ऋगवेद में यज्ञ के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख किया गया है, जिनमें पशुबलि देना एक सामान्य परंपरा थी, जो आज भी प्रचलित है। प्राचीन काल में जब भी देश पर कोई आपत्ति आती या किसी को विराट दानपुण्य करना होता, तो वह यज्ञ या महायज्ञ का आयोजन कराता। इन बड़े महायज्ञों में राजा या ब्राह्मणों के आदेश पर सैनिकों को उनकी इच्छा के विरुद्ध बड़ी संख्या में पशुओं की बलि देनी पड़ती, और रक्त की नदियाँ बहने लगतीं।
ऐसा ही एक प्रसंग उस समय के एक ब्राह्मण कूटदन्त का था, जिन्होंने कई अन्य ब्राह्मणों के साथ भगवान बुद्ध से वेदों में उल्लिखित यज्ञ के सर्वोत्तम तरीके के बारे में पूछा। भगवान बुद्ध ने उन्हें कथा के माध्यम से सोलह परिष्कारों वाले त्रिविध यज्ञ-संपदा के बारे में विस्तार से समझाया। इस ज्ञान को सुनकर ब्राह्मण खुशी से उछल पड़े, लेकिन कूटदन्त ने इस बीच गहरे धर्म का एहसास किया।
फिर जब कूटदन्त ने और प्रश्न किया, तो भगवान ने उसे कम सामग्री में अधिक प्रभावी यज्ञ की विधि बताई, जिसे सुनकर वह ब्राह्मण भी श्रोतापन्न हो गया। आईयें, देखते हैं, भगवान ने उसे आखिर क्या बताया।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ मगध देश में घूमते हुए खाणुमत नामक ब्राह्मण-गाँव में पहुँचे। और वहाँ भगवान खाणुमत के अम्बलट्ठिका में विहार करने लगे।
उस समय ब्राह्मण कूटदन्त खाणुमत में रहता था, जो एक घनी आबादी वाला इलाका था, और घास, लकड़ी, जल और धन-धान्य से संपन्न था। मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार ने राज-उपहार के तौर पर खाणुमत की राजसत्ता कूटदन्त ब्राह्मण को सौंपी हुई थी।
और कूटदन्त ब्राह्मण ने महायज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ-बलि देने के लिए सात-सौ बैल, सात-सौ बछड़े, सात-सौ बछड़ियाँ, सात-सौ बकरियाँ और सात-सौ भेड़ें बलि-स्तंभ पर लायी गयी थी।
और खाणुमत के ब्राह्मणों और गृहस्थों [=वैश्य] ने सुना, “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ मगध देश में घूमते हुए खाणुमत में पहुँचे हैं। वहाँ वे खाणुमत के अम्बलट्ठिका में विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”
तब खाणुमत-वासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, खाणुमत से निकलकर अम्बलट्ठिका की ओर चल पड़े। उस समय ब्राह्मण कूटदन्त, दिन में झपकी लेने के लिए महल के ऊपरी कक्ष में गया था। उसने खाणुमत-वासी ब्राह्मणों और गृहस्थों को, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, खाणुमत से निकलकर अम्बलट्ठिका की ओर जाते देखा। ऐसा देखकर उसने सचिव से कहा, “सचिव जी, ये खाणुमत-वासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, खाणुमत से निकलकर अम्बलट्ठिका की ओर क्यों जा रहे हैं?”
“ऐसा है, श्रीमान, कि शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे पाँच-सौ भिक्षुओं के विशाल संघ के साथ मगध देश में घूमते हुए खाणुमत में पहुँचे हैं। वहाँ वे अम्बलट्ठिका में विहार कर रहे हैं। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ उन्ही गुरु गौतम का दर्शन लेने के लिए खाणुमत-वासी ब्राह्मण और गृहस्थ, अलग-अलग गुटों में झुंड बनाकर, खाणुमत से निकलकर अम्बलट्ठिका की ओर जा रहे हैं।”
“तब सचिव जी, उन ब्राह्मणों और गृहस्थों के पास जाओ, और उन्हें कहो — ‘श्रीमानों, थोड़ा ठहर जाएँ, ताकि ब्राह्मण कूटदन्त भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए साथ आ पाएँ।’”
“ठीक है, श्रीमान!” सचिव ने उत्तर दिया, और उन ब्राह्मणों और गृहस्थों के पास गया। और उन्हें कहा — “श्रीमानों, थोड़ा ठहर जाएँ, ताकि ब्राह्मण कूटदन्त भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए साथ आ पाएँ।”
उस समय विभिन्न देशो से अनेक सैकड़ों ब्राह्मण किसी कार्य से खाणुमत में आकर रह रहे थे। उन ब्राह्मणों ने सुना कि ब्राह्मण कूटदन्त भी श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जाएँगे। तब वे सभी ब्राह्मण ब्राह्मण कूटदन्त के पास गए, और उन्होने जाकर कहा, “क्या यह सच है, कूटदन्त जी, कि आप श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जा रहे हैं?”
“हाँ, श्रीमानों! यह सच है कि श्रमण गौतम का दर्शन लेने के लिए जा रहा हूँ।”
“मत जाईयें, कूटदन्त जी, श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए! यह उचित नहीं है कि श्रीमान कूटदन्त श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। क्योंकि यदि कूटदन्त जी श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँगे, तो कूटदन्त जी की यशकिर्ति घट जाएगी और श्रमण गौतम की यशकिर्ति अत्याधिक बढ़ जाएगी। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रीमान कूटदन्त श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। बल्कि उचित यह होगा कि श्रमण गौतम श्रीमान कूटदन्त का दर्शन करने के लिए आएँ।
श्रीमान कूटदन्त, माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात [=ऊँची जाति का] है, जातिवाद से [देखें, तो] पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त समृद्धशाली है, महाधनी है, महाभोगशाली है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त वेदों के अभ्यस्त है, मंत्रों के जानकार है, तीनों वेदों में पारंगत है, विधि और कर्मकाण्डों के निपुण व्याख्याकार है, शब्द और अर्थ के भेदी है, पाँचवे इतिहास में पारंगत है, [संस्कृत] पदों के वक्ता, [संस्कृत] व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त रूपवान है, आकर्षक है, सजीले है, परमवर्ण से संपन्न है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के है, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते है, असाधारण दिखते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त शीलवान है, शील में परिपक्व है, ऊँचे शील से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त कल्याणकारी [=भले] वचन बोलते है, कल्याणकारी [शब्दों में] व्यक्त करते है, विनम्र भाषा में, स्वच्छ और स्पष्ट उच्चारण के साथ, अर्थ सहित बातें समझाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त बहुतों के आचार्य-प्राचार्य है, तीन-सौ युवा ब्राह्मणों को मंत्र पढ़ाते है। मंत्र सीखने की लक्ष्य से बहुत से युवा ब्राह्मण विभिन्न दिशाओं से आकर, विभिन्न देश और नगरों से आकर श्रीमान कूटदन्त से मंत्र पाठ करना सीखते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त जीर्ण हो चुके है, वृद्ध हो चुके है, दीर्घकाल अनुभवी हो चुके है, बुजुर्ग हो चुके है, उम्रदराज़ हो चुके है। जबकि श्रमण गौतम अभी तरुण ही है, युवावस्था में प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त का मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार सत्कार करते है, सम्मान करते है, मानते है, पूजते है, आदर करते है। और श्रीमान कूटदन्त का पोक्खरसाति ब्राह्मण सत्कार करते है, सम्मान करते है, मानते है, पूजते है, आदर करते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रीमान कूटदन्त खाणुमत में रहते है, जो एक घनी आबादी वाला इलाका है, और घास, लकड़ी, जल और धन-धान्य से संपन्न है। मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार ने राज-उपहार के तौर पर खाणुमत की राजसत्ता कूटदन्त ब्राह्मण को सौंपी हुई है। इसलिए भी यह उचित नहीं है कि श्रीमान कूटदन्त श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। बल्कि उचित यह होगा कि श्रमण गौतम श्रीमान कूटदन्त का दर्शन करने के लिए आएँ।”
जब उन ब्राह्मणों ने कूटदन्त ब्राह्मण से ऐसा कहा, तब कूटदन्त ब्राह्मण ने उन्हें कहा, “अच्छा, श्रीमानों, तब मुझे भी सुन लें कि क्यों श्रमण गौतम को मेरा दर्शन करने के लिए आना उचित नहीं है? बल्कि मुझे ही श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाना उचित है।
श्रमण गौतम भी — माता और पिता, दोनों के ही कुल से ऊँची जाति के है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हैं। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि मैं श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाऊँ।
श्रमण गौतम ने बहुत बड़े परिवार और रिश्तेदारों को त्यागकर प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ने भूमिगत छिपाए और खुले रखे अत्याधिक हिरण्य [=बिना गढ़ा स्वर्ण] और [गढ़ा गया] स्वर्ण त्यागकर प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम युवा ही थे, काले केश वाले, जीवन के प्रथम चरण में, यौवन वरदान से युक्त, जब उन्होने माता-पिता के इच्छा विरुद्ध, उन्हें आँसूभरे चेहरे से बिलखते छोड़, सिर-दाढ़ी मुंडवा, काषाय-वस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्ज्यित हुए। