नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 सोणदण्ड ब्राह्मण

सूत्र विवेचना

इस सूत्र से ब्राह्मण वर्ग में व्याप्त असुरक्षा की गहरी भावनाओं का परिचय मिलता है, जो उन्हें एक तरह से दया का पात्र बना देती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे खुद द्वारा निर्मित सामाजिक नियमों के जाल में फंसकर रह गए हैं। उस समय, उनकी आमदनी पूरी तरह दूसरों पर निर्भर होती थी, और उनका जीवन यश, कीर्ति और लाभ के इर्द-गिर्द घूमता था — जिन्हें बुद्ध ने अपने शिष्यों को दुःखमुक्ति के मार्ग में रुकावट मानकर उनसे दूर रहने का निर्देश दिया था।

कुछ सच्चे हृदय वाले ब्राह्मण भगवान से धर्म का उपदेश सुनते थे, लेकिन इस जटिल सामाजिक स्थिति के कारण वे अपनी श्रद्धा को व्यक्त नहीं कर पाते थे। फिर भी, भगवान अपनी करुणा से अभिभूत होकर उन्हें अधिक से अधिक आध्यात्मिक लाभ प्रदान करने के लिए अग्रसर होते हैं। इस सूत्र में उठने वाली बहस न केवल हृदय और मस्तिष्क को खोल देती है, बल्कि ब्राह्मणत्व की परिभाषा को भी पुनः सृजित करने का प्रयास करती है।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

चम्पा के ब्राह्मण और गृहस्थ

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ अङ्ग देश में घूमते हुए चम्पा में पहुँचे। वहाँ वे गग्गरा पुष्करणी [=कमलपुष्प का तालाब] के किनारे विहार करने लगे।

उस समय ब्राह्मण सोणदण्ड चम्पा में रहता था, जो एक घनी आबादी वाला इलाका था, और घास, लकड़ी, जल और धन-धान्य से संपन्न था। मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार ने राज-उपहार के तौर पर चम्पा की राजसत्ता सोणदण्ड ब्राह्मण को सौंपी हुई थी।

और चम्पा के ब्राह्मणों और गृहस्थों [=वैश्य] ने सुना, “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ अङ्ग देश में घूमते हुए चम्पा में पहुँचे हैं। वहाँ वे गग्गरा पुष्करणी के किनारे विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”

तब चम्पावासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, चम्पा से निकलकर गग्गरा पुष्करणी की ओर चल पड़े। उस समय ब्राह्मण सोणदण्ड, दिन में झपकी लेने के लिए महल के ऊपरी कक्ष में गया था। उसने चम्पावासी ब्राह्मणों और गृहस्थों को, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, चम्पा से निकलकर गग्गरा पुष्करणी की ओर जाते देखा। ऐसा देखकर उसने सचिव से कहा, “सचिव जी, ये चम्पावासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, चम्पा से निकलकर गग्गरा पुष्करणी की ओर क्यों जा रहे हैं?”

“ऐसा है, श्रीमान, कि शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ अङ्ग देश में घूमते हुए चम्पा में पहुँचे हैं। वहाँ वे गग्गरा पुष्करणी के किनारे विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ उन्ही गुरु गौतम का दर्शन लेने के लिए चम्पावासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, चम्पा से निकलकर गग्गरा पुष्करणी की ओर जा रहे हैं।”

“तब सचिव जी, उन ब्राह्मणों और गृहस्थों के पास जाओ, और उन्हें कहो — ‘श्रीमानों, थोड़ा ठहर जाएँ, ताकि ब्राह्मण सोणदण्ड भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए साथ आ पाएँ।’”

“ठीक है, श्रीमान!” सचिव ने उत्तर दिया, और उन ब्राह्मणों और गृहस्थों के पास गया। और उन्हें कहा — “श्रीमानों, थोड़ा ठहर जाएँ, ताकि ब्राह्मण सोणदण्ड भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए साथ आ पाएँ।”

सोणदण्ड के गुण

उस समय विभिन्न देशो से पाँच-सौ ब्राह्मण किसी कार्य से चम्पा में आकर रह रहे थे। उन ब्राह्मणों ने सुना कि ब्राह्मण सोणदण्ड भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जाएँगे। तब वे सभी ब्राह्मण ब्राह्मण सोणदण्ड के पास गए, और उन्होने जाकर कहा, “क्या यह सच है, सोणदण्ड जी, कि आप श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जा रहे हैं?”

“हाँ, श्रीमानों! यह सच है कि श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जा रहा हूँ।”

“मत जाईयें, सोणदण्ड जी, श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए! यह उचित नहीं है कि श्रीमान सोणदण्ड श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। क्योंकि यदि सोणदण्ड जी श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँगे, तो सोणदण्ड जी की यशकिर्ति घट जाएगी और श्रमण गौतम की यशकिर्ति अत्याधिक बढ़ जाएगी। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रीमान सोणदण्ड श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। बल्कि उचित यह होगा कि श्रमण गौतम श्रीमान सोणदण्ड का दर्शन करने के लिए आएँ।

श्रीमान सोणदण्ड, माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात [=ऊँची जाति का] है, जातिवाद से [देखें, तो] पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड समृद्धशाली है, महाधनी है, महाभोगशाली है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड वेदों के अभ्यस्त है, मंत्रों के जानकार है, तीनों वेदों में पारंगत है, विधि और कर्मकाण्डों के निपुण व्याख्याकार है, शब्द और अर्थ के भेदी है, पाँचवे इतिहास में पारंगत है, [संस्कृत] पदों के वक्ता, [संस्कृत] व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड रूपवान है, दर्शनीय है, आकर्षक है, परमवर्ण से संपन्न है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के है, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते है, असाधारण दिखते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड शीलवान है, शील में परिपक्व है, ऊँचे शील से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड कल्याणकारी [=भले] वचन बोलते है, कल्याणकारी [शब्दों में] व्यक्त करते है, विनम्र भाषा में, स्वच्छ और स्पष्ट उच्चारण के साथ, अर्थ सहित बातें समझाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड बहुतों के आचार्य-प्राचार्य है, तीन-सौ युवा ब्राह्मणों को मंत्र पढ़ाते है। मंत्र सीखने की लक्ष्य से बहुत से युवा ब्राह्मण विभिन्न दिशाओं से आकर, विभिन्न देश और नगरों से आकर श्रीमान सोणदण्ड से मंत्र पाठ करना सीखते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड जीर्ण हो चुके है, वृद्ध हो चुके है, दीर्घकाल अनुभवी हो चुके है, बुजुर्ग हो चुके है, उम्रदराज़ हो चुके है। जबकि श्रमण गौतम अभी तरुण ही है, युवावस्था में प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड का मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार सत्कार करते है, सम्मान करते है, मानते है, पूजते है, आदर करते है। और श्रीमान सोणदण्ड का पोक्खरसाति ब्राह्मण सत्कार करते है, सम्मान करते है, मानते है, पूजते है, आदर करते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान सोणदण्ड चम्पा में रहते है, जो एक घनी आबादी वाला इलाका है, और घास, लकड़ी, जल और धन-धान्य से संपन्न है। मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार ने राज-उपहार के तौर पर चम्पा की राजसत्ता सोणदण्ड ब्राह्मण को सौंपी हुई है। इसलिए भी यह उचित नहीं है कि श्रीमान सोणदण्ड श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। बल्कि उचित यह होगा कि श्रमण गौतम श्रीमान सोणदण्ड का दर्शन करने के लिए आएँ।”

