“क्या भिक्षुओं का चमत्कार दिखाना उचित है, ताकि लोगों में श्रद्धा बढ़ जाएँ?”
एक उपासक ने भगवान से आकर यही आवश्यक और प्रासंगिक विनंती की। तब भगवान चमत्कार की संभावना को नकारते नहीं है, बल्कि तीन तरह के चमत्कारों के बारे में बताकर संतुष्ट करते हैं। और साथ ही, उसे एक भिक्षु की अनोखी कहानी भी सुनाते है, जो ऋद्धियों से परिपूर्ण होकर देवताओं को देख और वार्तालाप कर सकता था।
_वह ऋद्धिमानी भिक्षु महाभूत धातुओं का निरोध ढूँढने के लिए तमाम देवताओं के पास जाता है। सभी देवतागण उसे उनसे बड़े देवताओं के पास भेज देते हैं, क्योंकि उनके पास उसका उत्तर नहीं होता है। अंततः सभी से गुज़रते हुए, वह सृष्टि के तथाकथित रचेता और ईश्वर महाब्रह्मा के पास पहुँचता है। लेकिन महाब्रह्मा की प्रतिक्रिया बहुत ही रोचक होती है। मुझे याद है कि जब मैंने यही प्रसंग अपने अमेरीकन मित्रों को सुनाई तो वे हँसते-हँसते लोटपोट हो गए थे। यह कहानी पालि साहित्य की बेहतरीन विनोद को दर्शाती है। _
_खैर, इस सूत्र के अंत में भगवान ने एक ऐसे ‘विज्ञान’ चैतन्य अनिदर्शन को उजागर किया है, जिसे गहराई से जानना जरूरी है। तो फूटनोट को पढ़ना न भूलें।
ऐसा मैंने सुना — एक समय भगवान नालन्दा के पावारिक आम्रवन में विहार कर रहे थे। तब गृहस्थी केवट्ट भगवान के पास गया और अभिवादन कर एक-ओर बैठ गया। एक ओर बैठने पर गृहस्थी केवट्ट ने भगवान से कहा, “भंते, यह नालन्दा यशस्वी, समृद्ध, और घनी आबादी वाला है। यहाँ बहुत से लोग भगवान के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान अपने किसी भिक्षु को अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार [प्रदर्शित] करने के लिए कहे, ताकि नालन्दा के लोगों की भगवान के प्रति गहरी आस्था और भी बढ़ जाएँ।”
जब ऐसा कहा गया, तो भगवान ने केवट्ट गृहस्थी से कहा, “केवट्ट, मैं भिक्षुओं को ऐसा धर्म नहीं सिखाता हूँ कि ‘जाओ भिक्षुओं, श्वेत-वस्त्रधारी उपासकों के आगे अपनी अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करों!’”
केवट्ट गृहस्थी ने भगवान से दुबारा कहा, “भंते, मैं भगवान की बात काट नहीं रहा हूँ। बस इतना कह रहा हूँ कि ‘यह नालन्दा यशस्वी, समृद्ध, और घनी आबादी वाला है। यहाँ बहुत से लोग भगवान के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान अपने किसी भिक्षु को अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करने के लिए कहे, ताकि नालन्दा के लोगों की भगवान के प्रति गहरी आस्था और भी बढ़ जाएँ।’”
दुबारा भगवान ने केवट्ट गृहस्थी से कहा, “केवट्ट, मैं भिक्षुओं को ऐसा धर्म नहीं सिखाता हूँ कि ‘जाओ भिक्षुओं, श्वेत-वस्त्रधारी उपासकों के आगे अपनी अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करों!’”
तीसरी बार, केवट्ट गृहस्थी ने भगवान से कहा, “भंते, मैं भगवान की बात काट नहीं रहा हूँ। बस इतना कह रहा हूँ कि ‘यह नालन्दा यशस्वी, समृद्ध, और घनी आबादी वाला है। यहाँ बहुत से लोग भगवान के प्रति गहरी आस्था रखते हैं। अच्छा होगा, भंते, जो भगवान अपने किसी भिक्षु को अलौकिक ऋद्धियों का चमत्कार करने के लिए कहे, ताकि नालन्दा के लोगों की भगवान के प्रति गहरी आस्था और भी बढ़ जाएँ।’”
“केवट्ट, मैंने तीन [तरह के] चमत्कार बताए है, जिनका मैंने स्वयं प्रत्यक्ष-ज्ञान से साक्षात्कार किया है। कौन-से तीन? ऋद्धि-चमत्कार, खुलासा-चमत्कार, निर्देश-चमत्कार।
यह ऋद्धि-चमत्कार क्या है? ऐसा होता है, केवट्ट, कि कोई भिक्षु विविध ऋद्धियों [के बल] को प्राप्त करता है — एक होकर अनेक [रूप] बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
तब कोई श्रद्धालु आस्थावान उस भिक्षु को विविध ऋद्धियाँ करते हुए देखता है — एक होकर अनेक बनते हुए, अनेक होकर एक बनते हुए। प्रकट होते हुए, विलुप्त होते हुए। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चले जाते हुए, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाते हुए, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलते हुए, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ते हुए, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूते और मलते हुए। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश करते हुए।
तब वह श्रद्धालु आस्थावान जाकर किसी अन्य श्रद्धाहीन आस्थाहिन को बताता है — “कमाल है, भाई, श्रमण की महाशक्ति और महासक्षमता! अद्भुत है, भाई! मैंने उस भिक्षु को विविध ऋद्धियाँ करते हुए देखा — एक होकर अनेक बनते हुए, अनेक होकर एक बनते हुए! प्रकट होते हुए, विलुप्त होते हुए! दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चले जाते हुए, मानो आकाश में हो! ज़मीन पर गोते लगाते हुए, मानो जल में हो! जल-सतह पर बिना डूबे चलते हुए, मानो ज़मीन पर हो! पालथी मारकर आकाश में उड़ते हुए, मानो पक्षी हो! महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूते और मलते हुए! अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश करते हुए!”
तब वह श्रद्धाहिन आस्थाहीन उस श्रद्धालु आस्थावान को कहता है, “अरे भाई, गन्धारी नाम की एक विद्या होती है! उसी से वह भिक्षु विविध ऋद्धियाँ करते हुए दिखाता होगा — एक होकर अनेक बनना, अनेक होकर एक बनना। प्रकट होना, विलुप्त होना। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चले जाना, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाना, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलना, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ना, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूना और मलना। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेना।”
क्या लगता है, केवट्ट? क्या वह श्रद्धाहिन आस्थाहीन उस श्रद्धालु आस्थावान को ऐसा कहेगा ना?”
“हाँ, भंते! वह तो ऐसा ही कहेगा!”
“इसलिए, केवट्ट। ऋद्धि-चमत्कार दिखाने की यह ख़ामी देखकर, मैं ऋद्धि-चमत्कार दिखाने के प्रति लज्जा, संकोच, और घिन महसूस करता हूँ।
और खुलासा-चमत्कार क्या है? ऐसा होता है, केवट्ट, कि कोई भिक्षु पराए सत्वों और पराए लोगों का चित्त [पढ़कर] बताता है, चित्त में [प्रकट हुआ] स्वभाव बताता है, [मन में चल रही] सोच बताता है, और [मन में चल रहा] चिंतन बताता है, “इस तरह तुम्हारा मन [सोच रहा] है, ऐसी तुम्हारी सोच है, और तुम्हारा वाकई ऐसा चित्त है!”
तब कोई श्रद्धालु आस्थावान उस भिक्षु को खुलासा चमत्कार करते हुए देखता है — पराए सत्वों और पराए लोगों का चित्त बताते हुए, चित्त का स्वभाव बताते हुए, सोच बताते हुए, और चिंतन बताते हुए, “इस तरह तुम्हारा मन है, ऐसी तुम्हारी सोच है, और तुम्हारा वाकई ऐसा चित्त है!”
तब वह श्रद्धालु आस्थावान जाकर किसी अन्य श्रद्धाहीन आस्थाहिन को बताता है — “कमाल है, भाई, श्रमण की महाशक्ति और महासक्षमता! अद्भुत है, भाई! मैंने उस भिक्षु को खुलासा चमत्कार करते हुए देखा — पराए सत्वों और पराए लोगों का चित्त बताते हुए, चित्त का स्वभाव बताते हुए, सोच बताते हुए, और चिंतन बताते हुए, “इस तरह तुम्हारा मन है, ऐसी तुम्हारी सोच है, और तुम्हारा वाकई ऐसा चित्त है!”
तब वह श्रद्धाहिन आस्थाहीन उस श्रद्धालु आस्थावान को कहता है, “अरे भाई, मणिका नाम की एक विद्या होती है! उसी से वह भिक्षु खुलासा चमत्कार करते हुए दिखाता होगा — पराए सत्वों और पराए लोगों का चित्त बताना, चित्त का स्वभाव बताना, सोच बताना, और चिंतन बताना, “इस तरह तुम्हारा मन है, ऐसी तुम्हारी सोच है, और तुम्हारा वाकई ऐसा चित्त है!”
क्या लगता है, केवट्ट? क्या वह श्रद्धाहिन आस्थाहीन उस श्रद्धालु आस्थावान को ऐसा कहेगा ना?”
“हाँ, भंते! वह तो ऐसा ही कहेगा!”
“इसलिए, केवट्ट। खुलासा-चमत्कार दिखाने की यह ख़ामी देखकर, मैं खुलासा-चमत्कार दिखाने के प्रति लज्जा, संकोच, और घिन महसूस करता हूँ।
और निर्देश-चमत्कार क्या है? ऐसा होता है, केवट्ट, कि कोई भिक्षु [दूसरों को मन पढ़कर सटीक] निर्देश देता है, “इस तरह सोचों, उस तरह मत सोचो! यहाँ ध्यान दो, वहाँ ध्यान मत दो! इसे त्याग दो, उसे धारण कर के रहो!” इसे, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
फिर ऐसा होता है, केवट्ट! यहाँ कभी इस लोक में तथागत अरहंत सम्यक-सम्बुद्ध प्रकट होते हैं — विद्या और आचरण से संपन्न, परम मंजिल पा चुके, दुनिया के जानकार, दमनयोग्य पुरुष के सर्वोपरि सारथी, देवता और मानव के गुरु, पवित्र बोधिप्राप्त!’ वे प्रत्यक्ष-ज्ञान का साक्षात्कार कर, उसे — देवता, मार और ब्रह्म, श्रमण और ब्राह्मण पीढ़ियाँ, तथा राजा और मानव से भरे इस लोक में प्रकट करते हैं। वे ऐसा धर्म बताते हैं, जो प्रारंभ में कल्याणकारी, मध्य में कल्याणकारी तथा अन्त में कल्याणकारी हो। वे गहरे अर्थ और विस्तार के साथ सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ‘ब्रह्मचर्य धर्म’ प्रकाशित करते हैं।
ऐसा धर्म सुनकर किसी गृहस्थ या कुलपुत्र को तथागत पर श्रद्धा जागती है। उसे लगता है, ‘गृहस्थी बंधनकारी है, जैसे धूलभरा रास्ता हो! किंतु प्रवज्या, मानो खुला आकाश हो! घर रहते हुए ऐसा सर्वपरिपूर्ण, परिशुद्ध ब्रह्मचर्यता का पालन करना सरल नहीं है, जो चमचमाते शँख जैसा हो! क्यों न मैं सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर होकर प्रवज्यित हो जाऊँ?’