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम रूपवान है, आकर्षक है, सजीले है, परमवर्ण से संपन्न है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के है, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते है, असाधारण दिखते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम शीलवान है, आर्य स्वभाव के है, कुशल स्वभाव के है, कुशल शीलों से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम कल्याणकारी वचन बोलते है, कल्याणकारी व्यक्त करते है, विनम्र भाषा में, स्वच्छ और स्पष्ट उच्चारण के साथ, अर्थ सहित बातें समझाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बहुतों के आचार्य-प्राचार्य है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम क्षीण-कामरागी है, चंचलता-विहीन है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम कर्मवादी [=कर्म बताने वाले] है, क्रियावादी [=कर्मों के फ़ल-परिणाम बताने वाले] है, जनता में निष्पाप ब्राह्मण्यता के सम्मानकर्ता है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बिना मिलावट के [=परिशुद्ध] क्षत्रियकुल के ऊँचे कुल से प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम समृद्धशाली, महाधनी, महाभोगशाली कुल से प्रवज्ज्यित हुए है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम से प्रश्न पुछने के लिए दूर-दूर के देशों से, दूर-दूर के राज्यों से लोग आते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम की शरण अनेक जीवों और हजारों देवताओं ने ली हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम के बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ३२ महापुरुष लक्षणों से संपन्न है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम ‘आईयें, स्वागत है’ कहने वालों में से है, मैत्रीपूर्ण है, मैत्रीपूर्ण वार्तालाप करते है, क्रोधित नहीं होते है, स्वयं पहले बोलने वालों मे से है, खुले हृदय के है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम चारों [वर्ण] परिषदों के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम बहुत देवताओं और मानवों के आस्था स्थल है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम जिस भी गाँव या नगर में रहने लगते है, उस गाँव या नगर में मानवों को अमनुष्य [=भूत] परेशान नहीं करते हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम संघ के स्वामी है, समुदाय के नेता है, समुदाय के आचार्य है, अनेक संप्रदायों में श्रेष्ठ माने जाते है। श्रमण गौतम की यशकिर्ति में ऐसा-वैसा [शंकास्पद] सुनने में नहीं आता है, जैसा दूसरे श्रमण और ब्राह्मणों के बारे में सुनने में आता है। श्रमण गौतम की यशकिर्ति सर्वोत्तर विद्या और आचरण की प्राप्ति पर ही आधारित होती है। इसलिए यह उचित नहीं है… मगध के राजा सेनिय बिम्बिसार अपने संतानों, रानियों, परिषद [=दरबारियों], मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… महाराजा प्रसेनजित कौशल अपने संतानों, रानियों, परिषद, मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… पोक्खरसाति ब्राह्मण अपने संतानों, पत्नियों, परिषद, मित्रों और प्रजा के साथ श्रमण गौतम की शरण गए हैं। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम मगधराज सेनिय बिम्बिसार के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम महाराजा प्रसेनजित कौशल के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है… श्रमण गौतम महाराजा पोक्खरसाति ब्राह्मण के द्वारा सत्कार किए जाते है, सम्मान किए जाते है, माने जाते है, पूजे जाते है, आदर किए जाते है। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि मैं श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाऊँ।
और श्रमण गौतम हमारे नगर खाणुमत में आकर अम्बलट्ठिका में विहार कर रहे हैं। जो भी श्रमण और ब्राह्मण हमारे राज्य में आते हैं, वे हमारे अतिथि हैं। और हमें उनका सत्कार करना चाहिए, सम्मान करना चाहिए, मानना चाहिए, पूजना चाहिए। हमारे अम्बलट्ठिका में विहार करने वाले श्रमण गौतम ऐसे अतिथि है, और उनसे ऐसे व्यवहार करना चाहिए। इसलिए यह उचित नहीं है कि श्रमण गौतम मेरा दर्शन करने के लिए आएँ। बल्कि उचित यह होगा कि हम श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए जाएँ। श्रमण गौतम की जितनी भी प्रशंसा करें, वह प्रशंसा अपर्याप्त ही होगी। श्रमण गौतम प्रशंसा के परे है।”
ऐसा कहे जाने पर, उन ब्राह्मणों ने कूटदन्त ब्राह्मण से कहा, “श्रीमान, जब आप श्रमण गौतम की इतनी प्रशंसा कर रहे है, तो भले ही वे यहाँ से सौ योजन दूर भी विहार कर रहे होते, तब भी किसी श्रद्धावान कुलपुत्र को कंधे पर झोला उठाकर उनका दर्शन करने के लिए जाना उचित होता।”
“ठीक है तब, श्रीमानों! हम सभी श्रमण गौतम का दर्शन करने के लिए चलते हैं।”
और इस तरह, कूटदन्त ब्राह्मण, बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को साथ लेकर, अम्बलट्ठिका में भगवान के पास पहुँच गया। उसने भगवान से मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गया। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अभिवादन किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान से नम्रतापूर्ण वार्तालाप किया, और एक-ओर बैठ गए। कुछ ब्राह्मणों और गृहस्थों ने हाथ जोड़कर अंजलिबद्ध वंदन किया, और एक-ओर बैठ गए। कोई ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भगवान को अपना नाम-गोत्र बताया, और एक-ओर बैठ गए। और कोई ब्राह्मण और गृहस्थ चुपचाप ही एक-ओर बैठ गए।
एक ओर बैठे हुए कुटदन्त ब्राह्मण ने भगवान से कहा, “हे गौतम! मैंने सुना है कि श्रमण गौतम त्रिविध यज्ञ-संपदा को सोलह परिष्कारों के साथ जानते है। गुरु गौतम, मैं त्रिविध यज्ञ-संपदा को सोलह परिष्कारों के साथ नहीं जानता हूँ। मैं महायज्ञ करने की इच्छा रखता हूँ। अच्छा होगा, यदि गुरु गौतम सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा का उपदेश करें।”
“ठीक है, ब्राह्मण। तब ध्यान देकर गौर से सुनो। मैं बताता हूँ।”
“जैसे कहें, गुरुजी।” कूटदन्त ब्राह्मण ने उत्तर दिया।
भगवान ने कहा, “बहुत पूर्व, ब्राह्मण, महाविजित नामक एक राजा था, जो अत्यंत धनी, अत्यंत समृद्धशाली, अत्यंत भोगशाली था, जिसके पास अत्याधिक स्वर्ण और मुद्राकोष, विपुल संपत्ति और संपदा, विराट धन-धान्य, भरपूर खजाना और सामग्री-भंडार थे। तब राजा महाविजित को एकांतवास में रहते हुए विचार आया, “मुझे मानवों के विपुल भोग प्राप्त है, और मैं इतनी विराट धरती को जीतकर राज करता हूँ। क्यों न मैं एक महायज्ञ का आयोजन करुँ, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा?”
तब राजा महाविजित ने ब्राह्मण पुरोहित को बुलाकर कहा, “ब्राह्मण, मुझे एकांतवास में रहते हुए विचार आया कि ‘मुझे मानवों के विपुल भोग प्राप्त है, और मैं इतनी विराट धरती को जीतकर राज करता हूँ। क्यों न मैं एक महायज्ञ का आयोजन करुँ, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा?’ तो, ब्राह्मण, मुझे महायज्ञ का आयोजन करने की इच्छा है। आप मेरा मार्गदर्शन करे, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा।”
ऐसा कहने पर ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित से कहा, “श्रीमान, महाराज का राज्य संकट में है, पीड़ा में है। देहातों की लूटमार देखी जा रही हैं, नगरों की लूटमार देखी जा रही हैं, शहरों की लूटमार देखी जा रही हैं, रास्तों की लूटमार देखी जा रही हैं। यदि ऐसे संकट में पड़े, पीड़ा में पड़े राज्य से महाराज [यज्ञ के लिए] बलि वसूलते है, तब महाराज का कृत्य अनुचित होगा। अब महाराज को शायद ऐसा लगे कि “मैं डाकुओं की इस विपत्ति को वध कर, कारावास देकर, जब्त कर, धिक्कार कर, तड़ीपार कर के उखाड़ दूँगा! किन्तु, महाराज, डाकुओं की इस विपत्ति को इस तरह भलीभाँति उखाड़ा नहीं जा सकता। जो हत्याओं के पश्चात बच जाएँगे, वे लौटकर महाराज के राज्य को आतंकित करेंगे। तब डाकुओं की ऐसी विपत्ति को इस योजना के तहत भलीभाँति उखाड़ा जा सकता है — जो महाराज के राज्य में खेती और पशुपालन करने का उत्साह रखते हो, उन्हें महाराज बीज और चारा प्रदान करे। जो महाराज के राज्य में व्यवसाय करने का उत्साह रखते हो, उन्हें महाराज पूँजी प्रदान करे। जो महाराज के राज्य में राज-कर्मचारी बनने का उत्साह रखते हो, उन्हें महाराज भत्ता और वेतन दे। तब जनता अपने कार्यों में लगकर महाराज के राज्य को आतंकित नहीं करेंगे। महाराज का खजाना बड़ा हो जाएगा। महाराज का राज्य संकट-रहित, पीड़ा-रहित होकर सकुशल-स्थल हो जाएगा। जनता हर्षित होकर, बच्चों को छाती से लगाकर खुशियों से नाचते हुए, खुले द्वारों के साथ रहने लगेगी।”
तब, ब्राह्मण, राजा महाविजित ने ब्राह्मण पुरोहित का सुझाव स्वीकार कर लिया। और योजना के तहत — जो राज्य में खेती और पशुपालन करने का उत्साह रखते थे, उन्हें बीज और चारा प्रदान किया। जो राज्य में व्यवसाय करने का उत्साह रखते थे, उन्हें पूँजी प्रदान की। जो राज्य में राज-कर्मचारी बनने का उत्साह रखते थे, उन्हें भत्ता और वेतन दिया। तब वाकई, जनता ने अपने कार्यों में लगकर महाराज के राज्य को आतंकित नहीं किया। महाराज का खजाना वाकई बड़ा हो गया। महाराज का राज्य संकट-रहित, पीड़ा-रहित होकर सकुशल-स्थल हो गया। जनता हर्षित होकर, बच्चों को छाती से लगाकर खुशियों से नाचते हुए, खुले द्वारों के साथ रहने लगी।
तब राजा महाविजित ने ब्राह्मण पुरोहित को बुलाकर कहा, “गुरुजी, मैंने डाकुओं की विपत्ति को उखाड़ दिया है, और गुरुजी की योजना के तहत राज-खजाना बड़ा हो गया है। राज्य संकट-रहित, पीड़ा-रहित होकर सकुशल-स्थल हो गया है। प्रजा हर्षित होकर, बच्चों को छाती से लगाकर खुशियों से नाचते हुए, खुले द्वारों के साथ रहने लगी है। तब ब्राह्मण, मुझे महायज्ञ का आयोजन करने की इच्छा है। आप मेरा मार्गदर्शन करे, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा।”
“तब महाराज, राज्य के देहातों, नगरों और शहरों में — जो महाराज के अधीन [=जागीरदार] क्षत्रिय हैं… राजमंत्री और राजपरिवार हैं… बहुत प्रभावशाली ब्राह्मण हैं… बहुत संपत्तिशाली गृहस्थ [=वैश्य] हैं — उन्हें संदेश भेजें कि “श्रीमानों! मैं महायज्ञ का आयोजन करने की इच्छा रखता हूँ। आप अनुमति दें, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा।”
“जैसे कहें, गुरुजी।” कहकर राजा महाविजित ने राज्य के देहातों, नगरों और शहरों में — जो महाराज के अधीन क्षत्रिय थे… राजमंत्री और राजपरिवार थे… बहुत प्रभावशाली ब्राह्मण थे… बहुत संपत्तिशाली गृहस्थ थे — उन्हें संदेश भेजा कि “श्रीमानों! मैं महायज्ञ का आयोजन करने की इच्छा रखता हूँ। आप अनुमति दें, जो मेरे लिए दीर्घकाल तक हितकारक और सुखकारक होगा।”
“महाराज यज्ञ का आयोजन करें। यज्ञ का उचित काल है, महाराज।” — इस तरह चारों पक्षों से प्राप्त अनुमति ही यज्ञ के परिष्कार [=पूर्व आवश्यकता] बनते हैं।
राजा महाविजित आठ गुणों से संपन्न था — (१) माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात [=ऊँची जाति का] था, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का था, जो अखंडित और निष्कलंक रही थी। (२) रूपवान, दर्शनीय, आकर्षक, परमवर्ण से संपन्न था, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप का, ब्रह्म जैसे प्रतीत होता था, असाधारण दिखता था। (३) अत्यंत धनी, अत्यंत समृद्धशाली, अत्यंत भोगशाली था, जिसके पास अत्याधिक स्वर्ण और मुद्राकोष, विपुल संपत्ति और संपदा, विराट धन-धान्य, भरपूर खजाना और सामग्री-भंडार था। (४) बलवान था, चार अंगोवाली सेना [=हस्तिरोही, अश्वरोही, रथिक, पैदल] से संपन्न था, जो आज्ञाकारी थी, आदेशों का पालन करती थी। अपनी यशकिर्ति से ही शत्रुओं को पछाड़ देता था। (५) श्रद्धालु था, दानी था, दानवीर था। श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, घुमक्कड़, कंगाल, या भिखारियों के लिए द्वार खोल कर, फूटते जलस्त्रोत [=झरना] जैसा, पुण्य करता था। (६) पढ़ा-लिखा जानकार था, तरह-तरह के विषयों से अवगत था। (७) कही हुई बात का सटीक अर्थ समझता था — ‘इस बात का यह अर्थ है, उस बात को वह अर्थ है।’ (८) पंडित, सक्षम और मेधावी था, भूत-भविष्य-वर्तमान से जुड़ी बातों का चिंतन करने में समर्थ था। इस तरह राजा महाविजित आठ गुणों से संपन्न था। और यही [आयोजन करने वाले के] आठ गुण यज्ञ के आठ परिष्कार बनते हैं।
