बौद्ध धर्म के अध्ययन में एक प्रमुख चुनौती है अनत्त की शिक्षा। ‘अनत्त’ का शाब्दिक अर्थ है ‘अनात्म’ या ‘निरात्मा’, जिसे दो मुख्य रूपों में समझा जाता है। पहला यह कि “यह आत्मा नहीं है।” यानी, इसे आत्म, स्व, या अपना न मानो।
उदाहरण के लिए, हम अपने शरीर को आत्म, स्व, या अपना मानते हैं और उससे आसक्ति रखते हैं। लेकिन बुद्ध का कहना था कि यह काया आप नहीं हैं और न ही आपकी है। यह शरीर आपकी प्रत्येक इच्छाओं के अनुरूप नहीं चलता है। कभी स्वस्थ रहता है, तो कभी दर्द और बीमारियों का सामना करता है। इसे लगातार सेवा, पोषण और सफाई की आवश्यकता होती है। भले ही आप इसे कितना भी संरक्षित करें, यह आपकी इच्छा के विरुद्ध अंततः बूढ़ा और जर्जर हो जाता है और अंत में मर जाता है। इसलिए, इस पर प्रभुता का भ्रम न रखें, क्योंकि यह अंततः सृष्टि के नियमों के अनुसार चलता है, आपके नहीं। बुद्ध ने इसे संक्षेप में कहा, “काया अनत्ता।” इसका आशय यह है कि शरीर से आसक्ति या लगाव नहीं होना चाहिए।
दूसरी ओर, ‘अनत्त’ को एक और तरीके से भी समझा जाता है — “आत्मा नहीं है,” अर्थात आत्मा जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं। यही दूसरा अर्थ अक्सर दुविधा और विवाद का कारण बनता है। इसके कई कारण हैं —
(१) मिथ्यादृष्टि: बुद्ध ने आत्मा होने या न होने की दोनों ही धारणाओं को मिथ्यादृष्टि बताया। दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त 1 और मज्झिमनिकाय के सब्बासव सुत्त 2 में उन्होंने कहा कि ध्यानसाधना से उपजे अधूरे ज्ञान से, और अनुचित चिंतन करने से आत्मा की मिथ्यादृष्टि उत्पन्न होती है। ऐसे व्यर्थ और अनुचित चिंतन हमें परम सत्य से भटकाते हैं और दृष्टियों के बंधन में फँसा देते हैं।
(२) कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत: अगर आत्मा का अस्तित्व नहीं है, तो यह प्रश्न उठता है कि कर्म का फल किसे प्राप्त होता है? पुनर्जन्म किसका होता है? बौद्ध धर्म में कर्म के सिद्धांत को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है, जहाँ हर कर्म वर्तमान और भविष्य की घटनाओं को निर्धारित करता है। आत्मा के न होने पर, यह चक्र कैसे काम करता है, इस पर साधकों के मन में असमंजस पैदा होता है।
(३) बुद्ध का आत्मा का सकारात्मक उल्लेख: बुद्ध ने भले ही आत्मा के विषय में मिथ्यादृष्टि से बचने की सलाह दी हो, लेकिन कुछ सुत्तों में उन्होंने आत्मा का सकारात्मक रूप से उल्लेख किया। उदाहरणस्वरूप, “अत्ता ही अत्तनो नाथो” यानी “आत्मा ही आत्मा का स्वामी है।” इसका तात्पर्य है कि व्यक्ति स्वयं का स्वामी है, न कि कोई ईश्वर, देवता, या दुनिया। इसलिए, आत्म-संयम और आत्म-नियंत्रण का विकास आवश्यक है। यह अध्यात्म के विकास की दिशा में संकेत करता है, जहाँ आत्मा का संदर्भ पूरी तरह से गायब नहीं है।
(४) अन्य धर्मों के साथ विरोधाभास: आत्मा न होने की यह अवधारणा कई अन्य धार्मिक परंपराओं, जैसे वैदिक, जैन, सिख, इस्लाम, ईसाई, और यहूदी धर्म से विपरीत है, जो आत्मा के अस्तित्व को मान्यता देती हैं। ऐसे में कई लोग वाजिब प्रश्न उठाते हैं, “यदि आत्मा नहीं है, तो बौद्ध धर्म में नैतिकता का उद्देश्य क्या है? यदि जीवन नश्वर है और आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, तो ‘शील, समाधि और प्रज्ञा’ की साधना क्यों करें? क्यों न केवल भोग में लिप्त हों और जीवन समाप्त होने पर दुःख समाप्त हो जाए? उसके लिए अध्यात्म या अष्टांगिक मार्ग का पालन क्यों करें?”
