इस सूत्र में भगवान के समकालीन समाज का एक बेहतरीन वर्णन देखने मिलता है। उस समय, और शायद आज भी, ब्राह्मण वर्ण के कुछ लोग अपनी जन्मजात श्रेष्ठता दिखाने की चेष्टा में क्षत्रिय और अन्य वर्ण के लोगों को हीन बताने लगते हैं। जबकि ठीक उसी मापदंड से क्षत्रिय वर्ण उनसे भी श्रेष्ठ निकल कर आता है और यह स्थिति उन्हें असहज करती है।
जन्मजात श्रेष्ठता के इस कुतर्क ने हमेशा से ही समाज में एक अनावश्यक संघर्ष को बढ़ावा दिया है, जिससे लोग अपनी वास्तविक मुक्ति की ओर बढ़ने के बजाय सामाजिक मान्यताओं में उलझे रहे हैं। इस प्रकार, समाज में व्याप्त यह विचारधारा न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता, बल्कि सामूहिक शांति के लिए भी एक अवरोध बनकर सामने आती है।
कहा जाता है कि उस समय पोक्खरसाति नामक ब्राह्मण जम्बूद्वीप के सोलहों जनपदों में सर्वोच्च माने जाते थे। उनका प्रतिष्ठान इतना था कि उनका शिष्य, ब्राह्मण अम्बट्ठ, जो एक शिक्षित और घमंडी युवक था, उसने बुद्ध को नीच कहकर अपमानित किया और गाली-गलौच तक कर दी। लेकिन बुद्ध ने उसे उसकी वास्तविक औकात दिखा दी।
हालांकि, इस सूत्र से पता चलता है कि भगवान बुद्ध का उद्देश्य केवल बहस जीतना नहीं था। वे हमेशा सच्चाई, तर्क और करुणा के साथ विवाद का समाधान करते थे। उनका यह गुण, कि वे अपने प्रतिद्वंद्वी की करारी हार के बावजूद भी करुणा से उसका बचाव करते है, उन्हें सभी से अलग और विशेष बनाता है।
हालाँकि, इस सूत्र के पश्चात पोक्खरसाति ब्राह्मण भगवान का एक सच्चा उपासक बना और श्रोतापन्न बना, जिसने अनेक ब्राह्मणों के लिए धर्म का सच्चा मार्ग खोल दिया। आईयें, उस समय के समाज से गुजरते हुए धर्म सीखते हैं।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए इच्छानङ्गल नामक ब्राह्मण-गाँव में पहुँचे। वहाँ वे इच्छानङ्गल के घने वन में विहार करने लगे।
उस समय पोक्खरसाति ब्राह्मण उक्कट्ठ में रहता था, जो एक घनी आबादी वाला इलाका था, और घास, लकड़ी, जल और धन-धान्य से संपन्न था। कौशल के राजा प्रसेनजित ने राज-उपहार के तौर पर उक्कट्ठ की राजसत्ता पोक्खरसाति ब्राह्मण को सौंपी हुई थी।
और पोक्खरसाति ब्राह्मण ने सुना, “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए इच्छानङ्गल नामक ब्राह्मण-गाँव में पहुँचे हैं। वहाँ वे इच्छानङ्गल के घने वन में विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
उस समय पोक्खरसाति ब्राह्मण का शिष्य ‘अम्बट्ठ’ नामक युवा-ब्राह्मण था — जो वेदों का अभ्यस्त, मंत्रों का जानकार, तीनों वेदों में पारंगत, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार, शब्द और अर्थ का भेदी, पाँचवे इतिहास में पारंगत, [संस्कृत] पदों को वक्ता, [संस्कृत] व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत था, जिसे उसके आचार्य ने यह कहकर तीनों वेदों में प्रविष्ट और स्वीकृत किया था, “जो मैं जानता हूँ, वही तुम जानते हो। जो तुम जानते हो, वही मैं जानता हूँ।”
तब पोक्खरसाति ब्राह्मण ने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण को कहा, “मेरे पुत्र, अम्बट्ठ! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ कौशल देश में घूमते हुए इच्छानङ्गल नामक ब्राह्मण-गाँव में पहुँचे हैं। वहाँ वे इच्छानङ्गल के घने वन में विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।’ तो जाओ, मेरे पुत्र अम्बट्ठ। जाकर श्रमण गौतम को देखो और पता लगाओ कि क्या वाकई उनकी यशकीर्ति यथार्थ है अथवा नहीं। पता लगाओ कि गुरु गौतम क्या वाकई वैसे ही है, जैसे कहा जा रहा है, अथवा नहीं। ताकि हम गुरु गौतम को परख पाएँ।”
“किन्तु, गुरुजी, मैं कैसे पता लगाऊँगा कि गुरु गौतम की यशकीर्ति यथार्थ है अथवा नहीं? और गुरु गौतम वाकई वैसे ही है, जैसे कहा जा रहा है, अथवा नहीं?”
“मेरे पुत्र अम्बट्ठ, हमारे मंत्रों में ‘महापुरूष के बत्तीस लक्षण’ का उल्लेख आया है, जिनसे युक्त महापुरुष की दो ही गति होती है, तीसरी नहीं। यदि गृहस्थी में रहे तो वह राजा चक्रवर्ती सम्राट बनता है — धार्मिक धर्मराज, चारों दिशाओं का विजेता, देहातों तक स्थिर शासन, सप्तरत्नों से संपन्न। और उसके लिए सात रत्न प्रादुर्भूत होते हैं — चक्ररत्न, हाथीरत्न, अश्वरत्न, मणिरत्न, स्त्रीरत्न, गृहस्थरत्न, और सातवाँ सलाहकाररत्न। उसके एक हज़ार से अधिक पुत्र होते हैं, जो शूर होते हैं, वीर गुणों से युक्त होते हैं, और पराई सेना की धज्जियाँ उड़ाते हैं। तब भी वह महासागरों से घिरी इस पृथ्वी को बिना लट्ठ, बिना शस्त्र के, धर्म से ही जीत लेता है। किन्तु यदि वह घर से बेघर होकर प्रवज्यित होता हो, तब वह ‘अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध’ बनता है, जो इस लोक से [अविद्या का] पर्दाफाश करता है। और मेरे पुत्र अम्बट्ठ, मैं मंत्रों का दाता [गुरु] हूँ, और तुम मंत्रों के ग्रहणकर्ता [शिष्य] हो।”
“हाँ, गुरुजी!” कह कर अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण आसन से उठा, और पोक्खरसाति ब्राह्मण को अभिवादन कर प्रदक्षिणा की। तब वह बहुत से युवा ब्राह्मणों के साथ घोड़ी के रथ पर चढ, इच्छानङ्गल के घने वन की ओर निकल पड़ा। जहाँ तक रथ चलने की जगह थी, वहाँ तक घोड़ी के रथ से गया, और तब रथ से उतर कर पैदल आश्रम तक गया। उस समय बहुत से भिक्षु खुली जगह पर चक्रमण कर रहे थे। अम्बट्ठ उनके पास गया और उन भिक्षुओं से कहा, “गुरुजी, इस समय गौतम कहाँ है? हम गौतम का दर्शन करने के लिये यहाँ आए हैं।”
उन भिक्षुओं को लगा, “यह तो अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण है, जो बड़े कुलीन परिवार से है, बड़ा प्रसिद्ध है, और पोक्खरसाति ब्राह्मण का शिष्य है। भगवान को ऐसे कुलपुत्रों के साथ संवाद करने में कोई झिझक नहीं होती।”
उन्होने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण से कहा, “वह द्वारा-लगा आवास उनका है, अम्बट्ठ। वहाँ बड़ी शांति से, धीमे-धीमे जाना, और बरामदे में खड़े होकर, खाँसकर, चिटकनी खटखटाना। तब भगवान का द्वार खुलेगा।”
तब अम्बट्ठ [साथियों के साथ] द्वार-लगे आवास की ओर बड़ी शांति से, धीमे-धीमे गया, और बरामदे में खड़े होकर, खाँसकर, चिटकनी खटखटाई। भगवान ने द्वार खोल दिया। अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने भीतर प्रवेश किया। बाकी युवा-ब्राह्मण भी प्रवेश कर भगवान से हालचाल लेकर एक ओर बैठ गए। [भगवान अपने आसन पर बैठ गए।] किन्तु अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण [बैठा नहीं, बल्कि] टहलते हुए भगवान से हालचाल पूछने लगा, और खड़े-खड़े ही भगवान से वार्तालाप [=बातचीत] करने लगा।
तब भगवान ने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण से कहा, “अच्छा, अम्बट्ठ! क्या तुम वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों के साथ भी इसी तरह संवाद करते हो, जैसे इस समय तुम टहलते हुए मुझसे हालचाल ले रहे हो और खड़े-खड़े मुझसे वार्तालाप कर रहे हो?”
“किन्तु, “नहीं, हे गौतम। टहलते ब्राह्मणों के साथ टहल कर, खड़े ब्राह्मणों के साथ खड़े रहकर, बैठे ब्राह्मणों के साथ बैठकर, और लेटे ब्राह्मणों के साथ लेटकर वार्तालाप करनी चाहिए। किन्तु जो मथमुण्डे श्रमण तुच्छ होते हैं, नीच जाति के, काले, ब्रह्मा के पैर से उपजे, उनसे इसी तरह संवाद किया जाता है, जैसे इस समय मैं गौतम से टहलते हुए हालचाल ले रहा हूँ और खड़े-खड़े वार्तालाप कर रहा हूँ।”
“किन्तु, यहाँ तुम अपने उद्देश्य से आए हो, अम्बट्ठ। जो उद्देश्य से आए हो, उसी पर तुम्हें भलीभाँति गौर करना चाहिए। लगता है तुमने अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं की, अम्बट्ठ। अशिक्षित हुए ही शिक्षित होने का अहंकार, मात्र अशिक्षा के ही कारण है।”
तब भगवान द्वारा ‘अशिक्षित’ कहे जाने पर, अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने कुपित होकर, क्षुब्ध होकर भगवान को गाली-गलौच की, भगवान को कोसा, भगवान को अपशब्द कहा। तब उसे लगा, ‘श्रमण गौतम ने मुझसे पाप करा दिया!’ तब वह कह पड़ा, “हे गौतम, शाक्य-जाति चंड है! शाक्य-जाति बद्जुबान है! शाक्य-जाति भड़काऊ है! शाक्य-जाति बहसबाज है! शाक्य नीच जाति के, नीच के समान होने पर भी ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते, ब्राह्मणों का आदर नहीं करते, ब्राह्मणों को मानते नहीं, ब्राह्मणों को पूजते नहीं, ब्राह्मणों का सम्मान नहीं करते हैं। और यह, हे गौतम, अनचाहा है, अनुचित है, जो शाक्य नीच जाति के, नीच के समान होने पर भी ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते, ब्राह्मणों का आदर नहीं करते, ब्राह्मणों को मानते नहीं, ब्राह्मणों को पूजते नहीं, ब्राह्मणों का सम्मान नहीं करते हैं।” इस तरह अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने शाक्यों पर नीचता का प्रथम आरोप लगाया।
“अब, अम्बट्ठ, भला शाक्यों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा हैं?”