और, ब्राह्मण पुरोहित चार गुणों से संपन्न था — (१) माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात था, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का था, जो अखंडित और निष्कलंक रही थी। (२) वेदों का अभ्यस्त, मंत्रों का जानकार, तीनों वेदों में पारंगत था, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार, शब्द और अर्थ का भेदी, पाँचवे इतिहास में पारंगत था, [संस्कृत] पदों का वक्ता, [संस्कृत] व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत था। (३) शीलवान था, शील में परिपक्व था, ऊँचे शील से संपन्न था। (४) पंडित था, मेधावी था, यज्ञ-करछुल पकड़ने वालों में प्रथम या द्वितीय था। इस तरह ब्राह्मण पुरोहित चार गुणों से संपन्न था। और यही [यज्ञ कराने वाले के] चार गुण यज्ञ के चार परिष्कार बनते हैं।
तत्पश्चात, यज्ञ के पूर्व ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित को तीन विधियों का उपदेश किया — (१) यदि महायज्ञ करने पूर्व राजा को अफसोस हो, ‘मेरी बहुत संपत्ति बर्बाद हो जाएगी’, किन्तु महाराज को ऐसा अफसोस नहीं करना चाहिए। (२) यदि महायज्ञ करते हुए राजा को अफसोस हो, ‘मेरी बहुत संपत्ति बर्बाद हो रही है’, किन्तु महाराज को ऐसा अफसोस नहीं करना चाहिए। (३) यदि महायज्ञ करने पश्चात राजा को अफसोस हो, ‘मेरी बहुत संपत्ति बर्बाद हो गयी’, किन्तु महाराज को ऐसा अफसोस नहीं करना चाहिए। इस तरह यज्ञ के पूर्व ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित को तीन विधियों का उपदेश किया।
तत्पश्चात, यज्ञ के पूर्व ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित का दस तरह के लाभार्थियों के प्रति अफसोस हटाया — (१) ‘श्रीमान, इस महायज्ञ में जीवहत्या करने वाले [लाभार्थी] भी आएँगे, और जीवहत्या से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो जीवहत्या करते हो, उनका [फ़ल] उन्हें मुबारक। जो जीवहत्या से विरत रहते हो, [दरअसल] उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (२) इस महायज्ञ में चुराने वाले भी आएँगे, और चुराने से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो चुराते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो चुराने से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (३) इस महायज्ञ में व्यभिचार करने वाले भी आएँगे, और व्यभिचार से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो व्यभिचार [=परस्त्रीगमन] करते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो व्यभिचार से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (४) इस महायज्ञ में झूठ बोलने वाले भी आएँगे, और झूठ बोलने से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो झूठ बोलते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो झूठ बोलने से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (५) इस महायज्ञ में फूट डालने [वाली बात करने] वाले भी आएँगे, और फूट डालने से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो फूट डालते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो फूट डालने से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (६) इस महायज्ञ में कटु बोलने वाले भी आएँगे, और कटु बोलने से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो कटु बोलते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो कटु बोलने से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (७) इस महायज्ञ में निरर्थक बोलने [=बकवास करने] वाले भी आएँगे, और निरर्थक बोलने से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो निरर्थक बोलते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो निरर्थक बोलने से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (८) इस महायज्ञ में लालच करने वाले भी आएँगे, और लालच से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो लालच करते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो लालच से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (९) इस महायज्ञ में दुर्भावना करने वाले भी आएँगे, और दुर्भावना से विरत रहने वाले भी आएँगे। जो दुर्भावना करते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो दुर्भावना से विरत रहते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। (१०) इस महायज्ञ में मिथ्यादृष्टि धारण करने वाले भी आएँगे, और सम्यकदृष्टि धारण करने वाले भी आएँगे। जो मिथ्यादृष्टि धारण करते हो, उनका उन्हें मुबारक। जो सम्यकदृष्टि धारण करते हो, उनके लिए श्रीमान महायज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। यज्ञ के पूर्व ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित का ऐसे दस तरह के लाभार्थियों के प्रति अफसोस हटाया।
तत्पश्चात, यज्ञ करते समय ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित के चित्त को सोलह तरह से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया — ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु राज्य के देहातों, नगरों और शहरों में (१) [जागीरदार] क्षत्रिय रहते हैं… (२) राजमंत्री और राजपरिवार रहते हैं… (३) बहुत प्रभावशाली ब्राह्मण रहते हैं… (४) बहुत संपत्तिशाली गृहस्थ [=वैश्य] रहते हैं, जिन्हें राजा ने आमंत्रित नहीं किया। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा ने राज्य के देहातों, नगरों और शहरों में रहने वाले क्षत्रियों… राजमंत्री और राजपरिवार… बहुत प्रभावशाली ब्राह्मणों… बहुत संपत्तिशाली गृहस्थों को आमंत्रित किया है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(५) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात [=ऊँची जाति का] नहीं है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के नहीं है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हो। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल के है, जो अखंडित और निष्कलंक रही है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(६) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु रूपवान, दर्शनीय, आकर्षक, परमवर्ण से संपन्न नहीं है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते हो, असाधारण दिखते हो। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा रूपवान, दर्शनीय, आकर्षक, परमवर्ण से संपन्न है, जो ब्रह्म जैसे रंगरूप के, ब्रह्म जैसे प्रतीत होते है, असाधारण दिखते है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(७) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु अत्यंत धनी, अत्यंत समृद्धशाली, अत्यंत भोगशाली नहीं है, जिसके पास अत्याधिक स्वर्ण और मुद्राकोष, विपुल संपत्ति और संपदा, विराट धन-धान्य, भरपूर खजाना और सामग्री-भंडार नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा अत्यंत धनी, अत्यंत समृद्धशाली, अत्यंत भोगशाली है, जिसके पास अत्याधिक स्वर्ण और मुद्राकोष, विपुल संपत्ति और संपदा, विराट धन-धान्य, भरपूर खजाना और सामग्री-भंडार है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(८) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु बलवान नहीं है, चार अंगोवाली सेना से संपन्न नहीं है, जो आज्ञाकारी हो, आदेशों का पालन करती हो। अपनी यशकिर्ति से ही शत्रुओं को पछाड़ नहीं देता है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा बलवान है, चार अंगोवाली सेना से संपन्न है, जो आज्ञाकारी है, आदेशों का पालन करती है। अपनी यशकिर्ति से ही शत्रुओं को पछाड़ देता है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(९) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु श्रद्धालु नहीं है, दानी नहीं है, दानवीर नहीं है। श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, घुमक्कड़, कंगाल, या भिखारियों के लिए द्वार खोल कर, फूटते जलस्त्रोत जैसा, पुण्य नहीं करता है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा श्रद्धालु है, दानी है, दानवीर है। श्रमण, ब्राह्मण, दरिद्र, घुमक्कड़, कंगाल, या भिखारियों के लिए द्वार खोल कर, फूटते जलस्त्रोत [=झरना] जैसा, पुण्य करता है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१०) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु पढ़ा-लिखा जानकार नहीं है, तरह-तरह के विषयों से अवगत नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा पढ़े-लिखे जानकार है, तरह-तरह के विषयों से अवगत है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(११) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु कहे हुए का सटीक अर्थ नहीं समझता है — ‘इस बात का यह अर्थ है, उस बात को वह अर्थ है।’ तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा कहे हुए का सटीक अर्थ समझते है — ‘इस बात का यह अर्थ है, उस बात को वह अर्थ है।’ इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१२) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु पंडित नहीं है, सक्षम नहीं है, मेधावी नहीं है, भूत-भविष्य-वर्तमान से जुड़ी बातों का चिंतन करने में समर्थ नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि राजा पंडित, सक्षम, और मेधावी है, भूत-भविष्य-वर्तमान से जुड़ी बातों का चिंतन करने में समर्थ है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१३) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु ब्राह्मण पुरोहित माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात नहीं है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का नहीं है, जो अखंडित और निष्कलंक रही हो। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि ब्राह्मण पुरोहित माता और पिता, दोनों के ही कुल से सुजात है, जातिवाद से पितृवंश की सात पीढ़ियों से परिशुद्ध कुल का है, जो अखंडित और निष्कलंक रही है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१४) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु ब्राह्मण पुरोहित वेदों का अभ्यस्त नहीं है, मंत्रों का जानकार, तीनों वेदों में पारंगत नहीं है, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार, शब्द और अर्थ का भेदी, पाँचवे इतिहास में पारंगत नहीं है, पदों का वक्ता, व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि ब्राह्मण पुरोहित वेदों का अभ्यस्त है, मंत्रों का जानकार, तीनों वेदों में पारंगत है, विधि और कर्मकाण्डों का निपुण व्याख्याकार, शब्द और अर्थ का भेदी, पाँचवे इतिहास में पारंगत है, पदों का वक्ता, व्याकरण में निपुण, भौतिक-दर्शनशास्त्र और महापुरूष-लक्षणों में पारंगत है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१५) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु ब्राह्मण पुरोहित शीलवान नहीं है, शील में परिपक्व नहीं है, ऊँचे शील से संपन्न नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि ब्राह्मण पुरोहित शीलवान है, शील में परिपक्व है, ऊँचे शील से संपन्न है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ।
(१६) ‘जब श्रीमान महायज्ञ कर रहे हो, तो कोई कह सकता है कि “राजा महाविजित महायज्ञ तो कर रहे है, किन्तु ब्राह्मण पुरोहित पंडित नहीं है, मेधावी नहीं है, यज्ञ-करछुल पकड़ने वालों में प्रथम या द्वितीय नहीं है। तब भी राजा इस तरह का महायज्ञ कर रहे है।” राजा को इस तरह कोई धर्मानुसार कहने वाला नहीं है। चूँकि ब्राह्मण पुरोहित पंडित है, मेधावी है, यज्ञ-करछुल पकड़ने वालों में प्रथम या द्वितीय है। इस तरह भी श्रीमान जान लें, और यज्ञ का आयोजन करें, सजावट करें, हर्षित हो, चित्त में विश्वास लाएँ। इस तरह यज्ञ करते समय ब्राह्मण पुरोहित ने राजा महाविजित के चित्त को सोलह तरह से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया।
और, ब्राह्मण, उस यज्ञ में न गायों की हत्या की गयी, न बकरियों की हत्या की गयी, न भेड़ों की हत्या की गयी, न मुर्गियों की हत्या की गयी, न सुवरों की हत्या की गयी, न विविध प्रकार के किसी अन्य प्राणियों को मौत के घाट उतारा गया, न यज्ञस्तंभ के लिए वृक्ष काटे गए, न ही अग्नि-हवन में डालने के लिए कुशघास तक काटी गयी। और जो भी गुलाम, नौकर या कर्मचारी थे, उन्होने दण्ड के मारे या डर के मारे, आँखों के आँसू बहाकर रोते हुए, सेवाएँ नहीं दी। बल्कि स्वेच्छा से जिसने चाहा, उसने किया, जिसने नहीं चाहा, उसने नहीं किया। स्वेच्छा से जो सेवा चाही, वही किया, जो नहीं चाहा, वह नहीं किया। केवल घी, तेल, मक्खन, दही, शहद और गुड़ से वह यज्ञ सम्पन्न हुआ।
तत्पश्चात, ब्राह्मण, राज्य के देहातों, नगरों और शहरों में जो [जागीरदार] क्षत्रिय रहते थे, राजमंत्री और राजपरिवार रहते थे, बहुत प्रभावशाली ब्राह्मण रहते थे, बहुत संपत्तिशाली गृहस्थ [=वैश्य] रहते थे, वे अत्याधिक धन-धान्य लेकर राजा महाविजित के पास गए और कहा, “महाराज, यह अत्याधिक धन-धान्य केवल महाराज के लिए लाया गया है। महाराज इसे स्वीकार करें।”
“नहीं, श्रीमानों! मेरे पास धर्मानुसार अर्जित किया हुआ पर्याप्त धन-धान्य पड़ा हुआ है। इसे अपने पास ही रखें, बल्कि आप यहाँ से और ले जाएँ।”
राजा के मना करने पर उन्होने एक ओर जाकर सलाह-मशवरा किया, “यह हमारे लिए उचित नहीं हैं कि अब इस अत्याधिक धन-धान्य को दुबारा घर ले जाएँ। राजा महाविजित महायज्ञ कर रहे है। अतः हम भी उनके पीछे-पीछे अनुयज्ञ करें!”
तब, ब्राह्मण, राज्य के देहातों, नगरों और शहरों के [जागीरदार] क्षत्रियों ने अपने दान को यज्ञस्थान की पूर्व दिशा में दक्षिणास्वरूप प्रस्थापित किया। राजमंत्री और राजपरिवारों ने अपने दान को यज्ञस्थान की दक्षिण दिशा में दक्षिणास्वरूप प्रस्थापित किया। बहुत प्रभावशाली ब्राह्मणों ने अपने दान को यज्ञस्थान की पश्चिम दिशा में दक्षिणास्वरूप प्रस्थापित किया। बहुत संपत्तिशाली गृहस्थों [=वैश्यों] ने अपने दान को यज्ञस्थान की उत्तर दिशा में दक्षिणास्वरूप प्रस्थापित किया। उन अनुयज्ञों में भी, ब्राह्मण, न गायों की हत्या की गयी, न बकरियों की हत्या की गयी, न भेड़ों की हत्या की गयी, न मुर्गियों की हत्या की गयी, न सुवरों की हत्या की गयी, न विविध प्रकार के किसी अन्य प्राणियों को मौत के घाट उतारा गया, न यज्ञस्तंभ के लिए वृक्ष काटे गए, न ही अग्नि-हवन में डालने के लिए कुशघास तक काटी गयी। जो भी गुलाम, नौकर या कर्मचारी थे, उन्होने दण्ड के मारे या डर के मारे, आँखों के आँसू बहाकर रोते हुए, सेवाएँ नहीं दी। बल्कि स्वेच्छा से जिसने चाहा, उसने किया, जिसने नहीं चाहा, उसने नहीं किया। स्वेच्छा से जो सेवा चाही, वही किया, जो नहीं चाहा, वह नहीं किया। केवल घी, तेल, मक्खन, दही, शहद और गुड़ से वह अनुयज्ञ भी सम्पन्न हुआ।
और इस तरह आठ गुणों से संपन्न राजा महाविजित, चार गुणों से संपन्न ब्राह्मण पुरोहित, चार अनुमति-पक्ष और तीन विधियाँ हैं। और, ब्राह्मण, इसे ही सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा कहा जाता है।”
जब ऐसा कहा गया तो ब्राह्मण [प्रसन्नता के मारे] चीखने, चिल्लाने और शोर मचाने लगे, “अरे, ये हुआ यज्ञ! अरे, ये हुई यज्ञ-संपदा!”
किन्तु ब्राह्मण कूटदन्त मौन ही बैठा रहा। तब उन ब्राह्मणों ने ब्राह्मण कूटदन्त से कहा, “कूटदन्त जी, आप श्रमण गौतम के सुभाष्य पर प्रसन्न क्यों नहीं हो रहे है?”
“श्रीमानों, ऐसा नहीं है कि मैं श्रमण गौतम के इस सुभाष्य पर प्रसन्न नहीं हूँ। उसका सिर फट जाएगा जो भी श्रमण गौतम के इस सुभाष्य पर प्रसन्न नहीं होगा! किन्तु मुझे लग रहा है कि श्रमण गौतम ऐसा नहीं कहते — “ऐसा मैंने सुना” या “ऐसा हुआ होगा!” बल्कि श्रमण गौतम ने कहा — “तब ऐसा था”, “तब ऐसा हुआ था!” तब मुझे लगता है कि “अवश्य ही श्रमण गौतम उस समय स्वयं यज्ञ-स्वामी राजा महाविजित थे, अथवा यज्ञ का आयोजन कराने वाले ब्राह्मण पुरोहित थे। क्या गुरु गौतम जानते है कि इस तरह का यज्ञ कर अथवा करा कर, मरणोपरान्त काया छूटने पर, वे सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे थे?”
“मैं जानता हूँ, ब्राह्मण, कि इस तरह का यज्ञ कर अथवा करा कर, मरणोपरान्त काया छूटने पर, हम सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे थे। चूँकि उस समय मैं यज्ञ का आयोजन कराने वाले ब्राह्मण पुरोहित था।”
“गुरु गौतम, इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा के आगे क्या कोई अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम [=सजावट-सामग्री] लगते हो, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी हो?”
“हाँ, ब्राह्मण। इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा के आगे भी अन्य यज्ञ हैं, जिनमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी जो महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होते हैं।”
“गुरु गौतम, वे कौन-से यज्ञ हैं…?”
“ब्राह्मण, जो नित्य [=नियमित, साधारण] दान कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों [=सन्यासियों] को दिये जाते हैं, उस यज्ञ में सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा से कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी वह महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“क्या कारण से, हे गौतम, और किस परिस्थिति में, जो नित्य दान कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये जाते हैं, वह यज्ञ सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा से भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है?”
“क्योंकि, ब्राह्मण, उस तरह के यज्ञ में अर्हंत या अर्हंतमार्ग पर प्रतिष्ठित लोग नहीं आते हैं। भला क्यों? क्योंकि उस तरह के यज्ञ में [=प्राणियों पर] दण्ड प्रहार और गला दबोचना देखा जाता है। इसलिए उस तरह के यज्ञ में अर्हंत या अर्हंतमार्ग पर प्रतिष्ठित लोग नहीं आते हैं। किन्तु जो नित्य दान कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये जाते हैं, उस तरह के यज्ञ में अर्हंत या अर्हंतमार्ग पर प्रतिष्ठित लोग आते रहते हैं। भला क्यों? क्योंकि उस तरह के यज्ञ में दण्ड प्रहार और गला दबोचना नहीं देखा जाता है। इसलिए उस तरह के यज्ञ में अर्हंत या अर्हंतमार्ग पर प्रतिष्ठित लोग आते रहते हैं। इसी कारण से और इसी परिस्थिति में, ब्राह्मण, जो नित्य दान कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये जाते हैं, वह यज्ञ सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा से भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“किन्तु, गुरु गौतम! इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा और कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान के आगे भी क्या कोई अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हो, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी हो?”
“हाँ, ब्राह्मण। इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा और कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान के आगे भी अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“गुरु गौतम, वह कौन-सा यज्ञ है…?”
“ब्राह्मण, जो चार दिशाओं के संघ के लिए विहार बनवाना है, उस यज्ञ में सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा और कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान से कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी वह महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“किन्तु, गुरु गौतम! इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, और विहार दान के आगे भी क्या कोई अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हो, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी हो?”