तब वह समय पाकर, छोटी-बड़ी धनसंपत्ति त्यागकर, छोटा-बड़ा घरपरिवार त्यागकर, सिरदाढ़ी मुंडवा, काषायवस्त्र धारण कर, घर से बेघर हो प्रवज्यित होता है।
प्रवज्यित होकर ऐसा भिक्षु शीलवान बनता है। वह पातिमोक्ष के अनुसार संयम से विनीत होकर, आर्य आचरण और जीवनशैली से संपन्न होकर रहता है। वह [धर्म-विनय] शिक्षापदों को सीख कर धारण करता है, अल्प पाप में भी ख़तरा देखता है। वह काया और वाणी के कुशल कर्मों से युक्त होता है, जीविका परिशुद्ध रखता है, और शील में समृद्ध होता है। इंद्रिय-द्वारों पर पहरा देता है, स्मरणशील और सचेत होता है, और संतुष्ट जीता है।
और, केवट्ट, कोई भिक्षु शील-संपन्न कैसे होता है?
• कोई भिक्षु हिंसा त्यागकर जीवहत्या से विरत रहता है — डंडा और शस्त्र फेंक चुका, शर्मिला और दयावान, समस्त जीवहित के प्रति करुणामयी। यह उसका शील होता है।
• वह ‘न सौपी चीज़ें’ त्यागकर चोरी से विरत रहता है — मात्र सौपी चीज़ें ही उठाता, स्वीकारता है। पावन जीवन जीता है, चोरी-चुपके नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह ब्रह्मचर्य धारणकर अब्रह्मचर्य से विरत रहता है — ‘देहाती’ मैथुनधर्म से विरत! यह भी उसका शील होता है।
• वह झूठ बोलना त्यागकर असत्यवचन से विरत रहता है। वह सत्यवादी, सत्य का पक्षधर, दृढ़ और भरोसेमंद बनता है; दुनिया को ठगता नहीं। यह भी उसका शील होता है।
• वह विभाजित करनेवाली बातें त्यागकर फूट डालनेवाले वचन से विरत रहता है। यहाँ सुनकर वहाँ नहीं बताता, ताकि वहाँ दरार पड़े। वहाँ सुनकर यहाँ नहीं बताता, ताकि यहाँ दरार पड़े। बल्कि वह बटे हुए लोगों का मेल कराता है, साथ रहते लोगों को जोड़ता है, एकता चाहता है, आपसी भाईचारे में प्रसन्न और ख़ुश होता है; ‘सामंजस्यता बढ़े’ ऐसे बोल बोलता है। यह भी उसका शील होता है।
• वह तीखा बोलना त्यागकर कटु वचन से विरत रहता है। वह ऐसे मीठे बोल बोलता है — जो राहत दे, कर्णमधुर लगे, हृदय छू ले, स्नेहपूर्ण हो, सौम्य हो, अधिकांश लोगों को अनुकूल और स्वीकार्य लगे। यह भी उसका शील होता है।
• वह बक़वास त्यागकर व्यर्थ वचन से विरत रहता है। वह समयानुकूल बोलता है, तथ्यात्मक बोलता है, अर्थपूर्ण बोलता है, धर्मानुकूल बोलता है, विनयानुकूल बोलता है; ‘बहुमूल्य लगे’ ऐसे सटीक वचन वह बोलता है — तर्क के साथ, नपे-तुले शब्दों में, सही समय पर, सही दिशा में, ध्येय के साथ। यह भी उसका शील होता है।
• वह बीज और पौधों का जीवनाश करना त्यागता है।…
• वह दिन में एक-बार भोजन करता है — रात्रिभोज व विकालभोज से विरत।…
• वह नृत्य, गीत, वाद्यसंगीत तथा मनोरंजन से विरत रहता है।…
• वह मालाएँ, गन्ध, लेप, सुडौलता-लानेवाले तथा अन्य सौंदर्य-प्रसाधन से विरत रहता है।…
• वह बड़े विलासी आसन और पलंग का उपयोग करने से विरत रहता है।…
• वह स्वर्ण व रुपये स्वीकारने से विरत रहते है।…
• वह कच्चा अनाज… कच्चा माँस… स्त्री व कुमारी… दासी व दास… भेड़ व बकरी… मुर्गी व सूवर… हाथी, गाय, घोड़ा, खच्चर… ख़ेत व संपत्ति स्वीकारने से विरत रहता है।…
• वह दूत [=संदेशवाहक] का काम… ख़रीद-बिक्री… भ्रामक तराज़ू, नाप, मानदंडों द्वारा ठगना… घूसख़ोरी, ठगना, ज़ाली काम, छलकपट… हाथपैर काटने, पीटने बाँधने, लूट डाका व हिंसा करने से विरत रहता है।
यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश में लगे रहते हैं, जो — जड़ से उगते हो, डंठल से उगते हो, जोड़ से उगते हो, कली से उगते हो, और बीज से अंकुरित होते हो। कोई भिक्षु इस तरह के बीज और पौधों के जीवनाश से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने में लगे रहते हैं, जैसे — संग्रहीत अन्न, संग्रहीत जलपान, संग्रहीत वस्त्र, संग्रहीत वाहन, संग्रहीत शय्या, संग्रहीत गन्ध, संग्रहीत माँस। कोई भिक्षु इस तरह के संग्रहीत वस्तुओं का भोग करने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के अनुचित दर्शन में लगे रहते हैं, जैसे — नृत्य, गीत या वाद्यसंगीत; नाटक या कथा-लीला; ताली, झांझ या ढ़ोल बजाना; चलचित्र या रंगमंच; कलाबाजी या जादुई खेल; हाथी-लड़ाई, अश्व-लड़ाई, भैंस-लड़ाई, बैल-लड़ाई, बकरा-लड़ाई, भेळ-लड़ाई, मुर्गा-लड़ाई, बदक-लड़ाई, लाठी-खेल, मुष्टि-युद्ध, कुश्ती, युद्ध-खेल, सैन्य-भूमिका, युद्ध-चक्रव्यूह, सैन्य-समीक्षा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के अनुचित दर्शन से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों में लगे रहते हैं, जैसे — अष्टपद शतरंज, दशपद शतरंज, आकाश शतरंज, परिहारपथ, सन्निक, पासा, छड़ी का खेल, हस्तचित्र, गेंद का खेल, नली फूँकने का खेल, हल का खेल, कलाबाजी का खेल, चक्की का खेल, तराजू का खेल, रथ की दौड़, तीर चलाने का खेल, अंताक्षरी, विचार जानने का खेल, नकल इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के व्यर्थ प्रमादी खेलों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा [=फर्नीचर] में लगे रहते हैं, जैसे — बड़ा विलासी सोफ़ा या पलंग, नक्काशीदार या खाल से सजा सोफ़ा, लंबे रोएवाला आसन, रंगीत-चित्रित आसन, सफ़ेद ऊनी कम्बल, फूलदार बिछौना, मोटी रजार्इ या गद्दा, सिह-बाघ आदि के चित्रवाला आसन, झालरदार आसन, रेशमी या कढ़ाई [एंब्रोईडरी] वाला आसन, लम्बी ऊनी कालीन, हाथी-गलीचा, अश्व-गलीचा, रथ-गलीचा, मृग या सांभर खाल का आसन, छातेदार सोफ़ा, दोनों-ओर लाल तकिये रखा सोफ़ा इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह के बड़े और विलासी सज्जा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण में लगे रहते हैं, जैसे — सुगंधित उबटन लगाना, तेल से शरीर मलना, सुगंधित जल से नहाना, हाथ-पैर दबवाना, दर्पण, लेप, माला, गन्ध, मुखचूर्ण [=पाउडर], काजल, हाथ में आभूषण, सिर में बाँधना, अलंकृत छड़ी, अलंकृत बोतल, छुरी, छाता, कढ़ाई वाला जूता, साफा [=पगड़ी], मुकुट या मणि, चँदर, लंबे झालरवाले सफ़ेद वस्त्र इत्यादि। कोई भिक्षु इस तरह स्वयं को सजाने में, सौंदर्यीकरण से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की व्यर्थ चर्चा में लगे रहते हैं, जैसे — राजनेताओं पर बातें, अपराधियों पर बातें, मंत्रियों पर बातें, सेना ख़तरे व युद्ध पर बातें, भोज जलपान व वस्त्रों पर बातें, वाहन मकान माला व गन्ध पर बातें, रिश्तेदार समाज गाँव शहर व जनपद पर बातें, स्त्री पर बातें, शूर व नायक कथाएँ, चौंक व नुक्कड़ की बातें, भूतप्रेत कथाएं, दुनिया की विविध घटनाएँ, ब्रह्मांड या समुद्र निर्माण पर बातें, चीज़ों के अस्तित्व या अनस्तित्व पर बातें। कोई भिक्षु इस तरह की व्यर्थ चर्चा से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के वाद-विवाद में लगे रहते हैं, जैसे — “तुम इस धर्म-विनय को समझते हो? मैं इस धर्म-विनय को समझता हूँ।” “तुम इस धर्म-विनय को क्या समझोगे?” “तुम गलत अभ्यास करते हो। मैं सही अभ्यास करता हूँ।” “मैं धर्मानुसार [=सुसंगत] बताता हूँ। तुम उल्टा बताते हो।” “तुम्हें जो पहले कहना चाहिए था, उसे पश्चात कहा, और जो पश्चात कहना चाहिए, उसे पहले कहा।” “तुम्हारी दीर्घकाल सोची हुई धारणा का खण्डन हुआ।” “तुम्हारी बात कट गई।” “तुम हार गए।” “जाओ, अपनी धारणा को बचाने का प्रयास करो, या उत्तर दे सको तो दो!” कोई भिक्षु इस तरह के वाद-विवाद से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह के लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बन घूमने में लगे रहते हैं, जैसे — राजा, महामन्त्री, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहस्थ [=वैश्य], या युवा। “वहाँ जाओ”, “यहाँ आओ”, “यह ले जाओ”, “यह ले आओ!" कोई भिक्षु इस तरह लोगों के लिए संदेशवाहक या दूत बनने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, पाखंड, झूठी प्रशंसा, इशारे, अपमानित या भयभीत करते, और लाभ से लाभ ढूँढते हैं। कोई भिक्षु इस तरह का पाखंड और बातों से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
अंग [=काया की बनावट देखकर भविष्य/चरित्रवर्तन],
निमित्त [=शकुन-अपशकुन घटनाएँ बतलाना],
