नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मा-सम्बुद्धस्स

📜 महालि

सूत्र विवेचना

भंते आनन्द, जो बुद्ध के प्रमुख सेवक थे, अपनी समय-निष्ठता के लिए अत्यंत प्रसिद्ध थे, और इस गुण की सराहना स्वयं भगवान बुद्ध ने की थी। हालांकि, इस दुर्लभ सूत्र में भगवान के पूर्व-सेवक भंते नागित कश्यप का उल्लेख है, जिनमें इस गुण की कमी स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। इस सूत्र में भगवान समाधि और ऋद्धि से संबंधित सवालों का उत्तर देते हुए उपासकों को संतुष्ट करते हैं।

“क्या शरीर और जीवात्मा एक ही हैं, या वे अलग-अलग हैं?” इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए, आइए देखते हैं अगला सूत्र।

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

Hindi

ब्राह्मणदूत और ओट्ठद्ध लिच्छवी

ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान वैशाली के महावन में कूटागारशाला [=शिखर-छतवाली धर्मशाला] में विहार कर रहे थे। उस समय कौशल और मगध राज्य के बहुत से ब्राह्मणदूत किसी कार्य से वैशाली में आकर रह रहे थे।

और कौशल और मगध राज्य के उन ब्राह्मणदूतों ने सुना, “यह सच है, श्रीमान! शाक्यपुत्र श्रमण गौतम, जो शाक्य-कुल से प्रवज्यित हैं, वे वैशाली के महावन में कूटागारशाला में विहार कर रहे है। और उनके बारे में ऐसी यशकीर्ति फैली है कि ‘वाकई भगवान ही अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध है — विद्या एवं आचरण में संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता एवं मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त! वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं। और ऐसे अर्हन्तों का दर्शन वाकई शुभ होता है।”

तब कौशल और मगध राज्य के ब्राह्मणदूत वैशाली के महावन में कूटागारशाला तक पहुँच गए। उस समय भंते नागित भगवान के सेवक थे। कौशल और मगध राज्य के ब्राह्मणदूत भंते नागित के पास गए और कहा, “नागित जी, इस समय गुरु गौतम कहाँ है? हमें उनके दर्शन की कामना हैं।”

“भगवान के दर्शन का यह गलत समय है, मित्रों। भगवान निर्लिप्त-एकांतवास में है।”

तब कौशल और मगध राज्य के ब्राह्मणदूत एक ओर बैठ गए, [सोचते हुए] ‘गुरु गौतम को देखने के बाद ही हम जाएँगे।’

तब ओट्ठद्ध लिच्छवी बहुत बड़ी लिच्छवीयों की परिषद के साथ भंते नागित के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन्होने भंते नागित से कहा, “नागित भंते, इस समय भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध कहाँ है? हमें भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध के दर्शन की कामना हैं।”

“महालि, भगवान के दर्शन का यह गलत समय है। भगवान निर्लिप्त-एकांतवास में है।”

तब ओट्ठद्ध लिच्छवी भी एक ओर बैठ गए, [सोचते हुए] ‘भगवान अर्हंत सम्यक-सम्बुद्ध को देखने के बाद ही हम जाएँगे।’

तब सीह श्रमण [=नवदीक्षित] भंते नागित के पास गए और अभिवादन कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उसने भंते नागित से कहा, “कश्यप भंते, कौशल और मगध राज्य के ये बहुत से ब्राह्मणदूत भगवान के दर्शन के लिए यहाँ आएँ हैं। और ओट्ठद्ध लिच्छवी भी बहुत बड़ी लिच्छवीयों की परिषद के साथ भगवान के दर्शन के लिए यहाँ आएँ हैं। अच्छा होगा, भंते कश्यप, जो ऐसी जनता को भगवान का दर्शन मिलें।”

“अच्छा, सीह, तब तुम ही जाकर भगवान से कह दो।”

“हाँ, भंते!” सीह श्रमण ने नागित भंते को जवाब दिया, और तब भगवान के पास गया। जाकर भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर सीह श्रमण ने भगवान से कहा, “भंते, कौशल और मगध राज्य के बहुत से ब्राह्मणदूत भगवान के दर्शन के लिए यहाँ आएँ हैं। और ओट्ठद्ध लिच्छवी भी बहुत बड़ी लिच्छवीयों की परिषद के साथ भगवान के दर्शन के लिए यहाँ आएँ हैं। अच्छा होगा, भंते, जो ऐसी जनता को भगवान का दर्शन मिलें।”