बुद्ध के गुण

जब उन ब्राह्मणों ने सोणदण्ड ब्राह्मण से ऐसा कहा, तब सोणदण्ड ब्राह्मण ने उन्हें कहा, “अच्छा, श्रीमानों, तब मुझे भी सुन लें कि क्यों श्रमण गौतम को मेरा दर्शन करने के लिए आना उचित नहीं है? बल्कि मुझे ही श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाना उचित है।

श्रमण गौतम भी — माता और पिता, दोनों के ही कुल से ऊँची जाति के है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हैं। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि मैं श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाऊँ।

श्रमण गौतम ने बहुत बड़े परिवार और रिश्तेदारों को त्यागकर प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ने भूमिगत छिपाए और खुले रखे अत्याधिक हिरण्य [=बिना गढ़ा स्वर्ण] और [गढ़ा गया] स्वर्ण त्यागकर प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम युवा ही थे, काले केश वाले, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त, जब उन्होने माता-पिता के इच्छा विरुद्ध, उन्हें आँसूभरे चेहरे से बिलखते छोड़, सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्ज्यित हुए। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम रूपवान है, दर्शनीय है, आकर्षक है, परमवर्ण से संपन्न है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के है, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते है, असाधारण दिखते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम शीलवान है, आर्य स्वभाव के है, कुशल स्वभाव के है, कुशल शीलों से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम कल्याणकारी वचन बोलते है, कल्याणकारी व्यक्त करते है, विनम्र भाषा में, स्वच्छ और स्पष्ट उच्चारण के साथ, अर्थ सहित बातें समझाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बहुतों के आचार्य-प्राचार्य है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम क्षीण-कामरागी है, चंचलता-विहीन है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम कर्मवादी [=कर्म बताने वाले] है, क्रियावादी [=कर्मों के फ़ल-परिणाम बताने वाले] है, जनता में निष्पाप ब्राह्मण्यता के सम्मानकर्ता है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बिना मिलावट के [=परिशुद्ध] क्षत्रियकुल के ऊँचे कुल से प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम समृद्धशाली, महाधनी, महाभोगशाली कुल से प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम से प्रश्न पुछने के लिए दूर-दूर के देशों से, दूर-दूर के राज्यों से लोग आते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम की शरण अनेक जीवों और हजारों देवताओं ने ली हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम के बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ३२ महापुरुष लक्षणों से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ‘आईयें, स्वागत है’ कहने वालों में से है, मैत्रीपूर्ण है, मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करते है, क्रोधित नहीं होते है, स्वयं पहले बोलने वालों मे से है, खुले हृदय के है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम चारों [वर्ण] परिषदों के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बहुत देवताओं और मानवों के आस्था स्थल है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम जिस भी गाँव या नगर में रहने लगते है, उस गाँव या नगर में मानवों को अमनुष्य [=भूत] परेशान नहीं करते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम संघ के स्वामी है, समुदाय के नेता है, समुदाय के आचार्य है, अनेक संप्रदायों में श्रेष्ठ माने जाते है। श्रमण गौतम की यशकिर्ति में ऐसा-वैसा [शंकास्पद] सुनने में नहीं आता है, जैसा दूसरे श्रमण और ब्राह्मणों के बारे में सुनने में आता है। श्रमण गौतम की यशकिर्ति सर्वोत्तर विद्या और आचरण की प्राप्ति पर ही आधारित होती है। इसलिए यह उचित नहीं है… मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार अपने संतानों, रानियों, परिषद [=दरबारियों], मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… महाराजा प्रसेनजित कौशल अपने संतानों, रानियों, परिषद, मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… पोक्खरसाति ब्राह्मण अपने संतानों, पत्नियों, परिषद, मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम मगधराज सेनिय बिम्बिसार के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम महाराजा प्रसेनजित कौशल के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम महाराजा पोक्खरसाति ब्राह्मण के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि मैं श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाऊँ।

और श्रमण गौतम हमारे नगर चम्पा में आकर, गग्गरा के पुष्करणी में विहार कर रहे हैं। जो भी श्रमण और ब्राह्मण हमारे राज्य में आते हैं, वे हमारे अतिथि हैं। और हमें उनका सत्कार करना चाहिए, सम्मान करना चाहिए, मानना चाहिए, पूजना चाहिए। हमारे गग्गरा के पुष्करणी में विहार करने वाले श्रमण गौतम ऐसे अतिथि है, और उनसे ऐसे व्यवहार करना चाहिए। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि हम श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। श्रमण गौतम की जितनी भी प्रशंसा करें, वह प्रशंसा अपर्याप्त ही होगी। श्रमण गौतम प्रशंसा के परे है।”

ऐसा कहे जाने पर, उन ब्राह्मणों ने सोणदण्ड ब्राह्मण से कहा, “श्रीमान, जब आप श्रमण गौतम की इतनी प्रशंसा कर रहे है, तो भले ही वे यहाँ से सौ योजन दूर भी विहार कर रहे होते, तब भी किसी श्रद्धावान कुलपुत्र को कंधे पर झोला उठाकर उनका दर्शन करने के लिए जाना उचित होता।”

“ठीक है तब, श्रीमानों! हम सभी श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए चलते हैं।”

