पुण्य! एक ऐसा शब्द, जिसे हम बचपन से सुनते चले आ रहे हैं। जिस पर दर्जनों पुस्तकें और सैकड़ों प्रवचन उपलब्ध हैं। शायद ही कोई पुण्य की संकल्पना से अनजान होगा। लेकिन कितने लोग वास्तव में जानते हैं कि इसका क्या अर्थ है? और क्यों इसे करना चाहिए?
कई लोग मानते हैं कि वैतरणी नदी को पार करने के लिए पुण्य की ज़रूरत होती है। यदि आपने उसके बारे में न सुना हो, तो एक उदार वर्णन ज़रूर सुन लें।
कहते हैं कि वैतरणी, मृत्युदेवता यमराज के द्वार पर बहने वाली, एक तिलिस्मी और भयानक नदी है। मरणोपरांत, यमदूत अथवा कोई दिव्य सत्व आकर सभी मृतकों को वैतरणी नदी तक पहुँचा देते हैं। आगे यमराज से मिलने और उससे फैसला सुनने के लिए, उन्हें इस नदी को पार करना पड़ता है। किंतु वैतरणी का शब्दार्थ ही है, ‘जो पार नहीं होती!’ अर्थात्, जिसे पार करना सरल नहीं है।
वह अंधकार में बहती, कोहरे से ढकी एक विराट नदी है, जो इस लोक और यमलोक के बीच स्थित है। उसके किनारे पर ही कई प्रकार के खतरनाक अवरोध 1 हैं। नदी का जल अत्यंत दुर्गंध करता, तेज़ाब जैसा, रक्त, पीब, और मलमूत्र से गाढ़ा हो चुका है। उसमें तैरती लाशें और कटे-फटे अंगों का अंबार लगा हुआ है। नदी की ऊपरी सतह विचित्र अग्नि से जलती रहती है। नदी के भीतर और बाहर कई प्रकार के भयानक जीव हमला करने के लिए बेताब रहते हैं। कई प्रकार के तिलिस्मी और भ्रामक रूप मृतकों को फँसाकर गुलाम बना लेते हैं।
यदि मृतक के जीवन में कुछ पुण्य हो, तो उसे वैतरणी पार करने में एक-एक पुण्य का बहुत उपयोग होता है। कालांतर में, एक चिड़चिड़ा नाविक आता है और भयभीत मृतकों को चप्पू से मारते-पीटते हुए छोटी-सी नाव में ठूंस-ठूंसकर भर देता है और नाव चला देता है। आगे का वर्णन जानना अच्छा नहीं है।
पुण्य के अभाव में, अनेक दुर्भाग्यशाली मृतक नाव तक में बैठने के हकदार नहीं होते हैं। मदद के लिए लंबी प्रतीक्षा करने के बाद, उन्हें अंततः स्वयं नदी में छलांग लगाकर तैरते हुए जाना पड़ता है। उनका वर्णन तो कभी न सुनें। पुण्यहीन मृतक यमद्वार से पहले ही नरक में पड़ जाते हैं।
पुण्यशालीयों को वैतरणी निर्मल और रमणीय दिखाई देती है। कोई दिव्य सत्व आकर उन्हें आकाश मार्ग से राजसी अंदाज में पार कराता है। अंततः पुण्यों के आधार पर ही मृतक यमद्वार तक पहुँचते हैं। आगे, यमराज उनकी पोल खोलकर उनके बिताए जीवन का परीक्षण करता है। सवाल-जवाब और फटकार-प्रशंसा के बाद कर्मों के आधार पर उनकी गति निर्धारित करता है। यमराज के फैसले के आधार पर उन्हें विभिन्न नर्कों में डाला जाता है या ऊपरी किसी लोक में भेजा जाता है।
हजारों वर्षों से आज भी देश-विदेश के करोड़ों लोग, केवल वैतरणी (पश्चिमी देशों के लिए Styx) नदी को पार करने के लिए ही बुढ़ापे में ‘वैतरणीदान’, ‘गोदान’ इत्यादि दानपुण्य करते हैं। उन लोगों के लिए पुण्य का उद्देश्य केवल मरणोपरांत यात्रा तक ही सीमित है।
