आम तौर पर माना जाता है कि सभी धर्मों की मंज़िल एक ही है। किन्तु भगवान बुद्ध कहते है कि विभिन्न धारणाएँ हमें विभिन्न कर्मपथों पर चलने की प्रेरणा देते हैं, और विभिन्न गंतव्यों (=मंज़िल) पर ले जाते हैं। भगवान ऐसी कुल बासठ धारणाओं का विश्लेषण करते हुए दो समूहों में विभाजित किया है — भूतकाल से जुड़ी हुई और भविष्यकाल से जुड़ी हुई।
भूतकाल से जुड़ी हुई धारणाएँ मुख्यतः इन सवालों पर गौर करती हैं — ‘क्या आत्मा और ब्रह्मांड शाश्वत है, अथवा अंशतः शाश्वत है, अथवा अनायास ही उत्पन्न हुए हैं?’ जबकि भविष्यकाल की जुड़ी हुई धारणाएँ यह जांचती हैं कि ‘क्या आत्मा मृत्यु के बाद भी बची रहेगी अथवा नहीं, और यदि बची रहेगी तो किस स्वरूप में?’
भगवान बतलाते हैं कि इन्हीं बासठ धारणाओं के जाल में ब्रह्मांड के समस्त सत्व फँसें हुए हैं, और दुःखों से मुक्ति नहीं साध पाते हैं। इस प्रथम लंबे सूत्र में, भगवान उन तमाम दृष्टियों की उत्पत्ति और उन्हें धारण करने के परिणाम पर से पर्दाफ़ाश करते है। चौंकाने वाली बातें सामने आती हैं कि उनमें से अधिकतर धारणाएँ अपने सांसरिक जीवनों में खोये रहने से नहीं, बल्कि ध्यान-अवस्थाओं के गहरे अनुभवों से उत्पन्न होती हैं। अपने लाखों पुनर्जन्मों का पैटर्न देखकर भी मिथ्या-दृष्टि उपज सकती हैं। यही नहीं, बल्कि हम १०, २०, ४० कल्पों का ब्रह्मांडिय सिकुड़न-फैलाव देखने के पश्चात भी सच्चाई से कोसों दूर रह सकते हैं। डरावनी बात है कि अपनी गहरी ध्यान-अवस्थाओं में साक्षात्कार किए आत्मबोध पर विश्वास करने से धोखा मिल सकता है। इसलिए, भगवान बुद्ध, हमें उस आत्मबोध के धोखे से बचाने के लिए, हमारे ध्यान को एक अनोखे पहलू पर ले जाते है। और वह है, कर्म और आधारपूर्ण सहउत्पत्ति (पटिच्च समुप्पाद)।
इस अनोखे पहलू से हमारा सोचने-देखने का तरीका बदल जाता हैं। “मैं अपनी इस धारणा को कैसे बचाऊँ?” — यह सोचने के बजाय, आर्यश्रावक सोचने लगता है कि — “क्या इसी धारणा से चिपके रहना कुशल-कर्म है?”
इस तरह की कुशल-सोच विकसित करने से, हम मुक्ति के करीब पहुँच सकते हैं। और भगवान का यह उपदेश, दृष्टिजाल के इस चक्रव्युह से बच निकलने में, हमारा मार्गदर्शन करता है। तो कुर्सी की पेटी बांध लीजिए, क्योंकि इस प्रथम उड़ान में धक्के लग सकते हैं। आईयें, इस सर्वप्रथम सूत्र की उड़ान शुरू करते हैं।
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान, पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ, राजगृह और नालन्दा के बीच महामार्ग पर जा रहे थे। उसी समय सुप्रिय घुमक्कड़ भी, अपने युवा-ब्राह्मण शिष्य ब्रह्मदत्त के साथ, राजगृह और नालन्दा के बीच महामार्ग पर जा रहा था। रास्ते में सुप्रिय घुमक्कड़ ने अनेक तरह से बुद्ध की निंदा की, धर्म की निंदा की, और संघ की निंदा की। किन्तु उसके युवा-ब्राह्मण शिष्य ब्रह्मदत्त ने अनेक तरह से बुद्ध की प्रशंसा की, धर्म की प्रशंसा की, और संघ की प्रशंसा की। इस तरह वे दोनों गुरु और शिष्य, परस्पर-विरोधी बातें करते हुए, भगवान और भिक्षुसंघ के पीछे-पीछे चलते रहे।
तब रात बिताने के लिए, भगवान भिक्षुसंघ के साथ अम्बलट्ठिका बाग के राजसी भवन में रुक गये। रात बिताने के लिए, सुप्रिय घुमक्कड़ भी अपने युवा-ब्राह्मण शिष्य ब्रह्मदत्त के साथ, अम्बलट्ठिका बाग के राजसी भवन में रुक गया। और वहाँ भी, सुप्रिय घुमक्कड़ ने अनेक तरह से बुद्ध की निंदा की, धर्म की निंदा की, और संघ की निंदा की। किन्तु उसके शिष्य ब्रह्मदत्त ने अनेक तरह से बुद्ध की प्रशंसा की, धर्म की प्रशंसा की, और संघ की प्रशंसा की। इस तरह वहाँ भी दोनों गुरु और शिष्य, परस्पर-विरोधी बातें करते रहे।
तब रात के अंतिम पहर पर उठकर, बैठक में साथ बैठे अनेक भिक्षुओं में यह चर्चा चल पड़ी — “कमाल है, मित्र! अद्भुत है कि भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध, जो [सब] जानते हैं, जो देखते हैं, और सत्वों की विविध मानसिकताओं को गहराई से समझते हैं। इस सुप्रिय घुमक्कड़ ने अनेक तरह से बुद्ध की निंदा की, धर्म की निंदा की, और संघ की निंदा की। किन्तु उसके युवा-ब्राह्मण शिष्य ब्रह्मदत्त ने अनेक तरह से बुद्ध की प्रशंसा की, धर्म की प्रशंसा की, और संघ की प्रशंसा की। इस तरह दोनों गुरु और शिष्य, परस्पर-विरोधी बातें करते रहे।”
तब भगवान उन भिक्षुओं के वार्तालाप को जानकर बैठक में गये, और बिछे आसन पर बैठ गये। बैठकर भगवान ने भिक्षुओं को संबोधित किया — “भिक्षुओं! अभी किस बात पर चर्चा चल रही थी? चर्चा का विषय क्या था?”
उन भिक्षुओं ने भगवान से कहा — “भन्ते! रात के अंतिम पहर पर उठकर, बैठक में साथ बैठे अनेक भिक्षुओं में यह बात निकली कि ‘कमाल है, मित्र! अद्भुत है कि भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध, जो जानते हैं, जो देखते हैं, और सत्वों की विविध मानसिकताओं को गहराई से समझते हैं। इस सुप्रिय घुमक्कड़ ने अनेक तरह से बुद्ध की निंदा की, धर्म की निंदा की, और संघ की निंदा की। किन्तु उसके युवा-ब्राह्मण शिष्य ब्रह्मदत्त ने अनेक तरह से बुद्ध की प्रशंसा की, धर्म की प्रशंसा की, और संघ की प्रशंसा की। इस तरह दोनों गुरु और शिष्य, परस्पर-विरोधी बातें करते रहे।’ भन्ते, हम यही चर्चा कर रहे थे, जब भगवान का आगमन हुआ।”
“भिक्षुओं! यदि कोई पराया मेरी निंदा करे, या धर्म की निंदा करे, या संघ की निंदा करे — तब तुम्हें गुस्सा नहीं करना चाहिए, घृणा नहीं करनी चाहिए, और चित्त को कुपित नहीं करना चाहिए। यदि कोई पराया मेरी निंदा करता है, या धर्म की निंदा करता है, या संघ की निंदा करता है — और तुम कुपित अथवा खिन्न हो जाते हो, तब वह तुम्हारे लिए ही विघ्नकारक «अन्तराय» होगा। यदि कोई पराया मेरी निंदा करता है, या धर्म की निंदा करता है, या संघ की निंदा करता है — और तुम कुपित अथवा खिन्न हो जाते हो, तब क्या तुम्हें यह पता भी चलेगा कि उन्होने जो कहा, वह तथ्यपूर्ण है अथवा तथ्यहीन?”
“नहीं, भन्ते!”
“भिक्षुओं! यदि कोई पराया मेरी निंदा करे, या धर्म की निंदा करे, या संघ की निंदा करे — तब तुम्हें पता लगाकर तथ्यहीन को तथ्यहीन कहना चाहिए कि — ‘यह तथ्यहीन है! असत्य है! हम ऐसे नहीं हैं! हम में ऐसा नहीं मिलता!’
और यदि कोई पराया मेरी प्रशंसा करे, या धर्म की प्रशंसा करे, या संघ की प्रशंसा करे — तब तुम्हें आनंदित नहीं होना चाहिए, हर्षित नहीं होना चाहिए, प्रफुल्लित नहीं होना चाहिए। यदि कोई पराया मेरी प्रशंसा करता है, धर्म की प्रशंसा करता है, या संघ की प्रशंसा करता है — और तुम आनंदित हो जाते हो, हर्षित हो जाते हो, प्रफुल्लित हो जाते हो, तब वह तुम्हारे लिए ही विघ्नकारक होगा। यदि कोई पराया मेरी प्रशंसा करता है, धर्म की प्रशंसा करता है, या संघ की प्रशंसा करता है — और तुम आनंदित हो जाते हो, हर्षित हो जाते हो, प्रफुल्लित हो जाते हो, तब क्या तुम्हें यह पता भी चलेगा कि उन्होने जो कहा, वह तथ्यपूर्ण है अथवा तथ्यहीन?”
“नहीं, भन्ते!”
“भिक्षुओं! यदि कोई पराया मेरी निंदा करे, या धर्म की निंदा करे, या संघ की निंदा करे — तब तुम्हें पता लगाकर तथ्यपूर्ण को तथ्यपूर्ण कहना चाहिए कि — ‘यह तथ्य है! सत्य है! हम ऐसे हैं! हम में ऐसा मिलता हैं!’”
“भिक्षुओं, यदि आम-लोग तथागत की प्रशंसा में केवल शील की बात करें, तो वह निम्न [दर्जे की बात] होगी, गौण होगी। शील से जुड़ी कौन-सी बातें तथागत की प्रशंसा में निम्न होगी, गौण होगी?
• श्रमण गौतम हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहते है — डंडा या शस्त्र फेंक चुके; शर्मिले, दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम ‘न सौंपी चीज़ें’ त्यागकर चुराने से विरत रहते है। गांव या जंगल से न दी गई, न सौंपी, पराई वस्तु को चोरी की इच्छा से नहीं उठाते है, नहीं लेते है। बल्कि मात्र सौंपी चीज़ें ही उठाते है, स्वीकारते है। पावन जीवन जीते है, चोरी चुपके नहीं। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम अब्रह्मचर्य त्यागकर ब्रह्मचर्य धारण करते है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहते है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़, और भरोसेमंद होते है; दुनिया को ठगते नहीं। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाली बातों से विरत रहते है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताते है, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताते है, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराते है, साथ रहते लोगों को जोड़ते है, एकता चाहते है, भाईचारे में रत रहते है, मेलमिलाप में प्रसन्न होते है। ऐसे बोल बोलते है कि सामंजस्यता बढ़े। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहते है। वह ऐसे मीठे बोल बोलते है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल एवं स्वीकार्य लगे। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम बकवास त्यागकर निरर्थक वचन से विरत रहते है। वह समय पर, तथ्यों के साथ, अर्थपूर्ण [=हितकारक], धर्मानुकूल, विनयानुकूल बोलते है। बहुमूल्य लगे ऐसे सटीक वचन बोलते है — तर्क के साथ, नपेतुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा श्रमण गौतम बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागते है।…
• अथवा श्रमण गौतम दिन में एक-बार भोजन «एकभत्तिको» करते है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• अथवा श्रमण गौतम नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहते है।…
• अथवा श्रमण गौतम मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहते है।…
• अथवा श्रमण गौतम बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहते है।…
• अथवा श्रमण गौतम स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• अथवा श्रमण गौतम कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहते है।…
• अथवा श्रमण गौतम दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। श्रमण गौतम इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। श्रमण गौतम इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। श्रमण गौतम इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। श्रमण गौतम इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजाई या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। श्रमण गौतम इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। श्रमण गौतम इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। श्रमण गौतम इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” श्रमण गौतम इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" श्रमण गौतम इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। श्रमण गौतम इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
श्रमण गौतम इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहते है। कुछ आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करते हैं।
और, भिक्षुओं, यदि आम-लोग मात्र इतनी-सी बात से तथागत की प्रशंसा करें, तो वह निम्न होगी, गौण होगी।
भिक्षुओं, [इनके अलावा] दूसरे धर्म हैं — जो गहरे हैं, सरलता से नज़र नहीं आते, सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से तथागत की कोई यथार्थ प्रशंसा करे, तो वह उचित होगा। वे कौन-से दूसरे धर्म हैं — जो गहरे हैं, सरलता से नज़र नहीं आते, सरलता से बोध नहीं होते, शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से यदि कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो वह उचित होगा?
