित्त नहीं फैलाया होगा। क्योंकि यदि उसने चार सर्पराजकुलों के प्रति सद्भाव चित्त फैलाया होता, तो सर्पदंश होने पर मृत्यु न होती। कौन से चार सर्पराजकुल हैं?

  • विरूपक्ष सर्पराजकुल,

  • ऐरापथ सर्पराजकुल,

  • छ्ब्यापुत्र सर्पराजकुल,

  • कान्हा गोतम सर्पराजकुल।

मैं अनुमति देता हूँ, भिक्षुओं! आत्मकवच, आत्मसुरक्षा, आत्मबचाव के लिए चार सर्पराजकुलों के प्रति सद्भाव चित्त फैलाएँ —

विरूपक्षों के प्रति मैं सद्भावना करूँ, सद्भावना करूँ मैं ऐरापथों के प्रति।
छ्ब्यापुत्रों के प्रति मैं सद्भावना करूँ, सद्भावना करूँ मैं कान्हा गोतमों के प्रति।
बेपैर [जीवों] के प्रति मैं सद्भावना करूँ, सद्भावना करूँ मैं दुपैरों के प्रति।
चतुपैरों के प्रति मैं सद्भावना करूँ, सद्भावना करूँ मैं बहुपैरों के प्रति।

बेपैर मेरे प्रति न हिंसा करें, मेरे प्रति हिंसा न करें दुपैर।
चतुपैर मेरे प्रति न हिंसा करें, मेरे प्रति हिंसा न करें बहुपैर।
सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी जीव, हर कोई —
मात्र भलाई देखें। पाप से किंचित भी समागम न करें।

बुद्ध असीम है! धर्म असीम है! संघ असीम है!
किंतु रेंगते जीव सीमित हैं — सांप, बिच्छू, गोजर,
मकड़ियां, छिपकलियां, चूहें।
स्वयं को मैने संरक्षित किया। मैने स्वयं पर कवच बांध लिया।
चले जाएँ सभी जीव!

मैं नमन करूँ भगवान को।
नमन है सातों सम्यक-सम्बुद्ध को!”

«अंगुत्तरनिकाय ४:६७ : अहिराजसुत्त»


“ऐसा होता है कि कोई आर्यश्रावक लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत एवं स्मरणशील होकर सद्भाव चित्त… करुण चित्त… प्रसन्न चित्त… तटस्थ चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

जैसे कोई बलवान पुरुष ज़ोरदार शंखनाद कर सरलतापूर्वक सभी दिशाओं को सूचित करें। उसी तरह भिक्षु सद्भावना चेतोविमुक्ति… करुणा चेतोविमुक्ति… प्रसन्नता चेतोविमुक्ति… तटस्थता चेतोविमुक्ति की साधना करें, बार-बार करें तो सीमित पापकर्म टिक नहीं पाते हैं, रह नहीं पाते हैं।

तब उसे पता चलता है, ‘पूर्व मेरा चित्त सीमित एवं अविकसित था। किंतु अब वह असीम एवं सुविकसित है। जो कर्म सीमित अवस्था में हुए थे, अब वे न रहेंगे, न शेष बचेंगे।’

तुम्हें क्या लगता है, भिक्षुओं? यदि कोई युवक बचपन से ही सद्भावना… करुणा… प्रसन्नता… तटस्थता चेतोविमुक्ति सुविकसित करे, तो क्या वह पाप करेगा?”

“नहीं, भन्ते!”

“पाप न करने से क्या वह दुःख छुएगा?”

“नहीं, भन्ते! पाप न करे, तो भला वह दुःख कैसे छुएगा?”

