नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

तार्किक धर्म?

किसी बात का स्वीकार्य होने के लिए उनका तार्किक होना अनिवार्य होता है। लोगों को आमतौर पर लगता है कि बात तार्किक होगी, तो जरूर सही होगी। यह देखा जाता हैं कि यदि आप तर्क देकर अपनी बात समझाते हैं, तो लोग भली या बुरी, कोई भी बात मान जाते हैं। दूसरी ओर, बिना तर्क के, अच्छी से अच्छी बात भी अस्वीकृत हो जाती है। तर्क आवश्यक है, लेकिन आधुनिक दुनिया में यह एक अतिरंजित और अनिवार्य गुण बन चुका है।

नास्तिक लोग अक्सर धर्म को इसलिए पसंद नहीं करते, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह ‘तार्किक’ नहीं है। वहीं, कई आस्तिक यह मानते हैं कि बौद्ध धर्म तार्किक है, इसलिए आकर्षक है। वे कहते हैं कि बौद्ध धर्म आधुनिक विज्ञान की ‘तथाकथित’ कसौटी पर खरा उतरता है, इसलिए इस धर्म का पालन करना चाहिए। इस तरह, जब कोई व्यक्ति धर्म को ‘तर्क’ का आधार बनाता है, तो वह वास्तव में अपने जीवन में ‘धर्म’ को नहीं, बल्कि उस ‘तर्क’ को प्राथमिकता देता है। यदि उसी धर्म का कोई अन्य सिद्धांत किसी दिन तर्क की कसौटी पर खरा न उतरे, तो वे ही लोग धर्म को तुरंत अस्वीकार भी कर देते हैं।

तर्क किसी चीज़ को गहराई से समझने में सहायता कर सकता है, लेकिन यह पूरी तरह से अंधा भी हो सकता है। अक्सर यह किसी विशेष सिद्धांत या दृष्टिकोण पर आधारित होता है, जिससे यह प्रवृत्ति उत्पन्न होती है कि हर स्थिति पर इसे अंधाधुंध तरीके से लागू किया जाए। यह एक निश्चित सोच की रेखा पर चलते हुए चीज़ों को उसी तर्क से समझाने की कोशिश करता है, जबकि इसके पीछे के अनेक विविध अनुभवों और पहलुओं को नजरअंदाज कर देता है। यह केवल एक रंगी दृष्टिकोण को स्वीकार करता है और अन्य संभावनाओं को खारिज कर देता है। कई बार लोग किसी तर्क को ज़रूरत से ज़्यादा खींचते हैं, जिससे वे बेतुके या विध्वंसकारी निष्कर्षों पर पहुँच सकते हैं।

इतिहास का गहराई से अध्ययन करने पर यह स्पष्ट होता है कि किसी भी विध्वंसकारी घटनाओं के पीछे एक अत्यंत विश्वसनीय तर्क ही निहित होता है। हालाँकि, जब हम पीछे मुड़कर उसी तर्क को देखते हैं, तो अक्सर हँसी आती है कि लोग उस पर कैसे विश्वास कर बैठे। दुनिया में कई विचित्र और भ्रामक तर्कों ने विनाशकारी परिणाम पैदा किए हैं। कई तर्कों ने न केवल व्यक्तिगत जीवन को बर्बाद किया हैं, बल्कि पूरी सभ्यताओं को नष्ट करने में भूमिका निभायी हैं।