उत्पात [=वज्रपात, उल्कापात, धूमकेतु इत्यादि का अर्थ बतलाना],
स्वप्न [=स्वप्न का शुभ-अशुभ अर्थ बतलाना],
लक्षण [=बर्ताव इत्यादि का अर्थ बतलाना],
मूषिक-छिद्र [=चूहे द्वारा कुतरा वस्त्र देखकर अर्थ बतलाना],
अग्नि-हवन [=अग्नि को चढ़ावा],
करछी से होम-हवन, भूसी से होम, टूटे चावल से होम, चावल से होम, घी से होम, तेल से होम, घी के कुल्ले से होम, रक्त-बलिदान से होम,
अंगविद्या [=हस्तरेखा, पादरेखा, कपालरेखा इत्यादि देखकर भविष्यवर्तन],
वास्तुविद्या [=निवास में शुभ-अशुभ बतलाना],
क्षेत्रविद्या [=खेत-जमीन-जायदाद में शुभ-अशुभ बतलाना],
शिवविद्या [=श्मशान-भूमि में शुभ-अशुभ बतलाना],
भूतविद्या [=भूतबाधा और मुक्तिमंत्र बतलाना],
भुरिविद्या [=घर के सुरक्षामंत्र बतलाना],
सर्पविद्या [=सर्पदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
विषविद्या [=विषबाधा में सुरक्षामंत्र बतलाना],
वृश्चिकविद्या [=बिच्छूदंश में सुरक्षामंत्र बतलाना],
मूषिकविद्या [=चूहों से सुरक्षामंत्र बतलाना],
पक्षीविद्या [=पक्षीध्वनि का अर्थ बतलाना],
कौवाविद्या [=कौंवों की ध्वनि या बर्ताव का अर्थ बतलाना],
पक्षध्यान [=आयुसीमा या मृत्युकाल बतलाना],
शरपरित्राण [=बाण से सुरक्षामंत्र बतलाना],
और मृगचक्र [=हिरण इत्यादि पशुध्वनि का अर्थ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
मणि-लक्षण [मणि की विलक्षणता बतलाना],
वस्त्र-लक्षण [=वस्त्र पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
दण्ड-लक्षण [=छड़ी पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
शस्त्र-लक्षण [=छुरे पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
असि-लक्षण [तलवार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
बाण-लक्षण [=बाण पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
धनुष-लक्षण [=धनुष पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
आयुध-लक्षण[=शस्त्र, औज़ार पर उभरे शुभ-लक्षण बतलाना],
स्त्री-लक्षण [=स्त्री के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
पुरुष-लक्षण [=पुरुष के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमार-लक्षण [=लड़के के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कुमारी-लक्षण [=लड़की के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दास-लक्षण [=गुलाम/नौकर के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
दासी-लक्षण [=गुलाम/नौकरानी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
हस्ति-लक्षण [=हाथी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अश्व-लक्षण [=घोड़े के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
भैस-लक्षण [=भैंस के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
वृषभ-लक्षण [=बैल के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गाय-लक्षण [=गाय के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
अज-लक्षण [=बकरी के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मेष-लक्षण [=भेड़ के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
मुर्गा-लक्षण [=मुर्गे के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
बत्तक-लक्षण [=बदक के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
गोह-लक्षण [=गोह/छिपकली के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कर्णिका-लक्षण [=ख़रगोश के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
कच्छप-लक्षण [=कछुए के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना],
और मृग-लक्षण [=मृग/हिरण के विविध लक्षण, क्षमताएँ बतलाना]।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
• अथवा जहाँ कई माननीय श्रमण एवं ब्राह्मण, श्रद्धापूर्वक दिये भोजन पर व्यापन करते हुए, इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाते हैं, जैसे — राजा [युद्ध में] आगे बढ़ेगा, राजा आगे नहीं बढ़ेगा, यहाँ का राजा आगे बढ़ेगा तो बाहरी राजा पीछे हटेगा, बाहरी राजा आगे बढ़ेगा तो यहाँ का राजा पीछे हटेगा, यहाँ के राजा विजयी होगा और बाहरी राजा पराजित, बाहरी राजा विजयी होगा और यहाँ का राजा पराजित, इसका विजय उसका पराजय होगा। कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
चंद्रग्रहण होगा, सूर्यग्रहण होगा, नक्षत्रग्रहण होगा,
सूर्य और चंद्र पथगमन करेंगे [=अनुकूल रहेंगे],
सूर्य और चंद्र उप्पथगमन करेंगे [=प्रतिकूल रहेंगे],
नक्षत्र पथगमन करेंगे,
नक्षत्र उप्पथगमन करेंगे,
उल्कापात होगा,
क्षितिज उज्ज्वल होगा [=ऑरोरा?],
भूकंप होगा,
देवढ़ोल बजेंगे [बादल-गर्जना?],
सूर्य, चंद्र या नक्षत्रों का उदय, अस्त, मंद या तेजस्वी होंगे,
चंद्रग्रहण का परिणाम ऐसा होगा,
सूर्यग्रहण…, नक्षत्रग्रहण…, [और एक-एक कर इन सब का] परिणाम ऐसा होगा।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से भविष्यवर्तन कर मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
प्रचुर वर्षा होगी,
अल्प वर्षा होगी,
सुभिक्ष [=भोजन भरपूर] होगा,
दुर्भिक्ष [=भोजन नहीं] होगा,
क्षेम [=राहत, सुरक्षा] होगा,
भय [=खतरा, चुनौतीपूर्ण काल] होगा,
रोग [=बीमारियाँ] होंगे,
आरोग्य [=चंगाई] होगा,
अथवा वे लेखांकन, गणना, आंकलन, कविताओं की रचना, भौतिकवादी कला [लोकायत] सिखाकर अपनी मिथ्या आजीविका कमाते हैं।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
आवाह [=दुल्हन घर लाने का] मुहूर्त बतलाना,
विवाह [=कन्या भेजने का] मुहूर्त बतलाना,
संवरण [=घूँघट या संयम करने का] मुहूर्त बतलाना,
विवरण [=घूँघट हटाने या संभोग का] मुहूर्त बतलाना,
जमा-बटोरने का मुहूर्त बतलाना,
निवेश-फैलाने का मुहूर्त बतलाना,
शुभ-वरदान देना,
श्राप देना,
गर्भ-गिराने की दवाई देना,
जीभ बांधने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बांधने का मंत्र बतलाना,
हाथ उल्टेपूल्टे मुड़ने का मंत्र बतलाना,
जबड़ा बंद करने का मंत्र बतलाना,
कान बंद करने का मंत्र बतलाना,
दर्पण [के भूत] से प्रश्न पुछना,
भूत-बाधित कन्या से प्रश्न पुछना,
देवता से प्रश्न पुछना,
सूर्य की पुजा करना,
महादेव की पुजा करना,
मुँह से अग्नि निकालना,
श्रीदेवी [=सौभाग्य लानेवाली देवी] का आह्वान करना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
शान्ति-पाठ कराना,
इच्छापूर्ति-पाठ कराना,
भूतात्मा-पाठ कराना,
भूमि-पूजन कराना,
वर्ष-पाठ कराना [=नपुंसक को पौरुषत्व दिलाने के लिए],
वोस्स-पाठ कराना [=कामेच्छा ख़त्म कराने के लिए],
वास्तु-पाठ कराना [घर बनाने पूर्व],
वास्तु-परिकर्म कराना [=भूमि का उपयोग करने पूर्व देवताओं को बलि देना इत्यादि],
शुद्धजल से धुलवाना,
शुद्धजल से नहलाना,
बलि चढ़ाना,
वमन [=उलटी] कराना,
विरेचन [=जुलाब देकर] कराना,
ऊपर [=मुख] से विरेचन कराना,
नीचे से विरेचन [=दस्त] कराना,
शीर्ष-विरेचन कराना [=कफ निकालना?],
कान के लिए औषधियुक्त तेल देना,
आँखों की धुंधलाहट हटाने के लिए औषधि देना,
नाक के लिए औषधि देना,
मरहम देना, प्रति-मरहम देना,
आँखें शीतल करने की दवा देना,
आँख और कान की शल्यक्रिया करना,
शरीर की शल्यक्रिया [=छुरी से सर्जरी] करना,
बच्चों का वैद्य बनना,
जड़ीबूटी देना, जड़ीबूटी बांधना।
कोई भिक्षु इस तरह की हीन विद्या से मिथ्या आजीविका कमाने से विरत रहता है। यह भी उसका शील होता है।
इस तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। जैसे, कोई राजतिलक हुआ क्षत्रिय राजा हो, जिसने सभी शत्रुओं को जीत लिया हो, वह कही किसी शत्रु से खतरा नहीं देखता है। उसी तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु शील से संपन्न होकर, इस तरह शील से सँवर कर, कही कोई खतरा नहीं देखता है। वह ऐसे आर्यशील-संग्रह से संपन्न होकर निष्पाप [जीने के] सुख का अनुभव करता है। इस तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु शील-संपन्न होता है।
इन्द्रिय सँवर
और, केवट्ट, कैसे कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है?
