“एवं मे सुतं” — ये शब्द मूलतः आनन्द भंते के हैं, जो प्रत्येक सूत्र के आरंभ में पाये जाते हैं। इसका अर्थ है कि “ऐसा (निम्नलिखित) मैंने सुना हैं…”
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आनन्द भंते २५ वर्षों तक परछाई की तरह सहायक और सेवक के रूप में भगवान के साथ-साथ रहें। भगवान ने अनेक उपदेश आनन्द भंते के सामने दिये। किन्तु अनेक प्रसंगो में आनन्द भंते वहाँ मौजूद नहीं थे, ख़ास कर संघ के प्रारंभिक वर्षों में।
लेकिन भगवान अधिकांश बातें आनन्द भंते को आकर बता दिया करते थे, क्योंकि इसी शर्त पर आनन्द भंते उनके सेवक बने थे। शर्त यही थी कि आनन्द भंते की गैर-मौजूदगी में घटी बातें और उपदेशों को भगवान आकर उन्हें दुबारा बताएँगे। और आज हमें उसी शर्त के कारण भगवान के जीवन के महत्वपूर्ण प्रसंग और उपदेश पता चलते हैं। आनन्द भंते ने भगवान की बातों को अपने तीक्ष्ण स्मरणशक्ति में जस-के-तस दर्ज कर दिया था।
भगवान ने जीवित रहते हुए ही भिक्षु-संघ को उनके सबसे मुख्य उपदेशों की सूची बना कर उनकी संगीति करने के लिए कहा था। क्योंकि महाविर जैन के मरणोपरांत उनके संघ में वाद-विवाद होकर बटवारा हो गया था। यही खतरा आर्य भिक्षुसंघ पर मंडरा रहा था।
तब तुरंत ही, सारिपुत्र भंते ने मूल शिक्षाओं को संख्यात्मक रूप से जोड़कर दस-संगीति सूत्र (दीघ-निकाय ३३) का पाठ किया था। और उसे भिक्षुओं को मनन करने के लिए कहा गया था।
तब भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात, महाकश्यप भंते ने भिक्षुसंघ को अनुरोध किया कि भगवान के अधिकांश उपदेशों का संगायन किया जाना चाहिए, ताकि आगे चलकर उन उपदेशों में पापी भिक्षुओं के द्वारा मन-मुताबिक मिलावट करने की गुंजाइश न बचे।
तब तकरीबन ई॰पू॰४८३ में, आज के बिहार राज्य में राजगीर की सप्तपर्णी गुफा में, पाँच-सौ अर्हन्तों के साथ वर्षावास करते हुए, भिक्षुसंघ ने मिलकर प्रथम विनय की नियमावली और फिर धर्म के पञ्चनिकाय सूत्रों का संगायन किया। उसमें अध्यक्षता और प्रश्नकर्ता के तौर पर भंते महाकश्यप ही थे, जबकि विनय के उत्तरकर्ता भंते उपालि थे, जबकि धर्मसूत्रों के उत्तरकर्ता भंते आनन्द थे।
वहाँ पर उपस्थित सभी अर्हन्तों ने दोनों महारथियों के उत्तरों को स्वीकृत किया, सत्यापित किया, और फिर मिलकर दुबारा उनका संगायन किया। इस तरह यह धर्म-विनय चार शताब्दियों तक भाणक परंपरा [=मौखिक मुँह-ज़बानी याद रखना] के द्वारा ही प्रचारित-प्रसारित किया गया।
तत्पश्चात सम्राट अशोक ने अरहंत भिक्षुओं और अनेक अनुयायियों को विदेशों में भेजकर धर्म-विनय का अंतर्राष्ट्रीयकरण किया। तत्पश्चात श्रीलंका में ई॰पू॰२९ में हुई चौथी संगीति में इस भाणक परंपरा को प्रथम लिपिबद्ध किया गया। किन्तु भाणक परंपरा तब भी अनेक शताब्दियों तक गुरु-शिष्य परंपरा के रूप में लिपि परंपरा के साथ-साथ समानान्तर चलती रही। अंतिम उल्लेख ‘चुलवंश’ के अनुसार १३वी शताब्दी तक भी भाणक परंपरा स्वतंत्र रूप से दुनिया में विद्यमान थी। आज भी भिक्षुसंघ में भाणक भिक्षु पाए जाते हैं, जो धर्म-विनय को संपूर्ण अथवा अंशतः मुँह-ज़बानी याद रखते हैं।
सूत्रपिटक बुद्ध के मूल उपदेशों का एक व्यापक संग्रह है, और बौद्ध साहित्य ‘त्रिपिटक’ का महत्वपूर्ण अंग है। इस में भगवान बुद्ध के उपदेश, चर्चा, प्रश्नोत्तर, गद्य, कथाएँ आदि अनेक प्रकार की रचनाएँ हैं। इसमें १०,००० से भी अधिक सूत्र शामिल हैं।
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इसे पाँच निकायों या संग्रहों में विभाजित किया गया है:
दीघनिकाय का अर्थ है, लंबे उपदेशों का संग्रह! हालांकि यह संग्रह लंबा नहीं है; सबसे छोटा है, जिसमे केवल ३४ उपदेश हैं। उनमें से कुछ उपदेश पालि सामग्री के सबसे उत्कृष्ठ और बेहतरीन साहित्यिक रचनाओं में शामिल हैं।
मध्यम लंबाई के १५२ उपदेश इस निकाय में शामिल किए गए हैं। दरअसल, यही संग्रह सबसे लोकप्रिय और उपयोगी माना जाता हैं, चाहे गृहस्थ हो अथवा भिक्षु। इनमें कई तरह की शिक्षाओं के विविध पहलुओं पर गहराई से चर्चा की गयी है।
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कुछ छोटे उपदेशों को विषयानुसार साथ मिलकर “संयुक्त” किया गया हैं। धर्म के विशेष पहलुओं पर इन संयुक्त का आयोजन किया गया है, जैसे कि पाँच उपादान स्कन्ध, प्रतित्य समुत्पाद, आनापान इत्यादि।
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संख्यात्मक उपदेशों को इस निकाय में शामिल किया गया हैं, जैसे कि एक से लेकर तक ग्यारह तक। अन्य निकायों की तुलना में यह संग्रह उपासकों के लिए अधिक उन्मुख हैं।
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खुद्दक का अर्थ होता है, क्षुद्र! जो उपदेश गाथा में अधिक हो, अथवा ऐसे स्वरूप के हो, जिन्हे किसी अन्य निकाय में नहीं डाला जा सकता, ऐसे सभी सूत्रों को इस निकाय में जगह दी गयी हैं। यही निकाय अनेक शताब्दियों तक विकसित होते रहा हैं।
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