सोणदण्ड के विचार

और इस तरह, सोणदण्ड ब्राह्मण, बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को साथ लेकर, गग्गरा के पुष्करणी की ओर चल पड़ा। किन्तु जब सोणदण्ड ब्राह्मण जंगल की झाड़ियों को पार कर रहा था, तो उसे लगा, “यदि मैं श्रमण गौतम से प्रश्न करूँ, और श्रमण गौतम कहे कि ‘यह प्रश्न, ब्राह्मण, उचित नहीं है! पुछे जाने योग्य नहीं है!’ तो परिषद मेरी निंदा कर सकती है, कहते हुए कि ‘सोणदण्ड मूर्ख है, नासमझ है! वो श्रमण गौतम से उचित प्रश्न भी नहीं कर सकता!’ और जो भी परिषद से निंदित होता है, उसकी यशकिर्ति घटती है, आमदनी घटती है। क्योंकि हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है। और यदि श्रमण गौतम मुझसे प्रश्न करे, और मेरा उत्तर श्रमण गौतम को संतुष्ट न करे, तो श्रमण गौतम कह सकते है कि ‘ऐसे प्रश्न पर इस तरह से उत्तर उचित नहीं है, योग्य नहीं है।’ तो परिषद मेरी निंदा कर सकती है, कहते हुए कि ‘सोणदण्ड मूर्ख है, नासमझ है! वो श्रमण गौतम के प्रश्न पर उचित उत्तर भी नहीं दे सकता!’ और जो भी परिषद से निंदित होता है, उसकी यशकिर्ति घटती है, आमदनी घटती है। क्योंकि हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है। और यदि मैं, श्रमण गौतम के उपस्थिती में जाकर, बिना प्रकट हुए ही लौट आऊँ, तब भी परिषद मेरी निंदा कर सकती है, कहते हुए कि ‘सोणदण्ड मूर्ख है, नासमझ है! वो श्रमण गौतम की उपस्थिती में स्वयं को प्रकट भी नहीं कर सकता!’ और जो भी परिषद से निंदित होता है, उसकी यशकिर्ति घटती है, आमदनी घटती है। क्योंकि हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है।”

इतने में सोणदण्ड ब्राह्मण भगवान के पास पहुँच गया। उसने भगवान से मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गया। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक-ओर बैठ गए। कोई ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताया, और एक-ओर बैठ गए। और कोई ब्राह्मण और गृहस्थ चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए।

एक-ओर बैठते हुए सोणदण्ड ब्राह्मण के मन में बहुत से विचार चल रहे थे, “यदि मैं श्रमण गौतम से प्रश्न करूँ… तो परिषद मेरी निंदा कर सकती है… और यदि श्रमण गौतम मुझसे प्रश्न करे… तो परिषद मेरी निंदा कर सकती है… और यदि मैं बिना प्रकट हुए ही लौट आऊँ… तो परिषद मेरी निंदा कर सकती है… हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है। अच्छा होगा, जो श्रमण गौतम मुझे अपने तीन वेदों की पंडिताई के बारे में प्रश्न करें! तभी मैं श्रमण गौतम को अपने उत्तर से संतुष्ट कर पाऊँगा!”

ब्राह्मण के गुण

तब भगवान ने सोणदण्ड ब्राह्मण के चित्त में चल रहे विचारों को जान लिया। उन्हें लगा, ‘यह सोणदण्ड ब्राह्मण अपने ही चित्त से पीड़ित है। क्यों न मैं उसे उसके तीन वेदों की पंडिताई के बारे में ही प्रश्न पुछूँ?’

तब भगवान ने सोणदण्ड ब्राह्मण से कहा, “ब्राह्मण! आप ब्राह्मण कितने गुणों से युक्त व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता?”

तब सोणदण्ड ब्राह्मण को लगा, ‘हाय रे! जिसकी मैंने इच्छा की, आकांक्षा की, अभिलाषा की, प्रार्थना की कि ‘अच्छा होगा, जो श्रमण गौतम मुझे अपने तीन वेदों की पंडिताई के बारे में प्रश्न करें!’ और श्रमण गौतम यहाँ मुझे अपने तीन वेदों की पंडिताई के बारे में ही प्रश्न कर रहे है। बहुत अच्छा! अब मैं श्रमण गौतम को अपने उत्तर से संतुष्ट कर पाऊँगा!’

तब सोणदण्ड ब्राह्मण की काया तन कर सीधी हुई। उसने [=अति-आत्मविश्वास के साथ] परिषद पर से आँखें घुमाई, और भगवान से कहा, “हे गौतम! हम ब्राह्मण पाँच गुणों से युक्त व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता? कौन-से पाँच?

(१) ब्राह्मण — माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात हो, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का हो, जो अखंडित और निष्कलंक रही हो।

(२) ब्राह्मण — वेदों का अभ्यस्त हो, मंत्रों का जानकार हो, तीनों वेदों में पारंगत हो, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार हो, शब्द और अर्थ का भेदी हो, पाँचवे इतिहास में पारंगत हो, पदों का वक्ता, व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत हो।

(३) ब्राह्मण — रूपवान, दर्शनीय, आकर्षक, परमवर्ण से संपन्न हो, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप का हो, ब्रह्म जैसे प्रतीत होता हो, असाधारण दिखता हो।

(४) ब्राह्मण — शीलवान हो, शील में परिपक्व हो, ऊँचे शील से संपन्न हो।

(५) और, ब्राह्मण — पंडित [=पढ़ा-लिखा जानकार] हो, मेधावी [=बुद्धिमान] हो, यज्ञ-करछुल पकड़ने वालों में प्रथम या द्वितीय हो। ऐसे पाँच गुणों से युक्त व्यक्ति को हम ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

[भगवान ने कहा:] “किन्तु, ब्राह्मण, क्या इन पाँच गुणों में से एक गुण को [बाजू] रखा जा सकता है? और ऐसे चार गुणों से युक्त व्यक्ति को, क्या आप ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कह सकते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“रख सकते हैं, गुरु गौतम! इन पाँच गुणों में से [तीसरा] वर्ण को रखा जा सकता हैं। भला, रंगरूप क्या करता है? तब, गुरु गौतम, ब्राह्मण — दोनों कुल से सुजात हो… वेदों का अभ्यस्त हो… शीलवान हो… और पंडित मेधावी हो… ऐसे चार गुणों से युक्त व्यक्ति को भी हम ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“किन्तु, ब्राह्मण, क्या इन चार गुणों में से एक और को रखा जा सकता है? और ऐसे तीन गुणों से युक्त व्यक्ति को, क्या आप ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कह सकते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“रख सकते हैं, गुरु गौतम! इन चार गुणों में से [दूसरा] मंत्रों को रखा जा सकता हैं। भला, मंत्र क्या करता है? तब, गुरु गौतम, ब्राह्मण — दोनों कुल से सुजात हो… शीलवान हो… और पंडित मेधावी हो… ऐसे तीन गुणों से युक्त व्यक्ति को भी हम ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“किन्तु, ब्राह्मण, क्या इन तीन गुणों में से एक और को रखा जा सकता है? और ऐसे दो गुणों से युक्त व्यक्ति को, क्या आप ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कह सकते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“रख सकते हैं, गुरु गौतम! इन तीन गुणों में से [पहला] जाति को रखा जा सकता हैं। भला, जाति क्या करती है? तब, गुरु गौतम, ब्राह्मण — शीलवान हो… और पंडित मेधावी हो… ऐसे दो गुणों से युक्त व्यक्ति को भी हम ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कहते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