“हाँ, ब्राह्मण। इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, और विहार दान के आगे भी अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“गुरु गौतम, वह कौन-सा यज्ञ है…?”
“ब्राह्मण, जो आस्था-चित्त से बुद्ध की शरण जाता है, धर्म की शरण जाता है, संघ की शरण जाता है, उस यज्ञ में सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, और विहार दान से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“किन्तु, गुरु गौतम! इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, और आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने के आगे भी क्या कोई अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हो, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी हो?”
“हाँ, ब्राह्मण। इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, और आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने के आगे भी अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“गुरु गौतम, वह कौन-सा यज्ञ है…?”
“ब्राह्मण, जो आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करता है — जीवहत्या से विरत रहना, चुराने से विरत रहना, व्यभिचार से विरत रहना, झूठ बोलने से विरत रहना, और शराब मद्य आदि मदहोश करने वाले नशे-पते से विरत रहना — उस यज्ञ में सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, और आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।”
“किन्तु, गुरु गौतम! इस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने के आगे भी क्या कोई अन्य यज्ञ है, जिसमें कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हो, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी हो?”
“हाँ, ब्राह्मण।…”
“गुरु गौतम, वह कौन-सा यज्ञ है…?”
“ऐसा होता है, ब्राह्मण! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है। और इस तरह शील होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, ब्राह्मण, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, ब्राह्मण, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, ब्राह्मण, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, ब्राह्मण, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, ब्राह्मण, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, ब्राह्मण, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, ब्राह्मण, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, ब्राह्मण, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, ब्राह्मण, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
विपश्यना ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, ब्राह्मण, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गयी है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, ब्राह्मण, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, ब्राह्मण, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, ब्राह्मण, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, ब्राह्मण, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, ब्राह्मण, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, ब्राह्मण, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, ब्राह्मण, इस यज्ञ में उस सोलह परिष्कारों वाली त्रिविध यज्ञ-संपदा, कुल-परंपरा के अनुसार शीलवान प्रवज्ज्यितों को दिये नित्य दान, विहार दान, आस्था-चित्त से बुद्ध, धर्म और संघ की शरण जाने, और आस्था-चित्त से [पञ्चशील] शिक्षापदों को धारण करने से भी कम आवश्यकताएँ, कम उपक्रम लगते हैं, तब भी महाफ़लदायी, महापुरस्कारी होता है। और इस यज्ञसंपदा से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम यज्ञसंपदा कुछ नहीं है।”
ऐसा कहने पर कूटदन्त ब्राह्मण कह पड़ा, “अतिउत्तम, गुरु गौतम! अतिउत्तम, गुरु गौतम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!
और, गुरु गौतम, यज्ञ-बलि देने के लिए जो सात-सौ बैल, सात-सौ बछड़े, सात-सौ बछड़ियाँ, सात-सौ बकरियाँ और सात-सौ भेड़ें बलि-स्तंभ पर लायी गयी हैं, उन्हें मैं मुक्त करता हूँ, उन्हें मैं जीवन देता हूँ। उन्हें खाने को हरी घास मिलें, पीने को शीतल जल मिलें, और उन पर शीतल पवन बहे!”
तब भगवान ने एक ओर बैठे कूटदन्त ब्राह्मण को धर्म अनुक्रम से बताया — दान की चर्चा.. [फिर] शील की चर्चा.. [फिर] स्वर्ग की चर्चा.. [फिर] कामुकता के दुष्परिणाम, पतन और दूषितता बताने के पश्चात, ‘संन्यास के लाभ’ प्रकाशित किए। और जब भगवान ने जान लिया कि कूटदन्त ब्राह्मण का चित्त तैयार हुआ, चित्त मृदु हुआ, चित्त अवरोध-रहित हुआ, चित्त उल्लासित हुआ और चित्त आश्वस्त हुआ, तब उन्होंने बुद्धविशेष धर्मदेशना को उजागर किया — दुःख, उत्पत्ति, निरोध, मार्ग [=चार आर्यसत्य]। जैसे कोई स्वच्छ, बेदाग वस्त्र भलीभाँति रंग पकड़ता है, उसी तरह कूटदन्त ब्राह्मण को उसी आसन पर बैठे हुए धूलरहित, निर्मल धर्मचक्षु उत्पन्न हुए — ‘जो उत्पत्ति-स्वभाव का है, सब निरोध-स्वभाव का है!’
तब धर्म देख चुका, धर्म पा चुका, धर्म जान चुका, धर्म में गहरे उतर चुका कूटदन्त ब्राह्मण, संदेह लाँघ कर, परे चला गया, जिसे कोई प्रश्न नहीं रहा, जिसे निडरता प्राप्त हुई, जो शास्ता के शासन [=शिक्षा] में स्वावलंबी हुआ [=श्रोतापन्न]। तब उसने कहा, “गुरु गौतम कल भिक्षुसंघ के साथ मेरा भोजन स्वीकार करें।”
भगवान ने मौन रहकर स्वीकृति दी। तब भगवान की स्वीकृति जान कर, कूटदन्त ब्राह्मण आसन से उठकर भगवान को अभिवादन करते हुए, प्रदक्षिणा करते हुए चला गया। और रात बीतने पर कूटदन्त ब्राह्मण ने अपने घर पर उत्तम खाद्य और भोजन बनाकर, भगवान से विनंती की, “उचित समय है, हे गौतम! भोजन तैयार है।”
तब सुबह होने पर भगवान ने चीवर ओढ़, पात्र लेकर, भिक्षुसंघ के साथ ब्राह्मण कूटदन्त के घर गए, और जाकर बिछे आसन पर बैठ गये। तब कूटदन्त ब्राह्मण ने भगवान और भिक्षुसंघ को अपने हाथों से उत्तम खाद्य और भोजन परोस कर संतृप्त किया, संतुष्ट किया। भगवान के भोजन कर पात्र से हाथ हटाने के पश्चात, कूटदन्त ब्राह्मण ने स्वयं का आसन नीचे लगाया और एक ओर बैठ गया।
तब भगवान ने कूटदन्त ब्राह्मण को धर्म-चर्चा से निर्देशित किया, उत्प्रेरित किया, उत्साहित किया, हर्षित किया, और आसन से उठकर चले गए।
खाणुमतकब्राह्मणगहपतिका
३२३. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि येन खाणुमतं नाम मगधानं ब्राह्मणगामो तदवसरि। तत्र सुदं भगवा खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं। तेन खो पन समयेन कूटदन्तो ब्राह्मणो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं। तेन खो पन समयेन कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स महायञ्ञो उपक्खटो होति। सत्त च उसभसतानि सत्त च वच्छतरसतानि सत्त च वच्छतरीसतानि सत्त च अजसतानि सत्त च उरब्भसतानि थूणूपनीतानि होन्ति यञ्ञत्थाय।
३२४. अस्सोसुं खो खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति।
३२५. अथ खो खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ति।
३२६. तेन खो पन समयेन कूटदन्तो ब्राह्मणो उपरिपासादे दिवासेय्यं उपगतो होति। अद्दसा खो कूटदन्तो ब्राह्मणो खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूते येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ते। दिस्वा खत्तं आमन्तेसि – ‘‘किं नु खो, भो खत्ते, खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका खाणुमता निक्खमित्वा सङ्घसङ्घी गणीभूता येन अम्बलट्ठिका तेनुपसङ्कमन्ती’’ति?
