दुनिया भर में ऐसे घुमक्कड़ मिलते हैं, जो अपनी सीमाओं से परे जाकर दूसरे देशों की सभ्यता, संस्कृति और दर्शन को समझने के लिए यात्रा करते हैं। प्राचीन भारत में इन्हें “परिव्राजक” कहा जाता था, जबकि आधुनिक पश्चिमी दुनिया में इन्हें “हिप्पी” के रूप में पहचाना जाता है। इनकी जीवनशैली सामान्य सामाजिक नियमों से हटकर होती है। भारतीय परंपरा में राहुल सांकृत्यायन जैसे घुमक्कड़ विद्वान इसी प्रवृत्ति के उदाहरण थे, जो ज्ञान की खोज में यात्रा करते रहे।
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से, ऐसे घुमक्कड़ों का मानसिक स्वभाव प्रवाही और विद्रोही होता है। वे पारंपरिक ढाँचों और समाज द्वारा स्थापित स्थिरता को अस्वीकार करते हैं, क्योंकि उनकी आत्मा स्वतंत्रता और आत्म-अभिव्यक्ति की ओर उन्मुख होती है। यह विद्रोही मानसिकता उन्हें समाज के हर अनुशासन को चुनौती देने के लिए प्रेरित करती है, कभी-कभी उनके अपने भीतर के बंधनों को भी। वे तात्कालिक अनुभवों और क्षणिक इच्छाओं की ओर आकर्षित होते हैं, जिससे दीर्घकालिक स्थायित्व उनके लिए अप्रासंगिक हो जाता है। उनकी विद्रोही ऊर्जा उन्हें रचनात्मक और अनूठा बनाती है, लेकिन यह अस्थिरता और गहरे संबंधों की कमी का कारण भी बन सकती है। ऐसे दिमाग को नियंत्रित करने और दिशा देने में केवल गहरे बोध वाले गुरु ही सफल हो सकते हैं, जैसा कि ओशो रजनीश ने अपने अनुयायियों के साथ किया।
इस सूत्र में भगवान बुद्ध ऐसे ही घुमक्कड़ों से मिलते हैं और आत्मा से जुड़े विभिन्न दृष्टिकोणों पर उत्तर देते हुए विशिष्ट धारणाओं का खंडन करने का प्रयास करते हैं। घुमक्कड़ों को ठोस और निर्णायक मार्ग के बारे में सुनना रोचक और प्रेरणादायक तो लगता है, लेकिन उनके प्रवाही और विद्रोही स्वभाव के कारण, वे अक्सर इस मार्ग पर चलने से कतराते हैं या भटक जाते हैं।
फिर भी, एक घुमक्कड़ दुबारा आकर भगवान से मार्गदर्शन मांगता है। इस पर भगवान बुद्ध उसे गहरे धर्म की देशना देते हुए आत्मा की तीन अवस्थाओं के बारे में विस्तार से समझाते हैं, जो उसे उपासक बनने पर जरूर मजबूर करती है, लेकिन वह प्रतिबद्ध नहीं हो पाता। किन्तु, पास ही बैठा दूसरा साधारण व्यक्ति उसी उत्तर को सुनकर भिक्षु बनने की ठानता है, और अरहंतपद का साक्षी बनता है।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान श्रावस्ती में अनाथपिण्डिक के जेतवन उद्यान में विहार कर रहे थे। उस समय पोट्ठपाद घुमक्कड़ वाद-विवाद करने के लिए तीन-सौ घुमक्कड़ों की बड़ी परिषद के साथ आबनूस के पेड़ों से घिरे हुए मल्लिका के एक-मंडप उद्यान में आकर रह रहा था। तब भगवान ने प्रातःकाल में चीवर ओढ़, पात्र और संघाटि ले, भिक्षाटन के लिए श्रावस्ती में प्रवेश किया।
तब भगवान को लगा, “अभी श्रावस्ती में भिक्षाटन के लिए जाना जल्दी होगा। क्यों न मैं अभी वाद-विवाद करने के लिए आबनूस के पेड़ों से घिरे हुए मल्लिका के एक-मंडप उद्यान में जाऊँ, जहाँ पोट्ठपाद घुमक्कड़ है?” तब भगवान वाद-विवाद करने के लिए आबनूस के पेड़ों से घिरे हुए मल्लिका के एक-मंडप उद्यान में गए, जहाँ पोट्ठपाद घुमक्कड़ था। उस समय पोट्ठपाद घुमक्कड़, घुमक्कड़ों की बड़ी परिषद के साथ चीखते-चिल्लाते शोर मचाते हुए, नाना-तरह की व्यर्थ चर्चाओं में लगा हुआ था। जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें।
तब पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान को दूर से आते हुए देखा, और अपनी परिषद को चुप कराया, “शान्त हो जाओ, श्रीमानों! आवाज मत करों! यहाँ श्रमण गौतम आ रहे है। इन आयुष्मान को शान्ति पसंद है, धीमा बोलने की सिफ़ारिश करते है। संभव है, अपनी परिषद शान्त देख यहाँ आए।”
ऐसा कहा जाने पर घुमक्कड़ चुप हो गए।
तब भगवान पोट्ठपाद घुमक्कड़ के पास गए। पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “आईये भंते, भगवान! स्वागत है भंते, भगवान! बहुत दिन बीतें, भंते, जो भगवान ने यहाँ आने का अवसर लिया! बैठिए, भंते, भगवान, ये आसन तयार है।”
भगवान बिछे आसन पर बैठ गए। जबकि पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने नीचे दूसरा आसन बिछाया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठे पोट्ठपाद घुमक्कड़ को भगवान ने कहा, “यहाँ बैठकर अभी क्या चर्चा चल रही थी, पोट्ठपाद? कौन-सी चर्चा अधूरी रह गई?”
ऐसा कहने पर पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “जाने दीजिये, भंते, कि हम यहाँ बैठकर अभी क्या चर्चा कर रहे थे। बाद में वैसी चर्चा सुनना दुर्लभ नहीं है। कुछ दिनों पहले, भंते, भिन्न-भिन्न समुदायों के श्रमण और ब्राह्मण कौतूहल-मंडप [=जहाँ वाद-विवाद होता हो] में साथ बैठकर, साथ चर्चा करते हुए, उनकी अभिसंज्ञानिरोध [=अंततः नजरिए समाप्त होना, अथवा बोधगम्यता खत्म होना] पर बात निकली थी — ‘यह अभिसंज्ञानिरोध कैसे होता है?’ किसी ने कहा, ‘अकारण, बिना परिस्थिति के ही व्यक्ति के नजरिए उपजते हैं और खत्म होते हैं। जिस समय उपजते हैं, आप बोधगम्य होते है। जिस समय खत्म होते हैं, आप अबोधगम्य होते है।’ इस तरह किसी ने अभिसंज्ञानिरोध बताया।
तब किसी और ने कहा, ‘ऐसे नहीं होता है, श्रीमान। बल्कि कुछ श्रमण और ब्राह्मण महाशक्तिशाली महासक्षम होते हैं। वे व्यक्ति में नजरिए डालते हैं और निकालते हैं। जिस समय डालते हैं, आप बोधगम्य होते है। जिस समय निकालते हैं, आप अबोधगम्य होते है।’ इस तरह किसी ने अभिसंज्ञानिरोध बताया।
तब किसी और ने कहा, ‘ऐसे नहीं होता है, श्रीमान। बल्कि कुछ देवता महाशक्तिशाली महासक्षम होते हैं। वे व्यक्ति में नजरिए डालते हैं और निकालते हैं। जिस समय डालते हैं, आप बोधगम्य होते है। जिस समय निकालते हैं, आप अबोधगम्य होते है।’ इस तरह किसी ने अभिसंज्ञानिरोध बताया।
तब, भंते, मुझे भगवान की याद आयी, ‘अरे वे भगवान ही है, सुगत ही है, जो इन धर्मों में सुकुशल [=अच्छे निपुण] है!’ भगवान ही कुशल है, भंते, भगवान ही अभिसंज्ञानिरोध में विद्वान है! तो, भंते, अभिसंज्ञानिरोध कैसे होता है?”
“इस बारे में, पोट्ठपाद, जो श्रमण और ब्राह्मण कहते हैं कि ‘अकारण, बिना परिस्थिति के ही व्यक्ति के नजरिए उपजते हैं और खत्म होते हैं’, वे आरंभ से ही गलत हैं। ऐसा क्यों? क्योंकि व्यक्ति के नजरिए कारण के साथ और [ख़ास] परिस्थिति में ही उपजते हैं और खत्म भी होते हैं। शिक्षा से एक तरह के नजरिए उपजते हैं, और शिक्षा से एक तरह के नजरिए खत्म होते हैं। कैसी शिक्षा?” भगवान ने कहा।
“ऐसा होता है, पोट्ठपाद! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
इस तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, पोट्ठपाद, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, पोट्ठपाद, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, पोट्ठपाद, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, पोट्ठपाद, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, पोट्ठपाद, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, पोट्ठपाद, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, पोट्ठपाद, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, पोट्ठपाद, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, पोट्ठपाद, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, पोट्ठपाद, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब उसे पहले जो कामसंज्ञा थी, वह खत्म होती है। उस समय, निर्लिप्तता से उपजा हुआ प्रफुल्लता और सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस निर्लिप्तता से उपजे हुए प्रफुल्लता और सुख के सूक्ष्म और सच्चा नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
द्वितीय-ध्यान
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब उसे पहले जो निर्लिप्तता से उपजा हुआ प्रफुल्लता और सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, समाधि से उपजा हुआ प्रफुल्लता और सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस समाधि से उपजे हुए प्रफुल्लता और सुख के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
तृतीय-ध्यान
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब उसे पहले जो समाधि से उपजा हुआ प्रफुल्लता और सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, तटस्थता से उपजा हुआ सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस तटस्थता से उपजे हुए सुख के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
चतुर्थ-ध्यान
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब उसे पहले जो तटस्थता से उपजा हुआ सुख का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, न-सुख-न-दर्द का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस न-सुख-न-दर्द के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
आकाश-आयाम
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु रूप नजरिए पूर्णतः लाँघकर, विरोधी नजरिए ओझल होने पर, विविध नजरियों पर ध्यान न देकर — ‘आकाश अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त आकाश-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब उसे पहले जो रूप नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, अनन्त आकाश-आयाम का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस अनन्त आकाश-आयाम के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
चैतन्य-आयाम
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु अनन्त आकाश-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘चैतन्य अनन्त है’ [देखते हुए] ‘अनन्त चैतन्य-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब उसे पहले जो अनन्त आकाश-आयाम नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, अनन्त चैतन्य-आयाम का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस अनन्त चैतन्य-आयाम के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
सूना-आयाम
“तब आगे, पोट्ठपाद, भिक्षु अनन्त चैतन्य-आयाम पूर्णतः लाँघकर, ‘कुछ नहीं है’ [देखते हुए] ‘सूने-आयाम’ में प्रवेश कर रहता है। तब उसे पहले जो अनन्त चैतन्य-आयाम नजरिया था, वह खत्म होता है। उस समय, सूने-आयाम का सूक्ष्म और सच्चा नजरिया होता है। और वह उस सूने-आयाम के सूक्ष्म और सच्चे नजरिए के प्रति बोधगम्य होता है। इस तरह शिक्षा से एक तरह का नजरिया उपजता है, और शिक्षा से एक तरह का नजरिया खत्म होता है। यही वह शिक्षा है।” भगवान ने कहा।
चैतन्य-आयाम
“पोट्ठपाद, जब से भिक्षु स्वयंसंज्ञी [=स्वयं से नजरिया बदलाने वाला] होता है, तब से वह, इस स्तर से उस स्तर क्रमशः बढ़ते हुए, श्रेष्ठतम नजरियों को छूता है। श्रेष्ठतम नजरिए पर स्थित होकर उसे लगता है, ‘मेरा चिंतनमान होना ही बुरा है, अ-चिंतनमान रहना बेहतर है। यदि मैं चिंतन करूँ, और [मानसिक] रचनाएँ बुनूँ, तो मेरा यह नजरिया खत्म हो जाएगा, और स्थूल नजरिया प्रकट होगा। क्यों न मैं न चिंतन करूँ, न ही रचनाएँ बुनूँ?’ तब वह न चिंतन करता है, न ही रचनाएँ बुनता है। और जब वह न चिंतन करता है, न ही रचनाएँ बुनता है, तब उसका वह भी नजरिया खत्म होकर, अन्य स्थूल नजरिया प्रकट नहीं होता। वह निरोध छूता है। और इस तरह, पोट्ठपाद, कोई सचेत रहकर क्रमशः अभिसंज्ञानिरोध को प्राप्त करता है।
क्या लगता है तुम्हें, पोट्ठपाद? क्या तुमने कभी इस तरह क्रमशः अभिसंज्ञानिरोध को सचेत रहकर प्राप्त करने के बारे में सुना है?”