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, जो अतीत की कल्पना करने वाले हैं, जो अतीत को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जो अतीत को लेकर १८ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हैं। और ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण क्या कारण से, किस प्रमाण के बल पर अपनी दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी [=नित्यवादी] हैं, जो चार कारणों से आत्मा [=अन्तर्भागीय सार] और लोक को नित्य मानते हैं। और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(१) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित, परिशुद्ध, उजालेदार, बेदाग़, निर्मल चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ, एक हज़ार जन्म, कई हज़ार जन्म, एक लाख जन्म — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
वह [इस बल पर] कहता है — “आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्तकिया, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है… इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किये। इस आधार पर मैंने जान लिया है कि आत्मा और लोक कैसे नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।”
यह पहला कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं।
(२) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण दूसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित, परिशुद्ध, उजालेदार, बेदाग़, निर्मल चित्त में चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक कल्प का संवर्त-विवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न एवं विस्तार], दो कल्पों का… पाँच कल्पों का… दस कल्पों का संवर्त-विवर्त…
वह [इस बल पर] कहता है — “आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त की, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है… इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किये। इस आधार पर मैंने जान लिया है कि आत्मा और लोक कैसे नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।”
यह दूसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं।
(३) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण तीसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिस समाहित, परिशुद्ध, उजालेदार, बेदाग़, निर्मल चित्त में चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे दस कल्पों का संवर्त-विवर्त, बीस कल्पों का… तीस कल्पों का… चालीस कल्पों का संवर्त-विवर्त…
वह [इस बल पर] कहता है — “आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है। ऐसा क्यों? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त की, जिस समाहित चित्त में विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है… इस तरह मैंने अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण किये। इस आधार पर मैंने जान लिया है कि आत्मा और लोक कैसे नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।”
यह तीसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं।
(४) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण चौथे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक, वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर निष्कर्ष निकाल, वैचारिक उड़ान भरते हुए कहता है — “आत्मा और लोक नित्य है, निष्फल है, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर है, स्तंभ की तरह अचल है। और भले ही सत्व जन्म-जन्मांतरण में दौड़ते हैं, भटकते हैं, च्युत होते हैं, पुनरुत्पन्न होते हैं, तब भी अस्तित्व नित्य है।”
यह चौथा कारण हुआ, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं।
यही चार कारण हैं, भिक्षुओं, जिससे कई श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को नित्य मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा और लोक को नित्य मानते हो, सभी यही चार या उन्ही में से किसी एक के आधार पर मानते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर [मरणोपरांत] यह-यह गति होती है, [परलोक में] ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो चार कारणों से आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(५) ऐसा होता है, भिक्षुओं, दीर्घकाल बीतने पर एक समय आता है जब इस लोक का संवर्त [=सिकुड़न] होता है। जब इस लोक का संवर्त होता है तब अधिकतर सत्व आभास्वर [ब्रह्मलोक] की ओर बढ़ते हैं। वे वहाँ मनोमय [=मन से रची], प्रीतिभक्षी [=समाधि से उपजी प्रफुल्लता के आहार पर जीवन व्यापन करने वाले], स्वयंप्रभा [=भीतरी प्रकाश फैलाने वाले], अन्तरिक्षचर [=अन्तरिक्ष से यात्रा करने वाले], मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।
तब दीर्घकाल बीतने पर अंततः एक समय आता है जब इस लोक का विवर्त [=विस्तार] होता है। जब इस लोक का विवर्त होता है तब एक रिक्त ब्रह्मविमान प्रकट होता है। तब कोई सत्व, आयु समाप्त होने पर अथवा पुण्य समाप्त होने पर, ऊँचे आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर उस रिक्त ब्रह्मविमान में पुनरुत्पन्न होता है। और वहाँ वह मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहता है। वहाँ दीर्घकाल तक अकेले रहकर निराश और व्याकुल हो जाता है, “अरे! काश, यहाँ दूसरे सत्व आते!”
तब दूसरे सत्व, आयु समाप्त होने पर अथवा पुण्य समाप्त होने पर, ऊँचे आभास्वर ब्रह्मलोक से गिरकर उस ब्रह्मविमान में पुनरुत्पन्न होते हैं, उसी सत्व के साथ। और वहाँ वे मनोमय, प्रीतिभक्षी, स्वयंप्रभा, अन्तरिक्षचर, मोहक सौंदर्यता से युक्त होकर दीर्घकाल तक रहते हैं।
तब पहले सत्व को लगता है — “मैं ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, विजेता हूँ, अजेय हूँ, सर्वदृष्टा हूँ, वशवर्ती हूँ, ईश्वर हूँ, [असली] कर्ता हूँ, निर्माता हूँ, श्रेष्ठ हूँ, नियुक्तकर्ता हूँ, शासक हूँ, आ चुके या आने वाले सभी का पिता हूँ, मैंने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं। ऐसा कैसे? चूंकि मुझे पहले लगा, “अरे! काश, यहाँ दूसरे सत्व आते!” जो मैंने ऐसी इच्छा की, तो ये सत्व आ गए।”
जो सत्व पश्चात उत्पन्न होते हैं, उन्हे लगता है — “यह ब्रह्मा है, महाब्रह्मा है, विजेता है, अजेय है, सर्वदृष्टा है, वशवर्ती है, ईश्वर है, कर्ता है, निर्माता है, श्रेष्ठ है, नियुक्तकर्ता है, शासक है, आ चुके या आने वाले सभी का पिता है। इसने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं। ऐसा कैसे? इसे हमने पहले उत्पन्न देखा। जबकि हम पश्चात उत्पन्न हुए।” पहला सत्व दीर्घायु, अधिक सौंदर्यवान तथा बहुसक्षम होता है। जबकि पश्चात उत्पन्न हुए सत्व अल्पायु, अल्प-सौंदर्यवान तथा अल्प-सक्षम होते हैं।
अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो ब्रह्मा है, महाब्रह्मा है, विजेता है, अजेय है, सर्वदृष्टा है, वशवर्ती है, ईश्वर है, कर्ता है, निर्माता है, श्रेष्ठ है, नियुक्तकर्ता है, शासक है, आ चुके या आने वाले सभी का पिता है, जिसके द्वारा हम सभी निर्मित किये गए हैं — वह नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अपरिवर्तनशील है, और सदा बने रहेगा। जबकि ब्रह्मा द्वारा निर्मित, मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।”
यह पहला कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
(६) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण दूसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर आंशिक-शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, ‘खेल प्रदूषित’ नामक कुछ देव हैं। वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहते हैं, तो उससे उनकी स्मरणशीलता क्षीण हो जाती है। स्मरणशीलता के क्षीण होने पर वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं।
अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो माननीय देवतागण ‘खेल प्रदूषित’ नहीं हैं, वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में नहीं लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक हँसने-खेलने में नहीं लगे रहते हैं, तो उनकी स्मरणशीलता क्षीण नहीं होती है। स्मरणशीलता के क्षीण न होने पर वे देव-काया से च्युत नहीं होते हैं — वे नित्य हैं, ध्रुव हैं, शाश्वत हैं, अपरिवर्तनशील हैं, और सदा बने रहेंगे। जबकि हम ‘खेल प्रदूषित’ होकर अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहें। अधिक समय तक हँसने-खेलने में लगे रहने से हमारी स्मरणशीलता क्षीण हो गयी। स्मरणशीलता के क्षीण होने पर हम देव-काया से च्युत हो गए। और मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।”
यह दूसरा कारण हुआ, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
(७) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण तीसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर आंशिक-शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, ‘मन प्रदूषित’ नामक कुछ देव हैं। वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहते हैं, तो एक-दूसरे के लिए उनका चित्त प्रदूषित हो जाता हैं। एक-दूसरे के लिए प्रदूषित चित्त होने पर उनकी काया थकती है और चित्त थकता है। तब वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं।
अब ऐसा संभव है, भिक्षुओं, कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे मात्र पिछला जन्म स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व के नहीं। वह कहता है, “जो माननीय देवतागण ‘मन प्रदूषित’ नहीं हैं, वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में नहीं लगे रहते हैं। चूंकि वे अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे नहीं रहते हैं, तो एक-दूसरे के लिए उनका चित्त प्रदूषित नहीं होता हैं। एक-दूसरे के लिए चित्त प्रदूषित न होने से उनकी काया थकती नहीं हैं और चित्त थकता नहीं हैं। तब वे देव-काया से च्युत नहीं होते हैं — वे नित्य हैं, ध्रुव हैं, शाश्वत हैं, अपरिवर्तनशील हैं, और सदा बने रहेंगे। जबकि हम ‘मन प्रदूषित’ होकर अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहें। अधिक समय तक एक-दूसरे को निहारने में लगे रहने से एक-दूसरे के प्रति हमारा चित्त प्रदूषित हो गया। एक-दूसरे के प्रति प्रदूषित चित्त होने पर हमारी काया थक गयी और चित्त थक गया। तब हम देव-काया से च्युत हो गये। और मानवलोक में आए हम — अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं।”
यह तीसरा कारण हुआ, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
(८) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण चौथे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर आंशिक-शाश्वतवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक, वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर निष्कर्ष निकाल, वैचारिक उड़ान भरते हुए कहता है — “जिसे ‘आँखें’, ‘कान’, ‘नाक’, ‘जीभ’ और ‘काया’ कहते हैं — वे अनित्य हैं, अध्रुव हैं, अल्पायु हैं, पतन-स्वभाव के हैं। किन्तु जिसे ‘चित्त’, ‘मन’ या ‘विज्ञान’ कहते हैं — वे नित्य हैं, ध्रुव हैं, शाश्वत हैं, अपरिवर्तनशील हैं, और सदा बने रहेंगे।”
यह चौथा कारण हुआ, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं।
यही चार कारण हैं, भिक्षुओं, जिससे कई श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जो आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य मानते हो, सभी यही चार या उन्ही में से किसी एक के आधार पर मानते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर [मरणोपरांत] यह-यह गति होती है, [परलोक में] ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी या अनन्तवादी हैं, जो चार कारणों से लोक को सीमित अथवा अनन्त मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवाद या अनन्तवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(९) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिसमें वह लोक के प्रति ‘सीमित’ नज़रिया बनाए रहता है।
वह कहता है — “यह लोक सीमित है, परिमित है। ऐसा कैसे? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त की, जिस समाहित चित्त में लोक ‘सीमित’ दिखाई देता है। इसी से मैं समझता हूँ कि लोक सीमित है, परिमित है।”
यह पहला कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी या अनन्तवादी हैं, जो लोक को सीमित अथवा अनन्त मानते हैं।
(१०) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण दूसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर अन्तवाद या अनन्तवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिसमें वह लोक के प्रति ‘अनन्त’ नज़रिया बनाए रहता है।
वह कहता है — “यह लोक अनन्त है, अपरिमित है। जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक ‘सीमित’ है, ‘अपरिमित’ है”, वे झूठ बोलते हैं। यह लोक अनन्त है, अपरिमित है। ऐसा कैसे? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए, उद्यमता के जरिए, दृढ़-संकल्प के जरिए, सतर्कता के जरिए, सही तरह ध्यान केन्द्रित करने से ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त की, जिस समाहित चित्त में लोक ‘अनन्त’ दिखाई देता है। इसी से मैं समझता हूँ कि लोक अनन्त है, अपरिमित है।”
यह दूसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी या अनन्तवादी हैं, जो लोक को सीमित अथवा अनन्त मानते हैं।
(११) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण तीसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर अन्तवाद या अनन्तवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तत्परता के जरिए… ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करता है, जिसमें वह लोक के प्रति ऊपर और नीचे की दिशा में ‘सीमित’ नज़रिया, जबकि चारों दिशाओं में ‘अनन्त’ नज़रिया बनाए रहता है।
वह कहता है — “यह लोक सीमित और अनन्त [दोनों] है। जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक [केवल] ‘सीमित’ है, ‘परिमित’ है”, वे झूठ बोलते हैं। और जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक [केवल] ‘अनन्त’ है, ‘अपरिमित’ है”, वे भी झूठ बोलते हैं। [जबकि] यह लोक सीमित और अनन्त है। ऐसा कैसे? क्योंकि मैंने तत्परता के जरिए… ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त की, जिस समाहित चित्त में लोक ऊपर और नीचे की दिशा में ‘सीमित’, जबकि चारों दिशाओं में ‘अनन्त’ दिखाई देता है। इसी से मैं समझता हूँ कि लोक सीमित और अनन्त है।”
यह तीसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी और अनन्तवादी हैं, जो लोक को सीमित और अनन्त मानते हैं।
(१२) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण चौथे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर अन्तवाद या अनन्तवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक, वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर निष्कर्ष निकाल, वैचारिक उड़ान भरते हुए कहता है — “यह लोक न सीमित, न ही अनन्त है। जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक ‘सीमित’ है, ‘परिमित’ है”, वे झूठ बोलते हैं। और जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक ‘अनन्त’ है, ‘अपरिमित’ है”, वे भी झूठ बोलते हैं। और जो श्रमण या ब्राह्मण कहते हैं, “यह लोक ‘सीमित’ और ‘अनन्त’ [दोनों] है, वे भी झूठ बोलते हैं। [जबकि] यह लोक न सीमित, न ही अनन्त है।”
यह चौथा कारण हुआ, जिस प्रमाण के आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी और अनन्तवादी हैं, जो लोक को न सीमित, न ही अनन्त मानते हैं।
यही चार कारण हैं, भिक्षुओं, जिससे कई श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी और अनन्तवादी हैं, जो लोक को सीमित या अनन्त मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण लोक को सीमित या अनन्त मानते हो, सभी यही चार या उन्ही में से किसी एक के आधार पर मानते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर [मरणोपरांत] यह-यह गति होती है, [परलोक में] ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो चार कारणों से ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं। और क्या चार कारण से, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं?
