नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स



अध्याय आठ

अपार पुण्य



भगवान ने कहा:

अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार चार होते हैं। कौन से चार?

ऐसा होता है कि किसी आर्यश्रावक को बुद्ध पर अटूट आस्था होती है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ यह प्रथम अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।

आगे, उसे धर्म पर अटूट आस्था होती है कि ‘वाकई भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य!’ यह द्वितीय अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।

आगे, उसे संघ पर अटूट आस्था होती है कि ‘वाकई भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!’ यह तृतीय अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।

आगे, वह आर्यपसंद शील से संपन्न होता है — जो अखंडित रहें, अछिद्रित रहें, बेदाग रहें, बेधब्बा रहें, निष्कलंक रहें, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हो, छुटकारा दिलाते हो, और समाधि की ओर बढ़ाते हो। यह चतुर्थ अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।

[अथवा चतुर्थ अपार पुण्य अगले सूत्रानुसार इस तरह है:]

आगे, वह घर रहते हुए दानी होता है — कंजूसी के मल से छूटा, साफ़ चित्त का, मुक्त त्यागी, खुले हृदय का, उदारता में रत होता, याचनाओं का पूर्णकर्ता, दान-संविभाग में रत रहता है। यह चतुर्थ अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।

[अथवा चतुर्थ अपार पुण्य अगले सूत्रानुसार इस तरह है:]

आगे, उसमे अंतर्ज्ञान होता है — आर्य, भेदक, उदय-व्यय पता करने योग्य, दुःखों का सम्यक अन्तकर्ता! यह चतुर्थ अपार पुण्य, अपार कुशलता, सुख आहार है।”

“जैसे समुद्र का जल मापना सरल नहीं है कि — ‘यह जल मात्र इतनी बाल्टियां हैं, या इतनी सैकड़ों बाल्टियां हैं, या इतनी हज़ार बाल्टियां हैं, या इतनी लाख बाल्टियां हैं।’ बल्कि ऐसे समझा जाता है कि यह समुद्र का महाजलसंग्रह ‘अथाह, असीम’ है!

उसी तरह जब कोई चार ‘अपार पुण्य, अपार कुशलता’ से संपन्न हो, तो उसका पुण्य मापना सरल नहीं है कि ‘यह मात्र इतना अपार पुण्य, अपार कुशल, सुख आहार, स्वर्ग ले जाता, स्वर्गिक खुशी में पकता, प्रिय मनचाहा सुखद मोहक एवं लाभकारी होगा।’ उसे बस ऐसे समझे कि यह अपार पुण्य का महाढ़ेर ‘अथाह, असीम’ है!”

“जब कोई भलीभांति धर्म सुना आर्यश्रावक चार अपार पुण्य से संपन्न हो, तो उसे मौत आने पर अगले जीवन को लेकर न आतंक होता है, न घबराहट होती है, न ही भय लगता है।”

«संयुत्तनिकाय ५५ : ३१, ३२, ३३, ४१, २७ : पुञ्ञाभिसन्दवग्गो»


तब भगवान ने गृहस्थ उपालि को धर्म अनुक्रम से बताया — [प्रथम] दान की बात.. [फिर] शील की बात.. [फिर] स्वर्ग की बात.. [और फिर] कामुकता के दुष्परिणाम, पतन एवं दूषितता बताकर, [तब] ‘संन्यास के लाभ’ प्रकाशित किए।

और जब भगवान ने देखा कि गृहस्थ उपालि का चित्त तैयार, मृदु, बिना व्यवधान का, उल्लासित एवं आश्वस्त हुआ, तब उन्होंने बुद्धविशेष धर्मदेशना उजागर की — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग [=चार आर्यसत्य]।

जैसे कोई स्वच्छ, दागरहित वस्त्र भली प्रकार रंग पकड़ता है, उसी तरह गृहस्थ उपालि को उसी आसन पर बैठे हुए धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — ‘जो उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!’

तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका गृहस्थ उपालि, संदेह लांघकर, परे चला गया। तब उसे कोई सवाल न बचे। उसे निडरता प्राप्त हुई। तथा वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी हुआ [=श्रोतापति लक्षण]।

«मज्झिमनिकाय ५६ : उपालिसुत्त»


लिच्छवियों के प्रधानमंत्री नन्दक से भगवान ने कहा:

“नन्दक! यदि कोई आर्यश्रावक ‘चार अपार पुण्य’ से संपन्न हो, तो वह श्रोतापन्न है, धर्म में स्थापित है, दुर्गतिलोक में नहीं पड़ता है, सम्बोधी की ओर बढ़ता है।

आगे, यदि कोई आर्यश्रावक ‘चार अपार पुण्य’ से संपन्न हो, तो वह दिव्य अथवा मानवीय दीर्घायु होता है। वह दिव्य अथवा मानवीय सौंदर्यवान होता है। वह दिव्य अथवा मानवीय सुखपूर्वक होता है। वह दिव्य अथवा मानवीय प्रतिष्ठा-संपन्न होता है। वह दिव्य अथवा मानवीय ऐश्वर्यशाली होता है।

नन्दक, मैं यह किसी अन्य श्रमण या ब्राह्मण से सुनकर नहीं बता रहा हूँ। बल्कि जो मुझे स्वयं ज्ञात हुआ, दिखा तथा साक्षात्कार हुआ, वह बता रहा हूँ।”

तब अचानक किसी ने लिच्छवियों के प्रधानमंत्री नन्दक से कहा:

“श्रीमान! यह आप के स्नान का समय है।”

“मैं कहता हूँ, बहुत हुआ बाहरी स्नान! मैं भीतरी स्नान से संतुष्ठ हुआ — भगवान पर अटूट आस्था से!”

«संयुत्तनिकाय ५५:३० : नन्दकलिच्छविसुत्त»


सारिपुत्र भन्ते भगवान के पास गए और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गए। भगवान ने कहा:

“सारिपुत्र, ‘श्रोतापतिअंग श्रोतापतिअंग’ कहते हैं। यह श्रोतापतिअंग क्या है?”

“भन्ते, श्रोतापतिअंग चार होते हैं —

• «सप्पुरिससंसेव» सत्पुरुष से संगति,

• «सद्धम्मस्सवन» सद्धर्म सुनना,

• «योनिसोमनसिकार» उचित बात [आर्यसत्यों] पर गौर करना,

• «धम्मानुधम्मप्पटिपत्ति» धर्मानुसार ही धर्म पर चलना।”

“साधु साधु, सारिपुत्र! सच हैं! श्रोतापतिअंग चार होते हैं — सत्पुरुष से संगति, सद्धर्म सुनना, उचित बात पर गौर करना, तथा धर्मानुसार ही धर्म पर चलना।


और, सारिपुत्र! ‘श्रोत श्रोत’ कहते हैं। यह श्रोत क्या है?”

“भन्ते, ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ ही श्रोत है। अर्थात् सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकमेहनत, सम्यकस्मृति, सम्यकसमाधि।”

“साधु साधु, सारिपुत्र! सच है! आर्य अष्टांगिक मार्ग ही श्रोत है। अर्थात् सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकमेहनत, सम्यकस्मृति, सम्यकसमाधि।


और, सारिपुत्र! ‘श्रोतापन्न श्रोतापन्न’ कहते हैं। यह श्रोतापन्न क्या है?”

“भन्ते! जब कोई आयुष्मान, किसी भी कुल एवं गोत्र का, ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ से संपन्न हो तो उसे श्रोतापन्न कहते हैं।”

“साधु साधु, सारिपुत्र! सच है! जब कोई आयुष्मान, किसी भी कुल एवं गोत्र का, ‘आर्य अष्टांगिक मार्ग’ से संपन्न हो तो उसे श्रोतापन्न कहते हैं।”

«संयुत्तनिकाय ५५:५ : दुतियसारिपुत्तसुत्त»


आर्य अष्टांगिक मार्ग

“सम्यकदृष्टि क्या है?