ऐसा कहने पर बाकी ब्राह्मणों ने सोणदण्ड ब्राह्मण से कहा, “ऐसा मत कहिए, सोणदण्ड जी! ऐसा मत कहिए! सोणदण्ड जी, आप सीधा-सीधा वर्ण को तुच्छ कह रहे है, मंत्रों को तुच्छ कह रहे है, जाति को तुच्छ कह रहे है। ऐसा कर के आप श्रमण गौतम के सिद्धान्त पर चल रहे हैं।”

तब भगवान ने उन बाकी ब्राह्मणों से कहा, “यदि आप ब्राह्मणों को ऐसा लगता हो कि ‘सोणदण्ड ब्राह्मण अनपढ़ है, बुरा वक्ता है, बेवकूफ है, और इस मुद्दे पर श्रमण गौतम के साथ शास्त्रार्थ नहीं कर सकता’, तब सोणदण्ड ब्राह्मण शान्त बैठ जाए, और आप ही लोग इस मुद्दे पर मुझसे शास्त्रार्थ करें। किन्तु यदि आप को लगता हो कि ‘सोणदण्ड ब्राह्मण ज्ञानी है, अच्छा वक्ता है, पण्डित है, और इस मुद्दे पर श्रमण गौतम के साथ भली प्रकार शास्त्रार्थ कर सकता है’, तब आप लोग शान्त बैठे रहें, और सोणदण्ड ब्राह्मण इस मुद्दे पर मुझसे शास्त्रार्थ करे।”

ऐसा कहने पर सोणदण्ड ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “रहने दीजिए, गुरु गौतम! आप शान्त रहें। मैं ही धर्मानुसार उन्हें उत्तर देता हूँ।”

और ब्राह्मण सोणदण्ड ने उन ब्राह्मणों से कहा, “आप, श्रीमानों, ऐसा मत कहिए! आप ऐसा मत कहिए कि ‘सोणदण्ड ब्राह्मण सीधा-सीधा वर्ण को तुच्छ कह रहे है, मंत्रों को तुच्छ कह रहे है, जाति को तुच्छ कह रहे है।’ क्योंकि मैं वर्ण, मंत्रों और जाति को तुच्छ नहीं कह रहा हूँ।”

उस समय सोणदण्ड ब्राह्मण का भानजा अङ्गक युवा-ब्राह्मण उस परिषद में बैठा हुआ था। तब सोणदण्ड ब्राह्मण ने ब्राह्मणों से कहा, “श्रीमानों, मेरे भानजे अङ्गक युवा-ब्राह्मण को देखते है?”

“हाँ, श्रीमान!”

“श्रीमानों! अङ्गक युवा-ब्राह्मण — रूपवान है, आकर्षक है, सजीला है, परमवर्ण से संपन्न है। वह ब्रह्म जैसे रंगरूप का है, ब्रह्म जैसे प्रतीत होता है, असाधारण दिखता है। इस परिषद में उसके जैसा वर्ण का कोई दूसरा नहीं है, श्रमण गौतम को छोड़ कर। अङ्गक युवा-ब्राह्मण — वेदों का अभ्यस्त है, मंत्रों का जानकार है, तीनों वेदों में पारंगत है, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार है, शब्द और अर्थ का भेदी है, पाँचवे इतिहास में पारंगत है, पदों का वक्ता, व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत है। मैं ही उसे मंत्र सिखाता हूँ। अङ्गक युवा-ब्राह्मण — माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का है, जो अखंडित और निष्कलंक रही है। मैं उसके माता-पिता को जानता हूँ। किन्तु, यदि अङ्गक युवा-ब्राह्मण — जीवहत्या करे, चुराए, पराई स्त्री का गमन करे, झूठ बोले, और मद्य पिए — तब उसका वर्ण क्या करेगा, मंत्र क्या करेगा, जाति क्या करेगी? किन्तु, यदि ब्राह्मण शीलवान हो, शील में परिपक्व हो, ऊँचे शील से संपन्न हो; और पंडित हो, मेधावी हो, यज्ञ-करछुल पकड़ने वालों में प्रथम या द्वितीय हो — ऐसे दो गुणों से युक्त व्यक्ति को ‘ब्राह्मण’ कह सकते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

शील और प्रज्ञा

[भगवान ने कहा:] “किन्तु, ब्राह्मण, क्या इन दो गुणों में से एक और को रखा जा सकता है? और ऐसे एक गुण से युक्त व्यक्ति को, क्या आप ब्राह्मण ‘ब्राह्मण’ कह सकते हैं, जिससे वह ‘मैं ब्राह्मण हूँ’ कहते हुए सच कहता है, झूठ का अपराध नहीं करता।”

“नहीं, गुरु गौतम! शील अंतर्ज्ञान को धोता है, और अंतर्ज्ञान शील को। जहाँ शील हो, वहाँ अंतर्ज्ञान है। जहाँ अंतर्ज्ञान है, वहाँ शील है। शीलवान अंतर्ज्ञानी होता है, और अंतर्ज्ञानी शीलवान। शील और अंतर्ज्ञान इस लोक में अग्र कहे जाते हैं। जैसे [एक] हाथ से [दूसरा] हाथ धोते हैं, पैर से पैर धोते हैं, उसी तरह शील अंतर्ज्ञान को धोता है, और अंतर्ज्ञान शील को। जहाँ शील हो, वहाँ अंतर्ज्ञान है। जहाँ अंतर्ज्ञान है, वहाँ शील है। शीलवान अंतर्ज्ञानी होता है, और अंतर्ज्ञानी शीलवान। शील और अंतर्ज्ञान इस लोक में अग्र कहे जाते हैं।”

“ऐसा ही है, ब्राह्मण! ऐसा ही है! शील अंतर्ज्ञान को धोता है, और अंतर्ज्ञान शील को। जहाँ शील हो, वहाँ अंतर्ज्ञान है। जहाँ अंतर्ज्ञान है, वहाँ शील है। शीलवान अंतर्ज्ञानी होता है, और अंतर्ज्ञानी शीलवान। शील और अंतर्ज्ञान इस लोक में अग्र कहे जाते हैं। जैसे हाथ से हाथ धोते हैं, पैर से पैर धोते हैं, उसी तरह शील अंतर्ज्ञान को धोता है, और अंतर्ज्ञान शील को। जहाँ शील हो, वहाँ अंतर्ज्ञान है। जहाँ अंतर्ज्ञान है, वहाँ शील है। शीलवान अंतर्ज्ञानी होता है, और अंतर्ज्ञानी शीलवान। शील और अंतर्ज्ञान इस लोक में अग्र कहे जाते हैं। किन्तु, ब्राह्मण, यह शील क्या है? और अंतर्ज्ञान क्या है?”

