यह सूत्र पालि पञ्चनिकाय की उत्कृष्ठ महाकृतियों में से एक है। इसमें भगवान के समकालीन छह प्रख्यात धर्मगुरुओं और उनकी दार्शनिक मान्यताओं का ब्योरा दिया गया है। तथा उन्हीं के प्रतिउत्तर में बौद्ध प्रगतिपथ का भी एक व्यापक विवरण दिया गया है, जो आर्यश्रावक प्रशिक्षण के प्रत्येक चरण को जीवंत उपमाओं के साथ चित्रित करता है। और साथ ही, उसे बौद्ध शिक्षाओं की प्रासंगिकता और इसी जीवन में तुरंत फ़लश्रुत होकर दिखनेवाले गुण के अनुसार ढाला गया है।
उस समय भारतीय उपमहाद्वीप ‘जम्बूद्वीप’ के नाम से जाना जाता था, जो अनेक देशों में विभाजित होकर विभिन्न राजवंशों द्वारा शासित था। बुद्ध के सर्वप्रथम उपासकों में से एक, मगध के राजा बिम्बिसार, श्रोतापन्न-फ़ल प्राप्त थे, जो अपनी अधिकांश प्रजा के साथ त्रिशरण में स्थापित थे। किन्तु उनके पुत्र, राजकुमार अजातशत्रु को भगवान बुद्ध के चचेरे-भाई, देवदत्त ने ऋद्धियाँ दिखाकर मोह लिया था। ऋद्धियाँ प्राप्त होते ही देवदत्त ‘भोग, सत्कार और कीर्ति’ में डूब गया, और उसे पुनः सत्ता के प्रति लालसा उत्पन्न हुई। उसने विशाल भिक्षुसंघ पर प्रभुत्व जमाने की महत्वकांक्षा में राजकुमार अजातशत्रु को फुसलाकर, उससे पिताहत्या का महापाप कराकर राजगद्दी प्राप्त कराया, तथा स्वयं भगवान की हत्या के तीन असफल महापापी प्रयास किए। इस महापाप के परिणामस्वरूप, देवदत्त को सबसे निचले, घोर-पीड़ादायक ‘अवीचि नर्क’ में कल्प के शेष बचे अवधि तक के लिए जाना पड़ा।
बहरहाल, इस सूत्र में पता चलता है कि पिता की हत्या कर के राजा बन चुका अजातशत्रु, मन की शान्ति ढूँढ रहा था। वह उस समय जम्बूद्वीप के सभी प्रख्यात छह धर्मगुरुओं के पास जाकर भी असंतुष्ट ही रहा। अंततः वह भगवान बुद्ध के पास जाता है, और वही प्रश्न पूछता है जो उसने सभी से पूछा था। तब भगवान बुद्ध उसकी सीमित बुद्धि को जानकर, उसके आध्यात्मिक दृष्टिकोण को भविष्य के लिए विकसित करने के लिए बड़े ही धैर्यपूर्वक बौद्ध-प्रशिक्षण के कदमों का वर्णन करते हैं। अंततः वह त्रिरत्नों की शरण लेता है, और एक अच्छा उपासक बनता है। भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात उसी ने भिक्षुसंघ की प्रथम संगीति का आयोजन कराकर खूब पुण्य हासिल किया। किन्तु, पिताहत्या का महापाप करने के कारण, उसे अपने ही प्रिय पुत्र, ‘उदयभद्र’ के हाथों से मृत्यु के घाट उतर कर, भविष्य में उसी अवीचि नर्क में जाकर देवदत्त का कर्मबन्धु होना पड़ा। किन्तु कहते हैं कि उसके अनेक धर्मपुण्यों के प्रभाव से उसका प्रत्येकबुद्ध बनना निर्धारित है। तो आईयें, सूत्र प्रारंभ करते हैं।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान बारह-सौ पचास भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ राजगृह में जीवक कौमारभृत्य के आम्रवन में विहार कर रहे थे। उस समय पूर्णमासी के उपोसथ के दिन, कौमुदी के चौथे महीने [=आश्विन] की पुर्णिमा रात में, मगध का राजा अजातशत्रु वैदेहीपुत्र, राजमंत्रियों से घिरा हुआ, राजमहल के ऊपरी छत पर विराजमान था। तब मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र ने सहज उद्गार किया — “हाय! कैसी रमणीय चाँदनी रात है! कैसी खूबसूरत चाँदनी रात है! कैसी दर्शनीय चाँदनी रात है! कैसी प्रेरणादायक चाँदनी रात है! कैसी भाग्यशाली चाँदनी रात है! ऐसी रात में हम किस श्रमण या ब्राह्मण का दर्शन करे, जिसका सत्संग हमारे चित्त को प्रसन्न करेगा?”
ऐसा कहने पर एक राजमंत्री ने मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र से कहा — “महाराज! पूरण कश्यप संघ [संप्रदाय] का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन रहा।
तब दूसरे राजमंत्री ने कहा — “महाराज! मक्खलि गोषाल संघ का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह भी प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन रहा।
तब तीसरे राजमंत्री ने कहा — “महाराज! अजित केशकम्बल संघ का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह भी प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह भी बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन रहा।
तब चौथे राजमंत्री ने कहा — “महाराज! पकुध कच्चायन संघ का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह भी प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह भी बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन रहा।
तब पाँचवे राजमंत्री ने कहा — “महाराज! निगण्ठ नाटपुत्र संघ का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह भी प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह भी बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन रहा।
तब छठे राजमंत्री ने कहा — “महाराज! सञ्जय बेलट्ठपुत्र संघ का स्वामी है, जो समुदाय का नेता, समुदाय का आचार्य है। वह भी प्रसिद्ध और यशस्वी धर्म-संस्थापक है, जो बहुत लोगों से सम्मानित है। वह भी बहुत अनुभवी, दीर्घकाल से संन्यास धारण किया वयोवृद्ध है। महाराज उसका दर्शन करें। शायद उसका सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
ऐसा कहे जाने पर भी मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मौन ही रहा।
उस समय कौमारभृत्य [=राजकुमार द्वारा गोद लिया] जीवक, मगधराज अजातशत्रु के पास ही मौन बैठा था। तब मगधराज अजातशत्रु ने जीवक कौमारभृत्य से कहा — “मित्र जीवक, तुम क्यों मौन बैठे हो?”
“महाराज! इस समय भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध, बारह-सौ पचास भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ, हमारे आम्रवन में विहार कर रहे हैं। उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ महाराज भगवान का दर्शन करें। शायद भगवान का सत्संग महाराज के चित्त को प्रसन्न कर देगा।”
“तब जाओ, मित्र जीवक, हाथियों की सवारी तैयार करो।”
“जी, महाराज!” जीवक ने उत्तर दिया। तब जीवक कौमारभृत्य ने महाराज के अपने राजसी-हाथी के साथ पाँच-सौ हथिनियों की सवारी तैयार कर, मगधराज अजातशत्रु को सुछित किया, “महाराज, हाथी की सवारी तैयार है। अब जैसे महाराज चाहे, आदेश करें।”
तब मगधराज अजातशत्रु ने पाँच-सौ हथिनियों पर अपनी पाँच-सौ रानियों को सवार कराया और स्वयं अपने राजसी-हाथी पर सवार हुआ। साथ चलते सेवक मशालें पकड़े, पूर्ण राजसी अंदाज में, सभी राजगृह से जीवक कौमारभृत्य के आम्रवन की ओर चल पड़े।
आम्रवन के समीप पहुँचते ही, मगधराज अजातशत्रु अचानक भय, घबराहट और आतंक से घिर गया। भयभीत, घबराकर, आतंकित होकर उसने जीवक कौमारभृत्य से कहा, “मित्र जीवक, तुम कही मुझे धोखा तो नहीं दे रहे हो? कही मुझे दगा तो नहीं दे रहे हो? कही मुझे शत्रुओं को तो नहीं सौंप रहे हो? ऐसा कैसे हो सकता है कि बारह-सौ पचास भिक्षुओं का विशाल संघ हो, और न छीकने की आहट हो, न खाँसने की आहट हो, न कोई भी अन्य आहट हो?”
“डरिए मत, महाराज! मैं आपको धोखा नहीं दे रहा हूँ। मैं आपको दगा नहीं दे रहा हूँ। मैं आपको शत्रुओं को नहीं सौंप रहा हूँ। आगे बढ़िए, महाराज! सीधा आगे बढ़िए! आगे मंडप में दीये जल रहे हैं।”
तब मगधराज अजातशत्रु जहाँ तक जा सका, हाथी से गया, और तब हाथी से उतर कर पैदल मंडप-द्वार तक पहुँचा। पहुँच कर जीवक कौमारभृत्य से कहा — “किन्तु भगवान कहाँ हैं, मित्र जीवक?”
“भगवान वहाँ हैं, महाराज! भिक्षुसंघ के आगे, मध्य स्थंभ के सहारे, पूर्व-दिशा की ओर मुख किए बैठे हैं।”
तब मगधराज अजातशत्रु भगवान के समीप जाकर एक-ओर खड़ा हो गया। एक-ओर खड़े होकर, वह शान्त बैठे भिक्षुसंघ की ओर ताकने लगा, जो किसी निर्मल और अत्यंत शान्त झील की तरह मौन बैठे हुए थे। ताकते हुए उसने सहज उद्गार किया, “मेरा पुत्र, राजकुमार उदयभद्र, ऐसी शान्ति में विराजे, जैसी शान्ति में इस समय भिक्षुसंघ विराज रहा है!”
“क्या महाराज अपने स्नेह को साथ लेकर आएँ हैं?” [भगवान ने कहा।]
“भन्ते! मेरा पुत्र, राजकुमार उदयभद्र, मुझे बहुत प्रिय है! वह ऐसी ही शान्ति में विराजे, जैसी शान्ति में इस समय भिक्षुसंघ विराज रहा है!”
तब मगधराज अजातशत्रु ने भगवान को अभिवादन किया और भिक्षुसंघ को हाथ-जोड़कर नमन करते हुए एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर उसने कहा, “भन्ते! मैं भगवान से कुछ प्रश्न करना चाहता हूँ। भगवान कृपा कर मुझे पुछने की अनुमति दें।”
“जो शंका हो, पूछिए, महाराज।”
“भन्ते! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं — हाथीरोही, अश्वरोही, रथिक, धनुर्धर, ध्वजधारक, निवास-आपूर्ति अधिकारी, भोजन-आपूर्ति अधिकारी, उग्र राजकुमार, ऊँचे राज-अधिकारी, छापामार वीर, कवच धारक, गुलाम पुत्र, बावर्ची, नाई, नहलाने वाले, हलवाई, मालाकार, धोबी, दर्जी, कुम्हार, सांख्यिकीविद, मुनीम, और ऐसे ही विभिन्न प्रकार के अन्य कारीगर होते हैं, जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [=कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं। वे स्वयं को सुख-संतुष्टि देते हैं, माता और पिता को सुख-संतुष्टि देते हैं, पत्नी और संतानों को सुख-संतुष्टि देते हैं, मित्रों और सहचारियों को सुख-संतुष्टि देते हैं, तथा सर्वोच्च उद्देश्य से श्रमण और ब्राह्मणों के लिए दानदक्षिणा का आयोजन करते हैं, जो स्वर्गिक सुख परिणामी हो, ऊँचे स्वर्ग ले जाए। क्या उसी तरह, भन्ते, इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?”
“महाराज, क्या इसी प्रश्न को अन्य श्रमण-ब्राह्मण को पूछा जाना याद है?”
“हाँ, भन्ते! हमें याद है।”
“यदि महाराज को परेशानी न हो, तो बताएँगे उन्होने कैसे उत्तर दिया था?”
“भन्ते, जब प्रत्यक्ष भगवान या भगवान जैसा ही कोई सामने बैठा हो, तब कोई परेशानी नहीं है।”
“तो बताएँ, महाराज!”