• कोई भिक्षु, आँखों से रूप देखकर, न उसकी छाप «निमित्त» ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण [=आकर्षित करनेवाली कोई दूसरी बात]। चूँकि यदि वह चक्षु-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे [कोई] लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, चक्षु-इंद्रिय का बचाव करता है, चक्षु-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह कान से आवाज सुनकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह श्रोत-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, श्रोत-इंद्रिय का बचाव करता है, श्रोत-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह नाक से गन्ध सूँघकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह घ्राण-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, घ्राण-इंद्रिय का बचाव करता है, घ्राण-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह जीभ से रस चखकर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह जिव्हा-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, जिव्हा-इंद्रिय का बचाव करता है, जिव्हा-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह काया से संस्पर्श महसूस कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह काय-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, काय-इंद्रिय का बचाव करता है, काय-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
• वह मन से स्वभाव जान कर, न उसकी छाप ग्रहण करता है, न ही उसका कोई विवरण। चूँकि यदि वह मन-इंद्रिय पर बिना-सँवर के रहा होता, तो उसे लालसा या निराशा जैसे पाप-अकुशल स्वभाव सताएँ होते। इसलिए वह सँवर के राह पर चलता है, मन-इंद्रिय का बचाव करता है, मन-इंद्रिय के सँवर पर अमल करता है।
वह ऐसे आर्यसँवर से संपन्न होकर निष्पाप सुख का अनुभव करता है। इस तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु अपने इंद्रिय-द्वारों की रक्षा करता है।
स्मरणशील और सचेत
और, केवट्ट, कैसे कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है? वह आगे बढ़ते और लौट आते सचेत होता है। वह नज़र टिकाते और नज़र हटाते सचेत होता है। वह [अंग] सिकोड़ते और पसारते हुए सचेत होता है। वह संघाटी, पात्र और चीवर धारण करते हुए सचेत होता है। वह खाते, पीते, चबाते, स्वाद लेते हुए सचेत होता है। वह पेशाब और शौच करते हुए सचेत होता है। वह चलते, खड़े रहते, बैठते, सोते, जागते, बोलते, मौन होते हुए सचेत होता है। इस तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु स्मरणशीलता और सचेतता से संपन्न रहता है।
सन्तोष
और, केवट्ट, कैसे कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है? वह शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। जैसे पक्षी जहाँ भी जाता है, मात्र अपने पंखों को लेकर उड़ता है। उसी तरह, कोई भिक्षु शरीर ढकने के लिए चीवर और पेट भरने के लिए भिक्षा पर संतुष्ट रहता है। वह जहाँ भी जाता है, अपनी सभी मूल आवश्यकताओं को साथ लेकर जाता है। इस तरह, केवट्ट, कोई भिक्षु संतुष्ट रहता है।
नीवरण त्याग
इस तरह वह आर्य-शीलसंग्रह से संपन्न होकर, इंद्रियों पर आर्य-सँवर से संपन्न होकर, स्मरणशील और सचेत होकर, आर्य-संतुष्ट होकर एकांतवास ढूँढता है — जैसे जंगल, पेड़ के तले, पहाड़, सँकरी घाटी, गुफ़ा, श्मशानभूमि, उपवन, खुली-जगह या पुआल का ढ़ेर। भिक्षाटन से लौटकर भोजन के पश्चात, वह पालथी मार, काया सीधी रखकर बैठता है और स्मरणशीलता आगे लाता है।
वह दुनिया के प्रति लालसा «अभिज्झा» हटाकर लालसाविहीन चित्त से रहता है। अपने चित्त से लालसा को साफ़ करता है। वह भीतर से दुर्भावना और द्वेष «ब्यापादपदोस» हटाकर दुर्भावनाविहीन चित्त से रहता है — समस्त जीवहित के लिए करुणामयी। अपने चित्त से दुर्भावना और द्वेष को साफ़ करता है। वह भीतर से सुस्ती और तंद्रा «थिनमिद्धा» हटाकर सुस्ती और तंद्राविहीन चित्त से रहता है — उजाला देखने वाला, स्मरणशील और सचेत। अपने चित्त से सुस्ती और तंद्रा को साफ़ करता है। वह भीतर से बेचैनी और पश्चाताप «उद्धच्चकुक्कुच्च» हटाकर बिना व्याकुलता के रहता है; भीतर से शान्त चित्त। अपने चित्त से बेचैनी और पश्चाताप को साफ़ करता है। वह अनिश्चितता «विचिकिच्छा» हटाकर उलझन को लाँघता है; कुशल स्वभावों के प्रति संभ्रमता के बिना। अपने चित्त से अनिश्चितता को साफ़ करता है।
जैसे, केवट्ट, कल्पना करें कि कोई पुरुष ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाए, और उसका व्यवसाय यशस्वी हो जाए। तब वह पुराना ऋण चुका पाए और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाए। तब उसे लगेगा, “मैंने ऋण लेकर उसे व्यवसाय में लगाया और मेरा व्यवसाय यशस्वी हो गया। अब मैंने पुराना ऋण चुका दिया है और पत्नी के लिए भी अतिरिक्त बचाया है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, केवट्ट, कि कोई पुरुष बीमार पड़े — पीड़ादायक गंभीर रोग में। वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा न पाए और उसकी काया में बल न रहे। समय बीतने के साथ, वह अंततः रोग से मुक्त हो जाए। तब वह अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाए और उसकी काया में भी बल रहे। तब उसे लगेगा, “पहले मैं बीमार पड़ा था — पीड़ादायक गंभीर रोग में। न मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता था, न ही मेरी काया में बल रहता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः रोग से मुक्त हो गया। अब मैं अपने भोजन का लुत्फ़ उठा पाता हूँ और मेरी काया में बल भी रहता है।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, केवट्ट, कि कोई पुरुष कारावास में कैद हो। समय बीतने के साथ, वह अंततः कारावास से छूट जाए — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं कारावास में कैद था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः कारावास से छूट गया — सुरक्षित और सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, केवट्ट, कि कोई पुरुष गुलाम हो — पराए के अधीन हो, स्वयं के नहीं। वह जहाँ जाना चाहे, नहीं जा सके। समय बीतने के साथ, वह अंततः गुलामी से छूट जाए — स्वयं के अधीन हो, पराए के नहीं। तब वह जहाँ जाना चाहे, जा सके। तब उसे लगेगा, “पहले मैं गुलाम था — पराए के अधीन, स्वयं के नहीं। मैं जहाँ जाना चाहता था, नहीं जा सकता था। समय बीतने के साथ, मैं अंततः गुलामी से छूट गया — स्वयं के अधीन, पराए के नहीं। अब मैं जहाँ जाना चाहता हूँ, जा सकता हूँ।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
अब कल्पना करें, केवट्ट, कि कोई पुरुष धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा हो, जहाँ भोजन अल्प हो, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, वह अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच जाए — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए। तब उसे लगेगा, “पहले मैं धन और माल लेकर रेगिस्तान से यात्रा कर रहा था, जहाँ भोजन अल्प था, और खतरे अधिक। समय बीतने के साथ, मैं अंततः उस रेगिस्तान से निकल कर गाँव पहुँच गया — सुरक्षित, सही-सलामत, बिना संपत्ति की हानि हुए।” उस कारणवश उसे प्रसन्नता होगी, आनंदित हो उठेगा।
उसी तरह, केवट्ट, जब तक ये पाँच अवरोध भीतर से छूटते नहीं हैं, तब तक भिक्षु उन्हें ऋण, रोग, कारावास, गुलामी और रेगिस्तान की तरह देखता है।
किंतु जब ये पाँच अवरोध भीतर से छूट जाते हैं, तब भिक्षु उन्हें ऋणमुक्ति, आरोग्य, बन्धनमुक्ति, स्वतंत्रता और राहतस्थल की तरह देखता है।
ये पाँच अवरोध «पञ्चनीवरण» हटाकर रहने से उसके भीतर प्रसन्नता जन्म लेती है। प्रसन्न होने से प्रफुल्लता जन्म लेती है। प्रफुल्लित मन होने से काया प्रशान्त हो जाती है। प्रशान्त काया सुख महसूस करती है। सुखी चित्त समाहित [=एकाग्र+स्थिर] हो जाता है।
प्रथम-ध्यान
वह कामुकता से निर्लिप्त, अकुशल-स्वभाव से निर्लिप्त, सोच एवं विचार के साथ निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण प्रथम-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, केवट्ट, कोई निपुण स्नान करानेवाला [या आटा गूँथनेवाला] हो, जो काँस की थाली में स्नानचूर्ण [या आटा] रखे, और उसमें पानी छिड़क-छिड़ककर उसे इस तरह गूँथे कि चूर्णपिंड पूर्णतः जलव्याप्त हो जाए, किंतु चुए न। उसी तरह वह उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस निर्लिप्तता से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। इसे, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
द्वितीय-ध्यान
तब आगे, केवट्ट, भिक्षु सोच एवं विचार के रुक जाने पर, भीतर आश्वस्त हुआ मानस एकरस होकर, बिना-सोच, बिना-विचार, समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुखपूर्ण द्वितीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, केवट्ट, किसी गहरी झील में भीतर से जलस्त्रोत निकलता हो। जिसके पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा से कोई [भीतर आता] अंतप्रवाह न हो, और समय-समय पर देवता वर्षा न कराए। तब उस झील को केवल भीतर गहराई से निकलता शीतल जलस्त्रोत फूटकर उसे शीतल जल से सींच देगा, भिगो देगा, फैल जाएगा, पूर्णतः व्याप्त करेगा। और उस संपूर्ण झील को कोई भी हिस्सा उस शीतल जलस्त्रोत के जल से अव्याप्त नहीं रह जाएगा। उसी तरह वह उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस समाधि से उपजे प्रफुल्लता और सुख से अव्याप्त न रह जाए। इसे, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
तृतीय-ध्यान