“मैं इतना ही परमार्थ जानता था, गुरु गौतम! अच्छा होगा, जो अब गुरु गौतम स्वयं इसका अर्थ बताएँ।”

“ठीक है, ब्राह्मण। तब ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”

“जैसे कहें, गुरुजी।” सोणदण्ड ब्राह्मण ने उत्तर दिया।

भगवान ने कहा, “ऐसा होता है, ब्राह्मण! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।

ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’

तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।

प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।

शील विश्लेषण

(१) निम्न शील

और, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?

• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

यह भी उसका शील होता है।

(२) मध्यम शील

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

(३) ऊँचे शील

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],

    • निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],

    • उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],

    • लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],

    • अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],

    • करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,

    • अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],

    • वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],

    • भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],

    • कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],

    • पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],

    • शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],

    • वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,

    • सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],

    • सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],

    • नक्षत्र पथगमन करेंगे,

    • नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,

    • उल्कापात होगा,

    • क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],

    • भूकंप होगा,

    • देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],

    • सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,

    • चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,

    • सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • प्रचुर वर्षा होगी,

    • अल्प वर्षा होगी,

    • सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,

    • दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,

    • क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,

    • भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,

    • रोग [=बीमारियाँ] होंगे,

    • आरोग्य [=चंगाई] होगा,

    • अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,

    • संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,

    • जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,

    • निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,

    • शुभ-वरदान देना,

    • श्राप देना,

    • गर्भ-गिराने की दवाई देना,

    • जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,

    • हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • कान बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,

    • भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,

    • देवता से प्रश्न पुछना,

    • सूर्य की पुजा करना,

    • महादेव की पुजा करना,

    • मुँह से अग्नि निकालना,

    • श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • शान्ति-पाठ कराना,

    • इच्छापूर्ति-पाठ कराना,

    • भूतात्मा-पाठ कराना,

    • भूमि-पूजन कराना,

    • वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],

    • वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],

    • वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],

    • वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],

    • शुद्धजल से धुलवाना,

    • शुद्धजल से नहलाना,

    • बलि चढ़ाना,

    • वमन [=उलटी] कराना,

    • विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,

    • ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,

    • नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,

    • शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],

    • कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,

    • आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,

    • नाक के लिए औषधि देना,

    • मरहम देना, प्रति-मरहम देना,

    • आँखें शीतल करने की दवा देना,

    • आँख और कान की शल्यक्रिया करना,

    • शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,

    • बच्चों का वैद्य बनना,

    • जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है। और इस तरह शील होता है।

इन्द्रिय सँवर

और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?

• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।

स्मरणशील और सचेत

और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।

सन्तोष

और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।

नीवरण त्याग

इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

जैसे, ब्राह्मण, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

उसी तरह, ब्राह्मण, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।

किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।

ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।

प्रथम-ध्यान

वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, ब्राह्मण, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

द्वितीय-ध्यान

तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, ब्राह्मण, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

तृतीय-ध्यान

तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, ब्राह्मण, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

चतुर्थ-ध्यान

तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

विपश्यना ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’

जैसे, ब्राह्मण, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

मनोमय-ऋद्धि ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

विविध ऋद्धियाँ ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

दिव्यश्रोत ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

जैसे, ब्राह्मण, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

परचित्त ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

जैसे, ब्राह्मण, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

दिव्यचक्षु ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

जैसे, ब्राह्मण, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है।

आस्रवक्षय ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

जैसे, ब्राह्मण, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, ब्राह्मण, यह उसका अंतर्ज्ञान होता है। और इस तरह अंतर्ज्ञान होता है।

सोणदण्ड का उपासक बनना

ऐसा कहने पर सोणदण्ड ब्राह्मण कह पड़ा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें! हे गौतम! गुरु गौतम कल भिक्षुसंघ के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें।”

भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, सोणदण्ड ब्राह्मण आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करक्षिणा करते हुए चला गया। और रात बीतने पर सोणदण्ड ब्राह्मण ने अपने घर पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, भगवान से विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”

तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ ब्राह्मण सोणदण्ड के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब सोणदण्ड ब्राह्मण ने भगवान और भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, सोणदण्ड ब्राह्मण ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।

और एक ओर बैठे सोणदण्ड ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “हे गौतम! यदि परिषद में बैठे हुए, मैं आसन से उठकर गुरु गौतम को अभिवादन करूँ, तो परिषद मेरी निंदा करेगी। और जो भी परिषद से निंदित होता है, उसकी यशकिर्ति घटती है, आमदनी घटती है। क्योंकि हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है। इसलिए, यदि परिषद में बैठे हुए मैं हाथ जोड़ूँ, तो गुरु गौतम उसे मेरा आसन से उठना धारण करें। और यदि परिषद में आते हुए मैं पगड़ी हटाऊँ, तो गुरु गौतम उसे मेरा सिर झुकाकर अभिवादन करना धारण करें। और यदि रथ में चलते हुए मैं रथ से नीचे उतरकर भगवान को अभिवादन करूँ, तो परिषद मेरी निंदा करेगी। और जो भी परिषद से निंदित होता है, उसकी यशकिर्ति घटती है, आमदनी घटती है। क्योंकि हम जैसों की आमदनी मात्र यशकिर्ति पर ही निर्भर है। इसलिए, यदि रथ में चलते हुए मैं कोड़े को ऊपर उठाऊँ, तो गुरु गौतम उसे रथ से नीचे उतरना धारण करें। और यदि रथ में चलते हुए मैं छत हटाऊँ, तो गुरु गौतम उसे मेरा सिर झुकाकर अभिवादन करना धारण करें।”

तब भगवान ने सोणदण्ड ब्राह्मण को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।

सोणदण्ड सुत्त समाप्त।

Pali

चम्पेय्यकब्राह्मणगहपतिका

३००. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन चम्पा तदवसरि। तत्र सुदं भगवा चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे। तेन खो पन समयेन सोणदण्डो ब्राह्मणो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं।

३०१. अस्सोसुं खो चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका – ‘‘समणो खलु भो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति। अथ खो चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका चम्पाय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी [सङ्घा सङ्घी (सी॰ स्या॰ पी॰)] गणीभूता येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्ति।