“नहीं, भंते! और मैं इस तरह भगवान के सिखाएँ धर्म को समझा हूँ: ‘जब से भिक्षु स्वयंसंज्ञी होता है, तब से वह, इस स्तर से उस स्तर क्रमशः बढ़ते हुए, श्रेष्ठतम नजरियों को छूता है। श्रेष्ठतम नजरिए पर स्थित होकर उसे लगता है, ‘मेरा चिंतनमान होना ही बुरा है, अ-चिंतनमान रहना बेहतर है। यदि मैं चिंतन करूँ, और रचनाएँ बुनूँ, तो मेरा यह नजरिया खत्म हो जाएगा, और स्थूल नजरिया प्रकट होगा। क्यों न मैं न चिंतन करूँ, न ही रचनाएँ बुनूँ?’ तब वह न चिंतन करता है, न ही रचनाएँ बुनता है। और जब वह न चिंतन करता है, न ही रचनाएँ बुनता है, तब उसका वह भी नजरिया खत्म होकर, अन्य स्थूल नजरिया प्रकट नहीं होता। वह निरोध छूता है। और इस तरह कोई सचेत रहकर क्रमशः अभिसंज्ञानिरोध को प्राप्त करता है।”
“बिलकुल ठीक, पोट्ठपाद।”
“किन्तु भंते, क्या भगवान एक ही श्रेष्ठतम नजरिए की बात करते है, अथवा कई श्रेष्ठतम नजरियों की बात करते है?”
“पोट्ठपाद, मैं एक श्रेष्ठतम नजरिए की भी बात करता हूँ, और कई श्रेष्ठतम नजरियों की भी बात करता हूँ।”
“किन्तु कैसे, भंते, भगवान एक श्रेष्ठतम नजरिए की भी बात करते है, और कई श्रेष्ठतम नजरियों की भी बात करते है?”
“जिस-जिस तरह से कोई निरोध छूता है, उस-उस तरह से मैं श्रेष्ठतम नजरिए की बात करता हूँ। इस तरह, पोट्ठपाद, मैं एक श्रेष्ठतम नजरिए की भी बात करता हूँ, और कई श्रेष्ठतम नजरियों की भी बात करता हूँ।”
“किन्तु भंते, क्या पहले नजरिया उपजता है, फिर ज्ञान पश्चात में? अथवा पहले ज्ञान उपजता है, फिर नजरिया पश्चात में? अथवा नजरिया और ज्ञान एक साथ ही उपजते हैं?”
“पोट्ठपाद, नजरिया पहले उपजता है, फिर ज्ञान पश्चात में। नजरिए के उपजने से ही ज्ञान उपजता है। तब उन्हें पता चलता है, ‘इस परिस्थिति से कारण मेरा ज्ञान उपजा है!’ कोई इस तरीके से भी जान लेता है कि नजरिया पहले उपजता है, फिर ज्ञान पश्चात में। नजरिए के उपजने से ही ज्ञान उपजता है।”
“भंते, क्या नजरिया व्यक्ति का आत्मा [=आत्म, स्वयं का अपना] होता है? अथवा नजरिया भिन्न है और आत्मा भिन्न?”
“किन्तु पोट्ठपाद, तुम आत्मा किसे समझते हो?”
“भंते, मैं आत्मा को स्थूल, रूपयुक्त, चार महाभूतों से बनी हुई, निवाले चबाकर खाने वाली मानता हूँ।”
“यदि, पोट्ठपाद, तुम्हारी आत्मा स्थूल, रूपयुक्त, चार महाभूतों से बनी हुई, निवाले चबाकर खाने वाली हो, तो उस मामले में नजरिया भिन्न होगा और आत्मा भिन्न। इस तरीके से भी पता चलता है कि नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न। और पोट्ठपाद, जब तक इस तरह की स्थूल, रूपयुक्त, चार महाभूतों से बनी हुई, निवाले चबाकर खाने वाली आत्मा बनी रहती है, तब तक व्यक्ति के लिए एक भिन्न नजरिया उपजता है, और एक भिन्न नजरिया खत्म होता है। इस तरीके से भी पता चलता है कि कैसे नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न।”
“भंते, मैं आत्मा को मन से रची, [तमाम] अंग-प्रत्यंग से परिपूर्ण मानता हूँ, जो हीन इंद्रियों वाली नहीं होती।”
“यदि, पोट्ठपाद, तुम्हारी आत्मा मन से रची, अंग-प्रत्यंग से परिपूर्ण हो, जो हीन इंद्रियों वाली न हो, तो उस मामले में नजरिया भिन्न होगा और आत्मा भिन्न। इस तरीके से भी पता चलता है कि नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न। और पोट्ठपाद, जब तक इस तरह की मन से रची, अंग-प्रत्यंग से परिपूर्ण, न हीन इंद्रियों वाली आत्मा बनी रहती है, तब तक व्यक्ति के लिए एक भिन्न नजरिया उपजता है, और एक भिन्न नजरिया खत्म होता है। इस तरीके से भी पता चलता है कि कैसे नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न।”
“भंते, मैं आत्मा को अरूप [=निराकार, अ-भौतिक], नजरिए से रची [=संज्ञामय] मानता हूँ।”
“यदि, पोट्ठपाद, तुम्हारी आत्मा अरूप, नजरिए से रची हो, तो उस मामले में भी नजरिया भिन्न होगा और आत्मा भिन्न। इस तरीके से भी पता चलता है कि नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न। और पोट्ठपाद, जब तक इस तरह की अरूप, नजरिए से रची आत्मा बनी रहती है, तब तक व्यक्ति के लिए एक भिन्न नजरिया उपजता है, और एक भिन्न नजरिया खत्म होता है। इस तरीके से भी पता चलता है कि कैसे नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न।”
“किन्तु भंते, क्या मैं जान सकता हूँ: ‘नजरिया ही व्यक्ति की आत्मा होती है,’ अथवा ‘नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न’?”
“चूँकि तुम्हारी दृष्टि भिन्न है, धारणा भिन्न है, रुचि भिन्न है, अभ्यास भिन्न है, आचार्य भिन्न है, पोट्ठपाद, इसलिए तुम्हारे लिए यह जानना कठिन होगा: ‘नजरिया ही व्यक्ति की आत्मा होती है,’ अथवा ‘नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न’?”
“भंते, चूँकि मेरी दृष्टि भिन्न है, धारणा भिन्न है, रुचि भिन्न है, अभ्यास भिन्न है, आचार्य भिन्न है, इसलिए मेरे लिए यह जानना कठिन होगा: ‘नजरिया ही व्यक्ति की आत्मा होती है,’ अथवा ‘नजरिया भिन्न होता है और आत्मा भिन्न’? [ठीक है, तब बताएँ] भंते, आपको क्या लगता है: ‘क्या लोक शाश्वत [=नित्य] है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ?’”
“इसे, पोट्ठपाद, मैंने प्रकट नहीं किया है: ‘लोक शाश्वत है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ।’”
“तब भंते, आपको क्या लगता है: ‘क्या लोक अशाश्वत [=अनित्य] है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ?’”
“इसे भी, पोट्ठपाद, मैंने प्रकट नहीं किया है: ‘लोक अशाश्वत है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ।’”
“तब भंते, आपको क्या लगता है: ‘क्या लोक सीमित है… क्या लोक अनन्त है… क्या जीव और शरीर एक हैं… क्या जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं… क्या तथागत मरणोपरान्त [अस्तित्व में] होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त नहीं होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त होते भी है और नहीं भी… क्या तथागत मरणोपरान्त न होते है और न भी नहीं होते है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ?’”
“इन्हे भी, पोट्ठपाद, मैंने प्रकट नहीं किया है: ‘क्या लोक सीमित है… क्या लोक अनन्त है… क्या जीव और शरीर एक हैं… क्या जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं… क्या तथागत मरणोपरान्त होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त नहीं होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त होते भी है और नहीं भी… क्या तथागत मरणोपरान्त न होते है और न भी नहीं होते है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ।’”
“किन्तु भंते, भगवान ने इन्हें प्रकट क्यों नहीं किया है?”
“क्योंकि, पोट्ठपाद, वे [बातें] न ध्येय से संबंधित हैं, न धर्म से संबंधित हैं, न ब्रह्मचर्य-मूल से ही संबंधित हैं। उनसे न मोहभंग होता है, न वैराग्य होता है, न निरोध होता है, न प्रशान्ति मिलती है, न प्रत्यक्ष-ज्ञान मिलता है, न संबोधि मिलती है, न ही निर्वाण मिलता है। इसलिए मैंने उन्हें प्रकट नहीं किया है।”
“तब भंते, भगवान ने क्या प्रकट किया है?”
“ऐसा दुःख [=कष्ट] है, यह मैंने प्रकट किया है। ऐसी दुःख की उत्पत्ति है, यह मैंने प्रकट किया है। ऐसा दुःख का निरोध है, यह मैंने प्रकट किया है। ऐसी दुःख-निरोध साधना है, यह मैंने प्रकट किया है।”
“किन्तु भंते, भगवान ने इन्हें क्यों प्रकट किया है?”