उदाहरण के लिए, नाजीवाद के आकर्षक तर्क ने मानवता के खिलाफ भयंकर अपराध किए, जिसके परिणामस्वरूप लाखों निर्दोष लोगों की हत्या हुई। कार्ल मार्क्स का वामपंथी तर्क सामाजिक न्याय और समानता की खोज में महत्वपूर्ण माना गया, लेकिन जब इसे अधिकतम खींचा गया, तो यह दुनिया भर में रक्तरंजित तानाशाही का कारण बना। इसी तरह, एडम स्मिथ का दक्षिणपंथी तर्क आर्थिक विकास के लिए एक प्रभावशाली दृष्टिकोण हो सकता था, लेकिन जब इसे अति किया गया, तो इसके परिणामस्वरूप पूंजीवादी एकाधिकार, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद, पर्यावरणीय विनाश, संसाधनों के लिए विश्वयुद्ध और व्यापक जनसंहार देखने को मिला। सामाजिक डार्विनिज़्म के तर्क ने लोगों को यह सोचने पर मजबूर किया कि कमजोरों का विनाश करना केवल स्वाभाविक ही नहीं, बल्कि आवश्यक भी है। स्त्री को डायन या सती बनाकर जलाने का तर्क शरीर में सिरहन पैदा करती है।

यह बात धर्म पर भी लागू होती है। किसी भी धार्मिक तर्क को जब उसकी सीमाओं से अधिक खींचा जाता है, तो यह चरमपंथ की ओर ले जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यापक रक्तपात, जनसंहार, और विध्वंस की घटनाएँ जन्म ले सकती हैं। उदाहरण के तौर पर, जब धार्मिक तर्कों को कट्टरता की सीमा तक बढ़ाया जाता है, तो आतंकवाद की घटनाएँ बढ़ जाती हैं, और कई निर्दोष लोग मारे जाते हैं। जब सांप्रदायिक गर्व से जुड़े तर्कों को बढ़ाया जाता हैं, तो भोले धार्मिक लोग भी अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा को उचित ठहराते हैं। इस प्रकार, यदि हम तर्क की सीमाओं का पालन न करें, तो समग्र मानवता को विनाश की ओर धकेला जा सकता है।

“इसलिए कहता हूँ, कालामों। न सुनी-सुनाई बात मानो, न परंपरागत बात मानो, न अटकलेबाजी मानो, न शास्त्र-ग्रंथों की बात मानो, न तर्कसंगत कारण मानो, न अनुमानित कारण मानो, न समतुल्य परिस्थिति में लागू होती बात मानो, न अपनी धारणा से मेल खाती बात मानो, न संभावित बात मानो, न श्रमण गुरु के सम्मानार्थ मानो।

बल्कि कालामों, जब तुम्हें स्वयं पता चले — ‘यह स्वभाव अकुशल है। यह स्वभाव दोषपूर्ण है। यह स्वभाव ज्ञानियों द्वारा निंदित है। यह स्वभाव मानने से, उस पर चलने से अहित होता है, दुःख आता है’ — तब तुम्हें वह स्वभाव त्याग देना चाहिए।"

— अंगुत्तरनिकाय ३:६६ : केसमुत्तिसुत्त

इसके विपरीत, विवेक तर्क की सीमाओं को पहचानता है। यह न केवल विश्लेषण करता है, बल्कि संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता को भी समझता है। विवेक जानता है कि हर स्थिति और समस्या का समाधान एक ही सैद्धांतिक तर्क से नहीं हो सकता; इसके लिए हमें विभिन्न दृष्टिकोणों को अपनाना होगा और संभावनाओं को देखकर अपने अनुभवों से सीखना होगा। विवेक हमें आँखें प्रदान करता है, जिससे हम चीजों को व्यापक दृष्टिकोण से देख सकते हैं। यह तर्क को एक औज़ार के रूप में मानता है, लेकिन सही संदर्भ और परिस्थितियों में उसका उपयोग करना भी जानता है या उसे एक-ओर रख देना भी। इस तरह, विवेक एक अधिक समग्र और व्यावहारिक दृष्टिकोण प्रदान करता है, जो हमें सत्य की जटिलताओं का सामना करने में सक्षम बनाता है।