पुण्य के लिए लोग कई कारणों से प्रेरित होते हैं। कुछ स्वर्गिक सुख की कामना में पुण्य करते हैं, तो कुछ मृत प्रियजनों से मिलने के लिए। कई तुरंत भोगसंपदा पाने के लिए, तो कोई परीक्षा या व्यवसाय में सफ़ल होने के लिए। कोई रोग या आपदा दूर करने के लिए, तो कोई नौकरी या छोकरी पाने के लिए। कोई नास्तिक इंसानियत के नाते करुणावश से, तो कोई अपनी मान-प्रतिष्ठा बचाने के लिए। कोई प्रसन्नता के मारे, तो कोई राहत और सुकून पाने के लिए। किसी को सामाजिक दबाव में पुण्य करना ही पड़ता है, तो कोई स्वयं प्रेरित होता है। बच्चा खुश हो तो औरों के साथ अपने खिलौने या खाजा बांटता है। कोई सतत पुण्य करता है, तो कोई ईद का चांद जैसे। कोई परहित में किए गए परोपकार को ही पुण्य मानते हैं, तो कोई आत्महित में किए परोपकार को।
कुल मिलाकर ऐसा कहा जा सकता है कि लोग दुःखी हो तो खुशियां पाने के लिए पुण्य करते हैं, और सुखी हो तो खुशियां बांटने के लिए। अर्थात्, खुशी ही पुण्य की मंज़िल है, और खुशियां बांटना ही पुण्यक्रिया। पुण्यक्रिया के नाम पर दुनिया के तमाम धर्म समुदाय ‘दान एवं सेवा’ तो जानते हैं, किंतु बुद्धों की नज़र में उतना अधूरा है।
पुण्य का सरल अर्थ है “भलाई”। उसकी परिभाषा में कहा जाता हैं, “सन्तानं पुनाति विसोधेति!” अर्थात्, अनन्त जन्म-जन्मांतरण के घूमते भवचक्र को धोकर स्वच्छ करने का पवित्र अवसर! 2
भगवान पुण्य को तीन क्रियाओं में वर्गीकृत करते हैं: दान, शील और भावना।
दान का धार्मिक अर्थ ‘त्याग’ है। अर्थात् अपने उपभोग को पराए के लिए त्याग देना। दान के ही साथ ‘संविभाग’ शब्द जुड़ा है। अर्थात्, अपने उपभोग का हिस्सा करके औरों के साथ बांटना। जो चित्त कंजूसी से मटमैला होकर संकुचित और भारी हो जाता है, वही त्याग से स्वच्छ धुलकर, विशाल और हल्का हो जाता है। हृदय पर एक जादुई टॉनिक-सा शीघ्र प्रभाव पड़ता है। स्वार्थ की कड़वी जीभ मिठास चखती है। और फ़लस्वरूप सुख, राहत एवं संतुष्टि का सहज अनुभव होता है। अहंकार ढहकर विनम्रता, मृदूता और मधुरता उसकी जगह लेती है। मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य में तत्काल सुधार होता है। आत्मविश्वास और आत्मसम्मान की प्राप्ति होती है। उसी से जीवन में पुण्य की एक धमाकेदार शुरुआत होती है। दुनिया का बड़े से बड़ा भोगसुख भी निम्न त्यागसुख के आगे घुटने टेक देता है। तब सच्चे व्यक्ति को अंतर्बोध होता है कि ‘जीवन में अपनी किसी भी वस्तु को उपभोग करने का एक सुख है। लेकिन उसे स्वेच्छा से त्याग देने का सुख, हमेशा उससे कई गुना बड़ा होता है। 3’
दान के साथ-साथ शील एवं भावना भी खुशियों के मंज़िल तक बढ़ते आवश्यक पुण्य-कदम हैं, जिनके अभाव में दुविधा हो सकती है। उदाहरण के लिए, यदि कोई व्यक्ति बहुत दान करता है, लेकिन अधार्मिक सोच रखता है या दुराचार करता है, तो संभव है कि वह अगले जन्म में ऐशोआराम में पलता कुत्ता या बिल्ली बन जाए। अर्थात्, सुख की राह में धर्म की सही जानकारी होना और सही दृष्टिकोण (सम्यकदृष्टि) होना अत्यावश्यक है।
