दूसरे धर्म के एक नग्न तपस्वी श्रमण कश्यप को श्रमण गौतम (भगवान बुद्ध) के बारे में कुछ झूठी बातें सुनने को मिलीं। इन बातों की सत्यता परखने के लिए वे स्वयं भगवान के पास आए। भगवान बुद्ध को कठोर से कठोर तपस्या का न केवल व्यक्तिगत अनुभव था, बल्कि वे इसके सीमित परिणामों और उससे आगे के मार्ग को भी भली-भाँति जानते थे। यही ज्ञान वे सदैव उन सभी तपस्वियों के साथ साझा करना चाहते थे, जो सच्चाई की खोज में थे।
भारतीय समाज में कठोर तपस्वियों को उच्च सम्मान और प्रतिष्ठा दी जाती है। लेकिन भगवान बुद्ध ने इस मान्यता को एक अलग दृष्टिकोण से देखा। उन्होंने कहा कि सभी तपस्वियों की एक जैसी गति नहीं होती—कुछ की सुगति होती है, तो कुछ की दुर्गति। उनके अनुसार, कठोर तपस्या करना केवल शारीरिक और मानसिक सहनशक्ति का प्रदर्शन है, जिसे कोई साधारण व्यक्ति भी कर सकता है। लेकिन इससे शील, समाधि, प्रज्ञा, और मुक्ति जैसी अद्वितीय उपलब्धियाँ प्राप्त नहीं होतीं। इन उपलब्धियों के लिए एक विशेष, आर्य मार्ग की आवश्यकता है, जिसका ज्ञान अधिकांश तपस्वियों को नहीं है।
इस सूत्र में भगवान बुद्ध ने कुछ नए और गहन विचार प्रस्तुत किए हैं। वे मानते थे कि विभिन्न तप-धर्मों के बीच कई बिंदुओं पर असहमति हो सकती है, लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे भी हैं जहाँ आम सहमति संभव है। उन्होंने सुझाव दिया कि जहाँ असहमति हो, उन मुद्दों को अलग रखा जाए, और जहाँ सहमति हो, उन पर गुरु-गुरु या संघ-संघ के बीच एक समझदारी भरा संवाद हो।
भगवान बुद्ध का दृष्टिकोण था कि इन सहमत बिंदुओं पर चर्चा, तर्क, और प्रश्नोत्तर होने चाहिए। अगर किसी को कोई बात अनुचित लगे, तो उसका खंडन भी किया जा सकता है। इस तरह, धर्मों के बीच एक स्वस्थ संवाद स्थापित हो सकेगा। इसका उद्देश्य यह था कि धर्मों के योग्य और अयोग्य पहलुओं का स्पष्ट आकलन हो सके, और समझदार लोग एक-दूसरे से सीखकर अपने-अपने धर्म का सही तरीके से पालन कर सकें।
अंततः बुद्ध इस सूत्र में महासीहनाद करते हैं। बौद्ध परंपरा में “सिंह की गर्जना” करना और “अपने मुँह मियां मिट्ठू” बनने से सर्वथा भिन्न है। आजकल जब कोई व्यक्ति आत्म-प्रशंसा करता है या अपनी योग्यता और उपलब्धियों को बिना उचित संदर्भ के बढ़ा-चढ़ाकर पेश करता है, तो उसे ‘अपने मुँह मियां मिट्ठू’ बनना कहते हैं। इसे अक्सर अहंकार, असुरक्षा, या मान्यता पाने की लालसा से प्रेरित माना जाता है। इसमें स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने की कोशिश में कोई व्यक्ति बड़े-बड़े दावे करता है, लेकिन उन्हें चुनौती मिलने की आशंका कम ही होती है। यह प्रवृत्ति दूसरों के बीच में अपनी छवि सुधारने या रचने का प्रयास होती है, जो सामान्यतः नकारात्मक दृष्टि से देखी जाती है।
उसके विपरीत, बौद्ध परंपरा में “महासीहनाद” का अर्थ आत्म-प्रशंसा नहीं, बल्कि धर्म के अटूट सत्य की निर्भीक घोषणा करना है। यह बहुत सीमित समय पर, बुद्ध और उनके शिष्यों द्वारा किया गया, जब वे किसी विवादास्पद या कठिन सत्य को निर्भीकता से, प्रमाण और अनुभव के आधार पर प्रस्तुत करते थे। इसमें अहंकार या आत्ममुग्धता का स्थान नहीं है। यह सत्य और करुणा का परिणाम होता है। सिंह की गर्जना का अभिप्राय है — सत्य को निर्भीकता से प्रकट करना, चाहे वह कठिन या अप्रिय क्यों न हो। उदाहरण के तौर पर, जब बुद्ध ने अपने ज्ञान और निर्वाण को दुनिया के सामने घोषित किया। और, महाकच्चान, सारिपुत्त, और महाकस्सप जैसे अरहंत महास्थविरों ने अपने अनुभवजन्य ज्ञान के आधार पर धर्म को घोषित और प्रचारित किया।
सन्दिट्ठिको, अकालिको, एहिपस्सिको — यह सिंह की गर्जना ही है, जो अहंकार रहित है। बौद्ध परंपरा में धर्म को इस प्रकार प्रकट करते हैं कि उससे सभी को चुनौती मिलें, और जो चाहे स्वयं आकर इसे परखे। महासिंहनाद का उद्देश्य सत्य की स्थापना करना और दूसरों को सच्चाई के मार्ग पर प्रेरित करना है, जबकि “अपने मुँह मियां मिट्ठू” आत्मकेंद्रितता और दिखावे का संकेत है, जो साधारण सत्य को दरकिनार कर अपनी छवि निर्माण का प्रयास करता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान उरुञ्ञा के कण्णकत्थल मृग-उद्यान में विहार कर रहे थे। तब निर्वस्त्र [=नंगा तपस्वी] कश्यप भगवान के पास गया और मैत्रीपूर्ण वार्तालाप कर एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर निर्वस्त्र कश्यप ने भगवान से कहा, “हे गौतम, मैंने सुना है — ‘श्रमण गौतम सभी [तरह की] तपश्चर्याओं की आलोचना करते है, सभी तपस्वियों के कष्टपूर्ण जीवन को सीधा-सीधा कोसते है, भर्त्सना करते है।’ — जो ऐसा कहते हैं, क्या वे गुरु गौतम के ही शब्द दोहराते हैं? कही तथ्यहीन बातों से गौतम का मिथ्यावर्णन तो नहीं करते? क्या वे धर्मानुरूप ही बोलते हैं, ताकि कोई सहधार्मिक व्यक्ति के पास आलोचना की गुंजाइश न रहे? चूँकि हमें गुरु गौतम का मिथ्यावर्णन नहीं करना है।”
“कश्यप, जो कहते हैं कि ‘श्रमण गौतम सभी तपश्चर्याओं की आलोचना करते है, सभी तपस्वियों के कष्टपूर्ण जीवन को सीधा-सीधा कोसते है, भर्त्सना करते है।’ — वे मेरे शब्द नहीं दोहराते हैं, बल्कि तथ्यहीन और झूठे शब्दों से मेरा मिथ्यावर्णन करते हैं।
कश्यप, मैं अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से किसी-किसी कष्टपूर्ण जीवन बिताने वाले तपस्वियों को मरणोपरान्त काया छूटने पर पतन होकर दुर्गति हुए, यातनालोक नर्क में उपजते हुए देखता हूँ। जबकि किसी-किसी कष्टपूर्ण जीवन बिताने वाले तपस्वियों को मरणोपरान्त सद्गति हुए स्वर्ग में उपजते हुए देखता हूँ। और मैं अपने विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से किसी-किसी अल्प कष्टवाले तपस्वियों को मरणोपरान्त पतन होकर दुर्गति हुए, यातनालोक नर्क में उपजते हुए देखता हूँ। जबकि किसी-किसी अल्प कष्टवाले तपस्वियों को मरणोपरान्त सद्गति हुए स्वर्ग में उपजते हुए देखता हूँ।
जब इस तरह, कश्यप, मैं तपस्वियों की आगति [=इस लोक में आना], गति [=इस लोक से जाना], च्युति [=इस लोक से गुज़र जाना], और पुनरुत्पत्ति को यथार्थतः समझता हूँ, तब भला मैं क्यों सभी तपश्चर्याओं की आलोचना करूँगा? क्यों सभी तपस्वियों के कष्टपूर्ण जीवन को सीधा-सीधा कोसुंगा, भर्त्सना करूँगा?