“हे गौतम, एक समय मैं अपने आचार्य ब्राह्मण पोक्खरसाति के किसी कार्य से कपिलवस्तु गया था। वहाँ मैं शाक्यों के सभागृह में गया। उस समय बहुत से शाक्य और शाक्यकुमार सभागृह में ऊँचे-ऊँचे आसनों पर बैठ कर, एक दूसरे को उँगलियाँ गड़ाते हुए हँस रहे थे, खेल रहे थे। लग रहा था, जैसे मुझ पर ही हँस रहे हो। किसी ने भी मुझे बैठने के लिए आमंत्रित नहीं किया। और यह, हे गौतम, अनचाहा है, अनुचित है, जो शाक्य नीच जाति के, नीच के समान होने पर भी ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते, ब्राह्मणों का आदर नहीं करते, ब्राह्मणों को मानते नहीं, ब्राह्मणों को पूजते नहीं, ब्राह्मणों का सम्मान नहीं करते हैं।” इस तरह अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने शाक्यों पर नीचता का द्वितीय आरोप लगाया।
“किन्तु, अम्बट्ठ! गौरय्या चिड़ियाँ भी अपने घोसले पर स्वच्छंद चहचहाती है। कपिलवस्तु तो शाक्यों का अपना घर है। इस जरा-सी बात के लिए तुम्हें आक्षेप नहीं उठाना चाहिए।”
“हे गौतम! चार वर्ण होते हैं — क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य और शूद्र। और इन चार में से तीन — क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र — ब्राह्मण के पूर्णतः दास [=गुलाम, नौकर] हैं। और इसलिए, हे गौतम, यह अनचाहा है, अनुचित है, जो शाक्य नीच जाति के, नीच के समान होने पर भी ब्राह्मणों का सत्कार नहीं करते, ब्राह्मणों का आदर नहीं करते, ब्राह्मणों को मानते नहीं, ब्राह्मणों को पूजते नहीं, ब्राह्मणों का सम्मान नहीं करते हैं।” इस तरह अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने शाक्यों पर नीचता का तृतीय आरोप लगाया।
तब भगवान को लगा, ‘यह अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण कुछ ज्यादा ही शाक्यों पर नीचता के आक्षेप ले रहा है। क्यों न मैं गोत्र पूछूँ?’ तब भगवान ने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण से कहा, “किस गोत्र के हो, अम्बट्ठ?”
“कृष्णायन हूँ, हे गौतम।”
“अम्बट्ठ, जिन्हें पुराण काल से माता-पिता के नाम-गोत्र अनुस्मरण हैं, उनके अनुसार शाक्य ‘स्वामी-पुत्र’ हैं, और तुम उन शाक्यों के ‘दासी-पुत्र’ हो। क्योंकि राजा ओक्काक [=इक्ष्वाकु] को शाक्य ‘पितामह’ धारण करते हैं। बहुत पूर्वकाल में, अम्बट्ठ, राजा ओक्काक ने अपनी प्रिय और पसंदीदा रानी के पुत्र को सत्ता सौंपने की इच्छा से, अपने ज्येष्ठ राजकुमारों — ओक्कामुख, करकण्ड, हत्थिनिक, और सिनीसूर — को देश से निर्वासित कर दिया। निर्वासित होकर, वे हिमालय पर्वत पर एक पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] के किनारे, शाक [=सागौन] के महावन में निवास करने लगे। अपनी जाति दूषित होने के भय से उन्होने अपनी बहनों के साथ संवास [=विवाह] किया। तब, एक बार राजा ओक्काक ने अपने मंत्रिमंडल परिषद से पूछा, “श्रीमानों! इस समय वे राजकुमार कहाँ हैं?”
“महाराज, वे हिमालय पर्वत पर एक पुष्करणी के किनारे, शाक के महावन में निवास कर रहे हैं। जाति दूषित होने के भय से उन्होने अपनी बहनों के साथ संवास लिया हैं।”
तब राजा ओक्काक ने सहज उद्गार किया, “ओहो! वे कुमार ही सच्चे शक्य [=सक्षम] हैं रे! वे कुमार ही परम-शक्य हैं रे!” तब से ही, अम्बट्ठ, उन्हें ‘शाक्य’ नाम से जाना जाने लगा। और वही [ओक्काक] उनका आदिपुरुष था।
और, अम्बट्ठ, राजा ओक्काक की एक दासी-पुत्री थी — ‘दिशा’ नाम की, जिसने एक कृष्ण [=कान्हा, काले] बच्चे को जन्म दिया। जन्मते ही वह कृष्ण कह पड़ा, “अम्मा, मुझे धुलाओ! अम्मा, मुझे नहलाओ! मुझे इस गंदगी से छुड़ाओ! मैं तुम्हारे काम आऊँगा!”
अम्बट्ठ! जैसे आजकल लोग पिशाच को देखकर ‘पिशाच’ पुकारते हैं, उसी तरह उस समय पिशाच को देखकर लोग ‘कृष्ण’ पुकारते थे। तब लोग कह पड़े, “जन्मते ही उसने बात की! कृष्ण जन्मा [=जाति] है! पिचाश जाति [=जन्मा] है!” तब से ही, अम्बट्ठ, उन्हें ‘कृष्णायन’ नाम से जाना जाने लगा। और वही [ओक्काक] उनका आदिपुरुष था। इस तरह, अम्बट्ठ, जिन्हें पुराण काल से माता-पिता के नाम-गोत्र अनुस्मरण हैं, उनके अनुसार शाक्य ‘स्वामी-पुत्र’ हैं, और तुम उन शाक्यों के ‘दासी-पुत्र’ हो।”
ऐसा कहने पर बाकी युवा ब्राह्मणों ने भगवान से कहा, “हे गौतम, आप अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण को इस तरह ‘दासी-पुत्र’ कह-कहकर कुछ ज्यादा ही लज्जित ना करें! अम्बट्ठ सुजात [=ऊँची जाति का] है! अम्बट्ठ कुलपुत्र [=ऊँचे कुल का] है! अम्बट्ठ बहुत ज्ञानी है! अम्बट्ठ बहुत अच्छा वक्ता है! अम्बट्ठ पण्डित है! और अम्बट्ठ इस मुद्दे पर गौतम के साथ शास्त्रार्थ [=वाद-विवाद] कर सकता है।”
तब भगवान ने उन युवा ब्राह्मणों से कहा, “यदि आप युवा ब्राह्मणों को लगता हैं कि ‘अम्बट्ठ दुर्जात [=नीच जाति का] है, अकुलपुत्र [=नीच कुल का] है, अज्ञानी है, बुरा वक्ता है, अपण्डित है, और इस मुद्दे पर गौतम के साथ शास्त्रार्थ नहीं कर सकता, तब अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण शान्त बैठ जाए, और आप लोग इस मुद्दे पर मुझसे शास्त्रार्थ करें। किन्तु यदि आप को लगता हैं कि अम्बट्ठ सुजात है, कुलपुत्र है, बहुत ज्ञानी है, अच्छा वक्ता है, पण्डित है, और इस मुद्दे पर गौतम के साथ भली प्रकार शास्त्रार्थ कर सकता है, तो आप लोग शान्त बैठे रहें, और अम्बट्ठ इस मुद्दे पर मुझसे शास्त्रार्थ करे।”
“हे गौतम, अम्बट्ठ सुजात है, कुलपुत्र है, बहुत ज्ञानी है, अच्छा वक्ता है, अम्बट्ठ पण्डित है, और इस मुद्दे पर गौतम के साथ भली प्रकार शास्त्रार्थ कर सकता है। इसलिए हम लोग शान्त बैठे रहते हैं। अम्बट्ठ ही आपके साथ शास्त्रार्थ करेगा।”
तब भगवान ने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण से कहा, “तो अम्बट्ठ! यहाँ तुम पर धर्म-संबन्धित प्रश्न आता है। इच्छा नहीं होते हुए भी उत्तर देना होगा। अब यदि तुम उत्तर न दोगे, या टालमटोल करोगे, या चुप हो जाओगे, या चले जाओगे, तो यही तुम्हारा सिर सात-टुकड़ों में फट जाएगा! तो क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? क्या तुमने वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों से सुना है कि कृष्णायन कहाँ से बने हैं, और उनका आदिपुरुष कौन था?”
ऐसा पुछने पर अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण शान्त हो गया।
भगवान ने दुबारा अम्बट्ठ से कहा, “क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? क्या तुमने वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों से सुना है कि कृष्णायन कहाँ से बने हैं, और उनका आदिपुरुष कौन था?”
दुबारा पुछे जाने पर भी अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण चुप रहा।
तब भगवान ने अम्बट्ठ से कहा, “उत्तर दो, अम्बट्ठ! यह तुम्हारे चुप रहने का समय नहीं है। जो भी कोई तथागत से तीन बार धर्म-संबन्धित प्रश्न पूछे जाने पर भी उत्तर नहीं देता, उसका सिर यही सात-टुकड़ों में फट जाता है।”
तब उसी समय वज्रपाणी यक्ष — अत्यंत भारी और जलती-दहकती-धधकती लोहे की गदा उठाए — अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण के सिर के ऊपर आकाश में खड़ा हुआ, [सोचते हुए:] ‘अब यदि इस अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने तथागत से तीन बार धर्म-संबन्धित प्रश्न पूछे जाने पर भी उत्तर नहीं दिया, तो उसके सिर को मैं यही सात-टुकड़े कर दूँगा!’
उस वज्रपाणी यक्ष को भगवान देख रहे थे, और अम्बट्ठ भी देख पा रहा था। तब उसे देखकर अम्बट्ठ भयभीत हुआ, आतंकित हुआ, उसके रोंगटे खड़े हुए। तब वह भगवान से सुरक्षा चाहते हुए, भगवान से बचाव चाहते हुए, भगवान की शरण चाहते हुए, अंततः भगवान के पास बैठ गया, और कहा, “गुरु गौतम ने क्या कहा? पुनः पुछे, हे गौतम।”
“क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? क्या तुमने वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों से सुना है कि कृष्णायन कहाँ से बने हैं, और उनका आदिपुरुष कौन था?”
“मैंने भी ऐसे ही सुना है, हे गौतम, जैसा आप ने कहा। तब से ही उन्हें ‘कृष्णायन’ नाम से जाना जाता हैं। और वही [ओक्काक] उनका आदिपुरुष था।”
ऐसा कहते ही बाकी युवा ब्राह्मण चीखने, चिल्लाने और शोर मचाने लगे, “वाकई दुर्जात है अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण! वाकई अ-कुलपुत्र है अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण! वाकई शाक्यों का दासी-पुत्र है अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण! वाकई शाक्यवंश अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण के स्वामि-पुत्र हैं! वाकई धर्मवादी है श्रमण गौतम, जिसे हम निंदनीय मान रहे थे!”
तब भगवान को लगा, ‘ये सभी युवा-ब्राह्मण अम्बट्ठ को ‘दासी-पुत्र’ कह-कहकर कुछ ज्यादा ही लज्जित कर रहे हैं। क्यों न मैं इसे बचाव करूँ?’
तब भगवान ने उन युवा ब्राह्मणों से कहा, “युवा ब्राह्मणों, अब आप अम्बट्ठ को ‘दासी-पुत्र’ कह-कहकर कुछ ज्यादा ही लज्जित ना कराओं! कृष्ण एक बड़ा ऋषि बना। उसने दक्षिण राज्यों में जाकर ब्राह्मणों से मंत्रपाठ सीखा, और राजा ओक्काक के पास लौटकर उसकी ‘मद्दरूपी’ [=जिसका रूप देखने से नशा हो] नामक राजकन्या का हाथ माँगा। तब राजा ओक्काक को लगा, ‘अरे, ये दासी-पुत्र होकर मेरी राजकन्या मद्दरूपी को माँगता है?’ कुपित होकर, क्षुब्ध होकर उसने बाण चढाया। किन्तु वह उस बाण को न चला पा रहा था, न ही नीचे रख पा रहा था। तब मंत्रिमंडल परिषद ने कृष्ण ऋषि को [याचना करते हुए] कहा, “राजा का मंगल करें, भदन्त! राजा का मंगल करें, भदन्त!”
[कृष्ण ऋषि ने कहा:] “ठीक है, राजा का मंगल हो! किन्तु राजा नीचे की ओर बाण चलाएँ, तो वहाँ तक भूमि फट जाएँ, जहाँ तक उसका राजशासन हो।”
[मंत्रिमंडल परिषद ने पुनः याचना की:] “राजा का मंगल करें, भदन्त! राजभूमि का भी मंगल करें, भदन्त!”
“ठीक है, राजा और राजभूमि, दोनों का मंगल हो! किन्तु राजा ऊपर की ओर बाण चलाएँ, तो वहाँ सात वर्षों तक देवतागण वर्षा ना कराएँ, जहाँ तक उसका राजशासन हो।”
“राजा और राजभूमि, दोनों का मंगल करें, भदन्त! देवतागण भी वर्षा कराएँ, भदन्त!”
“ठीक है, राजा और राजभूमि, दोनों का मंगल हो! और देवतागण भी वर्षा कराएँ! तब राजा ज्येष्ठ राजकुमार [=जिसका राजतिलक होने वाला हो] की ओर बाण चलाएँ! और ज्येष्ठ राजकुमार का बाल बाँका न हो!”