“ठीक है, सीह, तब विहार की छाया तले बैठने का आसन बिछाओ।”

“हाँ, भंते!” सीह श्रमण ने भगवान को जवाब दिया, और भगवान के लिए विहार की छाया तले बैठने का आसन बिछा दिया।

तब भगवान विहार से बाहर आएँ, और विहार की छाया तले बिछे आसन पर बैठ गए। तब कौशल और मगध राज्य के ब्राह्मणदूत भगवान के पास गए और भगवान से मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया। नम्रतापूर्ण वार्तालाप करने के पश्चात वे एक-ओर बैठ गए। तब ओट्ठद्ध लिच्छवी भी बहुत बड़ी लिच्छवीयों की परिषद के साथ भगवान के पास गए, और भगवान को अभिवादन कर एक ओर बैठ गए।

एक ओर बैठे ओट्ठद्ध लिच्छवी ने भगवान से कहा, “कुछ दिनों पूर्व, भंते, सुनक्खत लिच्छवीपुत्र मेरे पास आया था, और कहा था कि ‘महालि, जल्द ही मुझे भगवान के उपनिश्रय में रहते हुए तीन वर्ष हो जाएँगे। मुझे दिव्य रूप तो दिखते हैं, जो अत्यंत प्रिय लगते, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो। किन्तु मुझे दिव्य आवाज सुनाई नहीं देती हैं, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़ी हुई, उकसाने वाली हो।’ तो भंते, क्या ऐसी दिव्य आवाजें होती हैं अथवा नहीं, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़ी हुई, उकसाने वाली हो, किन्तु जो सुनक्खत लिच्छवीपुत्र को सुनाई नहीं देती है?”

एक-तरफा समाधि

“ऐसी दिव्य आवाजें वाकई होती हैं, महालि, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़ी हुई, उकसाने वाली हो, किन्तु जो सुनक्खत लिच्छवीपुत्र को सुनाई नहीं देती है।”

“क्या कारण है, भंते, और किस परिस्थिति में सुनक्खत लिच्छवीपुत्र को ऐसी दिव्य आवाजें होकर भी सुनाई नहीं देती है?”

“ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [पूर्व-दिशा के] दिव्य रूप तो दिखें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, किन्तु [पूर्व-दिशा की] ऐसी ही दिव्य आवाजें सुनाई न दें। तब ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे पूर्व-दिशा के दिव्य रूप तो दिखते हैं… किन्तु ऐसी ही दिव्य आवाजें सुनाई नहीं देती हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी ही एक-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

फिर ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने दक्षिण-दिशा के लिए… पश्चिम-दिशा के लिए… उत्तर-दिशा के लिए… निचली-दिशा के लिए… ऊपरी-दिशा के लिए… आड़ी-तिरछी दिशाओं के लिए ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [उन दिशाओं के] दिव्य रूप तो दिखें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, किन्तु [उन दिशाओं की] ऐसी ही दिव्य आवाजें सुनाई न दें। तब ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे [उन दिशाओं के] दिव्य रूप तो दिखते हैं… किन्तु ऐसी ही दिव्य आवाजें सुनाई नहीं देती हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने उन दिशाओं के लिए ऐसी ही एक-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

फिर ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [पूर्व-दिशा के] दिव्य आवाजें तो सुनाई दें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, किन्तु [पूर्व-दिशा की] ऐसे ही दिव्य रूप दिखाई न दें। तब ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे पूर्व-दिशा की दिव्य आवाजें तो सुनाई देती हैं… किन्तु ऐसे ही दिव्य रूप दिखाई नहीं देते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी ही एक-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