“क्योंकि, पोट्ठपाद, वे [बातें] ध्येय से संबंधित हैं, धर्म से संबंधित हैं, ब्रह्मचर्य-मूल से संबंधित हैं। उनसे मोहभंग होता है, वैराग्य होता है, निरोध होता है, प्रशान्ति मिलती है, प्रत्यक्ष-ज्ञान मिलता है, संबोधि मिलती है, निर्वाण मिलता है। इसलिए मैंने उन्हें प्रकट किया है।”
“ऐसा ही [सच] है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत! तब भगवान जिसका उचित समय समझे।”
तब भगवान आसन से उठकर चले गए। भगवान के जाने पर जल्द ही सभी घुमक्कड़ घेरकर पोट्ठपाद घुमक्कड़ पर व्यंग कसने लगे, उपहास बनाने लगे, “जो-जो श्रमण गौतम बोलते है, पोट्ठपाद, आप इस तरह उसका अनुमोदन करते है — ‘ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत!’ किन्तु हम तो नहीं जान पाए कि श्रमण गौतम ने इन्हें लेकर कौन-सी निर्णायक सीख दी है — ‘क्या लोक शाश्वत है… क्या लोक अशाश्वत है… क्या लोक सीमित है… क्या लोक अनन्त है… क्या जीव और शरीर एक हैं… क्या जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं… क्या तथागत मरणोपरान्त होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त नहीं होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त होते भी है और नहीं भी… क्या तथागत मरणोपरान्त न होते है और न भी नहीं होते है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ?’”
जब ऐसा कहा गया, तो पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने उन घुमक्कड़ों से कहा, “मैं भी नहीं जान पाया हूँ कि श्रमण गौतम ने इन्हें लेकर कौन-सी निर्णायक सीख दी है — ‘क्या लोक शाश्वत है… क्या लोक अशाश्वत है… [इत्यादि]’ किन्तु तब भी श्रमण गौतम ने यथार्थ, सच्ची और तथ्यात्मक साधना बताई, जो धर्म पर आधारित है, धर्म के नियम से है। और जब यथार्थ, सच्ची और तथ्यात्मक साधना बताई जाए, जो धर्म पर आधारित हो, धर्म के नियम से हो, तब उस श्रमण गौतम द्वारा बताई भली बात को मेरे जैसा जानकार ‘भली बात’ कहकर क्यों अनुमोदन नहीं करेगा?”
तब दो-तीन दिन बीतने पर, चित्त हत्थिसारिपुत्त [=हाथी प्रशिक्षक का पुत्र] और पोट्ठपाद घुमक्कड़ भगवान के पास गए। हत्थिसारिपुत्त चित्त ने भगवान को अभिवादन किया, और एक ओर बैठ गया। पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान से मैत्रीपूर्ण वार्तालाप किया, और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठते हुए पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “भंते! उस दिन भगवान के आसन से उठकर चले जाने पर जल्द ही सभी घुमक्कड़ घेरकर मुझ पर व्यंग कसने लगे, उपहास बनाने लगे, ‘जो-जो श्रमण गौतम बोलते है, पोट्ठपाद, आप इस तरह उसका अनुमोदन करते है — ‘ऐसा ही है, भगवान! ऐसा ही है, सुगत!’ किन्तु हम तो नहीं जान पाए कि श्रमण गौतम ने इन्हें लेकर कौन-सी निर्णायक सीख दी है — ‘क्या लोक शाश्वत है… क्या लोक अशाश्वत है… [इत्यादि]’ जब ऐसा कहा गया, तो मैंने उन घुमक्कड़ों से कहा, “मैं भी नहीं जान पाया हूँ कि श्रमण गौतम ने इन्हें लेकर कौन-सी निर्णायक सीख दी है — ‘क्या लोक शाश्वत है… क्या लोक अशाश्वत है… [इत्यादि]’ किन्तु तब भी श्रमण गौतम ने यथार्थ, सच्ची और तथ्यात्मक साधना बताई, जो धर्म पर आधारित है, धर्म के नियम से है। और जब यथार्थ, सच्ची और तथ्यात्मक साधना बताई जाए, जो धर्म पर आधारित हो, धर्म के नियम से हो, तब उस श्रमण गौतम द्वारा बताई भली बात को मेरे जैसा जानकार ‘भली बात’ कहकर क्यों अनुमोदन नहीं करेगा?’”
[भगवान ने कहा:] “पोट्ठपाद, वे सभी घुमक्कड़ अंधे हैं, चुक्षहीन हैं। तुम ही मात्र चक्षुमान हो। क्योंकि, पोट्ठपाद, मैंने धर्म निर्णायक बताकर दर्शाएँ है, और मैंने धर्म अनिर्णायक बताकर भी दर्शाएँ है। मैंने कौन-से धर्म अनिर्णायक बताकर दर्शाएँ है? ‘क्या लोक शाश्वत है… क्या लोक अशाश्वत है… क्या लोक सीमित है… क्या लोक अनन्त है… क्या जीव और शरीर एक हैं… क्या जीव और शरीर भिन्न-भिन्न हैं… क्या तथागत मरणोपरान्त होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त नहीं होते है… क्या तथागत मरणोपरान्त होते भी है और नहीं भी… क्या तथागत मरणोपरान्त न होते है और न भी नहीं होते है — यही मात्र सच है, बाकी सब तुच्छ?’ मैंने ये धर्म अनिर्णायक बताकर दर्शाएँ है।
और पोट्ठपाद, क्यों मैंने ये धर्म अनिर्णायक बताकर दर्शाएँ है? क्योंकि वे न ध्येय से संबंधित हैं, न धर्म से संबंधित हैं, न ब्रह्मचर्य-मूल से ही संबंधित हैं। उनसे न मोहभंग होता है, न वैराग्य होता है, न निरोध होता है, न प्रशान्ति मिलती है, न प्रत्यक्ष-ज्ञान मिलता है, न संबोधि मिलती है, न ही निर्वाण मिलता है। इसलिए मैंने ये धर्म अनिर्णायक बताकर दर्शाएँ है।”
और पोट्ठपाद, मैंने कौन-से धर्म निर्णायक बताकर दर्शाएँ है? ‘ऐसा दुःख है’ — यह मैंने निर्णायक धर्म बताकर दर्शाया है। ‘ऐसी दुःख की उत्पत्ति है’ — यह मैंने निर्णायक धर्म बताकर दर्शाया है। ‘ऐसा दुःख का निरोध है’ — यह मैंने निर्णायक धर्म बताकर दर्शाया है। ‘ऐसी दुःख-निरोध साधना है’ — यह मैंने निर्णायक धर्म बताकर दर्शाया है।
और पोट्ठपाद, क्यों मैंने ये निर्णायक धर्म बताकर दर्शाएँ है? क्योंकि वे ध्येय से संबंधित हैं, धर्म से संबंधित हैं, ब्रह्मचर्य-मूल से संबंधित हैं। उनसे मोहभंग होता है, वैराग्य होता है, निरोध होता है, प्रशान्ति मिलती है, प्रत्यक्ष-ज्ञान मिलता है, संबोधि मिलती है, निर्वाण मिलता है। इसलिए मैंने ये धर्म निर्णायक बताकर दर्शाएँ है।
पोट्ठपाद, कुछ श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं: ‘मरणोपरान्त आत्मा [अनन्य रूप से] केवल सुखी और निरोगी होती है।’ मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या यह सच है कि आप आयुष्मान [=आदरणीय] की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि है: ‘मरणोपरान्त आत्मा केवल सुखी और निरोगी होती है’? मेरे पुछने पर वे “हाँ!” कहकर स्वीकारते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान ऐसा ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक जानते हुए, देखते हुए विहार करते हैं?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान एक दिन या एक रात, अथवा आधा दिन या आधी रात तक ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ आत्मा का बोध करते है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान जानते है: ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने का यह मार्ग है, यह साधना है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान को ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हुए देवताओं के ऐसे शब्द सुनाई देते है, “‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने के लिए सुमार्ग पर चलिए, श्रीमान! सीधे मार्ग पर चलिए, श्रीमान! क्योंकि ऐसे ही मार्ग पर चलकर हम भी ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हैं”?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”
“कल्पना करो, पोट्ठपाद, कोई पुरुष कहे, “जो इस देश की सबसे खूबसूरत स्त्री है, मैं उसे चाहता हूँ, उसकी कामना करता हूँ!” तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! देश की जिस सबसे खूबसूरत स्त्री को तुम चाहते हो, कामना करते हो, क्या तुम जानते हो कि वह क्षत्रिय है, या ब्राह्मण है, या वैश्य है, अथवा शूद्र है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! देश की जिस सबसे खूबसूरत स्त्री को तुम चाहते हो, कामना करते हो, क्या तुम जानते हो कि उसका नाम क्या है, गोत्र क्या है, क्या लंबी है, या नाटी है, अथवा मजले-कद की है? क्या काली है, या साँवली है, अथवा गोरी [स्वर्ण-वर्ण की] त्वचा है? किस गाँव से है, या नगर से है, अथवा शहर से है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! तुम जिसे चाहते हो, कामना करते हो, क्या उसे जानते भी हो? क्या उसे देखा भी है?” ऐसा पुछने पर वह “हाँ!” कहता है। तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार ही है।”
“उसी तरह, पोट्ठपाद, कुछ श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं: ‘मरणोपरान्त आत्मा केवल सुखी और निरोगी होती है।’ मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या यह सच है कि आप आयुष्मान की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि है: ‘मरणोपरान्त आत्मा केवल सुखी और निरोगी होती है’? मेरे पुछने पर वे “हाँ!” कहकर स्वीकारते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान ऐसा ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक जानते हुए, देखते हुए विहार करते हैं?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान एक दिन या एक रात, अथवा आधा दिन या आधी रात तक ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ आत्मा का बोध करते है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान जानते है: ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने का यह मार्ग है, यह साधना है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान को ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हुए देवताओं के ऐसे शब्द सुनाई देते है, “‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने के लिए सुमार्ग पर चलिए, श्रीमान! सीधे मार्ग पर चलिए, श्रीमान! क्योंकि ऐसे ही मार्ग पर चलकर हम भी ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हैं”?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”
“कल्पना करो, पोट्ठपाद, कोई पुरुष चौराहे पर सीढ़ी का निर्माण करे, जो किसी महल पर चढ़ने के लिए हो। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! जिस महल पर चढ़ने के लिए तुम सीढ़ी का निर्माण कर रहे हो, क्या तुम जानते हो कि वह महल पूर्व-दिशा में है, या दक्षिण-दिशा में है, या पश्चिम-दिशा में है, अथवा उत्तर-दिशा में है? क्या वह महल ऊँचा है, या नीचा है, अथवा मजले-स्तर का है?” ऐसा पुछने पर वह “नहीं!” कहता है। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! जिस महल पर चढ़ने के लिए तुम सीढ़ी का निर्माण कर रहे हो, क्या उसे जानते भी हो? क्या उसे देखा भी है?” ऐसा पुछने पर वह “हाँ!” कहता है। तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना निराधार ही है।”
“उसी तरह, पोट्ठपाद, कुछ श्रमण और ब्राह्मणों की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि होती हैं: ‘मरणोपरान्त आत्मा केवल सुखी और निरोगी होती है।’ मैं उनके पास जाकर कहता हूँ, “क्या यह सच है कि आप आयुष्मान की ऐसी धारणा, ऐसी दृष्टि है: ‘मरणोपरान्त आत्मा केवल सुखी और निरोगी होती है’? मेरे पुछने पर वे “हाँ!” कहकर स्वीकारते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान ऐसा ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक जानते हुए, देखते हुए विहार करते हैं?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान एक दिन या एक रात, अथवा आधा दिन या आधी रात तक ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ आत्मा का बोध करते है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान जानते है: ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने का यह मार्ग है, यह साधना है?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब मैं उन्हें कहता हूँ, “किन्तु क्या आप आयुष्मान को ऐसे ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हुए देवताओं के ऐसे शब्द सुनाई देते है, “‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक का साक्षात्कार करने के लिए सुमार्ग पर चलिए, श्रीमान! सीधे मार्ग पर चलिए, श्रीमान! क्योंकि ऐसे ही मार्ग पर चलकर हम भी ‘केवल सुखी और निरोगी’ लोक में उपजे हैं”?” ऐसा पुछने पर वे “नहीं!” कहते हैं। तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उन श्रमण और ब्राह्मणों का कहना निराधार ही है।”
“तीन तरह से, पोट्ठपाद, आत्मा की प्राप्ति [=आत्म-प्राप्ति] होती है — स्थूल आत्मा की प्राप्ति, मन से रची आत्मा की प्राप्ति, और अरूप आत्मा की प्राप्ति। स्थूल आत्मा की प्राप्ति क्या होती है? रूपयुक्त, चार महाभूतों से बनी हुई, निवाले चबाकर खाने वाली — स्थूल आत्मा की प्राप्ति है। मन से रची आत्मा की प्राप्ति क्या है? रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं — मन से रची आत्मा की प्राप्ति है। अरूप आत्मा की प्राप्ति क्या है? अरूप [=निराकार], नजरिए से रची हुई — अरूप आत्मा की प्राप्ति है।
पोट्ठपाद, मैं स्थूल आत्मप्राप्ति को त्यागने का धर्म सिखाता हूँ: “इस तरह की साधना कर के दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, [स्वच्छ करने वाले] उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा।” हो सकता है, पोट्ठपाद, तुम्हें लगे, “दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब ऐसे जीना दुःखपूर्ण होगा!” किन्तु पोट्ठपाद, ऐसे मत देखों। बल्कि जब दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब केवल प्रसन्नता होगी, प्रफुल्लता होगी, प्रशान्ति होगी, स्मरणशीलता होगी, सचेतता होगी, और ऐसे जीना सुखपूर्वक होगा!