तब आगे, केवट्ट, भिक्षु प्रफुल्लता से विरक्त हो, स्मरणशील एवं सचेतता के साथ-साथ तटस्थता धारण कर शरीर से सुख महसूस करता है। जिसे आर्यजन ‘तटस्थ, स्मरणशील, सुखविहारी’ कहते हैं, वह ऐसे तृतीय-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, केवट्ट, किसी पुष्करणी [=कमलपुष्प के तालाब] में कोई कोई नीलकमल, रक्तकमल या श्वेतकमल होते हैं, जो बिना बाहर निकले, जल के भीतर ही जन्म लेते हैं, जल के भीतर ही बढ़ते हैं, जल के भीतर ही डूबे रहते हैं, जल के भीतर ही पनपते रहते हैं। वे सिरे से जड़ तक शीतल जल से ही सींचे जाते हैं, भिगोए जाते हैं, फैलाए जाते हैं, पूर्णतः व्याप्त किए जाते हैं। और उन कमलपुष्पों का कोई भी हिस्सा उस शीतल जल से अव्याप्त नहीं रह जाता। उसी तरह वह उस प्रफुल्लता-रहित सुख से काया को सींचता है, भिगोता है, फैलाता है, पूर्णतः व्याप्त करता है। ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस प्रफुल्लता-रहित सुख से अव्याप्त न रह जाए। इसे, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
चतुर्थ-ध्यान
तब आगे, केवट्ट, भिक्षु सुख एवं दर्द दोनों हटाकर, खुशी एवं परेशानी पूर्व ही विलुप्त होने पर, तटस्थता और स्मरणशीलता की परिशुद्धता के साथ, अब न-सुख-न-दर्द पूर्ण चतुर्थ-ध्यान में प्रवेश पाकर रहता है। तब वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए।
जैसे, केवट्ट, कोई पुरुष सिर से पैर तक शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र ओढ़कर बैठ जाए, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस शुभ्र उज्ज्वल वस्त्र से अव्याप्त न रह जाए। उसी तरह वह काया में उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त को फैलाकर बैठता है, ताकि उसके शरीर का कोई भी हिस्सा उस परिशुद्ध उजालेदार चित्त से अव्याप्त न रह जाए। इसे, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
विपश्यना ज्ञान
“आगे, केवट्ट, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य «विञ्ञाण» इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’
जैसे, केवट्ट, कोई ऊँची जाति का शुभ मणि हो — अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध। और उसमें से एक नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया हो। अच्छी-आँखों वाला कोई पुरुष उसे अपने हाथ में लेकर देखे तो उसे लगे, ‘यह कोई ऊँची जाति का शुभ मणि है — जो अष्टपहलु, सुपरिष्कृत, स्वच्छ, पारदर्शी, निर्मल, सभी गुणों से समृद्ध है। और उसमें से यह नीला, पीला, लाल, सफ़ेद या भूरे रंग का धागा पिरोया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को ज्ञानदर्शन की ओर झुकाता है। तब उसे पता चलता है, ‘मेरी रूपयुक्त काया — जो चार महाभूत से बनी है, माता-पिता द्वारा जन्मी है, दाल-चावल द्वारा पोषित है — वह अनित्य, रगड़न, छेदन, विघटन और विध्वंस स्वभाव की है। और मेरा यह चैतन्य इसका आधार लेकर इसी में बँध गया है।’ और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
मनोमय-ऋद्धि ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं।
जैसे, केवट्ट, कोई पुरुष मूँज से सरकंडा निकाले। उसे लगेगा, ‘यह मूँज है, और वह सरकंडा। मूँज एक वस्तु है, और सरकंडा दूसरी वस्तु। किंतु मूँज से सरकंडा निकाला गया है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष म्यान से तलवार निकाले। उसे लगेगा, ‘यह म्यान है, और वह तलवार। म्यान एक वस्तु है, और तलवार दूसरी वस्तु। किंतु म्यान से तलवार निकाली गई है।’ अथवा जैसे कोई पुरुष पिटारे से साँप निकाले। उसे लगेगा, ‘यह साँप है, और वह पिटारा। साँप एक वस्तु है, और पिटारा दूसरी वस्तु। किंतु पिटारे से साँप निकाला गया है।’ उसी तरह, जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को मनोमय काया का निर्माण करने की ओर झुकाता है। तब इस काया से वह दूसरी काया निर्मित करता है — रूपयुक्त, मन से रची हुई, सभी अंग-प्रत्यंगों से युक्त, हीन इंद्रियों वाली नहीं। और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
विविध ऋद्धियाँ ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है।
जैसे, केवट्ट, कोई निपुण कुम्हार भली तैयार मिट्टी से जो बर्तन चाहे, गढ़ लेता है। जैसे कोई निपुण दंतकार भले तैयार हस्तिदंत से जो कलाकृति चाहे, रच लेता है। जैसे कोई निपुण सुनार अच्छे तैयार स्वर्ण से जो आभूषण चाहे, रच लेता है। उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को विविध ऋद्धियाँ पाने की ओर झुकाता है। तब वह विविध ऋद्धियाँ प्राप्त करता है — एक होकर अनेक बनता है, अनेक होकर एक बनता है। प्रकट होता है, विलुप्त होता है। दीवार, रक्षार्थ-दीवार और पर्वतों से बिना टकराए आर-पार चला जाता है, मानो आकाश में हो। ज़मीन पर गोते लगाता है, मानो जल में हो। जल-सतह पर बिना डूबे चलता है, मानो ज़मीन पर हो। पालथी मारकर आकाश में उड़ता है, मानो पक्षी हो। महातेजस्वी सूर्य और चाँद को भी अपने हाथ से छूता और मलता है। अपनी काया से ब्रह्मलोक तक को वश कर लेता है। और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
दिव्यश्रोत ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो।
जैसे, केवट्ट, रास्ते से यात्रा करता कोई पुरुष नगाड़ा, ढोल, शंख, मंजीरे की आवाज़ सुनता है, तो उसे लगता है, ‘यह नगाड़े की आवाज़ है। वह ढोल की आवाज़ है। यह शंखनाद है। और वह मंजीरे की आवाज़ है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को दिव्यश्रोत-धातु की ओर झुकाता है। तब वह विशुद्ध हो चुके अलौकिक दिव्यश्रोत-धातु से दोनों तरह की आवाज़ें सुनता है — चाहे दिव्य हो या मनुष्यों की हो, दूर की हो या पास की हो। और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
परचित्त ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’
जैसे, केवट्ट, साज-शृंगार में लगी युवती अथवा युवक, अपना चेहरा चमकीले दर्पण या स्वच्छ जलपात्र में देखें। तब धब्बा हो, तो पता चलता है ‘धब्बा है।’ धब्बा न हो, तो पता चलता है ‘धब्बा नही है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पराए सत्वों का मानस जानने की ओर झुकाता है। तब वह अपना मानस फैलाकर पराए सत्वों का, अन्य लोगों का मानस जान लेता है। उसे रागपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘रागपूर्ण चित्त है।’ वीतराग चित्त पता चलता है कि ‘वीतराग चित्त है।’ द्वेषपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषपूर्ण चित्त है।’ द्वेषविहीन चित्त पता चलता है कि ‘द्वेषविहीन चित्त है।’ मोहपूर्ण चित्त पता चलता है कि ‘मोहपूर्ण चित्त है।’ मोहविहीन चित्त पता चलता है कि ‘मोहविहीन चित्त है।’ संकुचित चित्त पता चलता है कि ‘संकुचित चित्त है।’ बिखरा चित्त पता चलता है कि ‘बिखरा चित्त है।’ बढ़ा हुआ चित्त पता चलता है कि ‘बढ़ा हुआ चित्त है।’ न बढ़ा चित्त पता चलता है कि ‘न बढ़ा चित्त है।’ बेहतर चित्त पता चलता है कि ‘बेहतर चित्त है।’ सर्वोत्तर चित्त पता चलता है कि ‘सर्वोत्तर चित्त है।’ समाहित चित्त पता चलता है कि ‘समाहित चित्त है।’ असमाहित चित्त पता चलता है कि ‘असमाहित चित्त है।’ विमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘विमुक्त चित्त है।’ अविमुक्त चित्त पता चलता है कि ‘अविमुक्त चित्त है।’ और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
पूर्वजन्म अनुस्मरण ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त [=ब्रह्मांडिय सिकुड़न], कई कल्पों का लोक-विवर्त [=ब्रह्मांडिय विस्तार], कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है।
जैसे, केवट्ट, कोई पुरुष अपने गाँव से किसी दूसरे गाँव में जाए। फिर दूसरे गाँव से किसी तीसरे गाँव में। और फिर तीसरे गाँव से वह अपने गाँव लौट आए। तब उसे लगेगा, “मैं अपने गाँव से इस दूसरे गाँव गया। वहाँ मैं ऐसे खड़ा हुआ, ऐसे बैठा, ऐसे बात किया, ऐसे चुप रहा। फ़िर उस दूसरे गाँव से मैं उस तीसरे गाँव गया। वहाँ वैसे खड़ा हुआ, वैसे बैठा, वैसे बात किया, वैसे चुप रहा। तब उस तीसरे गाँव से मैं अपने गाँव लौट आया।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को पूर्वजन्मों का अनुस्मरण करने की ओर झुकाता है। तो उसे विविध प्रकार के पूर्वजन्म स्मरण होने लगते है — जैसे एक जन्म, दो जन्म, तीन जन्म, चार, पाँच, दस जन्म, बीस, तीस, चालीस, पचास जन्म, सौ जन्म, हज़ार जन्म, लाख जन्म, कई कल्पों का लोक-संवर्त, कई कल्पों का लोक-विवर्त, कई कल्पों का संवर्त-विवर्त — ‘वहाँ मेरा ऐसा नाम था, ऐसा गोत्र था, ऐसा दिखता था। ऐसा भोज था, ऐसा सुख-दुःख महसूस हुआ, ऐसा जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं वहाँ उत्पन्न हुआ। वहाँ मेरा वैसा नाम था, वैसा गोत्र था, वैसा दिखता था। वैसा भोज था, वैसा सुख-दुःख महसूस हुआ, वैसे जीवन अंत हुआ। उस लोक से च्युत होकर मैं यहाँ उत्पन्न हुआ।’ इस तरह वह अपने विविध प्रकार के पूर्वजन्म शैली एवं विवरण के साथ स्मरण करता है। और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
दिव्यचक्षु ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने «चुतूपपात ञाण» की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं।
जैसे, केवट्ट, किसी चौराहे के मध्य एक इमारत हो। उसके ऊपर खड़ा कोई तेज आँखों वाला पुरुष नीचे देखें, तो उसे लोग घर में घुसते, घर से निकलते, रास्ते पर चलते, चौराहे पर बैठे हुए दिखेंगे। तब उसे लगेगा, “वहाँ कुछ लोग घर में घुस रहे हैं। वहाँ कुछ लोग निकल रहे हैं। वहाँ कुछ लोग रास्ते पर चल रहे हैं। यहाँ कुछ लोग चौराहे पर बैठे हुए हैं।” उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को सत्वों की गति जानने की ओर झुकाता है। तब विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। कैसे ये सत्व — काया दुराचार में संपन्न, वाणी दुराचार में संपन्न, एवं मन दुराचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर किया, मिथ्यादृष्टि धारण की, और मिथ्यादृष्टि के प्रभाव में दुष्कृत्य किए — वे मरणोपरांत काया छूटने पर दुर्गति होकर यातनालोक नर्क में उपजे।’ किन्तु कैसे ये सत्व — काया सदाचार में संपन्न, वाणी सदाचार में संपन्न, एवं मन सदाचार में संपन्न, जिन्होंने आर्यजनों का अनादर नहीं किया, सम्यकदृष्टि धारण की, और सम्यकदृष्टि के प्रभाव में सुकृत्य किए — वे मरणोपरांत सद्गति होकर स्वर्ग में उपजे। इस तरह विशुद्ध हुए अलौकिक दिव्यचक्षु से उसे अन्य सत्वों की मौत और पुनर्जन्म होते हुए दिखता है। और उसे पता चलता है कि कर्मानुसार ही वे कैसे हीन अथवा उच्च हैं, सुंदर अथवा कुरूप हैं, सद्गति होते अथवा दुर्गति होते हैं। और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं।