“एक बार, भन्ते, मैं पूरण कश्यप के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे यही प्रश्न किया — ‘कश्यप गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर पूरण कश्यप ने कहा — ‘महाराज! [दुष्कर्म] करने में या [किसी अन्य के द्वारा] कराने में, [किसी को] काटने में या कटाने में, यातना देने में या दिलाने में, शोक देने में या दिलाने में, पीड़ा देने में या दिलाने में, भयभीत करने या कराने में, हत्या, चोरी, लूट, डाका, घात लगाने, व्यभिचार करने, झूठ बोलने में कोई पाप नहीं होता। यदि कोई इस धरातल के तमाम जीवों को चक्र से काटते हुए उन्हें माँस के ढ़ेर में बदल दे, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के दाँए तट पर जीवों को मारते-मरवाते, काटते-कटवाते, यातना और प्रताड़ना देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पाप नहीं होगा, उसका कभी बुरा परिणाम नहीं आएगा। यदि कोई गंगा नदी के बाएँ तट पर जीवों को दान देते-दिलवाते, बलिदान देते-दिलवाते जाए, तब भी वह पुण्य नहीं होगा, उसका कभी भला परिणाम नहीं आएगा। दान से, [स्वयं पर] काबू पाने से, [इंद्रिय] संयम से, सत्यवाणी से पुण्य नहीं होता है, उसका कभी भला परिणाम नहीं आता है।’
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर पूरण कश्यप ने ‘अक्रिया’ का उत्तर दिया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर पूरण कश्यप ने ‘अक्रिया’ का उत्तर दिया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने पूरण कश्यप की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
“अगली बार, भन्ते, मैं मक्खलि गोषाल के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे भी यही प्रश्न किया — ‘गोषाल गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर मक्खलि गोषाल ने कहा — “महाराज! सत्वों की मलिनता «किलेस» का कोई कारण «हेतु» नहीं है, कोई आवश्यक परिस्थिति «पच्चय» नहीं है। अकारण, बिनाशर्त के सत्व मलिन हो जाते हैं। अकारण, बिनाशर्त के सत्व शुद्ध भी हो जाते हैं। न कुछ स्वयं के कारण होता है, न कुछ पराए के कारण होता है, न ही कुछ पुरुष के कारण होता है। [किसी का] बल नहीं होता, मेहनत नहीं होती, पुरुष का दम नहीं होता, पुरुष की उद्यमता नहीं होती। बल्कि सभी सत्व, सभी प्राणी, सभी अस्तित्व पाएँ जीव बेबस हैं, अबला हैं, बेअसर हैं, जो मात्र संयोग, भाग्य और प्रकृति के कारण छह जातियों में उत्पन्न होकर सुख-दुःख भोगते हैं। [अर्थात, मुक्ति की कोई संभावना नहीं [=अर्थात कोई कार्य-कारण संबंध नहीं होता।]]
कुल प्रमुख १४,०६,६०० योनियाँ हैं। ५०० तरह के कर्म हैं, ५ पूर्ण कर्म, ३ अर्ध कर्म हैं। ६२ प्रगतिपथ हैं, ६२ अन्तरकल्प हैं, ६ अभिजातियाँ हैं, ८ प्रकार के पुरुष हैं, ४९०० प्रकार की जीविका हैं, ४९०० प्रकार के घुमक्कड़ हैं, ४९०० प्रकार के नाग आवास हैं, २००० इंद्रियाँ हैं, ३००० नर्क हैं, ३६ धूलभरे लोक हैं, ७ बोधगम्य आयाम हैं, ७ बेहोश आयाम हैं, ७ तरह के निर्ग्रंथ गर्भ हैं, ७ तरह के देवता हैं, ७ तरह के मनुष्य हैं, ७ तरह के पिशाच हैं, ७ तरह के स्वर [अथवा महा-जलाशय] हैं, ७ बड़े गाँठ हैं, ७ छोटे गाँठ हैं, ७०० बड़े प्रपात हैं, ७०० छोटे प्रपात हैं, ७०० तरह के लंबे स्वप्न हैं, ७०० तरह के छोटे स्वप्न हैं, ८४,००० महाकल्प हैं। इनसे [जन्म-जन्मांतरण में] संसरण करते [=भटकते] हुए मूर्ख और पण्डित दोनों ही दुःखों का अन्त करेंगे।
भले ही किसी को लगे, ‘मैं शील से, व्रत से, तप से, या ब्रह्मचर्य से अपरिपक्व कर्मों को पका दूँगा और पके कर्मों को भोगकर मिटा दूँगा’ — ऐसा असंभव है। सुख और दुःख गिने हुए हैं। जन्म-जन्मांतरण में संसरण करने की सीमा तय है, जिसे छोटा या लंबा नहीं किया जा सकता, तेज या धीमा नहीं किया सकता है। जैसे सूत की गेंद को उछालने पर खुलते हुए अन्त होती है, उसी तरह मूर्ख और पण्डित दोनों ही संसरण करते हुए दुःखों का अन्त करेंगे।”
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर मक्खलि गोषाल ने ‘संसरण से शुद्धि’ का उत्तर दिया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर मक्खलि गोषाल ने ‘संसरण से शुद्धि’ का उत्तर दिया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने मक्खलि गोषाल की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
“अगली बार, भन्ते, मैं अजित केशकम्बल के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे भी यही प्रश्न किया — ‘अजित गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर अजित केशकम्बल ने कहा — “महाराज! दान [का फ़ल] नहीं है। यज्ञ [=चढ़ावा] नहीं है। आहुति [=बलिदान] नहीं है। सुकृत्य या दुष्कृत्य कर्मों का फ़ल-परिणाम नहीं हैं। लोक नहीं है। परलोक नहीं है। न माता है, न पिता है, न स्वयं से प्रकट होते «ओपपातिक» सत्व हैं। न ही दुनिया में ऐसे श्रमण-ब्राह्मण हैं जो सम्यक-साधना कर सम्यक-प्रगति करते हुए विशिष्ट-ज्ञान का साक्षात्कार कर लोक-परलोक होने की घोषणा करते हैं। चार महाभूतों से बना मानव जब मरता है तो पृथ्वी [बाहरी] लौटकर पृथ्वीधातु में विलीन हो जाती है, जल लौटकर जलधातु में विलीन हो जाती है, अग्नि लौटकर अग्निधातु में विलीन हो जाती है, वायु लौटकर वायुधातु में विलीन हो जाती है, और इन्द्रियाँ आकाश में बिखर जाती हैं। लाश को चार पुरुष अरथी पर लिटाकर ले जाते हैं, और केवल श्मशानघाट तक ही उसकी बातें करते हैं। हड्डियाँ कबूतर के रंग की हो जाती हैं। और सारी दक्षिणा भस्म हो जाती है। दान की प्रेरणा मूर्ख देते हैं। मरणोपरान्त अस्तित्व की बातें झूठी हैं, खोखली बकवास हैं। मरणोपरान्त काया छूटने पर पंडित और मूर्ख दोनों का ही उच्छेद [=विलोप] होता है, विनाश होता है। मरणोपरान्त अस्तित्व नहीं होता है।”
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर अजित केशकम्बल ने ‘उच्छेद’ का उत्तर दिया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर अजित केशकम्बल ने ‘उच्छेद’ का उत्तर दिया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने अजित केशकम्बल की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
“अगली बार, भन्ते, मैं पकुध कच्चायन के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे भी यही प्रश्न किया — ‘कच्चान गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर पकुध कच्चायन ने कहा — “महाराज! सात तरह की काया [=समूह] अरचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं। कौन-सी सात? पृथ्वी-काया, जल-काया, अग्नि-काया, वायु-काया, सुख, दुःख, और जीव। यही सात तरह की काया अ-रचित होती हैं, अकारण ही अरचित होती हैं, अनिर्मित होती हैं, बिना निर्माता के होती हैं, निष्फल होती हैं, पर्वत-शिखर की तरह स्थिर होती हैं, स्तंभ की तरह अचल होती हैं, जो बदलती नहीं, परिवर्तित नहीं होती, एक-दूसरे पर असर नहीं डालती, और एक-दूसरे को सुख देने में, दुःख देने में, या सुख-दुःख दोनों ही देने में असक्षम होती हैं।
और उनमें न कोई हत्यारा है, न हत्या करानेवाला; न कोई सुननेवाला है, न सुनानेवाला; न कोई जानने-वाला है, न जानकारी देनेवाला। जब तीक्ष्ण शस्त्र से कोई शिरच्छेद करता है, तो वह किसी के प्राण नहीं लेता है। वह तो सात काया के बीच से गुज़रता शस्त्र मात्र है।”
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर पकुध कच्चायन ने ‘अरचित’ का उत्तर दिया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर पकुध कच्चायन ने ‘अरचित’ का उत्तर दिया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने पकुध कच्चायन की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
“अगली बार, भन्ते, मैं निगण्ठ नाटपुत्र के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे भी यही प्रश्न किया — ‘अग्निवेषण गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर निगण्ठ नाटपुत्र ने कहा — “महाराज! निगण्ठ चार तरह के सँवर से सम्पन्न रहता है। कौन-से चार? निगण्ठ तमाम तरह के संयमों से संयमित रहता है। वह तमाम तरह के संयमों से युक्त रहता है। वह तमाम तरह के संयमों से धुला हुआ रहता है। वह तमाम तरह के संयमों से व्याप्त रहता है। इस तरह, महाराज, निगण्ठ चार तरह के सँवर से सम्पन्न रहता है। और चूँकि निगण्ठ चार तरह के सँवर से सम्पन्न रहता है, इसीलिए उसे निगण्ठ [=निर्ग्रन्थ, बिना गाँठ का], गतात्मा [=मंज़िल पर पहुँच चुका], यतात्मा [=संयमित हो चुका], और स्थितात्मा [=स्थित हो चुका] कहते हैं।”
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर निगण्ठ नाटपुत्र ने ‘चार सँवर’ का उत्तर दिया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर निगण्ठ नाटपुत्र ने ‘चार सँवर’ का उत्तर दिया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने निगण्ठ नाटपुत्र की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
“अगली बार, भन्ते, मैं सञ्जय बेलट्ठपुत्र के पास गया, और जाकर मैत्रीपूर्वक हाल-चाल लेकर एक-ओर बैठ गया। एक-ओर बैठकर मैंने उससे भी यही प्रश्न किया — ‘सञ्जय गुरुजी! जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं… जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं… क्या उसी तरह इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?’
यह सुनकर निगण्ठ नाटपुत्र ने कहा — “महाराज! यदि आप मुझसे पुछे कि ‘क्या परलोक है?’ यदि मुझे लगे कि परलोक है, तो क्या मैं कहूँगा परलोक है? मुझे ऐसे नहीं लगता। मैं ऐसे नहीं सोचता हूँ। मुझे अन्यथा नहीं लगता। ऐसा नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता। ऐसा नहीं भी नहीं है कि मुझे ऐसे नहीं लगता।” {उसी तरह, निम्नलिखित १५ मुद्दों पर भी इसी तरह टालमटोल करता है:}
क्या परलोक नहीं है? क्या परलोक है भी और नहीं भी? क्या परलोक नहीं है और नहीं भी नहीं है?
क्या ओपपातिक सत्व होते हैं? क्या ओपपातिक सत्व नहीं होते हैं? क्या ओपपातिक सत्व होते है भी और नहीं भी? क्या ओपपातिक सत्व नहीं होते और नहीं भी नहीं होते?
क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम होता है? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम नहीं होता है? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम होता है भी और नहीं भी? क्या सुकृत्य-दुष्कृत्य कर्मों का फल-परिणाम नहीं होता और नहीं भी नहीं होता?
क्या मरणोपरान्त तथागत [अस्तित्व में] रहते है? क्या मरणोपरान्त तथागत नहीं रहते है? क्या मरणोपरान्त तथागत रहते है भी और नहीं भी? क्या मरणोपरान्त तथागत नहीं रहते और नहीं भी नहीं रहते?
इस तरह, भन्ते, प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर सञ्जय बेलट्ठपुत्र ने टालमटोल किया। जैसे ‘आम’ पुछो, तो ‘कटहल’ का उत्तर मिले। ‘कटहल’ पुछो, तो ‘आम’ का उत्तर मिले। उसी तरह प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल पुछे जाने पर सञ्जय बेलट्ठपुत्र ने टालमटोल किया। तब मुझे लगा, ‘अब अपने ही देश में रहनेवाले श्रमण-ब्राह्मण को मेरे जैसा कोई क्या देश से भगाएँ?’ इसलिए, भन्ते, मैंने सञ्जय बेलट्ठपुत्र की बात का न अभिनन्दन किया, न ही भर्त्सना की। न अभिनन्दन कर, न भर्त्सना कर मेरा मन खिन्न हुआ। न खिन्न मन प्रकट किए, न उसकी बात स्वीकारे, न उसकी सीख अपनाए, मैं आसन से उठकर चल दिया।
इसलिए, भन्ते, यही प्रश्न अब मैं भगवान से भी करता हूँ — जैसे तरह-तरह के कारीगर होते हैं — हाथीरोही, अश्वरोही, रथिक, धनुर्धर, ध्वजधारक, निवास-आपूर्ति अधिकारी, भोजन-आपूर्ति अधिकारी, उग्र राजकुमार, ऊँचे राज-अधिकारी, छापामार वीर, कवच धारक, गुलाम पुत्र, बावर्ची, नाई, नहलाने वाले, हलवाई, मालाकार, धोबी, दर्जी, कुम्हार, सांख्यिकीविद, मुनीम, और ऐसे ही विभिन्न प्रकार के अन्य कारीगर होते हैं, जो इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले कारीगरी-फ़ल [=कमाई] से अपना जीवन-यापन करते हैं। वे स्वयं को सुख-संतुष्टि देते हैं, माता और पिता को सुख-संतुष्टि देते हैं, पत्नी और संतानों को सुख-संतुष्टि देते हैं, मित्रों और सहचारियों को सुख-संतुष्टि देते हैं, तथा सर्वोच्च उद्देश्य से श्रमण और ब्राह्मणों के लिए दानदक्षिणा का आयोजन करते हैं, जो स्वर्गिक सुख परिणामी हो, ऊँचे स्वर्ग ले जाए। क्या उसी तरह, भन्ते, इसी जीवन में प्रत्यक्ष दिखनेवाले श्रामण्य-फ़ल भी बताएँ जा सकते हैं?”