और पोट्ठपाद, मैं मन से रची आत्मप्राप्ति को त्यागने का धर्म सिखाता हूँ: “इस तरह की साधना कर के दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा।” हो सकता है, पोट्ठपाद, तुम्हें लगे, “दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब ऐसे जीना दुःखपूर्ण होगा!” किन्तु पोट्ठपाद, ऐसे मत देखों। बल्कि जब दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब केवल प्रसन्नता होगी, प्रफुल्लता होगी, प्रशान्ति होगी, स्मरणशीलता होगी, सचेतता होगी, और ऐसे जीना सुखपूर्वक होगा!
और पोट्ठपाद, मैं अरूप आत्मप्राप्ति को त्यागने का धर्म सिखाता हूँ: “इस तरह की साधना कर के दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा।” हो सकता है, पोट्ठपाद, तुम्हें लगे, “दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब ऐसे जीना दुःखपूर्ण होगा!” किन्तु पोट्ठपाद, ऐसे मत देखों। बल्कि जब दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा — तब केवल प्रसन्नता होगी, प्रफुल्लता होगी, प्रशान्ति होगी, स्मरणशीलता होगी, सचेतता होगी, और ऐसे जीना सुखपूर्वक होगा!
और, पोट्ठपाद, यदि कोई हमसे पुछता है, “किन्तु, मित्र, तुम कौन-से स्थूल आत्मप्राप्ति को… कौन-से मन से रची आत्मप्राप्ति को… और कौन-से अरूप आत्मप्राप्ति को त्यागने का धर्म सिखाते हो, जिस पर चलकर दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा?” ऐसा पूछा जाने पर मैं कहता हूँ, “मैं इस स्थूल आत्मप्राप्ति को… इस मन से रची आत्मप्राप्ति को… और इस अरूप आत्मप्राप्ति को त्यागने का धर्म सिखाता हूँ, जिस पर चलकर दूषित-धर्म त्यागे जाएँगे, उजालेदार-धर्म बढ़ते जाएँगे, अन्तर्ज्ञान को विपुलता और परिपूर्णता प्राप्त होगी, और इसी जीवन में स्वयं प्रत्यक्ष जानकर, साक्षात्कार कर विहार होगा!” तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? जब ऐसा हो तो ऐसा कहना प्रमाणित [=जो साबित हो सके] है?”
“निश्चित ही, भंते। जब ऐसा हो तो ऐसा कहना प्रमाणित ही है।”
“कल्पना करो, पोट्ठपाद, कोई पुरुष चौराहे पर किसी महल पर चढ़ने के लिए उसी के नीचे सीढ़ी का निर्माण करे। तब लोग उसे कहते हैं, “अच्छा, भले आदमी! जिस महल पर चढ़ने के लिए तुम सीढ़ी का निर्माण कर रहे हो, क्या तुम जानते हो कि वह महल पूर्व-दिशा में है, या दक्षिण-दिशा में है, या पश्चिम-दिशा में है, अथवा उत्तर-दिशा में है? क्या वह महल ऊँचा है, या नीचा है, अथवा मजले-स्तर का है?” ऐसा पुछने पर वह कहता है, “मित्रों, यह है वह महल, जिस पर चढ़ने के लिए मैं सीढ़ी का निर्माण कर रहा हूँ!” तब तुम्हें क्या लगता है, पोट्ठपाद? क्या ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना प्रमाणित है?”
“निश्चित ही, भंते। ऐसा हो तो उस पुरुष का कहना प्रमाणित ही है।”
ऐसा कहा जाने पर चित्त हत्थिसारिपुत्र ने भगवान से कहा, “भंते, जिस समय स्थूल आत्मा की प्राप्ति होती है, क्या उस समय मन से रची आत्मप्राप्ति और अरूप आत्मप्राप्ति निकम्मे [=निष्प्रभाव] होते हैं, और केवल स्थूल आत्म-प्राप्ति ही सच्ची होती है? और जिस समय मन से रची आत्मा की प्राप्ति होती है, क्या उस समय स्थूल आत्मप्राप्ति और अरूप आत्मप्राप्ति निकम्मे होते हैं, और केवल मन से रची आत्म-प्राप्ति ही सच्ची होती है? और जिस समय अरूप आत्मा की प्राप्ति होती है, क्या उस समय स्थूल आत्मप्राप्ति और मन से रची आत्मप्राप्ति निकम्मे होते हैं, और केवल अरूप आत्म-प्राप्ति ही सच्ची होती है?”
“चित्त, जिस समय स्थूल आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘स्थूल आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय मन से रची आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘मन से रची आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय अरूप आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘अरूप आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है।
यदि, चित्त, कोई तुमसे पुछे कि “क्या तुम अतीत में थे? कही नहीं तो नहीं थे? क्या तुम भविष्य में रहोगे? कही नहीं तो नहीं रहोगे? क्या तुम अभी [वर्तमान में] हो? कही नहीं तो नहीं हो?” ऐसा पूछा जाने पर तुम कैसे उत्तर दोगे?”
“भंते, ऐसा पूछा जाने पर मैं उत्तर दूँगा, “हाँ, मैं अतीत में था, निश्चित ही था। मैं भविष्य में रहूँगा, निश्चित ही रहूँगा। मैं अभी हूँ, निश्चित ही हूँ!” इस तरह, भंते, मैं उत्तर दूँगा।”
“किन्तु यदि, चित्त, कोई तुमसे पुछे कि “जो अतीत में तुम्हें आत्म-प्राप्ति हुई थी, क्या वही आत्म-प्राप्ति सच्ची थी, जबकि भविष्य और वर्तमान की निकम्मी थी? जो भविष्य में तुम्हें आत्म-प्राप्ति होगी, क्या वही आत्म-प्राप्ति सच्ची होगी, जबकि अतीत और वर्तमान की निकम्मी होगी?” जो अभी तुम्हें आत्म-प्राप्ति हुई है, क्या वही आत्म-प्राप्ति सच्ची है, जबकि अतीत और भविष्य की निकम्मी हैं?” ऐसा पूछा जाने पर तुम कैसे उत्तर दोगे?”
“भंते, ऐसा पूछा जाने पर मैं उत्तर दूँगा, “जो अतीत में मुझे आत्म-प्राप्ति हुई थी, उस समय वही आत्म-प्राप्ति सच्ची थी, जबकि भविष्य और वर्तमान की निकम्मी थी। जो भविष्य में मुझे आत्म-प्राप्ति होगी, उस समय वही आत्म-प्राप्ति सच्ची होगी, जबकि अतीत और वर्तमान की निकम्मी होगी। जो अभी मुझे आत्म-प्राप्ति हुई है, इस समय यही आत्म-प्राप्ति सच्ची है, जबकि भविष्य और वर्तमान की निकम्मी हैं।” इस तरह, भंते, मैं उत्तर दूँगा।”
“उसी तरह, चित्त, जिस समय स्थूल आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘स्थूल आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय मन से रची आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘मन से रची आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय अरूप आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘अरूप आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है।
जैसे गाय से दूध आता है, दूध से दही, दही से मक्खन, मक्खन से घी, घी से घी-मण्ड [=घी से निकलने वाली पारदर्शक परत।] जब दूध होता है, तब उस समय उसे दही, मक्खन, घी, अथवा घी-मण्ड नहीं समझा जाता है। तब उसे केवल ‘दूध’ ही समझा जाता है। जब दही होती है, तब उस समय उसे दूध, मक्खन, घी, अथवा घी-मण्ड नहीं समझा जाता है। तब उसे केवल ‘दही’ ही समझा जाता है। जब मक्खन होता है, तब उस समय उसे दूध, दही, घी, अथवा घी-मण्ड नहीं समझा जाता है। तब उसे केवल ‘मक्खन’ ही समझा जाता है। जब घी होता है, तब उस समय उसे दूध, दही, मक्खन, अथवा घी-मण्ड नहीं समझा जाता है। तब उसे केवल ‘घी’ ही समझा जाता है। जब घी-मण्ड होता है, तब उस समय उसे दूध, दही, मक्खन, अथवा घी नहीं समझा जाता है। तब उसे केवल ‘घी-मण्ड’ ही समझा जाता है।
उसी तरह, जिस समय स्थूल आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘स्थूल आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय मन से रची आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘अरूप आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘मन से रची आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है। और जिस समय अरूप आत्मा की प्राप्ति होती है, उस समय उसे ‘स्थूल आत्मप्राप्ति’ नहीं समझा जाता है, और न ही उसे ‘मन से रची आत्मप्राप्ति’ समझा जाता हैं। तब उसे केवल ‘अरूप आत्म-प्राप्ति’ ही समझा जाता है।
और चित्त, ये लौकिक शब्दावली हैं, लौकिक भाषा हैं, लौकिक वाक्यों में उपयोग हैं, लौकिक वर्णन हैं, जिनका तथागत वाक्यों में उपयोग करते है, किन्तु उनमें लिप्त नहीं होते।”
ऐसा कहा जाने पर पोट्ठपाद घुमक्कड़ ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भगवान मुझे आज से लेकर प्राण रहने तक शरणागत उपासक धारण करें!”