पुण्य का अगला कदम शील भी त्याग का ही विस्तार है। भगवान उसे ‘महादान’ कहते हैं। उसमें ‘वेरमणि’ शब्द लगा होता है, यानि विरत रहना। कुछ अकरणीय कृत्य ऐसे होते हैं, जो पहले मज़ा देते हैं, फिर सज़ा देते हैं। उन्हें त्याग देना चाहिए। यदि शील का कठोर पालनकर्ता अपने ‘व्रत’ के प्रति अनजान हो, जैसे कि वह ज़रूरतमंद संबंधियों की यथाशक्ति ‘तन मन धन’ से मदद न करता हो, तो उसका शील अधूरा ही रहेगा, और पुण्य भी। धर्म में ‘शील-व्रत’ जुड़ा शब्द है, जो कर्तव्यता को दर्शाता है। अर्थात्, शील पालन कर आप किसी पर एहसान नहीं करते। बल्कि यह मानव का कर्तव्य है कि वह किसी का अहित न करे, कष्ट न दे। बल्कि उनकी मदद करें। अहितकर्ता पश्चात दण्डित होता है, जबकि हितकर्ता पुरस्कृत। यही सृष्टि की नियमितता है। यह नियम न किसी ईश्वर द्वारा रचा है, न किसी बुद्ध द्वारा अविष्कार किया है। समय के साथ तथाकथित ईश्वर बदल जाते हैं, बुद्ध बदल जाते हैं, ये दुनिया सिमट जाती है, और दूसरी दुनियाओं की उत्पत्ति होती है, किंतु धर्म की नियमितता सनातन बनी रहती है।
ब्रह्मांड की तमाम रचनाएँ विज्ञान (अर्थात्, चैतन्य या Consciousness) पर आधारित हैं, और सभी विज्ञान-आयाम में साथ जुड़ी हैं। कर्म उसकी मुद्रा है, सुख उसकी पूँजी, और दुःख उसका दण्ड! ब्रह्मांड में अणु-अणु तक सभी विज्ञान के नियमों के अंतर्गत होते हैं। जैसे ट्रैफिक नियम होते हैं। कोई चालक पालन न करे तो दूसरों को कष्ट होता है। भले ही दुर्घटना न घटे, तब भी पुलिस पीछे पड़ती है। लाइसेंस या गाड़ी जब्त कर दण्ड लगता है, या जेल भी हो सकती है। आपके विषम चलाने से पराए का नुकसान हो न हो, लेकिन आपका होता है।
उसी तरह विषम चलने से विज्ञान-आयाम में एक दुःख की लहर उत्पन्न होती है, जो आस-पास के जुड़े सत्वों को कष्ट पहुँचाती है। जो दुःख उत्पन्न करता है, वह अपने लिए दण्ड भी साथ उत्पन्न करता है। यमलोक की पुलिस पीछे पड़ती है। किसी भी क्षण सुख जब्त होकर भयंकर दण्ड लगता है, या जेलनुमा नर्क में भी डाला जाता है। दूसरी ओर, सम चलने से इसमें सुख की लहर उत्पन्न होती है, जो जुड़े सत्वों को राहत पहुँचाती है। जो सुख उत्पन्न करता है, वह अपने लिए पुरस्कार भी साथ उत्पन्न करता है, जो किसी भी समय छप्पर फाड़कर बरसता है। इसीलिए पुण्य को ‘कमाई’ जैसे देखना, प्रतीकात्मक रूप से नहीं, वरन वस्तुतः सत्य है।
और भावना का अर्थ है “हितकारक भावनाओं को बढ़ावा देना”, जैसे कि सद्भावना, करुणा, शान्ति, एकाग्रता, अंतर्ज्ञान आदि। यदि कोई दानी हो और शीलव्रत का पालनकर्ता भी, किंतु ‘भावना’ न करता हो, तो संभव है उसे भविष्य में प्राप्त ‘सुख ऐश्वर्य’ मदहोश बनाकर उसकी दुर्गति करा दे। उदाहरणार्थ, जिन्हें कहते हैं, “अमीर बाप की बिगड़ी औलाद!” और जैसे कि हम अक्सर देखते हैं, विशेष रूप से शो बिजनेस से जुड़े लोगों में, जो अपने पूर्व पुण्य के आधार पर महाधन एवं प्रसिद्धि प्राप्त करते हैं, लेकिन वे इसे संभाल नहीं पाते हैं। जिनका दर्दनाक अन्त इसी जीवन में होते हुए दिखता है, तो परलोक की बात ही क्या!