“ज़रूर बताएँ जा सकते हैं, महाराज! किन्तु पहले मैं इसी प्रसंग में महाराज से एक प्रतिप्रश्न पूछता हूँ। महाराज को जैसा उचित लगे, उत्तर दें। क्या लगता है, महाराज? कल्पना करें कि महाराज के पास एक गुलाम नौकर पुरुष हो, जो पूर्व उठता हो, पश्चात सोता हो, समस्त आज्ञाओं का पालन करता हो, सदैव प्रिय आचरण करता हो, सदैव प्रिय बोलता हो, आज्ञा सुनने के लिए सदैव मुँह ताकता हो। कभी उसे लगे, “पुण्यों की मंज़िल, पुण्यों के फ़ल कमाल हैं, श्रीमान! अद्भुत हैं! मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मनुष्य है और मैं भी मनुष्य ही हूँ। तब भी मगधराज अजातशत्रु पाँच तरह के कामभोग से संपन्न, समग्र आपूर्ति होकर उसमें लिप्त रहता है, जैसे देवता रहते हो। जबकि मैं एक गुलाम नौकर, जो पूर्व उठता है, पश्चात सोता है, समस्त आज्ञाओं का पालन करता है, सदैव प्रिय आचरण करता है, सदैव प्रिय बोलता है, आज्ञा सुनने के लिए सदैव मुँह ताकता है। मुझे भी पुण्य करने चाहिए। क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?” तब वह समय पाकर सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाता है। प्रवज्यित होकर वह काया से सँवर कर, वाणी से सँवर कर, मन से सँवर कर रहता है। तुच्छ भोजन और चीवर मात्र से संतुष्ट, निर्लिप्त-एकांतवास में प्रसन्न रहता है।
तब कोई आपका पुरुष आकर महाराज को सूचित करे, “महामहिम जान ले कि महाराज का गुलाम नौकर पुरुष, जो पूर्व उठता था, पश्चात सोता था, समस्त आज्ञाओं का पालन करता था, सदैव प्रिय आचरण करता था, सदैव प्रिय बोलता था, आज्ञा सुनने के लिए सदैव मुँह ताकता था, वह सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गया है। प्रवज्यित होकर वह काया से सँवर कर, वाणी से सँवर कर, मन से सँवर कर रहता है। तुच्छ भोजन और चीवर मात्र से संतुष्ट, निर्लिप्त-एकांतवास में प्रसन्न रहता है।”
तब सूचना पाकर क्या महाराज ऐसा कहेंगे? — “जाओ, उस पुरुष को मेरे पास ले आओ! उसे फिर से मेरा गुलाम नौकर बनाओ, जो पूर्व उठे, पश्चात सोए, समस्त आज्ञाओं का पालन करे, सदैव प्रिय आचरण करे, सदैव प्रिय बोले, आज्ञा सुनने के लिए सदैव मेरा मुँह ताके!”
“कदापि नहीं, भन्ते! बल्कि वह मैं होना चाहिए, जो उसे अभिवादन करे, उसके सम्मान में उठे, उसे बैठने के लिए आसन दे, और उसे भोजन, चीवर, आवास और रोग निवारण के लिए आवश्यक औषधि आदि की दान-दक्षिणा स्वीकार कराने के लिए आमंत्रित करे। और धर्मानुसार मैं उसकी सुरक्षा, बचाव और देखभाल करूँगा।”
“तो क्या लगता है, महाराज? जब ऐसा हो, तो श्रामण्य-फ़ल प्रत्यक्ष दिखता है अथवा नहीं?”
“हाँ, भन्ते! जब ऐसा हो, तो निश्चित ही श्रामण्य-फ़ल प्रत्यक्ष दिखता है।”
“यह, महाराज, मेरा दर्शाया पहला श्रामण्य-फ़ल है, जो प्रत्यक्ष दिखता है।”
“भन्ते, क्या और भी कोई प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल है, जिसे दर्शाया जा सकता है?”
“ज़रूर बताएँ जा सकते हैं, महाराज! किन्तु पहले मैं इसी प्रसंग में महाराज से एक प्रतिप्रश्न पूछता हूँ। महाराज को जैसा उचित लगे, उत्तर दें। क्या लगता है, महाराज? कल्पना करें कि महाराज के पास एक किसान गृहस्थ हो, राज-ख़जाने में वृद्धि करनेवाला करदाता! कभी उसे लगे, “पुण्यों की मंज़िल, पुण्यों के फ़ल कमाल हैं, श्रीमान! अद्भुत हैं! मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र मनुष्य है और मैं भी मनुष्य ही हूँ। तब भी मगधराज अजातशत्रु पाँच तरह के कामभोग से संपन्न, समग्र आपूर्ति होकर उसमें लिप्त रहता है, जैसे देवता रहते हो। जबकि मैं एक किसान गृहस्थ हूँ, राज-ख़जाने में वृद्धि करनेवाला करदाता! मुझे भी पुण्य करने चाहिए। क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?” तब वह समय पाकर सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाता है। प्रवज्यित होकर वह काया से सँवर कर, वाणी से सँवर कर, मन से सँवर कर रहता है। तुच्छ भोजन और चीवर मात्र से संतुष्ट, निर्लिप्त-एकांतवास में प्रसन्न रहता है।
तब कोई आपका पुरुष आकर महाराज को सूचित करे, “महामहिम जान ले कि महाराज का किसान गृहस्थ, राज-ख़जाने में वृद्धि करनेवाला करदाता, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो गया है। प्रवज्यित होकर वह काया से सँवर कर, वाणी से सँवर कर, मन से सँवर कर रहता है। तुच्छ भोजन और चीवर मात्र से संतुष्ट, निर्लिप्त-एकांतवास में प्रसन्न रहता है।”
तब सूचना पाकर क्या महाराज ऐसा कहेंगे? — “जाओ, उस पुरुष को मेरे पास ले आओ! उसे फिर से किसान गृहस्थ, राज-ख़जाने में वृद्धि करनेवाला करदाता बनाओं!”
“कदापि नहीं, भन्ते! बल्कि वह मैं होना चाहिए, जो उसे अभिवादन करे, उसके सम्मान में उठे, उसे बैठने के लिए आसन दे, और उसे भोजन, चीवर, आवास और रोग निवारण के लिए आवश्यक औषधि आदि की दान-दक्षिणा स्वीकार कराने के लिए आमंत्रित करे। और धर्मानुसार मैं उसकी सुरक्षा, बचाव और देखभाल करूँगा।”
“तो क्या लगता है, महाराज? जब ऐसा हो, तो श्रामण्य-फ़ल प्रत्यक्ष दिखता है अथवा नहीं?”
“हाँ, भन्ते! जब ऐसा हो, तो निश्चित ही श्रामण्य-फ़ल प्रत्यक्ष दिखता है।”
“यह, महाराज, मेरा दर्शाया दूसरा श्रामण्य-फ़ल है, जो प्रत्यक्ष दिखता है।”
“भन्ते, क्या और भी कोई प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल है, जिसे दर्शाया जा सकता है?”
“ज़रूर बताएँ जा सकते हैं, महाराज! तब ध्यान देकर गौर से सुनिए। मैं बताता हूँ।”
“जैसे कहें, भन्ते!” मगधराज अजातशत्रु वैदेहिपुत्र ने उत्तर दिया।
भगवान ने कहा, “ऐसा होता है, महाराज! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, महाराज, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
इस तरह, महाराज, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, महाराज, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, महाराज, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, महाराज, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, महाराज, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, महाराज, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, महाराज, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, महाराज, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, महाराज, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, महाराज, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, महाराज, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, महाराज, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, महाराज, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, महाराज, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, महाराज, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, महाराज, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, महाराज, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, महाराज, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, महाराज, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, महाराज, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, महाराज, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, महाराज, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
विपश्यना ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, महाराज, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, महाराज, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, महाराज, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, महाराज, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, महाराज, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, महाराज, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, महाराज, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, महाराज, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, महाराज, यह प्रत्यक्ष दिखनेवाला श्रामण्य-फ़ल भी, पहले के श्रामण्य-फ़लों की तुलना में अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। और इस श्रामण्य-फ़ल से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कुछ नहीं है।
जब ऐसा कहा गया, तब मगधराज अजातशत्रु कह पड़ा, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म और संघ की भी! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें! भन्ते, मैंने [घोर] उल्लंघन कर अपराध किया है, जो मैंने इतनी मूर्खता-वश, इतनी मूढ़ता-वश, इतनी अकुशलता-वश, सत्ता के लिए अपने धार्मिक धर्मराज-पिता की हत्या कर दी। भगवान मेरे उस उल्लंघन को अपराध के तौर पर स्वीकार करें, ताकि मैं भविष्य में सँवर कर रह पाऊँ!”
“वाकई, महाराज, आपने [घोर] उल्लंघन कर अपराध किया है, जो इतनी मूर्खता-वश, इतनी मूढ़ता-वश, इतनी अकुशलता-वश, सत्ता के लिए अपने धार्मिक, धर्मराज-पिता की हत्या कर दी। किन्तु चूँकि आप उस उल्लंघन को अपराध मानते हैं और धर्मानुसार सुधार करते हैं, तो हम उसका स्वीकार करते हैं। क्योंकि, आर्य-धर्म में इसे वृद्धि ही माना जाता है कि जब कोई अपने उल्लंघन को अपराध माने, और भविष्य में धर्मानुसार सँवर कर रहे।”
जब ऐसा कहा गया, तब मगधराज अजातशत्रु ने कहा, “ठीक है, भन्ते! तब आपकी अनुमति चाहता हूँ। बहुत कर्तव्य हैं हमारे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”
“तब, महाराज, जिसका उचित समय समझें!”
तब मगधराज अजातशत्रु वैदेहीपुत्र ने भगवान की बातों का अभिनन्दन करते हुए, अनुमोदन करते हुए, आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया। मगधराज अजातशत्रु के जाने के पश्चात भगवान ने भिक्षुओं को कहा, “राजा आहत है, भिक्षुओं! राजा क्षतिग्रस्त है! यदि उसने अपने धार्मिक, धर्मराज-पिता की हत्या न की होती, तो उसे इसी आसन पर बैठे हुए धुलरहित निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए होते।”
भगवान ने ऐसा कहा। संतुष्ट हुए भिक्षुओं ने भगवान के कथन का अनुमोदन किया।
राजामच्चकथा
१५०. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा राजगहे विहरति जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवने महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं अड्ढतेळसेहि भिक्खुसतेहि। तेन खो पन समयेन राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे पन्नरसे कोमुदिया चातुमासिनिया पुण्णाय पुण्णमाय रत्तिया राजामच्चपरिवुतो उपरिपासादवरगतो निसिन्नो होति। अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तदहुपोसथे उदानं उदानेसि – ‘‘रमणीया वत भो दोसिना रत्ति, अभिरूपा वत भो दोसिना रत्ति, दस्सनीया वत भो दोसिना रत्ति, पासादिका वत भो दोसिना रत्ति, लक्खञ्ञा वत भो दोसिना रत्ति। कं नु ख्वज्ज समणं वा ब्राह्मणं वा पयिरुपासेय्याम, यं नो पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति?