फिर ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने दक्षिण-दिशा के लिए… पश्चिम-दिशा के लिए… उत्तर-दिशा के लिए… निचली-दिशा के लिए… ऊपरी-दिशा के लिए… आड़ी-तिरछी दिशाओं के लिए ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [उन दिशाओं की] दिव्य आवाजें तो सुनाई दें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, किन्तु [उन दिशाओं के] ऐसे ही दिव्य रूप दिखाई न दें। तब ऐसी एक-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे उन दिशाओं की दिव्य आवाजें तो सुनाई देती हैं… किन्तु ऐसे ही दिव्य रूप दिखाई नहीं देते हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने उन दिशाओं के लिए ऐसी ही एक-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

फिर ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी दो-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [पूर्व-दिशा के] दिव्य रूप भी दिखें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, और [पूर्व-दिशा की] ऐसी ही दिव्य आवाजें भी सुनाई दें। तब ऐसी दो-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे पूर्व-दिशा के दिव्य रूप भी दिखते हैं, और दिव्य आवाजें भी सुनाई देती हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने पूर्व-दिशा के लिए ऐसी ही दो-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

फिर ऐसा होता है, महालि, कि जिस भिक्षु ने दक्षिण-दिशा के लिए… पश्चिम-दिशा के लिए… उत्तर-दिशा के लिए… निचली-दिशा के लिए… ऊपरी-दिशा के लिए… आड़ी-तिरछी दिशाओं के लिए ऐसी दो-तरफा समाधि विकसित किया हो, जिससे उसे [उन दिशाओं के] दिव्य रूप भी दिखें, जो अत्यंत प्रिय लगे, कामुकता से जुड़े हुए, उकसाने वाले हो, और [उन दिशाओं की] ऐसी ही दिव्य आवाजें भी सुनाई दें। तब ऐसी दो-तरफा समाधि विकसित करने पर उसे उन दिशाओं के दिव्य रूप भी दिखते हैं, और दिव्य आवाजें भी सुनाई देती हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि उसने उन दिशाओं के लिए ऐसी ही दो-तरफा समाधि विकसित किया होता है।

यही कारण है, महालि, और इसी परिस्थिति में सुनक्खत लिच्छवीपुत्र को ऐसी दिव्य आवाजें होकर भी सुनाई नहीं देती है?”

“भंते, निश्चित ही ऐसी समाधि का साक्षात्कार करने के लिए ही भिक्षुगण भगवान का [निर्देशित] ब्रह्मचर्य पालन करते होंगे।”

“नहीं, महालि। ऐसी समाधि का साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन नहीं करते हैं। कुछ अन्य धर्म अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, महालि, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।”

“किन्तु, भंते, वे कौन-से धर्म हैं, जो अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण भगवान का ब्रह्मचर्य पालन करते हैं?”

चार आर्यफल

“ऐसा है, महालि, कि कोई भिक्षु तीन बंधन «संयोजन» तोड़कर श्रोतापन्न होता है, जो [निचले लोक में] अ-पतन स्वभाव का, अवश्यंभावी, संबोधि की ओर बढ़ने वाला होता है। यह धर्म अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, महालि, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

फिर कोई भिक्षु तीन बंधन तोड़कर, राग-द्वेष-मोह को कम कर सकृदागामी होता है, जो इस लोक में मात्र एक बार आकर दुःखों का अन्त करता है। यह धर्म भी अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, महालि, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

फिर कोई भिक्षु निचले पाँच बंधन तोड़कर [=बिना योनि के] स्वयं पुनरुत्पन्न «ओपपातिक» होता है, और वही [शुद्धवास ब्रह्मलोक] में परिनिर्वाण प्राप्त करता है, इस लोक में फिर से बिना आएँ। यह धर्म भी अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, महालि, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।

फिर कोई भिक्षु आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता [=प्रत्यक्ष अनुभवी ज्ञान] का साक्षात्कार कर रहता है। यह धर्म भी अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, महालि, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं। और ये ही वे अन्य धर्म हैं, महालि, जो अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं, जिनका साक्षात्कार करने के लिए भिक्षुगण मेरा ब्रह्मचर्य पालन करते हैं।”

“किन्तु, भंते, इन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए क्या कोई मार्ग या प्रगतिपथ है?”

“हाँ, महालि। इन धर्मों का साक्षात्कार करने के लिए मार्ग और प्रगतिपथ है।”

“वह क्या है, भंते?”