किंतु भावना से दीर्घकाल (या अनंतकाल) की गारंटी मिलती है कि हमें भविष्य में ऐसा ‘सुख ऐश्वर्य’ प्राप्त होने पर भी समझदारी बनी रहेगी। ध्यान-साधना से प्राप्त होने वाला अंतर्ज्ञान (प्रज्ञा) हमारे अवचेतन मन में एक ऐसा तंत्र (इनबिल्ट मैकेनिज्म) विकसित कर देता है जो हमें भविष्य में भी सचेत रहने में मदद करते रहे, भले ही हम पूर्ण रूप से मदहोश हो जाएं। इस तरह दीर्घकालीन हित एवं सुख की प्राप्ति में ‘दान, शील और भावना’ तीनों ही अनिवार्य हैं। भगवान द्वारा बताई पुण्य की संकल्पना परिपूर्ण है, और सम्पूर्ण सुरक्षा प्रदान करती है।
हालांकि कुछ बौद्ध लोग, विशेषकर पश्चिमी देशों में, पुण्य करना हीन मानते हैं। उनका मानना है कि ‘पुण्य का उद्देश्य केवल लाभ प्राप्त करना है, जो स्वार्थ और अहंकार को बढ़ाता है। जबकि परमार्थ मुक्ति-मोक्ष के लिए उच्चतम धर्मसाधना आवश्यक है, ताकि ‘मैं-मेरे’ का तादात्म्य भाव त्यागा जा सके।’ क्योंकि वे अपने व्यस्त जीवन में समय की कमी महसूस करते हैं, इसलिए वे अपना अमूल्य समय ‘हीनता’ पर बर्बाद नहीं करना चाहते और सीधे उच्च अवस्थाओं तक पहुँचना चाहते हैं। जैसे कोई मूर्ख इमारत की ऊँची मंजिल पर जल्दी पहुँचने के लिए जमीन से छलांगे लगाए।
लेकिन, गहरी और मजबूत नींव के बिना, ऊँची से ऊँची इमारत भी डगमगाकर धराशाई हो सकती है। उसी तरह, ऊँची अवस्थाओं तक पहुँचने और उन पर स्थिर बने रहने के लिए एक मजबूत आधार होना आवश्यक है। एक पापी व्यक्ति को सीधे मुक्ति प्राप्त नहीं हो सकती। उसे पहले अपनी पापी-वृत्ति और अकुशल-स्वभाव का त्याग करना होगा, तथा उसकी जगह पर पुण्य और कुशलताओं को विकसित करना होगा। फिर, ऐसे पुण्य किए कुशल-व्यक्ति को अपने भीतर की मोह-मूढ़ता का त्याग करना होगा, तथा उसकी जगह पर अंतर्ज्ञान को विकसित करना होगा। तब ऐसे पुण्यशाली और अंतर्दृष्टिवान व्यक्ति का चित्त वाकई स्थिर होता है, एकाग्र होता है, और आर्यसत्य का दर्शन करता है। तब उसे विराग होता है और उसके विमुक्ति-विमोक्ष की संभावना खुलती है। जैसे कोई बुद्धिमान इमारत की ऊँची मंजिल पर पहुँचने के लिए धैर्यपूर्वक सीढ़ियों पर चढ़ते जाए।
पुण्य ही धर्म की नींव है। पुण्य ही सुख की इमारत है। पुण्य ही मुक्ति की सीढ़ी है। इस पुस्तक में आप जानेंगे कि वर्तमान जीवन में धर्म की नींव कैसे डाली जाती है। भविष्य के लिए सुख की इमारत कैसे खड़ी की जाती है। और त्रिकाल दुःखमुक्ति की सीढ़ी पर कैसे चढ़ा जाता है।
धर्म को लेकर आम लोगों में अनेक प्रासंगिक प्रश्न हैं, जो उनके दीर्घकालीन हित एवं सुख से संबन्धित होते हैं। किंतु जब मैं अन्य धर्मगुरुओं को उत्तर देते हुए सुनता हूँ, तो दया आती है। लगता है जैसे कोई अंधा, सांप को मारने के लिए आसपास की झाड़ी पर डंडे बरसा रहा हो। पता नही, डंडा सांप पर पड़ रहा है या नहीं। पता नहीं, सांप झाड़ी में है भी या नहीं। मरा तो मरा, वर्ना भाग जाएगा या दुबक जाएगा। उसी तरह निशाना चुका हुआ उत्तर सुनकर अनेक प्रश्नार्थी कन्धे उचका कर चले जाते हैं या भीड़ देखकर सहम जाते हैं।