तब मंत्रिमंडल परिषद ने राजा ओक्काक से कहा, “ज्येष्ठ राजकुमार पर बाण चलाएँ, महाराज! उनका बाल बाँका नहीं होगा!”
तब राजा ओक्काक ने ज्येष्ठ राजकुमार पर बाण चला दिया। और ज्येष्ठ राजकुमार का बाल बाँका नहीं हुआ। तब ऐसा डरावना ब्रह्मदण्ड [=दिव्य-सजा] देखकर राजा ओक्काक भयभीत हुआ, आतंकित हुआ, उसके रोंगटे खड़े हुए, और उसने राजकन्या मद्दरूपी उसे सौंप दी। इसलिए, युवा ब्राह्मणों, आप अम्बट्ठ को ‘दासी-पुत्र’ कह-कहकर कुछ ज्यादा ही लज्जित ना कराओं! कृष्ण एक बड़ा ऋषि था।”
तब भगवान ने अम्बट्ठ से कहा, “क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? कल्पना करो कि कोई क्षत्रिय-कुमार किसी ब्राह्मण-कन्या के साथ संवास करे, और उनके संवास से पुत्र जन्मे। क्या क्षत्रिय-कुमार और ब्राह्मण-कन्या का पुत्र, ब्राह्मणों से [साथ बैठने के लिए] आसन और जल पाएगा?”
“पाएगा, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे श्राद्घ में, भोजन-दान में, यज्ञ में, या अतिथि आव-भगत में [साथ-साथ] भोजन कराएँगे?”
“भोजन कराएँगे, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे मंत्र पढ़ाएँगे?”
“पढ़ाएँगे, हे गौतम!”
“क्या उसके लिए [ब्राह्मण] स्त्री [विवाह के लिए] निषिद्ध होगी या सुलभ?”
“सुलभ होगी, हे गौतम!”
“क्या क्षत्रिय राज्याभिषेक में उसका अभिषेक करेंगे?”
“नहीं, हे गौतम!”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि उसे मातृवंश में दुर्जात [माना जाता] है, हे गौतम!”
“और क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? कल्पना करो कि कोई ब्राह्मण-कुमार किसी क्षत्रिय-कन्या के साथ संवास करे, और उनके संवास से पुत्र जन्मे। क्या ब्राह्मण-कुमार और क्षत्रिय-कन्या का पुत्र, ब्राह्मणों से आसन और जल पाएगा?”
“पाएगा, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे श्राद्घ में, भोजन-दान में, यज्ञ में, या अतिथि आव-भगत में भोजन कराएँगे?”
“भोजन कराएँगे, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे मंत्र पढ़ाएँगे?”
“पढ़ाएँगे, हे गौतम!”
“क्या उसके लिए [ब्राह्मण] स्त्री निषिद्ध होगी या सुलभ?”
“सुलभ होगी, हे गौतम!”
“क्या क्षत्रिय राज्याभिषेक में उसका अभिषेक करेंगे?”
“नहीं, हे गौतम!”
“ऐसा क्यों?”
“क्योंकि उसे पितृवंश में दुर्जात [माना जाता] है, हे गौतम!”
“इस तरह, अम्बट्ठ, स्त्री का स्त्री होना हो या पुरूष का पुरुष होना [दोनों-ओर से] क्षत्रिय श्रेष्ठ है! ब्राह्मण हीन है! और क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? कल्पना करो कि किसी प्रकरण की वजह से ब्राह्मण किसी ब्राह्मण का सिर मुंडाकर, उसके चेहरे पर कालिख पोतकर, उसे राज्य और नगरों से निर्वासित [=तड़ीपार] कर दें। क्या वह ब्राह्मणों से आसन और जल पाएगा?”
“नहीं पाएगा, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे श्राद्घ में, भोजन-दान में, यज्ञ में, या अतिथि आव-भगत में भोजन कराएँगे?”
“नहीं कराएँगे, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे मंत्र पढ़ाएँगे?”
“नहीं पढ़ाएँगे, हे गौतम!”
“क्या उसके लिए [ब्राह्मण] स्त्री निषिद्ध होगी या सुलभ?”
“निषिद्ध होगी, हे गौतम!”
“और क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? कल्पना करो कि किसी प्रकरण की वजह से क्षत्रिय किसी क्षत्रिय का सिर मुंडाकर, उसके चेहरे पर कालिख पोतकर, उसे राज्य और नगरों से निर्वासित कर दें। क्या वह ब्राह्मणों से आसन और जल पाएगा?”
“पाएगा, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे श्राद्घ में, भोजन-दान में, यज्ञ में, या अतिथि आव-भगत में भोजन कराएँगे?”
“भोजन कराएँगे, हे गौतम!”
“क्या ब्राह्मण उसे मंत्र पढ़ाएँगे?”
“पढ़ाएँगे, हे गौतम!”
“क्या उसके लिए [ब्राह्मण] स्त्री निषिद्ध होगी या सुलभ?”
“सुलभ होगी, हे गौतम!”
“किन्तु वह क्षत्रिय परम नीच अवस्था को प्राप्त हुआ रहता है, जब किसी प्रकरण की वजह से क्षत्रिय उसका सिर मुंडाकर, उसके चेहरे पर कालिख पोतकर, उसे राज्य और नगरों से निर्वासित कर दें। कोई ऐसा परम नीच अवस्था को प्राप्त क्षत्रिय हो, तब भी क्षत्रिय ही श्रेष्ठ है, और ब्राह्मण हीन! और, अम्बट्ठ, ब्रह्मा सनत्कुमार ने भी गाथा कही है:
विज्जाचरणसम्पन्नो, सो सेट्ठो देवमानुसे।”
इस तरह, अम्बट्ठ, यह गाथा ब्रह्मा सनत्कुमार ने उचित ही गायी है, अनुचित नहीं; सही गायी है, गलत नहीं; सार्थक गायी है, निरर्थक नहीं। मैं भी उससे सहमत हूँ। मैं भी, अम्बट्ठ, यही कहता हूँ:
“किन्तु, हे गौतम, ये आचरण क्या है, और ये विद्या क्या है?”
“अम्बट्ठ, सर्वोत्तर विद्या-आचरण की संपदा को जाति-वाद नहीं कहते, गोत्र-वाद नहीं कहते, मान-वाद नहीं कहते, जहाँ कोई [=जन्म के आधार पर भेदभावपूर्वक] कहता है कि ‘तुम मेरे लायक हो!’ या ‘तुम मेरे लायक नहीं हो!’ क्योंकि जहाँ भी आवाह [=दुल्हन घर लाना] होता है, विवाह [=कन्या ब्याहकर भेजना] होता है, आवाह-विवाह दोनों होता है, वहाँ जातिवाद होता है, गोत्रवाद होता है, मानवाद होता है, जहाँ कोई कहता है कि ‘तुम मेरे लायक हो!’ या ‘तुम मेरे लायक नहीं हो!’
अम्बट्ठ, जो जातिवाद से बँधे पड़े रहते हैं, गोत्रवाद से बँधे पड़े रहते हैं, मानवाद से बँधे पड़े रहते हैं, आवाह-विवाह से बँधे पड़े रहते हैं, वे सर्वोत्तर विद्या-आचरण की संपदा से दूर रहते हैं। जातिवाद का बन्धन त्यागकर, गोत्रवाद का बन्धन त्यागकर, मानवाद का बन्धन त्यागकर, आवाह-विवाह का बन्धन त्यागकर, सर्वोत्तर विद्या-आचरण की संपदा का साक्षात्कार किया जाता है।”
“किन्तु, हे गौतम, ये आचरण क्या है, और ये विद्या क्या है?”
“ऐसा होता है, अम्बट्ठ! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु आचरण-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका आचरण होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका आचरण होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका आचरण होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका आचरण होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका आचरण होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका आचरण होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका आचरण होता है।
इस तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु आचरण-संपन्न होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, अम्बट्ठ, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, अम्बट्ठ, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, अम्बट्ठ, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, अम्बट्ठ, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, अम्बट्ठ, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, अम्बट्ठ, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, अम्बट्ठ, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, अम्बट्ठ, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, अम्बट्ठ, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, अम्बट्ठ, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, अम्बट्ठ, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, अम्बट्ठ, यह उसका आचरण होता है।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, अम्बट्ठ, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, अम्बट्ठ, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, अम्बट्ठ, यह उसका आचरण होता है।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, अम्बट्ठ, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, अम्बट्ठ, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, अम्बट्ठ, यह उसका आचरण होता है।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, अम्बट्ठ, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, अम्बट्ठ, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, अम्बट्ठ, यह उसका आचरण होता है। और इस आचरण से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कोई आचरण नहीं है।
विपश्यना ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, अम्बट्ठ, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, अम्बट्ठ, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, अम्बट्ठ, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, अम्बट्ठ, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, अम्बट्ठ, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, अम्बट्ठ, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, अम्बट्ठ, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, अम्बट्ठ, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
और, अम्बट्ठ, यह उसकी विद्या होती है। इस विद्या से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कोई विद्या नहीं है। और इस तरह, अम्बट्ठ, इस विद्या संपदा और इस आचरण संपदा से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कोई संपदा नहीं है।
किन्तु, अम्बट्ठ, इस सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा के रास्ते में पतन के चार गड्ढे «अपायमुख» पड़ते हैं। कौन-से चार?
(१) ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण — जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त न की हो — अपना झोला उठाकर अरण्य-वास के लिए निकल पड़ता है, [सोचते हुए] “फलाहारी होकर जीऊँगा!” तब वह किसी दूसरे का सेवक बन जाता है, जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो। यह पतन का पहला गड्ढा है।
(२) फिर ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण — जिसने न सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो, और न फलाहार ही — कुदाल और टोकरी उठाकर अरण्य-वास के लिए निकल पड़ता है, [सोचते हुए] “कन्द-मूलाहारी होकर जीऊँगा!” तब वह भी किसी दूसरे का सेवक बन जाता है, जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो। यह पतन का दूसरा गड्ढा है।
(३) फिर ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण — जिसने न सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो, न फलाहार प्राप्त किया हो, और न ही कन्द-मूलाहार ही — किसी गाँव या नगर के पास अग्निशाला बनाकर [होम करने वाला] अग्नि का सेवक बन जाता है। तब वह भी किसी दूसरे का सेवक बन जाता है, जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो। यह पतन का तीसरा गड्ढा है।
(४) फिर ऐसा होता है कि कोई श्रमण या ब्राह्मण — जिसने न सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो, न फलाहार प्राप्त किया हो, न कन्द-मूलाहार प्राप्त किया हो, और न ही अग्नि का सेवक बन पाया हो — चौराहे पर चार-द्वारों वाला आश्रम खड़ा करता है, [सोचते हुए] “चारों दिशाओं से जो श्रमण-ब्राह्मण आएँगे, मैं यथाशक्ति यथाबल उन्हें पूजते रहूँगा।” तब वह भी किसी दूसरे का सेवक बन जाता है, जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त की हो। यह पतन का चौथा गड्ढा है। और इस तरह, अम्बट्ठ, इस सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा के रास्ते में पतन के चार गड्ढे पड़ते हैं।
तो तुम्हें क्या लगता है, अम्बट्ठ? क्या तुम अपने आचार्यों के साथ इस सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा के अनुसार आचरण करते हो?”
“नहीं, हे गोतम! मैं कहाँ अपने आचार्यों के साथ इस सर्वोत्तर विद्या-आचरण संपदा के अनुसार आचरण करूँगा? हम तो इस संपदा से कोसो दूर हूँ!”
“तो क्या ऐसा है कि तुम — जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त न की हो — अपना झोला उठाकर अरण्य-वास के लिए निकल पड़ते हो, [सोचते हुए] “फलाहारी होकर जीऊँगा?”
“नहीं, हे गोतम!”
“तो क्या ऐसा है कि तुम — जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त न की हो, और न फलाहार ही — कुदाल और टोकरी उठाकर अरण्य-वास के लिए निकल पड़ते हो, [सोचते हुए] “कन्द-मूलाहारी होकर जीऊँगा?”
“नहीं, हे गौतम!”