१५१. एवं वुत्ते, अञ्ञतरो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, पूरणो कस्सपो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो पूरणं कस्सपं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स पूरणं कस्सपं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५२. अञ्ञतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, मक्खलि गोसालो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो मक्खलिं गोसालं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स मक्खलिं गोसालं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५३. अञ्ञतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, अजितो केसकम्बलो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो अजितं केसकम्बलं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स अजितं केसकम्बलं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५४. अञ्ञतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, पकुधो [पकुद्धो (सी॰)] कच्चायनो सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो पकुधं कच्चायनं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स पकुधं कच्चायनं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५५. अञ्ञतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, सञ्चयो [सञ्जयो (सी॰ स्या॰)] बेलट्ठपुत्तो [बेल्लट्ठिपुत्तो (सी॰), वेलट्ठपुत्तो (स्या॰)] सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
१५६. अञ्ञतरोपि खो राजामच्चो राजानं मागधं अजातसत्तुं वेदेहिपुत्तं एतदवोच – ‘‘अयं, देव, निगण्ठो नाटपुत्तो [नाथपुत्तो (सी॰), नातपुत्तो (पी॰)] सङ्घी चेव गणी च गणाचरियो च ञातो यसस्सी तित्थकरो साधुसम्मतो बहुजनस्स रत्तञ्ञू चिरपब्बजितो अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। तं देवो निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स निगण्ठं नाटपुत्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’’ति। एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्ही अहोसि।
कोमारभच्चजीवककथा
१५७. तेन खो पन समयेन जीवको कोमारभच्चो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे तुण्हीभूतो निसिन्नो होति। अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच – ‘‘त्वं पन, सम्म जीवक, किं तुण्ही’’ति? ‘‘अयं, देव, भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो अम्हाकं अम्बवने विहरति महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं अड्ढतेळसेहि भिक्खुसतेहि। तं खो पन भगवन्तं [भगवन्तं गोतमं (सी॰ क॰ पी॰)] एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। तं देवो भगवन्तं पयिरुपासतु। अप्पेव नाम देवस्स भगवन्तं पयिरुपासतो चित्तं पसीदेय्या’ति।
१५८. ‘‘तेन हि, सम्म जीवक, हत्थियानानि कप्पापेही’’ति। ‘‘एवं, देवा’’ति खो जीवको कोमारभच्चो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिस्सुणित्वा पञ्चमत्तानि हत्थिनिकासतानि कप्पापेत्वा रञ्ञो च आरोहणीयं नागं, रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स पटिवेदेसि – ‘‘कप्पितानि खो ते, देव, हत्थियानानि, यस्सदानि कालं मञ्ञसी’’ति।
१५९. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चसु हत्थिनिकासतेसु पच्चेका इत्थियो आरोपेत्वा आरोहणीयं नागं अभिरुहित्वा उक्कासु धारियमानासु राजगहम्हा निय्यासि महच्चराजानुभावेन, येन जीवकस्स कोमारभच्चस्स अम्बवनं तेन पायासि।
अथ खो रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स अविदूरे अम्बवनस्स अहुदेव भयं, अहु छम्भितत्तं, अहु लोमहंसो। अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच – ‘‘कच्चि मं, सम्म जीवक, न वञ्चेसि? कच्चि मं, सम्म जीवक, न पलम्भेसि? कच्चि मं, सम्म जीवक, न पच्चत्थिकानं देसि? कथञ्हि नाम ताव महतो भिक्खुसङ्घस्स अड्ढतेळसानं भिक्खुसतानं नेव खिपितसद्दो भविस्सति, न उक्कासितसद्दो न निग्घोसो’’ति।
‘‘मा भायि, महाराज, मा भायि, महाराज। न तं देव, वञ्चेमि; न तं, देव, पलम्भामि; न तं, देव, पच्चत्थिकानं देमि। अभिक्कम, महाराज, अभिक्कम, महाराज, एते मण्डलमाळे दीपा [पदीपा (सी॰ स्या॰)] झायन्ती’’ति।
सामञ्ञफलपुच्छा
१६०. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो यावतिका नागस्स भूमि नागेन गन्त्वा, नागा पच्चोरोहित्वा, पत्तिकोव [पदिकोव (स्या॰)] येन मण्डलमाळस्स द्वारं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा जीवकं कोमारभच्चं एतदवोच – ‘‘कहं पन, सम्म जीवक, भगवा’’ति? ‘‘एसो, महाराज, भगवा; एसो, महाराज, भगवा मज्झिमं थम्भं निस्साय पुरत्थाभिमुखो निसिन्नो पुरक्खतो भिक्खुसङ्घस्सा’’ति।
१६१. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो तुण्हीभूतं तुण्हीभूतं भिक्खुसङ्घं अनुविलोकेत्वा रहदमिव विप्पसन्नं उदानं उदानेसि – ‘‘इमिना मे उपसमेन उदयभद्दो [उदायिभद्दो (सी॰ पी॰)] कुमारो समन्नागतो होतु, येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो’’ति। ‘‘अगमा खो त्वं, महाराज, यथापेम’’न्ति। ‘‘पियो मे, भन्ते, उदयभद्दो कुमारो। इमिना मे, भन्ते, उपसमेन उदयभद्दो कुमारो समन्नागतो होतु येनेतरहि उपसमेन भिक्खुसङ्घो समन्नागतो’’ति।
१६२. अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा, भिक्खुसङ्घस्स अञ्जलिं पणामेत्वा, एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुच्छेय्यामहं, भन्ते, भगवन्तं किञ्चिदेव देसं [किञ्चिदेव देसं लेसमत्तं (स्या॰ कं॰ क॰)]; सचे मे भगवा ओकासं करोति पञ्हस्स वेय्याकरणाया’’ति। ‘‘पुच्छ, महाराज, यदाकङ्खसी’’ति।
१६३. ‘‘यथा नु खो इमानि, भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि, सेय्यथिदं – हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका [नहापिका (सी॰), न्हापिका (स्या॰)] सूदा मालाकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनञ्ञानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति; ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति [पीनेन्ति (कत्थचि)], मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु [समणेसु ब्राह्मणेसु (क॰)] उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं। सक्का नु खो, भन्ते, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’’न्ति?
१६४. ‘‘अभिजानासि नो त्वं, महाराज, इमं पञ्हं अञ्ञे समणब्राह्मणे पुच्छिता’’ति? ‘‘अभिजानामहं, भन्ते, इमं पञ्हं अञ्ञे समणब्राह्मणे पुच्छिता’’ति। ‘‘यथा कथं पन ते, महाराज, ब्याकरिंसु, सचे ते अगरु भासस्सू’’ति। ‘‘न खो मे, भन्ते, गरु, यत्थस्स भगवा निसिन्नो, भगवन्तरूपो वा’’ति [चाति (सी॰ क॰)]। ‘‘तेन हि, महाराज, भासस्सू’’ति।
पूरणकस्सपवादो
१६५. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन पूरणो कस्सपो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पूरणेन कस्सपेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, पूरणं कस्सपं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो कस्सप, पुथुसिप्पायतनानि, सेय्यथिदं – हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका सूदा मालाकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनञ्ञानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि- ते दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति; ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं। सक्का नु खो, भो कस्सप, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१६६. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, पूरणो कस्सपो मं एतदवोच – ‘करोतो खो, महाराज, कारयतो, छिन्दतो छेदापयतो, पचतो पाचापयतो सोचयतो, सोचापयतो, किलमतो किलमापयतो, फन्दतो फन्दापयतो, पाणमतिपातापयतो, अदिन्नं आदियतो, सन्धिं छिन्दतो, निल्लोपं हरतो, एकागारिकं करोतो, परिपन्थे तिट्ठतो, परदारं गच्छतो, मुसा भणतो, करोतो न करीयति पापं। खुरपरियन्तेन चेपि चक्केन यो इमिस्सा पथविया पाणे एकं मंसखलं एकं मंसपुञ्जं करेय्य, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो। दक्खिणं चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य हनन्तो घातेन्तो छिन्दन्तो छेदापेन्तो पचन्तो पाचापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पापं, नत्थि पापस्स आगमो। उत्तरञ्चेपि गङ्गाय तीरं गच्छेय्य ददन्तो दापेन्तो यजन्तो यजापेन्तो, नत्थि ततोनिदानं पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो। दानेन दमेन संयमेन सच्चवज्जेन नत्थि पुञ्ञं, नत्थि पुञ्ञस्स आगमो’ति। इत्थं खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि।
‘‘सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, पूरणो कस्सपो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो अकिरियं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, पूरणस्स कस्सपस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिकोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो [अनिक्कुज्जेन्तो (स्या॰ कं॰ क॰)] उट्ठायासना पक्कमिं [पक्कामिं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)]।
मक्खलिगोसालवादो
१६७. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन मक्खलि गोसालो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा मक्खलिना गोसालेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, मक्खलिं गोसालं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो गोसाल, पुथुसिप्पायतनानि…पे॰… सक्का नु खो, भो गोसाल, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१६८. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, मक्खलि गोसालो मं एतदवोच – ‘नत्थि महाराज हेतु नत्थि पच्चयो सत्तानं संकिलेसाय, अहेतू [अहेतु (कत्थचि)] अपच्चया सत्ता संकिलिस्सन्ति। नत्थि हेतु, नत्थि पच्चयो सत्तानं विसुद्धिया, अहेतू अपच्चया सत्ता विसुज्झन्ति। नत्थि अत्तकारे, नत्थि परकारे, नत्थि पुरिसकारे, नत्थि बलं, नत्थि वीरियं, नत्थि पुरिसथामो, नत्थि पुरिसपरक्कमो। सब्बे सत्ता सब्बे पाणा सब्बे भूता सब्बे जीवा अवसा अबला अवीरिया नियतिसङ्गतिभावपरिणता छस्वेवाभिजातीसु सुखदुक्खं [सुखञ्च दुक्खञ्च (स्या॰)] पटिसंवेदेन्ति। चुद्दस खो पनिमानि योनिपमुखसतसहस्सानि सट्ठि च सतानि छ च सतानि पञ्च च कम्मुनो सतानि पञ्च च कम्मानि तीणि च कम्मानि कम्मे च अड्ढकम्मे च द्वट्ठिपटिपदा द्वट्ठन्तरकप्पा छळाभिजातियो अट्ठ पुरिसभूमियो एकूनपञ्ञास आजीवकसते एकूनपञ्ञास परिब्बाजकसते एकूनपञ्ञास नागावाससते वीसे इन्द्रियसते तिंसे निरयसते छत्तिंस रजोधातुयो सत्त सञ्ञीगब्भा सत्त असञ्ञीगब्भा सत्त निगण्ठिगब्भा सत्त देवा सत्त मानुसा सत्त पिसाचा सत्त सरा सत्त पवुटा [सपुटा (क॰), पबुटा (सी॰)] सत्त पवुटसतानि सत्त पपाता सत्त पपातसतानि सत्त सुपिना सत्त सुपिनसतानि चुल्लासीति महाकप्पिनो [महाकप्पुनो (क॰ सी॰ पी॰)] सतसहस्सानि, यानि बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ति। तत्थ नत्थि ‘‘इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा अपरिपक्कं वा कम्मं परिपाचेस्सामि, परिपक्कं वा कम्मं फुस्स फुस्स ब्यन्तिं करिस्सामी’ति हेवं नत्थि। दोणमिते सुखदुक्खे परियन्तकते संसारे, नत्थि हायनवड्ढने, नत्थि उक्कंसावकंसे। सेय्यथापि नाम सुत्तगुळे खित्ते निब्बेठियमानमेव पलेति, एवमेव बाले च पण्डिते च सन्धावित्वा संसरित्वा दुक्खस्सन्तं करिस्सन्ती’ति।
१६९. ‘‘इत्थं खो मे, भन्ते, मक्खलि गोसालो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो संसारसुद्धिं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, मक्खलि गोसालो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो संसारसुद्धिं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, मक्खलिस्स गोसालस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा, तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं।
अजितकेसकम्बलवादो