“बस, यही आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात — सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकप्रयास, सम्यकस्मृति, सम्यकसमाधि। यही, महालि, इन धर्मों का साक्षात्कार करने का मार्ग और प्रगतिपथ है।

दो प्रवज्ज्यित

एक समय, महालि, मैं कौशाम्बी के घोषित-उद्यान में रह रहा था। तब दो प्रवज्ज्यित — घुमक्कड़ मुण्डिय और दारुपत्तिक [=काष्टपात्र तपस्वी] का शिष्य जालिय, मेरे पास आएँ और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गए। एक ओर बैठकर उन प्रवज्ज्यितों ने मुझसे कहा, ‘मित्र गौतम, क्या जीव और शरीर एक ही है, अथवा जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं?’

‘तब, मित्रों, ध्यान देकर गौर से सुनों, मैं बताता हूँ।’

‘हाँ, मित्र!’ कहकर दोनों प्रवज्ज्यितों ने मुझे जवाब दिया। तब मैंने कहा: ‘ऐसा होता है, मित्रों! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।

ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’

तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।

प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।

शील विश्लेषण

(१) निम्न शील

और, मित्रों, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?

• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।

• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।

• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।

• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।

• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।

• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।

• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…

• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…

• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…

• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…

• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…

• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…

• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…

• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।

यह भी उसका शील होता है।

(२) मध्यम शील

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

(३) ऊँचे शील

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],

    • निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],

    • उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],

    • लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],

    • मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],

    • अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],

    • करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,

    • अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],

    • वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],

    • भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],

    • भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],

    • कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],

    • पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],

    • शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],

    • और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],

    • वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],

    • स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],

    • और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,

    • सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],

    • सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],

    • नक्षत्र पथगमन करेंगे,

    • नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,

    • उल्कापात होगा,

    • क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],

    • भूकंप होगा,

    • देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],

    • सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,

    • चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,

    • सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • प्रचुर वर्षा होगी,

    • अल्प वर्षा होगी,

    • सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,

    • दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,

    • क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,

    • भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,

    • रोग [=बीमारियाँ] होंगे,

    • आरोग्य [=चंगाई] होगा,

    • अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,

    • संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,

    • विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,

    • जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,

    • निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,

    • शुभ-वरदान देना,

    • श्राप देना,

    • गर्भ-गिराने की दवाई देना,

    • जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,

    • हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,

    • जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • कान बंद करने का मंत्र बतलाना,

    • दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,

    • भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,

    • देवता से प्रश्न पुछना,

    • सूर्य की पुजा करना,

    • महादेव की पुजा करना,

    • मुँह से अग्नि निकालना,

    • श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

  • अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
    • शान्ति-पाठ कराना,

    • इच्छापूर्ति-पाठ कराना,

    • भूतात्मा-पाठ कराना,

    • भूमि-पूजन कराना,

    • वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],

    • वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],

    • वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],

    • वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],

    • शुद्धजल से धुलवाना,

    • शुद्धजल से नहलाना,

    • बलि चढ़ाना,

    • वमन [=उलटी] कराना,

    • विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,

    • ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,

    • नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,

    • शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],

    • कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,

    • आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,

    • नाक के लिए औषधि देना,

    • मरहम देना, प्रति-मरहम देना,

    • आँखें शीतल करने की दवा देना,

    • आँख और कान की शल्यक्रिया करना,

    • शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,

    • बच्चों का वैद्य बनना,

    • जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।

कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।

इस तरह, मित्रों, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, मित्रों, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, मित्रों, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है। और इस तरह शील होता है।

इन्द्रिय सँवर

और, मित्रों, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?

• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।

वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, मित्रों, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।

स्मरणशील और सचेत

और, मित्रों, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, मित्रों, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।

सन्तोष

और, मित्रों, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, मित्रों, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।

नीवरण त्याग

इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।

वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।

जैसे, मित्रों, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, मित्रों, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, मित्रों, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, मित्रों, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

अब कल्पना करें, मित्रों, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।

उसी तरह, मित्रों, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।

किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।

ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।

प्रथम-ध्यान

वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, मित्रों, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

द्वितीय-ध्यान

तब आगे, मित्रों, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, मित्रों, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

तृतीय-ध्यान

तब आगे, मित्रों, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, मित्रों, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

चतुर्थ-ध्यान

तब आगे, मित्रों, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।

जैसे, मित्रों, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

विपश्यना ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’

जैसे, मित्रों, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

मनोमय-ऋद्धि ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।

जैसे, मित्रों, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गयी है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

विविध ऋद्धियाँ ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।

जैसे, मित्रों, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

दिव्यश्रोत ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।

जैसे, मित्रों, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

परचित्त ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’

जैसे, मित्रों, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।

जैसे, मित्रों, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

दिव्यचक्षु ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।

जैसे, मित्रों, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

आस्रवक्षय ज्ञान

जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’

जैसे, मित्रों, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, मित्रों, जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, तो क्या उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं’?

“हाँ, मित्र! जो भिक्षु ऐसा जानता है, ऐसा देखता है, उसे लेकर ऐसा कहना उपयुक्त होगा, ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

‘किन्तु, मित्रों, मैं ऐसा जानता हूँ, ऐसा देखता हूँ, तब भी मैं ऐसा नहीं कहता हूँ कि ‘जीव और शरीर एक ही हैं’, अथवा ‘जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं।’

भगवान ने ऐसा कहा। हर्षित होकर ओट्ठद्ध लिच्छवि ने भगवान की बातों का अभिनंदन किया।

महालि सुत्त समाप्त।

Pali

ब्राह्मणदूतवत्थु

३५९. एवं मे सुतं – उएकं समयं भगवा वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं। तेन खो पन समयेन सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता वेसालियं पटिवसन्ति केनचिदेव करणीयेन। अस्सोसुं खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता – ‘‘समणो खलु, भो, गोतमो सक्यपुत्तो सक्यकुला पब्बजितो वेसालियं विहरति महावने कूटागारसालायं। तं खो पन भवन्तं गोतमं एवं कल्याणो कित्तिसद्दो अब्भुग्गतो – ‘इतिपि सो भगवा अरहं सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नो सुगतो लोकविदू अनुत्तरो पुरिसदम्मसारथि सत्था देवमनुस्सानं बुद्धो भगवा’। सो इमं लोकं सदेवकं समारकं सब्रह्मकं सस्समणब्राह्मणिं पजं सदेवमनुस्सं सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदेति। सो धम्मं देसेति आदिकल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसानकल्याणं सात्थं सब्यञ्जनं केवलपरिपुण्णं परिसुद्धं ब्रह्मचरियं पकासेति। साधु खो पन तथारूपानं अरहतं दस्सनं होती’’ति।

३६०. अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता येन महावनं कूटागारसाला तेनुपसङ्कमिंसु। तेन खो पन समयेन आयस्मा नागितो भगवतो उपट्ठाको होति। अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमिंसु। उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागितं एतदवोचुं – ‘‘कहं नु खो, भो नागित, एतरहि सो भवं गोतमो विहरति? दस्सनकामा हि मयं तं भवन्तं गोतम’’न्ति। ‘‘अकालो खो, आवुसो, भगवन्तं दस्सनाय, पटिसल्लीनो भगवा’’ति। अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता तत्थेव एकमन्तं निसीदिंसु – ‘‘दिस्वाव मयं तं भवन्तं गोतमं गमिस्सामा’’ति।

ओट्ठद्धलिच्छवीवत्थु

३६१. ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं येन महावनं कूटागारसाला येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागितं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो ओट्ठद्धोपि लिच्छवी आयस्मन्तं नागितं एतदवोच – ‘‘कहं नु खो, भन्ते नागित, एतरहि सो भगवा विहरति अरहं सम्मासम्बुद्धो, दस्सनकामा हि मयं तं भगवन्तं अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध’’न्ति। ‘‘अकालो खो, महालि, भगवन्तं दस्सनाय, पटिसल्लीनो भगवा’’ति। ओट्ठद्धोपि लिच्छवी तत्थेव एकमन्तं निसीदि – ‘‘दिस्वाव अहं तं भगवन्तं गमिस्सामि अरहन्तं सम्मासम्बुद्ध’’न्ति।