३२७. ‘‘अत्थि खो, भो, समणो गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो मगधेसु चारिकं चरमानो महता भिक्खुसङ्घेन सद्धिं पञ्चमत्तेहि भिक्खुसतेहि खाणुमतं अनुप्पत्तो, खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ति। तमेते भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमन्ती’’ति।
३२८. अथ खो कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स एतदहोसि – ‘‘सुतं खो पन मेतं – ‘समणो गोतमो तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं जानाती’ति। न खो पनाहं जानामि तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं। इच्छामि चाहं महायञ्ञं यजितुं। यंनूनाहं समणं गोतमं उपसङ्कमित्वा तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं पुच्छेय्य’’न्ति।
३२९. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो खत्तं आमन्तेसि – ‘‘तेन हि, भो खत्ते, येन खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कम। उपसङ्कमित्वा खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके एवं वदेहि – ‘कूटदन्तो, भो, ब्राह्मणो एवमाह – ‘‘आगमेन्तु किर भवन्तो, कूटदन्तोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो सो खत्ता कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा येन खाणुमतका ब्राह्मणगहपतिका तेनुपसङ्कमि। उपसङ्कमित्वा खाणुमतके ब्राह्मणगहपतिके एतदवोच – ‘‘कूटदन्तो, भो, ब्राह्मणो एवमाह – ‘आगमेन्तु किर भोन्तो, कूटदन्तोपि ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’’ति।
कूटदन्तगुणकथा
३३०. तेन खो पन समयेन अनेकानि ब्राह्मणसतानि खाणुमते पटिवसन्ति – ‘‘कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स महायञ्ञं अनुभविस्सामा’’ति। अस्सोसुं खो ते ब्राह्मणा – ‘‘कूटदन्तो किर ब्राह्मणो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’ति। अथ खो ते ब्राह्मणा येन कूटदन्तो ब्राह्मणो तेनुपसङ्कमिंसु।
३३१. उपसङ्कमित्वा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘सच्चं किर भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सती’’ति? ‘‘एवं खो मे, भो, होति – ‘अहम्पि समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामी’’’ति।
‘‘मा भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमि। न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। सचे भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सति, भोतो कूटदन्तस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्ढिस्सति। यम्पि भोतो कूटदन्तस्स यसो हायिस्सति, समणस्स गोतमस्स यसो अभिवड्ढिस्सति, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। समणो त्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। यम्पि भवं कूटदन्तो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। समणो त्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो अड्ढो महद्धनो महाभोगो पहूतवित्तूपकरणो पहूतजातरूपरजतो…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विञ्ञापनिया…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो बहूनं आचरियपाचरियो तीणि माणवकसतानि मन्ते वाचेति, बहू खो पन नानादिसा नानाजनपदा माणवका आगच्छन्ति भोतो कूटदन्तस्स सन्तिके मन्तत्थिका मन्ते अधियितुकामा…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो जिण्णो वुद्धो महल्लको अद्धगतो वयोअनुप्पत्तो। समणो गोतमो तरुणो चेव तरुणपब्बजितो च…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘भवञ्हि कूटदन्तो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं। यम्पि भवं कूटदन्तो खाणुमतं अज्झावसति सत्तुस्सदं सतिणकट्ठोदकं सधञ्ञं राजभोग्गं, रञ्ञा मागधेन सेनियेन बिम्बिसारेन दिन्नं राजदायं ब्रह्मदेय्यं, इमिनापङ्गेन न अरहति भवं कूटदन्तो समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। समणोत्वेव गोतमो अरहति भवन्तं कूटदन्तं दस्सनाय उपसङ्कमितु’’न्ति।
बुद्धगुणकथा
३३२. एवं वुत्ते कूटदन्तो ब्राह्मणो ते ब्राह्मणे एतदवोच –
‘‘तेन हि, भो, ममपि सुणाथ, यथा मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं, न त्वेव अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। समणो खलु, भो, गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। यम्पि, भो, समणो गोतमो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, इमिनापङ्गेन न अरहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं।
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो महन्तं ञातिसङ्घं ओहाय पब्बजितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो पहूतं हिरञ्ञसुवण्णं ओहाय पब्बजितो भूमिगतञ्च वेहासट्ठं च…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो दहरोव समानो युवा सुसुकाळकेसो भद्रेन योब्बनेन समन्नागतो पठमेन वयसा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अकामकानं मातापितूनं अस्सुमुखानं रुदन्तानं केसमस्सुं ओहारेत्वा कासायानि वत्थानि अच्छादेत्वा अगारस्मा अनगारियं पब्बजितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय …पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सीलवा अरियसीली कुसलसीली कुसलसीलेन समन्नागतो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो कल्याणवाचो कल्याणवाक्करणो पोरिया वाचाय समन्नागतो विस्सट्ठाय अनेलगलाय अत्थस्स विञ्ञापनिया…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो बहूनं आचरियपाचरियो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो खीणकामरागो विगतचापल्लो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो कम्मवादी किरियवादी अपापपुरेक्खारो ब्रह्मञ्ञाय पजाय…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो उच्चा कुला पब्बजितो असम्भिन्नखत्तियकुला…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो अड्ढा कुला पब्बजितो महद्धना महाभोगा…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं तिरोरट्ठा तिरोजनपदा पञ्हं पुच्छितुं आगच्छन्ति…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं अनेकानि देवतासहस्सानि पाणेहि सरणं गतानि…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’ ति…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो द्वत्तिंसमहापुरिसलक्खणेहि समन्नागतो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो एहिस्वागतवादी सखिलो सम्मोदको अब्भाकुटिको उत्तानमुखो पुब्बभासी…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो चतुन्नं परिसानं सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘समणे खलु, भो, गोतमे बहू देवा च मनुस्सा च अभिप्पसन्ना…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो यस्मिं गामे वा निगमे वा पटिवसति न तस्मिं गामे वा निगमे वा अमनुस्सा मनुस्से विहेठेन्ति…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सङ्घी गणी गणाचरियो पुथुतित्थकरानं अग्गमक्खायति, यथा खो पन, भो, एतेसं समणब्राह्मणानं यथा वा तथा वा यसो समुदागच्छति, न हेवं समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो। अथ खो अनुत्तराय विज्जाचरणसम्पदाय समणस्स गोतमस्स यसो समुदागतो…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं राजा मागधो सेनियो बिम्बिसारो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं राजा पसेनदि कोसलो सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…
‘‘समणं खलु, भो, गोतमं ब्राह्मणो पोक्खरसाति सपुत्तो सभरियो सपरिसो सामच्चो पाणेहि सरणं गतो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो रञ्ञो मागधस्स सेनियस्स बिम्बिसारस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो रञ्ञो पसेनदिस्स कोसलस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो ब्राह्मणस्स पोक्खरसातिस्स सक्कतो गरुकतो मानितो पूजितो अपचितो…पे॰…
‘‘समणो खलु, भो, गोतमो खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं। ये खो पन, भो, केचि समणा वा ब्राह्मणा वा अम्हाकं गामखेत्तं आगच्छन्ति, अतिथी नो ते होन्ति। अतिथी खो पनम्हेहि सक्कातब्बा गरुकातब्बा मानेतब्बा पूजेतब्बा अपचेतब्बा। यम्पि, भो, समणो गोतमो खाणुमतं अनुप्पत्तो खाणुमते विहरति अम्बलट्ठिकायं, अतिथिम्हाकं समणो गोतमो। अतिथि खो पनम्हेहि सक्कातब्बो गरुकातब्बो मानेतब्बो पूजेतब्बो अपचेतब्बो। इमिनापङ्गेन नारहति सो भवं गोतमो अम्हाकं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। अथ खो मयमेव अरहाम तं भवन्तं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमितुं। एत्तके खो अहं, भो, तस्स भोतो गोतमस्स वण्णे परियापुणामि, नो च खो सो भवं गोतमो एत्तकवण्णो। अपरिमाणवण्णो हि सो भवं गोतमो’’ति।
३३३. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘यथा खो भवं कूटदन्तो समणस्स गोतमस्स वण्णे भासति, इतो चेपि सो भवं गोतमो योजनसते विहरति, अलमेव सद्धेन कुलपुत्तेन दस्सनाय उपसङ्कमितुं अपि पुटोसेना’’ति। ‘‘तेन हि, भो, सब्बेव मयं समणं गोतमं दस्सनाय उपसङ्कमिस्सामा’’ति।
महाविजितराजयञ्ञकथा
३३४. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो महता ब्राह्मणगणेन सद्धिं येन अम्बलट्ठिका येन भगवा तेनुपसङ्कमि, उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। खाणुमतकापि खो ब्राह्मणगहपतिका अप्पेकच्चे भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु, सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे येन भगवा तेनञ्जलिं पणामेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे नामगोत्तं सावेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु; अप्पेकच्चे तुण्हीभूता एकमन्तं निसीदिंसु।
३३५. एकमन्तं निसिन्नो खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो गोतम – ‘समणो गोतमो तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं जानाती’ति। न खो पनाहं जानामि तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं। इच्छामि चाहं महायञ्ञं यजितुं। साधु मे भवं गोतमो तिविधं यञ्ञसम्पदं सोळसपरिक्खारं देसेतू’’ति।
३३६. ‘‘तेन हि, ब्राह्मण, सुणाहि साधुकं मनसिकरोहि, भासिस्सामी’’ति। ‘‘एवं, भो’’ति खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवतो पच्चस्सोसि। भगवा एतदवोच – ‘‘भूतपुब्बं, ब्राह्मण, राजा महाविजितो नाम अहोसि अड्ढो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधञ्ञो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो। अथ खो, ब्राह्मण, रञ्ञो महाविजितस्स रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘अधिगता खो मे विपुला मानुसका भोगा, महन्तं पथविमण्डलं अभिविजिय अज्झावसामि, यंनूनाहं महायञ्ञं यजेय्यं, यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति।