१७०. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन अजितो केसकम्बलो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा अजितेन केसकम्बलेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, अजितं केसकम्बलं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो अजित, पुथुसिप्पायतनानि…पे॰… सक्का नु खो, भो अजित, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१७१. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, अजितो केसकम्बलो मं एतदवोच – ‘नत्थि, महाराज, दिन्नं, नत्थि यिट्ठं, नत्थि हुतं, नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको, नत्थि अयं लोको [परलोको (स्या॰)], नत्थि परो लोको, नत्थि माता, नत्थि पिता, नत्थि सत्ता ओपपातिका, नत्थि लोके समणब्राह्मणा सम्मग्गता [समग्गता (क॰), समग्गता (स्या॰)] सम्मापटिपन्ना, ये इमञ्च लोकं परञ्च लोकं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेन्ति। चातुमहाभूतिको अयं पुरिसो, यदा कालङ्करोति, पथवी पथविकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आपो आपोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, तेजो तेजोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, वायो वायोकायं अनुपेति अनुपगच्छति, आकासं इन्द्रियानि सङ्कमन्ति। आसन्दिपञ्चमा पुरिसा मतं आदाय गच्छन्ति। यावाळाहना पदानि पञ्ञायन्ति। कापोतकानि अट्ठीनि भवन्ति, भस्सन्ता आहुतियो। दत्तुपञ्ञत्तं यदिदं दानं। तेसं तुच्छं मुसा विलापो ये केचि अत्थिकवादं वदन्ति। बाले च पण्डिते च कायस्स भेदा उच्छिज्जन्ति विनस्सन्ति, न होन्ति परं मरणा’ति।
१७२. ‘‘इत्थं खो मे, भन्ते, अजितो केसकम्बलो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो उच्छेदं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, अजितो केसकम्बलो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो उच्छेदं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, अजितस्स केसकम्बलस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं।
पकुधकच्चायनवादो
१७३. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन पकुधो कच्चायनो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा पकुधेन कच्चायनेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, पकुधं कच्चायनं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो कच्चायन, पुथुसिप्पायतनानि…पे॰… सक्का नु खो, भो कच्चायन, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१७४. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, पकुधो कच्चायनो मं एतदवोच – ‘सत्तिमे, महाराज, काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता। ते न इञ्जन्ति, न विपरिणमन्ति, न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति, नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा। कतमे सत्त? पथविकायो, आपोकायो, तेजोकायो, वायोकायो, सुखे, दुक्खे, जीवे सत्तमे – इमे सत्त काया अकटा अकटविधा अनिम्मिता अनिम्माता वञ्झा कूटट्ठा एसिकट्ठायिट्ठिता। ते न इञ्जन्ति, न विपरिणमन्ति, न अञ्ञमञ्ञं ब्याबाधेन्ति, नालं अञ्ञमञ्ञस्स सुखाय वा दुक्खाय वा सुखदुक्खाय वा। तत्थ नत्थि हन्ता वा घातेता वा, सोता वा सावेता वा, विञ्ञाता वा विञ्ञापेता वा। योपि तिण्हेन सत्थेन सीसं छिन्दति, न कोचि किञ्चि [कञ्चि (कं॰)] जीविता वोरोपेति; सत्तन्नं त्वेव [सत्तन्नं येव (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] कायानमन्तरेन सत्थं विवरमनुपतती’ति।
१७५. ‘‘इत्थं खो मे, भन्ते, पकुधो कच्चायनो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो अञ्ञेन अञ्ञं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, पकुधो कच्चायनो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो अञ्ञेन अञ्ञं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, पकुधस्स कच्चायनस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं, अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो, अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं।
निगण्ठनाटपुत्तवादो
१७६. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन निगण्ठो नाटपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा निगण्ठेन नाटपुत्तेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं, भन्ते, निगण्ठं नाटपुत्तं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो अग्गिवेस्सन, पुथुसिप्पायतनानि…पे॰… सक्का नु खो, भो अग्गिवेस्सन, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१७७. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो मं एतदवोच – ‘इध, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति। कथञ्च, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति? इध, महाराज, निगण्ठो सब्बवारिवारितो च होति, सब्बवारियुत्तो च, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो च। एवं खो, महाराज, निगण्ठो चातुयामसंवरसंवुतो होति। यतो खो, महाराज, निगण्ठो एवं चातुयामसंवरसंवुतो होति; अयं वुच्चति, महाराज, निगण्ठो [निगण्ठो नाटपुत्तो (स्या॰ क॰)] गतत्तो च यतत्तो च ठितत्तो चा’ति।
१७८. ‘‘इत्थं खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, निगण्ठो नाटपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो चातुयामसंवरं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, निगण्ठस्स नाटपुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं।
सञ्चयबेलट्ठपुत्तवादो
१७९. ‘‘एकमिदाहं, भन्ते, समयं येन सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो तेनुपसङ्कमिं; उपसङ्कमित्वा सञ्चयेन बेलट्ठपुत्तेन सद्धिं सम्मोदिं। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिं। एकमन्तं निसिन्नो खो अहं भन्ते, सञ्चयं बेलट्ठपुत्तं एतदवोचं – ‘यथा नु खो इमानि, भो सञ्चय, पुथुसिप्पायतनानि…पे॰… सक्का नु खो, भो सञ्चय, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१८०. ‘‘एवं वुत्ते, भन्ते, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो मं एतदवोच – ‘अत्थि परो लोकोति इति चे मं पुच्छसि, अत्थि परो लोकोति इति चे मे अस्स, अत्थि परो लोकोति इति ते नं ब्याकरेय्यं। एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो। नत्थि परो लोको…पे॰… अत्थि च नत्थि च परो लोको…पे॰… नेवत्थि न नत्थि परो लोको…पे॰… अत्थि सत्ता ओपपातिका…पे॰… नत्थि सत्ता ओपपातिका…पे॰… अत्थि च नत्थि च सत्ता ओपपातिका…पे॰… नेवत्थि न नत्थि सत्ता ओपपातिका…पे॰… अत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰…अत्थि च नत्थि च सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… नेवत्थि न नत्थि सुकतदुक्कटानं कम्मानं फलं विपाको…पे॰… होति तथागतो परं मरणा…पे॰… न होति तथागतो परं मरणा…पे॰… होति च न च होति तथागतो परं मरणा…पे॰… नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मं पुच्छसि, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति चे मे अस्स, नेव होति न न होति तथागतो परं मरणाति इति ते नं ब्याकरेय्यं। एवन्तिपि मे नो, तथातिपि मे नो, अञ्ञथातिपि मे नो, नोतिपि मे नो, नो नोतिपि मे नो’ति।
१८१. ‘‘इत्थं खो मे, भन्ते, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकासि। सेय्यथापि, भन्ते, अम्बं वा पुट्ठो लबुजं ब्याकरेय्य, लबुजं वा पुट्ठो अम्बं ब्याकरेय्य; एवमेव खो मे, भन्ते, सञ्चयो बेलट्ठपुत्तो सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकासि। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘अयञ्च इमेसं समणब्राह्मणानं सब्बबालो सब्बमूळ्हो। कथञ्हि नाम सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुट्ठो समानो विक्खेपं ब्याकरिस्सती’ति। तस्स मय्हं, भन्ते, एतदहोसि – ‘कथञ्हि नाम मादिसो समणं वा ब्राह्मणं वा विजिते वसन्तं अपसादेतब्बं मञ्ञेय्या’ति। सो खो अहं, भन्ते, सञ्चयस्स बेलट्ठपुत्तस्स भासितं नेव अभिनन्दिं नप्पटिक्कोसिं। अनभिनन्दित्वा अप्पटिक्कोसित्वा अनत्तमनो अनत्तमनवाचं अनिच्छारेत्वा तमेव वाचं अनुग्गण्हन्तो अनिक्कुज्जन्तो उट्ठायासना पक्कमिं।
पठमसन्दिट्ठिकसामञ्ञफलं
१८२. ‘‘सोहं, भन्ते, भगवन्तम्पि पुच्छामि – ‘यथा नु खो इमानि, भन्ते, पुथुसिप्पायतनानि सेय्यथिदं – हत्थारोहा अस्सारोहा रथिका धनुग्गहा चेलका चलका पिण्डदायका उग्गा राजपुत्ता पक्खन्दिनो महानागा सूरा चम्मयोधिनो दासिकपुत्ता आळारिका कप्पका न्हापका सूदा मालाकारा रजका पेसकारा नळकारा कुम्भकारा गणका मुद्दिका, यानि वा पनञ्ञानिपि एवंगतानि पुथुसिप्पायतनानि, ते दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सिप्पफलं उपजीवन्ति, ते तेन अत्तानं सुखेन्ति पीणेन्ति, मातापितरो सुखेन्ति पीणेन्ति, पुत्तदारं सुखेन्ति पीणेन्ति, मित्तामच्चे सुखेन्ति पीणेन्ति, समणब्राह्मणेसु उद्धग्गिकं दक्खिणं पतिट्ठपेन्ति सोवग्गिकं सुखविपाकं सग्गसंवत्तनिकं। सक्का नु खो मे, भन्ते, एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’न्ति?
१८३. ‘‘सक्का, महाराज। तेन हि, महाराज, तञ्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि। यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि। तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध ते अस्स पुरिसो दासो कम्मकारो [कम्मकरो (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको [मुखुल्लोकिको (स्या॰ कं॰ क॰)]। तस्स एवमस्स – ‘अच्छरियं, वत भो, अब्भुतं, वत भो, पुञ्ञानं गति, पुञ्ञानं विपाको। अयञ्हि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो मनुस्सो; अहम्पि मनुस्सो। अयञ्हि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, देवो मञ्ञे। अहं पनम्हिस्स दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको। सो वतस्साहं पुञ्ञानि करेय्यं। यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति। सो अपरेन समयेन केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य। सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरेय्य, वाचाय संवुतो विहरेय्य, मनसा संवुतो विहरेय्य, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके। तं चे ते पुरिसा एवमारोचेय्युं – ‘यग्घे देव जानेय्यासि, यो ते सो पुरिसो [यो ते पुरिसो (सी॰ क॰)] दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको; सो, देव, केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरति, वाचाय संवुतो विहरति, मनसा संवुतो विहरति, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके’ति। अपि नु त्वं एवं वदेय्यासि – ‘एतु मे, भो, सो पुरिसो, पुनदेव होतु दासो कम्मकारो पुब्बुट्ठायी पच्छानिपाती किङ्कारपटिस्सावी मनापचारी पियवादी मुखुल्लोकको’ति?
१८४. ‘‘नो हेतं, भन्ते। अथ खो नं मयमेव अभिवादेय्यामपि, पच्चुट्ठेय्यामपि, आसनेनपि निमन्तेय्याम, अभिनिमन्तेय्यामपि नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि, धम्मिकम्पिस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्यामा’’ति।
१८५. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज, यदि एवं सन्ते होति वा सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं नो वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते होति सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफल’’न्ति। ‘‘इदं खो ते, महाराज, मया पठमं दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञत्त’’न्ति।
दुतियसन्दिट्ठिकसामञ्ञफलं
१८६. ‘‘सक्का पन, भन्ते, अञ्ञम्पि एवमेव दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतु’’न्ति? ‘‘सक्का, महाराज। तेन हि, महाराज, तञ्ञेवेत्थ पटिपुच्छिस्सामि। यथा ते खमेय्य, तथा नं ब्याकरेय्यासि। तं किं मञ्ञसि, महाराज, इध ते अस्स पुरिसो कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्ढको। तस्स एवमस्स – ‘अच्छरियं वत भो, अब्भुतं वत भो, पुञ्ञानं गति, पुञ्ञानं विपाको। अयञ्हि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो मनुस्सो, अहम्पि मनुस्सो। अयञ्हि राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितो समङ्गीभूतो परिचारेति, देवो मञ्ञे। अहं पनम्हिस्स कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्ढको। सो वतस्साहं पुञ्ञानि करेय्यं। यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति।
‘‘सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय, अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य। सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरेय्य, वाचाय संवुतो विहरेय्य, मनसा संवुतो विहरेय्य, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके। तं चे ते पुरिसा एवमारोचेय्युं – ‘यग्घे, देव जानेय्यासि, यो ते सो पुरिसो [यो ते पुरिसो (सी॰)] कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्ढको; सो देव केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो। सो एवं पब्बजितो समानो कायेन संवुतो विहरति, वाचाय संवुतो विहरति, मनसा संवुतो विहरति, घासच्छादनपरमताय सन्तुट्ठो, अभिरतो पविवेके’’ति। अपि नु त्वं एवं वदेय्यासि – ‘एतु मे, भो, सो पुरिसो, पुनदेव होतु कस्सको गहपतिको करकारको रासिवड्ढको’ति?