कश्यप, कोई श्रमण और ब्राह्मण पण्डित होते हैं, निपुण होते हैं, शास्त्रार्थ में माहिर होते हैं, बाल की खाल निकालने वाले होते हैं, जो तर्कबुद्धि से दूसरे की धारणाओं की चीर-फाड़ करते घूमते हैं। वे मुझसे कुछ मुद्दों पर सहमत होते हैं, और कुछ मुद्दों पर असहमत होते हैं। वे कुछ बातों पर साधुकार [=प्रशंसा] करते हैं, जिन बातों पर मैं भी साधुकार करता हूँ। और वे कुछ बातों पर साधुकार नहीं करते हैं, जिन बातों पर मैं भी साधुकार नहीं करता हूँ। किन्तु वे कुछ बातों पर साधुकार करते हैं, जिन बातों पर मैं साधुकार नहीं करता हूँ। और वे कुछ बातों पर साधुकार नहीं करते हैं, जिन बातों पर मैं साधुकार करता हूँ।
उसी तरह मैं कुछ बातों पर साधुकार करता हूँ, जिन बातों पर वे भी साधुकार करते हैं। और मैं कुछ बातों पर साधुकार नहीं करता हूँ, जिन बातों पर वे भी साधुकार नहीं करते हैं। किन्तु मैं कुछ बातों पर साधुकार नहीं करता हूँ, जिन बातों पर वे साधुकार करते हैं। और मैं कुछ बातों पर साधुकार करता हूँ, जिन बातों पर वे साधुकार नहीं करते हैं।
तब मैं उनके पास जाकर कहता हूँ: ‘मित्रों, जिन मुद्दों पर हमारी असहमति हैं, उन्हें छोड़ देते हैं। किन्तु जिन मुद्दों पर हमारी सहमति हैं, उन्हें लेकर आप समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — [कहते हुए:] ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो अकुशल हैं, अकुशल माने जाते हैं, आपत्तिजनक हैं, आपत्तिजनक माने जाते हैं, धारण-अयोग्य हैं, धारण-अयोग्य माने जाते हैं, आर्य-अयोग्य हैं, आर्य-अयोग्य माने जाते हैं, काले [=अँधेरामय] हैं, काले माने जाते हैं। कौन हैं जो उनका, बिना शेष रखे [संपूर्ण] त्याग कर के चलते है, श्रमण गौतम अथवा परधर्म के संस्थापक?’
तब हो सकता है, कश्यप, कि समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — ‘कुछ ऐसे धर्म हैं, जो अकुशल हैं, अकुशल माने जाते हैं, आपत्तिजनक हैं, आपत्तिजनक माने जाते हैं, धारण-अयोग्य हैं, धारण-अयोग्य माने जाते हैं, आर्य-अयोग्य हैं, आर्य-अयोग्य माने जाते हैं, काले हैं, काले माने जाते हैं। और श्रमण गौतम ही है, जो उनका, बिना शेष रखे त्याग कर के चलते है, जबकि परधर्म के संस्थापक कुछ अंश तक ही।’ इस तरह, कश्यप, समझदार लोग प्रतिप्रश्न कर, तर्क पुछ कर, खण्डन कर, अधिकांशतः मेरी ही प्रशंसा करते हैं।
और फिर, कश्यप, समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें —[कहते हुए:] ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो कुशल हैं, कुशल माने जाते हैं, निर्दोष हैं, निर्दोष माने जाते हैं, धारण-योग्य हैं, धारण-योग्य माने जाते हैं, आर्य-योग्य हैं, आर्य-योग्य माने जाते हैं, शुक्ल [=उजालेदार] हैं, शुक्ल माने जाते हैं। कौन हैं जो उनका, बिना शेष रखे [संपूर्ण] धारण कर के चलते है, श्रमण गौतम अथवा परधर्म के संस्थापक?’
तब हो सकता है, कश्यप, कि समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो कुशल हैं, कुशल माने जाते हैं, निर्दोष हैं, निर्दोष माने जाते हैं, धारण-योग्य हैं, धारण-योग्य माने जाते हैं, आर्य-योग्य हैं, आर्य-योग्य माने जाते हैं, शुक्ल हैं, शुक्ल माने जाते हैं। और श्रमण गौतम ही है, जो उनका, बिना शेष रखे धारण कर के चलते है, जबकि परधर्म के संस्थापक कुछ अंश तक ही।’ इस तरह, कश्यप, समझदार लोग प्रतिप्रश्न कर, तर्क पुछ कर, खण्डन कर, अधिकांशतः मेरी ही प्रशंसा करते हैं।
और फिर, कश्यप, समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — [कहते हुए:] ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो अकुशल हैं, अकुशल माने जाते हैं, आपत्तिजनक हैं, आपत्तिजनक माने जाते हैं, धारण-अयोग्य हैं, धारण-अयोग्य माने जाते हैं, आर्य-अयोग्य हैं, आर्य-अयोग्य माने जाते हैं, काले हैं, काले माने जाते हैं। कौन हैं जो उनका, बिना शेष रखे त्याग कर के चलते है, श्रमण गौतम का श्रावकसंघ अथवा परधर्म के संस्थापक का श्रावकसंघ?’
तब हो सकता है, कश्यप, कि समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — ‘कुछ ऐसे धर्म हैं, जो अकुशल हैं, अकुशल माने जाते हैं, आपत्तिजनक हैं, आपत्तिजनक माने जाते हैं, धारण-अयोग्य हैं, धारण-अयोग्य माने जाते हैं, आर्य-अयोग्य हैं, आर्य-अयोग्य माने जाते हैं, काले हैं, काले माने जाते हैं। और श्रमण गौतम का श्रावकसंघ ही है, जो उनका, बिना शेष रखे त्याग कर के चलते है, जबकि परधर्म के संस्थापक का श्रावकसंघ कुछ अंश तक ही।’ इस तरह, कश्यप, समझदार लोग प्रतिप्रश्न कर, तर्क पुछ कर, खण्डन कर, अधिकांशतः हमारी ही प्रशंसा करते हैं।
और फिर, कश्यप, समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न हों, तर्क पूछा जाएँ, खण्डन किया जाएँ — [कहते हुए:] ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो कुशल हैं, कुशल माने जाते हैं, निर्दोष हैं, निर्दोष माने जाते हैं, धारण-योग्य हैं, धारण-योग्य माने जाते हैं, आर्य-योग्य हैं, आर्य-योग्य माने जाते हैं, शुक्ल हैं, शुक्ल माने जाते हैं। कौन हैं जो उनका, बिना शेष रखे [संपूर्ण] धारण कर के चलते है, श्रमण गौतम का श्रावकसंघ अथवा परधर्म के संस्थापक का श्रावकसंघ?’