• दुःख का ज्ञान,

• दुःख की उत्पत्ति का ज्ञान,

• दुःख के निरोध का ज्ञान,

• दुःख के निरोधकर्ता प्रगतिपथ का ज्ञान।

सम्यकसंकल्प क्या है?

• संन्यास का संकल्प,

• दुर्भावनाविहीन संकल्प,

• अहिंसा का संकल्प।

सम्यकवचन क्या है?

• असत्य वचन से विरत रहना,

• फूट डालने वाले वचन से विरत रहना,

• कटु वचन से विरत रहना,

• निरर्थक वचन से विरत रहना।

सम्यककार्य क्या है?

• जीवहत्या से विरत रहना,

• चुराने से विरत रहना,

• अब्रह्मचर्य [=कामुक-स्वभाव] से विरत रहना।

सम्यकजीविका क्या है?

कोई आर्यश्रावक मिथ्या-जीविका त्यागता है, और सम्यक जीविका 1 से जीवन यापन करता है।

सम्यकमेहनत क्या है?

• अनुत्पन्न पाप अकुशल स्वभाव आगे न उत्पन्न हो, उसके लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• उत्पन्न पाप अकुशल स्वभाव को छोड़ने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• अनुत्पन्न कुशल स्वभाव को उत्पन्न करने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

• और उत्पन्न कुशल स्वभाव को टिकाए रखने, आगे लाने, वृद्धि करने, प्रचुरता लाने, विकसित कर परिपूर्ण करने के लिए भिक्षु चाह पैदा करता है, मेहनत करता है, ज़ोर लगाता है, इरादा बनाकर जुटता है।

सम्यकस्मृति क्या है?

• कोई काया को [मात्र] काया देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए।

संवेदना को [मात्र] संवेदना देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए।

चित्त को [मात्र] चित्त देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए।

स्वभाव को [मात्र] स्वभाव देखते हुए रहता है — तत्पर सचेत एवं स्मरणशील, दुनिया के प्रति लालसा एवं नाराज़ी हटाते हुए।

सम्यकसमाधि क्या है?

• कोई आर्यश्रावक त्याग का आलंबन बनाकर समाधि लगाता है और चित्त एकाग्र करता है। वह काम स्वभाव से निर्लिप्त हो, अकुशल स्वभाव से निर्लिप्त हो, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से जन्मी प्रफुल्लता एवं सुख वाले प्रथम-झान में प्रवेश पाकर रहता है।

• आगे सोच एवं विचार रुक जाने पर भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होता है। तब वह बिना-सोच बिना-विचार के साथ समाधि से जन्मे प्रफुल्लता एवं सुख वाले द्वितीय-झान में प्रवेश पाकर रहता है।

• आगे वह प्रफुल्लता से विरक्ति लेकर स्मरणशीलता व सचेतता के साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ स्मरणशील सुखविहारी’ कहते है, वह ऐसे तृतीय-झान में प्रवेश पाकर रहता है।

• आगे सुख एवं दर्द हटाकर, हर्ष एवं नाराजी पूर्व विलुप्त होने से, अब वह तटस्थता एवं स्मरणशीलता की परिशुद्धि के साथ नसुख-नदर्द वाले चतुर्थ-झान में प्रवेश पाकर रहता है।”

«संयुत्तनिकाय ४५:८ : विभङगसुत्त»


“ऐसा होता है, ब्राह्मण! जो सद्धर्म को लेकर निश्चितता पर पहुँच जाता है, उसे न संदेह होता है, न उलझन। यदि उसे कोई गंभीर रोग भी हो जाए, तो उसे लगता है — “मुझे न संदेह है, न उलझन! मैं सद्धर्म को लेकर निश्चितता पर पहुँच चुका हूँ।” तब वह न अफ़सोस करता है, न ढ़ीला पड़ता है, न मातम करता है, न छाती पीटता है, न ही बावला हो जाता है। यह भी एक व्यक्ति है, जो मरण-धर्म से घिरा होकर भी मृत्यु से न भयभीत होता है, न आतंकित।”

«अंगुत्तरनिकाय ४:१८४ : अभयसुत्त»


भगवान ने अँगूठे की नाखून पर धूल उठाते हुए कहा:

“क्या लगता है भिक्षुओं! क्या यह नाखून की धूल अधिक है अथवा विशाल पृथ्वी?”