आस्रवक्षय ज्ञान
जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’
जैसे, केवट्ट, किसी पहाड़ के ऊपर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल सरोवर [=झील] हो। उसके तट पर खड़ा, कोई तेज आँखों वाला पुरुष, उसमें देखें तो उसे सीप, घोघा और बजरी दिखेंगे, जलजंतु और मछलियों का झुंड तैरता हुआ या खड़ा दिखेगा। तब उसे लगेगा, ‘यह सरोवर स्वच्छ, पारदर्शी और निर्मल है। यहाँ सीप, घोघा और बजरी हैं। जलजंतु और मछलियों का झुंड तैर रहा या खड़ा है।’ उसी तरह जब उसका चित्त इस तरह समाहित, परिशुद्ध, उज्ज्वल, बेदाग, निर्मल, मृदुल, काम करने-योग्य, स्थिर और अविचल हो जाता है, तब वह उस चित्त को आस्रव का क्षय जानने की ओर झुकाता है। तब ‘दुःख ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘दुःख का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव की उत्पत्ति ऐसी है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। ‘आस्रव का निरोध-मार्ग ऐसा है’, उसे यथास्वरूप पता चलता है। इस तरह जानने से, देखने से, उसका चित्त कामुक-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अस्तित्व-आस्रव से विमुक्त हो जाता है, अविद्या-बहाव से विमुक्त हो जाता है। विमुक्ति के साथ ज्ञान उत्पन्न होता है, ‘विमुक्त हुआ!’ उसे पता चलता है, ‘जन्म क्षीण हुए, ब्रह्मचर्य पूर्ण हुआ, काम समाप्त हुआ, आगे कोई काम बचा नहीं।’ और इसे भी, केवट्ट, निर्देश-चमत्कार कहते हैं। और केवट्ट, मैंने यही तीन चमत्कार बताए है, जिनका मैंने स्वयं प्रत्यक्ष-ज्ञान से साक्षात्कार किया है।
बहुत समय पूर्व, केवट्ट, इसी भिक्षुसंघ के एक भिक्षु को ऐसा विचार आया, “ये चार महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?” तब उस भिक्षु ने ऐसी समाधि को प्राप्त किया, जिस समाहित चित्त में देवताओं की ओर जाने वाला मार्ग प्रकट होता है। तब, केवट्ट, वह भिक्षु चार-महाराज के देवतागण [=गन्धर्व, कुंभण्ड, नाग, और यक्ष देवतागण] के पास गया, और जाकर चार-महाराज के देवताओं से कहा, “मित्रों, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब उन चार-महाराज के देवताओं ने उस भिक्षु से कहा, “हम तो, भिक्षु, यह नहीं जानते हैं कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं? किन्तु हमारे चार महाराज [=धृतराष्ट्र, विरूल्हक, विरूपाक्ष, और कुबेर महाराज] अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
तब, केवट्ट, वह भिक्षु चार महाराज के पास गया, और जाकर चार महाराज से कहा, “मित्रों, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब उन चार महाराजाओं ने भी उस भिक्षु से कहा, “हम तो, भिक्षु, यह नहीं जानते हैं कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं? किन्तु तैतीस देवतागण हमसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
तब, केवट्ट, वह भिक्षु तैतीस देवताओं के पास गया, और जाकर तैतीस देवताओं से कहा, “मित्रों, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब उन तैतीस देवताओं ने भी उस भिक्षु से कहा, “हम तो, भिक्षु, यह नहीं जानते हैं कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं? किन्तु सक्षम देवराज इंद्र हमसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
तब, केवट्ट, वह भिक्षु सक्षम देवराज इंद्र के पास गया, और जाकर देवराज इंद्र से कहा, “मित्र, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब सक्षम देवराज इंद्र ने भी उस भिक्षु से कहा, “मैं तो, भिक्षु, यह नहीं जानता हूँ कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं? किन्तु याम देवतागण मुझसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों…
देवपुत्र सुयाम [=याम देवताओं का महाराज] अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो…
तुषित देवतागण मुझसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों…
देवपुत्र संतुषित [=तुषित देवताओं का महाराज] अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो…
निर्माणरति देवतागण मुझसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों…
देवपुत्र सुनिर्मित [=निर्माणरति देवताओं का महाराज] अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो…
परनिर्मित वशवर्ती देवतागण मुझसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों…
देवपुत्र वशवर्ती [=परनिर्मित वशवर्ती देवताओं का महाराज] अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो…
ब्रह्मकायिक देवतागण मुझसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम हैं। शायद वे जानते हों कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
तब, केवट्ट, उस भिक्षु ने ऐसी समाधि को प्राप्त किया, जिस समाहित चित्त में ब्रह्म की ओर जाने वाला मार्ग प्रकट होता है। और तब वह भिक्षु ब्रह्मकाया वाले देवताओं के पास गया, और जाकर ब्रह्मकाया वाले देवताओं से कहा, “मित्रों, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब उन ब्रह्मकायिक देवताओं ने उस भिक्षु से कहा, “हम तो, भिक्षु, यह नहीं जानते हैं कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं? किन्तु जो ब्रह्मा है — महाब्रह्मा है, विजेता है, अजेय है, सर्वदृष्टा है, वशवर्ती है, ईश्वर है, [असली] कर्ता है, निर्माता है, श्रेष्ठ है, नियुक्तकर्ता है, शासक है, आ चुके या आने वाले सभी का पिता है, उसी ने सभी सत्व निर्मित किये है — वह हमसे अधिक उत्तम और उत्कृष्टतम है। शायद वह जानते हो कि ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
“किन्तु मित्रों, वह महाब्रह्मा कहाँ है?”
“भिक्षु, हम भी नहीं जानते हैं कि वह ब्रह्मा कहाँ है, या वह ब्रह्मा कैसा है, या वह ब्रह्मा किस तरह का है? किन्तु जब संकेत दिखते हैं — प्रकाश होता है, उजाला होता है, तब ब्रह्मा प्रकट होता है। चूँकि ये ही ब्रह्मा के प्रकट होने के पूर्व-संकेत हैं — प्रकाश होना, उजाला होना, तब ब्रह्मा प्रकट होना!”
तब, केवट्ट, [भिक्षु का] ज्यादा समय नहीं बीता, जब ब्रह्मा प्रकट हुआ।
तब वह भिक्षु उस महाब्रह्मा के पास गया, और जाकर महाब्रह्मा से कहा, “मित्र, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
जब ऐसा कहा गया, केवट्ट, तब उस महाब्रह्मा ने उस भिक्षु से कहा, “मैं ही, भिक्षु, ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, विजेता हूँ, अजेय हूँ, सर्वदृष्टा हूँ, वशवर्ती हूँ, ईश्वर हूँ, कर्ता हूँ, निर्माता हूँ, श्रेष्ठ हूँ, नियुक्तकर्ता हूँ, शासक हूँ, आ चुके या आने वाले सभी का पिता हूँ, मैंने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं।”
तब उस भिक्षु ने दुबारा महाब्रह्मा से कहा, “मित्र, मैंने तुमसे यह नहीं पूछा कि ‘क्या तुम ब्रह्मा हो, महाब्रह्मा हो, विजेता हो, अजेय हो, सर्वदृष्टा हो, वशवर्ती हो, ईश्वर हो, कर्ता हो, निर्माता हो, श्रेष्ठ हो, नियुक्तकर्ता हो, शासक हो, आ चुके या आने वाले सभी के पिता हो, तुमने ही सभी सत्व निर्मित किये है? बल्कि मैंने तुमसे यह पूछा कि ‘ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?’”
दुबारा उस महाब्रह्मा ने उस भिक्षु से कहा, “भिक्षु! मैं ही ब्रह्मा हूँ, महाब्रह्मा हूँ, विजेता हूँ, अजेय हूँ, सर्वदृष्टा हूँ, वशवर्ती हूँ, ईश्वर हूँ, कर्ता हूँ, निर्माता हूँ, श्रेष्ठ हूँ, नियुक्तकर्ता हूँ, शासक हूँ, आ चुके या आने वाले सभी का पिता हूँ, मैंने ही सभी सत्व निर्मित किये हैं।”
तब उस भिक्षु ने तीसरी बार महाब्रह्मा से कहा, “मित्र, मैंने तुमसे यह नहीं पूछा है कि ‘क्या तुम ब्रह्मा हो, महाब्रह्मा हो, विजेता हो, अजेय हो, सर्वदृष्टा हो, वशवर्ती हो, ईश्वर हो, कर्ता हो, निर्माता हो, श्रेष्ठ हो, नियुक्तकर्ता हो, शासक हो, आ चुके या आने वाले सभी के पिता हो, तुमने ही सभी सत्व निर्मित किये है? बल्कि मैंने तुमसे यह पूछा है कि ‘ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?’”
तब, केवट्ट, उस महाब्रह्मा ने उस भिक्षु की बाह पकड़कर एक-ओर ले जाते हुए उससे कहा, “भिक्षु, ये जो ब्रह्मकायिक देवता हैं न, उन्हें लगता हैं कि — “ऐसा कुछ नहीं जो मैं ‘ब्रह्मा’ नहीं जानता! ऐसा कुछ नहीं जो मैं ‘ब्रह्मा’ नहीं देखता! ऐसा कुछ नहीं जो मैं ‘ब्रह्मा’ नहीं समझता! ऐसा कुछ नहीं जिसका मैं ‘ब्रह्मा’ ने साक्षात्कार न किया हो!” इसलिए मैंने उनके आगे उत्तर नहीं दिया। किन्तु, भिक्षु, यह तो मैं भी नहीं जानता हूँ कि ‘ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?’ इसलिए, भिक्षु, यह तुम्हारी ही गलती है, तुम्हारा ही अपराध है, जो तुमने भगवान को पीछे छोड़ कर, प्रश्न का उत्तर बाहर ढूँढते हुए, इधर-उधर घूम रहे हो! जाओ, भिक्षु, उस भगवान के पास जाओ, और भगवान से यह प्रश्न पुछो! और जैसे भगवान उत्तर दे, उसी तरह धारण करो!”
तब, केवट्ट, जैसे कोई बलवान पुरुष अपनी सिकोड़ी बाँह को पसारता है, या पसारी बाँह को सिकोड़ता है, उसी तरह वह भिक्षु ब्रह्मलोक से गायब हुआ और मेरे आगे प्रकट हुआ। तब उस भिक्षु ने मुझे अभिवादन किया और एक ओर बैठ गया। एक ओर बैठकर उस भिक्षु ने मुझे कहा, “भंते, ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे, कहाँ खत्म होते हैं?”