३०२. तेन खो पन समयेन सोणदण्डो ब्राह्मणो उपरिपासादे दिवासेय्यं उपगतो होति। अद्दसा खो सोणदण्डो ब्राह्मणो चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके चम्पाय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी [सङ्घे सङ्घी (सी॰ पी॰) सङ्घा सङ्घी (स्या॰)] गणीभूते येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्ते। दिस्वा खत्तं आमन्तेसि – ‘‘किं नु खो, भो खत्ते, चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका चम्पाय निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमन्ती’’ति? ‘‘अत्थि खो, भो, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो अङ्गेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। तमेते भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती’’ति। ‘‘तेन हि, भो खत्ते, येन चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कम, उपसङ्कमित्वा चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके एवं वदेहि – ‘सोणदण्डो, भो, ब्राह्मणो एवमाह – आगमेन्तु किर भवन्तो, सोणदण्डोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो सो खत्ता सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन चम्पेय्यका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चम्पेय्यके ब्राह्मणगहपतिके एतदवोच – ‘‘सोणदण्डो भो ब्राह्मणो एवमाह – ‘आगमेन्तु किर भवन्तो, सोणदण्डोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’’ति।

सोणदण्डगुणकथा

३०३. तेन खो पन समयेन नानावेरज्जकानं ब्राह्मणानं पञ्चमत्तानि ब्राह्मणसतानि चम्पायं पटिवसन्ति केनचिदेव करणीयेन। अस्सोसुं खो ते ब्राह्मणा – ‘‘सोणदण्डो किर ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’ति। अथ खो ते ब्राह्मणा येन सोणदण्डो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘सच्चं किर भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’ति? ‘‘एवं खो मे, भो, होति – ‘अहम्पि समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामी’’’ति।

‘‘मा भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमि। न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। सचे भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सति, भोतो सोणदण्डस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्ढिस्सति। यम्पि भोतो सोणदण्डस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्ढिस्सति, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। यम्पि भवं सोणदण्डो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो अड्ढो महद्धनो महाभोगो…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो अज्झायको, मन्तधरो, तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो, लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी [ब्रह्मड्ढी (सी॰), ब्रह्मवच्चसी (पी॰)] अखुद्दावकासो दस्सनाय…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय [अनेळगलाय (सी॰ पी॰), अनेलगळाय (क)] अत्थस्स विञ्ञापनिया…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो बहूनं आचरियपाचरियो तीणि माणवकसतानि मन्ते वाचेति। बहू खो पन नानादिसा नानाजनपदा माणवका आगच्छन्ति भोतो सोणदण्डस्स सन्तिके मन्तत्थिका मन्ते अधियितुकामा …पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो; समणो गोतमो तरुणो चेव तरुणपब्बजितो च…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘भवञ्हि सोणदण्डो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं, रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं, राजदायं ब्रह्मदेय्यं। यम्पि भवं सोणदण्डो चम्पं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं, रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं, राजदायं ब्रह्मदेय्यं। इमिनापङ्गेन न अरहति भवं सोणदण्डो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं सोणदण्डं दस्सनाय उपसङ्कमितु’’न्ति।

बुद्धगुणकथा

३०४. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच –

‘‘तेन हि, भो, ममपि सुणाथ, यथा मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; नत्वेव अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। समणो खलु, भो, गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा, अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। यम्पि भो समणो गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा, अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं; अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो महन्तं ञातिसङ्घं ओहाय पब्बजितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो पहूतं हिरञ्ञसुवण्णं ओहाय पब्बजितो भूमिगतञ्च वेहासट्ठं च…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो दहरोव समानो युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो, ब्रह्मवण्णी, ब्रह्मवच्छसी, अखुद्दावकासो दस्सनाय…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सीलवा अरियसीली कुसलसीली कुसलसीलेन समन्नागतो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विञ्ञापनिया…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो बहूनं आचरियपाचरियो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो खीणकामरागो विगतचापल्लो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो कम्मवादी किरियवादी अपापपुरेक्खारो ब्रह्मञ्ञाय पजाय…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो उच्चा कुला पब्बजितो असम्भिन्नखत्तियकुला…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अड्ढा कुला पब्बजितो महद्धना महाभोगा…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं तिरोरट्ठा तिरोजनपदा पञ्हं पुच्छितुं आगच्छन्ति…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं अनेकानि देवतासहस्सानि पाणेहि सरणं गतानि…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ ति…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो एहिस्वागतवादी सखिलो सम्मोदको अब्भाकुटिको उत्तानमुखो पुब्बभासी…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो चतुन्नं परिसानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘समणे खलु, भो, गोतमे बहू देवा च मनुस्सा च अभिप्पसन्ना…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो यस्मिं गामे वा निगमे वा पटिवसति, न तस्मिं गामे वा निगमे वा अमनुस्सा मनुस्से विहेठेन्ति…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सङ्घी गणी गणाचरियो पुथुतित्थकरानं अग्गमक्खायति। यथा खो पन, भो, एतेसं समणब्राह्मणानं यथा वा तथा वा यसो समुदागच्छति, न हेवं समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो। अथ खो अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं राजा पसेनदि कोसलो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…

‘‘समणं खलु, भो, गोतमं ब्राह्मणो पोक्खरसाति सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…

‘‘समणो खलु, भो, गोतमो चम्पं अनुप्पत्तो, चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे। ये खो पन, भो, केचि समणा वा ब्राह्मणा वा अम्हाकं गामखेत्तं आगच्छन्ति अतिथी नो ते होन्ति। अतिथी खो पनम्हेहि सक्कातब्बा गरुकातब्बा मानेतब्बा पूजेतब्बा अपचेतब्बा। यम्पि, भो, समणो गोतमो चम्पं अनुप्पत्तो चम्पायं विहरति गग्गराय पोक्खरणिया तीरे, अतिथिम्हाकं समणो गोतमो; अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो गरुकातब्बो मानेतब्बो पूजेतब्बो अपचेतब्बो। इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। एत्तके खो अहं, भो, तस्स भोतो गोतमस्स वण्णे परियापुणामि, नो च खो सो भवं गोतमो एत्तकवण्णो। अपरिमाणवण्णो हि सो भवं गोतमो’’ति।

३०५. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘यथा खो भवं सोणदण्डो समणस्स गोतमस्स वण्णे भासति इतो चेपि सो भवं गोतमो योजनसते विहरति, अलमेव सद्धेन कुलपुत्तेन दस्सनाय उपसङ्कमितुं अपि पुटोसेना’’ति। ‘‘तेन हि, भो, सब्बेव मयं समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा’’ति।