“विशाल पृथ्वी बहुत अधिक है, भगवान! भगवान के नाखून की धूल कुछ भी नहीं है। उसे गिना भी न जाएगा। कोई तुलना ही नहीं, बेहद कम है। विशाल पृथ्वी से तुलना करें तो भगवान के नाखून की धूल एक अंश भी नहीं है!”

“उसी तरह भिक्षुओं! जो दृष्टिसंपन्न [=श्रोतापन्न] व्यक्ति भली प्रकार धर्म समझ जाए, उसकी अत्याधिक दुःख एवं पीड़ा खत्म हुई, समाप्त हुई। और जो बच गई, जो उसे अधिक से अधिक सात जन्मों में मिलेगी — वह कुछ भी नहीं है। उसे गिना भी न जाएगा। कोई तुलना ही नहीं, बेहद कम है। पूर्व दुःख के ढ़ेर से तुलना करे, तो बचा दुःख एवं पीड़ा एक अंश भी नहीं है!

इतना विशाल पुरस्कार मिलता है, भिक्षुओं, जिसे धर्म भली प्रकार समझ जाए! इतना महान पुरस्कार मिलता है, जिसे धर्मचक्षु प्राप्त हो!”

«संयुत्तनिकाय १३:१ : नखसिखासुत्त»


“भिक्षुओं! भले ही कोई चक्रवर्ती सम्राट हो — जो चारों दिशाओं में ऐश्वर्यपूर्ण आधिपत्य भोगने के पश्चात मरणोपरांत सद्गति होकर तैतीस देवताओं के स्वर्ग में उपजता हो। जहाँ नन्दनवन में रहते हुए, वह अप्सराओं से घिरे रहे और दिव्य पञ्चकामसुख का खूब लुत्फ़ उठाए। किंतु वह ‘चार अपार पुण्य’ धर्म से असंपन्न होने के कारण न पशुयोनी [की संभावना] से छूटा होता है, न भूखे प्रेतलोक से छूटा होता है, न ही यातनालोक नर्क से छूटा होता है।

दूसरी ओर, कोई आर्यश्रावक हो — जो भिक्षा में मिले टुकड़ों पर जीवन यापन करता हो, चिथड़े-सिला चीवर ओढ़ता हो। किंतु वह ‘चार अपार पुण्य’ धर्म से संपन्न होने के कारण पशुयोनी से छूटा होता है, भूखे प्रेतलोक से छूटा होता है, और यातनालोक नर्क से भी छूटा होता है।

भिक्षुओं! यदि दोनो में तुलना करे, तो ‘चार दिशाएँ पाना’ ‘चार धर्म पाने’ के सोलहवें हिस्से के भी बराबर नहीं हैं।”

«संयुत्तनिकाय ५५:१ : चक्कवत्तिराजसुत्त»


पथब्या एकरज्जेन, सग्गस्स गमनेन वा
सब्बलोकाधिपच्चेन, सोतापत्तिफ़लं वरं।

पृथ्वी पर एकछत्र-राज्य,
पश्चात स्वर्ग जाकर समस्त विश्वों पर आधिपत्य!
उससे भी बेहतर है श्रोतापतिफ़ल!

«धम्मपद लोकवग्गो १७८»


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  1. ऐसी जीविका, जिससे किसी का किसी भी तरह से अहित न हो। भगवान कहते हैं, “उपासक ने पाँच तरह के व्यापार नहीं करने चाहिए। कौन से पाँच? शस्त्र व्यापार, सत्व व्यापार [अर्थात्, जीवित मानव या पशु की ख़रीद-बिक्री], मांस व्यापार, मद्य व्यापार, और विष व्यापार।”

    «अंगुत्तरनिकाय ५:१७७ : वणिज्जासुत्तं» ↩︎