तब चित्त हत्थिसारिपुत्र ने भगवान से कहा, “अतिउत्तम, भन्ते! अतिउत्तम! जैसे कोई पलटे को सीधा करे, छिपे को खोल दे, भटके को मार्ग दिखाए, या अँधेरे में दीप जलाकर दिखाए, ताकि तेज आँखों वाला स्पष्ट देख पाए — उसी तरह भगवान ने धर्म को अनेक तरह से स्पष्ट कर दिया। मैं बुद्ध की शरण जाता हूँ! धर्म की और संघ की भी! भन्ते, क्या मुझे प्रवज्जा [=सन्यास की धर्मदीक्षा], और भगवान की उपस्थिती में [भिक्षु बनने की] उपसंपदा मिलेगी?”
तब चित्त हत्थिसारिपुत्र को भगवान की उपस्थिती में प्रवज्जा और उपसंपदा भी मिल गयी। तब उपसंपदा पाए अधिक समय नहीं बीता था, जब चित्त हत्थिसारिपुत्र भंते निर्लिप्त-एकांतवास लेकर फ़िक्रमन्द, सचेत और दृढ़निश्चयी होकर रहते हुए, जिस ध्येय से कुलपुत्र घर से बेघर होकर प्रवज्यित होते हैं, उस ब्रह्मचर्य की सर्वोच्च मंज़िल पर पहुँचकर वे स्थित हुए। उन्होंने स्वयं जाना, साक्षात्कार किया, और उन्हें पता चला — ‘जन्म समाप्त हुए! ब्रह्मचर्य परिपूर्ण हुआ! जो करना था, सो कर लिया! अभी यहाँ करने के लिए कुछ बचा नहीं!’ इस तरह, [अनेक] अर्हन्तों में एक भन्ते आयुष्मान चित्त हत्थिसारिपुत्र हुए।
पोट्ठपादपरिब्बाजकवत्थु
४०६. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा सावत्थियं विहरति जेतवने अनाथपिण्डिकस्स आरामे। तेन खो पन समयेन पोट्ठपादो परिब्बाजको समयप्पवादके तिन्दुकाचीरे एकसालके मल्लिकाय आरामे पटिवसति महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं तिंसमत्तेहि परिब्बाजकसतेहि। अथ खो भगवा पुब्बण्हसमयं निवासेत्वा पत्तचीवरमादाय सावत्थिं पिण्डाय पाविसि।
४०७. अथ खो भगवतो एतदहोसि – ‘‘अतिप्पगो खो ताव सावत्थियं पिण्डाय चरितुं। यंनूनाहं येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो, येन पोट्ठपादो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमेय्य’’न्ति। अथ खो भगवा येन समयप्पवादको तिन्दुकाचीरो एकसालको मल्लिकाय आरामो तेनुपसङ्कमि।
४०८. तेन खो पन समयेन पोट्ठपादो परिब्बाजको महतिया परिब्बाजकपरिसाय सद्धिं निसिन्नो होति उन्नादिनिया उच्चासद्दमहासद्दाय अनेकविहितं तिरच्छानकथं कथेन्तिया। सेय्यथिदं – राजकथं चोरकथं महामत्तकथं सेनाकथं भयकथं युद्धकथं अन्नकथं पानकथं वत्थकथं सयनकथं मालाकथं गन्धकथं ञातिकथं यानकथं गामकथं निगमकथं नगरकथं जनपदकथं इत्थिकथं सूरकथं विसिखाकथं कुम्भट्ठानकथं पुब्बपेतकथं नानत्तकथं लोकक्खायिकं समुद्दक्खायिकं इतिभवाभवकथं इति वा।
४०९. अद्दसा खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं दूरतोव आगच्छन्तं; दिस्वान सकं परिसं सण्ठपेसि – ‘‘अप्पसद्दा भोन्तो होन्तु, मा भोन्तो सद्दमकत्थ। अयं समणो गोतमो आगच्छति। अप्पसद्दकामो खो सो आयस्मा अप्पसद्दस्स वण्णवादी। अप्पेव नाम अप्पसद्दं परिसं विदित्वा उपसङ्कमितब्बं मञ्ञेय्या’’ति। एवं वुत्ते ते परिब्बाजका तुण्ही अहेसुं।
४१०. अथ खो भगवा येन पोट्ठपादो परिब्बाजको तेनुपसङ्कमि। अथ खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘एतु खो, भन्ते, भगवा। स्वागतं, भन्ते, भगवतो। चिरस्सं खो, भन्ते, भगवा इमं परियायमकासि, यदिदं इधागमनाय। निसीदतु, भन्ते, भगवा, इदं आसनं पञ्ञत्त’’न्ति।
निसीदि भगवा पञ्ञत्ते आसने। पोट्ठपादोपि खो परिब्बाजको अञ्ञतरं नीचं आसनं गहेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नं खो पोट्ठपादं परिब्बाजकं भगवा एतदवोच – ‘‘काय नुत्थ [काय नोत्थ (स्या॰ क॰)], पोट्ठपाद, एतरहि कथाय सन्निसिन्ना, का च पन वो अन्तराकथा विप्पकता’’ति?
अभिसञ्ञानिरोधकथा
४११. एवं वुत्ते पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तिट्ठतेसा, भन्ते, कथा, याय मयं एतरहि कथाय सन्निसिन्ना। नेसा, भन्ते, कथा भगवतो दुल्लभा भविस्सति पच्छापि सवनाय। पुरिमानि, भन्ते, दिवसानि पुरिमतरानि, नानातित्थियानं समणब्राह्मणानं कोतूहलसालाय सन्निसिन्नानं सन्निपतितानं अभिसञ्ञानिरोधे कथा उदपादि – ‘कथं नु खो, भो, अभिसञ्ञानिरोधो होती’ति? तत्रेकच्चे एवमाहंसु – ‘अहेतू अप्पच्चया पुरिसस्स सञ्ञा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपि। यस्मिं समये उप्पज्जन्ति, सञ्ञी तस्मिं समये होति। यस्मिं समये निरुज्झन्ति, असञ्ञी तस्मिं समये होती’ति। इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञपेन्ति।
‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘न खो पन मेतं [न खो नामेतं (सी॰ पी॰)], भो, एवं भविस्सति। सञ्ञा हि, भो, पुरिसस्स अत्ता। सा च खो उपेतिपि अपेतिपि। यस्मिं समये उपेति, सञ्ञी तस्मिं समये होति। यस्मिं समये अपेति, असञ्ञी तस्मिं समये होती’ति। इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञपेन्ति।
‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘न खो पन मेतं, भो, एवं भविस्सति। सन्ति हि, भो, समणब्राह्मणा महिद्धिका महानुभावा। ते इमस्स पुरिसस्स सञ्ञं उपकड्ढन्तिपि अपकड्ढन्तिपि। यस्मिं समये उपकड्ढन्ति, सञ्ञी तस्मिं समये होति। यस्मिं समये अपकड्ढन्ति, असञ्ञी तस्मिं समये होती’ति। इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञपेन्ति।
‘‘तमञ्ञो एवमाह – ‘न खो पन मेतं, भो, एवं भविस्सति। सन्ति हि, भो, देवता महिद्धिका महानुभावा। ता इमस्स पुरिसस्स सञ्ञं उपकड्ढन्तिपि अपकड्ढन्तिपि। यस्मिं समये उपकड्ढन्ति, सञ्ञी तस्मिं समये होति। यस्मिं समये अपकड्ढन्ति, असञ्ञी तस्मिं समये होती’ति। इत्थेके अभिसञ्ञानिरोधं पञ्ञपेन्ति।
‘‘तस्स मय्हं, भन्ते, भगवन्तंयेव आरब्भ सति उदपादि – ‘अहो नून भगवा, अहो नून सुगतो, यो इमेसं धम्मानं सुकुसलो’ति। भगवा, भन्ते, कुसलो, भगवा पकतञ्ञू अभिसञ्ञानिरोधस्स। कथं नु खो, भन्ते, अभिसञ्ञानिरोधो होती’’ति?