(१३) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण यथाभूत नहीं जानते हैं कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ उन्हें लगता हैं — “मैं यथार्थ नहीं जानता हूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ अब यदि मैं, बिना यथार्थ जाने घोषित कर दूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल’, तो वह मेरी ओर से झूठ होगा। जो मेरी ओर से झूठ होगा, वह मुझे व्यथित करेगा। जो मुझे व्यथित करेगा, वह मेरे लिए विघ्नकारक होगा।”
अतः वह झूठ के भय से, झूठ के प्रति घृणा से घोषित नहीं करता है कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ तब वह ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसे छटपटाता है, “ऐसा मुझे नहीं लगता… मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ… मुझे अन्यथा नहीं लगता… ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता… ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता…”
यह पहला कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं।
(१४) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण दूसरे किस कारण से, किस आधार पर ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण यथाभूत नहीं जानते हैं कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ उन्हें लगता हैं — “मैं यथार्थ नहीं जानता हूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ अब यदि मैं, बिना यथार्थ जाने घोषित कर दूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल’, तो वह मेरी ओर से छन्द [=कामना], या राग [=रुचि, दिलचस्पी], या द्वेष, या पटिघ [=चिढ़] ही होगा। जो मेरी ओर से कामना, रुचि, द्वेष या चिढ़ होगी, वह मेरे लिए आसक्ति होगी। जो मेरी ओर से आसक्ति होगी, वह मुझे व्यथित करेगा। जो मुझे व्यथित करेगा, वह मेरे लिए विघ्नकारक होगा।”
अतः वह आसक्ति के भय से, आसक्ति के प्रति घृणा से घोषित नहीं करता है कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ तब वह ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसे छटपटाता है, “ऐसा मुझे नहीं लगता… मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ… मुझे अन्यथा नहीं लगता… ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता… ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता…”
यह दूसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं।
(१५) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण तीसरे किस कारण से, किस आधार पर ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण यथाभूत नहीं जानते हैं कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ उन्हें लगता हैं — “मैं यथार्थ नहीं जानता हूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ अब यदि मैं, बिना यथार्थ जाने घोषित कर दूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल’, तो जो श्रमण एवं ब्राह्मण पण्डित हैं, निपुण हैं, शास्त्रार्थ में माहिर हैं, बाल की खाल निकालने वाले हैं, और अन्तर्ज्ञान से दूसरे की धारणाओं की चीर-फाड़ करते घूमते हैं। अब यदि मैं, बिना यथार्थ जाने घोषित कर दूँ कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल’, तो वे मेरी धारणाओं की चीर-फाड़ कर सकते हैं, तर्क पूछ सकते हैं, खण्डन कर सकते हैं। यदि उन्होने मेरी धारणाओं की चीर-फाड़ की, तर्क पूछा, खण्डन किया, तो शायद मैं उनके आगे टिक नहीं पाऊँगा। उनके आगे टिक न पाया, तो मैं व्यथित हो जाऊँगा। मैं व्यथित हुआ, तो मेरे लिए विघ्नकारक होगा।”
अतः वह पूछ-ताछ के भय से, पूछ-ताछ होने के प्रति घृणा से घोषित नहीं करता है कि ‘यह कुशल है,’ अथवा ‘अकुशल।’ तब वह ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसे छटपटाता है, “ऐसा मुझे नहीं लगता… मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ… मुझे अन्यथा नहीं लगता… ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता… ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता…”
यह तीसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं।
(१६) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण चौथे किस कारण से, किस आधार पर ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं?
ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण मतिमन्द और महामूढ़ होता है। वह अपनी मतिमन्दता और महामूढ़ता के कारण ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसे छटपटाता है, “यदि तुम मुझसे पुछो कि ‘क्या [मरणोपरान्त] परलोक है?’ यदि मुझे लगे कि परलोक है, तो क्या मैं कहूँगा परलोक है? मुझे ऐसे नहीं लगता। मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ। मुझे अन्यथा नहीं लगता। ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता। ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता।
{उसी तरह, उससे निम्नलिखित १५ प्रश्न पुछे जाने पर भी, वह गोलमोल बातें करता है, बाम-मछली जैसे छटपटाता है:
क्या परलोक नहीं है? क्या परलोक है भी और नहीं भी? क्या परलोक नहीं है और नहीं भी नहीं है?
क्या ओपपातिक [=बिना गर्भ में पड़े, अनायास प्रकट होने वाले] सत्व होते हैं? क्या ओपपातिक सत्व नहीं होते हैं? क्या ओपपातिक सत्व होते है भी और नहीं भी? क्या ओपपातिक सत्व नहीं होते और नहीं भी नहीं होते?
क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम होता है? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम नहीं होता है? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम होता है भी और नहीं भी? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम नहीं होता और नहीं भी नहीं होता?
क्या मरणोपरान्त तथागत [अस्तित्व में] रहते है? क्या मरणोपरान्त तथागत नहीं रहते है? क्या मरणोपरान्त तथागत रहते है भी और नहीं भी? क्या मरणोपरान्त तथागत नहीं रहते और नहीं भी नहीं रहते?}
यह चौथा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं।
यही चार कारण हैं, भिक्षुओं, जिससे कई श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जो ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हों, बाम-मछली जैसे छटपटाते हों, सभी यही चार या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर [मरणोपरांत] यह-यह गति होती है, [परलोक में] ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जो दो कारणों से आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(१७) भिक्षुओं, ‘असंज्ञी’ [=अबोधगम्य] नामक कुछ देव हैं। किन्तु नज़रिया उत्पन्न होने पर वे देव-काया से च्युत हो जाते हैं। अब ऐसा संभव है कि कोई सत्व वहाँ से च्युत होकर यहाँ [मानवलोक में] उत्पन्न हो। यहाँ आकर वह घर से बेघर हो संन्यासी हो जाए, जो तत्परता के जरिए… ऐसी चेतोसमाधि प्राप्त करे, जिस समाहित चित्त में उसे नज़रिये का उत्पन्न होना स्मरण हो, किन्तु उसके पूर्व का कुछ नहीं। वह कहता है, “आत्मा और लोक की अनायास ही उत्पत्ति हुई है। ऐसा क्यों? पहले मैं नहीं था; अब हूँ। न होकर भी मैं उत्पन्न हो गया।”
यह पहला कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जो आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति मानते हैं।
(१८) और, ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण दूसरे किस कारण से, किस प्रमाण के आधार पर अनायास-उत्पत्तिवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण तार्किक, वैचारिक होता है। वह अपनी तर्कबुद्धि से ठोक-पीटकर, जाँच-पड़ताल कर निष्कर्ष निकाल, वैचारिक उड़ान भरते हुए कहता है — “आत्मा और लोक की अनायास ही उत्पत्ति हुई है।”
यह दूसरा कारण हुआ, भिक्षुओं, जिस आधार पर कई श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जो आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति मानते हैं।
यही दो कारण हैं, भिक्षुओं, जिससे कई श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जो आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति मानते हों, सभी यही दो या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर [मरणोपरांत] यह-यह गति होती है, [परलोक में] ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
और भिक्षुओं, यही श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, जो अतीत को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जो अतीत को लेकर १८ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करते हो, अतीत को लेकर दृष्टि धारण करते हो, अतीत को लेकर विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो, सभी यही १८ या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, जो भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जो भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जो भविष्य को लेकर ४४ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हैं। और क्या कारण से, किस प्रमाण के बल पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण अपनी दृष्टि की घोषणा करते हैं?