उदाहरण के तौर पर, चिकित्सा विज्ञान (मेडिकल साइन्स) विवेक पर निर्भर करता है, न कि केवल तर्क पर। जब किसी बीमारी के लिए कोई दवा प्रभावी साबित होती है, तो तर्क के अनुसार लोग उसे अधिक मात्रा में लेने लगते हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि वही दवा किसी अन्य बीमारी को बढ़ा सकती है या दीर्घकालिक नुकसान पहुँचा सकती है। सही मात्रा का ज्ञान आवश्यक है, क्योंकि बिना इसकी समझ के दवा हानिकारक हो सकती है। दवा के प्रभावों का अध्ययन महीनों तक चलता है, और विवेक के आधार पर ही उसकी उचित मात्रा निर्धारित की जाती है, फिर इसे जनता के लिए उपलब्ध कराया जाता है।

बुद्ध के जीवन का उदाहरण भी हमें यह सिखाता है। गृहत्याग के बाद, उन्होंने पहले तर्क का सहारा लिया। उन्होंने सोचा कि यदि दुख का कारण सुख से आसक्ति है, तो सभी सुखों को त्याग ही देना चाहिए। इसके चलते, उन्होंने भौतिक और आध्यात्मिक सुखों से दूर रहकर स्वयं को अनावश्यक दुःखों में डाल लिया और छह वर्षों तक विभिन्न कष्ट सहते हुए साधना की। लेकिन जब उन्होंने देखा कि उस तर्क के आधार पर कोई मनुष्योत्तर अवस्था प्राप्त नहीं हो रही, तब उन्होंने ‘विवेक’ का सहारा लिया। उन्होंने तर्क के अतिवादी सोच को एक-ओर रख दिया और एक मध्यममार्ग की खोज करते हुए संतुलित मात्रा में आहार और सुख का उपयोग किया। इस तरह, उन्होने सुखों का रणनीतिक उपयोग कर अपने चित्त को ऊँचा उठाया और आगे बढ़ते-बढ़ते समस्त दुखों का अंत किया।

बौद्ध धर्म का इतिहास स्वर्णिम होने के साथ-साथ इसमें भी एक काला अध्याय है। उसमे ऐसे तार्किक भिक्षु शामिल हैं जिन्होंने बौद्ध विवेकशीलता को चुनौती दी और धर्म को विकृत किया। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद, कई विद्वान और भाषाविद भिक्षुओं ने बुद्ध की शिक्षाओं को तर्क की सीमाओं में बांधने की कोशिश की। विशेष रूप से, पाँचवी शती के बुद्धघोष भंते ने बौद्ध शिक्षाओं को एक कसे हुए तार्किक ढाँचे में ढाल दिया। उन्होंने बुद्ध की शिक्षाओं को अपने तर्कपूर्ण दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया और जो तर्क के अनुरूप नहीं था, उसे धर्म की व्याख्या से बाहर कर दिया। “ये सिद्धांत उस तर्क में फिट नहीं बैठता… या यह सिद्धान्त तार्किक नहीं लगता…” ऐसे मनचाहा मिथ्या अर्थ निकालकर, उन्होंने बौद्ध धर्म को आंतरिक रूप से कमजोर कर दिया। इसके परिणामस्वरूप धर्म की लोकप्रियता बढ़ी, लेकिन उसकी फलदायिता में कमी आई। इस प्रकार, बौद्ध भिक्षु नालन्दा जैसे विश्वविद्यालयों में विवाद करने में सफल हुए, लेकिन दुःखमुक्ति में असफल रहें।

बौद्ध धर्म का मूल उद्देश्य तार्किक विवादों में विजय प्राप्त करना नहीं था। कई सूत्रों में बुद्ध ने भिक्षुओं को तार्किक विवादों में शामिल होने से रोका, क्योंकि उसमें सत्य के बजाय दूसरों को पराजित करने का अहंकार अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। हमें धर्म को इसलिए नहीं मानना चाहिए क्योंकि वे तार्किक हैं, बल्कि इसलिए कि वे फलदायी हैं। यदि वास्तव में आपकी सम्यक दुःखमुक्ति हो रही है, तो वह तार्किक हो न हो, उसे धर्म कहा जा सकता है। उसके विपरीत, यदि कोई तर्क लोकप्रिय और सर्वसम्मत होकर भी दुःखमुक्ति नहीं दे सकता, तो उसे धर्म नहीं कहा जा सकता।