सहेतुकसञ्ञुप्पादनिरोधकथा
४१२. ‘‘तत्र, पोट्ठपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवमाहंसु – ‘अहेतू अप्पच्चया पुरिसस्स सञ्ञा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपी’ति, आदितोव तेसं अपरद्धं। तं किस्स हेतु? सहेतू हि, पोट्ठपाद, सप्पच्चया पुरिसस्स सञ्ञा उप्पज्जन्तिपि निरुज्झन्तिपि। सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति’’।
४१३. ‘‘का च सिक्खा’’ति? भगवा अवोच – ‘‘इध, पोट्ठपाद, तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं, सम्मासम्बुद्धो…पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु, एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, पोट्ठपाद, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… तस्सिमे पञ्चनीवरणे पहीने अत्तनि समनुपस्सतो पामोज्जं जायति, पमुदितस्स पीति जायति, पीतिमनस्स कायो पस्सम्भति, पस्सद्धकायो सुखं वेदेति, सुखिनो चित्तं समाधियति। सो विविच्चेव कामेहि, विविच्च अकुसलेहि धम्मेहि, सवितक्कं सविचारं विवेकजं पीतिसुखं पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा कामसञ्ञा, सा निरुज्झति। विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, विवेकजपीतिसुखसुखुम-सच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयं सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु वितक्कविचारानं वूपसमा अज्झत्तं सम्पसादनं चेतसो एकोदिभावं अवितक्कं अविचारं समाधिजं पीतिसुखं दुतियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा विवेकजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति। समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु पीतिया च विरागा उपेक्खको च विहरति सतो च सम्पजानो, सुखञ्च कायेन पटिसंवेदेति, यं तं अरिया आचिक्खन्ति – ‘‘उपेक्खको सतिमा सुखविहारी’’ति, ततियं झानं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा समाधिजपीतिसुखसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति। उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सुखस्स च पहाना दुक्खस्स च पहाना पुब्बेव सोमनस्सदोमनस्सानं अत्थङ्गमा अदुक्खमसुखं उपेक्खासतिपारिसुद्धिं चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा उपेक्खासुखसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति। अदुक्खमसुखसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, अदुक्खमसुखसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सब्बसो रूपसञ्ञानं समतिक्कमा पटिघसञ्ञानं अत्थङ्गमा नानत्तसञ्ञानं अमनसिकारा ‘अनन्तो आकासो’ति आकासानञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा रूपसञ्ञा [पुरिमसञ्ञा (क॰)], सा निरुज्झति। आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सब्बसो आकासानञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘अनन्तं विञ्ञाण’न्ति विञ्ञाणञ्चायतनं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा आकासानञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति। विञ्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, विञ्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
‘‘पुन चपरं, पोट्ठपाद, भिक्खु सब्बसो विञ्ञाणञ्चायतनं समतिक्कम्म ‘नत्थि किञ्ची’ति आकिञ्चञ्ञायतनं उपसम्पज्ज विहरति। तस्स या पुरिमा विञ्ञाणञ्चायतनसुखुमसच्चसञ्ञा, सा निरुज्झति। आकिञ्चञ्ञायतनसुखुमसच्चसञ्ञा तस्मिं समये होति, आकिञ्चञ्ञायतनसुखुमसच्चसञ्ञीयेव तस्मिं समये होति। एवम्पि सिक्खा एका सञ्ञा उप्पज्जति, सिक्खा एका सञ्ञा निरुज्झति। अयम्पि सिक्खा’’ति भगवा अवोच।
४१४. ‘‘यतो खो, पोट्ठपाद, भिक्खु इध सकसञ्ञी होति, सो ततो अमुत्र ततो अमुत्र अनुपुब्बेन सञ्ञग्गं फुसति। तस्स सञ्ञग्गे ठितस्स एवं होति – ‘चेतयमानस्स मे पापियो, अचेतयमानस्स मे सेय्यो। अहञ्चेव खो पन चेतेय्यं, अभिसङ्खरेय्यं, इमा च मे सञ्ञा निरुज्झेय्युं, अञ्ञा च ओळारिका सञ्ञा उप्पज्जेय्युं; यंनूनाहं न चेव चेतेय्यं न च अभिसङ्खरेय्य’न्ति। सो न चेव चेतेति, न च अभिसङ्खरोति। तस्स अचेतयतो अनभिसङ्खरोतो ता चेव सञ्ञा निरुज्झन्ति, अञ्ञा च ओळारिका सञ्ञा न उप्पज्जन्ति। सो निरोधं फुसति। एवं खो, पोट्ठपाद, अनुपुब्बाभिसञ्ञानिरोध-सम्पजान-समापत्ति होति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, अपि नु ते इतो पुब्बे एवरूपा अनुपुब्बाभिसञ्ञानिरोध-सम्पजान-समापत्ति सुतपुब्बा’’ति? ‘‘नो हेतं, भन्ते। एवं खो अहं, भन्ते, भगवतो भासितं आजानामि – ‘यतो खो, पोट्ठपाद, भिक्खु इध सकसञ्ञी होति, सो ततो अमुत्र ततो अमुत्र अनुपुब्बेन सञ्ञग्गं फुसति, तस्स सञ्ञग्गे ठितस्स एवं होति – ‘‘चेतयमानस्स मे पापियो, अचेतयमानस्स मे सेय्यो। अहञ्चेव खो पन चेतेय्यं अभिसङ्खरेय्यं, इमा च मे सञ्ञा निरुज्झेय्युं, अञ्ञा च ओळारिका सञ्ञा उप्पज्जेय्युं; यंनूनाहं न चेव चेतेय्यं, न च अभिसङ्खरेय्य’’न्ति। सो न चेव चेतेति, न चाभिसङ्खरोति, तस्स अचेतयतो अनभिसङ्खरोतो ता चेव सञ्ञा निरुज्झन्ति, अञ्ञा च ओळारिका सञ्ञा न उप्पज्जन्ति। सो निरोधं फुसति। एवं खो, पोट्ठपाद, अनुपुब्बाभिसञ्ञानिरोध-सम्पजान-समापत्ति होती’’’ति। ‘‘एवं, पोट्ठपादा’’ति।
४१५. ‘‘एकञ्ञेव नु खो, भन्ते, भगवा सञ्ञग्गं पञ्ञपेति, उदाहु पुथूपि सञ्ञग्गे पञ्ञपेती’’ति? ‘‘एकम्पि खो अहं, पोट्ठपाद, सञ्ञग्गं पञ्ञपेमि, पुथूपि सञ्ञग्गे पञ्ञपेमी’’ति। ‘‘यथा कथं पन, भन्ते, भगवा एकम्पि सञ्ञग्गं पञ्ञपेति, पुथूपि सञ्ञग्गे पञ्ञपेती’’ति? ‘‘यथा यथा खो, पोट्ठपाद, निरोधं फुसति, तथा तथाहं सञ्ञग्गं पञ्ञपेमि। एवं खो अहं, पोट्ठपाद, एकम्पि सञ्ञग्गं पञ्ञपेमि, पुथूपि सञ्ञग्गे पञ्ञपेमी’’ति।
४१६. ‘‘सञ्ञा नु खो, भन्ते, पठमं उप्पज्जति, पच्छा ञाणं, उदाहु ञाणं पठमं उप्पज्जति, पच्छा सञ्ञा, उदाहु सञ्ञा च ञाणञ्च अपुब्बं अचरिमं उप्पज्जन्ती’’ति? ‘‘सञ्ञा खो, पोट्ठपाद, पठमं उप्पज्जति, पच्छा ञाणं, सञ्ञुप्पादा च पन ञाणुप्पादो होति। सो एवं पजानाति – ‘इदप्पच्चया किर मे ञाणं उदपादी’ति। इमिना खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं – यथा सञ्ञा पठमं उप्पज्जति, पच्छा ञाणं, सञ्ञुप्पादा च पन ञाणुप्पादो होती’’ति।
सञ्ञाअत्तकथा
४१७. ‘‘सञ्ञा नु खो, भन्ते, पुरिसस्स अत्ता, उदाहु अञ्ञा सञ्ञा अञ्ञो अत्ता’’ति? ‘‘कं पन त्वं, पोट्ठपाद, अत्तानं पच्चेसी’’ति? ‘‘ओळारिकं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि रूपिं चातुमहाभूतिकं कबळीकाराहारभक्ख’’न्ति [कबळीकारभक्खन्ति (स्या॰ क॰)]। ‘‘ओळारिको च हि ते, पोट्ठपाद, अत्ता अभविस्स रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो। एवं सन्तं खो ते, पोट्ठपाद, अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तदमिनापेतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तिट्ठतेव सायं [तिट्ठतेवायं (सी॰ पी॰)], पोट्ठपाद, ओळारिको अत्ता रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञ्ञा च सञ्ञा उप्पज्जन्ति, अञ्ञा च सञ्ञा निरुज्झन्ति। इमिना खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता’’ति।
४१८. ‘‘मनोमयं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि सब्बङ्गपच्चङ्गिं अहीनिन्द्रिय’’न्ति। ‘‘मनोमयो च हि ते, पोट्ठपाद, अत्ता अभविस्स सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, एवं सन्तम्पि खो ते, पोट्ठपाद, अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तदमिनापेतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तिट्ठतेव सायं, पोट्ठपाद, मनोमयो अत्ता सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञ्ञा च सञ्ञा उप्पज्जन्ति, अञ्ञा च सञ्ञा निरुज्झन्ति। इमिनापि खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता’’ति।
४१९. ‘‘अरूपिं खो अहं, भन्ते, अत्तानं पच्चेमि सञ्ञामय’’न्ति। ‘‘अरूपी च हि ते, पोट्ठपाद, अत्ता अभविस्स सञ्ञामयो, एवं सन्तम्पि खो ते, पोट्ठपाद, अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तदमिनापेतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता। तिट्ठतेव सायं, पोट्ठपाद, अरूपी अत्ता सञ्ञामयो, अथ इमस्स पुरिसस्स अञ्ञा च सञ्ञा उप्पज्जन्ति, अञ्ञा च सञ्ञा निरुज्झन्ति। इमिनापि खो एतं, पोट्ठपाद, परियायेन वेदितब्बं यथा अञ्ञाव सञ्ञा भविस्सति अञ्ञो अत्ता’’ति।
४२०. ‘‘सक्का पनेतं, भन्ते, मया ञातुं – ‘सञ्ञा पुरिसस्स अत्ता’ति वा ‘अञ्ञाव सञ्ञा अञ्ञो अत्ताति वा’ति? ‘‘दुज्जानं खो एतं [एवं (क॰)], पोट्ठपाद, तया अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रायोगेन अञ्ञत्राचरियकेन – ‘सञ्ञा पुरिसस्स अत्ता’ति वा, ‘अञ्ञाव सञ्ञा अञ्ञो अत्ताति वा’’’ति।
‘‘सचे तं, भन्ते, मया दुज्जानं अञ्ञदिट्ठिकेन अञ्ञखन्तिकेन अञ्ञरुचिकेन अञ्ञत्रायोगेन अञ्ञत्राचरियकेन – ‘सञ्ञा पुरिसस्स अत्ता’ति वा, ‘अञ्ञाव सञ्ञा अञ्ञो अत्ता’ति वा; ‘किं पन, भन्ते, सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति? अब्याकतं खो एतं, पोट्ठपाद, मया – ‘सस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’न्ति।
‘‘किं पन, भन्ते, ‘असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति? ‘‘एतम्पि खो, पोट्ठपाद, मया अब्याकतं – ‘असस्सतो लोको, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।
‘‘किं पन, भन्ते, ‘अन्तवा लोको…पे॰… ‘अनन्तवा लोको … ‘तं जीवं तं सरीरं… ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीरं… ‘होति तथागतो परं मरणा… ‘न होति तथागतो परं मरणा… ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा… ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति? ‘‘एतम्पि खो, पोट्ठपाद, मया अब्याकतं – ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा, इदमेव सच्चं मोघमञ्ञ’’’न्ति।
‘‘कस्मा पनेतं, भन्ते, भगवता अब्याकत’’न्ति? ‘‘न हेतं, पोट्ठपाद, अत्थसंहितं न धम्मसंहितं नादिब्रह्मचरियकं, न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तति, तस्मा एतं मया अब्याकत’’न्ति।
‘‘किं पन, भन्ते, भगवता ब्याकत’’न्ति? ‘‘इदं दुक्खन्ति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकतं। अयं दुक्खसमुदयोति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकतं। अयं दुक्खनिरोधोति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकतं। अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, पोट्ठपाद, मया ब्याकत’’न्ति।
‘‘कस्मा पनेतं, भन्ते, भगवता ब्याकत’’न्ति? ‘‘एतञ्हि, पोट्ठपाद, अत्थसंहितं, एतं धम्मसंहितं, एतं आदिब्रह्मचरियकं, एतं निब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तति; तस्मा एतं मया ब्याकत’’न्ति। ‘‘एवमेतं, भगवा, एवमेतं, सुगत। यस्सदानि, भन्ते, भगवा कालं मञ्ञती’’ति। अथ खो भगवा उट्ठायासना पक्कामि।
४२१. अथ खो ते परिब्बाजका अचिरपक्कन्तस्स भगवतो पोट्ठपादं परिब्बाजकं समन्ततो वाचा [वाचाय (स्या॰ क॰)] सन्नितोदकेन सञ्झब्भरिमकंसु – ‘‘एवमेव पनायं भवं पोट्ठपादो यञ्ञदेव समणो गोतमो भासति, तं तदेवस्स अब्भनुमोदति – ‘एवमेतं भगवा एवमेतं, सुगता’ति। न खो पन मयं किञ्चि [कञ्चि (पी॰)] समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानाम – ‘सस्सतो लोको’ति वा, ‘असस्सतो लोको’ति वा, ‘अन्तवा लोको’ति वा, ‘अनन्तवा लोको’ति वा, ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति वा, ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति वा, ‘होति तथागतो परं मरणा’ति वा, ‘न होति तथागतो परं मरणा’ति वा, ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा’ति वा, ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति वा’’ति।
एवं वुत्ते पोट्ठपादो परिब्बाजको ते परिब्बाजके एतदवोच – ‘‘अहम्पि खो, भो, न किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानामि – ‘सस्सतो लोको’ति वा, ‘असस्सतो लोको’ति वा…पे॰… ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति वा; अपि च समणो गोतमो भूतं तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेति धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं। भूतं खो पन तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेन्तस्स धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं, कथञ्हि नाम मादिसो विञ्ञू समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्या’’ति?