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं जो मरणोपरान्त बोधगम्यवादी हैं, जो १६ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त बोधगम्य [होशपूर्ण] मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त बोधगम्यवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
वे घोषणा करते हैं कि मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, बोधगम्य होती है, तथा:
(१९) रूपयुक्त होती है,
(२०) अरूप होती है,
(२१) रूपयुक्त और अरूप [दोनों] होती है,
(२२) न रूपयुक्त, न ही अरूप होती है,
(२३) सीमित होती है,
(२४) अनन्त होती है,
(२५) सीमित और अनन्त [दोनों] होती है,
(२६) न सीमित, न ही अनन्त होती है,
(२७) एक-जैसे बोधगम्य होती है,
(२८) विविध तरह से बोधगम्य होती है,
(२९) परिमित बोधगम्य होती है,
(३०) अपरिमित बोधगम्य होती है,
(३१) मात्र सुखी होती है,
(३२) मात्र दुःखी होती है,
(३३) सुखी और दुःखी [दोनों] होती है,
(३४) न सुखी, न ही दुःखी होती है।
यही श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, भिक्षुओं, जो मरणोपरान्त बोधगम्यवादी हैं, जो १६ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त बोधगम्य मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा के मरणोपरान्त बोधगम्यवाद की घोषणा करते हों, सभी इन्हीं १६ आधारों या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं जो मरणोपरान्त अबोधगम्यवादी हैं, जो ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त अबोधगम्य [बेहोश] मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त अबोधगम्यवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
वे घोषणा करते हैं कि मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, अबोधगम्य होती है, तथा:
(३५) रूपयुक्त होती है,
(३६) अरूप होती है,
(३७) रूपयुक्त और अरूप [दोनों] होती है,
(३८) न रूपयुक्त, न ही अरूप होती है,
(३९) सीमित होती है,
(४०) अनन्त होती है,
(४१) सीमित और अनन्त [दोनों] होती है,
(४२) न सीमित, न ही अनन्त होती है।
यही श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, भिक्षुओं, जो मरणोपरान्त अबोधगम्यवादी हैं, जो ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त अबोधगम्य मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा के मरणोपरान्त अबोधगम्यवाद की घोषणा करते हों, सभी इन्हीं ८ आधारों या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं जो मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवादी हैं, जो ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त न बोधगम्य [होशपूर्ण], न ही अबोधगम्य [बेहोश] मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
वे घोषणा करते हैं कि मरणोपरान्त आत्मा निरोगी होती है, न बोधगम्य, न ही अबोधगम्य होती है, तथा:
(४३) रूपयुक्त होती है,
(४४) अरूप होती है,
(४५) रूपयुक्त और अरूप [दोनों] होती है,
(४६) न रूपयुक्त, न ही अरूप होती है,
(४७) सीमित होती है,
(४८) अनन्त होती है,
(४९) सीमित और अनन्त [दोनों] होती है,
(५०) न सीमित, न ही अनन्त होती है।
यही श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, भिक्षुओं, जो मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवादी हैं, जो ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्य मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण आत्मा के मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवाद की घोषणा करते हों, सभी इन्हीं ८ आधारों या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं जो उच्छेदवादी हैं, जो ७ आधारों पर मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण उच्छेदवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(५१) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानता है, दृष्टि धारण करता है कि — “जो आत्मा रूपयुक्त, चार महाभूतों से बनी, माता-पिता संयोग से उत्पन्न होती है, वह मरणोपरान्त काया छूटने पर खत्म हो जाती है, विनष्ट हो जाती है, लुप्त हो जाती है। आत्मा का इस स्तर पर [जड़ से] पूर्णतया निर्मूलन हो जाता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना घोषित करता है।
(५२) दूसरा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का [केवल] उसी स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक अन्य आत्मा भी होती है — जो दिव्य, रूपयुक्त, काम-सुख भोगने वाली, भौतिक आहार पर व्यापन करने वाली होती है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
(५३) तीसरा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का उस स्तर पर भी पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक और अन्य आत्मा भी होती है — जो दिव्य, रूपयुक्त, मन से रची, [तमाम] अंग-प्रत्यंग से परिपूर्ण, हीन इंद्रियों वाली नहीं होती है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
(५४) चौथा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का उस स्तर पर भी पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक और अन्य आत्मा भी होती है — जो रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
(५५) पांचवा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का उस स्तर पर भी पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक और अन्य आत्मा भी होती है — जो अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
(५६) छटा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का उस स्तर पर भी पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक और अन्य आत्मा भी होती है — जो अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
(५७) सातवा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा का उस स्तर पर भी पूर्णतया निर्मूलन नहीं होता है। एक और अन्य आत्मा भी होती है — जो सूना-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘न-नजरिया-न-अनजरिया-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। उसे तुम नहीं जानते हो, न ही देखते हो। किन्तु उसे मैं जानता हूँ, मैं देखता हूँ। जब उस आत्मा का मरणोपरान्त काया छूटने पर खात्मा हो जाता है, विनाश हो जाता है, लोप हो जाता है, तब आत्मा का उस स्तर पर पूर्णतया निर्मूलन होता है।”
यही श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, भिक्षुओं, जो उच्छेदवादी हैं, जो ७ आधारों पर मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण उच्छेदवाद की घोषणा करते हों, सभी इन्हीं ७ आधारों या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, कई श्रमण एवं ब्राह्मण हैं जो इसी [वर्तमान] जीवन में निर्वाणवादी हैं, जो ५ आधारों पर मौजूदा सत्व का इसी जीवन में निर्वाण होना मानते हैं। और क्या कारण से, क्या प्रमाण के आधार पर ये माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण इसी जीवन में निर्वाणवाद दृष्टि की घोषणा करते हैं?
(५८) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण ऐसा मानता है, दृष्टि धारण करता है कि — “जो आत्मा पाँच कामभोग से संपन्न, समग्र आपूर्ति होकर उसमें लिप्त रहता हो, तब उस तरह से आत्मा को इसी जीवन में परम निर्वाण प्राप्त होता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानता है।
(५९) दूसरा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा को [केवल] उसी स्तर पर इस जीवन में परम निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि कामुकता अनित्य है, कष्टपूर्ण है, परिवर्तन-स्वभाव की है। परिवर्तन-स्वभाव और बदलाव की स्थिति में शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा उपजती है। किन्तु जब आत्मा — कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है, तब उस तरह से आत्मा को इसी जीवन में परम निर्वाण प्राप्त होता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानता है।
(६०) तीसरा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा को [केवल] उसी स्तर पर इस जीवन में परम निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वहाँ जो सोच एवं विचार की स्थिति है, उसे स्थूल घोषित किया गया है। किन्तु जब आत्मा — सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है, तब उस तरह से आत्मा को इसी जीवन में परम निर्वाण प्राप्त होता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानता है।
(६१) चौथा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा को [केवल] उसी स्तर पर इस जीवन में परम निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वहाँ प्रफुल्लता में लिप्त होने पर जो मानसिक रोमांच की स्थिति है, उसे स्थूल घोषित किया गया है। किन्तु जब आत्मा — प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करती है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है, तब उस तरह से आत्मा को इसी जीवन में परम निर्वाण प्राप्त होता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानता है।
(६२) पाँचवा उसे कहता है कि — “जैसा तुम बताते हो, प्रिय मित्र, आत्मा वैसी है। मैं नहीं कहता हूँ कि वैसी नहीं है। किन्तु आत्मा को [केवल] उसी स्तर पर इस जीवन में परम निर्वाण प्राप्त नहीं होता है। ऐसा क्यों? क्योंकि वहाँ सुख के प्रति मानसिक झुकाव होता है, उसे स्थूल घोषित किया गया है। किन्तु जब आत्मा — सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है, तब उस तरह से आत्मा को इसी जीवन में परम निर्वाण प्राप्त होता है।” इस तरह कोई श्रमण या ब्राह्मण मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानता है।
यही श्रमण एवं ब्राह्मण हैं, भिक्षुओं, जो इसी जीवन में निर्वाणवादी हैं, जो ५ आधारों पर मौजूदा सत्व का इसी जीवन में परम निर्वाण होना मानते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण इसी जीवन में निर्वाणवाद की घोषणा करते हों, सभी इन्हीं ५ आधारों या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
और भिक्षुओं, यही श्रमण एवं ब्राह्मण भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जो भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जो भविष्य को लेकर ४४ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण भविष्य की कल्पना करते हो, भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हो, भविष्य को लेकर विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो, सभी यही ४४ या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
और भिक्षुओं, यही श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, तथा अतीत और भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जो अतीत और भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जो अतीत और भविष्य को लेकर ६२ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हैं। जितने भी श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, तथा अतीत और भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जो अतीत और भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, अतीत और भविष्य को लेकर विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो, सभी यही ६२ या उन्ही में से किसी एक के आधार पर करते हैं। उनके अलावा और कोई आधार नहीं है।
भिक्षुओं, तथागत यह सब जानते हैं, और समझते हैं कि ‘ये दृष्टिकोण इस तरह ग्रहण करने पर, इस तरह धारण करने पर यह-यह गति होती है, ऐसी-ऐसी अवस्था प्राप्त होती है।’ और तथागत उससे परे भी जानते हैं, किन्तु उसे भी धारण नहीं करते हैं। और उसके परे का भी धारण न करने से भीतर निर्वृत्ति अनुभव करते हैं। संवेदनाओं की जैसे उत्पत्ति, व्यय, प्रलोभन, ख़ामी और निकलने का मार्ग होता हैं, तथागत वैसे यथाभूत जानते हैं, और अनासक्त होकर विमुक्ति अनुभव करते हैं।