३६२. अथ खो सीहो समणुद्देसो येनायस्मा नागितो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा आयस्मन्तं नागितं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो सीहो समणुद्देसो आयस्मन्तं नागितं एतदवोच – ‘‘एते, भन्ते कस्सप, सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता इधूपसङ्कन्ता भगवन्तं दस्सनाय; ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं इधूपसङ्कन्तो भगवन्तं दस्सनाय, साधु, भन्ते कस्सप, लभतं एसा जनता भगवन्तं दस्सनाया’’ति।

‘‘तेन हि, सीह, त्वञ्ञेव भगवतो आरोचेही’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सीहो समणुद्देसो आयस्मतो नागितस्स पटिस्सुत्वा येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो सीहो समणुद्देसो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एते, भन्ते, सम्बहुला कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता इधूपसङ्कन्ता भगवन्तं दस्सनाय, ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं इधूपसङ्कन्तो भगवन्तं दस्सनाय। साधु, भन्ते, लभतं एसा जनता भगवन्तं दस्सनाया’’ति। ‘‘तेन हि, सीह, विहारपच्छायायं आसनं पञ्ञपेही’’ति। ‘‘एवं, भन्ते’’ति खो सीहो समणुद्देसो भगवतो पटिस्सुत्वा विहारपच्छायायं आसनं पञ्ञपेसि।

३६३. अथ खो भगवा विहारा निक्खम्म विहारपच्छायायं पञ्ञत्ते आसने निसीदि। अथ खो ते कोसलका च ब्राह्मणदूता मागधका च ब्राह्मणदूता येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदिंसु। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदिंसु। ओट्ठद्धोपि लिच्छवी महतिया लिच्छवीपरिसाय सद्धिं येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि।

३६४. एकमन्तं निसिन्नो खो ओट्ठद्धो लिच्छवी भगवन्तं एतदवोच – ‘‘पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो येनाहं तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा मं एतदवोच – ‘यदग्गे अहं, महालि, भगवन्तं उपनिस्साय विहरामि, न चिरं तीणि वस्सानि, दिब्बानि हि खो रूपानि पस्सामि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणामि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानी’ति। सन्तानेव नु खो, भन्ते, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, उदाहु असन्तानी’’ति?

एकंसभावितसमाधि

३६५. ‘‘सन्तानेव खो, महालि, सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी’’ति। ‘‘को नु खो, भन्ते, हेतु, को पच्चयो, येन सन्तानेव सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी’’ति?

३६६. ‘‘इध, महालि, भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभावितो समाधि होति दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। पुरत्थिमाय दिसाय दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं।

३६७. ‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय…पे॰… पच्छिमाय दिसाय … उत्तराय दिसाय… उद्धमधो तिरियं एकंसभावितो समाधि होति दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो उद्धमधो तिरियं एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। उद्धमधो तिरियं दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो तिरियं एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं।

३६८. ‘‘इध, महालि, भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभावितो समाधि होति दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। पुरत्थिमाय दिसाय दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं।

३६९. ‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय…पे॰… पच्छिमाय दिसाय… उत्तराय दिसाय… उद्धमधो तिरियं एकंसभावितो समाधि होति दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो उद्धमधो तिरियं एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। उद्धमधो तिरियं दिब्बानि सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो च खो दिब्बानि रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो तिरियं एकंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानं सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, नो च खो दिब्बानं रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं।

३७०. ‘‘इध, महालि, भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय उभयंसभावितो समाधि होति दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो पुरत्थिमाय दिसाय उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। पुरत्थिमाय दिसाय दिब्बानि च रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, दिब्बानि च सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो पुरत्थिमाय दिसाय उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं।