“तो क्या ऐसा है कि तुम — जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त न की हो, न फलाहार प्राप्त किया हो, और न ही कन्द-मूलाहार ही — किसी गाँव या नगर के पास अग्निशाला बनाकर [होम करने वाले] अग्नि के सेवक बन जाते हो?”
“नहीं, हे गौतम!”
“तो क्या ऐसा है कि तुम — जिसने सर्वोत्तर विद्या और आचरण संपदा प्राप्त न की हो, न फलाहार प्राप्त किया हो, न कन्द-मूलाहार ही, और न अग्नि का सेवक ही बन पाया हो — चौराहे पर चार-द्वारों वाला आश्रम खड़ा करते हो, [सोचते हुए] “चारों दिशाओं से जो श्रमण-ब्राह्मण आएँगे, मैं यथाशक्ति यथाबल उन्हें पूजते रहूँगा।”
“नहीं, हे गौतम!”
“तब, अम्बट्ठ, तुम और तुम्हारे आचार्य इस सर्वोत्तर विद्या-आचरण संपदा के अनुसार आचरण करने में अत्यंत हीन [=नीचे गिरे] तो हो ही, बल्कि उसे प्राप्त करने के रास्ते में जो पतन के चार गड्ढे पड़ते हैं, उनसे भी अत्यंत हीन हो। किन्तु तब भी तुम अपने आचार्य पोक्खरसाति ब्राह्मण से यही सीखे हो कि — ‘ये जो मथमुण्डे श्रमण तुच्छ, नीच जाति के, काले, ब्रह्मा के पैर से उपजे हैं, वे हम तीन वेदों के ज्ञाता ब्राह्मणों से क्या ही संवाद करेंगे?’ जबकि तुम [विद्या-आचरण संपदा के रास्ते में] पतन हुए व्यक्ति के कर्तव्यों को पूरा करने में अत्यंत हीन हो। देख लो, अम्बट्ठ, अपने ब्राह्मण आचार्य पोक्खरसाति के अपराध।
ब्राह्मण पोक्खरसाति राजा प्रसेनजित कौशल का दिया खाता है। वह राजा प्रसेनजित कौशल उसे सम्मुख दर्शन की अनुमति भी नहीं देता है। जब भी उसके साथ सलाह-मशवरा करना हो, तो पर्दे के पीछे से सलाह-मशवरा करता है। ऐसा क्यों है कि जिसकी धर्मानुसार दी हुई भिक्षा को पोक्खरसाति ग्रहण करता है, वह राजा प्रसेनजित कौशल उसे सम्मुख दर्शन की अनुमति भी नही देता है? देखो, अम्बट्ठ, अपने ब्राह्मण आचार्य पोक्खरसाति के अपराध।
तुम्हें क्या लगता है, अम्बट्ठ? कल्पना करो कि राजा प्रसेनजित कौशल हाथी के गर्दन पर बैठ, या अश्व की पीठ पर बैठ, या रथ की कालीन पर खड़ा होकर शक्तिशाली राजमंत्रियों या राजपरिवार के साथ सलाह-मशवरा करे, और फिर उस स्थान से हटकर दूसरी-ओर खड़ा हो जाए। तब कोई शूद्र या शूद्र का दास आकर, उसी स्थान पर खड़ा होकर, सलाह-मशवरा देने लगे, “ऐसे-ऐसे राजा प्रसेनजित कौशल ने कहा है! ऐसे-ऐसे राजा प्रसेनजित कौशल ने कहा है!” — क्या इस तरह राजसी वचनों को दोहराने से, राजसी सलाह-मशवरे को दोहराने से वह [शूद्र] राजा या राजमंत्री हो जाएगा?”
“नहीं, हे गौतम।”
“एक-ही जैसे है, अम्बट्ठ। जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता थे, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — जिनके पौराणिक मंत्र-पद [=वेद], पाठ और भाष्य को इकट्ठा कर, आजकल के ब्राह्मण पाठ करते हैं, बोलते हैं, बोले जाने वाले को रटकर बोलते हैं, पाठ किए जाने वाले रटकर पाठ करते हैं। क्या तुम्हें ‘आचार्य से रटकर दोहराने’ मात्र से लगता है कि तुम ऋषि हो? या ऋषित्व के रास्ते पर चलने वाले माने जाओगे? यह संभव नहीं है।
“क्या लगता है तुम्हें, अम्बट्ठ? क्या तुमने वरिष्ठ और वृद्ध आचार्य-प्राचार्य ब्राह्मणों से सुना है कि जो ब्राह्मणों के पूर्वज ऋषि मंत्र-कर्ता, मंत्र-प्रवक्ता थे — जैसे अष्टक, व्यमक, व्यामदेव, विश्वामित्र, यमदर्गी, अङगीरस, भारद्वाज, वासेष्ठ, कश्यप और भगू — क्या वे ऐसे ही सुस्नान कर श्रृंगार किए, गन्ध लगाकर, केश-दाढ़ी काट, माला-अलंकार पहन, श्वेत वस्त्र का परिधान कर, पाँच काम-सुखों का भोग करते हुए उसी में पड़े रहते थे — जैसे तुम और तुम्हारे आचार्य आजकल पड़े रहते हो?”
“नहीं, हे गौतम।”
“क्या वे ऐसे ही काले-दाने बीना हुआ शालिका [=परिष्कृत, चमकाया हुआ] भात, स्वादिष्ट माँस की तरकारी और रसे के साथ, विविध प्रकार की व्यंजनों के साथ भोजन करते थे — जैसे तुम और तुम्हारे आचार्य आजकल करते हो?”
“नहीं, हे गौतम।”
“क्या वे ऐसे ही तंग वस्त्र में वक्र दिखाती स्त्रियों में रमते थे — जैसे तुम और तुम्हारे आचार्य आजकल करते हो?”
“नहीं, हे गौतम।”
“क्या वे ऐसे ही वेणी किए घोड़ी को लंबे बेंत से कोड़े लगाते, पीटते हुए रथ से यात्रा करते थे — जैसे तुम और तुम्हारे आचार्य आजकल करते हो?”
“नहीं, हे गौतम।”
“क्या वे ऐसे ही खोदी खाँई और विविध बाधाओं से घेरे किल्लों पर, लंबी तलवारें पकड़े अंगरक्षकों से घिरे हुए रहते थे — जैसे तुम और तुम्हारे आचार्य आजकल करते हो?”
“नहीं, हे गौतम।”
“तब, अम्बट्ठ, न तुम्हारे आचार्य, न ही तुम ऋषि हो, न ही ऋषित्व के रास्ते पर चलने वाले हो। अब किसी को मेरे बारे में शंका या उलझन हो तो प्रश्न करें। मैं अपने उत्तर से उसकी शंका या उलझन दूर करूँगा।”
[ऐसा कह कर] भगवान अपने आवास से बाहर निकलकर चक्रमण करने [=टहलने] लगे। अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण भी आवास से बाहर निकलकर भगवान के पीछे-पीछे चक्रमण करने लगा। पीछे-पीछे चक्रमण करते हुए, वह भगवान के शरीर में ३२ महापुरुष-लक्षण ढूँढने लगा। अंततः अम्बट्ठ ने भगवान के शरीर में दो छोड़कर बचे सभी ३२ महापुरूष-लक्षण देख लिए। उसे बचे २ लक्षणों के बारे में शंका हुई, उलझन हुई: यौन-अंग का आवरण में होना, और जीभ की लंबाई। वह उन दो के बारे में शंका और उलझन को न मिटा पा रहा था, न आश्वस्त हो पा रहा था।
तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल की रचना से ऐसे रचा कि भगवान का अदृश्य यौन-अंग, आवरण में ढका हुआ, अम्बट्ठ के लिए दृश्यमान हो जाए। फिर उन्होने अपनी जीभ निकाली और उसे कान के द्वारों पर उल्टा-सीधा लगाई, नाक के द्वारों पर उल्टा-सीधा लगाई, और माथे के मण्डल पर लगाई।
तब अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण को लगा, “श्रमण गौतम ३२ महापुरूष-लक्षणों से युक्त हैं, परिपूर्ण है, अपरिपूर्ण नहीं।” और उसने भगवान से कहा, “ठीक है, हे गौतम! तब आपकी अनुमति चाहता हूँ। बहुत कर्तव्य हैं हमारे। बहुत जिम्मेदारियाँ हैं।”
“ठीक, अम्बट्ठ, जिसका उचित समय समझो!”
तब अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण [बाकी युवा ब्राह्मणों के साथ] घोड़ी के रथ पर चढ़कर चला गया।
उस समय पोक्खरसाति ब्राह्मण बहुत से ब्राह्मण-गणों के साथ उक्कट्ठ [अपने नगर] से निकलकर अपने उद्यान में अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण की प्रतिक्षा करते हुए बैठा था। तब अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण ने उस उद्यान में प्रवेश किया। जहाँ तक रथ चलने की जगह थी, वहाँ तक घोड़ी के रथ से गया, और तब रथ से उतर कर पैदल पोक्खरसाति ब्राह्मण के पास गया। और जाकर पोक्खरसाति ब्राह्मण को अभिवादन कर एक ओर बैठे गया। पोक्खरसाति ब्राह्मण ने कहा, “मेरे पुत्र, अम्बट्ठ! क्या तुमने गुरु गौतम को देखा?”
“हाँ गुरुजी! मैंने गुरु गौतम को देखा।”
“तो, मेरे पुत्र, क्या उनकी यशकीर्ति वाकई यथार्थ है अथवा नहीं? क्या गुरु गौतम वाकई वैसे ही है, जैसे कहा जा रहा है, अथवा नहीं?”
“हाँ गुरुजी, उनकी यशकीर्ति वाकई यथार्थ है। गुरु गौतम वाकई वैसे ही है, जैसे कहा जा रहा है। और गुरु गौतम ३२ महापुरुष लक्षणों से युक्त हैं, परिपूर्ण हैं, [किसी भी लक्षण से] अपरिपूर्ण नहीं हैं।”
“तो क्या तुमने श्रमण गौतम से कोई वार्तालाप की?”
“हाँ गुरुजी, मैंने श्रमण गौतम से वार्तालाप की।”
“मेरे पुत्र, तुमने श्रमण गौतम से किस तरह की वार्तालाप की?”
तब अम्बट्ठ ने भगवान के साथ जो वार्तालाप हुई थी, उसे पोक्खरसाति ब्राह्मण को ज्यों-का-त्यों सुना दिया। सुनने पर पोक्खरसाति ब्राह्मण कह उठा, “हाय रे हमारा मूर्ख पंडित! हाय रे हमारा नालायक शिक्षित! हाय रे हमारा गँवार त्रिवेदी! ऐसा कर के कोई नालायक पुरुष मरणोपरान्त काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजता है। पहले तूने ही, अम्बट्ठ, अनादर कर-कर के, अनादर कर-कर के गुरु गौतम का अपमान किया! उसी के परिणामस्वरूप गुरु गौतम हमारे बारे में अनादर करते गए, अनादर करते गए! हाय रे हमारा मूर्ख पंडित! हाय रे हमारा नालायक शिक्षित! हाय रे हमारा गँवार त्रिवेदी! ऐसा ही कर के कोई नालायक पुरुष मरणोपरान्त काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हो, यातनालोक नर्क में उपजता है।” कुपित होकर, क्षुब्ध होकर, उसने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण को लात मारकर गिरा दिया। और उसी समय भगवान के दर्शन के लिए लालायित हो उठा।
तब [साथी] ब्राह्मणों ने रोकते हुए पोक्खरसाति से कहा, “गुरुजी! आज श्रमण गौतम के दर्शनार्थ बहुत देर हो चुकी है। आप अगले दिन श्रमण गौतम के दर्शनार्थ जाएँ।”
तब पोक्खरसाति ब्राह्मण ने अपने घर पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर [भोर होने के पूर्व ही] घोड़ी के रथ पर चढ, मशाल के प्रकाश में उक्कट्ठा से निकल कर, इच्छानङ्गल के घने वन की ओर निकल पड़ा। जहाँ तक रथ चलने की जगह थी, वहाँ तक घोड़ी के रथ से गया, और तब रथ से उतर कर पैदल भगवान के पास गया। पहुँच कर कुशल-क्षेम पूछकर एक ओर बैठ गया। बैठकर उसने भगवान से कहा, “हे गौतम! क्या हमारा शिष्य अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण यहाँ आया था?”