और जब मैं धर्मगुरुओं को गंभीर मसले पर प्रवचन देते हुए देखता हूँ, तो लगता है जैसे किसी खेल में खोए नटखट बच्चे को अचानक होमवर्क पूछने पर वह इधर-उधर के बहाने और फ़ालतू कहानियां सुनाने लगा हो। उसी तरह वे जीवन से जुड़े असली मुद्दों की बात न कर इधर-उधर की गूढ़, रहस्यमयी एवं अबोध्य बातें करने लगते हैं।
और जब मैं अन्य धर्मग्रंथ पढ़ता हूँ, तो लगता है जैसे हाथों में कोई चिकनी मछली छटपटाते हुए फिसल रही हो। उसी तरह वे खूब सुंदर शब्दों में पुरातन किंतु अप्रासंगिक कथाएँ सुनाते हैं, आदर्शमयी किंतु अव्यवहारिक बातें करते हैं। ठीक-ठीक बताते नहीं हैं कि ऊँचे आदर्शों को वाकई जीवन में कैसे उतारें।
उसके विपरीत, भगवान बुद्ध द्वारा बताएँ धर्म को पढ़ने पर लगता है, मानो पलटी दुनिया घुमकर सीधी हो गई। जैसे अंधेरे में डूबे निराश घर में बिजली आने से रौनक लौट आयी। जैसे पुरानी रहस्यमयी पहेली सुलझ गई। जैसे रास्ता खोए भयभीत को मार्ग दिख गया। उसी तरह भगवान पेचीदा प्रश्नों पर भी ऐसा सीधा, स्पष्ट और सटीक उत्तर देते हैं, जैसे लगता है कि दुनिया का सर्वश्रेष्ठ योद्धा ‘अखिलेस’ आकर, झाड़ी में मात्र एक हल्का सरल वार कर, सांप का सीधा सिर कुचल दे। काम तमाम!
उसी तरह भगवान का धर्म इधर-उधर की निरर्थक बातें न कर, जीवन से जुड़े असली मुद्दों पर ‘सीधी बात’ करता है। दीर्घकालीन हित एवं सुख की बात ‘साफ स्पष्ट अंदाज़’ में रखता है। तथा विमुक्ति मार्ग के विभिन्न पड़ावों का ‘सटीक शब्दों में वर्णन’ करता है। ऐसा धर्म जो केवल परलोक की बात न कर, अभी इस जीवन में भी तुरंत साफ़-साफ़ दिखाई पड़े। जो केवल आज ही नहीं, त्रिकाल में लागू करने योग्य हो। जो प्रासंगिक हो, व्यावहारिक हो, ऊँचे आदर्शों की स्वानुभूति कराए। जो सुखमार्ग पर आगे-आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हुए, अंततः सम्पूर्ण दुःखमुक्ति का साक्षात्कार कराए। धन्य है भगवान बुद्ध! धन्य है उनका बताया सद्धर्म! और भाग्यशाली हैं जो उसे सुन पाएँ, समझ पाएँ। अनन्त दुःखों से मुक्त हों जो इस पर चल पाएँ!
इस पुस्तक का पहला ड्राफ्ट मेरे मित्र सहब्रह्मचारी भिक्खु कोलित द्वारा अनुवाद किया गया था, जो वर्तमान प्रारूप एवं भाषा से बहुत भिन्न था। उन्होंने परमपूज्य गुरु थानिस्सरो भिक्खु की Merit पुस्तिका 4 से उसे तैयार किया था। किंतु जब उन्होंने मुझे ड्राफ्ट सौंपा, तो देखकर लगा कि वह केवल पश्चिमी मानसिकता के लिए ही बनाई गई है, जो भारतीयों के लिए उपयुक्त न होगी। तब मैने उसमें अनेक फेरबदल कर, अनेक सूत्रों एवं अध्यायों को जोड़-घटाकर, भाषा एवं प्रारूप सुधार कर इस पुस्तिका को अंजाम दिया। अब यह पुस्तक सर्वथा भिन्न एवं अनोखी है।