चित्तहत्थिसारिपुत्तपोट्ठपादवत्थु
४२२. अथ खो द्वीहतीहस्स अच्चयेन चित्तो च हत्थिसारिपुत्तो पोट्ठपादो च परिब्बाजको येन भगवा तेनुपसङ्कमिंसु; उपसङ्कमित्वा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। पोट्ठपादो पन परिब्बाजको भगवता सद्धिं सम्मोदि। सम्मोदनीयं कथं सारणीयं वीतिसारेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘तदा मं, भन्ते, ते परिब्बाजका अचिरपक्कन्तस्स भगवतो समन्ततो वाचासन्नितोदकेन सञ्झब्भरिमकंसु – ‘एवमेव पनायं भवं पोट्ठपादो यञ्ञदेव समणो गोतमो भासति, तं तदेवस्स अब्भनुमोदति – ‘एवमेतं भगवा एवमेतं सुगता’’ति। न खो पन मयं किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानाम – ‘‘सस्सतो लोको’’ति वा, ‘‘असस्सतो लोको’’ति वा, ‘‘अन्तवा लोको’’ति वा, ‘‘अनन्तवा लोको’’ति वा, ‘‘तं जीवं तं सरीर’’न्ति वा, ‘‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’’न्ति वा, ‘‘होति तथागतो परं मरणा’’ति वा, ‘‘न होति तथागतो परं मरणा’’ति वा, ‘‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा’’ति वा, ‘‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’’ति वा’ति। एवं वुत्ताहं, भन्ते, ते परिब्बाजके एतदवोचं – ‘अहम्पि खो, भो, न किञ्चि समणस्स गोतमस्स एकंसिकं धम्मं देसितं आजानामि – ‘‘सस्सतो लोको’’ति वा, ‘‘असस्सतो लोको’’ति वा…पे॰… ‘‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’’ति वा; अपि च समणो गोतमो भूतं तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेति धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं। भूतं खो पन तच्छं तथं पटिपदं पञ्ञपेन्तस्स धम्मट्ठिततं धम्मनियामतं, कथञ्हि नाम मादिसो विञ्ञू समणस्स गोतमस्स सुभासितं सुभासिततो नाब्भनुमोदेय्या’’ति?
४२३. ‘‘सब्बेव खो एते, पोट्ठपाद, परिब्बाजका अन्धा अचक्खुका; त्वंयेव नेसं एको चक्खुमा। एकंसिकापि हि खो, पोट्ठपाद, मया धम्मा देसिता पञ्ञत्ता; अनेकंसिकापि हि खो, पोट्ठपाद, मया धम्मा देसिता पञ्ञत्ता।
‘‘कतमे च ते, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता? ‘सस्सतो लोको’ति [लोकोति वा (सी॰ क॰)] खो, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो; ‘असस्सतो लोको’ति [लोकोति वा (सी॰ क॰)] खो, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो; ‘अन्तवा लोको’ति [लोकोति वा (सी॰ क॰)] खो पोट्ठपाद…पे॰… ‘अनन्तवा लोको’ति [लोकोति वा (सी॰ क॰)] खो पोट्ठपाद… ‘तं जीवं तं सरीर’न्ति खो पोट्ठपाद… ‘अञ्ञं जीवं अञ्ञं सरीर’न्ति खो पोट्ठपाद… ‘होति तथागतो परं मरणा’ति खो पोट्ठपाद… न होति तथागतो परं मरणा’ति खो पोट्ठपाद… ‘होति च न च होति तथागतो परं मरणा’ति खो पोट्ठपाद… ‘नेव होति न न होति तथागतो परं मरणा’ति खो, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो।
‘‘कस्मा च ते, पोट्ठपाद, मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता? न हेते, पोट्ठपाद, अत्थसंहिता न धम्मसंहिता न आदिब्रह्मचरियका न निब्बिदाय न विरागाय न निरोधाय न उपसमाय न अभिञ्ञाय न सम्बोधाय न निब्बानाय संवत्तन्ति। तस्मा ते मया अनेकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता’’।
एकंसिकधम्मो
४२४. ‘‘कतमे च ते, पोट्ठपाद, मया एकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता? इदं दुक्खन्ति खो, पोट्ठपाद, मया एकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो। अयं दुक्खसमुदयोति खो, पोट्ठपाद, मया एकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो। अयं दुक्खनिरोधोति खो, पोट्ठपाद, मया एकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो। अयं दुक्खनिरोधगामिनी पटिपदाति खो, पोट्ठपाद, मया एकंसिको धम्मो देसितो पञ्ञत्तो।
‘‘कस्मा च ते, पोट्ठपाद, मया एकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता? एते, पोट्ठपाद, अत्थसंहिता, एते धम्मसंहिता, एते आदिब्रह्मचरियका एते निब्बिदाय विरागाय निरोधाय उपसमाय अभिञ्ञाय सम्बोधाय निब्बानाय संवत्तन्ति। तस्मा ते मया एकंसिका धम्मा देसिता पञ्ञत्ता।
४२५. ‘‘सन्ति, पोट्ठपाद, एके समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’ति? ते चे मे एवं पुट्ठा ‘आमा’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपड्ढं वा रत्तिं उपड्ढं वा दिवसं एकन्तसुखिं अत्तानं सञ्जानाथा’ति [सम्पजानाथाति (सी॰ स्या॰ क॰)]? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ – ‘‘अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’’’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना, तासं भासमानानं सद्दं सुणाथ – ‘‘सुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, उजुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि, मारिसा, एवंपटिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
४२६. ‘‘सेय्यथापि, पोट्ठपाद, पुरिसो एवं वदेय्य – ‘अहं या इमस्मिं जनपदे जनपदकल्याणी, तं इच्छामि तं कामेमी’ति। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं खत्तियी वा ब्राह्मणी वा वेस्सी वा सुद्दी वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं जनपदकल्याणिं इच्छसि कामेसि, जानासि तं जनपदकल्याणिं एवंनामा एवंगोत्ताति वा, दीघा वा रस्सा वा मज्झिमा वा काळी वा सामा वा मङ्गुरच्छवी वाति, अमुकस्मिं गामे वा निगमे वा नगरे वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तं त्वं इच्छसि कामेसी’ति? इति पुट्ठो ‘आमा’ति वदेय्य।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
‘‘एवमेव खो, पोट्ठपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’’’ति? ते चे मे एवं पुट्ठा ‘आमा’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपड्ढं वा रत्तिं उपड्ढं वा दिवसं एकन्तसुखिं अत्तानं सञ्जानाथा’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ – ‘‘अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना, तासं भासमानानं सद्दं सुणाथ – ‘‘सुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, उजुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि, मारिसा, एवंपटिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना’’’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
४२७. ‘‘सेय्यथापि, पोट्ठपाद, पुरिसो चातुमहापथे निस्सेणिं करेय्य पासादस्स आरोहणाय। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यस्स त्वं [यं त्वं (सी॰ क॰)] पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं पुरत्थिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वा’ति? इति पुट्ठो ‘नो’ति वदेय्य। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यं त्वं न जानासि न पस्ससि, तस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसी’ति? इति पुट्ठो ‘आमा’ति वदेय्य।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
‘‘एवमेव खो, पोट्ठपाद, ये ते समणब्राह्मणा एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’ति। त्याहं उपसङ्कमित्वा एवं वदामि – ‘सच्चं किर तुम्हे आयस्मन्तो एवंवादिनो एवंदिट्ठिनो – ‘‘एकन्तसुखी अत्ता होति अरोगो परं मरणा’ति? ते चे मे एवं पुट्ठा ‘आमा’ति पटिजानन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकन्तसुखं लोकं जानं पस्सं विहरथा’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो एकं वा रत्तिं एकं वा दिवसं उपड्ढं वा रत्तिं उपड्ढं वा दिवसं एकन्तसुखिं अत्तानं सञ्जानाथा’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति। त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो जानाथ अयं मग्गो अयं पटिपदा एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाया’ति? इति पुट्ठा ‘नो’ति वदन्ति।
‘‘त्याहं एवं वदामि – ‘अपि पन तुम्हे आयस्मन्तो या ता देवता एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना’ तासं देवतानं भासमानानं सद्दं सुणाथ- ‘‘सुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, उजुप्पटिपन्नात्थ, मारिसा, एकन्तसुखस्स लोकस्स सच्छिकिरियाय; मयम्पि हि, मारिसा, एवं पटिपन्ना एकन्तसुखं लोकं उपपन्ना’ति? इति पुट्ठा ‘‘नो’’ति वदन्ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तेसं समणब्राह्मणानं अप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
तयो अत्तपटिलाभा
४२८. ‘‘तयो खो मे, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभा – ओळारिको अत्तपटिलाभो, मनोमयो अत्तपटिलाभो, अरूपो अत्तपटिलाभो। कतमो च, पोट्ठपाद, ओळारिको अत्तपटिलाभो? रूपी चातुमहाभूतिको कबळीकाराहारभक्खो [कबळीकारभक्खो (स्या॰ क॰)], अयं ओळारिको अत्तपटिलाभो। कतमो मनोमयो अत्तपटिलाभो? रूपी मनोमयो सब्बङ्गपच्चङ्गी अहीनिन्द्रियो, अयं मनोमयो अत्तपटिलाभो। कतमो अरूपो अत्तपटिलाभो? अरूपी सञ्ञामयो, अयं अरूपो अत्तपटिलाभो।
४२९. ‘‘ओळारिकस्सपि खो अहं, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्मं देसेमि – यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथाति। सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, एवमस्स – संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारोति, न खो पनेतं, पोट्ठपाद, एवं दट्ठब्बं। संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञ्ञञ्च सुखो च विहारो।
४३०. ‘‘मनोमयस्सपि खो अहं, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्मं देसेमि यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथाति। सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, एवमस्स – ‘संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारो’ति, न खो पनेतं, पोट्ठपाद, एवं दट्ठब्बं। संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञ्ञञ्च सुखो च विहारो।