तब हो सकता है, कश्यप, कि समझदार लोग आएँ, और शास्ता-शास्ता के बीच तथा संघ-संघ के बीच प्रतिप्रश्न करें, तर्क पुछें, खण्डन करें — [कहते हुए:] ‘कुछ ऐसे धर्मस्वभाव हैं, जो कुशल हैं, कुशल माने जाते हैं, निर्दोष हैं, निर्दोष माने जाते हैं, धारण-योग्य हैं, धारण-योग्य माने जाते हैं, आर्य-योग्य हैं, आर्य-योग्य माने जाते हैं, शुक्ल हैं, शुक्ल माने जाते हैं। और श्रमण गौतम का श्रावकसंघ ही है, जो उनका, बिना शेष रखे धारण कर के चलते है, जबकि परधर्म के संस्थापक का श्रावकसंघ कुछ अंश तक ही।’ इस तरह, कश्यप, समझदार लोग प्रतिप्रश्न कर, तर्क पुछ कर, खण्डन कर, अधिकांशतः हमारी ही प्रशंसा करते हैं।
कश्यप, यह मार्ग है, यह प्रगतिपथ है, जिस पर चलकर तुम स्वयं जानोगे, स्वयं देखोगे कि श्रमण गौतम समय पर बोलते है, तथ्यपूर्ण बोलते है, अर्थपूर्ण बोलते है, धर्मानुकूल बोलते है, विनयानुकूल बोलते है। वह कौन-सा मार्ग है, कौन-सा प्रगतिपथ है? बस यही, आर्य अष्टांगिक मार्ग। अर्थात — सम्यकदृष्टि, सम्यकसंकल्प, सम्यकवचन, सम्यककार्य, सम्यकजीविका, सम्यकप्रयास, सम्यकस्मृति, सम्यकसमाधि। यही मार्ग है, यही प्रगतिपथ है, जिस पर चलकर तुम स्वयं जानोगे, स्वयं देखोगे कि श्रमण गौतम समय पर बोलते है, तथ्यपूर्ण बोलते है, अर्थपूर्ण बोलते है, धर्मानुकूल बोलते है, विनयानुकूल बोलते है।”
जब ऐसा कहा गया, तो निर्वस्त्र कश्यप ने भगवान से कहा, “मित्र गौतम, उन श्रमणों और ब्राह्मणों की ऐसी तपस्याएँ उपक्रम ही उनके श्रमण-भाव और ब्राह्मण-भाव के द्योतक होते हैं। जैसे — निर्वस्त्र रहना, [सामाजिक आचरण से] मुक्त रहना, हाथ चाटना, बुलाने पर न जाना, रोकने पर न रुकना, अपने लिए लायी भिक्षा को न लेना, अपने लिए पकाये भोज को न लेना, निमंत्रण भोज पर न जाना। [भोजन पकाये] हाँडी से भिक्षा न लेना, [भोजन पकाये] बर्तन से भिक्षा न लेना, द्वार के अंतराल से भिक्षा न लेना, डंडे के अंतराल से भिक्षा न लेना, मूसल के अंतराल से भिक्षा न लेना। दो भोजन साथ करने वालों से भिक्षा न लेना, गर्भिणी स्त्री से भिक्षा न लेना, दूध पिलाती स्त्री से भिक्षा न लेना, पुरुष के पास गयी स्त्री से भिक्षा न लेना, संग्रहीत किए भिक्षा को न लेना, कुत्ता खड़े स्थान से भिक्षा न लेना, भिनभिनाती मक्खियों के स्थान से भिक्षा न लेना, न माँस लेना, न मछली लेना, न कच्ची शराब लेना, न पक्की शराब लेना, न चावल की शराब पीना। भिक्षाटन के लिए केवल एक घर जाकर एक निवाला लेना, अथवा दो घर जाकर दो निवाले लेना… अथवा सात घर जाकर सात निवाले लेना। केवल एक ही कलछी पर यापन करना, अथवा दो कलछी पर यापन करना… अथवा सात कलछी पर यापन करना। दिन में एक बार आहार लेना, दो दिनों में एक बार आहार लेना… एक सप्ताह में एक बार आहार लेना। और ऐसे ही आधे-आधे महीने के स्थिर अंतराल में एक ही बार आहार लेते हुए विहार करना।
और फिर, मित्र गौतम, उन श्रमणों और ब्राह्मणों की ऐसी तपस्याएँ उपक्रम भी उनके श्रमण-भाव और ब्राह्मण-भाव के द्योतक होते हैं। जैसे — [केवल] साग खाकर रहना, जंगली बाजरा खाकर रहना, लाल चावल खाकर रहना, चमड़े के टुकड़े खाकर रहना, शैवाल [=जल के पौधे] खाकर रहना, कणिक [=टूटा चावल] खाकर रहना, काँजी [=उबले चावल का पानी] पीकर रहना, तिल खाकर रहना, घास खाकर रहना, गोबर खाकर रहना, जंगल के कन्द-मूल या गिरे हुए फल खाकर यापन करना।
और फिर, मित्र गौतम, उन श्रमणों और ब्राह्मणों की ऐसी तपस्याएँ उपक्रम भी उनके श्रमण-भाव और ब्राह्मण-भाव के द्योतक होते हैं। जैसे — [केवल] सन के रूखे वस्त्र पहनना, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनना, फेंके लाश के वस्त्र पहनना, चिथड़े सिला वस्त्र पहनना, लोध्र के वस्त्र पहनना, हिरण-खाल पूर्ण पहनना, हिरण-खाल के टुकड़े पहनना, कुशघास के वस्त्र पहनना, वृक्षछाल के वस्त्र पहनना, लकड़ी के छिलके का वस्त्र पहनना, [मनुष्य के] केश का कंबल पहनना, घोड़े की पूँछ के बाल का कंबल पहनना, उल्लू के पंखों का वस्त्र पहनना। सिर-दाढ़ी के बाल नोचकर निकालना, बाल नोचकर निकालने के प्रति संकल्पबद्ध रहना। बैठना त्यागकर सदा खड़े ही रहना, उकड़ूँ बैठकर सदा उकड़ूँ ही बैठना, काँटों की चटाई पर लेटना और काँटों की चटाई को ही अपना बिस्तर बनाना, सदा तख़्ते पर सोना, सदा जमीन पर सोना, सदा एक ही करवट सोना, शरीर पर धूल और गंदगी लपेटे रहना, सदा खुले आकाश के तले रहना, जहाँ चटाई बिछाएँ वही सोना, गंदगी खाना और गंदगी खाने के प्रति संकल्पबद्ध रहना, कभी पानी न पीना और पानी न पीने के प्रति संकल्पबद्ध रहना, शरीर को सुबह-दोपहर-शाम तीन बार जल में डुबोना, और तीन बार डुबोने के प्रति संकल्पबद्ध रहना।”
“कश्यप, कोई निर्वस्त्र रहता है, [सामाजिक आचरण से] मुक्त रहता है, हाथ चाटता है… [तथा उल्लेख हुए तपस्याएँ उपक्रम करता है], किन्तु वह शीलसंपदा, चित्तसंपदा और प्रज्ञासंपदा विकसित नहीं करता, साक्षात्कार नहीं करता। तब वह श्रमण-भाव से दूर रहता है, ब्राह्मण-भाव से दूर रहता है। किन्तु कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त [=मेत्ताचित्त] विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता [=प्रत्यक्ष अनुभवी ज्ञान] का साक्षात्कार कर रहता है। तब उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।
और, कश्यप, कोई [केवल] साग खाकर रहता है, जंगली बाजरा खाकर रहता है… [तथा उल्लेख हुए तपस्याएँ उपक्रम करता है], किन्तु वह शीलसंपदा, चित्तसंपदा और प्रज्ञासंपदा विकसित नहीं करता, साक्षात्कार नहीं करता। तब वह श्रमण-भाव से दूर रहता है, ब्राह्मण-भाव से दूर रहता है। किन्तु कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता का साक्षात्कार कर रहता है। तब उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।
और, कश्यप, कोई [केवल] सन के रूखे वस्त्र पहनता है, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनता है, फेंके लाश के वस्त्र पहनता है… [तथा उल्लेख हुए तपस्याएँ उपक्रम करता है], किन्तु वह शीलसंपदा, चित्तसंपदा और प्रज्ञासंपदा विकसित नहीं करता, साक्षात्कार नहीं करता। तब वह श्रमण-भाव से दूर रहता है, ब्राह्मण-भाव से दूर रहता है। किन्तु कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता का साक्षात्कार कर रहता है। तब उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।”
ऐसा कहा जाने पर निर्वस्त्र कश्यप ने भगवान से कहा, “कठिन है श्रामण्य, हे गौतम! कठिन है ब्राह्मण्य!”