मैने ‘पटिपदा’ के ही अनुरूप इस पुस्तक में भी भगवान के प्रासंगिक उपदेशों को विषयानुरूप क्रमबद्ध कर एक स्वचलित प्रवाह देने का प्रयास किया है। उनका संकलन ‘पालि पञ्चनिकाय’ से किया गया है, जबकि कुछ चुनिंदा सूत्र विनयपिटक से शामिल है। इसमें थानिस्सरो भन्ते के अनेक अनुवादों से मदद ली गई है। उनके अलावा भिक्खु बोधि 5, भिक्खु सुजातो 6 के साथ राहुल सांकृत्यायन, भिक्खु आनन्द कौसल्यायन, और भिक्खु जगदीश कश्यप द्वारा हिंदी अनुवादों से भी मदद ली गई। उनके अलावा मूल पालि का सन्दर्भ लेते हुए, विभिन्न शब्दकोषों से भी उचित व्याख्याएँ ली गई। भिक्खु अभिभू और मेरी बहन की ओर से अनेक सुझाव स्वीकार किए गए। रह गई त्रुटियों के लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूँ।
अपेक्षित है कि कुछ लोगों को प्रथम अध्याय में बड़ी दिक्कत हो। हो सकता है पढ़कर किसी के पैरों तले जमीन खिसक जाए। यदि ऐसा हो तो यकीन मानिए, वह आपके लिए एक वरदान साबित होगा। शायद वह ऐसी ही जमीन थी जिस पर कभी खड़ा न होना ही अच्छा था। वहाँ से गिरने पर ही कोई अपने लिए एक बेहतर सुरक्षित जमीन चुनेगा।
सिक्के के दो पहलू होते हैं — भलाई हो तो बुराई भी है, सुख हो तो दुःख भी है, और स्वर्ग हो तो नर्क भी है। ज़ाहिर है कुछ लोग उसे सुनना पसंद नहीं करते हैं। इसलिए तमाम धर्मों के गुरुजन भी कुछ भक्तों को खोने के डर से उसका वर्णन करने से कतराते हैं। इसलिए अधिकांश लोगों ने उस पक्ष के बारे में ठीक से सुना ही नहीं हैं। ख़ैर, आपने सुना हो या न सुना हो, सत्य तो सत्य है, और वहाँ मौजूद है। कोई अनजान वहाँ भटकते हुए पहुँच सकता है, किंतु जानकार व्यक्ति के पास बचने का कोई मौका तो है। एक उदाहरण से समझें।
भोला रेल से यात्रा कर रहा था। वह अपने कानों में हेडफोन लगाए, मोबाइल पर फिल्म देखने में मशगूल था। अचानक, एक यात्री ने उसे आवाज दी, “भाई, आप नहीं उतरेंगे?”
भोला ने ध्यान नहीं दिया। यात्री ने फिर पूछा, “भाई साहब, आप को भला रेगिस्तान में क्या काम पड़ गया?”
भोला ने मोबाइल से नजरें हटाए बिना कहा, “रेगिस्तान? नहीं। मैं कही नही जा रहा हूँ।”
यात्री चौंक गया। उसने पूछा, “भाई, क्या आपको पता है कि यह ट्रेन अगले स्टेशन के बाद रेगिस्तान में रुकेगी?”
भोला गुस्सा हो गया। उसने कहा, “अरे यार, रेगिस्तान वेगिस्तान कुछ नहीं होता! फ़िल्म देखने दो भाई!”
यात्री दंग रह गया। वह स्टेशन पर उतर गया। उसने बाहर खिड़की से आखिरी आवाज़ लगाई, “भाई, बस इतना सुन लो कि पानी की बोतलें भर लो। वहाँ पानी की किल्लत है।”
भोला फिल्म देखने में व्यस्त रहा। कुछ देर बाद, भोला ने उबासी देकर हेडफोन निकाल दिए और खिड़की से बाहर देखने लगा। गुजरती भीड़ और फेरीवालों के कोलाहल के बीच, उसे अत्यंत धीमी आवाज में विचित्र भाषाओं में आकाशवाणी सुनाई दी। उसे कुछ समझ नहीं आया।
उसने कान में उँगली डालकर खूब हिलाया और शान्त हो गया, तब उसे अपनी भाषा में आकाशवाणी सुनाई दी, “टिंग टॉन्ग टिंग! यात्रीगण, कृपया ध्यान दें! प्लेटफार्म नंबर तीन की गाड़ी आज रात बारह बजकर तेरह मिनिट पर अंतिम स्टेशन थार मरुस्थल पर पहुँचेगी। यात्रियों से अनुरोध हैं कि वे स्वयं भोजन एवं पर्याप्त जल की व्यवस्था करें। धन्यवाद!”