भिक्षुओं, ये दूसरे धर्म हैं, जो गहरे हैं, जो सरलता से नज़र नहीं आते, जो सरलता से बोध नहीं होते, जो शान्त हैं, उत्कृष्ठ हैं, तर्कबुद्धि से परे, सूक्ष्म, ज्ञानी के समझने योग्य, जिन्हें तथागत स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर बतलाते है, और जिस बात से कोई तथागत की यथार्थ प्रशंसा करे, तो उचित होगा।
भिक्षुओं, जो श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जब वे चार आधारों पर आत्मा और लोक को नित्य कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जब वे चार कारणों से आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी या अनन्तवादी हैं, जब वे चार कारणों से लोक को सीमित अथवा अनन्त कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जब वे चार कारणों से ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जब वे दो कारणों से आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, जब वे अतीत को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे अतीत को लेकर १८ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त बोधगम्यवादी हैं, जब वे १६ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त बोधगम्य [होशपूर्ण] कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त अबोधगम्यवादी हैं, जब वे ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त अबोधगम्य [बेहोश] कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवादी हैं, जब वे ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त न बोधगम्य [होशपूर्ण], न ही अबोधगम्य [बेहोश] कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण उच्छेदवादी हैं, जब वे ७ आधारों पर मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण इसी [वर्तमान] जीवन में निर्वाणवादी हैं, जब वे ५ आधारों पर मौजूदा सत्व का इसी जीवन में निर्वाण होना कहते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जब वे भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे भविष्य को लेकर ४४ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, तथा अतीत और भविष्य [दोनों] की कल्पना करने वाले हैं, जब वे अतीत और भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे अतीत और भविष्य को लेकर ६२ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो — वह न जानने, न देखने वाले की अनुभूति मात्र हैं; तृष्णा में डूबे हुए की व्याकुलता और चंचलता मात्र है।
भिक्षुओं, जो श्रमण एवं ब्राह्मण शाश्वतवादी हैं, जब वे चार आधारों पर आत्मा और लोक को नित्य कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण आंशिक-शाश्वतवादी हैं, जब वे चार कारणों से आत्मा और लोक को अंशतः नित्य और अंशतः अनित्य कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अन्तवादी या अनन्तवादी हैं, जब वे चार कारणों से लोक को सीमित अथवा अनन्त कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण टालमटोलवादी हैं, जब वे चार कारणों से ऐसे-वैसे मुद्दे पर प्रश्न पुछे जाने पर गोलमोल बातें करते हैं, बाम-मछली जैसे छटपटाते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अनायास-उत्पत्तिवादी हैं, जब वे दो कारणों से आत्मा और लोक की अनायास-उत्पत्ति कहते हो— वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, जब वे अतीत को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे अतीत को लेकर १८ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त बोधगम्यवादी हैं, जब वे १६ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त बोधगम्य [होशपूर्ण] कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त अबोधगम्यवादी हैं, जब वे ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त अबोधगम्य [बेहोश] कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण मरणोपरान्त न बोधगम्य, न ही अबोधगम्यवादी हैं, जब वे ८ आधारों पर आत्मा को मरणोपरान्त न बोधगम्य [होशपूर्ण], न ही अबोधगम्य [बेहोश] कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण उच्छेदवादी हैं, जब वे ७ आधारों पर मौजूदा सत्व का [मरणोपरान्त] खात्मा, विनाश और लोप होना कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण इसी [वर्तमान] जीवन में निर्वाणवादी हैं, जब वे ५ आधारों पर मौजूदा सत्व का इसी जीवन में निर्वाण होना कहते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, जब वे भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे भविष्य को लेकर ४४ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
जो श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, तथा अतीत और भविष्य [दोनों] की कल्पना करने वाले हैं, जब वे अतीत और भविष्य को लेकर दृष्टि धारण करते हैं, जब वे अतीत और भविष्य को लेकर ६२ कारणों से विभिन्न काल्पनिक सिद्धांतों का दावा करते हो — वह संस्पर्श की स्थिति से आता है। उन्हें बिना संस्पर्श हुए वैसी अनुभूति हो, ऐसा असंभव है।
वे सभी छह इंद्रियों [आयाम] पर सतत संस्पर्श से अनुभूति करते हैं। उनके लिए संवेदना [अनुभूति] की स्थिति से तृष्णा उपजती है। तृष्णा की स्थिति से आसक्ति उपजती है। आसक्ति की स्थिति से अस्तित्व उपजता है। अस्तित्व की स्थिति से जन्म होता है। जन्म की स्थिति से बुढ़ापा, मृत्यु, शोक, विलाप, दर्द, व्यथा और निराशा होने लगती हैं। इसी तरह दुःख के सम्पूर्ण ढ़ेर की उत्पत्ति होती है।
किन्तु जब कोई भिक्षु छह इंद्रियों [आयाम] की उत्पत्ति, समाप्ति, प्रलोभन, ख़ामी और बच निकलने का मार्ग जान लेता है, तो वह इनसे ऊपर की बात भी जान लेता है।
जो भी श्रमण एवं ब्राह्मण अतीत की कल्पना करने वाले हैं, भविष्य की कल्पना करने वाले हैं, तथा अतीत और भविष्य [दोनों] की कल्पना करने वाले हैं, जो अतीत और भविष्य को लेकर विभिन्न दृष्टियाँ धारण करते हैं, वे सभी इसी ६२ बातों के जाल में फँस जाते हैं। जब भी वे [सतह पर] उबरते हैं, इसी जाल में फँसे हुए उबरते हैं, इसी जाल में पकड़ कर बंधे गए उबरते हैं।
जैसे कोई निपुण मछुआरा या उसका शिष्य हो, जो जलाशय में महीन-छेदवाला जाल फैलाते हुए सोचे, “इस जलाशय में जो भी छोटी-बड़ी मछली हो, इसी जाल में फँस जाएँ, इसी जाल में पकड़ कर बंध जाएँ।” उसी तरह वे सभी श्रमण एवं ब्राह्मण इसी ६२ बातों के जाल में फँसे हुए हैं। जब भी वे [सतह पर] उबरते हैं, इसी जाल में फँसे हुए उबरते हैं, इसी जाल में पकड़ कर बंधे गए उबरते हैं।
तथागत की काया, भिक्षुओं, भव से बंधी हुई नाल [=तृष्णा] काटकर खड़ी रहती है। जब तक उनकी काया रहती है, तब तक ही उन्हें मनुष्य और देवतागण देख सकते हैं। किन्तु काया छूटने पर, जीवन समाप्त होने पर फिर उन्हें मनुष्य और देवतागण नहीं देख पाएँगे। जैसे किसी आम के गुच्छे की डंठल टूटने पर उससे जुड़े हुए सभी आम नीचे गिरते हैं। उसी तरह तथागत की काया भव से जुड़ी नाल काटकर खड़ी रहती है। जब तक उनकी काया रहती है, तब तक ही उन्हें मनुष्य और देवतागण देख सकते हैं। किन्तु काया छूटने पर, जीवन समाप्त होने पर फिर उन्हें मनुष्य और देवतागण नहीं देख पाएँगे।”
जब ऐसा कहा गया, तब भंते आनन्द ने भगवान से कहा, “आश्चर्य है, भंते! अद्भुत है। इस धर्मोपदेश का नाम क्या है?”
“आनन्द, तुम इस धर्मोपदेश को ‘अर्थजाल’ कह सकते हो, ‘धर्मजाल’ कह सकते हो, ‘ब्रह्मजाल’ कह सकते हो, ‘दृष्टिजाल’ कह सकते हो, ‘सर्वोपरि संग्राम-विजय’ भी कह सकते हो।”
भगवान ने ऐसा कहा। संतुष्ट हुए भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अनुमोदन किया। और इस तरह [धर्म] विस्तारपूर्वक कहने पर दस हज़ार ब्रह्मांड कंपित हुए।
परिब्बाजककथा
१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि। सुप्पियोपि खो परिब्बाजको अन्तरा च राजगहं अन्तरा च नाळन्दं अद्धानमग्गप्पटिपन्नो होति सद्धिं अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन। तत्र सुदं सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति। इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धा [अनुबद्धा (क॰ सी॰ पी॰)] होन्ति भिक्खुसङ्घञ्च।
२. अथ खो भगवा अम्बलट्ठिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि [उपगञ्छि (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] सद्धिं भिक्खुसङ्घेन। सुप्पियोपि खो परिब्बाजको अम्बलट्ठिकायं राजागारके एकरत्तिवासं उपगच्छि [उपगञ्छि (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] अन्तेवासिना ब्रह्मदत्तेन माणवेन। तत्रपि सुदं सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति। इतिह ते उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा विहरन्ति।
३. अथ खो सम्बहुलानं भिक्खूनं रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठितानं मण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयं सङ्खियधम्मो उदपादि – ‘‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्तानं नानाधिमुत्तिकता सुप्पटिविदिता। अयञ्हि सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति। इतिहमे उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चा’’ति।
४. अथ खो भगवा तेसं भिक्खूनं इमं सङ्खियधम्मं विदित्वा येन मण्डलमाळो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। निसज्ज खो भगवा भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘कायनुत्थ, भिक्खवे, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना सन्निपतिता, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति? एवं वुत्ते ते भिक्खू भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘इध, भन्ते, अम्हाकं रत्तिया पच्चूससमयं पच्चुट्ठितानं मण्डलमाळे सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अयं सङ्खियधम्मो उदपादि – ‘अच्छरियं, आवुसो, अब्भुतं, आवुसो, यावञ्चिदं तेन भगवता जानता पस्सता अरहता सम्मासम्बुद्धेन सत्तानं नानाधिमुत्तिकता सुप्पटिविदिता। अयञ्हि सुप्पियो परिब्बाजको अनेकपरियायेन बुद्धस्स अवण्णं भासति, धम्मस्स अवण्णं भासति, सङ्घस्स अवण्णं भासति; सुप्पियस्स पन परिब्बाजकस्स अन्तेवासी ब्रह्मदत्तो माणवो अनेकपरियायेन बुद्धस्स वण्णं भासति, धम्मस्स वण्णं भासति, सङ्घस्स वण्णं भासति। इतिहमे उभो आचरियन्तेवासी अञ्ञमञ्ञस्स उजुविपच्चनीकवादा भगवन्तं पिट्ठितो पिट्ठितो अनुबन्धा होन्ति भिक्खुसङ्घञ्चा’ति। अयं खो नो, भन्ते, अन्तराकथा विप्पकता, अथ भगवा अनुप्पत्तो’’ति।
५. ‘‘ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि न आघातो न अप्पच्चयो न चेतसो अनभिरद्धि करणीया। ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो। ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ कुपिता वा अनत्तमना वा, अपि नु तुम्हे परेसं सुभासितं दुब्भासितं आजानेय्याथा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते’’। ‘‘ममं वा, भिक्खवे, परे अवण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा अवण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा अवण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि अभूतं अभूततो निब्बेठेतब्बं – ‘इतिपेतं अभूतं, इतिपेतं अतच्छं, नत्थि चेतं अम्हेसु, न च पनेतं अम्हेसु संविज्जती’ति।
६. ‘‘ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि न आनन्दो न सोमनस्सं न चेतसो उप्पिलावितत्तं करणीयं। ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्युं, तत्र चे तुम्हे अस्सथ आनन्दिनो सुमना उप्पिलाविता तुम्हं येवस्स तेन अन्तरायो। ममं वा, भिक्खवे, परे वण्णं भासेय्युं, धम्मस्स वा वण्णं भासेय्युं, सङ्घस्स वा वण्णं भासेय्युं, तत्र तुम्हेहि भूतं भूततो पटिजानितब्बं – ‘इतिपेतं भूतं, इतिपेतं तच्छं, अत्थि चेतं अम्हेसु, संविज्जति च पनेतं अम्हेसू’ति।
चूळसीलं
७. ‘‘अप्पमत्तकं खो पनेतं, भिक्खवे, ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य। कतमञ्च तं, भिक्खवे, अप्पमत्तकं ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य?