इस प्रकार, अनत्त की शिक्षा बौद्ध धर्म के लिए एक गहन और चुनौतीपूर्ण अवधारणा है। इसे सही ढंग से समझने के लिए बुद्ध के दृष्टिकोण पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। इस विषय पर कई पुस्तकों में उत्तर देने का प्रयास किया गया है, लेकिन जब हम प्राचीन बौद्ध साहित्य का अध्ययन करते हैं, तो पाते हैं कि बुद्ध ने इस प्रश्न का कभी उत्तर नहीं दिया। इसके विपरीत, उन्होंने इसे रणनीतिक रूप से अनुत्तरित छोड़ दिया। उदाहरण के लिए, एक भिक्षु वच्छगोत्त ने आकर बुद्ध से सीधा सवाल किया —
“हे गौतम, क्या आत्मा है?”
भगवान मौन रहे।
उसने पूछा, “तब, क्या आत्मा नहीं है?”
भगवान मौन रहे। तब, वह वहाँ से उठकर चला गया।
— संयुत्तनिकाय ४४:१० : आनन्द सुत्त
बाद में, जब भगवान से उनके मौन का कारण पूछा गया, तो उन्होंने स्पष्ट किया कि यदि वे यह कहते कि ‘आत्मा है’, तो यह शाश्वतवाद (अर्थात आत्मा को शाश्वत या नित्य मानना) की मिथ्यादृष्टि को प्रोत्साहित करता। और यदि वे कहते कि ‘आत्मा नहीं है’, तो यह उच्छेदवाद (अर्थात मौत के साथ आत्मा का विनाश मानना) की मिथ्यादृष्टि को बढ़ावा देता। इस प्रकार, कोई भी उत्तर देना अकुशल होता और अनर्थकारी अतिवादी धारणाओं को जन्म देता, जो परममुक्ति के मार्ग में बाधा बनते। इसलिए, ऐसे प्रश्नों को एक ओर रखना ही उचित होता है।
बुद्ध की मौनता का सही अर्थ समझने के लिए हमें उनकी मौलिक कार्यशैली को समझना होगा, जिसे पञ्ह कोसल्ल कहते हैं, यानी “प्रश्न कौशलता”। इसमें यह समझना आवश्यक है कि प्रश्न किस प्रकार पूछे जाने चाहिए और उनके उत्तर किस प्रकार दिए जाने चाहिए।
बुद्ध सुझाव देते हैं कि एक समझदार व्यक्ति को प्रश्न सुनकर उनका वर्गीकरण करने का कौशल आना चाहिए। उसे चाहिए कि वह प्रश्नों को चार श्रेणियों में बाँटे:
(१) एकंस ब्याकरणीयो: ऐसे प्रश्न जिनका सीधा उत्तर ‘हाँ’ या ‘ना’ में दिया जा सकता है।
(२) विभज्ज ब्याकरणीयो: ऐसे प्रश्न जिनका उत्तर सीधा ‘हाँ’ या ‘ना’ में देना संभव नहीं है। ऐसे प्रश्नों को पहले पुनः परिभाषित और विश्लेषित करना होता है, ताकि सही संदर्भ में उत्तर दिया जा सके।
(३) पटिपुच्छा ब्याकरणीयो: ऐसे प्रश्न जिनके उत्तर में प्रश्नकर्ता से प्रतिप्रश्न करके उसकी समझ को बढ़ाया जाता है।
(४) ठपनियो: ऐसे प्रश्न जिन्हें अनुत्तरित रखा जाना चाहिए, क्योंकि वे निरर्थक या अनर्थकारी होते हैं और दुःखों के अंत से उनका कोई संबंध नहीं होता। ऐसे प्रश्नों का कोई भी उत्तर मिथ्यादृष्टि को जन्म देगा और मुक्तिमार्ग में बाधा डालेगा।
« अंगुत्तरनिकाय ४:४२ : पञ्हब्याकरण सुत्त »