“वाकई, कश्यप, इस लोक में ऐसा सुनना स्वाभाविक है कि ‘कठिन है श्रामण्य! कठिन है ब्राह्मण्य!’ किन्तु यदि कोई निर्वस्त्र रहे, मुक्त रहे, हाथ चाटे… और मात्र इतने से ही, मात्र यही तपस्या उपक्रम कर के श्रमण हो जाता, ब्राह्मण हो जाता, तब ऐसा कहना उचित नहीं होता कि ‘कठिन है श्रामण्य! कठिन है ब्राह्मण्य!’ क्योंकि ऐसा उपक्रम तो कोई गृहस्थ या उसका पुत्र या मटका उठानेवाली गुलाम दासी भी कर सकती है। जैसे — निर्वस्त्र रहना, मुक्त रहना, हाथ चाटना…
किन्तु इतने से भिन्न, मात्र इस तपस्या उपक्रम से भिन्न, कुछ अलग कर के श्रमण होता है, ब्राह्मण होता है, इसलिए ऐसा कहना उचित है कि ‘कठिन है श्रामण्य! कठिन है ब्राह्मण्य!’ जैसे कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता का साक्षात्कार कर रहता है। उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।”
उसी तरह, कश्यप, यदि कोई [केवल] साग खाकर रहे, जंगली बाजरा खाकर रहे… या [केवल] सन के रूखे वस्त्र पहने, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहने, फेंके लाश के वस्त्र पहने… और मात्र इतने से ही, मात्र यही तपस्या उपक्रम कर के श्रमण हो जाता, ब्राह्मण हो जाता, तब ऐसा कहना उचित नहीं होता कि ‘कठिन है श्रामण्य! कठिन है ब्राह्मण्य!’ क्योंकि ऐसा उपक्रम तो कोई गृहस्थ या उसका पुत्र या मटका उठानेवाली गुलाम दासी भी कर सकती है। जैसे — साग खाकर रहना, जंगली बाजरा खाकर रहना… या सन के रूखे वस्त्र पहनना, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनना, फेंके लाश के वस्त्र पहनना, इत्यादि…
किन्तु इतने से भिन्न, मात्र इस तपस्या उपक्रम से भिन्न, कुछ अलग कर के श्रमण होता है, ब्राह्मण होता है, इसलिए ऐसा कहना उचित है कि ‘कठिन है श्रामण्य! कठिन है ब्राह्मण्य!’ जैसे कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता का साक्षात्कार कर रहता है। उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।”
ऐसा कहा जाने पर निर्वस्त्र कश्यप ने भगवान से कहा, “श्रमण पहचानना कठिन है, हे गौतम! ब्राह्मण पहचानना कठिन है!”
“वाकई, कश्यप, इस लोक में ऐसा भी सुनना स्वाभाविक है कि ‘श्रमण पहचानना कठिन है! ब्राह्मण पहचानना कठिन है!’ किन्तु यदि कोई निर्वस्त्र रहे, मुक्त रहे, हाथ चाटे… या साग खाकर रहे, जंगली बाजरा खाकर रहे… या सन के रूखे वस्त्र पहने, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहने, फेंके लाश के वस्त्र पहने… और मात्र इतने से ही, मात्र यही तपस्या उपक्रम कर के श्रमण पहचानना होता, ब्राह्मण पहचानना होता, तब ऐसा कहना उचित नहीं होता कि ‘श्रमण पहचानना कठिन है! ब्राह्मण पहचानना कठिन है!’ क्योंकि ऐसा उपक्रम तो कोई गृहस्थ या उसका पुत्र या मटका उठानेवाली गुलाम दासी भी कर सकती है। जैसे — निर्वस्त्र रहना, मुक्त रहना, हाथ चाटना… साग खाकर रहना, जंगली बाजरा खाकर रहना… या सन के रूखे वस्त्र पहनना, सन में मिलावट किए रूखे वस्त्र पहनना, फेंके लाश के वस्त्र पहनना, इत्यादि…
किन्तु इतने से भिन्न, मात्र इस तपस्या उपक्रम से भिन्न, कुछ अलग कर के श्रमण पहचानना होता है, ब्राह्मण पहचानना होता है, इसलिए ऐसा कहना उचित ही है कि ‘श्रमण पहचानना कठिन है! ब्राह्मण पहचानना कठिन है!’ जैसे कोई भिक्षु निर्बैर रह, निर्द्वेष रह, सद्भाव-चित्त विकसित कर, आस्रवों का क्षय कर, इसी जीवन में अनास्रव हो, चेतो-विमुक्ति और प्रज्ञा-विमुक्ति पाकर, अभिज्ञता का साक्षात्कार कर रहता है। उस भिक्षु को वाकई श्रमण कहते हैं, ब्राह्मण कहते हैं।”
ऐसा कहा जाने पर निर्वस्त्र कश्यप ने भगवान से कहा, “किन्तु, हे गौतम, यह शीलसंपदा क्या है? यह चित्तसंपदा क्या है? यह प्रज्ञासंपदा क्या है?”