“हाँ ब्राह्मण! तुम्हारा शिष्य अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण आया था।”
“हे गौतम! क्या आपकी मेरे शिष्य अम्बट्ठ के साथ वार्तालाप हुई?”
“हाँ, ब्राह्मण! मेरी तुम्हारे शिष्य अम्बट्ठ के साथ वार्तालाप हुई थी।”
“हे गौतम! उसके साथ क्या वार्तालाप हुई थी?”
तब भगवान ने अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण के साथ जो वार्तालाप हुई थी, उसे पोक्खरसाति ब्राह्मण को ज्यों-का-त्यों सुना दिया। सुनने पर पोक्खरसाति ब्राह्मण ने कहा, “हे गौतम! मूर्ख है अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण! उसे क्षमा करें, हे गौतम!”
“ब्राह्मण, सुखी रहे अम्बट्ठ युवा-ब्राह्मण!”
तब पोक्खरसाति ब्राह्मण भगवान के शरीर में ३२ महापुरुष-लक्षण ढूँढने लगा। अंततः उसने भगवान के शरीर में दो छोड़कर बचे सभी ३२ महापुरूष-लक्षण देख लिए। उसे बचे २ लक्षणों के बारे में शंका हुई, उलझन हुई: यौन-अंग का आवरण में होना, और जीभ की लंबाई। वह उन दो के बारे में शंका और उलझन को न मिटा पा रहा था, न आश्वस्त हो पा रहा था।
तब भगवान ने अपने ऋद्धिबल की रचना से ऐसे रचा कि भगवान का अदृश्य यौन-अंग, आवरण में ढका हुआ, पोक्खरसाति के लिए दृश्यमान हो जाए। फिर उन्होने अपनी जीभ निकाली और उसे कान के द्वारों पर उल्टा-सीधा लगाई, नाक के द्वारों पर उल्टा-सीधा लगाई, और माथे के मण्डल पर लगाई।
तब पोक्खरसाति ब्राह्मण को लगा, “श्रमण गौतम ३२ महापुरूष-लक्षणों से युक्त हैं, परिपूर्ण है, अपरिपूर्ण नहीं।” और उसने भगवान से कहा, “हे गौतम! आज भिक्षुसंघ के साथ हमारा भोजन स्वीकार करें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, पोक्खरसाति ब्राह्मण ने भगवान से विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ ब्राह्मण पोक्खरसाति के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब पोक्खरसाति ब्राह्मण ने भगवान को अपने हाथ से, और युवा ब्राह्मणों ने भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, पोक्खरसाति ब्राह्मण ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।
तब भगवान ने एक ओर बैठे पोक्खरसाति ब्राह्मण को धर्म अनुक्रम से बताया — दान की चर्चा.. [फिर] शील की चर्चा.. [फिर] स्वर्ग की चर्चा.. [फिर] कामुकता के दुष्परिणाम, पतन और दूषितता बताने के पश्चात, ‘संन्यास के लाभ’ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि पोक्खरसाति ब्राह्मण का चित्त तैयार हुआ, चित्त मृदु हुआ, चित्त अवरोध-रहित हुआ, चित्त उल्लासित हुआ और चित्त आश्वस्त हुआ, तब उन्होंने बुद्धविशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग [=चार आर्यसत्य]। जैसे कोई स्वच्छ, बेदाग वस्त्र भलीभाँति रंग पकड़ता है, उसी तरह पोक्खरसाति ब्राह्मण को उसी आसन पर बैठे हुए धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — ‘जो उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!’
तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका पोक्खरसाति ब्राह्मण, संदेह लाँघ कर, परे चला गया, जिसे कोई प्रश्न नहीं रहा, जिसे निडरता प्राप्त हुई, जो शास्ता के शासन [=शिक्षा] में स्वावलंबी हुआ [=श्रोतापन्न]। तब उसने कहा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम, अपने पुत्रों के साथ, पत्नियों के साथ, परिषद के साथ, मंत्रियों और सहायकों के साथ बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म की और संघ की भी! भगवान हमें आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें! जैसे गुरु गौतम उक्कट्ठा में दूसरे उपासकों के घर आते हैं, वैसे ही पोक्खरसाति के घर भी आएँ। जो भी ब्राह्मण युवक या युवती वहाँ होंगे, वे भगवान गौतम को अभिवादन करेंगे, उनके लिए उठेंगे, [बैठने के लिए] आसन और जल देंगे, और हृदय से हर्षित होंगे, जो उनके दीर्घकालीन हित और सुख के लिए होगा।”
“कल्याणकारी कहा, ब्राह्मण!”
२५४. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन इच्छानङ्गलं नाम कोसलानं ब्राह्मणगामो तदवसरि। तत्र सुदं भगवा इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे।
पोक्खरसातिवत्थु
२५५. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणो पोक्खरसाति उक्कट्ठं [पोक्खरसाती (सी॰), पोक्खरसादि (पी॰)] अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं रञ्ञा पसेनदिना कोसलेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं। अस्सोसि खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि इच्छानङ्गलं अनुप्पत्तो इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ [भगवाति (स्या॰ कं॰), उपरिसोणदण्डसुत्तादीसुपि बुद्धगुणकथायं एवमेव दिस्सति]। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं, सात्थं सब्यञ्जनं, केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति।
अम्बट्ठमाणवो
२५६. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स अम्बट्ठो नाम माणवो अन्तेवासी होति अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं [बेदानं (क॰)] पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो अनुञ्ञातपटिञ्ञातो सके आचरियके तेविज्जके पावचने – ‘‘यमहं जानामि, तं त्वं जानासि; यं त्वं जानासि तमहं जानामी’’ति।
२५७. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति अम्बट्ठं माणवं आमन्तेसि – ‘‘अयं, तात अम्बट्ठ, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो कोसलेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि इच्छानङ्गलं अनुप्पत्तो इच्छानङ्गले विहरति इच्छानङ्गलवनसण्डे। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा, अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं, सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होतीति। एहि त्वं तात अम्बट्ठ, येन समणो गोतमो तेनुपसङ्कम; उपसङ्कमित्वा समणं गोतमं जानाहि, यदि वा तं भवन्तं गोतमं तथासन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो, यदि वा नो तथा। यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो, तथा मयं तं भवन्तं गोतमं वेदिस्सामा’’ति।
२५८. ‘‘यथा कथं पनाहं, भो, तं भवन्तं गोतमं जानिस्सामि – ‘यदि वा तं भवन्तं गोतमं तथासन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो, यदि वा नो तथा। यदि वा सो भवं गोतमो तादिसो, यदि वा न तादिसो’’’ति?
‘‘आगतानि खो, तात अम्बट्ठ, अम्हाकं मन्तेसु द्वत्तिंस महापुरिसलक्खणानि, येहि समन्नागतस्स महापुरिसस्स द्वेयेव गतियो भवन्ति अनञ्ञा। सचे अगारं अज्झावसति, राजा होति चक्कवत्ती धम्मिको धम्मराजा चातुरन्तो विजितावी जनपदत्थावरियप्पत्तो सत्तरतनसमन्नागतो। तस्सिमानि सत्त रतनानि भवन्ति। सेय्यथिदं – चक्करतनं, हत्थिरतनं, अस्सरतनं, मणिरतनं, इत्थिरतनं, गहपतिरतनं, परिणायकरतनमेव सत्तमं। परोसहस्सं खो पनस्स पुत्ता भवन्ति सूरा वीरङ्गरूपा परसेनप्पमद्दना। सो इमं पथविं सागरपरियन्तं अदण्डेन असत्थेन धम्मेन अभिविजिय अज्झावसति। सचे खो पन अगारस्मा अनगारियं पब्बजति, अरहं होति सम्मासम्बुद्धो लोके विवट्टच्छदो। अहं खो पन, तात अम्बट्ठ, मन्तानं दाता; त्वं मन्तानं पटिग्गहेता’’ति।
२५९. ‘‘एवं, भो’’ति खो अम्बट्ठो माणवो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स पटिस्सुत्वा उट्ठायासना ब्राह्मणं पोक्खरसातिं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा वळवारथमारुय्ह सम्बहुलेहि माणवकेहि सद्धिं येन इच्छानङ्गलवनसण्डो तेन पायासि। यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव आरामं पाविसि। तेन खो पन समयेन सम्बहुला भिक्खू अब्भोकासे चङ्कमन्ति। अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन ते भिक्खू तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ते भिक्खू एतदवोच – ‘‘कहं नु खो, भो, एतरहि सो भवं गोतमो विहरति? तञ्हि मयं भवन्तं गोतमं दस्सनाय इधूपसङ्कन्ता’’ति।
२६०. अथ खो तेसं भिक्खूनं एतदहोसि – ‘‘अयं खो अम्बट्ठो माणवो अभिञ्ञातकोलञ्ञो चेव अभिञ्ञातस्स च ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स अन्तेवासी। अगरु खो पन भगवतो एवरूपेहि कुलपुत्तेहि सद्धिं कथासल्लापो होती’’ति। ते अम्बट्ठं माणवं एतदवोचुं – ‘‘एसो अम्बट्ठ विहारो संवुतद्वारो, तेन अप्पसद्दो उपसङ्कमित्वा अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा उक्कासित्वा अग्गळं आकोटेहि, विवरिस्सति ते भगवा द्वार’’न्ति।
२६१. अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन सो विहारो संवुतद्वारो, तेन अप्पसद्दो उपसङ्कमित्वा अतरमानो आळिन्दं पविसित्वा उक्कासित्वा अग्गळं आकोटेसि। विवरि भगवा द्वारं। पाविसि अम्बट्ठो माणवो। माणवकापि पविसित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। अम्बट्ठो पन माणवो चङ्कमन्तोपि निसिन्नेन भगवता कञ्चि कञ्चि [किञ्चि किञ्चि (क॰)] कथं सारणीयं वीतिसारेति, ठितोपि निसिन्नेन भगवता किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेति।
२६२. अथ खो भगवा अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘एवं नु ते, अम्बट्ठ, ब्राह्मणेहि वुद्धेहि महल्लकेहि आचरियपाचरियेहि सद्धिं कथासल्लापो होति, यथयिदं चरं तिट्ठं निसिन्नेन मया किञ्चि किञ्चि कथं सारणीयं वीतिसारेती’’ति?