ऐसा कहा जाने पर मैंने उस भिक्षु से कहा, “बहुत समय पूर्व, भिक्षु, कुछ समुद्रयात्री व्यापारी किनारा ढूँढने वाले एक पक्षी को साथ ले, नाँव पर सवार होकर गहरे समुद्र के बीच से गए। जब उन्हें नाँव से किनारा नहीं दिखता था, तब वे किनारा ढूँढने वाले उस पक्षी को छोड़ते थे। वह पक्षी पूर्व-दिशा में उड़ता; कभी दक्षिण-दिशा में उड़ता; कभी पश्चिम-दिशा में उड़ता; कभी उत्तर-दिशा में उड़ता; कभी सीधा ऊपर उड़ता; कभी आड़ा-तिरछा उड़ता। जब उसे किसी दिशा में किनारा दिखता, तो वह उस दिशा में उड़कर चला जाता। यदि उसे किसी भी दिशा में किनारा न दिखता, तो वह लौटकर नाँव पर आ जाता। उसी तरह, भिक्षु, तुम अपने प्रश्न का उत्तर ढूँढते हुए ब्रह्मलोक तक चले गए, और वहाँ भी प्रश्न का उत्तर न पाकर, मेरे आगे यही लौटकर आ आए।
और, भिक्षु, इस प्रश्न को इस तरह नहीं पूछा जाना चाहिए कि ‘ये चारों महाभूत — पृथ्वीधातु, जलधातु, अग्निधातु और वायुधातु — बिना शेष रहे [=अशेष], कहाँ खत्म होते हैं?’ बल्कि उसे इस तरह पूछा जाना चाहिए —
और उसका उत्तर है —
भगवान ने ऐसा कहा। 1 हर्षित होकर गृहस्थ केवट्ट ने भगवान की बातों का अभिनंदन किया।
विञ्ञाणं अनिदस्सनं — इस शब्द का पालि साहित्य में कहीं भी स्पष्ट विवरण नहीं दिया गया है। “अनिदस्सनं” को संयुत्तनिकाय ४३ में ‘निर्वाण’ का पर्यायवाचक शब्द बताया गया है। यह संभवतः संयुत्तनिकाय १२:६४ में उल्लेख हुई प्रकाश की किरण से संबंधित है, जो किसी भी सतह पर जाकर ठहरती नहीं है, टकराती नहीं है, या स्थापित नहीं होती। यह उस चैतन्य का प्रतीक है, जो कहीं भी “आहार” नहीं लेता। मज्झिमनिकाय ४९ में कहा गया है कि इस चैतन्य अनिदर्शन को “सब की संपूर्णता से भी अनुभव नहीं किया जा सकता।” वहाँ “सब” का अर्थ है छह भीतरी और छह बाहरी इंद्रिय आयाम। (संयुत्तनिकाय ३५:२३ देखें।)
याद रखें, यह उस चैतन्य से भिन्न है जो पटिच्चसमुप्पाद में शामिल है और जिसे छह इंद्रिय आयामों में परिभाषित किया गया है। और जो चैतन्य ‘झान’ और ‘अरूप समाधि’ में होता हैं, उनसे परे है। इस तरह का चैतन्य स्थान और काल से परे है, जिसे चैतन्य स्कन्ध में शामिल नहीं किया जा सकता। क्योंकि ‘चैतन्य स्कन्ध’ सभी प्रकार के चैतन्य को — चाहे वह समीप हो या दूर, भूतकालीन हो, वर्तमान हो, या भविष्यकालीन — समेटे हुए है। लेकिन, यह चैतन्य एक ऐसी अवस्था है, जहाँ “यहाँ,” “वहाँ,” या “बीच में” कुछ भी नहीं है (उदान १:१० देखें); जहाँ न कोई आना है, न जाना है, न ही ठहरना है (उदान ८:१ देखें)। इसका अर्थ है कि इसे “शाश्वत” या “सर्वव्यापी” नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये शब्द केवल काल और स्थान के संदर्भ में ही अर्थ रखते हैं।
निर्वाण के पश्चात की अवस्था का वर्णन करते हुए यह विवरण आता है, “जो कुछ भी महसूस किया गया, जब उसका आस्वादन नहीं किया जाता, तो वह यहीं ठंडा पड़ जाता है।” (मज्झिमनिकाय १४० और इतिवुत्तक ४४ देखें।) चूँकि “सब” का अर्थ इंद्रिय आयामों से है, इसलिए तब प्रश्न उठता है कि क्या “विञ्ञाणं अनिदस्सनं” उस “सब” की परिभाषा में अंतर्निहित है? लेकिन, अङ्गुत्तरनिकाय ४:१७३ में चेतावनी दी गई है कि छह इंद्रियायतनों के अवशेषरहित समाप्त हो जाने के पश्चात “कुछ शेष है या नहीं” जैसी किसी अटकल का अर्थ होगा “अविषय को विषय बनाना।” यह प्रक्रिया “अविषय” की उपलब्धि के मार्ग में बाधा बनती है। अतः यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसे बेहतर होगा कि पूरी तरह छोड़ दिया जाए। ↩︎
केवट्टगहपतिपुत्तवत्थु
४८१. एवं मे सुतं – एकं समयं भगवा नाळन्दायं विहरति पावारिकम्बवने। अथ खो केवट्टो गहपतिपुत्तो येन भगवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा भगवन्तं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि। एकमन्तं निसिन्नो खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘अयं, भन्ते, नाळन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना। साधु, भन्ते, भगवा एकं भिक्खुं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा, इद्धिपाटिहारियं करिस्सति; एवायं नाळन्दा भिय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती’’ति। एवं वुत्ते, भगवा केवट्टं गहपतिपुत्तं एतदवोच – ‘‘न खो अहं, केवट्ट, भिक्खूनं एवं धम्मं देसेमि – एथ तुम्हे, भिक्खवे, गिहीनं ओदातवसनानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोथा’’ति।
४८२. दुतियम्पि खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘नाहं, भन्ते, भगवन्तं धंसेमि; अपि च, एवं वदामि – ‘अयं, भन्ते, नाळन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना। साधु, भन्ते, भगवा एकं भिक्खुं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति; एवायं नाळन्दा भिय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती’’’ति। दुतियम्पि खो भगवा केवट्टं गहपतिपुत्तं एतदवोच – ‘‘न खो अहं, केवट्ट, भिक्खूनं एवं धम्मं देसेमि – एथ तुम्हे, भिक्खवे, गिहीनं ओदातवसनानं उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करोथा’’’ति।
ततियम्पि खो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवन्तं एतदवोच – ‘‘नाहं, भन्ते, भगवन्तं धंसेमि; अपि च, एवं वदामि – ‘अयं, भन्ते, नाळन्दा इद्धा चेव फीता च बहुजना आकिण्णमनुस्सा भगवति अभिप्पसन्ना। साधु, भन्ते, भगवा एकं भिक्खुं समादिसतु, यो उत्तरिमनुस्सधम्मा इद्धिपाटिहारियं करिस्सति। एवायं नाळन्दा भिय्योसो मत्ताय भगवति अभिप्पसीदिस्सती’ति।
इद्धिपाटिहारियं
४८३. ‘‘तीणि खो इमानि, केवट्ट, पाटिहारियानि मया सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदितानि। कतमानि तीणि? इद्धिपाटिहारियं, आदेसनापाटिहारियं, अनुसासनीपाटिहारियं।
४८४. ‘‘कतमञ्च, केवट्ट, इद्धिपाटिहारियं? इध, केवट्ट, भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति। एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति; आविभावं तिरोभावं तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानो गच्छति सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोति सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छति सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमति सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसति परिमज्जति; याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेति।
‘‘तमेनं अञ्ञतरो सद्धो पसन्नो पस्सति तं भिक्खुं अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्तं – एकोपि हुत्वा बहुधा होन्तं, बहुधापि हुत्वा एको होन्तं; आविभावं तिरोभावं; तिरोकुट्टं तिरोपाकारं तिरोपब्बतं असज्जमानं गच्छन्तं सेय्यथापि आकासे; पथवियापि उम्मुज्जनिमुज्जं करोन्तं सेय्यथापि उदके; उदकेपि अभिज्जमाने गच्छन्तं सेय्यथापि पथवियं; आकासेपि पल्लङ्केन कमन्तं सेय्यथापि पक्खी सकुणो; इमेपि चन्दिमसूरिये एवं महिद्धिके एवं महानुभावे पाणिना परामसन्तं परिमज्जन्तं याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्तं।
‘‘तमेनं सो सद्धो पसन्नो अञ्ञतरस्स अस्सद्धस्स अप्पसन्नस्स आरोचेति – ‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता। अमाहं भिक्खुं अद्दसं अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोन्तं – एकोपि हुत्वा बहुधा होन्तं, बहुधापि हुत्वा एको होन्तं…पे॰… याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेन्त’न्ति।
‘‘तमेनं सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्य – ‘अत्थि खो, भो, गन्धारी नाम विज्जा। ताय सो भिक्खु अनेकविहितं इद्धिविधं पच्चनुभोति – एकोपि हुत्वा बहुधा होति, बहुधापि हुत्वा एको होति…पे॰… याव ब्रह्मलोकापि कायेन वसं वत्तेती’ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, केवट्ट, अपि नु सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्या’’ति? ‘‘वदेय्य, भन्ते’’ति। ‘‘इमं खो अहं, केवट्ट, इद्धिपाटिहारिये आदीनवं सम्पस्समानो इद्धिपाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि’’।
आदेसनापाटिहारियं
४८५. ‘‘कतमञ्च, केवट्ट, आदेसनापाटिहारियं? इध, केवट्ट, भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसति, चेतसिकम्पि आदिसति, वितक्कितम्पि आदिसति, विचारितम्पि आदिसति – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’न्ति।
‘‘तमेनं अञ्ञतरो सद्धो पसन्नो पस्सति तं भिक्खुं परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसन्तं, चेतसिकम्पि आदिसन्तं, वितक्कितम्पि आदिसन्तं, विचारितम्पि आदिसन्तं – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’न्ति। तमेनं सो सद्धो पसन्नो अञ्ञतरस्स अस्सद्धस्स अप्पसन्नस्स आरोचेति – ‘अच्छरियं वत, भो, अब्भुतं वत, भो, समणस्स महिद्धिकता महानुभावता। अमाहं भिक्खुं अद्दसं परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसन्तं, चेतसिकम्पि आदिसन्तं, वितक्कितम्पि आदिसन्तं, विचारितम्पि आदिसन्तं – ‘‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’’’न्ति।
‘‘तमेनं सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्य – ‘अत्थि खो, भो, मणिका नाम विज्जा; ताय सो भिक्खु परसत्तानं परपुग्गलानं चित्तम्पि आदिसति, चेतसिकम्पि आदिसति, वितक्कितम्पि आदिसति, विचारितम्पि आदिसति – ‘एवम्पि ते मनो, इत्थम्पि ते मनो, इतिपि ते चित्त’’’न्ति।
‘‘तं किं मञ्ञसि, केवट्ट, अपि नु सो अस्सद्धो अप्पसन्नो तं सद्धं पसन्नं एवं वदेय्या’’ति? ‘‘वदेय्य, भन्ते’’ति। ‘‘इमं खो अहं, केवट्ट, आदेसनापाटिहारिये आदीनवं सम्पस्समानो आदेसनापाटिहारियेन अट्टीयामि हरायामि जिगुच्छामि’’।
अनुसासनीपाटिहारियं
४८६. ‘‘कतमञ्च, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं? इध, केवट्ट, भिक्खु एवमनुसासति – ‘एवं वितक्केथ, मा एवं वितक्कयित्थ, एवं मनसिकरोथ, मा एवं मनसाकत्थ, इदं पजहथ, इदं उपसम्पज्ज विहरथा’ति। इदं वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं।
‘‘पुन चपरं, केवट्ट, इध तथागतो लोके उप्पज्जति अरहं सम्मासम्बुद्धो …पे॰… (यथा १९०-२१२ अनुच्छेदेसु एवं वित्थारेतब्बं)। एवं खो, केवट्ट, भिक्खु सीलसम्पन्नो होति…पे॰… पठमं झानं उपसम्पज्ज विहरति। इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं…पे॰… दुतियं झानं…पे॰… ततियं झानं…पे॰… चतुत्थं झानं उपसम्पज्ज विहरति। इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं…पे॰… ञाणदस्सनाय चित्तं अभिनीहरति अभिनिन्नामेति…पे॰… इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं…पे॰… नापरं इत्थत्तायाति पजानाति…पे॰… इदम्पि वुच्चति, केवट्ट, अनुसासनीपाटिहारियं।
‘‘इमानि खो, केवट्ट, तीणि पाटिहारियानि मया सयं अभिञ्ञा सच्छिकत्वा पवेदितानि’’।
भूतनिरोधेसकभिक्खुवत्थु
४८७. ‘‘भूतपुब्बं, केवट्ट, इमस्मिञ्ञेव भिक्खुसङ्घे अञ्ञतरस्स भिक्खुनो एवं चेतसो परिवितक्को उदपादि – ‘कत्थ नु खो इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति?
