मरण
महानाम शाक्य [भगवान का चचेरा भाई] भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर गया। उसने बैठकर कहा:
“भन्ते! मैने सुना है कि ‘बहुत से भिक्षु भगवान के लिए चीवर सिलने में व्यस्त हैं। वर्षावास के तीन माह समाप्त होने के पश्चात, चीवर सिलकर तैयार होने के साथ ही भगवान भ्रमण पर निकल पड़ेंगे।’ किंतु मैने अब तक भगवान के समक्ष यह नहीं सुना, यह नहीं सीखा कि कोई प्रज्ञावान उपासक, किसी बीमार, गंभीर रोग से पीड़ित प्रज्ञावान उपासक को कैसे उपदेश करे?”
“महानाम! प्रज्ञावान उपासक को चाहिए कि वह किसी बीमार, गंभीर रोग से पीड़ित प्रज्ञावान उपासक को चार आश्वासन दें —
• ‘आश्वस्त रहो मित्र, जो तुम्हें बुद्ध पर अटूट आस्था है कि — ‘वाकई भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’
• ‘आश्वस्त रहो मित्र, जो तुम्हें धर्म पर अटूट आस्था है कि वाकई — ‘भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य!’
• ‘आश्वस्त रहो मित्र, जो तुम्हें संघ पर अटूट आस्था है कि वाकई — ‘भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!’
• ‘आश्वस्त रहो मित्र, जो तुम्हारे आर्यपसंद शील हैं — ‘अखंडित हैं, अछिद्रित हैं, बेदाग हैं, बेधब्बा हैं, निष्कलंक हैं, विद्वानों द्वारा प्रशंसित हैं, छुटकारा दिलाते हैं, समाधि की ओर बढ़ाते हैं।’
महानाम! यह चार आश्वासन देने के पश्चात प्रज्ञावान उपासक को चाहिए कि वह उस बीमार, गंभीर रोग से पीड़ित प्रज्ञावान उपासक को पूछें, “मित्र! क्या तुम अपने माता-पिता के लिए चिंतित हो?”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मैं अपने माता-पिता के लिए चिंतित हूँ!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, तुम मरण-स्वभाव के हो! जो तुम अपने माता-पिता के लिए चिंतित रहोगे, तब भी मरोगे। जो तुम अपने माता-पिता के लिए चिंतित नहीं रहोगे, तब भी मरोगे। अच्छा होगा जो तुम अपने माता-पिता की चिंता छोड़ दो!”
यदि वह कहे, ‘मैने माता-पिता की चिंता छोड़ दी है!’ तो पूछना चाहिए, “मित्र, क्या तुम अपनी पत्नी एवं संतान के लिए चिंतित हो?”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मैं अपनी पत्नी एवं संतान के लिए चिंतित हूँ!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, तुम मरण-स्वभाव के हो! जो तुम अपने पत्नी एवं संतान के लिए चिंतित रहोगे, तब भी मरोगे। जो तुम अपने पत्नी एवं संतान के लिए चिंतित नहीं रहोगे, तब भी मरोगे। अच्छा होगा जो तुम अपने पत्नी एवं संतान की चिंता छोड़ दो!”
यदि वह कहे, ‘मैने पत्नी एवं संतान की चिंता छोड़ दी है!’ तो पूछना चाहिए, “मित्र, क्या तुम मानवीय पञ्चकामसुख के लिए चिंतित हो?”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मैं मानवीय पञ्चकामसुख के लिए चिंतित हूँ!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, मानवीय कामसुख के बजाए दिव्य कामसुख अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट होते हैं। अच्छा होगा जो अपने चित्त को मानवीय कामसुख से उठाकर चार महाराज देवताओं पर टिका दो!”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मेरा चित्त मानवीय कामसुख से उठकर चार महाराज देवताओं पर टिक गया है!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, चार महाराज देवताओं के बजाए तैतीस देवता अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट होते हैं। अच्छा होगा जो अपने चित्त को चार महाराज देवताओं से उठाकर तैतीस देवताओं पर टिका दो!”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मेरा चित्त चार महाराज देवताओं से उठकर तैतीस देवताओं पर टिक गया है!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, तैतीस देवताओं के बजाए याम देवता… तुषित देवता… निर्माणरति देवता… परनिर्मित वशवर्ती देवता… ब्रह्मलोक अधिक उत्तम, अधिक उत्कृष्ट होते हैं। अच्छा होगा जो अपने चित्त को तैतीस देवताओं से उठाकर, याम देवता… तुषित देवता… निर्माणरति देवता… परनिर्मित वशवर्ती देवता… ब्रह्मलोक पर टिका दो!”