तर्क से मुक्ति नहीं मिलती है। इसलिए, तर्क और विवेक के बीच के अंतर को समझना और उनके संतुलन को बनाए रखना अत्यावश्यक है। जैन धर्म के अनुयायी बौद्ध शील को अपने शील के मुक़ाबले कमजोर मानते थे। उन्होंने अहिंसा के तर्क को अच्छी तरह से ग्रहण किया, लेकिन उसमें विवेक को महत्व नहीं दिया। इसके परिणामस्वरूप, उन्होंने इस भले तर्क को सीमा से परे खींचकर उसे अप्रासंगिक और अव्यवहारिक बना दिया। हालाँकि उनका दृष्टिकोण बहुत तार्किक था, लेकिन यह अंततः व्यर्थ और निष्फल सिद्ध हुआ। जैसे भगवान मिथ्या-धारणाओं का स्त्रोत बताते हुए कहते है —

“ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण बड़ा तार्किक और वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर (व्यर्थ) निष्कर्ष निकाल, वैचारिक उड़ान भरते हुए (मिथ्या बातें) कहने लगता है… जैसे आत्मा होती है… या आत्मा नहीं होती… या कर्म नहीं होते… या पुनर्जन्म नहीं होता… या निर्वाण नहीं होता…”

— दीघनिकाय १ : ब्रह्मजाल सुत्त

तर्क कभी-कभी संवेदनशीलता और अंतर्दृष्टि को समाप्त कर सकते हैं, और बुद्धि को दीर्घकाल तक संकुचित रख सकते हैं। यहाँ तक कि धर्म के निष्पाप तर्क भी दुर्गति का कारण बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, ऊँचे शील और धुतांग का पालन करने वाले कुछ भिक्षुओं में अहंकार और अनेक क्लेश जागृत होते हैं। इसी तरह, ध्यान-साधना करने वाले कुछ गृहस्थ साधकों में अंतर्दृष्टि के बजाय अहंकार जागता है और वे अपने सामने भिक्षुओं को तुच्छ समझने लगते हैं। इस प्रकार, किसी भी तर्क को बिना विवेक के पकड़े जाने पर अच्छे से अच्छे विचार भी क्लेश और दुर्गति का कारण बन सकते हैं। इसलिए, किसी भी तर्क का उपयोग करने में बड़ी सावधानी और विवेकशीलता बरतनी चाहिए।

एक तार्किक प्रणाली के जाल में फँसना अवरोधक बन सकता है। यदि आप अति-तार्किक होने पर जोर देते हैं, तो आपको निरीक्षण करने की ज़रूरत नहीं रह जाती। क्योंकि तर्क सिद्धांत को आँखें मूँद कर, जहाँ तक चाहे, ले जा सकते हैं। परंतु विवेकशील होने पर वह ज़िम्मेदारी आप पर आती है कि अब आप निरीक्षण करें, और स्वयं के प्रति ईमानदार रहें। कई बार जब हम कोई कर्म करते हैं, तो उसका असली उद्देश्य हम अक्सर खुद से भी छुपाते हैं। और हमारे कर्मों के परिणाम दूसरों पर कैसे विपरीत रूप से प्रभावित करते हैं, यह भी अक्सर हमारी दृष्टि से छिपा रहता है। यही वह क्षेत्र है जहाँ हमारी अधिकतर मानसिक बेईमानी पाई जाती है। और यही अज्ञान है, जिसे हमें जीतना है।