भोला बदहवासी में उठ खड़ा हुआ, लेकिन उसके पैर जम-से गए। रेल धक्का देकर चल पड़ी, तो वह चीख पड़ा।
गौर करें कि पालि भाषा में ‘संसार’ शब्द संज्ञा या सर्वनाम नहीं, बल्कि क्रिया होती है — जन्म-जन्मांतरण में अनन्त संसरण की प्रक्रिया! उसे ‘चक्र’ शब्द से भी जोड़ा जाता है — संसारचक्र भवचक्र दुःखचक्र, जो रुकता नहीं, थमता नहीं! अर्थात्, भले ही कोई भोला जैसे अनजान बेखबर बनकर पड़ा रहे, किंतु अपने गंतव्य से छूटेगा नहीं। जीवन एक यात्रा है। और हर कोई इस दिशा या उस दिशा में बढ़ रहा है, इधर या उधर जाकर बस रहा है। आप ने साथ चलते राहगीरों के साथ जो बर्ताव किया, वही आपकी जमापुँजी है, उसी के सहारे टिकट कटेगी। किस स्टेशन पर उतरना है, कोई स्वयं चुनता है, तो किसी को वहाँ उतार दिया जाता है। और आज भी आप अपने व्यस्त जीवन और नृत्यगीत से ध्यान हटाएँ, और कान देकर सुने तो संभव है आप को भी दिव्य आकाशवाणी सुनाई दे, जो मानवों को लगातार चेताने का प्रयास कर रही है।
पुण्य का स्वर्ग आमंत्रण हो या पाप का नर्क पैगाम — दोनों ही धर्म में अनिवार्य है। मेरी राय है कि किसी को अच्छा लगे न लगे, किंतु हर कोई पर्याप्त जानकारी तो रखें, तब सोच-समझकर निर्णय लें। गिरकर कोई ऐसा न बोलें कि “मुझे उस गड्ढे के बारे में किसी ने बताया ही नहीं था!” क्योंकि तब उसके पतन में हम धर्मगुरु भी भागीदार होंगे।
अधिकांश लोगों को भलाई का मार्ग पता होता है, तब भी कम ही लोग बुराई छोड़ पाते हैं। मनुष्यावस्था ऐसी ही है कि भलाई और बुराई दोनों ही हममें कूट-कूटकर भरी होती है, और दोनों ही प्रकट होने के बार-बार अवसर मिलते हैं। भलाई पर चल पड़ने के लिए केवल ‘मिठास का आकर्षण’ ही प्रेरित नहीं करता, बल्कि ‘कड़वाहट का प्रतिकर्षण’ भी करता है। वाकई जिसने पाप के परिणाम देखे हो, वही पुण्य की महत्ता समझता है। जो घोर अंधेरा जानता हो, वही रोशनी की अहमियत समझता है। और उसी को पुण्य के प्रति संवेग जागता है।
बहरहाल, कुछ लोग परलोक का अस्तित्व नकारते हैं, क्योंकि वैज्ञानिकों के भौतिक उपकरण उसका पता नहीं लगा पाते। मुझे उनसे ख़ास सहानुभूति है, क्योंकि कुछ ही वर्षों पूर्व मैं भी उनमें शामिल था। किंतु स्वयं वैज्ञानिकों के अनुसार, उनके तमाम आधुनिक उपकरण कुल मिलाकर दुनिया का केवल ०.५% ही प्रत्यक्ष पता लगा सकते हैं। (हाँ, आपने सही पढ़ा! आधा प्रतिशत!) बचे ९९.५% का केवल ‘अनुमान’ है। (इसकी स्वयं पुष्टि करें।) हालांकि वह भी केवल इसी आयाम की बात है। भगवान के अनुसार (तथा स्ट्रिंग थियरी, मल्टीवर्स जैसे वैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार) इसी दुनिया के दर्जनों आयाम खुलते हैं। उनका ०.००१% पता लगाना भी इस आयाम के उपकरणों के बस की बात नहीं! ख़ैर, मेरा भी ‘अनुमान’ है कि परलोक तो छोड़िए, वैज्ञानिक कभी ‘विज्ञान’ 7 का ही पता नहीं लगा पाएँगे। आगे चलकर गलत साबित हो जाऊँ, तो शायद मुझसे अधिक खुश कोई न होगा। विज्ञान के तो वैसे असंख्य आयाम हैं, किंतु भगवान उन्हें जोड़कर मोटा-मोटी ३१ आयाम में वर्गीकृत करते हैं। वही परलोक है। और चित्त को इन ३१ लोक-विज्ञान के आमिष से मुक्त कराना ही निर्वाण है।