पठमइब्भवादो
२६३. ‘‘नो हिदं, भो गोतम। गच्छन्तो वा हि, भो गोतम, गच्छन्तेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, ठितो वा हि, भो गोतम, ठितेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, निसिन्नो वा हि, भो गोतम, निसिन्नेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति, सयानो वा हि, भो गोतम, सयानेन ब्राह्मणो ब्राह्मणेन सद्धिं सल्लपितुमरहति। ये च खो ते, भो गोतम, मुण्डका समणका इब्भा कण्हा [किण्हा (क॰ सी॰ पी॰)] बन्धुपादापच्चा, तेहिपि मे सद्धिं एवं कथासल्लापो होति, यथरिव भोता गोतमेना’’ति। ‘‘अत्थिकवतो खो पन ते, अम्बट्ठ, इधागमनं अहोसि, यायेव खो पनत्थाय आगच्छेय्याथ [आगच्छेय्याथो (सी॰ पी॰)], तमेव अत्थं साधुकं मनसि करेय्याथ [मनसिकरेय्याथो (सी॰ पी॰)]। अवुसितवायेव खो पन भो अयं अम्बट्ठो माणवो वुसितमानी किमञ्ञत्र अवुसितत्ता’’ति।
२६४. अथ खो अम्बट्ठो माणवो भगवता अवुसितवादेन वुच्चमानो कुपितो अनत्तमनो भगवन्तंयेव खुंसेन्तो भगवन्तंयेव वम्भेन्तो भगवन्तंयेव उपवदमानो – ‘‘समणो च मे, भो, गोतमो पापितो भविस्सती’’ति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘चण्डा, भो गोतम, सक्यजाति; फरुसा, भो गोतम, सक्यजाति; लहुसा, भो गोतम, सक्यजाति; भस्सा, भो गोतम, सक्यजाति; इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति [गरुकरोन्ति (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)], न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ति। तयिदं, भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ती’’ति। इतिह अम्बट्ठो माणवो इदं पठमं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि।
दुतियइब्भवादो
२६५. ‘‘किं पन ते, अम्बट्ठ, सक्या अपरद्धु’’न्ति? ‘‘एकमिदाहं, भो गोतम, समयं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स केनचिदेव करणीयेन कपिलवत्थुं अगमासिं। येन सक्यानं सन्धागारं तेनुपसङ्कमिं। तेन खो पन समयेन सम्बहुला सक्या चेव सक्यकुमारा च सन्धागारे [सन्थागारे (सी॰ पी॰)] उच्चेसु आसनेसु निसिन्ना होन्ति अञ्ञमञ्ञं अङ्गुलिपतोदकेहि [अङ्गुलिपतोदकेन (पी॰)] सञ्जग्घन्ता संकीळन्ता, अञ्ञदत्थु ममञ्ञेव मञ्ञे अनुजग्घन्ता, न मं कोचि आसनेनपि निमन्तेसि। तयिदं, भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ती’’ति। इतिह अम्बट्ठो माणवो इदं दुतियं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि।
ततियइब्भवादो
२६६. ‘‘लटुकिकापि खो, अम्बट्ठ, सकुणिका सके कुलावके कामलापिनी होति। सकं खो पनेतं, अम्बट्ठ, सक्यानं यदिदं कपिलवत्थुं, नारहतायस्मा अम्बट्ठो इमाय अप्पमत्ताय अभिसज्जितु’’न्ति। ‘‘चत्तारोमे, भो गोतम, वण्णा – खत्तिया ब्राह्मणा वेस्सा सुद्दा। इमेसञ्हि, भो गोतम, चतुन्नं वण्णानं तयो वण्णा – खत्तिया च वेस्सा च सुद्दा च – अञ्ञदत्थु ब्राह्मणस्सेव परिचारका सम्पज्जन्ति। तयिदं, भो गोतम, नच्छन्नं, तयिदं नप्पतिरूपं, यदिमे सक्या इब्भा सन्ता इब्भा समाना न ब्राह्मणे सक्करोन्ति, न ब्राह्मणे गरुं करोन्ति, न ब्राह्मणे मानेन्ति, न ब्राह्मणे पूजेन्ति, न ब्राह्मणे अपचायन्ती’’ति। इतिह अम्बट्ठो माणवो इदं ततियं सक्येसु इब्भवादं निपातेसि।
दासिपुत्तवादो
२६७. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिबाळ्हं खो अयं अम्बट्ठो माणवो सक्येसु इब्भवादेन निम्मादेति, यंनूनाहं गोत्तं पुच्छेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘कथं गोत्तोसि, अम्बट्ठा’’ति? ‘‘कण्हायनोहमस्मि, भो गोतमा’’ति। पोराणं खो पन ते अम्बट्ठ मातापेत्तिकं नामगोत्तं अनुस्सरतो अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति; दासिपुत्तो त्वमसि सक्यानं। सक्या खो पन, अम्बट्ठ, राजानं ओक्काकं पितामहं दहन्ति।
‘‘भूतपुब्बं, अम्बट्ठ, राजा ओक्काको या सा महेसी पिया मनापा, तस्सा पुत्तस्स रज्जं परिणामेतुकामो जेट्ठकुमारे रट्ठस्मा पब्बाजेसि – ओक्कामुखं करकण्डं [उक्कामुखं करकण्डुं (सी॰ स्या॰)] हत्थिनिकं सिनिसूरं [सिनिपुरं (सी॰ स्या॰)]। ते रट्ठस्मा पब्बाजिता हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे महासाकसण्डो, तत्थ वासं कप्पेसुं। ते जातिसम्भेदभया सकाहि भगिनीहि सद्धिं संवासं कप्पेसुं।
‘‘अथ खो, अम्बट्ठ, राजा ओक्काको अमच्चे पारिसज्जे आमन्तेसि – ‘कहं नु खो, भो, एतरहि कुमारा सम्मन्ती’ति? ‘अत्थि, देव, हिमवन्तपस्से पोक्खरणिया तीरे महासाकसण्डो, तत्थेतरहि कुमारा सम्मन्ति। ते जातिसम्भेदभया सकाहि भगिनीहि सद्धिं संवासं कप्पेन्ती’ति। अथ खो, अम्बट्ठ, राजा ओक्काको उदानं उदानेसि – ‘सक्या वत, भो, कुमारा, परमसक्या वत, भो, कुमारा’ति। तदग्गे खो पन अम्बट्ठ सक्या पञ्ञायन्ति; सो च नेसं पुब्बपुरिसो।
‘‘रञ्ञो खो पन, अम्बट्ठ, ओक्काकस्स दिसा नाम दासी अहोसि। सा कण्हं नाम [सा कण्हं (पी॰)] जनेसि। जातो कण्हो पब्याहासि – ‘धोवथ मं, अम्म, नहापेथ मं अम्म, इमस्मा मं असुचिस्मा परिमोचेथ, अत्थाय वो भविस्सामी’ति। यथा खो पन अम्बट्ठ एतरहि मनुस्सा पिसाचे दिस्वा ‘पिसाचा’ति सञ्जानन्ति; एवमेव खो, अम्बट्ठ, तेन खो पन समयेन मनुस्सा पिसाचे ‘कण्हा’ति सञ्जानन्ति। ते एवमाहंसु – ‘अयं जातो पब्याहासि, कण्हो जातो, पिसाचो जातो’ति। तदग्गे खो पन, अम्बट्ठ कण्हायना पञ्ञायन्ति, सो च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो। इति खो ते, अम्बट्ठ, पोराणं मातापेत्तिकं नामगोत्तं अनुस्सरतो अय्यपुत्ता सक्या भवन्ति, दासिपुत्तो त्वमसि सक्यान’’न्ति।
२६८. एवं वुत्ते, ते माणवका भगवन्तं एतदवोचुं – ‘‘मा भवं गोतमो अम्बट्ठं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेसि। सुजातो च, भो गोतम अम्बट्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, कल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बट्ठो माणवो, पहोति च अम्बट्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु’’न्ति।
२६९. अथ खो भगवा ते माणवके एतदवोच – ‘‘सचे खो तुम्हाकं माणवकानं एवं होति – ‘दुज्जातो च अम्बट्ठो माणवो, अकुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, अप्पस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, अकल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, दुप्पञ्ञो च अम्बट्ठो माणवो, न च पहोति अम्बट्ठो माणवो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु’न्ति, तिट्ठतु अम्बट्ठो माणवो, तुम्हे मया सद्धिं मन्तव्हो अस्मिं वचने। सचे पन तुम्हाकं माणवकानं एवं होति – ‘सुजातो च अम्बट्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, कल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बट्ठो माणवो, पहोति च अम्बट्ठो माणवो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु’न्ति, तिट्ठथ तुम्हे; अम्बट्ठो माणवो मया सद्धिं पटिमन्तेतू’’ति।
‘‘सुजातो च, भो गोतम, अम्बट्ठो माणवो, कुलपुत्तो च अम्बट्ठो माणवो, बहुस्सुतो च अम्बट्ठो माणवो, कल्याणवाक्करणो च अम्बट्ठो माणवो, पण्डितो च अम्बट्ठो माणवो, पहोति च अम्बट्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतुं, तुण्ही मयं भविस्साम, अम्बट्ठो माणवो भोता गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतू’’ति।
२७०. अथ खो भगवा अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘अयं खो पन ते, अम्बट्ठ, सहधम्मिको पञ्हो आगच्छति, अकामा ब्याकातब्बो। सचे त्वं न ब्याकरिस्ससि, अञ्ञेन वा अञ्ञं पटिचरिस्ससि, तुण्ही वा भविस्ससि, पक्कमिस्ससि वा एत्थेव ते सत्तधा मुद्धा फलिस्सति। तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो’’ति?
एवं वुत्ते, अम्बट्ठो माणवो तुण्ही अहोसि। दुतियम्पि खो भगवा अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो’’ति? दुतियम्पि खो अम्बट्ठो माणवो तुण्ही अहोसि। अथ खो भगवा अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘ब्याकरोहि दानि अम्बट्ठ, न दानि, ते तुण्हीभावस्स कालो। यो खो, अम्बट्ठ, तथागतेन यावततियकं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरोति, एत्थेवस्स सत्तधा मुद्धा फलिस्सती’’ति।
२७१. तेन खो पन समयेन वजिरपाणी यक्खो महन्तं अयोकूटं आदाय आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं [सञ्जोतिभूतं (स्या॰)] अम्बट्ठस्स माणवस्स उपरि वेहासं ठितो होति – ‘‘सचायं अम्बट्ठो माणवो भगवता यावततियकं सहधम्मिकं पञ्हं पुट्ठो न ब्याकरिस्सति, एत्थेवस्स सत्तधा मुद्धं फालेस्सामी’’ति। तं खो पन वजिरपाणिं यक्खं भगवा चेव पस्सति अम्बट्ठो च माणवो।
२७२. अथ खो अम्बट्ठो माणवो भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो भगवन्तंयेव ताणं गवेसी भगवन्तंयेव लेणं गवेसी भगवन्तंयेव सरणं गवेसी – उपनिसीदित्वा भगवन्तं एतदवोच – ‘‘किमेतं [किं मे तं (क॰)] भवं गोतमो आह? पुनभवं गोतमो ब्रवितू’’ति [ब्रूतु (स्या॰)]।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं कुतोपभुतिका कण्हायना, को च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो’’ति? ‘‘एवमेव मे, भो गोतम, सुतं यथेव भवं गोतमो आह। ततोपभुतिका कण्हायना; सो च कण्हायनानं पुब्बपुरिसो’’ति।
अम्बट्ठवंसकथा
२७३. एवं वुत्ते, ते माणवका उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं – ‘‘दुज्जातो किर, भो, अम्बट्ठो माणवो; अकुलपुत्तो किर, भो, अम्बट्ठो माणवो; दासिपुत्तो किर, भो, अम्बट्ठो माणवो सक्यानं। अय्यपुत्ता किर, भो, अम्बट्ठस्स माणवस्स सक्या भवन्ति। धम्मवादिंयेव किर मयं समणं गोतमं अपसादेतब्बं अमञ्ञिम्हा’’ति।
२७४. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिबाळ्हं खो इमे माणवका अम्बट्ठं माणवं दासिपुत्तवादेन निम्मादेन्ति, यंनूनाहं परिमोचेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा ते माणवके एतदवोच – ‘‘मा खो तुम्हे, माणवका, अम्बट्ठं माणवं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेथ। उळारो सो कण्हो इसि अहोसि। सो दक्खिणजनपदं गन्त्वा ब्रह्ममन्ते अधीयित्वा राजानं ओक्काकं उपसङ्कमित्वा मद्दरूपिं धीतरं याचि। तस्स राजा ओक्काको – ‘को नेवं रे अयं मय्हं दासिपुत्तो समानो मद्दरूपिं धीतरं याचती’’’ ति, कुपितो अनत्तमनो खुरप्पं सन्नय्हि [सन्नहि (क॰)]। सो तं खुरप्पं नेव असक्खि मुञ्चितुं, नो पटिसंहरितुं।
‘‘अथ खो, माणवका, अमच्चा पारिसज्जा कण्हं इसिं उपसङ्कमित्वा एतदवोचुं – ‘सोत्थि, भद्दन्ते [भदन्ते (सी॰ स्या॰)], होतु रञ्ञो; सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रञ्ञो’ति। ‘सोत्थि भविस्सति रञ्ञो, अपि च राजा यदि अधो खुरप्पं मुञ्चिस्सति, यावता रञ्ञो विजितं, एत्तावता पथवी उन्द्रियिस्सती’ति। ‘सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रञ्ञो, सोत्थि जनपदस्सा’ति। ‘सोत्थि भविस्सति रञ्ञो, सोत्थि जनपदस्स, अपि च राजा यदि उद्धं खुरप्पं मुञ्चिस्सति, यावता रञ्ञो विजितं, एत्तावता सत्त वस्सानि देवो न वस्सिस्सती’ति। ‘सोत्थि, भद्दन्ते, होतु रञ्ञो सोत्थि जनपदस्स देवो च वस्सतू’ति। ‘सोत्थि भविस्सति रञ्ञो सोत्थि जनपदस्स देवो च वस्सिस्सति, अपि च राजा जेट्ठकुमारे खुरप्पं पतिट्ठापेतु, सोत्थि कुमारो पल्लोमो भविस्सती’ति। अथ खो, माणवका, अमच्चा ओक्काकस्स आरोचेसुं – ‘ओक्काको जेट्ठकुमारे खुरप्पं पतिट्ठापेतु। सोत्थि कुमारो पल्लोमो भविस्सती’ति। अथ खो राजा ओक्काको जेट्ठकुमारे खुरप्पं पतिट्ठपेसि, सोत्थि कुमारो पल्लोमो समभवि। अथ खो तस्स राजा ओक्काको भीतो संविग्गो लोमहट्ठजातो ब्रह्मदण्डेन तज्जितो मद्दरूपिं धीतरं अदासि। मा खो तुम्हे, माणवका, अम्बट्ठं माणवं अतिबाळ्हं दासिपुत्तवादेन निम्मादेथ, उळारो सो कण्हो इसि अहोसी’’ति।