“इसलिए भिक्षुओं! चाहे स्त्री हो अथवा पुरुष — सद्भावना… करुणा… प्रसन्नता…तटस्थता द्वारा चेतोविमुक्ति सुविकसित करनी चाहिए। न कोई स्त्री, न ही कोई पुरुष अपनी इस काया को [मरणोपरांत] साथ ले जा सकते है। मर्त्य [नाशवान] का चित्तान्तर होता है, भिक्षुओं। उसे पता चलता है, ‘कर्म से उपजे इस काया ने जो भी पाप किए है, सभी इसी जीवन में महसूस होंगे, पश्चात नहीं।’ इस तरह जिस अंतर्ज्ञानी भिक्षु की सर्वोपरि विमुक्ति न हुई हो, उसे सुविकसित सद्भावना… करुणा… प्रसन्नता… तटस्थता द्वारा चेत्तोविमुक्ति ‘अनागामिता’ की ओर ले जाती है।”

«संयुत्तनिकाय ४२:८ : सङखधमसुत्त + अंगुत्तरनिकाय १०:२१९ : करजकायसुत्त »


“जब ऐसा हो कि कोई कहे, “भले ही मैने सद्भावना द्वारा चेतोविमुक्ति को विकसित किया, रत रहा, आधार बनाया, स्थिर किया, दृढ़ किया, भलीभांति अनुसरण किया — तब भी दुर्भावना मेरे चित्त पर हावी हो जाती है।” तब उसे कहना चाहिए, “ऐसा मत कहो। तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। भगवान का मिथ्यावर्णन न करो। भगवान का मिथ्यावर्णन करना अच्छा नहीं है। चूंकि भगवान ऐसा नहीं कहेंगे। ऐसा असंभव है! ऐसा नहीं हो सकता कि जब कोई सद्भावना द्वारा चेतोविमुक्ति को विकसित करे, रत रहे, आधार बनाए, स्थिर करे, दृढ़ करे, भलीभांति अनुसरण करे — तब भी दुर्भावना उसके चित्त पर हावी हो जाएँ।”

या जब ऐसा हो कि कोई कहे, “भले ही मैने करुणा द्वारा… प्रसन्नता द्वारा… तटस्थता द्वारा चेतोविमुक्ति को विकसित किया, रत रहा, आधार बनाया, स्थिर किया, दृढ़ किया, भलीभांति अनुसरण किया — तब भी हिंसानाराजी [या कुढ़ना]… दिलचस्पी मेरे चित्त पर हावी हो जाती है।” तब उसे कहना चाहिए, “ऐसा मत कहो। तुम्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए। भगवान का मिथ्यावर्णन न करो। भगवान का मिथ्यावर्णन करना अच्छा नहीं है। चूंकि भगवान ऐसा नहीं कहेंगे। ऐसा असंभव है! ऐसा हो नहीं सकता कि जब कोई करुणा द्वारा… प्रसन्नता द्वारा… तटस्थता द्वारा चेतोविमुक्ति को विकसित करे, रत रहे, आधार बनाए, स्थिर करे, दृढ़ करे, भलीभांति अनुसरण करे — तब भी हिंसा… नाराजी… दिलचस्पी उसके चित्त पर हावी हो जाएँ।”

«अंगुत्तरनिकाय ६:१३ : निस्सारणीयसुत्त»


“ऐसा होता है कि कोई व्यक्ती दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत एवं स्मरणशील होकर सद्भाव चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम सद्भाव चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

तब वह उसका खूब स्वाद उठाता है, उसके प्रति तड़पता है, उसी में तृप्त होता है। और वह उसी अवस्था में जमे रहने पर, विहार करने पर, च्यूत न होने पर मरणोपरांत ब्रह्मपरिषद [=महाब्रह्म के दरबारी] देवलोक में उत्पन्न होता है। ब्रह्मपरिषद देवलोक की आयु एक कल्प होती है। वहाँ रहता धर्म न सुना आम व्यक्ति दिव्य-आयु के व्यय हो जाने पर नर्क, पशुयोनि या भूखे प्रेतलोक में गिर जाता है।

किंतु भगवान का श्रावक दिव्य-आयु के व्यय होने पर उसी अवस्था में परिनिर्वृत होता है। यही अंतर है, भिक्षुओं! यही भेद है! यही विशिष्टता है धर्म न सुने आम व्यक्ति और धर्म सुने आर्यश्रावक के बीच में, जब [मरणोपरांत] गति एवं पुनःउत्पत्ति होती है।

या ऐसा होता है कि कोई व्यक्ती… करुण चित्त को… फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह उसका खूब स्वाद उठाता है… और मरणोपरांत आभाश्वर [आभा-किरणों से दमकते] देवलोक में उत्पन्न होता है। आभाश्वर देवलोक की आयु दो कल्प होती है…