अंततः भगवान ऐसे तार्किक लोगों को सुरक्षित दांव 8 खेलने का सुझाव देते हैं। अर्थात् उन्होंने सोचना चाहिए कि “दुनिया में कई धर्म और संत हैं जो स्वर्ग-नर्क, पुण्य-पाप के बारे में बात करते हैं। जो लोग इन बातों को झूठ मानते हैं, वे अक्सर मनमर्ज़ी से बुराई करने लगते हैं। क्योंकि उन्हें बुराई में कोई गलती नहीं दिखती। दूसरी ओर, जो लोग इन बातों को सच मानते हैं, वे बुराई छोड़ भलाई करने लगते हैं। क्योंकि उन्हें बुरे परिणाम का भय सताता है। परलोक की बातें छोड़ों! इसी वर्तमान जीवन में समाज के लोग दुराचारी की निंदा-भर्त्सना करते हैं। दुराचारी को पसंद नहीं किया जाता। सदाचारी को पसंद किया जाता है। उसे समाज में आदर, प्रशंसा और प्रेम मिलता है।
इसलिए अगर कर्म और परलोक जैसी बातें झूठी हैं, तब भी दुराचारी का एक ही दांव सही पड़ा, दूसरा गलत। अर्थात्, परलोक न होने से भविष्य सुरक्षित है, किंतु वर्तमान जीवन में ही वह निंदित होता है, नापसंद किया जाता है। लेकिन अगर सच हैं, तब उसका भविष्य भी सुरक्षित नहीं है — दुर्गति होकर नर्क जाएगा। अर्थात्, तब दुराचारी के दोनों ही दांव उल्टे पड़ते हैं।
दूसरी ओर, सदाचारी के लिए धर्म झूठ अथवा सच होने पर भी दोनों ही दांव सही पड़ते हैं। अर्थात्, वह इस लोक में भी प्रशंसित और सम्मानित होता है, तथा परलोक हो तो उसमें भी सद्गति होती है।” — भगवान कहते हैं कि इस तरह सोचकर तार्किक व्यक्ति जोखिम न उठाएँ। हमेशा भलाई एवं सदाचार का मार्ग चुनें। सुरक्षित दांव खेलकर अपना वर्तमान और भविष्य दोनों सुरक्षित रखें।
यह पुस्तक एक प्रवाह में है। प्रारंभिक कड़वाहट से गुजरकर बहते-बहते मीठी होती चली जाती है। कड़वाहट के पश्चात मीठा अधिक मीठा भी लगता है। कृपया धैर्य रखें और आगे तैरते जाएँ। सच्चाई जानने के लिए सच्चे धर्म को एक सच्चा मौका दें।
आशा है यह पुस्तक पहले पुरानी मदहोशी तोड़कर नीचे गिराएगी। तब धर्म की नई नींव रचने में हाथ बटाएगी। फिर सुख की भव्य इमारत खड़ी करने में आती बाधाओं को दूर करेगी। तब भीतर अपार पुण्य की जमापूँजी एवं सज्जा-सामग्री संचित करने के लिए प्रेरित करेगी। और अंततः त्रिकाल दुःख से संपूर्ण मुक्ति दिलाने में यशस्वी करेगी।
साधु साधु साधु।
भगवान बुद्ध द्वारा वैतरणी किनारे का वर्णन खुद्दकनिकाय के सुत्तनिपात ३:१० — कोकालिकसुत्त में मिलता है। ↩︎
पुण्य के पवित्र अवसर को मुखपृष्ठ पर ‘दिव्य कमलपुष्प’ से निरूपित किया गया है, जो भवचक्र में होते हुए भी एक तरह से बाहर ही है। ↩︎
भगवान के अनुसार, सोलह गुना। ↩︎
Wisdom Publications, United States of America ↩︎
विज्ञान का धार्मिक अर्थ है मानव-चेतना अथवा consciousness. वैज्ञानिकों के लिए चैतन्य को समझना एक अत्यंत जटिल समस्या है, जिसे वे वर्तमान सिद्धांतों के अनुसार न सुलझा पा रहे हैं, न कोई स्पष्ट सिद्धांत बना पा रहे है, न आपस में सहमति ही बना पा रहे हैं। अधिकांश वैज्ञानिक भौतिकवादी हैं, अर्थात वे मानते हैं कि सभी घटनाओं का आधार भौतिक ही होता है। वे मानते हैं कि चैतन्य भी मस्तिष्क का ही एक उत्पाद है, लेकिन किसी भौतिक वस्तु से व्यक्तिपरक मानसिक अनुभव कैसे उत्पन्न होते है, उसे समझ नहीं पाते हैं। वे स्वीकारते हैं कि चैतन्य को भौतिक ईकाई से मापना या उसके स्वरूप की व्याख्या करना कठिन है। जबकि कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि चैतन्य एक अलग आयाम है, और उसे भौतिक ईकाइयों से मापना असंभव है। बहरहाल, उस पर आम सहमति बनना कठिन है। इसलिए वे चैतन्य को “the Hard Problem” कहकर, उस पर बात करने से कतराते हैं। ↩︎
मज्झिमनिकाय ६० : अपण्णकसुत्त ↩︎