८. ‘‘‘पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो समणो गोतमो निहितदण्डो, निहितसत्थो, लज्जी, दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरती’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘‘अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो समणो गोतमो दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी, अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरती’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘‘अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी समणो गोतमो आराचारी [अनाचारी (क॰)] विरतो [पटिविरतो (कत्थचि)] मेथुना गामधम्मा’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
९. ‘‘‘मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो समणो गोतमो सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो [ठेतो (स्या॰ कं॰)] पच्चयिको अविसंवादको लोकस्सा’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘‘पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो समणो गोतमो, इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय, अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता अमूसं भेदाय। इति भिन्नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘‘फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो समणो गोतमो, या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो समणो गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहित’न्ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१०. ‘बीजगामभूतगामसमारम्भा [समारब्भा (सी॰ क॰)] पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे…पे॰…।
‘‘‘एकभत्तिको समणो गोतमो रत्तूपरतो विरतो [पटिविरतो (कत्थचि)] विकालभोजना…।
नच्चगीतवादितविसूकदस्सना [नच्चगीतवादितविसुकदस्सना (क॰)] पटिविरतो समणो गोतमो…।
मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो समणो गोतमो…।
उच्चासयनमहासयना पटिविरतो समणो गोतमो…।
जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
आमकधञ्ञपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
हत्थिगवस्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो समणो गोतमो…।
दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो…।
कयविक्कया पटिविरतो समणो गोतमो…।
तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो समणो गोतमो…।
उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा [सावियोगा (स्या॰ कं॰ क॰)] पटिविरतो समणो गोतमो…।
छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
चूळसीलं निट्ठितं।
मज्झिमसीलं
११. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं बीजगामभूतगामसमारम्भं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं [सेय्यथीदं (सी॰ स्या॰)] – मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं [पञ्चमं इति वा (सी॰ स्या॰ क॰)]; इति एवरूपा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१२. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं सन्निधिकारपरिभोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं वत्थसन्निधिं यानसन्निधिं सयनसन्निधिं गन्धसन्निधिं आमिससन्निधिं इति वा इति एवरूपा सन्निधिकारपरिभोगा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१३. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं विसूकदस्सनं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – नच्चं गीतं वादितं पेक्खं अक्खानं पाणिस्सरं वेताळं कुम्भथूणं [कुम्भथूनं (स्या॰ क॰), कुम्भथूणं (सी॰)] सोभनकं [सोभनघरकं (सी॰), सोभनगरकं (स्या॰ कं॰ पी॰)] चण्डालं वंसं धोवनं हत्थियुद्धं अस्सयुद्धं महिंसयुद्धं [महिसयुद्धं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] उसभयुद्धं अजयुद्धं मेण्डयुद्धं कुक्कुटयुद्धं वट्टकयुद्धं दण्डयुद्धं मुट्ठियुद्धं निब्बुद्धं उय्योधिकं बलग्गं सेनाब्यूहं अनीकदस्सनं इति वा इति एवरूपा विसूकदस्सना पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१४. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठपदं दसपदं आकासं परिहारपथं सन्तिकं खलिकं घटिकं सलाकहत्थं अक्खं पङ्गचीरं वङ्ककं मोक्खचिकं चिङ्गुलिकं [चिङ्गुलकं (क॰ सी॰)] पत्ताळ्हकं रथकं धनुकं अक्खरिकं मनेसिकं यथावज्जं इति वा इति एवरूपा जूतप्पमादट्ठानानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१५. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं उच्चासयनमहासयनं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – आसन्दिं पल्लङ्कं गोनकं चित्तकं पटिकं पटलिकं तूलिकं विकतिकं उद्दलोमिं एकन्तलोमिं कट्टिस्सं कोसेय्यं कुत्तकं हत्थत्थरं अस्सत्थरं रथत्थरं [हत्थत्थरणं अस्सत्थरणं रथत्थरणं (सी॰ क॰ पी॰)] अजिनप्पवेणिं कदलिमिगपवरपच्चत्थरणं सउत्तरच्छदं उभतोलोहितकूपधानं इति वा इति एवरूपा उच्चासयनमहासयना पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१६. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – उच्छादनं परिमद्दनं न्हापनं सम्बाहनं आदासं अञ्जनं मालागन्धविलेपनं [मालाविलेपनं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] मुखचुण्णं मुखलेपनं हत्थबन्धं सिखाबन्धं दण्डं नाळिकं असिं [खग्गं (सी॰ पी॰), असिं खग्गं (स्या॰ कं॰)] छत्तं चित्रुपाहनं उण्हीसं मणिं वालबीजनिं ओदातानि वत्थानि दीघदसानि इति वा इति एवरूपा मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१७. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं [इत्थिकथं पुरिसकथं (स्या॰ कं॰ क॰)] सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानकथाय पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१८. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं विग्गाहिककथं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, मिच्छा पटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मा पटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते, पुरेवचनीयं पच्छा अवच, पच्छावचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसीति इति वा इति एवरूपाय विग्गाहिककथाय पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
१९. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं दूतेय्यपहिणगमनानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति, सेय्यथिदं – रञ्ञं, राजमहामत्तानं, खत्तियानं, ब्राह्मणानं, गहपतिकानं, कुमारानं ‘‘इध गच्छ, अमुत्रागच्छ, इदं हर, अमुत्र इदं आहरा’’ति इति वा इति एवरूपा दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२०. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते कुहका च होन्ति, लपका च नेमित्तिका च निप्पेसिका च, लाभेन लाभं निजिगींसितारो च [लाभेन लाभं निजिगिं भितारो (सी॰ स्या॰), लाभेन च लाभं निजिगीसितारो (पी॰)] इति [इति वा, इति (स्या॰ कं॰ क॰)] एवरूपा कुहनलपना पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
मज्झिमसीलं निट्ठितं।
महासीलं
२१. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – अङ्गं निमित्तं उप्पातं सुपिनं लक्खणं मूसिकच्छिन्नं अग्गिहोमं दब्बिहोमं थुसहोमं कणहोमं तण्डुलहोमं सप्पिहोमं तेलहोमं मुखहोमं लोहितहोमं अङ्गविज्जा वत्थुविज्जा खत्तविज्जा [खेत्तविज्जा (बहूसु)] सिवविज्जा भूतविज्जा भूरिविज्जा अहिविज्जा विसविज्जा विच्छिकविज्जा मूसिकविज्जा सकुणविज्जा वायसविज्जा पक्कज्झानं सरपरित्ताणं मिगचक्कं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२२. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – मणिलक्खणं वत्थलक्खणं दण्डलक्खणं सत्थलक्खणं असिलक्खणं उसुलक्खणं धनुलक्खणं आवुधलक्खणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं कुमारलक्खणं कुमारिलक्खणं दासलक्खणं दासिलक्खणं हत्थिलक्खणं अस्सलक्खणं महिंसलक्खणं [महिसलक्खणं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] उसभलक्खणं गोलक्खणं अजलक्खणं मेण्डलक्खणं कुक्कुटलक्खणं वट्टकलक्खणं गोधालक्खणं कण्णिकालक्खणं कच्छपलक्खणं मिगलक्खणं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२३. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – रञ्ञं निय्यानं भविस्सति, रञ्ञं अनिय्यानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं उपयानं भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं अपयानं भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं उपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं अपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं जयो भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं पराजयो भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं जयो भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं पराजयो भविस्सति, इति इमस्स जयो भविस्सति, इमस्स पराजयो भविस्सति इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२४. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – चन्दग्गाहो भविस्सति, सूरियग्गाहो [सुरियग्गाहो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] भविस्सति, नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, उक्कापातो भविस्सति, दिसाडाहो भविस्सति, भूमिचालो भविस्सति, देवदुद्रभि [देवदुन्दुभि (स्या॰ कं॰ पी॰)] भविस्सति, चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति, एवंविपाको चन्दग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको सूरियग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाको उक्कापातो भविस्सति, एवंविपाको दिसाडाहो भविस्सति, एवंविपाको भूमिचालो भविस्सति, एवंविपाको देवदुद्रभि भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२५. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – सुवुट्ठिका भविस्सति, दुब्बुट्ठिका भविस्सति, सुभिक्खं भविस्सति, दुब्भिक्खं भविस्सति, खेमं भविस्सति, भयं भविस्सति, रोगो भविस्सति, आरोग्यं भविस्सति, मुद्दा, गणना, सङ्खानं, कावेय्यं, लोकायतं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२६. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – आवाहनं विवाहनं संवरणं विवरणं संकिरणं विकिरणं सुभगकरणं दुब्भगकरणं विरुद्धगब्भकरणं जिव्हानिबन्धनं हनुसंहननं हत्थाभिजप्पनं हनुजप्पनं कण्णजप्पनं आदासपञ्हं कुमारिकपञ्हं देवपञ्हं आदिच्चुपट्ठानं महतुपट्ठानं अब्भुज्जलनं सिरिव्हायनं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
२७. ‘‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति, सेय्यथिदं – सन्तिकम्मं पणिधिकम्मं भूतकम्मं भूरिकम्मं वस्सकम्मं वोस्सकम्मं वत्थुकम्मं वत्थुपरिकम्मं आचमनं न्हापनं जुहनं वमनं विरेचनं उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं कण्णतेलं नेत्ततप्पनं नत्थुकम्मं अञ्जनं पच्चञ्जनं सालाकियं सल्लकत्तियं दारकतिकिच्छा मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो समणो गोतमो’ति – इति वा हि, भिक्खवे, पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
‘‘इदं खो, भिक्खवे, अप्पमत्तकं ओरमत्तकं सीलमत्तकं, येन पुथुज्जनो तथागतस्स वण्णं वदमानो वदेय्य।
महासीलं निट्ठितं।
पुब्बन्तकप्पिका
२८. ‘‘अत्थि, भिक्खवे, अञ्ञेव धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं। कतमे च ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं?
२९. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो, पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि [अधिवुत्तिपदानि (सी॰ पी॰)] अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि?
सस्सतवादो
३०. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा, सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि?
३१. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते ( ) [(परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपत्तिलेसे) (स्या॰ क॰)] अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानि – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकानिपि जातिसतानि अनेकानिपि जातिसहस्सानि अनेकानिपि जातिसतसहस्सानि – अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। इमिनामहं एतं जानामि ‘‘यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’’न्ति। इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
३२. ‘‘दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं – एकम्पि संवट्टविवट्टं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तीणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। सेय्यथिदं – एकम्पि संवट्टविवट्टं द्वेपि संवट्टविवट्टानि तीणिपि संवट्टविवट्टानि चत्तारिपि संवट्टविवट्टानि पञ्चपि संवट्टविवट्टानि दसपि संवट्टविवट्टानि। अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। इमिनामहं एतं जानामि ‘‘यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो, ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’’न्ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
३३. ‘‘ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। सेय्यथिदं – दसपि संवट्टविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्पि संवट्टविवट्टानि – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसमं। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। सेय्यथिदं – दसपि संवट्टविवट्टानि वीसम्पि संवट्टविवट्टानि तिंसम्पि संवट्टविवट्टानि चत्तालीसम्पि संवट्टविवट्टानि – ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नोति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरामि। इमिनामहं एतं जानामि ‘‘यथा सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो, ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’’न्ति। इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
३४. ‘‘चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी, सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयं पटिभानं एवमाह – ‘सस्सतो अत्ता च लोको च वञ्झो कूटट्ठो एसिकट्ठायिट्ठितो; ते च सत्ता सन्धावन्ति संसरन्ति चवन्ति उपपज्जन्ति, अत्थित्वेव सस्सतिसम’न्ति। इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
३५. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा।
३६. ‘‘तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति – ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया’ति, तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति; तञ्च पजाननं [पजानं (?) दी॰ नि॰ ३.३६ पाळिअट्ठकथा पस्सितब्बं] न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
३७. ‘‘इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
पठमभाणवारो।
एकच्चसस्सतवादो
३८. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि?
३९. ‘‘होति खो सो, भिक्खवे, समयो, यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको संवट्टति। संवट्टमाने लोके येभुय्येन सत्ता आभस्सरसंवत्तनिका होन्ति। ते तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।
४०. ‘‘होति खो सो, भिक्खवे, समयो, यं कदाचि करहचि दीघस्स अद्धुनो अच्चयेन अयं लोको विवट्टति। विवट्टमाने लोके सुञ्ञं ब्रह्मविमानं पातुभवति। अथ खो अञ्ञतरो सत्तो आयुक्खया वा पुञ्ञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा सुञ्ञं ब्रह्मविमानं उपपज्जति। सो तत्थ होति मनोमयो पीतिभक्खो सयंपभो अन्तलिक्खचरो सुभट्ठायी, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठति।
४१. ‘‘तस्स तत्थ एककस्स दीघरत्तं निवुसितत्ता अनभिरति परितस्सना उपपज्जति – ‘अहो वत अञ्ञेपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्यु’न्ति। अथ अञ्ञेपि सत्ता आयुक्खया वा पुञ्ञक्खया वा आभस्सरकाया चवित्वा ब्रह्मविमानं उपपज्जन्ति तस्स सत्तस्स सहब्यतं। तेपि तत्थ होन्ति मनोमया पीतिभक्खा सयंपभा अन्तलिक्खचरा सुभट्ठायिनो, चिरं दीघमद्धानं तिट्ठन्ति।
४२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो तस्स एवं होति – ‘अहमस्मि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता [सज्जिता (स्या॰ कं॰)] वसी पिता भूतभब्यानं। मया इमे सत्ता निम्मिता। तं किस्स हेतु? ममञ्हि पुब्बे एतदहोसि – ‘‘अहो वत अञ्ञेपि सत्ता इत्थत्तं आगच्छेय्यु’’न्ति। इति मम च मनोपणिधि, इमे च सत्ता इत्थत्तं आगता’ति।
‘‘येपि ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, तेसम्पि एवं होति – ‘अयं खो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं। इमिना मयं भोता ब्रह्मुना निम्मिता। तं किस्स हेतु? इमञ्हि मयं अद्दसाम इध पठमं उपपन्नं, मयं पनम्ह पच्छा उपपन्ना’ति।
४३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, यो सो सत्तो पठमं उपपन्नो, सो दीघायुकतरो च होति वण्णवन्ततरो च महेसक्खतरो च। ये पन ते सत्ता पच्छा उपपन्ना, ते अप्पायुकतरा च होन्ति दुब्बण्णतरा च अप्पेसक्खतरा च।
४४. ‘‘ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘यो खो सो भवं ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं, येन मयं भोता ब्रह्मुना निम्मिता, सो निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सति। ये पन मयं अहुम्हा तेन भोता ब्रह्मुना निम्मिता, ते मयं अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता’ति। इदं खो, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
४५. ‘‘दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? सन्ति, भिक्खवे, खिड्डापदोसिका नाम देवा, ते अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना [हसखिड्डारतिधम्मसमापन्ना (क॰)] विहरन्ति। तेसं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति [पमुस्सति (सी॰ स्या॰)]। सतिया सम्मोसा ते देवा तम्हा काया चवन्ति।
४६. ‘‘ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘ये खो ते भोन्तो देवा न खिड्डापदोसिका, ते न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरन्ति। तेसं न अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति न सम्मुस्सति। सतिया असम्मोसा ते देवा तम्हा काया न चवन्ति; निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति। ये पन मयं अहुम्हा खिड्डापदोसिका, ते मयं अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्ना विहरिम्हा। तेसं नो अतिवेलं हस्सखिड्डारतिधम्मसमापन्नानं विहरतं सति सम्मुस्सति। सतिया सम्मोसा एवं मयं तम्हा काया चुता अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता’ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
४७. ‘‘ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? सन्ति, भिक्खवे, मनोपदोसिका नाम देवा, ते अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ति। ते अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसेन्ति। ते अञ्ञमञ्ञं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा काया चवन्ति।
४८. ‘‘ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते तं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति।
‘‘सो एवमाह – ‘ये खो ते भोन्तो देवा न मनोपदोसिका, ते नातिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ति। ते नातिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि नप्पदूसेन्ति। ते अञ्ञमञ्ञं अप्पदुट्ठचित्ता अकिलन्तकाया अकिलन्तचित्ता। ते देवा तम्हा काया न चवन्ति, निच्चा धुवा सस्सता अविपरिणामधम्मा सस्सतिसमं तथेव ठस्सन्ति। ये पन मयं अहुम्हा मनोपदोसिका, ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायिम्हा। ते मयं अतिवेलं अञ्ञमञ्ञं उपनिज्झायन्ता अञ्ञमञ्ञम्हि चित्तानि पदूसिम्हा, ते मयं अञ्ञमञ्ञं पदुट्ठचित्ता किलन्तकाया किलन्तचित्ता। एवं मयं तम्हा काया चुता अनिच्चा अद्धुवा अप्पायुका चवनधम्मा इत्थत्तं आगता’ति। इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
४९. ‘‘चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी। सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह – ‘यं खो इदं वुच्चति चक्खुं इतिपि सोतं इतिपि घानं इतिपि जिव्हा इतिपि कायो इतिपि, अयं अत्ता अनिच्चो अद्धुवो असस्सतो विपरिणामधम्मो। यञ्च खो इदं वुच्चति चित्तन्ति वा मनोति वा विञ्ञाणन्ति वा अयं अत्ता निच्चो धुवो सस्सतो अविपरिणामधम्मो सस्सतिसमं तथेव ठस्सती’ति। इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
५०. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा।
५१. ‘‘तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति – ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया’ति। तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
५२. ‘‘इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
अन्तानन्तवादो
५३. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि?