यदि वह कहे, ‘हाँ, मेरा चित्त परनिर्मित वशवर्ती देवताओं से उठकर ब्रह्मलोक पर टिक गया है!’ तो उससे कहना चाहिए, “मेरे प्रिय मित्र, ब्रह्मलोक भी अनित्य होता है! सदा बना नहीं रहता! तादात्म्य में ही सम्मिलित रहता है। अच्छा होगा जो अब चित्त को ब्रह्मलोक से उठाकर तादात्म्य निरोध करा दो!”
यदि वह कहे, ‘मेरा चित्त ब्रह्मलोक से उठकर तादात्म्य निरोध हो गया है!’ तब, महानाम, मैं कहता हूँ कि उस बहावमुक्त उपासक के विमुक्तचित्त में तथा किसी भिक्षु के विमुक्तचित्त में कोई अंतर नहीं रहा!”
«संयुत्तनिकाय ५५:५४ : गिलानसुत्त»
ब्राह्मण धनञ्जानि कुछ समय पश्चात बीमार पड़ा, गंभीर रोग से पीड़ित। […तब उसने एक पुरुष भेजा।] उस पुरुष ने विहार जाकर भगवान के चरणों पर शीर्ष रख नमन करते हुए कहा, “भन्ते, ब्राह्मण धनञ्जानि बीमार पड़ा है, गंभीर रोग से पीड़ित। वह भगवान के चरणों पर शीर्ष रख नमन करता है।” तब, वह उठकर भन्ते सारिपुत्र के पास गया, और उनके चरणों पर शीर्ष रख नमन करते हुए कहा, “भन्ते, ब्राह्मण धनञ्जानि बीमार पड़ा है, गंभीर रोग से पीड़ित। वह आपके चरणों पर शीर्ष रख नमन करता है। अच्छा होगा भन्ते, जो सारिपुत्र भन्ते ब्राह्मण धनञ्जानि पर अनुकम्पा करते हुए उसके निवास आएँ।” भन्ते सारिपुत्र ने मौन स्वीकृति दी। तब भन्ते सारिपुत्र चीवर ओढ़, पात्र और संघाटी लेकर, उसके निवास में गए। और बिछे आसन पर बैठते हुए, उन्होंने ब्राह्मण धनञ्जानि से कहा, “आशा करता हूँ ब्राह्मण, तुम ठीक होंगे! राहत से होंगे! आशा करता हूँ, तुम्हारी पीड़ा शान्त होगी, बढ़ नहीं रही होगी। पीड़ा का शान्त होना दिखाई दे रहा होगा, बढ़ना नहीं।” “सारिपुत्र गुरुजी, मैं ठीक नहीं हूँ! राहत से नहीं हूँ। मेरी पीड़ा बढ़ रही है, शान्त नहीं हो रही। पीड़ा बढ़ते जाना ही दिखाई दे रहा हैं, शान्त होना नहीं। जैसे कोई बलवान पुरुष तेज़ तलवार से मेरा सिर काटकर खोल रहा हो, ऐसी उग्र वात मेरा सिर काट रही है।… जैसे कोई बलवान पुरुष चमड़े के रूखे पट्टे से मेरा सिर कसते जा रहा हो, ऐसी उग्र यातनाएँ मेरे सिर में हो रही हैं।… जैसे कोई निपुण कसाई तेज़ कसाईशस्त्र से गाय का पेट काटकर अलग कर रहा हो, ऐसी उग्र वात मेरा पेट काट रही है।… जैसे दो बलवान पुरुष किसी दुर्बल की बाहें दबोच कर, उसे घसीटते हुए धधकते अंगारों से भरे गड्ढे में डालकर भूनने लगें, ऐसी उग्र जलन मेरी काया में सर्वत्र हो रही है। मैं ठीक नहीं हूँ, गुरुजी! राहत से नहीं हूँ। मेरी पीड़ा बढ़ रही है, शान्त नहीं हो रही। पीड़ा बढ़ते जाना ही दिखाई दे रहा हैं, शान्त होना नहीं।” “क्या लगता है तुम्हें, धनञ्जानि? क्या श्रेष्ठ है — नर्क अथवा पशुयोनी?” “पशुयोनी, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — पशुयोनी अथवा प्रेतलोक?” “प्रेतलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — प्रेतलोक अथवा