३३७. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितं ब्राह्मणं आमन्तेत्वा एतदवोच – ‘इध मय्हं, ब्राह्मण, रहोगतस्स पटिसल्लीनस्स एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – अधिगता खो मे विपुला मानुसका भोगा, महन्तं पथविमण्डलं अभिविजिय अज्झावसामि। यंनूनाहं महायञ्ञं यजेय्यं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति। इच्छामहं, ब्राह्मण, महायञ्ञं यजितुं। अनुसासतु मं भवं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’’ति।
३३८. ‘‘एवं वुत्ते, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो राजानं महाविजितं एतदवोच – ‘भोतो खो रञ्ञो जनपदो सकण्टको सउप्पीळो, गामघातापि दिस्सन्ति, निगमघातापि दिस्सन्ति, नगरघातापि दिस्सन्ति, पन्थदुहनापि दिस्सन्ति। भवं खो पन राजा एवं सकण्टके जनपदे सउप्पीळे बलिमुद्धरेय्य, अकिच्चकारी अस्स तेन भवं राजा। सिया खो पन भोतो रञ्ञो एवमस्स – ‘‘अहमेतं दस्सुखीलं वधेन वा बन्धेन वा जानिया वा गरहाय वा पब्बाजनाय वा समूहनिस्सामी’’ति, न खो पनेतस्स दस्सुखीलस्स एवं सम्मा समुग्घातो होति। ये ते हतावसेसका भविस्सन्ति, ते पच्छा रञ्ञो जनपदं विहेठेस्सन्ति। अपि च खो इदं संविधानं आगम्म एवमेतस्स दस्सुखीलस्स सम्मा समुग्घातो होति। तेन हि भवं राजा ये भोतो रञ्ञो जनपदे उस्सहन्ति कसिगोरक्खे, तेसं भवं राजा बीजभत्तं अनुप्पदेतु। ये भोतो रञ्ञो जनपदे उस्सहन्ति वाणिज्जाय, तेसं भवं राजा पाभतं अनुप्पदेतु। ये भोतो रञ्ञो जनपदे उस्सहन्ति राजपोरिसे, तेसं भवं राजा भत्तवेतनं पकप्पेतु। ते च मनुस्सा सकम्मपसुता रञ्ञो जनपदं न विहेठेस्सन्ति; महा च रञ्ञो रासिको भविस्सति। खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीळा। मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मञ्ञे विहरिस्सन्ती’ति। ‘एवं, भो’ति खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा ये रञ्ञो जनपदे उस्सहिंसु कसिगोरक्खे, तेसं राजा महाविजितो बीजभत्तं अनुप्पदासि। ये च रञ्ञो जनपदे उस्सहिंसु वाणिज्जाय, तेसं राजा महाविजितो पाभतं अनुप्पदासि। ये च रञ्ञो जनपदे उस्सहिंसु राजपोरिसे, तेसं राजा महाविजितो भत्तवेतनं पकप्पेसि। ते च मनुस्सा सकम्मपसुता रञ्ञो जनपदं न विहेठिंसु, महा च रञ्ञो रासिको अहोसि। खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीळा मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मञ्ञे विहरिंसु। अथ खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितं ब्राह्मणं आमन्तेत्वा एतदवोच – ‘समूहतो खो मे भोतो दस्सुखीलो, भोतो संविधानं आगम्म महा च मे रासिको। खेमट्ठिता जनपदा अकण्टका अनुप्पीळा मनुस्सा मुदा मोदमाना उरे पुत्ते नच्चेन्ता अपारुतघरा मञ्ञे विहरन्ति। इच्छामहं ब्राह्मण महायञ्ञं यजितुं। अनुसासतु मं भवं यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति।
चतुपरिक्खारं
३३९. ‘‘तेन हि भवं राजा ये भोतो रञ्ञो जनपदे खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च ते भवं राजा आमन्तयतं – ‘इच्छामहं, भो, महायञ्ञं यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति। ये भोतो रञ्ञो जनपदे अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च, ते भवं राजा आमन्तयतं – ‘इच्छामहं, भो, महायञ्ञं यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति। ‘एवं, भो’ति खो, ब्राह्मण, राजा महाविजितो पुरोहितस्स ब्राह्मणस्स पटिस्सुत्वा ये रञ्ञो जनपदे खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च, ते राजा महाविजितो आमन्तेसि – ‘इच्छामहं, भो, महायञ्ञं यजितुं, अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’’ति। ‘यजतं भवं राजा यञ्ञं, यञ्ञकालो महाराजा’ति। ये रञ्ञो जनपदे अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च, ते राजा महाविजितो आमन्तेसि – ‘इच्छामहं, भो, महायञ्ञं यजितुं। अनुजानन्तु मे भवन्तो यं मम अस्स दीघरत्तं हिताय सुखाया’ति। ‘यजतं भवं राजा यञ्ञं, यञ्ञकालो महाराजा’ति। इतिमे चत्तारो अनुमतिपक्खा तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति।
अट्ठ परिक्खारा
३४०. ‘‘राजा महाविजितो अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो, उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय; अड्ढो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधञ्ञो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो; बलवा चतुरङ्गिनिया सेनाय समन्नागतो अस्सवाय ओवादपटिकराय सहति [पतपति (सी॰ पी॰), तपति (स्या॰)] मञ्ञे पच्चत्थिके यससा; सद्धो दायको दानपति अनावटद्वारो समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं ओपानभूतो पुञ्ञानि करोति; बहुस्सुतो तस्स तस्स सुतजातस्स, तस्स तस्सेव खो पन भासितस्स अत्थं जानाति ‘अयं इमस्स भासितस्स अत्थो अयं इमस्स भासितस्स अत्थो’ति; पण्डितो, वियत्तो, मेधावी, पटिबलो, अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं। राजा महाविजितो इमेहि अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो। इति इमानिपि अट्ठङ्गानि तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति।
चतुपरिक्खारं
३४१. ‘‘पुरोहितो [पुरोहितोपि (क॰ सी॰ क॰)] ब्राह्मणो चतुहङ्गेहि समन्नागतो। उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो; सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो; पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। पुरोहितो ब्राह्मणो इमेहि चतूहङ्गेहि समन्नागतो। इति इमानि चत्तारि अङ्गानि तस्सेव यञ्ञस्स परिक्खारा भवन्ति।
तिस्सो विधा
३४२. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा तिस्सो विधा देसेसि। सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यिट्ठुकामस्स [यिट्ठकामस्स (क॰)] कोचिदेव विप्पटिसारो – ‘महा वत मे भोगक्खन्धो विगच्छिस्सती’ति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो। सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव विप्पटिसारो – ‘महा वत मे भोगक्खन्धो विगच्छती’ति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो। सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यिट्ठस्स कोचिदेव विप्पटिसारो – ‘महा वत मे भोगक्खन्धो विगतो’ति, सो भोता रञ्ञा विप्पटिसारो न करणीयो’’ति। इमा खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा तिस्सो विधा देसेसि।
दस आकारा
३४३. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा दसहाकारेहि पटिग्गाहकेसु विप्पटिसारं पटिविनेसि। ‘आगमिस्सन्ति खो भोतो यञ्ञं पाणातिपातिनोपि पाणातिपाता पटिविरतापि। ये तत्थ पाणातिपातिनो, तेसञ्ञेव तेन। ये तत्थ पाणातिपाता पटिविरता, ते आरब्भ यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु। आगमिस्सन्ति खो भोतो यञ्ञं अदिन्नादायिनोपि अदिन्नादाना पटिविरतापि…पे॰… कामेसु मिच्छाचारिनोपि कामेसुमिच्छाचारा पटिविरतापि… मुसावादिनोपि मुसावादा पटिविरतापि… पिसुणवाचिनोपि पिसुणाय वाचाय पटिविरतापि… फरुसवाचिनोपि फरुसाय वाचाय पटिविरतापि… सम्फप्पलापिनोपि सम्फप्पलापा पटिविरतापि … अभिज्झालुनोपि अनभिज्झालुनोपि… ब्यापन्नचित्तापि अब्यापन्नचित्तापि… मिच्छादिट्ठिकापि सम्मादिट्ठिकापि…। ये तत्थ मिच्छादिट्ठिका, तेसञ्ञेव तेन। ये तत्थ सम्मादिट्ठिका, ते आरब्भ यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतू’ति। इमेहि खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स पुब्बेव यञ्ञा दसहाकारेहि पटिग्गाहकेसु विप्पटिसारं पटिविनेसि।
सोळस आकारा
३४४. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स महायञ्ञं यजमानस्स सोळसहाकारेहि चित्तं सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति, नो च खो तस्स आमन्तिता खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च; अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भोता खो पन रञ्ञा आमन्तिता खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
‘‘सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति, नो च खो तस्स आमन्तिता अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च…पे॰… गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भोता खो पन रञ्ञा आमन्तिता गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
‘‘सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति, नो च खो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भवं खो पन राजा उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
‘‘सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति नो च खो अभिरूपो दस्सनीयो पासादिको परमाय वण्णपोक्खरताय समन्नागतो ब्रह्मवण्णी ब्रह्मवच्छसी अखुद्दावकासो दस्सनाय…पे॰… नो च खो अड्ढो महद्धनो महाभोगो पहूतजातरूपरजतो पहूतवित्तूपकरणो पहूतधनधञ्ञो परिपुण्णकोसकोट्ठागारो…पे॰… नो च खो बलवा चतुरङ्गिनिया सेनाय समन्नागतो अस्सवाय ओवादपटिकराय सहति मञ्ञे पच्चत्थिके यससा…पे॰… नो च खो सद्धो दायको दानपति अनावटद्वारो समणब्राह्मणकपणद्धिकवणिब्बकयाचकानं ओपानभूतो पुञ्ञानि करोति…पे॰… नो च खो बहुस्सुतो तस्स तस्स सुतजातस्स…पे॰… नो च खो तस्स तस्सेव खो पन भासितस्स अत्थं जानाति ‘‘अयं इमस्स भासितस्स अत्थो, अयं इमस्स भासितस्स अत्थो’’ति…पे॰… नो च खो पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भवं खो पन राजा पण्डितो वियत्तो मेधावी पटिबलो अतीतानागतपच्चुप्पन्ने अत्थे चिन्तेतुं। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
‘‘सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति। नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन; अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भोतो खो पन रञ्ञो पुरोहितो ब्राह्मणो उभतो सुजातो मातितो च पितितो च संसुद्धगहणिको याव सत्तमा पितामहयुगा अक्खित्तो अनुपक्कुट्ठो जातिवादेन। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतु।
‘‘सिया खो पन भोतो रञ्ञो महायञ्ञं यजमानस्स कोचिदेव वत्ता – ‘राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति। नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो अज्झायको मन्तधरो तिण्णं वेदानं पारगू सनिघण्डुकेटुभानं साक्खरप्पभेदानं इतिहासपञ्चमानं पदको वेय्याकरणो लोकायतमहापुरिसलक्खणेसु अनवयो…पे॰… नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो सीलवा वुद्धसीली वुद्धसीलेन समन्नागतो…पे॰… नो च ख्वस्स पुरोहितो ब्राह्मणो पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं, अथ च पन भवं राजा एवरूपं महायञ्ञं यजती’ति। एवम्पि भोतो रञ्ञो वत्ता धम्मतो नत्थि। भोतो खो पन रञ्ञो पुरोहितो ब्राह्मणो पण्डितो वियत्तो मेधावी पठमो वा दुतियो वा सुजं पग्गण्हन्तानं। इमिनापेतं भवं राजा जानातु, यजतं भवं, सज्जतं भवं, मोदतं भवं, चित्तमेव भवं अन्तरं पसादेतूति। इमेहि खो, ब्राह्मण, पुरोहितो ब्राह्मणो रञ्ञो महाविजितस्स महायञ्ञं यजमानस्स सोळसहि आकारेहि चित्तं सन्दस्सेसि समादपेसि समुत्तेजेसि सम्पहंसेसि।