५४. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरति।
‘‘सो एवमाह – ‘अन्तवा अयं लोको परिवटुमो। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरामि। इमिनामहं एतं जानामि – यथा अन्तवा अयं लोको परिवटुमो’ति। इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति।
५५. ‘‘दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते अनन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरति।
‘‘सो एवमाह – ‘अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो। ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अन्तवा अयं लोको परिवटुमो’’ति, तेसं मुसा। अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते अनन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरामि। इमिनामहं एतं जानामि – यथा अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो’ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति।
५६. ‘‘ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते उद्धमधो अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरति, तिरियं अनन्तसञ्ञी।
‘‘सो एवमाह – ‘अन्तवा च अयं लोको अनन्तो च। ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अन्तवा अयं लोको परिवटुमो’’ति, तेसं मुसा। येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो’’ति, तेसम्पि मुसा। अन्तवा च अयं लोको अनन्तो च। तं किस्स हेतु? अहञ्हि आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसामि, यथासमाहिते चित्ते उद्धमधो अन्तसञ्ञी लोकस्मिं विहरामि, तिरियं अनन्तसञ्ञी। इमिनामहं एतं जानामि – यथा अन्तवा च अयं लोको अनन्तो चा’ति। इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति।
५७. ‘‘चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी। सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह – ‘नेवायं लोको अन्तवा, न पनानन्तो। ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अन्तवा अयं लोको परिवटुमो’’ति, तेसं मुसा। येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अनन्तो अयं लोको अपरियन्तो’’ति, तेसम्पि मुसा। येपि ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘‘अन्तवा च अयं लोको अनन्तो चा’’ति, तेसम्पि मुसा। नेवायं लोको अन्तवा, न पनानन्तो’ति। इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति।
५८. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा।
५९. ‘‘तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति – ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया’ति। तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
६०. ‘‘इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
अमराविक्खेपवादो
६१. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि?
६२. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा ‘इदं कुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, ‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, ‘‘इदं अकुसल’’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि। अहञ्चे खो पन ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, ‘‘इदं अकुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, ‘इदं कुसल’न्ति वा ब्याकरेय्यं, ‘इदं अकुसल’न्ति वा ब्याकरेय्यं, तं ममस्स मुसा। यं ममस्स मुसा, सो ममस्स विघातो। यो ममस्स विघातो सो ममस्स अन्तरायो’ति। इति सो मुसावादभया मुसावादपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – ‘एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञ्ञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नो’ति। इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं।
६३. ‘‘दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा ‘इदं कुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, ‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, ‘‘इदं अकुसल’’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि। अहञ्चे खो पन ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, ‘‘इदं अकुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो, ‘‘इदं कुसल’’न्ति वा ब्याकरेय्यं, ‘‘इदं अकुसल’न्ति वा ब्याकरेय्यं, तत्थ मे अस्स छन्दो वा रागो वा दोसो वा पटिघो वा। यत्थ [यो (?)] मे अस्स छन्दो वा रागो वा दोसो वा पटिघो वा, तं ममस्स उपादानं। यं ममस्स उपादानं, सो ममस्स विघातो। यो ममस्स विघातो, सो ममस्स अन्तरायो’ति। इति सो उपादानभया उपादानपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – ‘एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञ्ञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नो’ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं।
६४. ‘‘ततिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा ‘इदं कुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति, ‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानाति। तस्स एवं होति – ‘अहं खो ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि, ‘‘इदं अकुसल’न्ति यथाभूतं नप्पजानामि। अहञ्चे खो पन ‘‘इदं कुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो ‘‘इदं अकुसल’’न्ति यथाभूतं अप्पजानन्तो ‘‘इदं कुसल’’न्ति वा ब्याकरेय्यं, ‘‘इदं अकुसल’’न्ति वा ब्याकरेय्यं। सन्ति हि खो समणब्राह्मणा पण्डिता निपुणा कतपरप्पवादा वालवेधिरूपा, ते भिन्दन्ता [वोभिन्दन्ता (सी॰ पी॰)] मञ्ञे चरन्ति पञ्ञागतेन दिट्ठिगतानि, ते मं तत्थ समनुयुञ्जेय्युं समनुगाहेय्युं समनुभासेय्युं। ये मं तत्थ समनुयुञ्जेय्युं समनुगाहेय्युं समनुभासेय्युं, तेसाहं न सम्पायेय्यं। येसाहं न सम्पायेय्यं, सो ममस्स विघातो। यो ममस्स विघातो, सो ममस्स अन्तरायो’ति। इति सो अनुयोगभया अनुयोगपरिजेगुच्छा नेविदं कुसलन्ति ब्याकरोति, न पनिदं अकुसलन्ति ब्याकरोति, तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – ‘एवन्तिपि मे नो; तथातिपि मे नो; अञ्ञथातिपि मे नो; नोतिपि मे नो; नो नोतिपि मे नो’ति। इदं, भिक्खवे, ततियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं।
६५. ‘‘चतुत्थे च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा मन्दो होति मोमूहो। सो मन्दत्ता मोमूहत्ता तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठो समानो वाचाविक्खेपं आपज्जति अमराविक्खेपं – ‘अत्थि परो लोको’ति इति चे मं पुच्छसि, ‘अत्थि परो लोको’ति इति चे मे अस्स, ‘अत्थि परो लोको’ति इति ते नं ब्याकरेय्यं, ‘एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो’ति। ‘नत्थि परो लोको…पे॰… ‘अत्थि च नत्थि च परो लोको…पे॰… ‘नेवत्थि न नत्थि परो लोको…पे॰… ‘अत्थि सत्ता ओपपातिका …पे॰… ‘नत्थि सत्ता ओपपातिका…पे॰… ‘अत्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका…पे॰… ‘नेवत्थि न नत्थि सत्ता ओपपातिका…पे॰… ‘अत्थि सुकतदुक्कटानं [सुकटदुक्कटानं (सी॰ स्या॰ कं॰)] कम्मानं फलं विपाको…पे॰… ‘नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… ‘अत्थि च नत्थि च सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… ‘नेवत्थि न नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… ‘होति तथागतो परं मरणा…पे॰… ‘न होति तथागतो परं मरणा…पे॰… ‘होति च न च होति [न होति च (सी॰ क॰)] तथागतो परं मरणा…पे॰… ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मं पुच्छसि, ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति इति चे मे अस्स, ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति इति ते नं ब्याकरेय्यं, ‘एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो’ति। इदं, भिक्खवे, चतुत्थं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं।
६६. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं, सब्बे ते इमेहेव चतूहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
अधिच्चसमुप्पन्नवादो
६७. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि?
६८. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, असञ्ञसत्ता नाम देवा। सञ्ञुप्पादा च पन ते देवा तम्हा काया चवन्ति। ठानं खो पनेतं, भिक्खवे, विज्जति, यं अञ्ञतरो सत्तो तम्हा काया चवित्वा इत्थत्तं आगच्छति। इत्थत्तं आगतो समानो अगारस्मा अनगारियं पब्बजति। अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो समानो आतप्पमन्वाय पधानमन्वाय अनुयोगमन्वाय अप्पमादमन्वाय सम्मामनसिकारमन्वाय तथारूपं चेतोसमाधिं फुसति, यथासमाहिते चित्ते सञ्ञुप्पादं अनुस्सरति, ततो परं नानुस्सरति। सो एवमाह – ‘अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको च। तं किस्स हेतु? अहञ्हि पुब्बे नाहोसिं, सोम्हि एतरहि अहुत्वा सन्तताय परिणतो’ति। इदं, भिक्खवे, पठमं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
६९. ‘‘दुतिये च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति? इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमंसी। सो तक्कपरियाहतं वीमंसानुचरितं सयंपटिभानं एवमाह – ‘अधिच्चसमुप्पन्नो अत्ता च लोको चा’ति। इदं, भिक्खवे, दुतियं ठानं, यं आगम्म यं आरब्भ एके समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति।
७०. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वीहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
७१. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तमारब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठारसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा।
७२. ‘‘तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति – ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया’ति। तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
७३. ‘‘इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
दुतियभाणवारो।
अपरन्तकप्पिका
७४. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो, अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय [चतुचत्तालीसाय (स्या॰ कं॰)] वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि?
सञ्ञीवादो
७५. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि?
७६. ‘‘‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति। ‘अरूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति। ‘रूपी च अरूपी च अत्ता होति…पे॰… नेवरूपी नारूपी अत्ता होति… अन्तवा अत्ता होति… अनन्तवा अत्ता होति… अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति… नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति… एकत्तसञ्ञी अत्ता होति… नानत्तसञ्ञी अत्ता होति… परित्तसञ्ञी अत्ता होति… अप्पमाणसञ्ञी अत्ता होति… एकन्तसुखी अत्ता होति… एकन्तदुक्खी अत्ता होति। सुखदुक्खी अत्ता होति। अदुक्खमसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा सञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति।
७७. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सोळसहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
असञ्ञीवादो
७८. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि?