“ऐसा होता है, कश्यप! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, कश्यप, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गयी।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे —
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह उसकी शीलसंपदा होती है।
इस तरह, कश्यप, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, कश्यप, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, कश्यप, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है। और यही शीलसंपदा होती है।
इन्द्रिय सँवर
और, कश्यप, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, कश्यप, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, कश्यप, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, कश्यप, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, कश्यप, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, कश्यप, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, कश्यप, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कश्यप, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कश्यप, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कश्यप, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, कश्यप, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, कश्यप, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कश्यप, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और यह, कश्यप, चित्तसंपदा होती है।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, कश्यप, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कश्यप, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। और यह, कश्यप, चित्तसंपदा होती है।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, कश्यप, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कश्यप, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। और यह, कश्यप, चित्तसंपदा होती है।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, कश्यप, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, कश्यप, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। और यह, कश्यप, चित्तसंपदा होती है। और इस तरह चित्तसंपदा होती है।
विपश्यना ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, कश्यप, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, कश्यप, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गयी है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, कश्यप, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, कश्यप, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, कश्यप, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, कश्यप, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, कश्यप, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, कश्यप, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और, कश्यप, यह प्रज्ञासंपदा होती है। और इस तरह अन्तर्ज्ञान-संपदा होती है। और इस शीलसंपदा, चित्तसंपदा और प्रज्ञासंपदा से अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम कुछ नहीं है।
कश्यप, कोई श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो शील सिखाते हैं। और अनेक तरह से शील की प्रशंसा करते हैं। किन्तु जहाँ तक आर्य परम शीलों की बात हैं, मैं अपने समान [स्तर पर] भी किसी को नहीं देखता हूँ, तो बेहतर कैसे देखुंगा? बल्कि ऊँचे शीलों की बात हो, तो मैं ही सबसे बेहतरीन हूँ।
और कश्यप, कोई श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो परिशुद्ध तपस्या सिखाते हैं। और अनेक तरह से परिशुद्ध तपस्या की प्रशंसा करते हैं। किन्तु जहाँ तक आर्य परम परिशुद्धता की बात हैं, मैं अपने समान [स्तर पर] भी किसी को नहीं देखता हूँ, तो बेहतर कैसे देखुंगा? बल्कि ऊँची परिशुद्ध तपस्या की बात हो, तो मैं ही सबसे बेहतरीन हूँ।
और कश्यप, कोई श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो अन्तर्ज्ञान सिखाते हैं। और अनेक तरह से अन्तर्ज्ञान की प्रशंसा करते हैं। किन्तु जहाँ तक आर्य परम अन्तर्ज्ञान की बात हैं, मैं अपने समान [स्तर पर] भी किसी को नहीं देखता हूँ, तो बेहतर कैसे देखुंगा? बल्कि ऊँचे अन्तर्ज्ञान की बात हो, तो मैं ही सबसे बेहतरीन हूँ।
और कश्यप, कोई श्रमण और ब्राह्मण होते हैं, जो विमुक्ति सिखाते हैं। और अनेक तरह से विमुक्ति की प्रशंसा करते हैं। किन्तु जहाँ तक आर्य परम विमुक्ति की बात हैं, मैं अपने समान [स्तर पर] भी किसी को नहीं देखता हूँ, तो बेहतर कैसे देखुंगा? बल्कि ऊँची विमुक्ति की बात हो, तो मैं ही सबसे बेहतरीन हूँ।
अब हो सकता है, कश्यप, कि दूसरे समुदायों के घुमक्कड़ कहने लगे, “श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, किन्तु आत्म-विश्वास के साथ नहीं गरजते है।” तो उन्हें कहा जाना चाहिए कि “ऐसा नहीं है। श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, और आत्म-विश्वास के साथ गरजते है।”
अब हो सकता है, कश्यप, कि दूसरे समुदायों के घुमक्कड़ कहने लगे, “श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, आत्म-विश्वास के साथ गरजते है, किन्तु कोई उन्हें प्रश्न नहीं पूछता है।” तो उन्हें कहा जाना चाहिए कि “ऐसा नहीं है। श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, आत्म-विश्वास के साथ गरजते है, और उन्हें प्रश्न भी पूछा जाता है।”
अब हो सकता है, कश्यप, कि दूसरे समुदायों के घुमक्कड़ कहने लगे, “श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, आत्म-विश्वास के साथ गरजते है, उन्हें प्रश्न भी पूछा जाता है, किन्तु वे उत्तर नहीं देते है… किन्तु उनका उत्तर चित्त को संतुष्ट नहीं करता है… किन्तु उनका उत्तर सुना नहीं जाता… किन्तु उत्तर सुनकर आस्था नहीं जागती है… किन्तु सुनकर आश्वस्त नहीं हो जाते हैं… किन्तु वे दिखाए मार्ग पर चलते नहीं हैं… किन्तु वे चलकर यशस्वी नहीं होते हैं।”
तो उन्हें कहा जाना चाहिए कि “ऐसा नहीं है। श्रमण गौतम सिंह-गर्जना जैसे गरजते है, अपनी परिषद में गरजते है, आत्म-विश्वास के साथ गरजते है, और उन्हें प्रश्न भी पूछा जाता है, और वे उत्तर भी देते है… और उनका उत्तर चित्त को संतुष्ट भी करता है… और उनका उत्तर सुना भी जाता है… और उत्तर सुनकर आस्था भी जागती है… और सुनकर आश्वस्त भी होते हैं… और वे दिखाए मार्ग पर चलते भी हैं… और वे चलकर यशस्वी भी होते हैं।”
एक समय, कश्यप, मैं राजगृह के गृद्धकूट पर्वत पर विहार कर रहा था। तब कोई भिन्न ब्रह्मचारी तपस्वी, निग्रोध नामक ने मुझे [पाप के] ऊँची परिशुद्धता पर प्रश्न पूछा। मैंने उसके पुछे प्रश्न का उत्तर दिया। वह मेरा उत्तर सुनकर बहुत खुश हुआ, भाव-विभोर हुआ।”
“भंते! कौन भगवान से धर्म सुनकर खुश नहीं होगा, बहुत हर्षित जैसे नहीं होगा? मैं भी तो, भंते, भगवान से धर्म सुनकर बहुत खुश हो गया हूँ, भाव-विभोर हो गया हूँ। अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। हम बुद्ध की शरण जाते हैं! धर्म और संघ की भी! भन्ते, क्या मुझे प्रवज्जा [=सन्यास की धर्मदीक्षा], और भगवान की उपस्थिती में [भिक्षु बनने की] उपसंपदा मिलेगी?”
“कश्यप, यदि परधार्मिक व्यक्ति इस धर्म-विनय में प्रवज्जा और उपसंपदा चाहता हो, तो उसे [परखने के लिए] चार महीने का परिवास दिया जाता है। चार महीने बीतने पर यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे प्रवज्जा देते हैं, भिक्षु-भाव की उपसंपदा देते हैं। हालाँकि इस मामले में, मैं व्यक्ति-व्यक्ति में अंतर पहचानता हूँ।”
“भंते, यदि ऐसे मामले में चार महीने का परिवास आवश्यक होता है, तो मैं चार वर्ष का परिवास लूँगा। चार वर्ष बीतने पर यदि भिक्षुओं को ठीक लगे, तब वे मुझे प्रवज्जा दें, भिक्षु-भाव की उपसंपदा दें।”
तब उस निर्वस्त्र कश्यप को भगवान की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा भी मिल गयी। तब उपसंपदा पाए अधिक समय नहीं बीता था, जब कश्यप भंते निर्लिप्त-एकांतवास लेकर फ़िक्रमन्द, सचेत और दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर वे स्थित हुए। उन्होंने स्वयं जाना, साक्षात्कार किया, और उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ इस तरह, [अनेक] अर्हन्तों में एक भन्ते कश्यप हुए।
महासीहनाद सुत्त समाप्त।
अचेलकस्सपवत्थु
३८१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा उरुञ्ञायं [उजुञ्ञायं (सी॰ स्या॰ कं॰ पी॰)] विहरति कण्णकत्थले मिगदाये। अथ खो अचेलो कस्सपो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं अट्ठासि। एकमन्तं ठितो खो अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘सुतं मेतं, भो गोतम – ‘समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीविं एकंसेन उपक्कोसति उपवदती’ति। ये ते, भो गोतम, एवमाहंसु – ‘समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीविं एकंसेन उपक्कोसति उपवदती’ति, कच्चि ते भोतो गोतमस्स वुत्तवादिनो, न च भवन्तं गोतमं अभूतेन अब्भाचिक्खन्ति, धम्मस्स चानुधम्मं ब्याकरोन्ति, न च कोचि सहधम्मिको वादानुवादो गारय्हं ठानं आगच्छति? अनब्भक्खातुकामा हि मयं भवन्तं गोतम’’न्ति।
३८२. ‘‘ये ते, कस्सप, एवमाहंसु – ‘समणो गोतमो सब्बं तपं गरहति, सब्बं तपस्सिं लूखाजीविं एकंसेन उपक्कोसति उपवदती’ति, न मे ते वुत्तवादिनो, अब्भाचिक्खन्ति च पन मं ते असता अभूतेन। इधाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं लूखाजीविं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्नं। इध पनाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं लूखाजीविं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नं।
३८३. ‘‘इधाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं अप्पदुक्खविहारिं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपन्नं। इध पनाहं, कस्सप, एकच्चं तपस्सिं अप्पदुक्खविहारिं पस्सामि दिब्बेन चक्खुना विसुद्धेन अतिक्कन्तमानुसकेन कायस्स भेदा परं मरणा सुगतिं सग्गं लोकं उपपन्नं। योहं, कस्सप, इमेसं तपस्सीनं एवं आगतिञ्च गतिञ्च चुतिञ्च उपपत्तिञ्च यथाभूतं पजानामि, सोहं किं सब्बं तपं गरहिस्सामि, सब्बं वा तपस्सिं लूखाजीविं एकंसेन उपक्कोसिस्सामि उपवदिस्सामि?