या ऐसा होता है कि कोई व्यक्ती… प्रसन्न चित्त को… फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह उसका खूब स्वाद उठाता है… और मरणोपरांत शुभकिन्ह [सुंदर कृष्णलोक] देवलोक में उत्पन्न होता है। शुभकिन्ह देवलोक की आयु चार कल्प होती है…

या ऐसा होता है कि कोई व्यक्ती… तटस्थ चित्त को… फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। तब वह उसका खूब स्वाद उठाता है… और मरणोपरांत वेहप्फ़ल [आसमां के फ़ल] देवलोक में उत्पन्न होता है। वेहप्फ़ल देवलोक की आयु पाँच सौ कल्प होती है। वहाँ रहता धर्म न सुना आम व्यक्ति दिव्य-आयु के व्यय हो जाने पर नर्क, पशुयोनि या भूखे प्रेतलोक में गिर जाता है।

किंतु भगवान का श्रावक दिव्य-आयु के व्यय होने पर उसी अवस्था में परिनिर्वृत होता है। यही अंतर है, भिक्षुओं! यही भेद है! यही विशिष्टता है धर्म न सुने आम व्यक्ति और धर्म सुने आर्यश्रावक के बीच में, जब गति एवं पुनःउत्पत्ति होती है।”

«अंगुत्तरनिकाय ४:१२५ : पठमसद्भावनासुत्त»


मुक्ति की ओर

गृहस्थ अनाथपिंडक, पाँच सौ उपासकों के साथ भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। भगवान ने कहा:

“गृहस्थों! आप ने भिक्षुसंघ को चीवर, भोजन, आवास एवं रोग के लिए औषधि-भैषज्य दिए हैं। किंतु इतने पर आप संतुष्ट न रहें कि ‘हम ने भिक्षुसंघ को चीवर, भोजन, आवास एवं रोग के लिए औषधि-भैषज्य दिए हैं।’ बल्कि गृहस्थों, आप को सीखना चाहिए कि ‘कैसे हम समय-समय पर ‘निर्लिप्त एकांतवास की प्रफुल्लता’ में प्रवेश पाकर रह सकते हैं?’ इस तरह आप को सीखना चाहिए!”

जब ऐसा कहा गया, तो भन्ते सारिपुत्र कह पड़े, “आश्चर्य है, भगवान! अद्भुत है! भगवान ने कितना अच्छा कहा! जब कोई आर्यश्रावक ‘निर्लिप्त एकांतवास की प्रफुल्लता’ में प्रवेश पाकर रहता है, तब उसमे पाँच गुण उपस्थित नहीं रहते हैं —

• कामुकता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा नहीं होती।

• कामुकता से जुड़ा कायासुख एवं मनोहर्ष नहीं होता।

• अकुशलता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा नहीं होती।

• अकुशलता से जुड़ा कायासुख एवं मनोहर्ष नहीं होता।

• तथा कुशलता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा नहीं होती।”

“साधु साधु, सारिपुत्र! सच है कि जब कोई आर्यश्रावक निर्लिप्त एकांतवास की प्रफुल्लता में प्रवेश पाकर रहता है, तो उस समय उसमे पाँच गुण उपस्थित नहीं होते हैं — कामुकता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा, कामुकता से जुड़ा कायासुख एवं मनोहर्ष, अकुशलता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा, अकुशलता से जुड़ा कायासुख एवं मनोहर्ष, कुशलता से जुड़ा बदनदर्द एवं मनोव्यथा।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:१७६ : पीतिसुत्त»


“होशियार एवं स्मरणशील को असीम समाधि 2 विकसित करनी चाहिए। जब कोई होशियार एवं स्मरणशील ‘असीम समाधि’ विकसित करे, तो उसे पाँच ज्ञान उत्पन्न होते हैं। कौन से पाँच?