जब भी बुद्ध से कोई प्रश्न पूछा जाता, तो वे पहले उसका सही प्रकार से वर्गीकरण करते कि वह किस श्रेणी का है और उसका उत्तर किस प्रकार दिया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, वे कभी सीधा ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तर दे देते, तो कभी कहते कि “यह प्रश्न सीधा ‘हाँ’ या ‘ना’ में उत्तरित नहीं किया जा सकता, लेकिन इसे विभज्ज कर (यानी विश्लेषित कर) उत्तर दिया जा सकता है,” 3 कभी वे प्रश्नकर्ता से प्रतिप्रश्न करते, ताकि वह स्वयं उत्तर खोज सके। और कभी-कभी वे मौन रह जाते।
यहाँ उत्तर देने की कला का बोध होता है। वहीं प्रश्नकर्ता को भी यह समझना आना चाहिए कि उत्तर की सीमा कहाँ तक है और उसे किन बातों पर लागू किया जा सकता है। बुद्ध ने कहा था कि दो प्रकार के लोग उनकी शिक्षाओं को गलत तरीके से प्रस्तुत करते हैं:
(१) वे जो उनके बयानों से गलत निष्कर्ष निकालते हैं—ऐसा निष्कर्ष जिसे निकालना उचित नहीं था। वे उत्तर को खींचकर उसे अनर्थकारी बातों पर लागू कर देते हैं।
(२) वे जो उन बयानों से वह सही निष्कर्ष नहीं निकालते जिसे निकालना चाहिए था। यानि, वे उत्तर को उन अन्य पहलुओं पर लागू नहीं करते जहाँ उसकी जरूरत थी।
प्रश्नोत्तर की इस कुशलता को समझना बौद्ध सिद्धांतों की बुनियाद है। कई विद्वान बौद्ध साहित्य का अध्ययन तो करते हैं, लेकिन इन मूलभूत नियमों की महत्ता को नजरअंदाज कर देते हैं। इसी कारण वे ‘अनत्त’ और अन्य बौद्ध शिक्षाओं को गलत तरीके से समझाते हैं।
उदाहरण के लिए, कुछ लोग मानते हैं कि बुद्ध ने सिखाया कि “आत्मा नहीं होती,” जबकि कुछ कहते हैं कि बुद्ध ने केवल ‘स्थायी आत्मा’ का खंडन किया। ये लोग बुद्ध के बयानों से गलत निष्कर्ष निकाल रहे होते हैं, जिसे निकालना उचित नहीं था। उन्हें बुद्ध की ही तरह इन मान्यताओं को एक ओर रख देना चाहिए, क्योंकि वे भगवान बुद्ध से बेहतर नहीं जानते।
यह नहीं है कि बुद्ध कुछ प्रश्नों से बचना चाहते थे। बल्कि, उनका उद्देश्य अनर्थकारी प्रश्नों के बजाय, प्रश्नकर्ता को उसकी अस्तित्व की सच्चाई दिखाना था। इसके लिए उन्होंने कुछ कुशल विधियाँ विकसित कीं। पहला था आर्य-सत्य, दूसरा प्रतित्य समुत्पाद, और तीसरा अनत्त।
जैसा मैंने पहले कहा था, ‘अनत्त’ का दो तरह से अनुवाद किया गया है। पहला अनुवाद एक कुशल रणनीति की तरह होता है, जिसमें व्यक्ति अपनी आसक्ति को त्यागने के लिए अनत्त भावना करता है। जबकि दूसरा अनुवाद दार्शनिक है, जिसमें आसक्ति त्यागने का उद्देश्य नहीं होता, बल्कि ‘आत्मा है ही नहीं!’ इस सच्चाई का बोध करना होता है। इन दोनों अनुवादों से दो अलग निष्कर्ष निकलते हैं, और ये दो भिन्न मार्गों की ओर ले जाते हैं। यही अनत्त की विडंबना है!