४३१. ‘‘अरूपस्सपि खो अहं, पोट्ठपाद, अत्तपटिलाभस्स पहानाय धम्मं देसेमि यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथाति। सिया खो पन ते, पोट्ठपाद, एवमस्स – ‘संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, दुक्खो च खो विहारो’ति, न खो पनेतं, पोट्ठपाद, एवं दट्ठब्बं। संकिलेसिका चेव धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया च धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सति, पामुज्जं चेव भविस्सति पीति च पस्सद्धि च सति च सम्पजञ्ञञ्च सुखो च विहारो।
४३२. ‘‘परे चे, पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं – ‘कतमो पन सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम – ‘अयं वा सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो, यस्स मयं पहानाय धम्मं देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति।
४३३. ‘‘परे चे, पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं – ‘कतमो पन सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति? तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम – ‘अयं वा सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो यस्स मयं पहानाय धम्मं देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति।
४३४. ‘‘परे चे, पोट्ठपाद, अम्हे एवं पुच्छेय्युं – ‘कतमो पन सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम – ‘अयं वा सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो यस्स मयं पहानाय धम्मं देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
४३५. ‘‘सेय्यथापि, पोट्ठपाद, पुरिसो निस्सेणिं करेय्य पासादस्स आरोहणाय तस्सेव पासादस्स हेट्ठा। तमेनं एवं वदेय्युं – ‘अम्भो पुरिस, यस्स त्वं पासादस्स आरोहणाय निस्सेणिं करोसि, जानासि तं पासादं, पुरत्थिमाय वा दिसाय दक्खिणाय वा दिसाय पच्छिमाय वा दिसाय उत्तराय वा दिसाय उच्चो वा नीचो वा मज्झिमो वा’ति? सो एवं वदेय्य – ‘अयं वा सो, आवुसो, पासादो, यस्साहं आरोहणाय निस्सेणिं करोमि, तस्सेव पासादस्स हेट्ठा’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते तस्स पुरिसस्स सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
४३६. ‘‘एवमेव खो, पोट्ठपाद, परे चे अम्हे एवं पुच्छेय्युं – ‘कतमो पन सो, आवुसो, ओळारिको अत्तपटिलाभो…पे॰… कतमो पन सो, आवुसो, मनोमयो अत्तपटिलाभो…पे॰… कतमो पन सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स तुम्हे पहानाय धम्मं देसेथ, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति, तेसं मयं एवं पुट्ठा एवं ब्याकरेय्याम – ‘अयं वा सो, आवुसो, अरूपो अत्तपटिलाभो, यस्स मयं पहानाय धम्मं देसेम, यथापटिपन्नानं वो संकिलेसिका धम्मा पहीयिस्सन्ति, वोदानिया धम्मा अभिवड्ढिस्सन्ति, पञ्ञापारिपूरिं वेपुल्लत्तञ्च दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहरिस्सथा’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, पोट्ठपाद, ननु एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति? ‘‘अद्धा खो, भन्ते, एवं सन्ते सप्पाटिहीरकतं भासितं सम्पज्जती’’ति।
४३७. एवं वुत्ते चित्तो हत्थिसारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘यस्मिं, भन्ते, समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति, मोघो अरूपो अत्तपटिलाभो होति; ओळारिको वास्स अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होति। यस्मिं, भन्ते, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, मोघो अरूपो अत्तपटिलाभो होति; मनोमयो वास्स अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होति। यस्मिं, भन्ते, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, मोघस्स तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, मोघो मनोमयो अत्तपटिलाभो होति; अरूपो वास्स अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो होती’’ति।
‘‘यस्मिं, चित्त, समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति; ओळारिको अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति; मनोमयो अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभोत्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति।
४३८. ‘‘सचे तं, चित्त, एवं पुच्छेय्युं – ‘अहोसि त्वं अतीतमद्धानं, न त्वं नाहोसि; भविस्ससि त्वं अनागतमद्धानं, न त्वं न भविस्ससि; अत्थि त्वं एतरहि, न त्वं नत्थी’ति, एवं पुट्ठो त्वं, चित्त, किन्ति ब्याकरेय्यासी’’ति?
‘‘सचे मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्युं – ‘अहोसि त्वं अतीतमद्धानं, न त्वं न अहोसि; भविस्ससि त्वं अनागतमद्धानं, न त्वं न भविस्ससि; अत्थि त्वं एतरहि, न त्वं नत्थी’ति। एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं – ‘अहोसाहं अतीतमद्धानं, नाहं न अहोसिं; भविस्सामहं अनागतमद्धानं, नाहं न भविस्सामि; अत्थाहं एतरहि, नाहं नत्थी’ति। एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्य’’न्ति।
‘‘सचे पन तं, चित्त, एवं पुच्छेय्युं – ‘यो ते अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव [स्वेव (सी॰ पी॰), सोयेव (स्या॰)] ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो? यो [यो वा (पी॰)] ते भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो? यो [यो वा (पी॰)] ते एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव [सो च (क॰)] ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतो’ति। एवं पुट्ठो त्वं, चित्त, किन्ति ब्याकरेय्यासी’’ति?
‘‘सचे पन मं, भन्ते, एवं पुच्छेय्युं – ‘यो ते अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो ते भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो ते एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव ते अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतो’ति। एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्यं – ‘यो मे अहोसि अतीतो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो अहोसि, मोघो अनागतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो मे भविस्सति अनागतो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो तस्मिं समये सच्चो भविस्सति, मोघो अतीतो, मोघो पच्चुप्पन्नो। यो मे एतरहि पच्चुप्पन्नो अत्तपटिलाभो, सोव मे अत्तपटिलाभो सच्चो, मोघो अतीतो, मोघो अनागतो’ति। एवं पुट्ठो अहं, भन्ते, एवं ब्याकरेय्य’’न्ति।
४३९. ‘‘एवमेव खो, चित्त, यस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न अरूपो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति। ओळारिको अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति…पे॰… यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति।
४४०. ‘‘सेय्यथापि, चित्त, गवा खीरं, खीरम्हा दधि, दधिम्हा नवनीतं, नवनीतम्हा सप्पि, सप्पिम्हा सप्पिमण्डो। यस्मिं समये खीरं होति, नेव तस्मिं समये दधीति सङ्खं गच्छति, न नवनीतन्ति सङ्खं गच्छति, न सप्पीति सङ्खं गच्छति, न सप्पिमण्डोति सङ्खं गच्छति; खीरं त्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। यस्मिं समये दधि होति…पे॰… नवनीतं होति… सप्पि होति… सप्पिमण्डो होति, नेव तस्मिं समये खीरन्ति सङ्खं गच्छति, न दधीति सङ्खं गच्छति, न नवनीतन्ति सङ्खं गच्छति, न सप्पीति सङ्खं गच्छति; सप्पिमण्डो त्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। एवमेव खो, चित्त, यस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभो होति…पे॰… यस्मिं, चित्त, समये मनोमयो अत्तपटिलाभो होति…पे॰… यस्मिं, चित्त, समये अरूपो अत्तपटिलाभो होति, नेव तस्मिं समये ओळारिको अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति, न मनोमयो अत्तपटिलाभोति सङ्खं गच्छति; अरूपो अत्तपटिलाभो त्वेव तस्मिं समये सङ्खं गच्छति। इमा खो चित्त, लोकसमञ्ञा लोकनिरुत्तियो लोकवोहारा लोकपञ्ञत्तियो, याहि तथागतो वोहरति अपरामस’’न्ति।
४४१. एवं वुत्ते, पोट्ठपादो परिब्बाजको भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते! अभिक्कन्तं, भन्ते, सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। उपासकं मं भगवा धारेतु अज्जतग्गे पाणुपेतं सरणं गत’’न्ति।
चित्तहत्थिसारिपुत्तउपसम्पदा
४४२. चित्तो पन हत्थिसारिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अभिक्कन्तं, भन्ते; अभिक्कन्तं, भन्ते! सेय्यथापि, भन्ते, निक्कुज्जितं वा उक्कुज्जेय्य, पटिच्छन्नं वा विवरेय्य, मूळ्हस्स वा मग्गं आचिक्खेय्य, अन्धकारे वा तेलपज्जोतं धारेय्य – ‘चक्खुमन्तो रूपानि दक्खन्ती’ति। एवमेवं भगवता अनेकपरियायेन धम्मो पकासितो। एसाहं, भन्ते, भगवन्तं सरणं गच्छामि धम्मञ्च भिक्खुसङ्घञ्च। लभेय्याहं, भन्ते, भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, लभेय्यं उपसम्पद’’न्ति।
४४३. अलत्थ खो चित्तो हत्थिसारिपुत्तो भगवतो सन्तिके पब्बज्जं, अलत्थ उपसम्पदं। अचिरूपसम्पन्नो खो पनायस्मा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो एको वूपकट्ठो अप्पमत्तो आतापी पहितत्तो विहरन्तो न चिरस्सेव – यस्सत्थाय कुलपुत्ता सम्मदेव अगारस्मा अनगारियं पब्बजन्ति, तदनुत्तरं – ब्रह्मचरियपरियोसानं दिट्ठेव धम्मे सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा उपसम्पज्ज विहासि। ‘खीणा जाति, वुसितं ब्रह्मचरियं, कतं करणीयं, नापरं इत्थत्ताया’ति – अब्भञ्ञासि। अञ्ञतरो खो पनायस्मा चित्तो हत्थिसारिपुत्तो अरहतं अहोसीति।
पोट्ठपादसुत्तं निट्ठितं नवमं।