सोणदण्डपरिवितक्को

३०६. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं येन गग्गरा पोक्खरणी तेनुपसङ्कमि। अथ खो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स तिरोवनसण्डगतस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘‘अहञ्चेव खो पन समणं गोतमं पञ्हं पुच्छेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य – ‘न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं पुच्छितब्बो, एवं नामेस, ब्राह्मण, पञ्हो पुच्छितब्बो’ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य – ‘बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणं गोतमं योनिसो पञ्हं पुच्छितु’न्ति। यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। ममञ्चेव खो पन समणो गोतमो पञ्हं पुच्छेय्य, तस्स चाहं पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं न आराधेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य – ‘न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं ब्याकातब्बो, एवं नामेस, ब्राह्मण, पञ्हो ब्याकातब्बो’ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य – ‘बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणस्स गोतमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेतु’न्ति। यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहञ्चेव खो पन एवं समीपगतो समानो अदिस्वाव समणं गोतमं निवत्तेय्यं, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य – ‘बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो मानथद्धो भीतो च, नो विसहति समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं, कथञ्हि नाम एवं समीपगतो समानो अदिस्वा समणं गोतमं निवत्तिस्सती’ति। यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं, यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा’’ति।

३०७. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। चम्पेय्यकापि खो ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु; सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु।

३०८. तत्रपि सुदं सोणदण्डो ब्राह्मणो एतदेव बहुलमनुवितक्केन्तो निसिन्नो होति – ‘‘अहञ्चेव खो पन समणं गोतमं पञ्हं पुच्छेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य – ‘न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं पुच्छितब्बो, एवं नामेस, ब्राह्मण, पञ्हो पुच्छितब्बो’ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य – ‘बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणं गोतमं योनिसो पञ्हं पुच्छितु’न्ति। यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। ममञ्चेव खो पन समणो गोतमो पञ्हं पुच्छेय्य, तस्स चाहं पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं न आराधेय्यं; तत्र चे मं समणो गोतमो एवं वदेय्य – ‘न खो एस, ब्राह्मण, पञ्हो एवं ब्याकातब्बो, एवं नामेस, ब्राह्मण, पञ्हो ब्याकातब्बो’ति, तेन मं अयं परिसा परिभवेय्य – ‘बालो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्यत्तो, नासक्खि समणस्स गोतमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेतु’न्ति। यं खो पनायं परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहो वत मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छेय्य, अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेय्यं पञ्हस्स वेय्याकरणेना’’ति।

ब्राह्मणपञ्ञत्ति

३०९. अथ खो भगवतो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स चेतसा चेतोपरिवितक्कमञ्ञाय एतदहोसि – ‘‘विहञ्ञति खो अयं सोणदण्डो ब्राह्मणो सकेन चित्तेन। यंनूनाहं सोणदण्डं ब्राह्मणं सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोच – ‘‘कतिहि पन, ब्राह्मण, अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति?

३१०. अथ खो सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘‘यं वत नो अहोसि इच्छितं, यं आकङ्खितं, यं अधिप्पेतं, यं अभिपत्थितं – ‘अहो वत मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छेय्य, अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेय्यं पञ्हस्स वेय्याकरणेना’ति, तत्र मं समणो गोतमो सके आचरियके तेविज्जके पञ्हं पुच्छति। अद्धा वतस्साहं चित्तं आराधेस्सामि पञ्हस्स वेय्याकरणेना’’ति।

३११. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो अब्भुन्नामेत्वा कायं अनुविलोकेत्वा परिसं भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पञ्चहि, भो गोतम, अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्य। कतमेहि पञ्चहि? इध, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च, संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अज्झायको होति मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; अभिरूपो होति दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय; सीलवा होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमेहि खो, भो गोतम, पञ्चहि अङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति।

‘‘इमेसं पन, ब्राह्मण, पञ्चन्नं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा चतूहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति? ‘‘सक्का, भो गोतम। इमेसञ्हि, भो गोतम, पञ्चन्नं अङ्गानं वण्णं ठपयाम। किञ्हि वण्णो करिस्सति? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अज्झायको च होति मन्तधरो च तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमेहि खो भो गोतम चतूहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति।

३१२. ‘‘इमेसं पन, ब्राह्मण, चतुन्नं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा तीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति? ‘‘सक्का, भो गोतम। इमेसञ्हि, भो गोतम, चतुन्नं अङ्गानं मन्ते ठपयाम। किञ्हि मन्ता करिस्सन्ति? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो उभतो सुजातो होति मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमेहि खो, भो गोतम, तीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति।

‘‘इमेसं पन, ब्राह्मण, तिण्णं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति? ‘‘सक्का, भो गोतम। इमेसञ्हि, भो गोतम, तिण्णं अङ्गानं जातिं ठपयाम। किञ्हि जाति करिस्सति? यतो खो, भो गोतम, ब्राह्मणो सीलवा होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमेहि खो, भो गोतम, द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति।

३१३. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा सोणदण्डं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘मा भवं सोणदण्डो एवं अवच, मा भवं सोणदण्डो एवं अवच। अपवदतेव भवं सोणदण्डो वण्णं, अपवदति मन्ते, अपवदति जातिं एकंसेन। भवं सोणदण्डो समणस्सेव गोतमस्स वादं अनुपक्खन्दती’’ति।

३१४. अथ खो भगवा ते ब्राह्मणे एतदवोच – ‘‘सचे खो तुम्हाकं ब्राह्मणानं एवं होति – ‘अप्पस्सुतो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, अकल्याणवाक्करणो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, दुप्पञ्ञो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, न च पहोति सोणदण्डो ब्राह्मणो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु’न्ति, तिट्ठतु सोणदण्डो ब्राह्मणो, तुम्हे मया सद्धिं मन्तव्हो अस्मिं वचने। सचे पन तुम्हाकं ब्राह्मणानं एवं होति – ‘बहुस्सुतो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, कल्याणवाक्करणो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, पण्डितो च सोणदण्डो ब्राह्मणो, पहोति च सोणदण्डो ब्राह्मणो समणेन गोतमेन सद्धिं अस्मिं वचने पटिमन्तेतु’न्ति, तिट्ठथ तुम्हे, सोणदण्डो ब्राह्मणो मया सद्धिं पटिमन्तेतू’’ति।