मनुष्यलोक?” “मनुष्यलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — मनुष्यलोक अथवा चार महाराजा देवताओं का स्वर्गलोक?” “चार महाराजा देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — चार महाराजा देवताओं का स्वर्गलोक अथवा तैतीस देवताओं का स्वर्गलोक?” “तैतीस देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — तैतीस देवताओं का स्वर्गलोक अथवा याम देवताओं का स्वर्गलोक?” “याम देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — याम देवताओं का स्वर्गलोक अथवा तुषित देवताओं का स्वर्गलोक?” “तुषित देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — तुषित देवताओं का स्वर्गलोक अथवा निर्माणरति देवताओं का स्वर्गलोक?” “निर्माणरति देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — निर्माणरति देवताओं का स्वर्गलोक अथवा परनिर्मित वशवर्ती देवताओं का स्वर्गलोक?” “परनिर्मित वशवर्ती देवताओं का स्वर्गलोक, गुरुजी!” “और क्या श्रेष्ठ है — परनिर्मित वशवर्ती देवताओं का स्वर्गलोक अथवा ब्रह्मलोक?” “सारिपुत्र गुरुजी ने ‘ब्रह्मलोक’ कहा!! सारिपुत्र गुरुजी ने ‘ब्रह्मलोक’ कहा!!” तब सारिपुत्र भन्ते ने सोचा, “यह ब्राह्मण लोग ब्रह्मलोक के प्रति अधिमुख होते [झुकते] हैं। चलो, क्यों न मैं ब्राह्मण धनञ्जानि को ब्रह्मलोक में संवास करने का ही मार्ग बताऊँ?” तब उन्होंने कहा, “अच्छा धनञ्जानि! मैं तुम्हें ब्रह्मलोक में संवास करने का मार्ग बताता हूँ। ध्यान देकर गौर से सुनो।” “हाँ, गुरुजी!” “ब्रह्मलोक में संवास करने का मार्ग क्या है? ऐसा होता है, धनञ्जानि! कोई आर्यश्रावक सद्भाव चित्त… करुण चित्त… प्रसन्न चित्त… तटस्थ चित्त को एक-दिशा में फैलाकर व्याप्त करता है। उसी तरह दूसरी-दिशा में… तीसरी-दिशा में… चौथी-दिशा में… ऊपर… नीचे… तत्र सर्वत्र… संपूर्ण ब्रह्मांड में निर्बैर निर्द्वेष, विस्तृत विराट असीम चित्त फैलाकर परिपूर्णतः व्याप्त करता है। यही ब्रह्मलोक में संवास करने का मार्ग है।” “तब सारिपुत्र गुरुजी, मेरे नाम से भगवान के चरणों पर शीर्ष रख नमन करते हुए कहिएगा, “भन्ते, ब्राह्मण धनञ्जानि बीमार है, गंभीर रोग से पीड़ित। वह आपके चरणों पर शीर्ष रख नमन करता है।” तब सारिपुत्र भन्ते ने ब्राह्मण धनञ्जानि को हीन ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित कर आसन से उठकर चले गए, जबकि अभी और किया जाना शेष था। सारिपुत्र भन्ते जाने के तुरंत पश्चात ब्राह्मण धनञ्जानि की मौत हुई और वह ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। तब भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया, “भिक्षुओं! सारिपुत्र ने ब्राह्मण धनञ्जानि को हीन ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित कर आसन से उठकर चला गया, जबकि अभी और किया जाना शेष था।” तब सारिपुत्र भन्ते विहार में लौटकर, भगवान के चरणों पर शीर्ष रख नमन