बुद्ध ने ऊँची साधना के नियम सबके लिए एक जैसे तय नहीं किए। अगर कोई सुख आपको क्लेशों की ओर ले जाता है, तो उसे त्यागना आवश्यक है। परंतु, यदि किसी सुख से आपको सत्य की झलक मिलती है, तो उस सुख को बनाए रखने में कोई हानि नहीं है। अपने क्लेशों को हटाने के लिए कभी कड़ी मेहनत की ज़रूरत पड़ती है, तो कभी सिर्फ़ एक शांत अवलोकन ही पर्याप्त होता है। कब किसी एक साधना को अपनाना है और कब उसे एक-ओर रख दूसरी किसी साधना का उपयोग करना है, यह जानने के लिए आपको अपने मन की सूक्ष्म गतिविधियों और उनके उपजे परिणामों पर गौर करना होता है।

बुद्ध कहते हैं कि विवेकशील व्यक्ति मत्तञ्ञु होता है। इसका अर्थ है कि उसे किसी भी बात की सीमा या उसकी उचित मात्रा का पता चलता है। जैसे, भोजन करते समय सही मात्रा, दवा लेते समय उचित खुराक, बोलने के लिए एक निश्चित सीमा, सोचते समय विचारों की सीमाएँ, विवाद करते समय तर्कों की सीमाएँ, साधना करते समय उस साधना की सीमा, या किसी भी वस्तु का उपयोग करते समय उसकी सीमाएँ। भौतिक हो या मानसिक, हर रचित वस्तु की एक सीमा होती है, जिसे विवेकशील व्यक्ति पहचानता है।

आगे, विवेकशील व्यक्ति कालञ्ञु होता है। इसका अर्थ है कि वह जानता है कि किसी कार्य या शब्द का सही समय क्या है। उदाहरण के लिए, किसी की प्रशंसा या निंदा करने का उचित समय होता है। भले ही बात सकारात्मक हो, अगर उसे गलत समय पर कहा जाए तो उसका प्रभाव खत्म हो जाता है। चाहे वह अभिनय, राजनीति, प्रवचन, वाद्यकला, स्टैंडअप कॉमेडी, या धर्म साधना की बात हो, हर कला में सही समय का महत्व होता है, जिसे विवेकशील व्यक्ति आसानी से पहचानता है। यही कारण है कि उसकी प्रज्ञा और प्रभावशीलता बढ़ जाती है।

आगे, विवेकशील व्यक्ति अत्तञ्ञु भी होता है, जिसका अर्थ है कि वह अपनी सीमाओं और क्षमताओं को भली-भांति समझता है। उसे अपनी कमजोरियों और योग्यताओं का सही ज्ञान होता है, और वह अपने प्रशंसनीय और निंदनीय गुणों के प्रति भी सजग रहता है। इस जागरूकता के कारण, वह खुद को न तो ऊँचा मानता है और न ही नीचा, जिससे उसमें श्रेष्ठता या हीनता की भावना नहीं उपजती। चाहे सामाजिक, शारीरिक, बौद्धिक या आध्यात्मिक स्तर पर हो, वह अपने कार्यों को करने से पहले और करते समय अपनी सीमाओं को अच्छे से जानता है। इसीलिए, वह अहंकार से दूर रहता है, हमेशा विनम्र और खुले हृदय का बना रहता है।

अंत में, विवेकशील व्यक्ति कतञ्ञु भी होता है, जिसका अर्थ है कि उसे अपने लिए किए गए और किए जा रहे कृत्यों का ज्ञान होता है। वह समझता है कि उसके कर्मों के परिणाम क्या होंगे, चाहे वे किसी के कल्याण में हो या हानि में। इस ज्ञान के कारण, वह लोगों के उपकारों के प्रति कृतज्ञ रहता है और अपने दुष्कृत्यों के लिए जिम्मेदार होता है। कृतज्ञता विवेकशील व्यक्ति को अधिक जागरूक, विनम्र और स्मृतिमान बनाती है, जिससे उसकी सामाजिक और व्यक्तिगत जिंदगी में सकारात्मकता बनी रहती है। इस तरह, विवेकशीलता न केवल व्यक्ति को समृद्ध बनाती है, बल्कि उसके आस-पास के लोगों के लिए भी लाभकारी होती है।