१८७. ‘‘नो हेतं, भन्ते। अथ खो नं मयमेव अभिवादेय्यामपि, पच्चुट्ठेय्यामपि, आसनेनपि निमन्तेय्याम, अभिनिमन्तेय्यामपि नं चीवरपिण्डपातसेनासनगिलानप्पच्चयभेसज्जपरिक्खारेहि, धम्मिकम्पिस्स रक्खावरणगुत्तिं संविदहेय्यामा’’ति।
१८८. ‘‘तं किं मञ्ञसि, महाराज? यदि एवं सन्ते होति वा सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं नो वा’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते होति सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफल’’न्ति। ‘‘इदं खो ते, महाराज, मया दुतियं दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञत्त’’न्ति।
पणीततरसामञ्ञफलं
१८९. ‘‘सक्का पन, भन्ते, अञ्ञम्पि दिट्ठेव धम्मे सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पञ्ञपेतुं इमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्चा’’ति? ‘‘सक्का, महाराज। तेन हि, महाराज, सुणोहि, साधुकं मनसि करोहि, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो पच्चस्सोसि।
१९०. भगवा एतदवोच – ‘‘इध, महाराज, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति।
१९१. ‘‘तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो। सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति। सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति – ‘सम्बाधो घरावासो रजोपथो, अब्भोकासो पब्बज्जा। नयिदं सुकरं अगारं अज्झावसता एकन्तपरिपुण्णं एकन्तपरिसुद्धं सङ्खलिखितं ब्रह्मचरियं चरितुं। यंनूनाहं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजेय्य’न्ति।
१९२. ‘‘सो अपरेन समयेन अप्पं वा भोगक्खन्धं पहाय महन्तं वा भोगक्खन्धं पहाय अप्पं वा ञातिपरिवट्टं पहाय महन्तं वा ञातिपरिवट्टं पहाय केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजति।
१९३. ‘‘सो एवं पब्बजितो समानो पातिमोक्खसंवरसंवुतो विहरति आचारगोचरसम्पन्नो, अणुमत्तेसु वज्जेसु भयदस्सावी, समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन, परिसुद्धाजीवो सीलसम्पन्नो, इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो [गुत्तद्वारो, भोजने मत्तञ्ञू (क॰)], सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो, सन्तुट्ठो।
चूळसीलं
१९४. ‘‘कथञ्च, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति? इध, महाराज, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति। निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘अदिन्नादानं पहाय अदिन्नादाना पटिविरतो होति दिन्नादायी दिन्नपाटिकङ्खी, अथेनेन सुचिभूतेन अत्तना विहरति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘अब्रह्मचरियं पहाय ब्रह्मचारी होति आराचारी विरतो मेथुना गामधम्मा। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘मुसावादं पहाय मुसावादा पटिविरतो होति सच्चवादी सच्चसन्धो थेतो पच्चयिको अविसंवादको लोकस्स। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘पिसुणं वाचं पहाय पिसुणाय वाचाय पटिविरतो होति; इतो सुत्वा न अमुत्र अक्खाता इमेसं भेदाय; अमुत्र वा सुत्वा न इमेसं अक्खाता, अमूसं भेदाय। इति भिन्नानं वा सन्धाता, सहितानं वा अनुप्पदाता, समग्गारामो समग्गरतो समग्गनन्दी समग्गकरणिं वाचं भासिता होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘फरुसं वाचं पहाय फरुसाय वाचाय पटिविरतो होति; या सा वाचा नेला कण्णसुखा पेमनीया हदयङ्गमा पोरी बहुजनकन्ता बहुजनमनापा तथारूपिं वाचं भासिता होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘सम्फप्पलापं पहाय सम्फप्पलापा पटिविरतो होति कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी, निधानवतिं वाचं भासिता होति कालेन सापदेसं परियन्तवतिं अत्थसंहितं। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
‘‘बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति…पे॰… एकभत्तिको होति रत्तूपरतो विरतो विकालभोजना। नच्चगीतवादितविसूकदस्सना पटिविरतो होति। मालागन्धविलेपनधारणमण्डनविभूसनट्ठाना पटिविरतो होति। उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति। जातरूपरजतपटिग्गहणा पटिविरतो होति। आमकधञ्ञपटिग्गहणा पटिविरतो होति। आमकमंसपटिग्गहणा पटिविरतो होति। इत्थिकुमारिकपटिग्गहणा पटिविरतो होति। दासिदासपटिग्गहणा पटिविरतो होति। अजेळकपटिग्गहणा पटिविरतो होति। कुक्कुटसूकरपटिग्गहणा पटिविरतो होति। हत्थिगवस्सवळवपटिग्गहणा पटिविरतो होति। खेत्तवत्थुपटिग्गहणा पटिविरतो होति। दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति। कयविक्कया पटिविरतो होति। तुलाकूटकंसकूटमानकूटा पटिविरतो होति। उक्कोटनवञ्चननिकतिसाचियोगा पटिविरतो होति। छेदनवधबन्धनविपरामोसआलोपसहसाकारा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
चूळसीलं निट्ठितं।
मज्झिमसीलं
१९५. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं बीजगामभूतगामसमारम्भं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – मूलबीजं खन्धबीजं फळुबीजं अग्गबीजं बीजबीजमेव पञ्चमं, इति एवरूपा बीजगामभूतगामसमारम्भा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
१९६. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं सन्निधिकारपरिभोगं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – अन्नसन्निधिं पानसन्निधिं वत्थसन्निधिं यानसन्निधिं सयनसन्निधिं गन्धसन्निधिं आमिससन्निधिं, इति वा इति एवरूपा सन्निधिकारपरिभोगा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
१९७. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं विसूकदस्सनं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – नच्चं गीतं वादितं पेक्खं अक्खानं पाणिस्सरं वेताळं कुम्भथूणं सोभनकं चण्डालं वंसं धोवनं हत्थियुद्धं अस्सयुद्धं महिंसयुद्धं उसभयुद्धं अजयुद्धं मेण्डयुद्धं कुक्कुटयुद्धं वट्टकयुद्धं दण्डयुद्धं मुट्ठियुद्धं निब्बुद्धं उय्योधिकं बलग्गं सेनाब्यूहं अनीकदस्सनं इति वा इति एवरूपा विसूकदस्सना पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
१९८. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं जूतप्पमादट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – अट्ठपदं दसपदं आकासं परिहारपथं सन्तिकं खलिकं घटिकं सलाकहत्थं अक्खं पङ्गचीरं वङ्ककं मोक्खचिकं चिङ्गुलिकं पत्ताळ्हकं रथकं धनुकं अक्खरिकं मनेसिकं यथावज्जं इति वा इति एवरूपा जूतप्पमादट्ठानानुयोगा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
१९९. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं उच्चासयनमहासयनं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – आसन्दिं पल्लङ्कं गोनकं चित्तकं पटिकं पटलिकं तूलिकं विकतिकं उद्दलोमिं एकन्तलोमिं कट्टिस्सं कोसेय्यं कुत्तकं हत्थत्थरं अस्सत्थरं रथत्थरं अजिनप्पवेणिं कदलिमिगपवरपच्चत्थरणं सउत्तरच्छदं उभतोलोहितकूपधानं इति वा इति एवरूपा उच्चासयनमहासयना पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२००. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – उच्छादनं परिमद्दनं न्हापनं सम्बाहनं आदासं अञ्जनं मालागन्धविलेपनं मुखचुण्णं मुखलेपनं हत्थबन्धं सिखाबन्धं दण्डं नाळिकं असिं [खग्गं (सी॰ पी॰), असिं खग्गं (स्या॰ कं॰), खग्गं असिं (क॰)] छत्तं चित्रुपाहनं उण्हीसं मणिं वालबीजनिं ओदातानि वत्थानि दीघदसानि इति वा इति एवरूपा मण्डनविभूसनट्ठानानुयोगा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०१. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं तिरच्छानकथं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं [इत्थिकथं पुरिसकथं कुमारकथं कुमारिकथं (क॰)] सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानकथाय पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०२. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं विग्गाहिककथं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – न त्वं इमं धम्मविनयं आजानासि, अहं इमं धम्मविनयं आजानामि, किं त्वं इमं धम्मविनयं आजानिस्ससि, मिच्छा पटिपन्नो त्वमसि, अहमस्मि सम्मा पटिपन्नो, सहितं मे, असहितं ते, पुरे वचनीयं पच्छा अवच, पच्छा वचनीयं पुरे अवच, अधिचिण्णं ते विपरावत्तं, आरोपितो ते वादो, निग्गहितो त्वमसि, चर वादप्पमोक्खाय, निब्बेठेहि वा सचे पहोसीति इति वा इति एवरूपाय विग्गाहिककथाय पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०३. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपं दूतेय्यपहिणगमनानुयोगं अनुयुत्ता विहरन्ति। सेय्यथिदं – रञ्ञं, राजमहामत्तानं, खत्तियानं, ब्राह्मणानं, गहपतिकानं, कुमारानं – ‘इध गच्छ, अमुत्रागच्छ, इदं हर, अमुत्र इदं आहरा’ति इति वा इति एवरूपा दूतेय्यपहिणगमनानुयोगा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०४. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते कुहका च होन्ति लपका च नेमित्तिका च निप्पेसिका च लाभेन लाभं निजिगींसितारो च। इति एवरूपा कुहनलपना पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं’’।
मज्झिमसीलं निट्ठितं।
महासीलं
२०५. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – अङ्गं निमित्तं उप्पातं सुपिनं लक्खणं मूसिकच्छिन्नं अग्गिहोमं दब्बिहोमं थुसहोमं कणहोमं तण्डुलहोमं सप्पिहोमं तेलहोमं मुखहोमं लोहितहोमं अङ्गविज्जा वत्थुविज्जा खत्तविज्जा सिवविज्जा भूतविज्जा भूरिविज्जा अहिविज्जा विसविज्जा विच्छिकविज्जा मूसिकविज्जा सकुणविज्जा वायसविज्जा पक्कज्झानं सरपरित्ताणं मिगचक्कं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०६. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – मणिलक्खणं वत्थलक्खणं दण्डलक्खणं सत्थलक्खणं असिलक्खणं उसुलक्खणं धनुलक्खणं आवुधलक्खणं इत्थिलक्खणं पुरिसलक्खणं कुमारलक्खणं कुमारिलक्खणं दासलक्खणं दासिलक्खणं हत्थिलक्खणं अस्सलक्खणं महिंसलक्खणं उसभलक्खणं गोलक्खणं अजलक्खणं मेण्डलक्खणं कुक्कुटलक्खणं वट्टकलक्खणं गोधालक्खणं कण्णिकलक्खणं कच्छपलक्खणं मिगलक्खणं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०७. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – रञ्ञं निय्यानं भविस्सति, रञ्ञं अनिय्यानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं उपयानं भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं अपयानं भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं उपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं अपयानं भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं जयो भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं पराजयो भविस्सति, बाहिरानं रञ्ञं जयो भविस्सति, अब्भन्तरानं रञ्ञं पराजयो भविस्सति, इति इमस्स जयो भविस्सति, इमस्स पराजयो भविस्सति इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०८. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – चन्दग्गाहो भविस्सति, सूरियग्गाहो भविस्सति, नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, उक्कापातो भविस्सति, दिसाडाहो भविस्सति, भूमिचालो भविस्सति, देवदुद्रभि भविस्सति, चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति, एवंविपाको चन्दग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको सूरियग्गाहो भविस्सति, एवंविपाको नक्खत्तग्गाहो भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं पथगमनं भविस्सति, एवंविपाकं नक्खत्तानं उप्पथगमनं भविस्सति, एवंविपाको उक्कापातो भविस्सति, एवंविपाको दिसाडाहो भविस्सति, एवंविपाको भूमिचालो भविस्सति, एवंविपाको देवदुद्रभि भविस्सति, एवंविपाकं चन्दिमसूरियनक्खत्तानं उग्गमनं ओगमनं संकिलेसं वोदानं भविस्सति इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२०९. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – सुवुट्ठिका भविस्सति, दुब्बुट्ठिका भविस्सति, सुभिक्खं भविस्सति, दुब्भिक्खं भविस्सति, खेमं भविस्सति, भयं भविस्सति, रोगो भविस्सति, आरोग्यं भविस्सति, मुद्दा, गणना, सङ्खानं, कावेय्यं, लोकायतं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२१०. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – आवाहनं विवाहनं संवरणं विवरणं सङ्किरणं विकिरणं सुभगकरणं दुब्भगकरणं विरुद्धगब्भकरणं जिव्हानिबन्धनं हनुसंहननं हत्थाभिजप्पनं हनुजप्पनं कण्णजप्पनं आदासपञ्हं कुमारिकपञ्हं देवपञ्हं आदिच्चुपट्ठानं महतुपट्ठानं अब्भुज्जलनं सिरिव्हायनं इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२११. ‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – सन्तिकम्मं पणिधिकम्मं भूतकम्मं भूरिकम्मं वस्सकम्मं वोस्सकम्मं वत्थुकम्मं वत्थुपरिकम्मं आचमनं न्हापनं जुहनं वमनं विरेचनं उद्धंविरेचनं अधोविरेचनं सीसविरेचनं कण्णतेलं नेत्ततप्पनं नत्थुकम्मं अञ्जनं पच्चञ्जनं सालाकियं सल्लकत्तियं दारकतिकिच्छा, मूलभेसज्जानं अनुप्पदानं, ओसधीनं पटिमोक्खो इति वा इति एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलस्मिं।