३८४. ‘‘सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा पण्डिता निपुणा कतपरप्पवादा वालवेधिरूपा। ते भिन्दन्ता मञ्ञे चरन्ति पञ्ञागतेन दिट्ठिगतानि। तेहिपि मे सद्धिं एकच्चेसु ठानेसु समेति, एकच्चेसु ठानेसु न समेति। यं ते एकच्चं वदन्ति ‘साधू’ति, मयम्पि तं एकच्चं वदेम ‘साधू’ति। यं ते एकच्चं वदन्ति ‘न साधू’ति, मयम्पि तं एकच्चं वदेम ‘न साधू’ति। यं ते एकच्चं वदन्ति ‘साधू’ति, मयं तं एकच्चं वदेम ‘न साधू’ति। यं ते एकच्चं वदन्ति ‘न साधू’ति, मयं तं एकच्चं वदेम ‘साधू’ति।
‘‘यं मयं एकच्चं वदेम ‘साधू’ति, परेपि तं एकच्चं वदन्ति ‘साधू’ति। यं मयं एकच्चं वदेम ‘न साधू’ति, परेपि तं एकच्चं वदन्ति ‘न साधू’ति। यं मयं एकच्चं वदेम ‘न साधू’ति, परे तं एकच्चं वदन्ति ‘साधू’ति। यं मयं एकच्चं वदेम ‘साधू’ति, परे तं एकच्चं वदन्ति ‘न साधू’ति।
समनुयुञ्जापनकथा
३८५. ‘‘त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – येसु नो, आवुसो, ठानेसु न समेति, तिट्ठन्तु तानि ठानानि। येसु ठानेसु समेति, तत्थ विञ्ञू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घेन वा सङ्घं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्खाता, कण्हा कण्हसङ्खाता। को इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, समणो वा गोतमो, परे वा पन भोन्तो गणाचरिया’ति?
३८६. ‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्खाता, कण्हा कण्हसङ्खाता। समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरिया’ति। इतिह, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं।
३८७. ‘‘अपरम्पि नो, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घेन वा सङ्घं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता, अलमरिया अलमरियसङ्खाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता। को इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, समणो वा गोतमो, परे वा पन भोन्तो गणाचरिया’ ति?
३८८. ‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता, अलमरिया अलमरियसङ्खाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता। समणो गोतमो इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरिया’ति। इतिह, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं।
३८९. ‘‘अपरम्पि नो, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घेन वा सङ्घं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्खाता, कण्हा कण्हसङ्खाता। को इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, गोतमसावकसङ्घो वा, परे वा पन भोन्तो गणाचरियसावकसङ्घा’ति?
३९०. ‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा अकुसला अकुसलसङ्खाता, सावज्जा सावज्जसङ्खाता, असेवितब्बा असेवितब्बसङ्खाता, न अलमरिया न अलमरियसङ्खाता, कण्हा कण्हसङ्खाता। गोतमसावकसङ्घो इमे धम्मे अनवसेसं पहाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियसावकसङ्घा’ति। इतिह, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं।
३९१. ‘‘अपरम्पि नो, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्तं समनुगाहन्तं समनुभासन्तं सत्थारा वा सत्थारं सङ्घेन वा सङ्घं। ‘ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता, अलमरिया अलमरियसङ्खाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता। को इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, गोतमसावकसङ्घो वा, परे वा पन भोन्तो गणाचरियसावकसङ्घा’ति?
३९२. ‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता एवं वदेय्युं – ‘ये इमेसं भवतं धम्मा कुसला कुसलसङ्खाता, अनवज्जा अनवज्जसङ्खाता, सेवितब्बा सेवितब्बसङ्खाता, अलमरिया अलमरियसङ्खाता, सुक्का सुक्कसङ्खाता। गोतमसावकसङ्घो इमे धम्मे अनवसेसं समादाय वत्तति, यं वा पन भोन्तो परे गणाचरियसावकसङ्घा’ति। इतिह, कस्सप, विञ्ञू समनुयुञ्जन्ता समनुगाहन्ता समनुभासन्ता अम्हेव तत्थ येभुय्येन पसंसेय्युं।
अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो
३९३. ‘‘अत्थि, कस्सप, मग्गो अत्थि पटिपदा, यथापटिपन्नो सामंयेव ञस्सति सामं दक्खति [दक्खिति (सी॰)] – ‘समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी’ति। कतमो च, कस्सप, मग्गो, कतमा च पटिपदा, यथापटिपन्नो सामंयेव ञस्सति सामं दक्खति – ‘समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी’ति? अयमेव अरियो अट्ठङ्गिको मग्गो। सेय्यथिदं – सम्मादिट्ठि सम्मासङ्कप्पो सम्मावाचा सम्माकम्मन्तो सम्माआजीवो सम्मावायामो सम्मासति सम्मासमाधि। अयं खो, कस्सप, मग्गो, अयं पटिपदा, यथापटिपन्नो सामंयेव ञस्सति सामं दक्खति ‘समणोव गोतमो कालवादी भूतवादी अत्थवादी धम्मवादी विनयवादी’’’ति।
तपोपक्कमकथा
३९४. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्ञसङ्खाता च ब्रह्मञ्ञसङ्खाता च। अचेलको होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो, न एहिभद्दन्तिको, न तिट्ठभद्दन्तिको, नाभिहटं, न उद्दिस्सकतं, न निमन्तनं सादियति। सो न कुम्भिमुखा पटिग्गण्हाति, न कळोपिमुखा पटिग्गण्हाति, न एळकमन्तरं, न दण्डमन्तरं, न मुसलमन्तरं, न द्विन्नं भुञ्जमानानं, न गब्भिनिया, न पायमानाय, न पुरिसन्तरगताय, न सङ्कित्तीसु, न यत्थ सा उपट्ठितो होति, न यत्थ मक्खिका सण्डसण्डचारिनी, न मच्छं, न मंसं, न सुरं, न मेरयं, न थुसोदकं पिवति। सो एकागारिको वा होति एकालोपिको, द्वागारिको वा होति द्वालोपिको…पे॰… सत्तागारिको वा होति सत्तालोपिको; एकिस्सापि दत्तिया यापेति, द्वीहिपि दत्तीहि यापेति… सत्तहिपि दत्तीहि यापेति; एकाहिकम्पि आहारं आहारेति, द्वीहिकम्पि आहारं आहारेति… सत्ताहिकम्पि आहारं आहारेति। इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति।
३९५. ‘‘इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्ञसङ्खाता च ब्रह्मञ्ञसङ्खाता च। साकभक्खो वा होति, सामाकभक्खो वा होति, नीवारभक्खो वा होति, दद्दुलभक्खो वा होति, हटभक्खो वा होति, कणभक्खो वा होति, आचामभक्खो वा होति, पिञ्ञाकभक्खो वा होति, तिणभक्खो वा होति, गोमयभक्खो वा होति, वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी।