इन गुणों को विकसित करने के लिए कोई एक स्पष्ट सूत्र नहीं है। यह एक ऐसा प्रक्रिया है जिसमें समय, ध्यान और अनुभव की आवश्यकता होती है। हमें यह सीखना होता है कि कब कोई विशेष तर्क लागू होता है और कब नहीं, और यह ज्ञान प्रज्ञा के साथ धीरे-धीरे बढ़ता है। तर्क हमें जल्दी से निष्कर्ष पर पहुँचाने के लिए प्रेरित कर सकता है। लेकिन असली मुक्ति तब मिलती है जब हम वास्तविकता का निरीक्षण उसके अनेक पहलुओं के साथ गहराई से कर पाते हैं। तर्क की सीमाएँ पहचानना आवश्यक है, ताकि हम सतही परिणामों से बच सकें और गहरे, अधिक सार्थक निर्णय ले सकें।

बुद्ध का धर्म तार्किकता के बजाय विवेकशीलता पर आधारित है, जो जीवन की गहराई और जटिलता को समझने में मदद करता है। उनकी शील, समाधि और प्रज्ञा से जुड़ी साधनाएँ विवेकशीलता को प्रोत्साहित करती हैं, जबकि तर्क को नहीं। कभी-कभी ये साधनाएँ तार्किक लग सकती हैं, तो कभी कभी नहीं। हजारों वर्षों से इन साधनाओं के प्रभाव और सच्चाई को परखा गया है, और उन्होंने साधकों को हमेशा सफलता दिलाने में मदद की है। बुद्ध ने इन साधनाओं को इसलिए सिखाया क्योंकि वे वास्तव में फलदायी हैं। भले ही उनकी शिक्षाएँ पहली नज़र में तार्किक लोगों को समझ में न आएं, वे फिर भी दुनिया भर के विवेकशील लोगों को हमेशा आकर्षित करती रही हैं। तर्क से जीवन स्पष्ट और सरल हो सकता है, लेकिन यह संकीर्णता का कारण बनता है। इसके विपरीत, विवेकशीलता और प्रज्ञा का बहाव एक जटिल विकास की निरंतर यात्रा है, जो हमें जीवन के विविध पहलुओं से रूबरू कराते हुए अंततः दुःखमुक्ति की ओर ले जाता है।

अंततः भगवान ऐसे तार्किक लोगों को सुरक्षित दांव खेलने का सुझाव देते हैं। अर्थात् उन्होंने सोचना चाहिए कि “दुनिया में कई धर्म और संत हैं जो स्वर्ग-नर्क, पुण्य-पाप के बारे में बात करते हैं। जो लोग इन बातों को झूठ मानते हैं, वे अक्सर मनमर्ज़ी से बुराई करने लगते हैं। क्योंकि उन्हें बुराई में कोई गलती नहीं दिखती। दूसरी ओर, जो लोग इन बातों को सच मानते हैं, वे बुराई छोड़ भलाई करने लगते हैं। क्योंकि उन्हें बुरे परिणाम का भय सताता है। लेकिन परलोक की बातें छोड़ भी दी जाएँ, तो दिखायी देता है कि इसी वर्तमान जीवन में समाज के लोग दुराचारी की निंदा-भर्त्सना करते हैं। दुराचारी को पसंद नहीं किया जाता। सदाचारी को पसंद किया जाता है। उसे समाज में आदर, प्रशंसा और प्रेम मिलता है।

इसलिए अगर कर्म और परलोक जैसी बातें झूठी हैं, तब भी दुराचारी का एक ही दांव सही पड़ा, दूसरा गलत। अर्थात्, परलोक न होने से भविष्य सुरक्षित है, किंतु वर्तमान जीवन में ही वह निंदित होता है, नापसंद किया जाता है। लेकिन अगर सच हैं, तब उसका भविष्य भी सुरक्षित नहीं है — दुर्गति होकर नर्क जाएगा। अर्थात्, तब दुराचारी के दोनों ही दांव उल्टे पड़ते हैं।