३७१. ‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खुनो दक्खिणाय दिसाय…पे॰… पच्छिमाय दिसाय… उत्तराय दिसाय… उद्धमधो तिरियं उभयंसभावितो समाधि होति दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। सो उद्धमधो तिरियं उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। उद्धमधो तिरियं दिब्बानि च रूपानि पस्सति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, दिब्बानि च सद्दानि सुणाति पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि। तं किस्स हेतु? एवञ्हेतं, महालि, होति भिक्खुनो उद्धमधो तिरियं उभयंसभाविते समाधिम्हि दिब्बानञ्च रूपानं दस्सनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं, दिब्बानञ्च सद्दानं सवनाय पियरूपानं कामूपसंहितानं रजनीयानं। अयं खो महालि, हेतु, अयं पच्चयो, येन सन्तानेव सुनक्खत्तो लिच्छविपुत्तो दिब्बानि सद्दानि नास्सोसि पियरूपानि कामूपसंहितानि रजनीयानि, नो असन्तानी’’ति।

३७२. ‘‘एतासं नून, भन्ते, समाधिभावनानं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति। ‘‘न खो, महालि, एतासं समाधिभावनानं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति। अत्थि खो, महालि, अञ्ञेव धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति।

चतुअरियफलं

३७३. ‘‘कतमे पन ते, भन्ते, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू भगवति ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति? ‘‘इध, महालि, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया सोतापन्नो होति अविनिपातधम्मो नियतो सम्बोधिपरायणो। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।

‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खु तिण्णं संयोजनानं परिक्खया रागदोसमोहानं तनुत्ता सकदागामी होति, सकिदेव [सकिंदेव (क॰)] इमं लोकं आगन्त्वा दुक्खस्सन्तं करोति। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।

‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खु पञ्चन्नं ओरम्भागियानं संयोजनानं परिक्खया ओपपातिको होति, तत्थ परिनिब्बायी, अनावत्तिधम्मो तस्मा लोका। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति।

‘‘पुन चपरं, महालि, भिक्खु आसवानं खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयम्पि खो, महालि, धम्मो उत्तरितरो च पणीततरो च, यस्स सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ति। इमे खो ते, महालि, धम्मा उत्तरितरा च पणीततरा च, येसं सच्छिकिरियाहेतु भिक्खू मयि ब्रह्मचरियं चरन्ती’’ति।

अरियअट्ठङ्गिकमग्गो

३७४. ‘‘अत्थि पन, भन्ते, मग्गो अत्थि पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘अत्थि खो, महालि, मग्गो अत्थि पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया’’ति।

३७५. ‘‘कतमो पन, भन्ते, मग्गो कतमा पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाया’’ति? ‘‘अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो, महालि, मग्गो अयं पटिपदा एतेसं धम्मानं सच्छिकिरियाय।

द्वेपब्बजितवत्थु

३७६. ‘‘एकमिदाहं, महालि, समयं कोसम्बियं विहरामि घोसितारामे। अथ खो द्वे पब्बजिता – मुण्डियो च परिब्बाजको जालियो च दारुपत्तिकन्तेवासी येनाहं तेनुपसङ्कमिंसु। उपसङ्कमित्वा मया सद्धिं सम्मोदिंसु। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठंसु। एकमन्तं ठिता खो ते द्वे पब्बजिता मं एतदवोचुं – ‘किं नु खो, आवुसो गोतम, तं जीवं तं सरीरं, उदाहु अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति?

३७७. ‘‘‘तेन हावुसो, सुणाथ साधुकं मनसि करोथ भासिस्सामी’’ति। ‘एवमावुसो’ति खो ते द्वे पब्बजिता मम पच्चस्सोसुं। अहं एतदवोचं – इधावुसो तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, आवुसो, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा, ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति। अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि। अथ च पनाहं न वदामि – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वा…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति। अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि। अथ च पनाहं न वदामि – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वा…पे॰… ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं [न कल्लं (सी॰ स्या॰ कं॰ क॰)] तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति। अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि। अथ च पनाहं न वदामि – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वा…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति। यो खो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति, कल्लं नु खो तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति? यो सो, आवुसो, भिक्खु एवं जानाति एवं पस्सति न कल्लं तस्सेतं वचनाय – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वाति। अहं खो पनेतं, आवुसो, एवं जानामि एवं पस्सामि। अथ च पनाहं न वदामि – ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वा’’ति। इदमवोच भगवा। अत्तमनो ओट्ठद्धो लिच्छवी भगवतो भासितं अभिनन्दीति।

महालिसुत्तं निट्ठितं छट्ठं।