हमें चाहिए कि हम दूसरे अनुवाद को त्याग दें और अनत्त को केवल एक कुशल रणनीति के रूप में समझें। हमें दार्शनिक भ्रमों, जैसे “आत्मा है या नहीं है?” या “ये स्कंध मेरे हैं या पराए?” से बचना चाहिए। इसके बजाय, हमें चीजों को यथाभूत (जैसी वे हैं) देखना चाहिए। तभी हम उनसे लगाव और आसक्ति को त्यागकर मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।
यही तरीका वच्छगोत्त के लिए भी प्रभावी साबित हुआ। जब उसे बुद्ध से कोई दार्शनिक उत्तर नहीं मिला, तो वह निराश होकर चला गया। बाद में, वह फिर से बुद्ध के पास आया, और बुद्ध ने उसी रणनीति से उसे मुक्त किया। अंततः वह भी अनेक अरहंतों में से एक बना।
इस प्रकार, ‘अनत्त’ का सिद्धांत आत्मा के अस्तित्व को ठुकराने की शिक्षा नहीं है, बल्कि उसे लाँघने की एक रणनीति है। यही रणनीति दुःख से मुक्ति का मार्ग है। जब हम इस मार्ग से आगे बढ़ते हैं और परम सुख की अवस्था प्राप्त करते हैं, तब ‘आत्मा है’ या ‘आत्मा नहीं है’ जैसे प्रश्न अप्रासंगिक और निरर्थक प्रतीत होते हैं।
“कोई श्रमण या ब्राह्मण शाश्वतवादी होता है, जो आत्मा और लोक को शाश्वत मानता है … वह ऐसा मानता है, दृष्टि धारण करता है कि “आत्मा और लोक नित्य (अजर और अमर) हैं, निष्फल हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर हैं, स्तंभ की तरह अचल हैं। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य बना रहता है।”…
(दूसरी ओर) “कोई श्रमण या ब्राह्मण उच्छेदवादी होता है … वह ऐसा मानता है, दृष्टि धारण करता है कि — “जो आत्मा रूपयुक्त है, चार महाभूतों से बनी है, जो माता-पिता संयोग से उत्पन्न हुई है — वह मरणोपरान्त काया छूटने पर खत्म हो जाती है, विनष्ट हो जाती है, लुप्त हो जाती है। आत्मा का इस स्तर पर [जड़ से] पूर्णतया निर्मूलन हो जाता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना घोषित करता है।”” — दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त ↩︎
कोई धर्म न सुना, आम आदमी इस तरह ‘अनुचित’ बातों पर गौर करता है—‘क्या मैं अतीतकाल में था?’ ‘क्या मैं अतीतकाल में नही था?’ ‘ मैं अतीतकाल में क्या था?’ ‘मैं अतीतकाल में कैसा था?’ ‘मैं अतीतकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बना था?’
‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में नही रहूँगा?’ ‘क्या मैं भविष्यकाल में रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में कैसा रहूँगा?’ ‘मैं भविष्यकाल में क्या बनकर फ़िर क्या बनूँगा?’
या वह वर्तमानकाल को लेकर भ्रमित रहता है—‘क्या मैं हूँ?’ ‘क्या मैं नही हूँ?’ ‘मैं क्या हूँ?’ ‘मैं कैसा हूँ?’ ‘यह सत्व कहाँ से आया है?’ ‘वह कहाँ जानेवाला है?’
इस प्रकार अनुचित बातों पर गौर करने से, उसमें छह-दृष्टियों में से एक [मिथ्या] दृष्टी उत्पन्न होती है—
• ‘मेरी आत्मा है’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है। या
• ‘मेरी आत्मा नही है’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है। या
• ‘आत्मा के द्वारा आत्म महसूस करता हूँ’… या
• ‘आत्मा के द्वारा अनात्म महसूस करता हूँ’… या
• ‘अनात्म के द्वारा आत्मा महसूस करता हूँ’—उसे यह उत्पन्न हुई दृष्टि सच लगती है, जिसे वह धारण करता है।
• या उसे उत्पन्न हुई दृष्टि कुछ इस तरह होती है—‘मेरा जो आत्मा है, जो यहाँ वहाँ भले-बुरे कर्मों के फ़ल-परिणाम भोगती है — वह नित्य, ध्रुव, शाश्वत है। वह कभी नही बदलेगी। अनन्तकाल तक वैसा ही बनी रहेगी।’
इन्हें कहते है, भिक्षुओं—‘दृष्टियो का झुरमुट! दृष्टियो का जंगल! दृष्टियो का रेगिस्तान! दृष्टियो की विकृति! दृष्टियों की पीड़ापूर्ण ऐठन! दृष्टियो का बंधन!’ इस तरह दृष्टिबंधन में बँधा, धर्म न सुना, आम आदमी—जन्म बुढ़ापा मौत, शोक विलाप दर्द व्यथा निराशा से छूट नहीं पाता! मैं कहता हूँ, वह दुःख से छूट नहीं पाता! — मज्झिमनिकाय २ : सब्बासव सुत्त ↩︎
जैसा उन्होंने अभय राजकुमार के प्रश्न के संदर्भ में कहा था, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय ५८ : अभय राजकुमार सुत्त में मिलता है। ↩︎