२१२. ‘‘स खो सो, महाराज, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सेय्यथापि – महाराज, राजा खत्तियो मुद्धाभिसित्तो निहतपच्चामित्तो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं पच्चत्थिकतो; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति। एवं खो, महाराज, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति।
महासीलं निट्ठितं।
इन्द्रियसंवरो
२१३. ‘‘कथञ्च, महाराज, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति? इध, महाराज, भिक्खु चक्खुना रूपं दिस्वा न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं चक्खुन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झा दोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति चक्खुन्द्रियं, चक्खुन्द्रिये संवरं आपज्जति। सोतेन सद्दं सुत्वा…पे॰… घानेन गन्धं घायित्वा…पे॰… जिव्हाय रसं सायित्वा…पे॰… कायेन फोट्ठब्बं फुसित्वा…पे॰… मनसा धम्मं विञ्ञाय न निमित्तग्गाही होति नानुब्यञ्जनग्गाही। यत्वाधिकरणमेनं मनिन्द्रियं असंवुतं विहरन्तं अभिज्झा दोमनस्सा पापका अकुसला धम्मा अन्वास्सवेय्युं, तस्स संवराय पटिपज्जति, रक्खति मनिन्द्रियं, मनिन्द्रिये संवरं आपज्जति। सो इमिना अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो अज्झत्तं अब्यासेकसुखं पटिसंवेदेति। एवं खो, महाराज, भिक्खु इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो होति।
सतिसम्पजञ्ञं
२१४. ‘‘कथञ्च, महाराज, भिक्खु सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो होति? इध, महाराज, भिक्खु अभिक्कन्ते पटिक्कन्ते सम्पजानकारी होति, आलोकिते विलोकिते सम्पजानकारी होति, समिञ्जिते पसारिते सम्पजानकारी होति, सङ्घाटिपत्तचीवरधारणे सम्पजानकारी होति, असिते पीते खायिते सायिते सम्पजानकारी होति, उच्चारपस्सावकम्मे सम्पजानकारी होति, गते ठिते निसिन्ने सुत्ते जागरिते भासिते तुण्हीभावे सम्पजानकारी होति। एवं खो, महाराज, भिक्खु सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो होति।
सन्तोसो
२१५. ‘‘कथञ्च, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति? इध, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन, कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन। सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति। सेय्यथापि, महाराज, पक्खी सकुणो येन येनेव डेति, सपत्तभारोव डेति। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति कायपरिहारिकेन चीवरेन कुच्छिपरिहारिकेन पिण्डपातेन। सो येन येनेव पक्कमति, समादायेव पक्कमति। एवं खो, महाराज, भिक्खु सन्तुट्ठो होति।
नीवरणप्पहानं
२१६. ‘‘सो इमिना च अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन इन्द्रियसंवरेन समन्नागतो, इमिना च अरियेन सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो, इमाय च अरियाय सन्तुट्ठिया समन्नागतो, विवित्तं सेनासनं भजति अरञ्ञं रुक्खमूलं पब्बतं कन्दरं गिरिगुहं सुसानं वनपत्थं अब्भोकासं पलालपुञ्जं। सो पच्छाभत्तं पिण्डपातप्पटिक्कन्तो निसीदति पल्लङ्कं आभुजित्वा उजुं कायं पणिधाय परिमुखं सतिं उपट्ठपेत्वा।
२१७. ‘‘सो अभिज्झं लोके पहाय विगताभिज्झेन चेतसा विहरति, अभिज्झाय चित्तं परिसोधेति। ब्यापादपदोसं पहाय अब्यापन्नचित्तो विहरति सब्बपाणभूतहितानुकम्पी, ब्यापादपदोसा चित्तं परिसोधेति। थिनमिद्धं पहाय विगतथिनमिद्धो विहरति आलोकसञ्ञी, सतो सम्पजानो, थिनमिद्धा चित्तं परिसोधेति। उद्धच्चकुक्कुच्चं पहाय अनुद्धतो विहरति, अज्झत्तं वूपसन्तचित्तो, उद्धच्चकुक्कुच्चा चित्तं परिसोधेति। विचिकिच्छं पहाय तिण्णविचिकिच्छो विहरति, अकथंकथी कुसलेसु धम्मेसु, विचिकिच्छाय चित्तं परिसोधेति।
२१८. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेय्य। तस्स ते कम्मन्ता समिज्झेय्युं। सो यानि च पोराणानि इणमूलानि, तानि च ब्यन्तिं करेय्य [ब्यन्तीकरेय्य (सी॰ स्या॰ कं॰)], सिया चस्स उत्तरिं अवसिट्ठं दारभरणाय। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे इणं आदाय कम्मन्ते पयोजेसिं। तस्स मे ते कम्मन्ता समिज्झिंसु। सोहं यानि च पोराणानि इणमूलानि, तानि च ब्यन्तिं अकासिं, अत्थि च मे उत्तरिं अवसिट्ठं दारभरणाया’ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं।
२१९. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो आबाधिको अस्स दुक्खितो बाळ्हगिलानो; भत्तञ्चस्स नच्छादेय्य, न चस्स काये बलमत्ता। सो अपरेन समयेन तम्हा आबाधा मुच्चेय्य; भत्तं चस्स छादेय्य, सिया चस्स काये बलमत्ता। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे आबाधिको अहोसिं दुक्खितो बाळ्हगिलानो; भत्तञ्च मे नच्छादेसि, न च मे आसि [न चस्स मे (क॰)] काये बलमत्ता। सोम्हि एतरहि तम्हा आबाधा मुत्तो; भत्तञ्च मे छादेति, अत्थि च मे काये बलमत्ता’ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं।
२२०. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो बन्धनागारे बद्धो अस्स। सो अपरेन समयेन तम्हा बन्धनागारा मुच्चेय्य सोत्थिना अब्भयेन [उब्बयेन (सी॰ क॰)], न चस्स किञ्चि भोगानं वयो। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे बन्धनागारे बद्धो अहोसिं, सोम्हि एतरहि तम्हा बन्धनागारा मुत्तो सोत्थिना अब्भयेन। नत्थि च मे किञ्चि भोगानं वयो’ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं।
२२१. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो दासो अस्स अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो। सो अपरेन समयेन तम्हा दासब्या मुच्चेय्य अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे दासो अहोसिं अनत्ताधीनो पराधीनो न येनकामंगमो। सोम्हि एतरहि तम्हा दासब्या मुत्तो अत्ताधीनो अपराधीनो भुजिस्सो येनकामंगमो’ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं।
२२२. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जेय्य दुब्भिक्खं सप्पटिभयं। सो अपरेन समयेन तं कन्तारं नित्थरेय्य सोत्थिना, गामन्तं अनुपापुणेय्य खेमं अप्पटिभयं। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो पुब्बे सधनो सभोगो कन्तारद्धानमग्गं पटिपज्जिं दुब्भिक्खं सप्पटिभयं। सोम्हि एतरहि तं कन्तारं नित्थिण्णो सोत्थिना, गामन्तं अनुप्पत्तो खेमं अप्पटिभय’न्ति। सो ततोनिदानं लभेथ पामोज्जं, अधिगच्छेय्य सोमनस्सं।
२२३. ‘‘एवमेव खो, महाराज, भिक्खु यथा इणं यथा रोगं यथा बन्धनागारं यथा दासब्यं यथा कन्तारद्धानमग्गं, एवं इमे पञ्च नीवरणे अप्पहीने अत्तनि समनुपस्सति।
२२४. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, यथा आणण्यं यथा आरोग्यं यथा बन्धनामोक्खं यथा भुजिस्सं यथा खेमन्तभूमिं; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सति।
२२५. ‘‘तस्सिमे पञ्च नीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति।
पठमज्झानं
२२६. ‘‘सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। सो इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति।
२२७. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, दक्खो न्हापको वा न्हापकन्तेवासी वा कंसथाले न्हानीयचुण्णानि आकिरित्वा उदकेन परिप्फोसकं परिप्फोसकं सन्नेय्य, सायं न्हानीयपिण्डि स्नेहानुगता स्नेहपरेता सन्तरबाहिरा फुटा स्नेहेन, न च पग्घरणी; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं विवेकजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स विवेकजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
दुतियज्झानं
२२८. ‘‘पुन चपरं, महाराज, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। सो इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति।
२२९. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, उदकरहदो गम्भीरो उब्भिदोदको [उब्भितोदको (स्या॰ कं॰ क॰)] तस्स नेवस्स पुरत्थिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न दक्खिणाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न पच्छिमाय दिसाय उदकस्स आयमुखं, न उत्तराय दिसाय उदकस्स आयमुखं, देवो च न कालेनकालं सम्माधारं अनुप्पवेच्छेय्य। अथ खो तम्हाव उदकरहदा सीता वारिधारा उब्भिज्जित्वा तमेव उदकरहदं सीतेन वारिना अभिसन्देय्य परिसन्देय्य परिपूरेय्य परिप्फरेय्य, नास्स किञ्चि सब्बावतो उदकरहदस्स सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं समाधिजेन पीतिसुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स समाधिजेन पीतिसुखेन अप्फुटं होति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
ततियज्झानं
२३०. ‘‘पुन चपरं, महाराज, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। सो इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति।
२३१. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, उप्पलिनियं वा पदुमिनियं वा पुण्डरीकिनियं वा अप्पेकच्चानि उप्पलानि वा पदुमानि वा पुण्डरीकानि वा उदके जातानि उदके संवड्ढानि उदकानुग्गतानि अन्तोनिमुग्गपोसीनि, तानि याव चग्गा याव च मूला सीतेन वारिना अभिसन्नानि परिसन्नानि [अभिसन्दानि परिसन्दानि (क॰)] परिपूरानि परिप्फुटानि [परिप्फुट्ठानि (पी॰)], नास्स किञ्चि सब्बावतं उप्पलानं वा पदुमानं वा पुण्डरीकानं वा सीतेन वारिना अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं निप्पीतिकेन सुखेन अभिसन्देति परिसन्देति परिपूरेति परिप्फरति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स निप्पीतिकेन सुखेन अप्फुटं होति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
चतुत्थज्झानं
२३२. ‘‘पुन चपरं, महाराज, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति, सो इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति।
२३३. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो ओदातेन वत्थेन ससीसं पारुपित्वा निसिन्नो अस्स, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स ओदातेन वत्थेन अप्फुटं अस्स; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु इममेव कायं परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन फरित्वा निसिन्नो होति, नास्स किञ्चि सब्बावतो कायस्स परिसुद्धेन चेतसा परियोदातेन अप्फुटं होति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
विपस्सनाञाणं
२३४. ‘‘सो [पुन चपरं महाराज भिक्खु सो (क॰)] एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो एवं पजानाति – ‘अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादन-परिमद्दन-भेदन-विद्धंसन-धम्मो; इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध’न्ति।
२३५. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो। तत्रास्स सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा [पीतकं वा लोहितकं वा (क॰)] ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा। तमेनं चक्खुमा पुरिसो हत्थे करित्वा पच्चवेक्खेय्य – ‘अयं खो मणि वेळुरियो सुभो जातिमा अट्ठंसो सुपरिकम्मकतो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो सब्बाकारसम्पन्नो; तत्रिदं सुत्तं आवुतं नीलं वा पीतं वा लोहितं वा ओदातं वा पण्डुसुत्तं वा’ति। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो एवं पजानाति – ‘अयं खो मे कायो रूपी चातुमहाभूतिको मातापेत्तिकसम्भवो ओदनकुम्मासूपचयो अनिच्चुच्छादनपरिमद्दनभेदनविद्धंसनधम्मो; इदञ्च पन मे विञ्ञाणं एत्थ सितं एत्थ पटिबद्ध’न्ति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
मनोमयिद्धिञाणं
२३६. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इमम्हा काया अञ्ञं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं।
२३७. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो मुञ्जम्हा ईसिकं पवाहेय्य [पब्बाहेय्य (स्या॰ क॰)]। तस्स एवमस्स – ‘अयं मुञ्जो, अयं ईसिका, अञ्ञो मुञ्जो, अञ्ञा ईसिका, मुञ्जम्हा त्वेव ईसिका पवाळ्हा’ति [पब्बाळ्हाति (स्या॰ क॰)]। सेय्यथा वा पन, महाराज, पुरिसो असिं कोसिया पवाहेय्य। तस्स एवमस्स – ‘अयं असि, अयं कोसि, अञ्ञो असि, अञ्ञा कोसि, कोसिया त्वेव असि पवाळ्हो’’ति। सेय्यथा वा पन, महाराज, पुरिसो अहिं करण्डा उद्धरेय्य। तस्स एवमस्स – ‘अयं अहि, अयं करण्डो। अञ्ञो अहि, अञ्ञो करण्डो, करण्डा त्वेव अहि उब्भतो’ति [उद्धरितो (स्या॰ कं॰)]। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते मनोमयं कायं अभिनिम्मानाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इमम्हा काया अञ्ञं कायं अभिनिम्मिनाति रूपिं मनोमयं सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रियं। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