४८८. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु तथारूपं समाधिं समापज्जि, यथासमाहिते चित्ते देवयानियो मग्गो पातुरहोसि। अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन चातुमहाराजिका देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चातुमहाराजिके देवे एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति?
‘‘एवं वुत्ते, केवट्ट, चातुमहाराजिका देवा तं भिक्खुं एतदवोचुं – ‘मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति [वायोधातु। अत्थि खो (पी॰ एवमुपरिपि)]। अत्थि खो [वायोधातु। अत्थि खो (पी॰ एवमुपरिपि)], भिक्खु, चत्तारो महाराजानो अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च। ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति।
४८९. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन चत्तारो महाराजानो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा चत्तारो महाराजे एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, चत्तारो महाराजानो तं भिक्खुं एतदवोचुं – ‘मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु, आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। अत्थि खो, भिक्खु, तावतिंसा नाम देवा अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च। ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति।
४९०. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन तावतिंसा देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तावतिंसे देवे एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, तावतिंसा देवा तं भिक्खुं एतदवोचुं – ‘मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। अत्थि खो, भिक्खु, सक्को नाम देवानमिन्दो अम्हेहि अभिक्कन्ततरो च पणीततरो च। सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति।
४९१. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन सक्को देवानमिन्दो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा सक्कं देवानमिन्दं एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, सक्को देवानमिन्दो तं भिक्खुं एतदवोच – ‘अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। अत्थि खो, भिक्खु, यामा नाम देवा…पे॰… सुयामो नाम देवपुत्तो… तुसिता नाम देवा… सन्तुस्सितो नाम देवपुत्तो… निम्मानरती नाम देवा … सुनिम्मितो नाम देवपुत्तो… परनिम्मितवसवत्ती नाम देवा… वसवत्ती नाम देवपुत्तो अम्हेहि अभिक्कन्ततरो च पणीततरो च। सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति।
४९२. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन वसवत्ती देवपुत्तो तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा वसवत्तिं देवपुत्तं एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, वसवत्ती देवपुत्तो तं भिक्खुं एतदवोच – ‘अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। अत्थि खो, भिक्खु, ब्रह्मकायिका नाम देवा अम्हेहि अभिक्कन्ततरा च पणीततरा च। ते खो एतं जानेय्युं, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति।
४९३. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु तथारूपं समाधिं समापज्जि, यथासमाहिते चित्ते ब्रह्मयानियो मग्गो पातुरहोसि। अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन ब्रह्मकायिका देवा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा ब्रह्मकायिके देवे एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, ब्रह्मकायिका देवा तं भिक्खुं एतदवोचुं – ‘मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। अत्थि खो, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यानं अम्हेहि अभिक्कन्ततरो च पणीततरो च। सो खो एतं जानेय्य, यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’’ति।
‘‘‘कहं पनावुसो, एतरहि सो महाब्रह्मा’ति? ‘मयम्पि खो, भिक्खु, न जानाम, यत्थ वा ब्रह्मा येन वा ब्रह्मा यहिं वा ब्रह्मा; अपि च, भिक्खु, यथा निमित्ता दिस्सन्ति, आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवति, ब्रह्मा पातुभविस्सति, ब्रह्मुनो हेतं पुब्बनिमित्तं पातुभावाय, यदिदं आलोको सञ्जायति, ओभासो पातुभवती’ति। अथ खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा नचिरस्सेव पातुरहोसि।
४९४. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु येन सो महाब्रह्मा तेनुपसङ्कमि; उपसङ्कमित्वा तं महाब्रह्मानं एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’’ति? एवं वुत्ते, केवट्ट, सो महाब्रह्मा तं भिक्खुं एतदवोच – ‘अहमस्मि, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान’न्ति।
‘‘दुतियम्पि खो सो, केवट्ट, भिक्खु तं महाब्रह्मानं एतदवोच – ‘न खोहं तं, आवुसो, एवं पुच्छामि – ‘‘त्वमसि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान’’न्ति। एवञ्च खो अहं तं, आवुसो, पुच्छामि – ‘‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’’’ति?
‘‘दुतियम्पि खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा तं भिक्खुं एतदवोच – ‘अहमस्मि, भिक्खु, ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान’न्ति। ततियम्पि खो सो, केवट्ट, भिक्खु तं महाब्रह्मानं एतदवोच – ‘न खोहं तं, आवुसो, एवं पुच्छामि – ‘‘त्वमसि ब्रह्मा महाब्रह्मा अभिभू अनभिभूतो अञ्ञदत्थुदसो वसवत्ती इस्सरो कत्ता निम्माता सेट्ठो सजिता वसी पिता भूतभब्यान’’न्ति। एवञ्च खो अहं तं, आवुसो, पुच्छामि – ‘‘कत्थ नु खो, आवुसो, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’’’ति?
४९५. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, महाब्रह्मा तं भिक्खुं बाहायं गहेत्वा एकमन्तं अपनेत्वा तं भिक्खुं एतदवोच – ‘इमे खो मं, भिक्खु, ब्रह्मकायिका देवा एवं जानन्ति, ‘‘नत्थि किञ्चि ब्रह्मुनो अञ्ञातं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मुनो अदिट्ठं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मुनो अविदितं, नत्थि किञ्चि ब्रह्मुनो असच्छिकत’’न्ति। तस्माहं तेसं सम्मुखा न ब्याकासिं। अहम्पि खो, भिक्खु, न जानामि यत्थिमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातूति। तस्मातिह, भिक्खु, तुय्हेवेतं दुक्कटं, तुय्हेवेतं अपरद्धं, यं त्वं तं भगवन्तं अतिधावित्वा बहिद्धा परियेट्ठिं आपज्जसि इमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणाय। गच्छ त्वं, भिक्खु, तमेव भगवन्तं उपसङ्कमित्वा इमं पञ्हं पुच्छ, यथा च ते भगवा ब्याकरोति, तथा नं धारेय्यासी’ति।
४९६. ‘‘अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु – सेय्यथापि नाम बलवा पुरिसो समिञ्जितं वा बाहं पसारेय्य, पसारितं वा बाहं समिञ्जेय्य एवमेव ब्रह्मलोके अन्तरहितो मम पुरतो पातुरहोसि। अथ खो सो, केवट्ट, भिक्खु मं अभिवादेत्वा एकमन्तं निसीदि, एकमन्तं निसिन्नो खो, केवट्ट, सो भिक्खु मं एतदवोच – ‘कत्थ नु खो, भन्ते, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति?
तीरदस्सिसकुणुपमा
४९७. ‘‘एवं वुत्ते, अहं, केवट्ट, तं भिक्खुं एतदवोचं – ‘भूतपुब्बं, भिक्खु, सामुद्दिका वाणिजा तीरदस्सिं सकुणं गहेत्वा नावाय समुद्दं अज्झोगाहन्ति। ते अतीरदक्खिनिया नावाय तीरदस्सिं सकुणं मुञ्चन्ति। सो गच्छतेव पुरत्थिमं दिसं, गच्छति दक्खिणं दिसं, गच्छति पच्छिमं दिसं, गच्छति उत्तरं दिसं, गच्छति उद्धं दिसं, गच्छति अनुदिसं। सचे सो समन्ता तीरं पस्सति, तथागतकोव [तथापक्कन्तोव (स्या॰)] होति। सचे पन सो समन्ता तीरं न पस्सति, तमेव नावं पच्चागच्छति। एवमेव खो त्वं, भिक्खु, यतो याव ब्रह्मलोका परियेसमानो इमस्स पञ्हस्स वेय्याकरणं नाज्झगा, अथ ममञ्ञेव सन्तिके पच्चागतो। न खो एसो, भिक्खु, पञ्हो एवं पुच्छितब्बो – ‘कत्थ नु खो, भन्ते, इमे चत्तारो महाभूता अपरिसेसा निरुज्झन्ति, सेय्यथिदं – पथवीधातु आपोधातु तेजोधातु वायोधातू’ति?
४९८. ‘‘एवञ्च खो एसो, भिक्खु, पञ्हो पुच्छितब्बो –
‘कत्थ आपो च पथवी, तेजो वायो न गाधति।
कत्थ दीघञ्च रस्सञ्च, अणुं थूलं सुभासुभं।
कत्थ नामञ्च रूपञ्च, असेसं उपरुज्झती’ति॥
४९९. ‘‘तत्र वेय्याकरणं भवति –
‘विञ्ञाणं अनिदस्सनं, अनन्तं सब्बतोपभं।
एत्थ आपो च पथवी, तेजो वायो न गाधति॥
एत्थ दीघञ्च रस्सञ्च, अणुं थूलं सुभासुभं।
एत्थ नामञ्च रूपञ्च, असेसं उपरुज्झति।
विञ्ञाणस्स निरोधेन, एत्थेतं उपरुज्झती’ति॥
५००. इदमवोच भगवा। अत्तमनो केवट्टो गहपतिपुत्तो भगवतो भासितं अभिनन्दीति।
केवट्टसुत्तं निट्ठितं एकादसमं।