• ‘यह समाधि वर्तमान में सुखदायक है, तथा भविष्य में सुखद फ़ल देगी।’

• ‘यह समाधि आर्य है, निरामिष [=भौतिक स्थिति से परे] है।’

• ‘यह समाधि नीच लोगों के लिए नहीं है।’

• ‘यह शांतिमय एवं सर्वोत्कृष्ट समाधि — प्रशान्ति अर्जित कराती है, एक-भाव प्राप्त कराती है, जबरन संयमपूर्ण रचना से नहीं बनी रहती है।’

• ‘इस समाधि में स्मरणशील होकर प्रवेश पाता हूँ, तथा स्मरणशील होकर ही उठता हूँ।’

— जब कोई होशियार एवं स्मरणशील ‘असीम समाधि’ विकसित करे, तो उसे यह पाँच ज्ञान उत्पन्न होते हैं।”

«अंगुत्तरनिकाय ५:२७ : समाधिसुत्त»


कोई भिक्षु भगवान के पास गया और पहुँचकर अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। उसने एक-ओर बैठकर कहा,

“भन्ते! अच्छा होगा जो भगवान मुझे संक्षिप्त में धर्म सिखाएँ। ताकि भगवान से धर्म सुनकर मैं निर्लिप्त एकांतवास में फिक्रमंद, सचेत एवं दृढ़निश्चयी होकर रहूँ।”

“तब, भिक्षु! तुम्हें इस तरह सीखना चाहिए — ‘मेरा चित्त भीतर स्थापित रहेगा, भीतर ही जमे रहेगा। जो कभी पाप, अकुशल स्वभाव उत्पन्न हो, तो चित्त को जकड़े नहीं रहेगा।’

तब तुम्हें सीखना चाहिए — ‘सद्भावना द्वारा चेत्तोविमुक्ति को विकसित करूँगा, रत रहूँगा, आधार बनाऊँगा, स्थिर करूँगा, दृढ़ करूँगा, भलीभांति अनुसरण करूँगा!’ जब इस तरह यह समाधि विकसित करोगे, तब उसे —

• «सवितक्कं सविचारं» सोच के साथ एवं विचार के साथ विकसित करना चाहिए।

• «अवितक्कं विचारमत्तं» बिना सोच एवं थोड़ी मात्रा में विचार के साथ विकसित करना चाहिए।

• «अवितक्कं अविचारं» बिना सोच एवं बिना विचार के विकसित करना चाहिए।

• «सप्पीति» प्रफुल्लता के साथ विकसित करना चाहिए।

• «निप्पीति» बिना प्रफुल्लता के विकसित करना चाहिए।

• «सातसहगतं» सुख के साथ विकसित करना चाहिए।

• «उपेक्खासहगतं» तटस्थता के साथ विकसित करना चाहिए।

जब इस तरह यह समाधि विकसित हो जाएँ, सुविकसित हो जाएँ, तब तुम्हें सीखना चाहिए — ‘करुणा द्वारा चेत्तोविमुक्ति… प्रसन्नता द्वारा चेतोविमुक्ति… तटस्थता द्वारा चेतोविमुक्ति को विकसित करूँगा, रत रहूँगा, आधार बनाऊँगा, स्थिर करूँगा, दृढ़ करूँगा, भलीभांति अनुसरण करूँगा!’ जब इस तरह यह समाधि विकसित करोगे, तब उसे — सोच के साथ एवं विचार के साथ… बिना सोच एवं थोड़ी मात्रा में विचार के साथ… बिना सोच एवं बिना विचार के… प्रफुल्लता के साथ… बिना प्रफुल्लता के… सुख के साथ… तटस्थता के साथ विकसित करना चाहिए।

जब इस तरह यह समाधि विकसित हो जाएँ, सुविकसित हो जाएँ, तब तुम्हें सीखना चाहिए — ‘मैं काया को काया देखते हुए रहूँगा — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए। जब इस तरह यह समाधि विकसित करोगे, तब उसे — सोच के साथ एवं विचार के साथ… बिना सोच एवं थोड़ी मात्रा में विचार के साथ… बिना सोच एवं बिना विचार के… प्रफुल्लता के साथ… बिना प्रफुल्लता के… सुख के साथ… तटस्थता के साथ विकसित करना चाहिए।