इद्धिविधञाणं
२३८. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति – एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे। पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके। उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति [अभिज्जमानो (सी॰ क॰)] सेय्यथापि पथविया। आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति। याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति।
२३९. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, दक्खो कुम्भकारो वा कुम्भकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकताय मत्तिकाय यं यदेव भाजनविकतिं आकङ्खेय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य। सेय्यथा वा पन, महाराज, दक्खो दन्तकारो वा दन्तकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं दन्तस्मिं यं यदेव दन्तविकतिं आकङ्खेय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य। सेय्यथा वा पन, महाराज, दक्खो सुवण्णकारो वा सुवण्णकारन्तेवासी वा सुपरिकम्मकतस्मिं सुवण्णस्मिं यं यदेव सुवण्णविकतिं आकङ्खेय्य, तं तदेव करेय्य अभिनिप्फादेय्य। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते इद्धिविधाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति – एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे। पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके। उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथविया। आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो। इमेपि चन्दिमसूरिये एवंमहिद्धिके एवंमहानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति। याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
दिब्बसोतञाणं
२४०. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च।
२४१. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो अद्धानमग्गप्पटिपन्नो। सो सुणेय्य भेरिसद्दम्पि मुदिङ्गसद्दम्पि [मुतिङ्गसद्दम्पि (सी॰ पी॰)] सङ्खपणवदिन्दिमसद्दम्पि [सङ्खपणवदेण्डिमसद्दम्पि (सी॰ पी॰), सङ्खसद्दंपि पणवसद्दंपि देन्दिमसद्दंपि (स्या॰ कं॰)]। तस्स एवमस्स – ‘भेरिसद्दो’ इतिपि, ‘मुदिङ्गसद्दो’ इतिपि, ‘सङ्खपणवदिन्दिमसद्दो’ इतिपि [सङ्खसद्दो इतिपि पणवसद्दो इतिपि देन्दिमसद्दो इतिपि (स्या॰ कं॰)]। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते दिब्बाय सोतधातुया चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो दिब्बाय सोतधातुया विसुद्धाय अतिक्कन्तमानुसिकाय उभो सद्दे सुणाति दिब्बे च मानुसे च ये दूरे सन्तिके च। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
चेतोपरियञाणं
२४२. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरियञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति – सरागं वा चित्तं ‘सरागं चित्त’न्ति पजानाति, वीतरागं वा चित्तं ‘वीतरागं चित्त’न्ति पजानाति, सदोसं वा चित्तं ‘सदोसं चित्त’न्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं ‘वीतदोसं चित्त’न्ति पजानाति, समोहं वा चित्तं ‘समोहं चित्त’न्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं ‘वीतमोहं चित्त’न्ति पजानाति, सङ्खित्तं वा चित्तं ‘सङ्खित्तं चित्त’न्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं ‘विक्खित्तं चित्त’न्ति पजानाति, महग्गतं वा चित्तं ‘महग्गतं चित्त’न्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं ‘अमहग्गतं चित्त’न्ति पजानाति, सउत्तरं वा चित्तं ‘सउत्तरं चित्त’न्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं ‘अनुत्तरं चित्त’न्ति पजानाति, समाहितं वा चित्तं ‘समाहितं चित्त’न्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं ‘असमाहितं चित्त’न्ति पजानाति, विमुत्तं वा चित्तं ‘विमुत्तं चित्त’न्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं ‘अविमुत्तं चित्त’न्ति पजानाति।
२४३. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, इत्थी वा पुरिसो वा दहरो युवा मण्डनजातिको आदासे वा परिसुद्धे परियोदाते अच्छे वा उदकपत्ते सकं मुखनिमित्तं पच्चवेक्खमानो सकणिकं वा ‘सकणिक’न्ति जानेय्य, अकणिकं वा ‘अकणिक’न्ति जानेय्य; एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते चेतोपरियञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो परसत्तानं परपुग्गलानं चेतसा चेतो परिच्च पजानाति – सरागं वा चित्तं ‘सरागं चित्त’न्ति पजानाति, वीतरागं वा चित्तं ‘वीतरागं चित्त’न्ति पजानाति, सदोसं वा चित्तं ‘सदोसं चित्त’न्ति पजानाति, वीतदोसं वा चित्तं ‘वीतदोसं चित्त’न्ति पजानाति, समोहं वा चित्तं ‘समोहं चित्त’न्ति पजानाति, वीतमोहं वा चित्तं ‘वीतमोहं चित्त’न्ति पजानाति, सङ्खित्तं वा चित्तं ‘सङ्खित्तं चित्त’न्ति पजानाति, विक्खित्तं वा चित्तं ‘विक्खित्तं चित्त’न्ति पजानाति, महग्गतं वा चित्तं ‘महग्गतं चित्त’न्ति पजानाति, अमहग्गतं वा चित्तं ‘अमहग्गतं चित्त’न्ति पजानाति, सउत्तरं वा चित्तं ‘सउत्तरं चित्त’न्ति पजानाति, अनुत्तरं वा चित्तं ‘अनुत्तरं चित्त’न्ति पजानाति, समाहितं वा चित्तं ‘समाहितं चित्त’न्ति पजानाति, असमाहितं वा चित्तं ‘असमाहितं चित्त’न्ति पजानाति, विमुत्तं वा चित्तं ‘विमुत्तं चित्त’’न्ति पजानाति, अविमुत्तं वा चित्तं ‘अविमुत्तं चित्त’न्ति पजानाति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणं
२४४. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति। इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति।
२४५. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पुरिसो सकम्हा गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य, तम्हापि गामा अञ्ञं गामं गच्छेय्य। सो तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागच्छेय्य। तस्स एवमस्स – ‘अहं खो सकम्हा गामा अमुं गामं अगच्छिं [अगञ्छिं (स्या॰ कं॰)], तत्रापि एवं अट्ठासिं, एवं निसीदिं, एवं अभासिं, एवं तुण्ही अहोसिं, तम्हापि गामा अमुं गामं अगच्छिं, तत्रापि एवं अट्ठासिं, एवं निसीदिं, एवं अभासिं, एवं तुण्ही अहोसिं, सोम्हि तम्हा गामा सकंयेव गामं पच्चागतो’ति। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते पुब्बेनिवासानुस्सतिञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति, सेय्यथिदं – एकम्पि जातिं द्वेपि जातियो तिस्सोपि जातियो चतस्सोपि जातियो पञ्चपि जातियो दसपि जातियो वीसम्पि जातियो तिंसम्पि जातियो चत्तालीसम्पि जातियो पञ्ञासम्पि जातियो जातिसतम्पि जातिसहस्सम्पि जातिसतसहस्सम्पि अनेकेपि संवट्टकप्पे अनेकेपि विवट्टकप्पे अनेकेपि संवट्टविवट्टकप्पे, ‘अमुत्रासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो अमुत्र उदपादिं; तत्रापासिं एवंनामो एवंगोत्तो एवंवण्णो एवमाहारो एवंसुखदुक्खप्पटिसंवेदी एवमायुपरियन्तो, सो ततो चुतो इधूपपन्नो’ति, इति साकारं सउद्देसं अनेकविहितं पुब्बेनिवासं अनुस्सरति। इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
दिब्बचक्खुञाणं
२४६. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति।
२४७. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, मज्झे सिङ्घाटके पासादो। तत्थ चक्खुमा पुरिसो ठितो पस्सेय्य मनुस्से गेहं पविसन्तेपि निक्खमन्तेपि रथिकायपि वीथिं सञ्चरन्ते [रथियापी रथिं सञ्चरन्ते (सी॰), रथियाय विथिं सञ्चरन्तेपि (स्या॰)] मज्झे सिङ्घाटके निसिन्नेपि। तस्स एवमस्स – ‘एते मनुस्सा गेहं पविसन्ति, एते निक्खमन्ति, एते रथिकाय वीथिं सञ्चरन्ति, एते मज्झे सिङ्घाटके निसिन्ना’ति। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते सत्तानं चुतूपपातञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते, यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति – ‘इमे वत भोन्तो सत्ता कायदुच्चरितेन समन्नागता वचीदुच्चरितेन समन्नागता मनोदुच्चरितेन समन्नागता अरियानं उपवादका मिच्छादिट्ठिका मिच्छादिट्ठिकम्मसमादाना, ते कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्ना। इमे वा पन भोन्तो सत्ता कायसुचरितेन समन्नागता वचीसुचरितेन समन्नागता मनोसुचरितेन समन्नागता अरियानं अनुपवादका सम्मादिट्ठिका सम्मादिट्ठिकम्मसमादाना। ते कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्ना’ति। इति दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन सत्ते पस्सति चवमाने उपपज्जमाने हीने पणीते सुवण्णे दुब्बण्णे सुगते दुग्गते; यथाकम्मूपगे सत्ते पजानाति। ‘इदम्पि खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च।
आसवक्खयञाणं
२४८. ‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। सो इदं दुक्खन्ति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवसमुदयोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधोति यथाभूतं पजानाति, अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति, ‘विमुत्तस्मिं विमुत्तमि’ति ञाणं होति, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति।
२४९. ‘‘सेय्यथापि, महाराज, पब्बतसङ्खेपे उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो। तत्थ चक्खुमा पुरिसो तीरे ठितो पस्सेय्य सिप्पिसम्बुकम्पि सक्खरकथलम्पि मच्छगुम्बम्पि चरन्तम्पि तिट्ठन्तम्पि। तस्स एवमस्स – ‘अयं खो उदकरहदो अच्छो विप्पसन्नो अनाविलो। तत्रिमे सिप्पिसम्बुकापि सक्खरकथलापि मच्छगुम्बापि चरन्तिपि तिट्ठन्तिपी’ति। एवमेव खो, महाराज, भिक्खु एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते आसवानं खयञाणाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति। ‘सो इदं दुक्ख’न्ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदा’ति यथाभूतं पजानाति। ‘इमे आसवाति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवसमुदयो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधो’ति यथाभूतं पजानाति, ‘अयं आसवनिरोधगामिनी पटिपदाति यथाभूतं पजानाति। तस्स एवं जानतो एवं पस्सतो कामासवापि चित्तं विमुच्चति, भवासवापि चित्तं विमुच्चति, अविज्जासवापि चित्तं विमुच्चति, ‘विमुत्तस्मिं विमुत्तमिति ञाणं होति, ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति पजानाति। इदं खो, महाराज, सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं पुरिमेहि सन्दिट्ठिकेहि सामञ्ञफलेहि अभिक्कन्ततरञ्च पणीततरञ्च। इमस्मा च पन, महाराज, सन्दिट्ठिका सामञ्ञफला अञ्ञं सन्दिट्ठिकं सामञ्ञफलं उत्तरितरं वा पणीततरं वा नत्थी’’ति।
अजातसत्तुउपासकत्तपटिवेदना
२५०. एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं, भन्ते, भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं। अच्चयो मं, भन्ते, अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, योहं पितरं धम्मिकं धम्मराजानं इस्सरियकारणा जीविता वोरोपेसिं। तस्स मे, भन्ते भगवा अच्चयं अच्चयतो पटिग्गण्हातु आयतिं संवराया’’ति।
२५१. ‘‘तग्घ त्वं, महाराज, अच्चयो अच्चगमा यथाबालं यथामूळ्हं यथाअकुसलं, यं त्वं पितरं धम्मिकं धम्मराजानं जीविता वोरोपेसि। यतो च खो त्वं, महाराज, अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोसि, तं ते मयं पटिग्गण्हाम। वुद्धिहेसा, महाराज, अरियस्स विनये, यो अच्चयं अच्चयतो दिस्वा यथाधम्मं पटिकरोति, आयतिं संवरं आपज्जती’’ति।
२५२. एवं वुत्ते, राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘हन्द च दानि मयं, भन्ते, गच्छाम बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया’’ति। ‘‘यस्सदानि त्वं, महाराज, कालं मञ्ञसी’’ति। अथ खो राजा मागधो अजातसत्तु वेदेहिपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दित्वा अनुमोदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि।
२५३. अथ खो भगवा अचिरपक्कन्तस्स रञ्ञो मागधस्स अजातसत्तुस्स वेदेहिपुत्तस्स भिक्खू आमन्तेसि – ‘‘खतायं, भिक्खवे, राजा। उपहतायं, भिक्खवे, राजा। सचायं, भिक्खवे, राजा पितरं धम्मिकं धम्मराजानं जीविता न वोरोपेस्सथ, इमस्मिञ्ञेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उप्पज्जिस्सथा’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमना ते भिक्खू भगवतो भासितं अभिनन्दुन्ति।
सामञ्ञफलसुत्तं निट्ठितं दुतियं।