खत्तियसेट्ठभावो
२७५. अथ खो भगवा अम्बट्ठं माणवं आमन्तेसि – ‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध खत्तियकुमारो ब्राह्मणकञ्ञाय सद्धिं संवासं कप्पेय्य, तेसं संवासमन्वाय पुत्तो जायेथ। यो सो खत्तियकुमारेन ब्राह्मणकञ्ञाय पुत्तो उप्पन्नो, अपि नु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा’’ति? ‘‘लभेथ, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यञ्ञे वा पाहुने वा’’ति? ‘‘भोजेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा’’ति? ‘‘वाचेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा’’ति? ‘‘अनावटं हिस्स, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं खत्तिया खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चेय्यु’’न्ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘मातितो हि, भो गोतम, अनुपपन्नो’’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध ब्राह्मणकुमारो खत्तियकञ्ञाय सद्धिं संवासं कप्पेय्य, तेसं संवासमन्वाय पुत्तो जायेथ। यो सो ब्राह्मणकुमारेन खत्तियकञ्ञाय पुत्तो उप्पन्नो, अपिनु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा’’ति? ‘‘लभेथ, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यञ्ञे वा पाहुने वा’’ति? ‘‘भोजेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा’’ति? ‘‘वाचेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा’’ति? ‘‘अनावटं हिस्स, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं खत्तिया खत्तियाभिसेकेन अभिसिञ्चेय्यु’’न्ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘तं किस्स हेतु’’? ‘‘पितितो हि, भो गोतम, अनुपपन्नो’’ति।
२७६. ‘‘इति खो, अम्बट्ठ, इत्थिया वा इत्थिं करित्वा पुरिसेन वा पुरिसं करित्वा खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणा। तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध ब्राह्मणा ब्राह्मणं किस्मिञ्चिदेव पकरणे खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेय्युं। अपिनु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यञ्ञे वा पाहुने वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा’’ति? ‘‘आवटं हिस्स, भो गोतम’’।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध खत्तिया खत्तियं किस्मिञ्चिदेव पकरणे खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेय्युं। अपिनु सो लभेथ ब्राह्मणेसु आसनं वा उदकं वा’’ति? ‘‘लभेथ, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा भोजेय्युं सद्धे वा थालिपाके वा यञ्ञे वा पाहुने वा’’ति? ‘‘भोजेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनु नं ब्राह्मणा मन्ते वाचेय्युं वा नो वा’’ति? ‘‘वाचेय्युं, भो गोतम’’। ‘‘अपिनुस्स इत्थीसु आवटं वा अस्स अनावटं वा’’ति? ‘‘अनावटं हिस्स, भो गोतम’’।
२७७. ‘‘एत्तावता खो, अम्बट्ठ, खत्तियो परमनिहीनतं पत्तो होति, यदेव नं खत्तिया खुरमुण्डं करित्वा भस्सपुटेन वधित्वा रट्ठा वा नगरा वा पब्बाजेन्ति। इति खो, अम्बट्ठ, यदा खत्तियो परमनिहीनतं पत्तो होति, तदापि खत्तियाव सेट्ठा, हीना ब्राह्मणा। ब्रह्मुना पेसा, अम्बट्ठ [ब्रह्मुनापि अम्बट्ठ (क॰), ब्रह्मुनापि एसो अम्बट्ठ (पी॰)], सनङ्कुमारेन गाथा भासिता –
‘खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं,
ये गोत्तपटिसारिनो।
विज्जाचरणसम्पन्नो,
सो सेट्ठो देवमानुसे’ति॥
‘‘सा खो पनेसा, अम्बट्ठ, ब्रह्मुना सनङ्कुमारेन गाथा सुगीता नो दुग्गीता, सुभासिता नो दुब्भासिता, अत्थसंहिता नो अनत्थसंहिता, अनुमता मया। अहम्पि हि, अम्बट्ठ, एवं वदामि –
‘खत्तियो सेट्ठो जनेतस्मिं,
ये गोत्तपटिसारिनो।
विज्जाचरणसम्पन्नो,
सो सेट्ठो देवमानुसे’ति॥
भाणवारो पठमो।
विज्जाचरणकथा
२७८. ‘‘कतमं पन तं, भो गोतम, चरणं, कतमा च पन सा विज्जा’’ति? ‘‘न खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय जातिवादो वा वुच्चति, गोत्तवादो वा वुच्चति, मानवादो वा वुच्चति – ‘अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी’ति। यत्थ खो, अम्बट्ठ, आवाहो वा होति, विवाहो वा होति, आवाहविवाहो वा होति, एत्थेतं वुच्चति जातिवादो वा इतिपि गोत्तवादो वा इतिपि मानवादो वा इतिपि – ‘अरहसि वा मं त्वं, न वा मं त्वं अरहसी’ति। ये हि केचि अम्बट्ठ जातिवादविनिबद्धा वा गोत्तवादविनिबद्धा वा मानवादविनिबद्धा वा आवाहविवाहविनिबद्धा वा, आरका ते अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय। पहाय खो, अम्बट्ठ, जातिवादविनिबद्धञ्च गोत्तवादविनिबद्धञ्च मानवादविनिबद्धञ्च आवाहविवाहविनिबद्धञ्च अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सच्छिकिरिया होती’’ति।
२७९. ‘‘कतमं पन तं, भो गोतम, चरणं, कतमा च सा विज्जा’’ति? ‘‘इध, अम्बट्ठ, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। तं धम्मं सुणाति गहपति वा गहपतिपुत्तो वा अञ्ञतरस्मिं वा कुले पच्चाजातो। सो तं धम्मं सुत्वा तथागते सद्धं पटिलभति। सो तेन सद्धापटिलाभेन समन्नागतो इति पटिसञ्चिक्खति…पे॰… (यथा १९१ आदयो अनुच्छेदा, एवं वित्थारेतब्बं)।…
‘‘सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… इदम्पिस्स होति चरणस्मिं।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… इदम्पिस्स होति चरणस्मिं।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… इदम्पिस्स होति चरणस्मिं।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना, पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… इदम्पिस्स होति चरणस्मिं। इदं खो तं, अम्बट्ठ, चरणं।
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते परिसुद्धे परियोदाते अनङ्गणे विगतूपक्किलेसे मुदुभूते कम्मनिये ठिते आनेञ्जप्पत्ते ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… इदम्पिस्स होति विज्जाय…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति, इदम्पिस्स होति विज्जाय। अयं खो सा, अम्बट्ठ, विज्जा।
‘‘अयं वुच्चति, अम्बट्ठ, भिक्खु ‘विज्जासम्पन्नो’ इतिपि, ‘चरणसम्पन्नो’ इतिपि, ‘विज्जाचरणसम्पन्नो’ इतिपि। इमाय च अम्बट्ठ विज्जासम्पदाय चरणसम्पदाय च अञ्ञा विज्जासम्पदा च चरणसम्पदा च उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थि।
चतुअपायमुखं
२८०. ‘‘इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति। कतमानि चत्तारि? इध, अम्बट्ठ, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमञ्ञेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो खारिविधमादाय [खारिविविधमादाय (सी॰ स्या॰ पी॰)] अरञ्ञायतनं अज्झोगाहति – ‘पवत्तफलभोजनो भविस्सामी’ति। सो अञ्ञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति। इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं पठमं अपायमुखं भवति।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कुदालपिटकं [कुद्दालपिटकं (सी॰ स्या॰ पी॰)] आदाय अरञ्ञवनं अज्झोगाहति – ‘कन्दमूलफलभोजनो भविस्सामी’ति। सो अञ्ञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति। इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं दुतियं अपायमुखं भवति।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो गामसामन्तं वा निगमसामन्तं वा अग्यागारं करित्वा अग्गिं परिचरन्तो अच्छति। सो अञ्ञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति। इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं ततियं अपायमुखं भवति।
‘‘पुन चपरं, अम्बट्ठ, इधेकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा इमं चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो अग्गिपारिचरियञ्च अनभिसम्भुणमानो चातुमहापथे चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छति – ‘यो इमाहि चतूहि दिसाहि आगमिस्सति समणो वा ब्राह्मणो वा, तमहं यथासत्ति यथाबलं पटिपूजेस्सामी’ति। सो अञ्ञदत्थु विज्जाचरणसम्पन्नस्सेव परिचारको सम्पज्जति। इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इदं चतुत्थं अपायमुखं भवति। इमाय खो, अम्बट्ठ, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय इमानि चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति।
२८१. ‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमाय अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय सन्दिस्ससि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’। ‘कोचाहं, भो गोतम, साचरियको, का च अनुत्तरा विज्जाचरणसम्पदा? आरकाहं, भो गोतम, अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय साचरियको’’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो खारिविधमादाय अरञ्ञवनमज्झोगाहसि साचरियको – ‘पवत्तफलभोजनो भविस्सामी’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कुदालपिटकं आदाय अरञ्ञवनमज्झोगाहसि साचरियको – ‘कन्दमूलफलभोजनो भविस्सामी’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो गामसामन्तं वा निगमसामन्तं वा अग्यागारं करित्वा अग्गिं परिचरन्तो अच्छसि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, अपिनु त्वं इमञ्चेव अनुत्तरं विज्जाचरणसम्पदं अनभिसम्भुणमानो पवत्तफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो कन्दमूलफलभोजनतञ्च अनभिसम्भुणमानो अग्गिपारिचरियञ्च अनभिसम्भुणमानो चातुमहापथे चतुद्वारं अगारं करित्वा अच्छसि साचरियको – ‘यो इमाहि चतूहि दिसाहि आगमिस्सति समणो वा ब्राह्मणो वा, तं मयं यथासत्ति यथाबलं पटिपूजेस्सामा’’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
२८२. ‘‘इति खो, अम्बट्ठ, इमाय चेव त्वं अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय परिहीनो साचरियको। ये चिमे अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय चत्तारि अपायमुखानि भवन्ति, ततो च त्वं परिहीनो साचरियको। भासिता खो पन ते एसा, अम्बट्ठ, आचरियेन ब्राह्मणेन पोक्खरसातिना वाचा – ‘के च मुण्डका समणका इब्भा कण्हा बन्धुपादापच्चा, का च तेविज्जानं ब्राह्मणानं साकच्छा’ति अत्तना आपायिकोपि अपरिपूरमानो। पस्स, अम्बट्ठ, याव अपरद्धञ्च ते इदं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स।
पुब्बकइसिभावानुयोगो
२८३. ‘‘ब्राह्मणो खो पन, अम्बट्ठ, पोक्खरसाति रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स दत्तिकं भुञ्जति। तस्स राजा पसेनदि कोसलो सम्मुखीभावम्पि न ददाति। यदापि तेन मन्तेति, तिरोदुस्सन्तेन मन्तेति। यस्स खो पन, अम्बट्ठ, धम्मिकं पयातं भिक्खं पटिग्गण्हेय्य, कथं तस्स राजा पसेनदि कोसलो सम्मुखीभावम्पि न ददेय्य। पस्स, अम्बट्ठ, याव अपरद्धञ्च ते इदं आचरियस्स ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स।