जब इस तरह यह समाधि विकसित हो जाएँ, सुविकसित हो जाएँ, तब तुम्हें सीखना चाहिए — ‘मैं संवेदना को संवेदना देखते हुए रहूँगा — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए… चित्त को चित्त देखते हुए रहूँगा — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए… स्वभाव को स्वभाव देखते हुए रहूँगा — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए। जब इस तरह यह समाधि विकसित करोगे, तब उसे — सोच के साथ एवं विचार के साथ… बिना सोच एवं थोड़ी मात्रा में विचार के साथ… बिना सोच एवं बिना विचार के… प्रफुल्लता के साथ… बिना प्रफुल्लता के… सुख के साथ… तटस्थता के साथ विकसित करना चाहिए।

जब इस तरह यह समाधि विकसित हो जाएँ, सुविकसित हो जाएँ, तब तुम जहाँ जाओगे, चैन से जाओगे। जहाँ बैठोगे, चैन से बैठोगे। जहाँ लेटोगे, चैन से लेटोगे।”

वह भिक्षु भगवान से देशना पाकर आसन से उठकर भगवान को अभिवादन किया, और भगवान को दाएँ रख प्रदक्षिणा कर चला गया। तब वह निर्लिप्त एकांतवास में फिक्रमंद, सचेत एवं दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँच कर स्थित हुआ, जिसके लिए वाकई कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं। उसने स्वयं जाना और साक्षात्कार किया। उसे पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! काम पूरा हुआ! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ और इस तरह वह भिक्षु अर्हंतों में एक हुआ।

«अंगुत्तरनिकाय ८:६३ : संखित्तसुत्त»


ऐसा होता है कि कोई भिक्षु किसी शान्त चेतोविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहता है, तब वह तादात्म्य निरोध पर गौर करता है। किंतु तब उसका चित्त न उछलता है, न आश्वस्त होता है, न स्थिर होता है, न ही स्थापित होता है। उसके लिए तादात्म्य भाव का अन्त होना अपेक्षित नहीं है।

जैसे कोई गोंद से सने हाथ से टहनी पकड़े, तो उसका हाथ वही चिपकता, जकड़ता, जम जाता है। उसी तरह यदि किसी भिक्षु द्वारा ‘तादात्म्य निरोध’ पर गौर करने पर उसका चित्त न उछले, न आश्वस्त हो, न स्थिर हो, न ही स्थापित हो, तो उसके लिए तादात्म्य भाव का अन्त होना अपेक्षित नहीं है।

और ऐसा होता है कि कोई अन्य भिक्षु किसी शान्त चेतोविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहता है, तब वह ‘तादात्म्य निरोध’ पर गौर करता है। और उसका चित्त उछलता है, आश्वस्त होता है, स्थिर होता है, स्थापित हो जाता है। उसके लिए तादात्म्य भाव का अन्त होना अपेक्षित है।

जैसे कोई स्वच्छ हाथ से टहनी पकड़े, तो उसका हाथ वही न चिपकता, न जकड़ता, न जम जाता है। उसी तरह यदि किसी भिक्षु द्वारा तादात्म्य निरोध पर गौर करने पर उसका चित्त उछले, आश्वस्त हो, स्थिर हो, स्थापित हो, तो उसके लिए तादात्म्य भाव का अन्त होना अपेक्षित है।


तथा ऐसा होता है कि कोई भिक्षु किसी शान्त चेतोविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहता है, तब वह अविद्या भेदन पर गौर करता है। किंतु तब उसका चित्त न उछलता है, न आश्वस्त होता है, न स्थिर होता है, न ही स्थापित होता है। उसके लिए अविद्या भेदन होना अपेक्षित नहीं है।

जैसे कोई जलाशय मैला हो, अनेक वर्षों से सड़ता हुआ। तब कोई पुरुष आकर भीतर आता जलप्रवाह रोक दे, तथा बाहर निकलता जलप्रवाह खोल दे, और मेघदेवता अच्छी वर्षा न कराएँ। तब मैले जलाशय का तट भेदन [ओवरफ्लो] होना अपेक्षित नहीं है। उसी तरह यदि किसी भिक्षु द्वारा ‘अविद्या भेदन’ पर गौर करने पर उसका चित्त न उछले, न आश्वस्त हो, न स्थिर हो, न ही स्थापित हो, तो उसके लिए अविद्या भेदन होना अपेक्षित नहीं है।