३९६. ‘‘इमेपि खो, आवुसो गोतम, तपोपक्कमा एतेसं समणब्राह्मणानं सामञ्ञसङ्खाता च ब्रह्मञ्ञसङ्खाता च। साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति, छवदुस्सानिपि धारेति, पंसुकूलानिपि धारेति, तिरीटानिपि धारेति, अजिनम्पि धारेति, अजिनक्खिपम्पि धारेति, कुसचीरम्पि धारेति, वाकचीरम्पि धारेति, फलकचीरम्पि धारेति, केसकम्बलम्पि धारेति, वाळकम्बलम्पि धारेति, उलूकपक्खिकम्पि धारेति, केसमस्सुलोचकोपि होति केसमस्सुलोचनानुयोगमनुयुत्तो, उब्भट्ठकोपि [उब्भट्ठिकोपि (क॰)] होति आसनपटिक्खित्तो, उक्कुटिकोपि होति उक्कुटिकप्पधानमनुयुत्तो, कण्टकापस्सयिकोपि होति कण्टकापस्सये सेय्यं कप्पेति, फलकसेय्यम्पि कप्पेति, थण्डिलसेय्यम्पि कप्पेति, एकपस्सयिकोपि होति रजोजल्लधरो, अब्भोकासिकोपि होति यथासन्थतिको, वेकटिकोपि होति विकटभोजनानुयोगमनुयुत्तो, अपानकोपि होति अपानकत्तमनुयुत्तो, सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरती’’ति।
तपोपक्कमनिरत्थकथा
३९७. ‘‘अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो…पे॰… इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्ञासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता। अथ खो सो आरकाव सामञ्ञा आरकाव ब्रह्मञ्ञा। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति, सामाकभक्खो…पे॰… वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी। तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्ञासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता। अथ खो सो आरकाव सामञ्ञा आरकाव ब्रह्मञ्ञा। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति…पे॰… सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। तस्स चायं सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्ञासम्पदा अभाविता होति असच्छिकता। अथ खो सो आरकाव सामञ्ञा आरकाव ब्रह्मञ्ञा। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपी’’ति।
३९८. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘दुक्करं, भो गोतम, सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’’न्ति। ‘‘पकति खो एसा, कस्सप, लोकस्मिं ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति। अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो…पे॰… इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा अभविस्स ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति।
‘‘सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘हन्दाहं अचेलको होमि, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो…पे॰… इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरामी’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा होति ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति, सामाकभक्खो…पे॰… वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा अभविस्स ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति।
‘‘सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘हन्दाहं साकभक्खो वा होमि, सामाकभक्खो वा…पे॰… वनमूलफलाहारो यापेमि पवत्तफलभोजी’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा होति ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति…पे॰… सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा अभविस्स ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति।
‘‘सक्का च पनेतं अभविस्स कातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘हन्दाहं साणानिपि धारेमि, मसाणानिपि धारेमि…पे॰… सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरामी’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन सामञ्ञं वा होति ब्रह्मञ्ञं वा दुक्करं सुदुक्करं, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुक्करं सामञ्ञं दुक्करं ब्रह्मञ्ञ’न्ति। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपी’’ति।
३९९. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘दुज्जानो, भो गोतम, समणो, दुज्जानो ब्राह्मणो’’ति। ‘‘पकति खो एसा, कस्सप, लोकस्मिं ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति। अचेलको चेपि, कस्सप, होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो…पे॰… इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति।
‘‘सक्का च पनेसो अभविस्स ञातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘अयं अचेलको होति, मुत्ताचारो, हत्थापलेखनो…पे॰… इति एवरूपं अद्धमासिकम्पि परियायभत्तभोजनानुयोगमनुयुत्तो विहरती’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति। यतो खो [यतो च खो (क॰)], कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साकभक्खो चेपि, कस्सप, होति सामाकभक्खो…पे॰… वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति।
‘‘सक्का च पनेसो अभविस्स ञातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘अयं साकभक्खो वा होति सामाकभक्खो…पे॰… वनमूलफलाहारो यापेति पवत्तफलभोजी’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपि।
‘‘साणानि चेपि, कस्सप, धारेति, मसाणानिपि धारेति…पे॰… सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरति। इमाय च, कस्सप, मत्ताय इमिना तपोपक्कमेन समणो वा अभविस्स ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, नेतं अभविस्स कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति।
‘‘सक्का च पनेसो अभविस्स ञातुं गहपतिना वा गहपतिपुत्तेन वा अन्तमसो कुम्भदासियापि – ‘अयं साणानिपि धारेति, मसाणानिपि धारेति…पे॰… सायततियकम्पि उदकोरोहनानुयोगमनुयुत्तो विहरती’ति।
‘‘यस्मा च खो, कस्सप, अञ्ञत्रेव इमाय मत्ताय अञ्ञत्र इमिना तपोपक्कमेन समणो वा होति ब्राह्मणो वा दुज्जानो सुदुज्जानो, तस्मा एतं कल्लं वचनाय – ‘दुज्जानो समणो दुज्जानो ब्राह्मणो’ति। यतो खो, कस्सप, भिक्खु अवेरं अब्यापज्जं मेत्तचित्तं भावेति, आसवानञ्च खया अनासवं चेतोविमुत्तिं पञ्ञाविमुत्तिं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरति। अयं वुच्चति, कस्सप, भिक्खु समणो इतिपि ब्राह्मणो इतिपी’’ति।
सीलसमाधिपञ्ञासम्पदा
४००. एवं वुत्ते, अचेलो कस्सपो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘कतमा पन सा, भो गोतम, सीलसम्पदा, कतमा चित्तसम्पदा, कतमा पञ्ञासम्पदा’’ति? ‘‘इध, कस्सप, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-१९३ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्बं) भयदस्सावी समादाय सिक्खति सिक्खापदेसु, कायकम्मवचीकम्मेन समन्नागतो कुसलेन परिसुद्धाजीवो सीलसम्पन्नो इन्द्रियेसु गुत्तद्वारो सतिसम्पजञ्ञेन समन्नागतो सन्तुट्ठो।