३१५. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तिट्ठतु भवं गोतमो, तुण्ही भवं गोतमो होतु, अहमेव तेसं सहधम्मेन पटिवचनं करिस्सामी’’ति। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच – ‘‘मा भवन्तो एवं अवचुत्थ, मा भवन्तो एवं अवचुत्थ – ‘अपवदतेव भवं सोणदण्डो वण्णं, अपवदति मन्ते, अपवदति जातिं एकंसेन। भवं सोणदण्डो समणस्सेव गोतमस्स वादं अनुपक्खन्दती’ति। नाहं, भो, अपवदामि वण्णं वा मन्ते वा जातिं वा’’ति।

३१६. तेन खो पन समयेन सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स भागिनेय्यो अङ्गको नाम माणवको तस्सं परिसायं निसिन्नो होति। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच – ‘‘पस्सन्ति नो भोन्तो इमं अङ्गकं माणवकं अम्हाकं भागिनेय्य’’न्ति? ‘‘एवं, भो’’। ‘‘अङ्गको खो, भो, माणवको अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय, नास्स इमिस्सं परिसायं समसमो अत्थि वण्णेन ठपेत्वा समणं गोतमं। अङ्गको खो माणवको अज्झायको मन्तधरो, तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो। अहमस्स मन्ते वाचेता। अङ्गको खो माणवको उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। अहमस्स मातापितरो जानामि। अङ्गको खो माणवको पाणम्पि हनेय्य, अदिन्नम्पि आदियेय्य, परदारम्पि गच्छेय्य, मुसावादम्पि भणेय्य, मज्जम्पि पिवेय्य, एत्थ दानि, भो, किं वण्णो करिस्सति, किं मन्ता, किं जाति? यतो खो, भो, ब्राह्मणो सीलवा च होति वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो, पण्डितो च होति मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमेहि खो, भो, द्वीहङ्गेहि समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेन्ति; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति।

सीलपञ्ञाकथा

३१७. ‘‘इमेसं पन, ब्राह्मण, द्विन्नं अङ्गानं सक्का एकं अङ्गं ठपयित्वा एकेन अङ्गेन समन्नागतं ब्राह्मणा ब्राह्मणं पञ्ञपेतुं; ‘ब्राह्मणोस्मी’ति च वदमानो सम्मा वदेय्य, न च पन मुसावादं आपज्जेय्या’’ति? ‘‘नो हिदं, भो गोतम। सीलपरिधोता हि, भो गोतम, पञ्ञा; पञ्ञापरिधोतं सीलं। यत्थ सीलं तत्थ पञ्ञा, यत्थ पञ्ञा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्ञा, पञ्ञवतो सीलं। सीलपञ्ञाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति। सेय्यथापि, भो गोतम, हत्थेन वा हत्थं धोवेय्य, पादेन वा पादं धोवेय्य; एवमेव खो, भो गोतम, सीलपरिधोता पञ्ञा, पञ्ञापरिधोतं सीलं। यत्थ सीलं तत्थ पञ्ञा, यत्थ पञ्ञा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्ञा, पञ्ञवतो सीलं। सीलपञ्ञाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायती’’ति। ‘‘एवमेतं, ब्राह्मण, एवमेतं, ब्राह्मण, सीलपरिधोता हि, ब्राह्मण, पञ्ञा, पञ्ञापरिधोतं सीलं। यत्थ सीलं तत्थ पञ्ञा, यत्थ पञ्ञा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्ञा, पञ्ञवतो सीलं। सीलपञ्ञाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति। सेय्यथापि, ब्राह्मण, हत्थेन वा हत्थं धोवेय्य, पादेन वा पादं धोवेय्य; एवमेव खो, ब्राह्मण, सीलपरिधोता पञ्ञा, पञ्ञापरिधोतं सीलं। यत्थ सीलं तत्थ पञ्ञा, यत्थ पञ्ञा तत्थ सीलं। सीलवतो पञ्ञा, पञ्ञवतो सीलं। सीलपञ्ञाणञ्च पन लोकस्मिं अग्गमक्खायति।

३१८. ‘‘कतमं पन तं, ब्राह्मण, सीलं? कतमा सा पञ्ञा’’ति? ‘‘एत्तकपरमाव मयं, भो गोतम, एतस्मिं अत्थे। साधु वत भवन्तंयेव गोतमं पटिभातु एतस्स भासितस्स अत्थो’’ति। ‘‘तेन हि, ब्राह्मण, सुणोहि; साधुकं मनसिकरोहि; भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि। भगवा एतदवोच – ‘‘इध, ब्राह्मण, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु तथा वित्थारेतब्बं)। एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति। इदं खो तं, ब्राह्मण, सीलं…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति…पे॰… ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति, अभिनिन्नामेति। इदम्पिस्स होति पञ्ञाय…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति, इदम्पिस्स होति पञ्ञाय अयं खो सा, ब्राह्मण, पञ्ञा’’ति।

सोणदण्डउपासकत्तपटिवेदना

३१९. एवं वुत्ते, सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम। सेय्यथापि, भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य, ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च, भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं। अधिवासेतु च मे भवं गोतमो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन।

३२०. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके निवेसने पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भो गोतम, निट्ठितं भत्त’’न्ति। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन सोणदण्डस्स ब्राह्मणस्स निवेसनं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि।

३२१. अथ खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो सोणदण्डो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो आसना वुट्ठहित्वा भवन्तं गोतमं अभिवादेय्यं, तेन मं सा परिसा परिभवेय्य। यं खो पन सा परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ। यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो अञ्जलिं पग्गण्हेय्यं, आसना मे तं भवं गोतमो पच्चुट्ठानं धारेतु। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, परिसगतो समानो वेठनं ओमुञ्चेय्यं, सिरसा मे तं भवं गोतमो अभिवादनं धारेतु। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो याना पच्चोरोहित्वा भवन्तं गोतमं अभिवादेय्यं, तेन मं सा परिसा परिभवेय्य। यं खो पन सा परिसा परिभवेय्य, यसोपि तस्स हायेथ, यस्स खो पन यसो हायेथ, भोगापि तस्स हायेय्युं। यसोलद्धा खो पनम्हाकं भोगा। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो पतोदलट्ठिं अब्भुन्नामेय्यं, याना मे तं भवं गोतमो पच्चोरोहनं धारेतु। अहञ्चेव खो पन, भो गोतम, यानगतो समानो छत्तं अपनामेय्यं, सिरसा मे तं भवं गोतमो अभिवादनं धारेतू’’ति।

३२२. अथ खो भगवा सोणदण्डं ब्राह्मणं धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामीति।

सोणदण्डसुत्तं निट्ठितं चतुत्थं।