दूसरी ओर, सदाचारी के लिए धर्म झूठ अथवा सच होने पर भी दोनों ही दांव सही पड़ते हैं। अर्थात्, वह इस लोक में भी प्रशंसित और सम्मानित होता है, तथा परलोक हो तो उसमें भी सद्गति होती है।” — भगवान कहते हैं कि इस तरह सोचकर तार्किक व्यक्ति जोखिम न उठाएँ। हमेशा भलाई एवं सदाचार का मार्ग चुनें। सुरक्षित दांव खेलकर अपना वर्तमान और भविष्य दोनों सुरक्षित रखें।

दुनिया की वास्तविकता हमेशा केवल तर्कों से ही बयान नहीं हो सकती। कुछ गहरी और सूक्ष्म सच्चाईयाँ तर्कबुद्धि के परे कार्य करती हैं। उदाहरण के तौर पर, क्वांटम भौतिकी जैसे क्षेत्रों में तर्क की सीमाएं स्पष्ट रूप से सामने आती हैं। उदाहरण के लिए, डबल स्लिट प्रयोग में इलेक्ट्रॉन एक साथ तरंग और पदार्थ दोनों के रूप में प्रकट होते हैं, जिसे तर्क द्वारा दर्शाया या समझा जाना संभव ही नहीं है। इसी तरह, क्वांटम टनलिंग की घटना हमें यह बताती है कि पदार्थ बाधाओं को पार कर सकते हैं, जिससे पारंपरिक भौतिकी के सभी तर्क और नियम इस पर लागू नहीं होते। बेल के प्रमेय के अनुसार, दो कणों के बीच की उलझन, भौतिकी के सामान्य सिद्धांतों को चुनौती देती है।

बुद्ध की शिक्षाओं में कई विचार तार्किक दृष्टि से विचित्र प्रतीत होते हैं, जैसे कि यह कैसे संभव है कि कोई रचित (आर्य अष्टांगिक) मार्ग अरचित (निर्वाण) की ओर ले जा सकता है। बुद्ध ने इसे कार्य-कारणता के नियम के माध्यम से समझाया, जिस तरह जब किसी संख्या को शून्य से विभाजित किया जाता है, तो परिणाम अनंत होता है — यह एक गणितीय सत्य है, जिसमें कोई ठोस तर्क नहीं होता। हमें बस इस सिद्धांत को स्वीकार करना होता है। इसी प्रकार, जब हम सृष्टि की गहरी सच्चाई को तर्क के माध्यम से समझने की कोशिश करते हैं, तो कई बार तर्क हमारे सामने टूट जाते हैं, और इस बात को विश्व प्रसिद्ध भौतिक वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टाइन ने भी पहचाना था कि तर्क की सीमाएँ होती हैं।

कुछ विशिष्ट प्रकार के कर्म, जैसे ऊँची समाधि, हमें वहाँ ले जाती है जहाँ मन अचानक ‘वर्णन-रहित’ हो जाता है। हर चीज़ परिभाषा से परे हो जाती है। यह इसलिए कार्य करता है क्योंकि प्रकृति का यही स्वभाव है। यदि आप इसे केवल तर्क से देखें तो यह बेतुका या मनमाना प्रतीत हो सकता है, परंतु यह वाकई काम करता है। यहाँ प्रश्न यह नहीं है कि आप बुद्ध पर विश्वास करते हैं या नहीं, बल्कि यह है कि आप उनकी शिक्षाओं को परखें—और साथ ही स्वयं को भी परखें। और ऐसा क्यों करें? क्योंकि बुद्ध का कहना था कि यह रास्ता दुखों के अंत तक ले जाता है। यह दुःख ही हमारे जीवन की सबसे बड़ी समस्या है, उसका अंत ही हमारा अंतिम ध्येय। यह निर्णय हमें करना है कि क्या हम इस संभावना को अपनाना चाहते हैं, या अपनी पुराने तर्कों को पकड़ कर रहना चाहते हैं।