४०१. ‘‘कथञ्च, कस्सप, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति? इध, कस्सप, भिक्खु पाणातिपातं पहाय पाणातिपाता पटिविरतो होति निहितदण्डो निहितसत्थो लज्जी दयापन्नो, सब्बपाणभूतहितानुकम्पी विहरति। इदम्पिस्स होति सीलसम्पदाय …पे॰… (यथा १९४ याव २१० अनुच्छेदेसु)
‘‘यथा वा पनेके भोन्तो समणब्राह्मणा सद्धादेय्यानि भोजनानि भुञ्जित्वा ते एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवेन जीवितं कप्पेन्ति। सेय्यथिदं – सन्तिकम्मं पणिधिकम्मं…पे॰… (यथा २११ अनुच्छेदे) ओसधीनं पतिमोक्खो इति वा इति, एवरूपाय तिरच्छानविज्जाय मिच्छाजीवा पटिविरतो होति। इदम्पिस्स होति सीलसम्पदाय।
‘‘स खो सो [अयं खो (क॰)], कस्सप, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सेय्यथापि, कस्सप, राजा खत्तियो मुद्धावसित्तो निहतपच्चामित्तो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं पच्चत्थिकतो। एवमेव खो, कस्सप, भिक्खु एवं सीलसम्पन्नो न कुतोचि भयं समनुपस्सति, यदिदं सीलसंवरतो। सो इमिना अरियेन सीलक्खन्धेन समन्नागतो अज्झत्तं अनवज्जसुखं पटिसंवेदेति। एवं खो, कस्सप, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति। अयं खो, कस्सप, सीलसम्पदा…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। इदम्पिस्स होति चित्तसम्पदाय…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। इदम्पिस्स होति चित्तसम्पदाय। अयं खो, कस्सप, चित्तसम्पदा।
‘‘सो एवं समाहिते चित्ते…पे॰… ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… इदम्पिस्स होति पञ्ञासम्पदाय…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति…पे॰… इदम्पिस्स होति पञ्ञासम्पदाय। अयं खो, कस्सप, पञ्ञासम्पदा।
‘‘इमाय च, कस्सप, सीलसम्पदाय चित्तसम्पदाय पञ्ञासम्पदाय अञ्ञा सीलसम्पदा चित्तसम्पदा पञ्ञासम्पदा उत्तरितरा वा पणीततरा वा नत्थि।
सीहनादकथा
४०२. ‘‘सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा सीलवादा। ते अनेकपरियायेन सीलस्स वण्णं भासन्ति। यावता, कस्सप, अरियं परमं सीलं, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिसीलं।
‘‘सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा तपोजिगुच्छावादा। ते अनेकपरियायेन तपोजिगुच्छाय वण्णं भासन्ति। यावता, कस्सप, अरिया परमा तपोजिगुच्छा, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिजेगुच्छं।
‘‘सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा पञ्ञावादा। ते अनेकपरियायेन पञ्ञाय वण्णं भासन्ति। यावता, कस्सप, अरिया परमा पञ्ञा, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिपञ्ञं।
‘‘सन्ति, कस्सप, एके समणब्राह्मणा विमुत्तिवादा। ते अनेकपरियायेन विमुत्तिया वण्णं भासन्ति। यावता, कस्सप, अरिया परमा विमुत्ति, नाहं तत्थ अत्तनो समसमं समनुपस्सामि, कुतो भिय्यो! अथ खो अहमेव तत्थ भिय्यो, यदिदं अधिविमुत्ति।
४०३. ‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘सीहनादं खो समणो गोतमो नदति, तञ्च खो सुञ्ञागारे नदति, नो परिसासू’ति। ते – ‘मा हेव’न्तिस्सु वचनीया। ‘सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदती’ति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया।
‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, नो च खो विसारदो नदती’ति। ते – ‘मा हेव’न्तिस्सु वचनीया। ‘सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदती’’ति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया।
‘‘ठानं खो पनेतं, कस्सप, विज्जति, यं अञ्ञतित्थिया परिब्बाजका एवं वदेय्युं – ‘सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदति, नो च खो नं पञ्हं पुच्छन्ति…पे॰… पञ्हञ्च नं पुच्छन्ति; नो च खो नेसं पञ्हं पुट्ठो ब्याकरोति…पे॰… पञ्हञ्च नेसं पुट्ठो ब्याकरोति; नो च खो पञ्हस्स वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति…पे॰… पञ्हस्स च वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति; नो च खो सोतब्बं मञ्ञन्ति…पे॰… सोतब्बञ्चस्स मञ्ञन्ति; नो च खो सुत्वा पसीदन्ति…पे॰… सुत्वा चस्स पसीदन्ति; नो च खो पसन्नाकारं करोन्ति…पे॰… पसन्नाकारञ्च करोन्ति; नो च खो तथत्ताय पटिपज्जन्ति…पे॰… तथत्ताय च पटिपज्जन्ति; नो च खो पटिपन्ना आराधेन्ती’ति। ते – ‘मा हेव’न्तिस्सु वचनीया। ‘सीहनादञ्च समणो गोतमो नदति, परिसासु च नदति, विसारदो च नदति, पञ्हञ्च नं पुच्छन्ति, पञ्हञ्च नेसं पुट्ठो ब्याकरोति, पञ्हस्स च वेय्याकरणेन चित्तं आराधेति, सोतब्बञ्चस्स मञ्ञन्ति, सुत्वा चस्स पसीदन्ति, पसन्नाकारञ्च करोन्ति, तथत्ताय च पटिपज्जन्ति, पटिपन्ना च आराधेन्ती’ति एवमस्सु, कस्सप, वचनीया।
तित्थियपरिवासकथा
४०४. ‘‘एकमिदाहं, कस्सप, समयं राजगहे विहरामि गिज्झकूटे पब्बते। तत्र मं अञ्ञतरो तपब्रह्मचारी निग्रोधो नाम अधिजेगुच्छे पञ्हं अपुच्छि। तस्साहं अधिजेगुच्छे पञ्हं पुट्ठो ब्याकासिं। ब्याकते च पन मे अत्तमनो अहोसि परं विय मत्ताया’’ति। ‘‘को हि, भन्ते, भगवतो धम्मं सुत्वा न अत्तमनो अस्स परं विय मत्ताय? अहम्पि हि, भन्ते, भगवतो धम्मं सुत्वा अत्तमनो परं विय मत्ताय। अभिक्कन्तं, भन्ते, अभिक्कन्तं, भन्ते। सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति; एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि, धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति।
४०५. ‘‘यो खो, कस्सप, अञ्ञतित्थियपुब्बो इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खति पब्बज्जं, आकङ्खति उपसम्पदं, सो चत्तारो मासे परिवसति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय। अपि च मेत्थ पुग्गलवेमत्तता विदिता’’ति। ‘‘सचे, भन्ते, अञ्ञतित्थियपुब्बा इमस्मिं धम्मविनये आकङ्खन्ति पब्बज्जं, आकङ्खन्ति उपसम्पदं, चत्तारो मासे परिवसन्ति, चतुन्नं मासानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्ति, उपसम्पादेन्ति भिक्खुभावाय। अहं चत्तारि वस्सानि परिवसिस्सामि, चतुन्नं वस्सानं अच्चयेन आरद्धचित्ता भिक्खू पब्बाजेन्तु, उपसम्पादेन्तु भिक्खुभावाया’’ति।
अलत्थ खो अचेलो कस्सपो भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं। अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा कस्सपो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो न चिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति – अब्भञ्ञासि। अञ्ञतरो खो पनायस्मा कस्सपो अरहतं अहोसीति।
महासीहनादसुत्तं निट्ठितं अट्ठमं।