करते हुए कहा, “भन्ते, ब्राह्मण धनञ्जानि बीमार है, गंभीर रोग से पीड़ित। वह भगवान के चरणों पर शीर्ष रख नमन करता है।” “सारिपुत्र, तुमने ब्राह्मण धनञ्जानि को हीन ब्रह्मलोक में प्रतिष्ठित कर आसन से उठकर क्यों चले गए, जबकि अभी और किया जाना शेष था?” “भन्ते! मैने सोचा, “यह ब्राह्मण लोग ब्रह्मलोक के प्रति अधिमुख होते हैं। चलो, क्यों न मैं ब्राह्मण धनञ्जानि को ब्रह्मलोक में संवास करने का ही मार्ग बताऊँ?” “सारिपुत्र! ब्राह्मण धनञ्जानि मर चुका है और ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ है।” «मज्झिमनिकाय ९७ : धनञ्जानिसुत्त»
गृहस्थ चित्त उस समय बीमार था, गंभीर रोग से ग्रस्त। तब बड़ी संख्या में उद्यानदेवता, वनदेवता, वृक्षदेवता तथा औषधिनुमा तृण वनस्पति में रहने वाले देवतागण इकट्ठा हुए, और उससे कहा, “निश्चय करो, गृहस्थ! मैं भविष्य में चक्रवर्ती सम्राट बनूं!” जब ऐसा कहा गया, तब गृहस्थ चित्त ने कहा, “किंतु, वह भी तो अनित्य है! वह भी तो बने नहीं रहता! उसे भी तो छोड़कर जाना ही पड़ता है!” जब ऐसा कहा गया, तब गृहस्थ चित्त के मित्र-सहचारी, रिश्तेदार-संबन्धियों ने कहा, “स्मरणशीलता स्थिर करिए, स्वामी! बड़बड़ाए नहीं!” “मैने ऐसा क्या कहा, जो आप मुझे स्मरणशीलता स्थिर करने, न बड़बड़ाने के लिए चेता रहे हैं?” “आपने अभी ऐसा कहा: ‘किंतु, वह भी तो अनित्य है! वह भी तो बने नहीं रहता! उसे भी तो छोड़कर जाना ही पड़ता है!’” “वह तो इसलिए कहा, क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में उद्यानदेवता, वनदेवता, वृक्षदेवता तथा औषधिनुमा तृण वनस्पति में रहने वाले देवतागण इकट्ठा हुए हैं, और उन्होंने मुझसे कहा, ‘निश्चय करो, गृहस्थ! मैं भविष्य में चक्रवर्ती सम्राट बनूं!’ उस पर मैने कहा: ‘किंतु, वह भी तो अनित्य है! वह भी तो बने नहीं रहता! उसे भी तो छोड़कर जाना ही पड़ता है!’” “स्वामी! वे उद्यानदेवता, वनदेवता, वृक्षदेवता तथा औषधिनुमा तृण वनस्पति में रहने वाले देवतागण कौन सा पुख़्ता कारण देखकर कहते हैं: ‘निश्चय करो, गृहस्थ! मैं भविष्य में चक्रवर्ती सम्राट बनूं!’” “उन्हें लगता हैं कि यह गृहस्थ चित्त शीलवान, कल्याणकारी, धार्मिक व्यक्ति है। यदि इसने मरते हुए [कुछ भी] निश्चय किया तो शीलवान, कल्याणकारी, धार्मिक होने से, उसकी मनोकामना विशुद्ध होने से धर्मानुसार उसे वह फ़ल मिलते देखा जा सकता हैं।” “स्वामी! तब हमें भी कुछ निर्देश दें!” “तब तुम्हें सीखना चाहिए कि हम बुद्ध पर अटूट आस्था से संपन्न रहेंगे कि ‘वाकई भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ हम धर्म पर अटूट आस्था से संपन्न रहेंगे कि वाकई ‘भगवान का धर्म — स्पष्ट बताया है, तुरंत दिखता है, सर्वकालिक है, आजमाने योग्य है, प्रासंगिक है, समझदार द्वारा स्वानुभूति योग्य!’ हम संघ पर अटूट आस्था से संपन्न रहेंगे कि वाकई ‘भगवान का श्रावकसंघ सुमार्ग पर चलता है, सीधे मार्ग पर चलता है, व्यवस्थित मार्ग पर चलता है, उचित मार्ग पर चलता है। चार जोड़ी में, आठ तरह के आर्यजन — यही भगवान का श्रावकसंघ है — उपहार देने योग्य, अतिथि बनाने योग्य, दक्षिणा देने योग्य, प्रणाम करने योग्य, दुनिया के लिए सर्वोपरि पुण्यक्षेत्र!’ ‘जो कुछ दानयोग्य कुलपरिवार में हो, उसे हम खुले हृदय से शीलवान, कल्याणकारी व्यक्ति को बांटेंगे।’ — ऐसा तुम्हें सीखना चाहिए।” तब गृहस्थ चित्त अपने मित्र-सहचारियों, रिश्तेदार-संबन्धियों को बुद्ध, धर्म एवं संघ के प्रति आस्था में, और त्याग [दानशीलता] में प्रेरित करते हुए चल बसा। «संयुत्तनिकाय ४१:१० : गिलानदस्सनसुत्त»
गृहस्थ नकुलपिता उस समय बीमार, गंभीर रोग से पीड़ित था। तब नकुलमाता ने उससे कहा, “मरते हुए चिंतित न हो, गृहपति! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता संतानों को पाल नहीं पाएगी, या घरगृहस्थी चला नहीं पाएगी’ — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। मैं सूत कातने में, उलझे ऊन की सफाई-धुनाई करने में निपुण हूँ। आपके जाने के पश्चात मैं संतानों को पाल सकती हूँ, घरगृहस्थी चला सकती हूँ। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता दूसरे पति के घर चली जाएगी’ — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। आप जानते है और मैं भी कि कैसे पिछले सोलह वर्षों से मैने ‘गृहस्थी ब्रह्मचर्य’ [=वफ़ादारी] का एक जैसे पालन किया है। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता को भगवान से जाकर मिलने की, अथवा भिक्षुसंघ से जाकर मिलने की कोई इच्छा नहीं रह जाएगी’ — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। आपके जाने के पश्चात मुझे भगवान से जाकर मिलने की, अथवा भिक्षुसंघ से जाकर मिलने की इच्छा अधिक होगी। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता शील परिपूर्ण नहीं करेगी’ — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। जहाँ तक भगवान की ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जो शील परिपूर्ण करती हैं, मैं उनमें एक हूँ! जो किसी को शंका या संदेह हो, जाकर भगवान अर्हंत सम्यकसम्बुद्ध से पूछे, जो इस समय भग्गों के साथ भेसकला मृगवन में रह रहे हैं। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता को आंतरिक चित्त प्रशान्ति प्राप्त नहीं होगी’ — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। जहाँ तक भगवान की ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जिन्हें आंतरिक चित्त प्रशान्ति प्राप्त होती हैं, मैं उनमें एक हूँ! जो किसी को शंका या संदेह हो, जाकर भगवान अर्हंत सम्यकसम्बुद्ध से पूछे, जो इस समय भग्गों के साथ भेसकला मृगवन में रह रहे हैं। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है। जो आपको लगता हो कि ‘मेरे जाने के पश्चात नकुलमाता को इस धर्म-विनय में आधार नहीं मिलेगा, नींव नहीं प्राप्त होगी, तसल्ली नहीं मिलेगी, शंका नहीं हटेगी, संदेह नहीं मिटेगा, निडरता नहीं प्राप्त होगी, या वह शास्ता के शासन में स्वावलंबी नहीं हो पाएगी [=श्रोतापति लक्षण का प्रामाणिक वर्णन] — तो आपको ऐसा नहीं देखना चाहिए। जहाँ तक भगवान की ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जिन्हें इस धर्म-विनय में आधार मिला हैं, नींव प्राप्त हुई हैं, तसल्ली मिली हैं, शंका हटी हैं, संदेह मिटा हैं, निडरता प्राप्त हुई हैं, और शास्ता के शासन में स्वावलंबी हो चुकी हैं, मैं उनमें एक हूँ! जो किसी को शंका या संदेह हो, जाकर भगवान अर्हंत सम्यकसम्बुद्ध से पूछे, जो इस समय भग्गों के साथ भेसकला मृगवन में रह रहे हैं। इसलिए गृहपति, मरते हुए चिंतित न हो! चिंतित के लिए मौत पीड़ादायक होती है। भगवान ने चिंतित होकर मरने की आलोचना की है।” जब नकुलमाता गृहस्थ नकुलपिता को यह कह रही थी, तो उस उपदेश से उसका तुरंत रोग शान्त हुआ, बीमारी ख़त्म हुई, और तबियत ठीक हो गई। इस तरह नकुलपिता उस गंभीर रोग से छूट गया। तब तबियत ठीक होने पर वह छड़ी के सहारे चलता हुआ भगवान के पास गया, और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। तब भगवान ने कहा: “गृहस्थ! तुम्हें बड़ा लाभ हुआ! बड़ा सुलभ हुआ, जो तुम्हें नकुलमाता जैसी अनुकम्पक एवं हितकारक सलाहकार, उपदेशक प्राप्त हुई है। जहाँ तक मेरी ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जो शील परिपूर्ण करती हैं, उनमें वह एक है! जहाँ तक मेरी ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जिन्हें आंतरिक चित्त प्रशान्ति प्राप्त होती हैं, उनमें वह एक है! जहाँ तक मेरी ऐसी श्वेतवस्त्रधारी गृहस्थ उपासिकाएँ हैं, जिन्हें इस धर्म-विनय में आधार मिला हैं, नींव प्राप्त हुई हैं, तसल्ली मिली हैं, शंका हटी हैं, संदेह मिटा हैं, निडरता प्राप्त हुई हैं, और शास्ता के शासन में स्वावलंबी हो चुकी हैं, उनमें वह एक है! तुम्हें बड़ा लाभ हुआ, गृहस्थ! बड़ा सुलभ हुआ, जो तुम्हें नकुलमाता जैसी अनुकम्पक एवं हितकारक सलाहकार, उपदेशक प्राप्त हुई है।” «अंगुत्तरनिकाय ६:१६ : नकुलपितुसुत्त»
देवपुत्र उत्तर ने भगवान के आगे एक-ओर खड़े होकर गाथा कही: «संयुत्तनिकाय २:१९ : उत्तरसुत्त»
«धम्मपद चित्तवग्गो ३९»
बुढ़ापे में बहते को, न आश्रय कोई मिले!
खतरा भांपते हुए मृत्यु में,
पुण्यकार्य करें, जो सुख लाएँ!”
[भगवान:]
“बह जाता है जीवन, न आयु कोई मिले!
बुढ़ापे में बहते को, न आश्रय कोई मिले!
खतरा भांपते हुए मृत्यु में,
लोक-आमिष गिरा कर, शान्ति खोजें।”
पुञ्ञपापपहीनस्स, नत्थि जागरतो भयं।।”
न हो आहत हृदय।
पुण्य-पाप छोड़ जागृत को,
न हो कोई भय।।
असोकं विरजं सुद्धं, तमहं ब्रूमि ब्राह्मणं।”
पुण्य – पाप का संगम।
अशोक निर्मल शुद्ध वह;
उसे मैं कहता ब्राह्मण।।