और ऐसा होता है कि कोई भिक्षु किसी शान्त चेतोविमुक्ति में प्रवेश पाकर रहता है, वह ‘अविद्या भेदन’ पर गौर करता है। और तब उसका चित्त उछलता है, आश्वस्त होता है, स्थिर होता है, स्थापित हो जाता है। उसके लिए अविद्या भेदना अपेक्षित है।

जैसे कोई जलाशय मैला हो, अनेक वर्षों से सड़ता हुआ। तब कोई पुरुष आकर भीतर आता जलप्रवाह खोल दे, बाहर निकलता जलप्रवाह रोक दे, और मेघदेवता भी अच्छी वर्षा कराएँ। तब मैले जलाशय का तट भेदन होना अपेक्षित है। उसी तरह यदि कोई भिक्षु ‘अविद्या भेदन’ पर गौर करने पर उसका चित्त उछले, आश्वस्त हो, स्थिर हो, स्थापित हो, तो उसके लिए अविद्या भेदना अपेक्षित है।”

«अंगुत्तरनिकाय ४:१७८ : जम्बालीसुत्त»


एक व्यक्ती दुनिया के प्रति लालसा छोड़, दुर्भावना छोड़, भ्रम छोड़, सचेत एवं स्मरणशील होकर सद्भाव चित्त… करुण चित्त… प्रसन्न चित्त… तटस्थ चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है।

तब वह रूप, संवेदना, नजरिया, रचना एवं चैतन्यता [पाँच आधार-संग्रह] से जुड़े सभी स्वभावों पर योग्य तरह से गौर करता है कि “वे अनित्य है, कष्टपूर्ण है, रोग है, फोड़ा है, तीर है, पीड़ादायक है, मुसीबत है, पराये है, भंग होते है, शून्य है, अनात्म है!” तब वह मरणोपरांत ‘शुद्धवास ब्रह्मलोक’ में उत्पन्न होता है। यह जन्म सामान्यजन के लिए नहीं है। [मात्र आर्य अनागामि व्यक्ति के लिए है।]

या तब उसे समीक्षा करने पर पता चलता है — ‘यह सद्भावना चेत्तोविमुक्ति… करुणा चेत्तोविमुक्ति… प्रसन्नता चेत्तोविमुक्ति… तटस्थता चेत्तोविमुक्ति चेतनापूर्ण रची गई है। अब जो चेतनापूर्ण रचित हो, वह अनित्य-स्वभाव की है, निरोध-स्वभाव की है।’ तब उसका चित्त वही रुके बहाव थमने «आसवक्खय» तक पहुँचता है। यदि न भी पहुँचे, तो उसका ‘धर्म दिलचस्पी, धर्म हर्ष’ के चलते निचले पाँच-संयोजन टूटने से वहाँ प्रकट होना अपेक्षित है, जहाँ से पुनः न लौटकर वही परिनिर्वृत होते हैं। [=शुद्धवास ब्रह्मलोक]”

«अंगुत्तरनिकाय ४:१२६ : दुतियसद्भावनासुत्त + मज्झिमनिकाय ५२ : अट्ठकनागरसुत्त»


📋 सूची | अध्याय आठ »


  1. अट्ठकथानुसार अनाथपिंडक जो भोजनदान अनाथ एवं दरिद्र लोगों को देता था, यहाँ उसके बारे में कह रहा है। क्योंकि उसने भिक्षु एवं भिक्षुणी संघ को सदैव ही उत्तम दर्जे का भोजनदान दिया। किंतु संभव है कि ऐसा न हो। बल्कि वह दुर्भिक्ष या अन्य विपरीत स्थिति का समय रहा हो, जिसके चलते वह सभी को निम्न दर्जे का ही भोजन दे पाता हो। ↩︎

  2. असीम अथवा अप्रमाण समाधि, अर्थात् (सद्भावना, करुणा, प्रसन्नता एवं तटस्थता) ब्रह्मविहार की असीम भावना कर, उसके आधार पर चित्तसमाधि लगाना। ↩︎