७९. ‘‘‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति। ‘अरूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति। ‘रूपी च अरूपी च अत्ता होति…पे॰… नेवरूपी नारूपी अत्ता होति… अन्तवा अत्ता होति… अनन्तवा अत्ता होति… अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति… नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति अरोगो परं मरणा असञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति।
८०. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठहि वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन, नत्थि इतो बहिद्धा…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादो
८१. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा, उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि?
८२. ‘‘‘रूपी अत्ता होति अरोगो परं मरणा नेवसञ्ञीनासञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति ‘अरूपी अत्ता होति…पे॰… रूपी च अरूपी च अत्ता होति… नेवरूपी नारूपी अत्ता होति… अन्तवा अत्ता होति… अनन्तवा अत्ता होति… अन्तवा च अनन्तवा च अत्ता होति… नेवन्तवा नानन्तवा अत्ता होति अरोगो परं मरणा नेवसञ्ञीनासञ्ञी’ति नं पञ्ञपेन्ति।
८३. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव अट्ठहि वत्थूहि…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
उच्छेदवादो
८४. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि?
८५. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्ठि [एवंदिट्ठी (क॰ पी॰)] – ‘यतो खो, भो, अयं अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
८६. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता दिब्बो रूपी कामावचरो कबळीकाराहारभक्खो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
८७. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता दिब्बो रूपी मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
८८. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘‘अनन्तो आकासो’’ति आकासानञ्चायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
८९. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘‘अनन्तं विञ्ञाण’’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
९०. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, सो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘‘नत्थि किञ्ची’’ति आकिञ्चञ्ञायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
९१. ‘तमञ्ञो एवमाह – ‘‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता सम्मा समुच्छिन्नो होति। अत्थि खो, भो, अञ्ञो अत्ता सब्बसो आकिञ्चञ्ञायतनं समतिक्कम्म ‘‘सन्तमेतं पणीतमेत’’न्ति नेवसञ्ञानासञ्ञायतनूपगो। तं त्वं न जानासि न पस्ससि। तमहं जानामि पस्सामि। सो खो, भो, अत्ता यतो कायस्स भेदा उच्छिज्जति विनस्सति, न होति परं मरणा, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता सम्मा समुच्छिन्नो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति।
९२. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव सत्तहि वत्थूहि…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
दिट्ठधम्मनिब्बानवादो
९३. ‘‘सन्ति, भिक्खवे, एके समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि। ते च भोन्तो समणब्राह्मणा किमागम्म किमारब्भ दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि?
९४. ‘‘इध, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा एवंवादी होति एवंदिट्ठि – ‘‘यतो खो, भो, अयं अत्ता पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति।
९५. ‘‘तमञ्ञो एवमाह –‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति। तं किस्स हेतु? कामा हि, भो, अनिच्चा दुक्खा विपरिणामधम्मा, तेसं विपरिणामञ्ञथाभावा उप्पज्जन्ति सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा। यतो खो, भो, अयं अत्ता विविच्चेव कामेहि विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति।
९६. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति। तं किस्स हेतु? यदेव तत्थ वितक्कितं विचारितं, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति। यतो खो, भो, अयं अत्ता वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति।
९७. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति। तं किस्स हेतु? यदेव तत्थ पीतिगतं चेतसो उप्पिलावितत्तं, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति। यतो खो, भो, अयं अत्ता पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति, सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति ‘‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’’ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति।
९८. ‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘अत्थि खो, भो, एसो अत्ता, यं त्वं वदेसि, नेसो नत्थीति वदामि; नो च खो, भो, अयं अत्ता एत्तावता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होति। तं किस्स हेतु? यदेव तत्थ सुखमिति चेतसो आभोगो, एतेनेतं ओळारिकं अक्खायति। यतो खो, भो, अयं अत्ता सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, एत्तावता खो, भो, अयं अत्ता परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पत्तो होती’ति। इत्थेके सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति।
९९. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति, सब्बे ते इमेहेव पञ्चहि वत्थूहि…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
१००. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि। ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव चतुचत्तारीसाय वत्थूहि…पे॰… येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
१०१. ‘‘इमेहि खो ते, भिक्खवे, समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि।
१०२. ‘‘ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि, एतेसं वा अञ्ञतरेन; नत्थि इतो बहिद्धा।
१०३. ‘‘तयिदं, भिक्खवे, तथागतो पजानाति – ‘इमे दिट्ठिट्ठाना एवंगहिता एवंपरामट्ठा एवंगतिका भवन्ति एवंअभिसम्पराया’ति। तञ्च तथागतो पजानाति, ततो च उत्तरितरं पजानाति, तञ्च पजाननं न परामसति, अपरामसतो चस्स पच्चत्तञ्ञेव निब्बुति विदिता। वेदनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं विदित्वा अनुपादाविमुत्तो, भिक्खवे, तथागतो।
१०४. ‘‘इमे खो ते, भिक्खवे, धम्मा गम्भीरा दुद्दसा दुरनुबोधा सन्ता पणीता अतक्कावचरा निपुणा पण्डितवेदनीया, ये तथागतो सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति, येहि तथागतस्स यथाभुच्चं वण्णं सम्मा वदमाना वदेय्युं।
परितस्सितविप्फन्दितवारो
१०५. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
१०६. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
१०७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
१०८. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
१०९. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११०. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
१११. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११४. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११५. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११६. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
११७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, तदपि तेसं भवतं समणब्राह्मणानं अजानतं अपस्सतं वेदयितं तण्हागतानं परितस्सितविप्फन्दितमेव।
फस्सपच्चयावारो
११८. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
११९. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२०. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२१. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२४. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२५. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२६. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२८. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१२९. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
१३०. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, तदपि फस्सपच्चया।
नेतं ठानं विज्जतिवारो
१३१. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्च असस्सतिका एकच्चं सस्सतं एकच्चं असस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका अन्तानन्तं लोकस्स पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३४. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका तत्थ तत्थ पञ्हं पुट्ठा समाना वाचाविक्खेपं आपज्जन्ति अमराविक्खेपं चतूहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३५. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका अधिच्चसमुप्पन्नं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति द्वीहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३६. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका पुब्बन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति अट्ठारसहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३७. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा उद्धमाघातनं सञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति सोळसहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३८. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा, उद्धमाघातनं असञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१३९. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा उद्धमाघातनं नेवसञ्ञीनासञ्ञिं अत्तानं पञ्ञपेन्ति अट्ठहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१४०. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा सतो सत्तस्स उच्छेदं विनासं विभवं पञ्ञपेन्ति सत्तहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१४१. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा सतो सत्तस्स परमदिट्ठधम्मनिब्बानं पञ्ञपेन्ति पञ्चहि वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१४२. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका अपरन्तानुदिट्ठिनो अपरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति चतुचत्तारीसाय वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
१४३. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, ते वत अञ्ञत्र फस्सा पटिसंवेदिस्सन्तीति नेतं ठानं विज्जति।
दिट्ठिगतिकाधिट्ठानवट्टकथा
१४४. ‘‘तत्र, भिक्खवे, ये ते समणब्राह्मणा सस्सतवादा सस्सतं अत्तानञ्च लोकञ्च पञ्ञपेन्ति चतूहि वत्थूहि, येपि ते समणब्राह्मणा एकच्चसस्सतिका एकच्चअसस्सतिका…पे॰… येपि ते समणब्राह्मणा अन्तानन्तिका… येपि ते समणब्राह्मणा अमराविक्खेपिका… येपि ते समणब्राह्मणा अधिच्चसमुप्पन्निका… येपि ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका… येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका सञ्ञीवादा… येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका असञ्ञीवादा… येपि ते समणब्राह्मणा उद्धमाघातनिका नेवसञ्ञीनासञ्ञीवादा… येपि ते समणब्राह्मणा उच्छेदवादा… येपि ते समणब्राह्मणा दिट्ठधम्मनिब्बानवादा… येपि ते समणब्राह्मणा अपरन्तकप्पिका… येपि ते समणब्राह्मणा पुब्बन्तकप्पिका च अपरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तकप्पिका च पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति द्वासट्ठिया वत्थूहि, सब्बे ते छहि फस्सायतनेहि फुस्स फुस्स पटिसंवेदेन्ति तेसं वेदनापच्चया तण्हा, तण्हापच्चया उपादानं, उपादानपच्चया भवो, भवपच्चया जाति, जातिपच्चया जरामरणं सोकपरिदेवदुक्खदोमनस्सुपायासा सम्भवन्ति।
विवट्टकथादि
१४५. ‘‘यतो खो, भिक्खवे, भिक्खु छन्नं फस्सायतनानं समुदयञ्च अत्थङ्गमञ्च अस्सादञ्च आदीनवञ्च निस्सरणञ्च यथाभूतं पजानाति, अयं इमेहि सब्बेहेव उत्तरितरं पजानाति।
१४६. ‘‘ये हि केचि, भिक्खवे, समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता, एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति, एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति।
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, दक्खो केवट्टो वा केवट्टन्तेवासी वा सुखुमच्छिकेन जालेन परित्तं उदकदहं [उदकरहदं (सी॰ स्या॰ पी॰)] ओत्थरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘ये खो केचि इमस्मिं उदकदहे ओळारिका पाणा, सब्बे ते अन्तोजालीकता। एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति; एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ती’ति; एवमेव खो, भिक्खवे, ये हि केचि समणा वा ब्राह्मणा वा पुब्बन्तकप्पिका वा अपरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तकप्पिका वा पुब्बन्तापरन्तानुदिट्ठिनो पुब्बन्तापरन्तं आरब्भ अनेकविहितानि अधिमुत्तिपदानि अभिवदन्ति, सब्बे ते इमेहेव द्वासट्ठिया वत्थूहि अन्तोजालीकता एत्थ सिताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति, एत्थ परियापन्ना अन्तोजालीकताव उम्मुज्जमाना उम्मुज्जन्ति।
१४७. ‘‘उच्छिन्नभवनेत्तिको, भिक्खवे, तथागतस्स कायो तिट्ठति। यावस्स कायो ठस्सति, ताव नं दक्खन्ति देवमनुस्सा। कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना न नं दक्खन्ति देवमनुस्सा।
‘‘सेय्यथापि, भिक्खवे, अम्बपिण्डिया वण्टच्छिन्नाय यानि कानिचि अम्बानि वण्टपटिबन्धानि [वण्टूपनिबन्धनानि (सी॰ पी॰), वण्डपटिबद्धानि (क॰)], सब्बानि तानि तदन्वयानि भवन्ति; एवमेव खो, भिक्खवे, उच्छिन्नभवनेत्तिको तथागतस्स कायो तिट्ठति, यावस्स कायो ठस्सति, ताव नं दक्खन्ति देवमनुस्सा, कायस्स भेदा उद्धं जीवितपरियादाना न नं दक्खन्ति देवमनुस्सा’’ति।
१४८. एवं वुत्ते आयस्मा आनन्दो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अच्छरियं, भन्ते, अब्भुतं, भन्ते, को नामो अयं, भन्ते, धम्मपरियायो’’ति? ‘‘तस्मातिह त्वं, आनन्द, इमं धम्मपरियायं अत्थजालन्तिपि नं धारेहि, धम्मजालन्तिपि नं धारेहि, ब्रह्मजालन्तिपि नं धारेहि, दिट्ठिजालन्तिपि नं धारेहि, अनुत्तरो सङ्गामविजयोतिपि नं धारेही’’ति। इदमवोच भगवा।
१४९. अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति। इमस्मिञ्च पन वेय्याकरणस्मिं भञ्ञमाने दससहस्सी [सहस्सी (कत्थचि)] लोकधातु अकम्पित्थाति।
ब्रह्मजालसुत्तं निट्ठितं पठमं।