३४५. ‘‘तस्मिं खो, ब्राह्मण, यञ्ञे नेव गावो हञ्ञिंसु, न अजेळका हञ्ञिंसु, न कुक्कुटसूकरा हञ्ञिंसु, न विविधा पाणा संघातं आपज्जिंसु, न रुक्खा छिज्जिंसु यूपत्थाय, न दब्भा लूयिंसु बरिहिसत्थाय [परिहिंसत्थाय (स्या॰ क॰ सी॰ क॰), परहिंसत्थाय (क॰)]। येपिस्स अहेसुं दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा, तेपि न दण्डतज्जिता न भयतज्जिता न अस्सुमुखा रुदमाना परिकम्मानि अकंसु। अथ खो ये इच्छिंसु, ते अकंसु, ये न इच्छिंसु, न ते अकंसु; यं इच्छिंसु, तं अकंसु, यं न इच्छिंसु, न तं अकंसु। सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव सो यञ्ञो निट्ठानमगमासि।
३४६. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च, अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च, ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च, गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च पहूतं सापतेय्यं आदाय राजानं महाविजितं उपसङ्कमित्वा एवमाहंसु – ‘इदं, देव, पहूतं सापतेय्यं देवञ्ञेव उद्दिस्साभतं, तं देवो पटिग्गण्हातू’ति। ‘अलं, भो, ममापिदं पहूतं सापतेय्यं धम्मिकेन बलिना अभिसङ्खतं; तञ्च वो होतु, इतो च भिय्यो हरथा’ति। ते रञ्ञा पटिक्खित्ता एकमन्तं अपक्कम्म एवं समचिन्तेसुं – ‘न खो एतं अम्हाकं पतिरूपं, यं मयं इमानि सापतेय्यानि पुनदेव सकानि घरानि पटिहरेय्याम। राजा खो महाविजितो महायञ्ञं यजति, हन्दस्स मयं अनुयागिनो होमा’ति।
३४७. ‘‘अथ खो, ब्राह्मण, पुरत्थिमेन यञ्ञवाटस्स [यञ्ञावाटस्स (सी॰ पी॰ क॰)] खत्तिया आनुयन्ता नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं। दक्खिणेन यञ्ञवाटस्स अमच्चा पारिसज्जा नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं। पच्छिमेन यञ्ञवाटस्स ब्राह्मणमहासाला नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं। उत्तरेन यञ्ञवाटस्स गहपतिनेचयिका नेगमा चेव जानपदा च दानानि पट्ठपेसुं।
‘‘तेसुपि खो, ब्राह्मण, यञ्ञेसु नेव गावो हञ्ञिंसु, न अजेळका हञ्ञिंसु, न कुक्कुटसूकरा हञ्ञिंसु, न विविधा पाणा संघातं आपज्जिंसु, न रुक्खा छिज्जिंसु यूपत्थाय, न दब्भा लूयिंसु बरिहिसत्थाय। येपि नेसं अहेसुं दासाति वा पेस्साति वा कम्मकराति वा, तेपि न दण्डतज्जिता न भयतज्जिता न अस्सुमुखा रुदमाना परिकम्मानि अकंसु। अथ खो ये इच्छिंसु, ते अकंसु, ये न इच्छिंसु, न ते अकंसु; यं इच्छिंसु, तं अकंसु, यं न इच्छिंसु न तं अकंसु। सप्पितेलनवनीतदधिमधुफाणितेन चेव ते यञ्ञा निट्ठानमगमंसु।
‘‘इति चत्तारो च अनुमतिपक्खा, राजा महाविजितो अट्ठहङ्गेहि समन्नागतो, पुरोहितो ब्राह्मणो चतूहङ्गेहि समन्नागतो; तिस्सो च विधा अयं वुच्चति ब्राह्मण तिविधा यञ्ञसम्पदा सोळसपरिक्खारा’’ति।
३४८. एवं वुत्ते, ते ब्राह्मणा उन्नादिनो उच्चासद्दमहासद्दा अहेसुं – ‘‘अहो यञ्ञो, अहो यञ्ञसम्पदा’’ति! कूटदन्तो पन ब्राह्मणो तूण्हीभूतोव निसिन्नो होति। अथ खो ते ब्राह्मणा कूटदन्तं ब्राह्मणं एतदवोचुं – ‘‘कस्मा पन भवं कूटदन्तो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदती’’ति? ‘‘नाहं, भो, समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदामि। मुद्धापि तस्स विपतेय्य, यो समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्य। अपि च मे, भो, एवं होति – समणो गोतमो न एवमाह – ‘एवं मे सुत’न्ति वा ‘एवं अरहति भवितु’न्ति वा; अपि च समणो गोतमो – ‘एवं तदा आसि, इत्थं तदा आसि’ त्वेव भासति। तस्स मय्हं भो एवं होति – ‘अद्धा समणो गोतमो तेन समयेन राजा वा अहोसि महाविजितो यञ्ञस्सामि पुरोहितो वा ब्राह्मणो तस्स यञ्ञस्स याजेता’ति। अभिजानाति पन भवं गोतमो एवरूपं यञ्ञं यजित्वा वा याजेत्वा वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिताति’’? ‘‘अभिजानामहं, ब्राह्मण, एवरूपं यञ्ञं यजित्वा वा याजेत्वा वा कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपज्जिता, अहं तेन समयेन पुरोहितो ब्राह्मणो अहोसिं तस्स यञ्ञस्स याजेता’’ति।
निच्चदानअनुकुलयञ्ञं
३४९. ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय [तिविधयञ्ञसम्पदाय (क॰)] सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरो [अप्पत्थतरो (स्या॰ कं॰)] च अप्पसमारम्भतरो [अप्पसमारब्भतरो (सी॰ पी॰ क॰)] च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘यानि खो पन तानि, ब्राह्मण, निच्चदानानि अनुकुलयञ्ञानि सीलवन्ते पब्बजिते उद्दिस्स दिय्यन्ति; अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘को नु खो, भो गोतम, हेतु को पच्चयो, येन तं निच्चदानं अनुकुलयञ्ञं इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चा’’ति?
‘‘न खो, ब्राह्मण, एवरूपं यञ्ञं उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना। तं किस्स हेतु? दिस्सन्ति हेत्थ, ब्राह्मण, दण्डप्पहारापि गलग्गहापि, तस्मा एवरूपं यञ्ञं न उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना। यानि खो पन तानि, ब्राह्मण, निच्चदानानि अनुकुलयञ्ञानि सीलवन्ते पब्बजिते उद्दिस्स दिय्यन्ति; एवरूपं खो, ब्राह्मण, यञ्ञं उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना। तं किस्स हेतु? न हेत्थ, ब्राह्मण, दिस्सन्ति दण्डप्पहारापि गलग्गहापि, तस्मा एवरूपं यञ्ञं उपसङ्कमन्ति अरहन्तो वा अरहत्तमग्गं वा समापन्ना। अयं खो, ब्राह्मण, हेतु अयं पच्चयो, येन तं निच्चदानं अनुकुलयञ्ञं इमाय तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय अप्पट्ठतरञ्च अप्पसमारम्भतरञ्च महप्फलतरञ्च महानिसंसतरञ्चा’’ति।
३५०. ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘यो खो, ब्राह्मण, चातुद्दिसं सङ्घं उद्दिस्स विहारं करोति, अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
३५१. ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘यो खो, ब्राह्मण, पसन्नचित्तो बुद्धं सरणं गच्छति, धम्मं सरणं गच्छति, सङ्घं सरणं गच्छति; अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
३५२. ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘यो खो, ब्राह्मण, पसन्नचित्तो सिक्खापदानि समादियति – पाणातिपाता वेरमणिं, अदिन्नादाना वेरमणिं, कामेसुमिच्छाचारा वेरमणिं, मुसावादा वेरमणिं, सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणिं। अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
३५३. ‘‘अत्थि पन, भो गोतम, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘अत्थि खो, ब्राह्मण, अञ्ञो यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति।
‘‘कतमो पन सो, भो गोतम, यञ्ञो इमाय च तिविधाय यञ्ञसम्पदाय सोळसपरिक्खाराय इमिना च निच्चदानेन अनुकुलयञ्ञेन इमिना च विहारदानेन इमेहि च सरणगमनेहि इमेहि च सिक्खापदेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चा’’ति?
‘‘इध, ब्राह्मण, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, ब्राह्मण, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयं खो, ब्राह्मण, यञ्ञो पुरिमेहि यञ्ञेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। अयम्पि खो, ब्राह्मण, यञ्ञो पुरिमेहि यञ्ञेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो चाति। ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… अयम्पि खो, ब्राह्मण, यञ्ञो पुरिमेहि यञ्ञेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति। अयम्पि खो, ब्राह्मण, यञ्ञो पुरिमेहि यञ्ञेहि अप्पट्ठतरो च अप्पसमारम्भतरो च महप्फलतरो च महानिसंसतरो च। इमाय च, ब्राह्मण, यञ्ञसम्पदाय अञ्ञा यञ्ञसम्पदा उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थी’’ति।
कूटदन्तउपासकत्तपटिवेदना
३५४. एवं वुत्ते, कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भो गोतम, अभिक्कन्तं, भो गोतम! सेय्यथापि भो गोतम, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भोता गोतमेन अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं भवन्तं गोतमं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भवं गोतमो धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गतं। एसाहं भो गोतम सत्त च उसभसतानि सत्त च वच्छतरसतानि सत्त च वच्छतरीसतानि सत्त च अजसतानि सत्त च उरब्भसतानि मुञ्चामि, जीवितं देमि, हरितानि चेव तिणानि खादन्तु, सीतानि च पानीयानि पिवन्तु, सीतो च नेसं वातो उपवायतू’’ति।
सोतापत्तिफलसच्छिकिरिया
३५५. अथ खो भगवा कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स अनुपुब्बिं कथं कथेसि, सेय्यथिदं, दानकथं सीलकथं सग्गकथं; कामानं आदीनवं ओकारं संकिलेसं नेक्खम्मे आनिसंसं पकासेसि। यदा भगवा अञ्ञासि कूटदन्तं ब्राह्मणं कल्लचित्तं मुदुचित्तं विनीवरणचित्तं उदग्गचित्तं पसन्नचित्तं, अथ या बुद्धानं सामुक्कंसिका धम्मदेसना, तं पकासेसि – दुक्खं समुदयं निरोधं मग्गं। सेय्यथापि नाम सुद्धं वत्थं अपगतकाळकं सम्मदेव रजनं पटिग्गण्हेय्य, एवमेव कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स तस्मिञ्ञेव आसने विरजं वीतमलं धम्मचक्खुं उदपादि – ‘‘यं किञ्चि समुदयधम्मं, सब्बं तं निरोधधम्म’’न्ति।
३५६. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो दिट्ठधम्मो पत्तधम्मो विदितधम्मो परियोगाळ्हधम्मो तिण्णविचिकिच्छो विगतकथंकथो वेसारज्जप्पत्तो अपरप्पच्चयो सत्थुसासने भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अधिवासेतु मे भवं गोतमो स्वातनाय भत्तं सद्धिं भिक्खुसङ्घेना’’ति। अधिवासेसि भगवा तुण्हीभावेन।
३५७. अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवतो अधिवासनं विदित्वा उट्ठायासना भगवन्तं अभिवादेत्वा पदक्खिणं कत्वा पक्कामि। अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो तस्सा रत्तिया अच्चयेन सके यञ्ञवाटे पणीतं खादनीयं भोजनीयं पटियादापेत्वा भगवतो कालं आरोचापेसि – ‘‘कालो, भो गोतम; निट्ठितं भत्त’’न्ति।
३५८. अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सद्धिं भिक्खुसङ्घेन येन कूटदन्तस्स ब्राह्मणस्स यञ्ञवाटो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा पञ्ञत्ते आसने निसीदि।
अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो बुद्धप्पमुखं भिक्खुसङ्घं पणीतेन खादनीयेन भोजनीयेन सहत्था सन्तप्पेसि सम्पवारेसि। अथ खो कूटदन्तो ब्राह्मणो भगवन्तं भुत्ताविं ओनीतपत्तपाणिं अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो कूटदन्तं ब्राह्मणं भगवा धम्मिया कथाय सन्दस्सेत्वा समादपेत्वा समुत्तेजेत्वा सम्पहंसेत्वा उट्ठायासना पक्कामीति।
कूटदन्तसुत्तं निट्ठितं पञ्चमं।