२८४. ‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, इध राजा पसेनदि कोसलो हत्थिगीवाय वा निसिन्नो अस्सपिट्ठे वा निसिन्नो रथूपत्थरे वा ठितो उग्गेहि वा राजञ्ञेहि वा किञ्चिदेव मन्तनं मन्तेय्य। सो तम्हा पदेसा अपक्कम्म एकमन्तं तिट्ठेय्य। अथ आगच्छेय्य सुद्दो वा सुद्ददासो वा, तस्मिं पदेसे ठितो तदेव मन्तनं मन्तेय्य – ‘एवम्पि राजा पसेनदि कोसलो आह, एवम्पि राजा पसेनदि कोसलो आहा’ति। अपिनु सो राजभणितं वा भणति राजमन्तनं वा मन्तेति? एत्तावता सो अस्स राजा वा राजमत्तो वा’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
२८५. ‘‘एवमेव खो त्वं, अम्बट्ठ, ये ते अहेसुं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति तदनुभासन्ति भासितमनुभासन्ति वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि [यमदग्गि (क॰)] अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु – ‘त्याहं मन्ते अधियामि साचरियको’ति, तावता त्वं भविस्ससि इसि वा इसित्थाय वा पटिपन्नोति नेतं ठानं विज्जति।
२८६. ‘‘तं किं मञ्ञसि, अम्बट्ठ, किन्ति ते सुतं ब्राह्मणानं वुद्धानं महल्लकानं आचरियपाचरियानं भासमानानं – ये ते अहेसुं ब्राह्मणानं पुब्बका इसयो मन्तानं कत्तारो मन्तानं पवत्तारो, येसमिदं एतरहि ब्राह्मणा पोराणं मन्तपदं गीतं पवुत्तं समिहितं, तदनुगायन्ति तदनुभासन्ति भासितमनुभासन्ति वाचितमनुवाचेन्ति, सेय्यथिदं – अट्ठको वामको वामदेवो वेस्सामित्तो यमतग्गि अङ्गीरसो भारद्वाजो वासेट्ठो कस्सपो भगु, एवं सु ते सुन्हाता सुविलित्ता कप्पितकेसमस्सू आमुक्कमणिकुण्डलाभरणा [आमुत्तमालाभरणा (सी॰ स्या॰ पी॰)] ओदातवत्थवसना पञ्चहि कामगुणेहि समप्पिता समङ्गीभूता परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘…पे॰… एवं सु ते सालीनं ओदनं सुचिमंसूपसेचनं विचितकाळकं अनेकसूपं अनेकब्यञ्जनं परिभुञ्जन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘…पे॰… एवं सु ते वेठकनतपस्साहि नारीहि परिचारेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘…पे॰… एवं सु ते कुत्तवालेहि वळवारथेहि दीघाहि पतोदलट्ठीहि वाहने वितुदेन्ता विपरियायन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘…पे॰… एवं सु ते उक्किण्णपरिखासु ओक्खित्तपलिघासु नगरूपकारिकासु दीघासिवुधेहि [दीघासिबद्धेहि (स्या॰ पी॰)] पुरिसेहि रक्खापेन्ति, सेय्यथापि त्वं एतरहि साचरियको’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम’’।
‘‘इति खो, अम्बट्ठ, नेव त्वं इसि न इसित्थाय पटिपन्नो साचरियको। यस्स खो पन, अम्बट्ठ, मयि कङ्खा वा विमति वा सो मं पञ्हेन, अहं वेय्याकरणेन सोधिस्सामी’’ति।
द्वेलक्खणादस्सनं
२८७. अथ खो भगवा विहारा निक्खम्म चङ्कमं अब्भुट्ठासि। अम्बट्ठोपि माणवो विहारा निक्खम्म चङ्कमं अब्भुट्ठासि। अथ खो अम्बट्ठो माणवो भगवन्तं चङ्कमन्तं अनुचङ्कममानो भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि समन्नेसि। अद्दसा खो अम्बट्ठो माणवो भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे। द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति – कोसोहिते च वत्थगुय्हे पहूतजिव्हताय च।
२८८. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘पस्सति खो मे अयं अम्बट्ठो माणवो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे। द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति – कोसोहिते च वत्थगुय्हे पहूतजिव्हताय चा’’ति। अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खासि यथा अद्दस अम्बट्ठो माणवो भगवतो कोसोहितं वत्थगुय्हं। अथ खो भगवा जिव्हं निन्नामेत्वा उभोपि कण्णसोतानि अनुमसि पटिमसि, उभोपि नासिकसोतानि अनुमसि पटिमसि, केवलम्पि नलाटमण्डलं जिव्हाय छादेसि। अथ खो अम्बट्ठस्स माणवस्स एतदहोसि – ‘‘समन्नागतो खो समणो गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि, नो अपरिपुण्णेही’’ति। भगवन्तं एतदवोच – ‘‘हन्द च दानि मयं, भो गोतम, गच्छाम, बहुकिच्चा मयं बहुकरणीया’’ति। ‘‘यस्सदानि त्वं, अम्बट्ठ, कालं मञ्ञसी’’ति। अथ खो अम्बट्ठो माणवो वळवारथमारुय्ह पक्कामि।
२८९. तेन खो पन समयेन ब्राह्मणो पोक्खरसाति उक्कट्ठाय निक्खमित्वा महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं सके आरामे निसिन्नो होति अम्बट्ठंयेव माणवं पटिमानेन्तो। अथ खो अम्बट्ठो माणवो येन सको आरामो तेन पायासि। यावतिका यानस्स भूमि, यानेन गन्त्वा याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन ब्राह्मणो पोक्खरसाति तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ब्राह्मणं पोक्खरसातिं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।
२९०. एकमन्तं निसिन्नं खो अम्बट्ठं माणवं ब्राह्मणो पोक्खरसाति एतदवोच – ‘‘कच्चि, तात अम्बट्ठ, अद्दस तं भवन्तं गोतम’’न्ति? ‘‘अद्दसाम खो मयं, भो, तं भवन्तं गोतम’’न्ति। ‘‘कच्चि, तात अम्बट्ठ, तं भवन्तं गोतमं तथा सन्तंयेव सद्दो अब्भुग्गतो नो अञ्ञथा; कच्चि पन सो भवं गोतमो तादिसो नो अञ्ञादिसो’’ति? ‘‘तथा सन्तंयेव, भो, तं भवन्तं गोतमं सद्दो अब्भुग्गतो नो अञ्ञथा, तादिसोव सो भवं गोतमो नो अञ्ञादिसो। समन्नागतो च सो भवं गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि नो अपरिपुण्णेही’’ति। ‘‘अहु पन ते, तात अम्बट्ठ, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? ‘‘अहु खो मे, भो, समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति। ‘‘यथा कथं पन ते, तात अम्बट्ठ, अहु समणेन गोतमेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? अथ खो अम्बट्ठो माणवो यावतको [यावतिको (क॰ पी॰)] अहोसि भगवता सद्धिं कथासल्लापो, तं सब्बं ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स आरोचेसि।
२९१. एवं वुत्ते, ब्राह्मणो पोक्खरसाति अम्बट्ठं माणवं एतदवोच – ‘‘अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक [पण्डितका], अहो वत रे अम्हाकं बहुस्सुतक [बहुस्सुतका], अहो वत रे अम्हाकं तेविज्जक [तेविज्जका], एवरूपेन किर, भो, पुरिसो अत्थचरकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्य। यदेव खो त्वं, अम्बट्ठ, तं भवन्तं गोतमं एवं आसज्ज आसज्ज अवचासि, अथ खो सो भवं गोतमो अम्हेपि एवं उपनेय्य उपनेय्य अवच। अहो वत रे अम्हाकं पण्डितक, अहो वत रे अम्हाकं बहुस्सुतक, अहो वत रे अम्हाकं तेविज्जक, एवरूपेन किर, भो, पुरिसो अत्थचरकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्या’’ति, कुपितो [सो कुपितो (पी॰)] अनत्तमनो अम्बट्ठं माणवं पदसायेव पवत्तेसि। इच्छति च तावदेव भगवन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।
पोक्खरसातिबुद्धुपसङ्कमनं
२९२. अथ खो ते ब्राह्मणा ब्राह्मणं पोक्खरसातिं एतदवोचुं – ‘‘अतिविकालो खो, भो, अज्ज समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। स्वेदानि [दानि स्वे (सी॰ क॰)] भवं पोक्खरसाति समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’ति। अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा याने आरोपेत्वा उक्कासु धारियमानासु उक्कट्ठाय निय्यासि, येन इच्छानङ्गलवनसण्डो तेन पायासि। यावतिका यानस्स भूमि यानेन गन्त्वा, याना पच्चोरोहित्वा पत्तिकोव येन भगवा तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि।
२९३. एकमन्तं निसिन्नो खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘आगमा नु खो इध, भो गोतम, अम्हाकं अन्तेवासी अम्बट्ठो माणवो’’ति? ‘‘आगमा खो ते [तेध (स्या॰), ते इध (पी॰)], ब्राह्मण, अन्तेवासी अम्बट्ठो माणवो’’ति। ‘‘अहु पन ते, भो गोतम, अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? ‘‘अहु खो मे, ब्राह्मण, अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति। ‘‘यथाकथं पन ते, भो गोतम, अहु अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कोचिदेव कथासल्लापो’’ति? अथ खो भगवा यावतको अहोसि अम्बट्ठेन माणवेन सद्धिं कथासल्लापो, तं सब्बं ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स आरोचेसि। एवं वुत्ते, ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं एतदवोच – ‘‘बालो, भो गोतम, अम्बट्ठो माणवो, खमतु भवं गोतमो अम्बट्ठस्स माणवस्सा’’ति। ‘‘सुखी होतु, ब्राह्मण, अम्बट्ठो माणवो’’ति।
२९४. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि समन्नेसि। अद्दसा खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो काये द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे। द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति – कोसोहिते च वत्थगुय्हे पहूतजिव्हताय च।
२९५. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘पस्सति खो मे अयं ब्राह्मणो पोक्खरसाति द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणानि येभुय्येन ठपेत्वा द्वे। द्वीसु महापुरिसलक्खणेसु कङ्खति विचिकिच्छति नाधिमुच्चति न सम्पसीदति – कोसोहिते च वत्थगुय्हे, पहूतजिव्हताय चा’’ति। अथ खो भगवा तथारूपं इद्धाभिसङ्खारं अभिसङ्खासि यथा अद्दस ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो कोसोहितं वत्थगुय्हं। अथ खो भगवा जिव्हं निन्नामेत्वा उभोपि कण्णसोतानि अनुमसि पटिमसि, उभोपि नासिकसोतानि अनुमसि पटिमसि, केवलम्पि नलाटमण्डलं जिव्हाय छादेसि।
२९६. अथ खो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स एतदहोसि – ‘‘समन्नागतो खो समणो गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि परिपुण्णेहि नो अपरिपुण्णेही’’ति। भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अधिवासेतु मे भवं गोतमो अज्जतनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन।
२९७. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवतो अधिवासनं विदित्वा भगवतो कालं आरोचेसि – ‘‘कालो, भो गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि, माणवकापि भिक्खुसङ्घं। अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि।
२९८. एकमन्तं निसिन्नस्स खो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स भगवा अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं – दानकथं सीलकथं सग्गकथं; कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं, नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा भगवा अञ्ञासि ब्राह्मणं पोक्खरसातिं कल्लचित्तं मुदुचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य; एवमेव ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स तस्मिञ्ञेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति।
पोक्खरसातिउपासकत्तपटिवेदना
२९९. अथ खो ब्राह्मणो पोक्खरसाति दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम। सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भो गोतम, सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं। यथा च भवं गोतमो उक्कट्ठाय अञ्ञानि उपासककुलानि उपसङ्कमति, एवमेव भवं गोतमो पोक्खरसातिकुलं उपसङ्कमतु। तत्थ ये ते माणवका वा माणविका वा भवन्तं गोतमं अभिवादेस्सन्ति वा पच्चुट्ठिस्सन्ति [पच्चुट्ठस्सन्ति (पी॰)] वा आसनं वा उदकं वा दस्सन्ति चित्तं वा पसादेस्सन्ति, तेसं तं भविस्सति दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। ‘‘कल्याणं वुच्चति, ब्राह्मणा’’ति।
अम्बट्ठसुत्तं निट्ठितं ततियं।